५.१ जो पापादि क्रियाओं के वश में नहीं है वह अवश है अथवा जो इन्द्रिय कषाय, नोकषाय और रागद्वेषादि के आधीन नहीं है, वह साधु अवश है उस अवश का जो कार्य अनुष्ठान-आचरण है। वह आवश्यक कहलाता है।
उस आवश्यक के छह भेद होते हैं-
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम और तपों से जो जीव का ऐक्य होना है, वह समय है। उसी को सामायिक कहते हैं।अर्थात् इन क्रियाओं से परिणत आत्मा ही सामायिक है। इसके नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा ६ भेद हो जाते हैं। वस्तु के शुभ अशुभ नाम सुन कर रागद्वेष नहीं करना नाम सामायिक है। शुभाकार युक्त और अशुभाकार युक्त प्रतिमाओं में रागद्वेष नहीं करना स्थापना सामायिक है। सोना, चाँदी या मिट्टी आदि में रागद्वेष नहीं करना द्रव्य सामायिक है। रम्य सुन्दर क्षेत्रों में और असुन्दर अप्रिय क्षेत्रों में समताभाव रखना क्षेत्र सामायिक है। ग्रीष्म-शीतादि ऋतुओं और भी अनुकूल-प्रतिकूल समयों में रागद्वेष नहीं करना काल सामायिक है तथा सम्पूर्ण इष्ट-अनिष्ट विषयों में रागद्वेष का त्याग करके समताभाव धारण करना ही भाव सामायिक है क्योंकि ‘सर्वसावद्ययोग’ से निवृत्त होकर कर्मास्रव के कारणभूत पापयोग से दूर होना ही सामायिक का लक्षण है। ‘‘अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकरों ने शिष्यों को सामायिक संयम का उपदेश दिया था।
भगवान् वृषभदेव और महावीर प्रभु ने छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है। कथन करने में पृथक्-पृथक् भावित करने में और समझने में सुगमता हो इसलिए पाँच महाव्रतों का वर्णन किया है। आदिनाथ के तीर्थ में शिष्यों को समझना कठिन था, क्योंकि वे अधिक सरल स्वभावी-जड़ थे और महावीर जिनके तीर्थ में शिष्यों को व्रत का पालन कराना कठिन रहा है क्योंकि ये अधिक वक्र स्वभावी हैं। दोनों तीर्थों के शिष्य योग्य और अयोग्य को नहीं जानते थे, यही कारण है कि उनकी ‘‘सर्वसावद्ययोगाद्विरतोऽस्मि’’ मैं सभी सावद्ययोग से विरक्त हूँ, इतने मात्र से सामायिक संयम को स्वीकार मोक्षमार्ग में स्थित होना कठिन था, इसी हेतु से वृषभदेव और वीर, प्रभु ने व्रतों के भेदरूप छेदोपस्थापना संयम का उपदेश दिया है।’’ यह समताभाव लक्षण सामायिक अनियत काल है। अर्थात् जीवनपर्यन्त के लिए है और ‘‘त्रिकालदेववंदना’’ करने रूप सामायिक नियतकालरूप है।’’
‘‘अनाकुल चित्त हुए साधु हाथ में पिच्छिका लेकर अंजुलि जोड़कर एकाग्रमना होकर सामायिक करते हैं।’’
लोक में उद्योत करने वाले अरिहंत जिनेश्वरदेव धर्मतीर्थ के कर्ता होने से धर्मतीर्थंकर हैं उनके गुणों का स्तवन करना स्तव आवश्यक है। तीर्थ के द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ ऐसे दो भेद हैं-द्रव्य तीर्थ, गंगादि नदी में स्नान करने से संताप (शरीरताप) का नाश, तृष्णा की उपशांति और किंचित् काल के लिए शरीर के मल का अभाव होता हैद्ध किन्तु रत्नत्रय से परिपूर्ण हुए तीर्थंकर भावतीर्थ हैं अथवा उनका रत्नत्रय धर्म भी भावतीर्थ है, द्वादशांग श्रुतज्ञान भी भावतीर्थ है। इस तीर्थ में अवगाहन करने से सम्पूर्ण कर्ममल का नाश होता है।
