सम के भाव को समता कहते हैं अर्थात् रागद्वेष का अभाव सो समाचार कहलाता है। अथवा त्रिकाल देववंदना या पंचनमस्काररूप परिणाम समता है या सामायिक व्रत समता है, इस प्रकार के आचार को समाचार कहते हैं। अथवा सम-सम्यक्-निरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान आचार सो समाचार है अथवा सभी में पूज्य या अभिप्रेत जो आचार है, वह समाचार है।
इस समाचार के दो भेद हैं-औघिक और पदविभागिक। सामान्य आचार को औघिक समाचार कहते हैं तथा सूर्योदय से प्रारंभ कर अहोरात्र में जितना आचार मुनियों के द्वारा किया जाता है, उसे पदविभागी समाचार कहते हैं।
१. इच्छाकार-सम्यग्दर्शन आदि इष्ट को हर्ष से स्वीकार करना।
२. मिथ्याकार-व्रतादि में अतिचारों के होने पर ‘मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे’ ऐसा कहकर उनसे दूर होना।
३. तथाकार-गुरु के मुख से सूत्रार्थ सुनकर ‘यही ठीक है’ ऐसा अनुराग व्यक्त करना तथाकार है।
४. आसिका-जिनमंदिर, वसतिका आदि से निकलते समय ‘असही’ शब्द से वहाँ के व्यंतर आदि से पूछ कर जाना।
५. निषेधिका-जिनमंदिर, वसतिका आदि में प्रवेश के समय ‘निसही’ शब्द से वहाँ के व्यंतरादि से पूछकर प्रवेश करना।
६. आपृच्छा-गुरु आदिकों से वंदनापूर्वक प्रश्न करना। आहार आदि के लिए जाते समय पूछना।
७. प्रतिपृच्छा-किसी बड़े कार्य के समय गुरु आदि से बार-बार पूछना।
८. छंदन-उपकरण आदि के ग्रहण करने में या वंदना आदि क्रियाओं में आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति रखना।
९. सनिमंत्रण-गुरु आदि से विनयपूर्वक पुस्तक आदि की याचना करना।
१०. उपसंपत्-गुरुजनों के लिए ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसा आत्मसमर्पण करना।
उपसंपत् के पाँच भेद हैं-विनयोपसंपत्, क्षेत्रोसंपत्, मार्गोपसंपत्, सुखदु:खोपसंपत् और सूत्रोपसंपत्।
१. अन्य संघ से विहार करते हुए आये मुनि को पादोष्ण या अतिथि मुनि कहते हैं। उ्नाका विनय करना, आसन आदि देना, उनका अंग मर्दन करना, प्रियवचन आदि बोलना। आप किस आचार्य के शिष्य हैं ? किस मार्ग से विहार करते हुए आये हैं। ऐसा प्रश्न करना, उन्हें तृण-संस्तर, फलक-संस्तर, पुस्तक, पिच्छिका आदि देना, उनके अनुकूल आचरण करना अथवा उन्हें संघ में स्वीकार करना विनयोपसंपत् है।
२. जिस क्षेत्र या देश में संयम, गुण, शील, यम-नियम आदि वृद्धिंगत होते हैं, उस देश में निवास करना क्षेत्रोपसंपत् है।
३. आगंतुक मुनि से मार्गविषयक कुशल पूछना अर्थात् आप का अमुक तीर्थक्षेत्र या ग्राम को जाकर सुखपूर्वक आगमन हुआ है न ? तथा मार्ग में आपके संयम, तप ज्ञानादि में निर्विघ्नता थी न ? इत्यादि सुखद प्रश्न आपस में पूछना मार्गोपसंपत् है।
४. आपस में वसतिका, आहार, औषधि आदि से जो उपकार करना है वह सुखदु:खोपसंपत् है। अर्थात् जो आगंतुक मुनि आहार, वसतिका आदि से सुखी हैं, उनको शिष्य आदि का लाभ होने पर कमण्डलु आदि दान देना, रोग पीड़ित मुनियों की प्राप्ति होने पर सुख शय्या, आसन, औषधि, अन्न-पानादि के द्वारा उपचार करना और मैं आपका ही हूँ ऐसा बोलना यह सब सुखदु:खोपसंपत् है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि साधु साधु के लिए आहार, वसतिका या औषधि का दान वैâसे करेंगे? सो योग्य वसतिका में उनकी व्यवस्था कराना, श्रावकों द्वारा आहार, औषधि की व्यवस्था कराना ही उनके द्वारा शक्य है, सो वे करेंगे ही।
