जैनाचार का प्रमुख उद्देश्य अनादिकालीन राग-द्वेषादिक विकारों का समूल उच्छेदकर आत्मा की शुद्ध-बुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। इसलिए श्रावक अपने ‘श्रावक-धर्म’ संबंधी नियमों का पालन करता हुआ साधुत्व की ओर कदम बढ़ाता है।
जो अपनी आत्मा की उपलब्धि के लिए सतत साधनारत रहता है, वह साधु है। जैन दर्शन में साधु को मुनि, ऋषि, यति, अनगार, श्रमण, संयत, महाव्रती, अचेलक, दिगम्बर, भदन्त, दान्त आदि अनेक नामों से जाना जाता है। वे जिनागम में वर्णित मूल गुणों का पालन करते हैं।
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आचार्य, उपाध्याय, साधु इन तीनों में सर्वप्रथम अट्ठाईस मूलगुण होना परम आवश्यक है। जैसे मूल के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, वैसे ही मूलगुणों के बिना मुनि नहीं हो सकते। आइये देखते हैं इन मूलगुणों का वर्णन-
मुनियों के प्रधान आचरण को मूलगुण कहते हैं। ‘मूल’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। फिर भी यहाँ मूल का प्रधान-मुख्य ऐसा अर्थ लिया गया है। ‘गुण’ शब्द के भी अनेक अर्थ हैं फिर भी यहाँ ‘आचरण विशेष’ ऐसा अर्थ लिया है। ये मूलगुण इस लोक और परलोक में हित करने वाले हैं। इस लोक में सर्वजनमान्यता गुरुपना और सभी जनों के साथ मैत्रीभाव आदि गुण होते हैं और परलोक में देवों का ऐश्वर्य, तीर्थंकरपद, चक्रवर्तिपद आदि प्राप्त होते हैं और परम्परा से यह आत्मा सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाता है। इन मूलगुणों के बिना आज तक किसी को शुक्लध्यान की सिद्धि नहीं हुई है और शुक्लध्यान के बिना मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि ये मूलगुण वृक्ष की मूल-जड़ या बीज के समान ही मोक्ष के लिए मूलकारण हैं और तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट होने से प्रामाणिक हैं।
मूलगुण अट्ठाईस हैं-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, षट् आवश्यक तथा लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त।
मुख्यव्रतों को महाव्रत कहते हैं। ‘महान् शब्द का अर्थ प्रधान है और व्रत शब्द, सावद्यनिवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण में आता है अर्थात् मोक्ष के लिए जो हिंसादि पापों का त्याग किया जाता है, उसे ही व्रत कहते हैं। तीर्थंकर आदि महान् पुरुषों के द्वारा इनका अनुष्ठान किया जाता है। इसलिए भी इन्हें महाव्रत कहते हैं।’ अथवा महान् पुरुषार्थ जो मोक्ष उसकी प्राप्ति में ये स्वत: ही हेतु होते हैं इसलिए महाव्रत कहलाते हैं।
१. अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस इन षट्कायिक जीवों की िंहसा का मन-वचन-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत में सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह का त्याग हो जाता है।
२. सत्यमहाव्रत-राग, द्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से युक्त असत्य वचनों का त्याग कर देना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात हो जावे, वह सत्यमहाव्रत है।
३. अचौर्यमहाव्रत-ग्राम, शहर आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के द्वारा बिना दी गई ऐसी योग्य वस्तु को भी नहीं लेना सो अचौर्यमहाव्रत है।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-राग भाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना। बालिका, युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना यह त्रैलोक्य पूज्य ब्रह्मचर्य व्रत है।
५. अपरिग्रह महाव्रत-धन, धान्य आदि दस प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्व, वेद आदि चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग कर देना, वस्त्राभूषण अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना, लंगोटी मात्र भी नहीं रखना, सो अपरिग्रहमहाव्रत है।
आगम के कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सं-सम्यक् इति प्रवृत्ति करना समिति हैं। ये समितियाँ व्रतों की रक्षा करने में वृत्ति-बाड़ के समान हैं। इनके भी पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।