‘‘भिन्न-भिन्न १००८ आदि नामों से स्तुति करना नामस्तव है। कृत्रिम, अकृत्रिम प्रतिमाओं की स्तुति करना स्थापनास्तव है, जिनेन्द्र भगवान के शरीर का वर्ण, ऊँचाई, आयु, उनके माता-पिता आदि के वर्णनपूर्र्वक स्तुति करना द्रव्यस्तव है। चम्पापुरी, पावापुरी, सम्मेदशिखर आदि क्षेत्रों की स्तुति करना क्षेत्रस्तव है। गर्भावतार जन्मदिवस आदि के दिनों में स्तुति करना काल स्तव है और जिनेन्द्रदेव के केवलज्ञान आदि गुणों का स्तवन करना भावस्तव है।’’
‘‘इन अर्हंत आदि के तरफ अभिमुख होने से भक्ति से सम्पूर्ण अभीप्सित सिद्ध हो जाते हैं इसलिए यह भक्तिरागपूर्वक होती है यह निदान नहीं है। दोनों पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर प्रतिलेखन करके अंजुली जोड़कर अविक्षिप्त मन हुए साधु चतुर्विंशतिस्तोत्र को करते हैं।
एक तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्यादि की वंदना करना विधिवत् भक्तिपाठपूर्वक कृतिकर्म करना वंदना आवश्यक है। एक तीर्थंकर या सिद्ध आदि का नाम लेना वंदना है।’’ तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्यादि के प्रतिबिम्बों की स्तुति करना स्थापना वंदना है। एक तीर्थंकर, सिद्ध या आचार्यादि के शरीर की स्तुति करना द्रव्य वंदना है। एक तीर्थंकर, सिद्ध या आचार्यादि ने जिस स्थान में निवास किया है, उस क्षेत्र की स्तुति करना क्षेत्र वंदना है। एक तीर्थंकर तथा सिद्ध आचार्यादि जिस काल में हुए हैं, उस काल की स्तुति करना काल वंदना है। एक तीर्थंकर, सिद्धाचार्यादि के गुणों की स्तुति करना भाव वंदना है।
कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये सब वंदना के ही नामांतर हैं।
‘‘जिन अक्षर समूह से, परिणामों से, या क्रियाओं से आठ प्रकार का कर्म काटा जाता है, छेदा जाता है वह कृतिकर्म है अर्थात् पापनाश के उपाय को कृतिकर्म कहते हैं। जिससे तीर्थंकरत्व आदि पुण्य कर्म का संयम होता है, उसको चितिकर्म कहते हैं। जिसके द्वारा अर्हंत आदि पूजे जाते हैं, ऐसे बहुवचन से उच्चारण कर पुष्पमाला, चंदन आदि जो अर्पण किये जाते हैं, वह पूजाकर्म है, जिससे कर्म दूर किया जाता है, अर्थात् जिसके द्वारा कर्मों का संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि रूप परिणमन करा दिया जाता है, ऐसे कार्य को विनयकर्म कहते हैं, उसका ही न्ााम शुश्रूषा है।’’
अहोरात्रि के कृतिकर्म-
‘‘चार प्रतिक्रमण के और तीन स्वाध्याय के ऐसे पूर्वान्ह के सात कृतिकर्म और अपरान्ह के सात कृतिकर्म ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं।’’ अथवा पश्चिमरात्रि में प्रतिक्रमण के चार, स्वाध्याय के तीन और वंदना के दो, सूर्य उदय होने पर स्वाध्याय के तीन और मध्यान्ह वंदना के दो इस प्रकार पूर्वान्ह क्रियाकर्म के ये चौदह हुए, उसी प्रकार अपरान्ह काल में स्वाध्याय के तीन, प्रतिक्रमण के चार, वंदना के दो, रात्रियोग ग्रहण, विसर्जन में योगभक्ति के दो और पूर्व रात्रि में स्वाध्याय के तीन इस प्रकार अपरान्हिक क्रिया में चौदह कृतिकर्म होते हैं। अहोरात्र के कुल मिलाकर अट्ठाईस कृतिकर्म होते हैं।’’