५. सूत्र पठन में प्रयत्न करना सूत्रोपसंपत् है। सूत्र के लौकिक, वैदिक और सामयिक की अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं। गणितादि शास्त्र लौकिक सूत्र हैं, सिद्धांत शास्त्र वेद कहलाते हैं इन संबंधी सूत्र वैदिक सूत्र हैं और तर्कशास्त्र को समय कहते हैं। इन संबंधी शास्त्र सामयिक हैं, ऐसे तीन प्रकार के सूत्र, अर्थ और उभय को प्रयत्नपूर्वक पढ़ना आदि नौ भेदरूप सूत्रोपसंपत् है।
इस प्रकार से औघिक अर्थात् संक्षिप्त या सामान्य समाचार के दश भेद बताये गये हैं।
‘कोई धैर्य, वीर्य, उत्साह आदि गुणों से सहित मुनि अपने गुरु के पास उपलब्ध शास्त्रों को पढ़कर अन्य आचार्य के पास यदि और विशेष अध्ययन के लिए जाना चाहता है, तो वह अपने गुरु के पास विनय से अन्यत्र जाने हेतु बार-बार प्रश्न करता है। पुन: दीक्षागुरु और शिक्षागुरु से आज्ञा लेकर अपने साथ एक, दो या तीन मुनिवरों को लेकर जाता है, क्योंकि सामान्य मुनियों के लिए आगम में एकल विहारी की आज्ञा नहीं है।’
विहार के गृहीतार्थ विहार और अगृहीतार्थ विहार ऐसे दो भेद हैं। इनके सिवाय तीसरे-विहार की जिनेश्वरों ने आज्ञा नहीं दी है।’
जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का जो चारित्र का पालन करते हुए देशांतर में विहार है वह गृहीतार्थ विहार है और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चारित्र का पालन करते हुए जो मुनियों का विहार है वह अगृहीतार्थ संश्रित विहार है। जो साधु बारह प्रकार के तप को करने वाले हैं, द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता हैं अथवा काल क्षेत्र आदि के अनुरूप आगम के ज्ञाता हैं या प्रायश्चित्त आदि ग्रंथों के वेत्ता हैं। देह की शक्ति और हड्डियों के बल से अथवा भाव के सत्त्व से सहित हैं, शरीरादि से भिन्नरूप एकत्व भावना में तत्पर हैं। वङ्कावृषभनाराच आदि तीन संहननों में से किसी उत्तम संहनन के धारक हैं, धृति-मनोबल से सहित हैं अर्थात् क्षुधा आदि बाधाओं को स्ाहने में समर्थ हैं। बहुत दिन के दीक्षित हैं, तपस्या से वृद्ध हैं-अधिक तपस्वी हैं और आचार शास्त्रों के पारंगत हैं, ऐसे मुनि को एकलविहारी होने की जिनेन्द्रदेव ने आज्ञा दी है।
‘गमनागमन, सोना, उठना, बैठना, कुछ वस्तु ग्रहण करना, आहार लेना, मलमूत्रादि विसर्जन करना, बोलना, चालना आदि क्रियाओं में स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला ऐसा कोई भी मुनि मेरा शत्रु भी हो, तो भी वह एकाकी विचरण न करे। स्वेच्छाचारी मुनि के एकाकी विहार से गुरु की निंदा होती है, श्रुताध्ययन का व्युच्छेद, तीर्थ की मलिनता, जड़ता, मूर्खता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता आदि दोष आते हैं। एकल विहारी होने से कंटक, ठूँठ आदि का उपद्रव, कुत्ते, बैल आदि पशुओं के और म्लेच्छों के उपसर्ग, विष, हैजा आदि से भी अपना घात हो सकता है। ऋद्धि आदि गौरव से गर्व युक्त, हठग्राही, कपटी, आलसी, लोभी और पापबुद्धियुक्त मुनि संघ में रहते हुए भी शिथिलाचारी होने से अन्य मुनियों के साथ नहीं रहना चाहता है। