२.१ सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की बहुलता के कारण साधुओं में जिन्हें प्रधान पद दिया जाता है और जो मुनि संघ के नायक होते हैं वे आचार्य कहलाते हैं। ये पांच प्रकार के आचार (दर्शन, ज्ञान चारित्र, तप और वीर्य) का स्वयं पालन करते हैं व अपने शिष्यों से भी करवाते हैं। ये कभी-कभी धर्मोपदेश देते हैं, योग्य श्रावकों को दीक्षा देते हैं और अपने दोषों को प्रकट करने वाले संघस्थ मुनि आदि को प्रायश्चित्त देकर विधिपूर्वक शुद्ध भी करते हैं।
इसी प्रकार जिनागम के ज्ञान में निष्णात उपाध्याय पद के धारी मुनि संघस्थ साधुओं को श्रुताभ्यास कराते हैं। इनके ११ अंग और १४ पूर्व इस प्रकार २५ मूलगुण होते हैं। विशेष बात यह है कि आचार्य परमेष्ठी एवं उपाध्याय परमेष्ठी, मुनियों के २८ मूलगुणों का पालन करने के साथ ही क्रमश: अपने-अपने ३६ व २५ मूलगुणों का पालन भी करते हैं।
आचार्यों के ३६ मूलगुण होते हैं-१२ तप, १० धर्म, ५ आचार (पंचाचार), ६ आवश्यक और ३ गुप्ति। इनका विवरण निम्न प्रकार है :-
‘इच्छानिरोधस्तपः’ अर्थात् इच्छाओं का निरोध करना तप है। तप का अर्थ है ‘‘तपाना’’। जिस प्रकार तपाने से सोने का मैल दूर होकर वह शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तप करने से आत्मा का कर्मरूपी मैल दूर होकर वह शुद्ध अवस्था को प्राप्त करती है। इस प्रकार तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। तप द्वारा मनरूपी हाथी पर नियंत्रण रखा जा सकता है। ये तप १२ होते हैं-६ बाह्य तप और ६ अभ्यन्तर तप।
छह: बाह्य तप-जो तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है और दूसरे को दिखाई दे वह बाह्य तप है। यह छः प्रकार का होता है-
१. अनशन-आन्तरिक बल की वद्धि के लिये अन्न-जल आदि सभी चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन (उपवास) तप है।
२. अवमौदर्य (ऊनोदर)-स्वाभाविक आहार अर्थात् सामान्य भूख से कम मात्रा में भोजन ग्रहण करना अवमौदर्य अथवा ऊनोदर तप है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-आहार हेतु जाते समय साधु का दातार, घर आदि के बारे में संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है। कितने घरों पर जाऊँगा, कितने दातारों से आहार लूंगा, आहार में क्या ग्रहण करूंगा आदि अनेक प्रकार के संकल्प करना इसमें सम्मिलित है।
४. रस परित्याग-भोजन के छः रसों (दूध, दही, घी, तेल, मीठा और नमक) का त्याग करना अथवा इनमें से एक या अधिक रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है।
५. विविक्त शय्यासन-राग-द्वेष आदि उत्पन्न करने वाले आसन या शय्या का त्याग करके एकान्त स्थान पर जो शय्या और आसन ग्रहण किया जाता है, वह विविक्त शय्यासन तप है।
६. काय क्लेश-शरीर को सुख मिलने की इच्छा का त्याग करना काय-क्लेश है। २२ परीषह (सर्दी, गर्मी आदि बाधाओं) का सहन करना भी इस तप में आता है।
अभ्यन्तर तप (६)-जो तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहींं रखता है वह अभ्यन्तर तप है। यह मन का नियमन करने वाला होता है। बाह्य तप की अपेक्षा अभ्यन्तर तप का फल विशेष होता है। यह ६ प्रकार का होता है-
१. प्रायश्चित्त-प्रमादवश मूलगुणों में जो दोष लग जाते हैं, उनके निराकरण हेतु गुरु से जो प्रायश्चित्त ले कर उपवास आदि किये जाते हैं वह प्रायश्चित्त तप है।