अन्यत्र भी कहा है-‘‘चार बार के स्वाध्याय के १२, त्रिकाल वंदना के ६, दो बार के प्रतिक्रमण के ८ और रात्रियोग ग्रहण-विसर्जन में योगभक्ति के २, ऐसे २८ कायोत्सर्ग साधु के अहोरात्र विषयक होते हैं।’’ इनका स्पष्टीकरण यह है कि-
त्रिकाल देववंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति संबंधी दो-दो २*३=६, दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण में, सिद्ध, प्रतिक्रमण, निष्ठितकरणवीर और चतुर्विंशति-तीर्थंकर इन चार भक्ति संबंधी चार-चार ४*२=८, पूर्वान्ह, अपरान्ह, पूर्व-रात्रिक और अपररात्रिक इन चार कालिक स्वाध्याय में-स्वाध्याय के प्रारंभ में श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति एवं समाप्ति में श्रुतभक्ति ऐसे तीन-तीन भक्ति संबंधी ४*३=१२, रात्रियोग प्रतिष्ठापन में योगभक्ति संबंधी एक और निष्ठापन में एक ऐसे २, इस तरह सब मिलकर ६+८+१२+२=२८ कायोत्सर्ग किये जाते हैं।
कृतिकर्म का लक्षण-
‘‘सामायिक दण्डकपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशतिस्तव पर्यन्त जो विधि है, उसे कृतिकर्म कहते हैं।’’ ‘‘यथाजात-मुद्राधारी साधु मन-वचन-काय की शुद्धि करके दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनतिपूर्वक कृतिकर्म का प्रयोग करे१।’’ अर्थात् किसी भी क्रिया के प्रयोग में पहले प्रतिज्ञा करके भूमि स्पर्शरूप पंचाङ्ग नमस्कार किया जाता है, जैसे-‘‘अथ पौर्वाह्णिकस्वाध्यायप्रारंभक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसी प्रतिज्ञा करके पंचांग नमस्कार किया जाता है पुन: ‘‘णमो अरिहंताणं से लेकर तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि’’ तक पाठ बोला जाता है इसे सामायिक दण्डक कहते हैं। इसमें ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पाठ प्रारंभ करते समय तीन आवर्त एक शिरोनति की जाती है पुन: पाठ पूरा करके तीन आवर्त एक शिरोनति की जाती है। फिर कायोत्सर्ग करके पंचांग प्रणाम किया जाता है पुन: ‘थोस्सामि’ इत्यादि चतुर्विंशति स्तव के प्रारंभ में तीन आवर्त एक शिरोनति करके पाठ पूरा होने पर तीन आवर्त और शिरोनति होती है। इस प्रकार प्रतिज्ञा के अनन्तर प्रणाम और कायोत्सर्ग के अनन्तर प्रणाम ऐसे दो प्रणाम हुए। सामायिक दण्डक के आदि, अंत में और थोस्सामि के आदि, अन्त में ऐसे तीन-तीन आवर्त चार बार करने से बारह आवर्त हुए तथा प्रत्येक में एक-एक शिरोनति करने से चार शिरोनति हो गर्ई।
इस कृतिकर्म-विधिवत् कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष माने गये हैं। उनसे रहित होना चाहिए।
कृतिकर्म कब करें?