(१) ईर्या समिति-निर्जंतुकमार्ग से सूर्योदय के प्रकाश में चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्तपूर्वक तीर्थयात्रा, गुरुवंदना आदि धर्म कार्यों के लिए गमन करना ईर्या समिति है।
(२) भाषासमिति-चुगली, हंसी, कर्कस, परनिंदा आदि से रहित हित-मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है।
(३) एषणा समिति-छ्यालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक, निर्दोष, पवित्र आहार लेना एषणासमिति है।
(४) आदाननिक्षेपणसमिति-पुस्तक, कमण्डलु आदि को रखते या उठाते समय कोमल मयूर पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना उठाना, तृण, घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना सो आदाननिक्षेपणसमिति है।
(५) उत्सर्गसमिति-हरी घास से रहित, चिंवटी आदि से या उनके बिलों से रहित प्रासुक और एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापनसमिति है।
स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इंद्रियों को वश में रखना, इनको शुभध्यान में लगा देना पंचेन्द्रिय निरोध होता है। इसके भी पाँचों इंद्रियों की अपेक्षा पाँच भेद हो जाते हैं।
(१) स्पर्शन इंद्रिय निरोध-सुखदायक, कोमल, स्पर्शादि में या कठोर कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनंद या खेद नहीं करना।
(२) रसनेन्द्रिय निरोध-सरस, मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन म्ों हर्ष-विषाद नहीं करना।
(३) घ्राणेन्द्रिय निरोध-सुगंधित पदार्थ में या दुर्गंधित वस्तु में राग-द्वेष नहीं करना।
(४) चक्षु इन्द्रिय निरोध-स्त्रियों के सुन्दररूप या विकृत वेष आदि में रागभाव और द्वेषभाव नहीं करना।
(५) कर्णेन्द्रिय निरोध-सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर-निंदा गाली आदि के वचनों में हर्ष विषाद नहीं करना। यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो, तो उसे रागभाव से नहीं सुनना।
जो अवश्य-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है वह आवश्यक कहलाता है। उसके छह भेद हैं-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
(१) समता-‘‘जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख आदि में हर्ष विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसे ही सामायिक कहते हैं। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिकव्रत है।’’ प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त-४८ मिनट तक सामायिक करना होता है।
(२) स्तुति-वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तव नाम का आवश्यक है।
(३) वंदना-अर्हंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमाओं को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
(४) प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतीचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके ऐर्यापथिक, दैवसिक आदि सात भेद हैं।
(५) प्रत्याख्यान-मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनन्तर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है।
‘‘अतीतकाल के दोष का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमानकाल में द्रव्यादि दोष का परिहार करना प्रत्याख्यान है। यही इन दोनों में अन्तर है। तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है। किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के निराकरण हेतु ही है।’’
(६) कायोत्सर्ग-दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग अर्थात् काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
(१) लोंच-हाथों से अपने शिर, दाढ़ी और मूँछ के बाल उखाड़ना, केशलोंच मूलगुण हैं।
(२) अचेलकत्व-सूती, रेशमी आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेष धारण करना अचेलकत्व है। यह जितेन्द्रिय महान् पुरुषों के द्वारा स्वीकार किया जाने से तीनों जगत् में वंदनीय महान् पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं। अत: निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है।