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का लोप, अनवस्था-देखादेखी स्वच्छंद विहारी की परम्परा बन जाना, मिथ्यात्व की आराधना, आत्मगुणों का नाश और संयम की विराधना इन पाँच निकाचित दोषों का प्रसंग आता है।’’
अन्यत्र भी एकलविहारी का निषेध किया है-
‘‘कोई मुनि अपने गुरु के समीप समस्त शास्त्रों का अध्ययन करके यदि अन्य मुनियों के संघ में अध्ययन करने की इच्छा हो, तो बार-बार पूछकर गुरु की आज्ञा लेकर अन्य किसी एक या दो अथवा बहुत से मुनियों के साथ विहार करते हैं। (कदाचित् यात्रा, धर्मप्रभावना आदि के निमित्त से भी आजकल इसी तरह कुछ मुनि मिलकर गुरु की आज्ञा लेकर विहार करते हैं) अकेले मुनि विहार नहीं करते हैं। इसका कारण यह है कि जो मुनि बहुत दिन के दीक्षित हैं, ज्ञान और संहनन से बलवान हैं तथा भावना से भी बलवान हैं, ऐसे ही मुनि एकलविहारी हो सकते हैं। अन्य साधारण मुनियों के लिए एकाकी विहार की आज्ञा नहीं है। सो ही कहते हैं कि-जिस मुनि में ऊपर कथित ज्ञान, संहनन और अंत:करण के बल आदि गुण नहीं है और जो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने में तत्पर हैं, ऐसा मेरा शत्रु भी कभी एकाकी विहार न करे।’’
और यदि ऐसा मुनि भी एकाकी विचरण करते हैं, तो क्या दोष आते हैं सो दिखाते हैं-
शास्त्रज्ञान की परम्परा का नाश अवस्था दोष अर्थात् एक की देखादेखी बहुत से साधु ऐसा करने लगेंगे, तो व्यवस्था बिगड़ जावेगी। व्रतों का नाश, आज्ञा भंग-जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का उल्लंघन और तीर्थधर्म तथा गुरु की अपकीर्ति हो जाती है। इसके सिवाय अग्नि, जल, विष, अजीर्ण, सर्प या क्रूर जनों के द्वारा अथवा आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि के द्वारा अपना विनाश हो जाता है। इत्यादि दोष एकाकी विहार में आ जाते हैंं।
जिस संघ में आचार्य-दीक्षा प्रायश्चित्त आदि दायक गुरु, उपाध्याय-अध्यापक, मुनि, प्रवर्तक-सभी साधुओं को चर्या आदि में प्रवृत्ति करने वाले, स्थविर-बल वृद्ध आदि मुनि को सर्वज्ञानुकूल उपदेश देने वाले, गणधर-सर्वसंघ का पालन करने वाले, ऐसे पाँच आधार जिस संघ में रहते हैं, वहीं संघ रहने के लिए योग्य है।
जिस समय ये मुनि अपने संघ से निकलकर अन्य संघ में प्रवेश करते हैं, उस समय उस संघ के सभी मुनि आगन्तुक अतिथि मुनि को देखकर उठकर खड़े होते हैं। आगे जाकर नमोऽस्तु-प्रतिनमोऽस्तु करते हैं। उनका रत्नत्रय आदि कुशल पूछकर मार्ग की थकावट को दूर करने हेतु वैयावृत्ति आहार की व्यवस्था आदि सुविधा देते हैं। तीन दिन तक ये साधु आवश्यक क्रियाओं में आहार आदि क्रियाओं में परस्पर एक-दूसरे की परीक्षा करते हैं। दूसरे या तीसरे शिष्यगण आगन्तुक