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर इनको कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करते हैं। अविरती श्रावक, माता-पिता, असंयत गुरु, राजा, पाखंडी साधु, देशव्रती अथवा नाग, यक्ष आदि देवों की वंदना महाव्रती साधु नहीं करते हैं तथा पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के चारित्र शिथिल मुनि की भी वंदना नहीं करते हैं। किन्तु वे साधु रत्नत्रय से युक्त, अपने दीक्षा में एकरात्रि भी बड़े ऐसे मुनियों की भी वंदना करते हैं। विक्षिप्त चित्त हुए अथवा पीठ करके बैठे हुए, आहार या नीहार करते हुए गुरुओं को मुनि वंदना नहीं करते हैं। आसन में स्थित, स्वस्थचित्त ऐसे गुरु की वंदना करते हैं। आलोचना के समय, सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं के समय, प्रश्न करने के पूर्व में, पूजनकाल में, स्वाध्याय के समय, क्रोधादि अपराध काल में, आचार्यादि की वंदना के समय इतने स्थानों में गुरु की वंदना की जाती है। जब मुनि वंदना करते हैं तब अन्य आचार्यादि साधु भी बड़े प्रेम से उन्हें पिच्छिका लेकर प्रतिवंदना करते हैं। वंदना करते समय गुरु से अनुज्ञा लेकर-‘हे भगवन्! मैं वंदना करता हूँ’ ऐसी प्रार्थना करके पुन: स्वीकृति प्राप्त कर विधिवत् वंदना करते हैं।’ सभी क्रियाओं के आरंभ में, मार्गादि में देखने पर, सर्वत्र साधु-साधुओं में वंदना प्रतिवंदना करते हैं।’
‘देव, वंदना में भी पूर्वोक्त विधि से कृतिकर्म करके ‘‘जयतु भगवान्’’ इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ करते हुए साधु देववंदना विधि करते हैं।’
देववंदना में योग्यकाल, योग्य आसन आदि को भी समझना चाहिए।
‘‘साधु समाधि के लिए सहकारी कारणभूत ऐसे योग्य काल, योग्य आसन, योग्य मुद्रा, आवर्त और शिरोनतिरूप निर्दोष बत्तीस दोष रहित कृतिकर्म को विनयपूर्वक करते हैं।’’ देववंदना के लिए इन सभी को कहते हैं-
योग्यकाल-पिछली रात्रि की तीन घड़ी और दिन के आदि को तीन घड़ी ऐसे छह घड़ी (२ घंटे २४ मिनट) काल पूर्वान्ह वंदना का है। मध्यान्ह से पहले की तीन घड़ी और पीछे की तीन घड़ी ऐसा छह घड़ी काल मध्यान्ह वंदना का है। दिन के अंत की तीन घड़ी और रात्रि के आदि की तीन घड़ी, ऐसा छह घड़ाr काल अपरान्ह वंदना का है। यह उत्कृष्टकाल है। ऐसे ही चार-चार घड़ी का काल मध्यमकाल है तथा दो-दो घड़ी का काल जघन्यकाल है। इस प्रकार तीनों संध्याओं में देववंदना के लिए योग्यकाल है।
योग्य आसन-वंदना करने के लिए साधु जहाँ बैठते हैं, वह प्रदेश, पाटा-सिंहासन या पद्मासन आदि योग्य आसन हैं। शुद्ध, एकांत, प्रासुक, अप्रशस्त लोक और सम्मूर्च्छन आदि जन्तुओं से रहित, क्लेश के कारणभूत परिषह-उपसर्ग आदि से रहित होवे तथा तीर्थंकर आदि के निर्वाणकल्याणक आदि कल्याणकों से पवित्र प्रदेश ही उत्तम प्रदेश माना गया है। जिस पाटा, चटाई या तृण आदि पर बैठकर वंदना करनी है, वह आसन छिद्र रहित, घुण, खटमल आदि से रहित, कालादि से रहित, निश्चल और सुखकर स्पर्श वाला होवे। उस पर साधु पद्मासन, पर्यंकासन या वीरासन से बैठकर सामायिक करते हैं। दोनों पैर जंघाओं से मिल जाये, उसको पद्मासन कहते हैं। एक जंघा के ऊपर दूसरी जंघा के रखने से जो आकार होता है, वह पर्यंकासन है तथा दोनों जंघाओं के ऊपर दोनों पैरों के रखने को वीरासन कहते हैं।