(३) अस्नानव्रत-स्नान, उबटन आदि का त्याग करना अस्नानव्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को भी धो डालते हैं। चांडाल आदि अस्पृश्य जन का अथवा विष्ठा, हड्डी, चर्म आदि का स्पर्श हो जाने से मुनि दंडस्नान करके गुरु से प्रायश्चित्त भी ग्रहण करते हैं।
(४) क्षितिशयन-निर्जंतुक भूमि में घास, पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमिशयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से थककर स्वल्प निद्रा लेना होता है।
(५) अदंतधावन-दंत मंजन नहीं करना अदंतधावन व्रत है। दांतों को नहीं घिसने से इंद्रिय संयम होता है, शरीर से विरागता प्रगट होती है और सर्वज्ञदेव की आज्ञा का पालन होता है।
(६) स्थितिभोजन-पांवों को चार अंगुल अन्तराल से रखकर एक स्थान में खड़े होकर दोनों हाथों की अंजुली बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थितिभोजन व्रत है।
(७) एकभक्त-एक बेला में आहार लेना-सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल को छोड़कर एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त है।
इस प्रकार दिगम्बर जैन साधु इन ५±५±५±६±७·२८मूलगुणों का पालन करते हुए इस जगत् में सर्वत्र पूज्य होते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त करने वाले होते हैं।
आचेलक्य, लोंच, शरीर संस्कार हीनता और मयूरपिच्छिका मुनियों के ये चार चिन्ह माने हैं।’’
आचेलक्य-चेल-वस्त्रादि परिग्रह का त्याग करना। यहाँ चेल शब्द उपलक्षण मात्र है अत: वस्त्र के साथ, खेत, घर, धन, धान्यादि सम्पूर्ण परिग्रहों का त्याग करना विवक्षित है। यह नग्नता ही निर्गं्रथता है और यह उत्सर्ग लिंग है।
निर्ग्रंथ अवस्था धारण किये बिना मुक्ति असंभव है। वस्त्र, चर्म, वल्कल, पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण आभरण आदि धारण नहीं करना ही अचलेकता है। यह अचेलकत्व व्रत जगत् में पूज्य है और अट्ठाईस मूलगुणों में एक मूलगुण है।
लोंच-स्नान और केशों का संस्कार आदि न करने से उसमें जूँ आदि उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी और मूँछ के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। यह प्रदक्षिणावर्तरूप से अर्थात् दाहिने बाजू से आरंभ कर बायें तरफ आवर्त से किया जाता है। ‘दो मास के अनन्तर अथवा पूरे दो मास होने पर लोंच करना उत्कृष्ट है। तीन मास के बीत जाने पर अथवा पूरे नहीं भी होने पर अथवा पूरे तीन मास होने पर केशलोंच करना मध्यम है। चार मास पूर्ण होने पर अथवा अपूर्ण रहने पर लोंच करना जघन्य है किन्तु चार महीने के ऊपर नहीं होना चाहिए।’’
उपवासपूर्वक ही लोंच करना होता है। पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण के दिन ही लोंच करना चाहिए अथवा बिना प्रतिक्रमण के दिन भी लोंच किया जा सकता है। पुन: लोंच करके प्रतिक्रमण करना चाहिए।’ दैन्यवृत्ति, याचना, परिग्रह और तिरस्कार आदि दोषों से बचने के लिए ही यह केशलोंच क्रिया है। यह भी एक मूलगुण है। ‘लोंच के समय मौन रखना चाहिए।’
व्युत्सृष्टशरीरता-शरीर से ममत्व का त्याग करना। इसमें मुनिगण जलस्नान, शरीर को उबटन, तैल आदि लगाकर अभ्यंग स्नान, नखों का, केशों का, दाढ़ी मूँछों का संस्कार, दंत, ओष्ठ आदि का, संस्कार नहीं करते हैं। सुगंधित कस्तूरी आदि से, पुष्प माला आदि से शरीर को नहीं सजाते हैं। इस प्रकार शरीर संस्कार स्नान आदि नहीं करने पर वे मुनि अत्यंत रुक्ष, मलिन शरीर के धारी होने पर भी ब्रह्मचर्य से पवित्र होने से पूज्य होते हैं। चूँकि अस्नान व्रत भी एक मूलगुण है।
जिससे प्रतिलेखन-शोधन या संमार्जन किया जाये, वह प्रतिलेखन है। यहाँ मयूर के पंखों की पिच्छिका को प्रतिलेखन कहते हैं।
कार्तिक मास में स्वयं ही मयूर अपने पंखों को छोड़ देते हैं उन्हें ही ग्रहण कर यह बनाई जाती है।दीक्षा के समय आचार्य इस संयम के उपकरणरूप पिच्छिका को जीवदया पालन हेतु शिष्यों को देते हैं।