२. विनय-रत््नात्रय धारण करने वालों के प्रति नम्रता व विनय भाव रखना विनय तप है।
३. वैयावृत्त्य-गुणी जनों की जो सेवा-सुश्रूषा की जाती है वह वैयावृत्त्य तप कहलाता है।
४. स्वाध्याय-आत्म हित की भावना से सत्-शास्त्रों का वाचन, पठन, मनन करना, उपदेश करना स्वाध्याय है।
५. व्युत्सर्ग-अहंकार व ममकार का त्याग करना व्युत्सर्ग है। शरीर एवं अन्य समस्त वस्तुओं से ममत्व छोड़कर एक मुहूर्त, एक दिन या एक माह आदि अवधि के लिये आत्मस्थ रहना व्युत्सर्ग तप है।
६. ध्यान-चित्त की एकाग्रता का नाम ध्यान है।
तप से स्वतः ही ऋद्धियों की प्राप्ति होती है।
संयम व तप में अन्तर-संयम के अन्तर्गत इन्द्रियों व मन पर नियंत्रण तथा छः काय के जीवों का रक्षण किया जाता है जब कि तप के अन्तर्गत कषायों का शमन किया जाता है, इच्छाओं का दमन किया जाता है। दोनों के द्वारा संवर तथा निर्जरा होती है।
जो जीवों को संसार दुःखों से बचाकर मोक्ष में पहुँचावे, वह धर्म है। यह दस प्रकार का होता है-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य।
उत्तमक्षमा-शरीर की स्थिति के कारण आहार के लिए जाते हुए मुनि को दुष्टजन गाली देवें, उपहास करें, तिरस्कार करें, मारें-पीटें आदि तो भी मुनि के मन में कलुषता का न आना उत्तम क्षमा है।
उत्तम मार्दव-जाति आदि मदों के आवेशवश अभिमान न करना।
उत्तम आर्जव-मन, वचन, काय की कुटिलता को न करना।
उत्तम शौच-प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना।
उत्तम सत्य-साधु पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना।
उत्तम संयम-प्राणी की हिंसा और इन्द्रियों के विषयों का परिहार करना।
उत्तम तप-कर्मक्षय के लिए बारह प्रकार का तप करना।
उत्तम त्याग-संयम के योग्य ज्ञानादि का दान करना।
उत्तम आकिंचन्य-जो शरीर आदि है उनमें भी ‘यह मेरा है’ ऐसे अभिप्राय का त्याग करना।
उत्तम ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र का त्याग कर देना अथवा स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ये दश धर्म संवर के कारण माने गये हैं।
पाँच आचार-सम्यग्दर्शन आदि की निर्मलता के लिये जो प्रय्ात्न किया जाता है, वह आचार कहलाता है। यह ५ प्रकार का होता है-
१. दर्शनाचार-निःशंकित आदि ८ अंग युक्त तथा २५ दोष रहित सम्यग्दर्शन का पालन करना अर्थात् उस के अनुरूप आचरण करना दर्शनाचार है।
२. ज्ञानाचार-आठ अंग (काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय) से युक्त सम्यग्ज्ञान का अभ्यास करना ज्ञानाचार है।
३. चारित्राचार-५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्तिरूप १३ प्रकार के चारित्र का निर्दोष पालन करना चारित्राचार है।
४. तपाचार-१२ प्रकार के तपों को दोष रहित पालना तपाचार है।
५. वीर्याचार-अपनी शक्ति को न छुपाकर उत्साहपूर्वक उपसर्ग सहते हुए तप आदि करना वीर्याचार है।
प्रतिदिन अवश्य करने योग्य क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। ये ६ प्रकार की होती हंै-
१.सामायिक-सभी पर समता भाव रखना अथवा तीनों समय पंच नमस्कार करना सामायिक है। प्रतिदिन तीनों संध्याकालों (प्रात:, अपरान्ह और सायंकाल) में उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठकर न्यूनतम ४८ मिनट तक सामायिक की जाती है।