वंदना करने वाला मुनि खड़े होकर या बैठकर वंदना करता है अत: यह स्थान दो भेदरूप है।
योग्यमुद्रा-
मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वंदनामुद्रा और मुक्ताशुक्ति मुद्रा।
दोनों भुजाओं को लटकाकर दोनों पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर कायोत्सर्ग से खड़े हो जाना जिनमुद्रा है। पद्मासन आदि दोनों हथेली को चित्त रखकर बैठने पर योगमुद्रा होती है।
खड़े होकर दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखने पर और दोनों करों को मुकुलित कमल के आकार बनाने पर वंदना मुद्रा होती है। इसी तरह खड़े होकर कुहनियों को पेट के ऊपर रखकर दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में संलग्न कर लेने पर मुक्ताशुक्ति मुद्रा होती है।
किस क्रिया में किस मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ?
‘‘जयतु भगवान् हेमाम्भोज………..’’ इत्यादि वंदना के समय वंदना होती है। ‘णमो अरिहंताणं’ आदि सामायिक दंडक और ‘थोस्सामि’ इत्यादि चतुर्विंशतिस्तव के समय मुक्ताशुक्तिमुद्रा होती है।
बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा और खड़े होकर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्रा मानी गई है।
आवर्त-‘‘सामायिकदण्डक उच्चारण के पहले वन्दना मुद्रा से हाथों को मुकुलित बनाकर घुमाने से तीन आवर्त हुए, ऐसे ही दंडक के बाद तीन आवर्त पुन: थोस्सामिस्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त इस प्रकार एक कायोत्सर्ग में बारह आवर्त होते हैं।’’
शिरोनति-तीन-तीन आवर्तों के अनन्तर मुकुलित हाथों से संयुक्त मस्तक का झुकाना शिरोनति है। यह सामायिक दण्डक के आदि, अंत और थोस्सामि स्तव के आदि, अंत ऐसे चार बार होने से चार शिरोनति हो जाती है।
देववंदना में चैत्यभक्ति बोलते हुए जिनेन्द्रदेव की प्रदक्षिणा भी की जाती है। उसमें प्रत्येक प्रदक्षिणा में पूर्वादि चारों दिशाओं की तरफ प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति की जाती है। इस प्रकार एक प्रदक्षिणा में बारह आवर्त, चार शिरोनति तथा तीन प्रदक्षिणा में छत्तीस आवर्त और बारह शिरोनति हो जाती है, सो अधिक आवर्त और शिरोनति में कोई दोष नहीं होता है।
चैत्यभक्ति, निर्वाणभक्ति और नन्दीश्वरभक्ति करते समय चैत्यालय की प्रदक्षिणा भी की जाती है तथा योगियों की वंदना में योगभक्ति पढ़ते समय प्रदक्षिणा दी जाती है।
इस प्रकार से संक्षेप में वंदना आवश्यक का कथन हुआ है।
वंदना के ३२ दोष-
१. अनादृत-वंदना में आदर भाव नहीं रखना।
२. स्तब्ध-आठ प्रकार के मद में से किसी के वश हो जाना।