आजकल कार्तिक मास में संघ में ये पिच्छिकाएं प्राय: आर्यिकाओं द्वारा बनाई जाती हैं पुन: आचार्य चातुर्मास समाप्ति पर चतुर्विध संघ के समक्ष स्वयं नूतन पिच्छिका ग्रहण करके सभी शिष्यों को नूतन पिच्छिका देते हैं।
इसमें पाँच गुण होते हैं-धूलि को ग्रहण नहीं करना, पसीने से मलिन नहीं होना, मृदुता, सुकुमारता और लघुता।
यदि यह धूलि को ग्रहण करे तो इससे पसीने सहित का परिमार्जन नहीं बनेगा या सचित्त से अचित्त, अचित्त से सचित्त धूलि के परिमार्जन में दूषण आयेगा। यह पसीने को ग्रहण करे, तो पुन: पुस्तक आदि का परिमार्जन नहीं बनेगा। इसलिए धूलि और रज को ग्रहण न करने से सदैव सभी वस्तु का प्रतिलेखन बन जाता है। इसका स्पर्श बहुत ही कोमल है। नेत्र में घुमाने पर भी बाधा नहीं होती है। सुकुमार-नमन शील है झुक जाती है अन्यथा कठोर होने से इससे जीवों को बाधा हो सकती है और लघु है-हल्की है।
प्रतिलेखन का कार्य-‘‘ईर्यापथ से गमन करने में यदि त्रसजीव बहुत हैं, तो उन्हें पिच्छी से दूर किया जाता है। क्षेत्र या धूलि का रंग बदलने पर या धूप से छाया में और छाया से धूप में जाते समय साधु अपने सर्वांग को पिच्छी से परिमार्जित करके पैर की धूलि को पिच्छी से हटाकर आगे बढ़ते हैं। अथवा जल में प्रवेश करना हुआ तो पैर की धूलि झाड़कर जल में प्रवेश करते हैं।’’ मार्ग में गमन करते समय जल के आने पर घुटने तक जल में प्रवेश करने से एक कायोत्सर्ग करना होता है। यदि उससे अधिक जल होता है, तो उस जल की अधिक अधिक जल के प्रमाण से गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण करना होता है। इसी प्रकार पुस्तक, कमण्डलु आदि के ग्रहण करने में, रखने में, मल-मूत्रादि विसर्जन के स्थान में, खड़े होने में, बैठने में, सोने में, सीधे सोने में, करवट बदलने में, हाथ-पैर आदि पैâलाने में, उनके संकोचने में, शरीर आदि के स्पर्श करने में, अन्य भी किन्हीं कार्यों में साधु सावधान होते हुए अपनी पिच्छिका से परिमार्जन कर त्रस आदि जीवों की रक्षा करते हैं।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी भी कह रहे हैं-
‘जो द्वीन्द्रिय आदि सूक्ष्म प्राणी चर्म चक्षु से नहीं दिखते हैं। उनकी दया हेतु पिच्छी धारण की जाती है। मलमूत्र विसर्जन करना, रात्रि में सोया हुआ साधु जब उठकर बैठता है और पुन: सोता है, करवट बदलता है, हाथ पैर पैâलाता है इत्यादि कार्यों में यदि पिच्छी से परिमार्जन किये बिना ये क्रियाएँ करता है, तो नियम से जीव हिंसा होती है। नेत्र में घुमाने पर भी इससे पीड़ा न होने से यह प्रतिलेखन सूक्ष्म आदि गुणयुक्त लघु पिच्छिका ग्रहण करना चाहिए। खड़े होने में, चलने आदि क्रियाओं में, इस प्रतिलेखन से शोधन किया जाता है। इसलिए स्वपक्ष में जैन मुनियों के चिन्ह में यह एक विशेष चिन्ह है।’’
‘‘जो मुनि अपने पास पिच्छी नहीं रखते हैं, वे उपर्युक्त क्रियाओं में जीवों के घात से नहीं बच सकते हैं अत: उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अन्यत्र भी कहा है-‘‘कोई साधु बिना पिच्छी सात कदम गमन करे, तो एक कायोत्सर्ग से शुद्ध होता है। यदि एक कोश गमन करे, तो एक उपवास में शुद्ध होता है तथा आगे दूना-दूना प्रायश्चित्त है।’’
यह पिच्छी जिनमुद्रा का चिन्ह है, मुद्रा ही सर्वत्र मान्य होती है और मुद्रा रहित मनुष्य मान्य नहीं होता है।
साधु सामायिक वंदना, चतुर्विंशतिस्तव आदि के समय भगवान् को नमस्कार करते समय और गुरुओं को नमस्कार करते समय दोनों हाथों में पिच्छी को लेकर अंजुलि जोड़कर अर्थात् पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर वंदना आदि करते हैं।
इस प्रकार से पिच्छिका के गुण और कार्य बताये हैं। ये साधु स्वयं भी अपने हाथ से पिच्छी बना सकते हैं। अथवा श्रावकजन बनाकर प्रदान करते हैं। कहा भी है-
‘‘यदि स्वाध्याय, व्याख्यान आदि क्रियाओं को न छोड़कर अवकाश के समय साधु पुस्तक, पिच्छी आदि उपकरण बनाता है, तो प्रायश्चित्त नहीं है यदि क्रिया में बाधा करके बनावें, तो प्रायश्चित्त है।’’