२. स्तवन (स्तुति)-२४ तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन करना स्तवन (स्तुति) है।
३. वन्दना-किसी एक तीर्थंकर का गुणगान करना वन्दना है।
४. प्रतिक्रमण-अपने द्वारा किये गये दोषों या भूलों के निवारण हेतु प्रायश्चित्त स्वरूप की जाने वाली क्रियाएँ प्रतिक्रमण है। इसमें मन-वचन-काय की शुद्धता के साथ अपनी निंदा की जाती है।
५.प्रत्याख्यान-भविष्य में दोष न होने देने के लिये सन््नाद्ध होना प्रत्याख्यान है।
६.कायोत्सर्ग-शरीर से ममत्व छोड़कर आत्म ध्यान में लीन होना कायोत्सर्ग है। यह खड़े होकर या बैठकर किया जाता है।
तीन गुप्ति-तीनों प्रकार के योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना अथवा मन-वचन-काय की स्वच्छन्द प्रवत्ति को रोकना गुप्ति है। संसार के कारण भूत राग आदि से जो रक्षा करे वह गुप्ति कहलाती है। जैसे खेत की रक्षा हेतु बाड़ और नगर की रक्षा हेतु कोट खाई होती है, वैसे ही साधु की पापों से रक्षा हेतु तीन गुप्तियां परम उपाय है। इनका विवरण निम्न प्रकार हैै-
१. मनोगुप्ति-मन को वश में करना और राग-द्वेष मोह आदि भावों का परिहार करना अर्थात् मन में बुरे संकल्पए विकल्प नहींं आने देना मनोगुप्ति है।
२. वचन गुप्ति-वाणी को वश में करना और आगम के अनुसार वचन बोलना वचन गुप्ति है।
३. काय गुप्ति-अपने शरीर को वश में करना अर्थात् शरीर द्वारा होने वाली पाप क्रियाओं का त्याग करना काय गुप्ति है।
साधुओं के २८ मूलगुणों की पालना आचार्य भी करते हैं।
जब आचार्य को ऐसा लगता है कि उनका शरीर शिथिल हो गया है और उनका अन्त सन्निकट है तो वे अपना पद अपने संघ के सुयोग्य शिष्य को सौंप देते हैं व स्वयं संघ में सामान्य मुनि की तरह रहते हैं।
जैन शास्त्रों के परम ज्ञाता होने के कारण जो पठन-पाठन के अधिकारी हैं, जो स्वयं शास्त्रों को पढ़ते हैं और अन्य साधुओं को पढ़ाते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। दीक्षा व प्रायश्चित्त आदि क्रियाओं को छोड़कर ये आचार्य के शेष गुणों से परिपूर्ण होते हैं। इन्हें ११ अंग और १४ पूर्वों का ज्ञान होने से ये ही इनके २५ विशेष गुण कहे गये हैं। शेष २८ मूलगुण आदि समान रूप से सभी साधुओं में पाये जाने के कारण सामान्य गुण हैं।
यद्यपि २५ गुणों से युक्त आज एक भी उपाध्याय परमेष्ठी नहींं हैं, फिर भी वे नाम-स्थापना से पूज्य हैं। अतः आचार्य की आज्ञानुसार जो संघ में पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करते हैं तथा उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित मुनिराज हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं।
जो अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं अथवा तेरह प्रकार का चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं में कुशल हैं। प्रमाद रहित आवश्यक क्रियाओं को करने वाले हैं अथवा चौंतिस प्रकार के उत्तर गुणों (बारह तप और बाईस परीषहों को चौंतिस उत्तर गुण कहते हैं।) को पालन करते हैं। अठारह हजार प्रकार शील के धारक, चौरासी लाख उत्तरगुणों के पालक साधु परमेष्ठी होते हैं।
साधुओं के अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन पूर्व में विस्तृत रूप से दिया जा चुका है।