मुनि की चर्या की निर्दोषता आदि के विषय में आचार्यदेव को जानकारी देते हैं। पुन: आगन्तुक मुनि का नाम, कुल, गुरु, दीक्षा आदि सभी बातें गुरु स्वयं आगंतुक से पूछते हैं। यदि वह मुनि संघ परम्परा से और अपने चारित्र से निर्दोष है, तो उसे स्वीकार करते हैं। आगंतुक मुनि भी तब अपने आने का कारण निवेदन कर गुरु के पास श्रुत अध्ययन प्रारंभ कर देते हैं। ये मुनि इस पर संघ में आचार्य आदि सब साधुओं के साथ ही प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करते हैं, स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
‘यहाँ तक जो मूलगुण और समाचार का वर्णन किया है, ये ही सब मूलगुण और समाचार विधि आर्यिकाओं के लिए भी है। विशेष यह है कि वृक्षमूलयोग, आतापनयोग आदि का आर्यिकाओं के लिए निषेध है।’’
अन्यत्र भी कहा है-
‘जिस प्रकार यह समाचार नीति मुनियों के लिए बतलाई है उसी प्रकार लज्जादि-गुणों से विभूषित आर्यिकाओं को भी इन्हीं समस्त समाचार नीतियों का पालन करना चाहिए।’’
आर्यिकायें वसतिका में परस्पर में एक-दूसरे के अनुकूल रहती हैं। निर्विकारवस्त्र-देश को धारण करती हुई दीक्षा के अनुरूप आचरण करती हैं। रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन बनाना, वस्त्र सीना आदि, गृहस्थोचित कार्य नहीं करती हैं। इनका स्थान साधुओं के निवास से दूर तथा गृहस्थों के स्थान से न अति दूर न अति पास ऐसा रहता है, वहीं पर मलमूत्रादि विसर्जन हेतु एकांत प्रदेश रहता है। ऐसे स्थान में ये दो, तीन या तीस, चालीस आदि तक आर्यिकाएँ निवास करती हैं। ये गृहस्थों के घर आहार के अतिरिक्त अन्य समय नहीं जाती हैं।
कदाचित् सल्लेखना आदि विशेष कार्य यदि आ जावे, तब गणिनी की आज्ञा से दो एक आर्यिकाओं के साथ जाती हैं। इनके पास दो साड़ी रहती हैं, किन्तु तीसरा वस्त्र नहीं रख सकती हैं। फिर भी ये लंगोटी मात्रधारी ऐसे ऐलक से भी पूज्य हैं, चूँकि इनके उपचार से महाव्रत माने गये हैं किन्तु ऐलक के अणुव्रत ही हैं।
यथा-‘ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोटी में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं है। किन्तु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार महाव्रती है।’’ एक साड़ी पहनना और बैठकर आहार करना इन दो चर्याओं में ही अन्तर है।
इन आर्यिकाओं का नेतृत्व करने वाले आचार्य वैâसे होते हैं ?
शिष्यों के संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल, सूत्रार्थ में विशारद यशस्वी, तेरह प्रकार की क्रिया और तेरह प्रकार के चारित्र में तत्पर ऐसे आचार्य होते हैं। जिनके वचन सभी को ग्राह्य और हितकर होते हैं। गंभीर, स्थिरपरिणामी, मितभाषी, अल्पकुतूहली, चिरकाल के दीक्षित, पदार्थों के ज्ञान में कुशल ऐसे आचार्य ही आर्यिकाओं के गणधर होते हैं। इन गुणों से व्यतिरिक्त आचार्य आदि आर्यिकाओं का नेतृत्व करते हैं तो गणपोषण, आत्मसंकार, सल्लेखना और उत्तमार्थ ऐसे चार काल की विराधना करा देते हैं। अर्थात् संघ की अपकीर्ति संयम की हानि आदि दोष आ जाते हैं।