३. प्रविष्ट-अर्हंतादि के अत्यन्त निकट होकर वंदना करना।
४. परिपीडित-अपने दोनों हाथों से दोनों जंघाओं या घुटनों का स्पर्श करना।
५. दोलायित-झूला पर बैठे हुए के समान अर्थात् हिलते हुए वंदना करना।
६. अंकुशित-अपने ललाट पर अपने हाथ के अंगुष्ठ को अंकुश की तरह रखना।
७. कच्छपरिंगित-बैठकर वंदना करते हुए कछुये के समान रेंगने की क्रिया करना।
८. मत्स्योद्वर्त-जिस प्रकार मछली एक भाग को ऊपर करके उछला करती है, उसी प्रकार कटिभाग को ऊपर निकालकर वंदना करना।
९. मनोदुष्ट-मन में गुरु आदि के प्रति द्वेष धारण कर वंदना करना अथवा संक्लेशयुक्त मन सहित वंदना करना।
१०. वेदिकाबद्ध-अपने स्तन भागों का मर्दन करते हुए वंदना करना या दोनों भुजाओं द्वारा अपने दोनों घुटनों को बाँध लेना।
११. भयदोष-सात प्रकार के भय से डरकर वंदना करना।
१२. विभ्यद्दोष-गुरु आदि से डरते हुए वंदना करना।
१३. ऋद्धिगौरव-चातुर्वर्ण्य संघ में भक्त हो जावेगा, इस अभिप्राय से वंदना करना।
१४. गौरव-अपना माहात्म्य आसन आदि द्वारा प्रगट करके अथवा सरस भोजन आदि की स्पृहा रखकर वंदना करना।
१५. स्तेनित-आचार्य आदि से छिपाकर वंदना करना या कोठरी आदि के भीतर छिपकर वंदना करना।
१६. प्रतिनीत-देव, गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वंदना करना।
१७. प्रदुष्ट-अन्य के साथ द्वेष, वैर, कलह आदि करके पुन: क्षमा न कराकर वंदनादि क्रिया करना।
१८. तर्जित-अन्यों को तर्जित कर, डर दिखाकर वंदना करना अथवा आचार्यादि के द्वारा अंगुली आदि से तर्जित-अनुशासित किये जाने पर ‘‘यदि वन्दनादि नहीं करोगे, तो संघ से निकाल दूँगा’’ ऐसी फटकार सुनकर वंदना करना।
१९. शब्ददोष-शब्द बोलते हुए वंदना करना। अथवा ‘‘वंदना करते समय बीच में बातचीत करते जाना।’’
२०. हीलित-वचनों द्वारा आचार्यादि का पराभव करके वंदना करना।
२१. त्रिवलित-वंदना करते समय कमर, गर्दन और हृदय इन अंगों में भंग-बलि पड़ जाना या ललाट में तीन सल डाल कर वंदना करना।
२२. कुंचित-संकुचित हाथों से सिर का स्पर्श करना या घुटनों के बीच शिर रखकर संकुचित होकर वंदना करना।
२३. दृष्ट-आचार्यादि यदि देख रहे हों तो ठीक से वंदनादि करना अन्यथा स्वेच्छा से दिशावलोकन करते हुए वंदना करना।
२४. अदृष्ट-आचार्यादि न देख सकें, ऐसे स्थान पर जाकर अथवा भूमि, शरीरादि का पिच्छी से परिमार्जन न कर वंदना में एकाग्रता न रखते हुए वंदना करना या आचार्यादि के पीछे जाकर वंदना करना।
२५. संघकरमोचन-यदि मैं संघ को वंदनारूपी कर भाग नहीं दूँगा, तो संघ मेरे ऊपर रुष्ट होगा, ऐसे भाव से वंदना करना।
२६. आलब्ध-उपकरण आदि प्राप्त करके वंदना करना।
२७. अनालब्ध-उपकरण आदि की आशा से वंदना करना।
२८. हीन-ग्रन्थ, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित वंदना करना।
२९. उत्तर चूलिका-वंदना को थोड़े काल में पूर्णकर उसकी चूलिकारूप आलोचनादि पाठ को अधिक समय तक करना।
३०. मूकदोष-गूँगे के समान वंदना के पाठ को मुख के भीतर ही बोलना अथवा वंदना करते समय हुँकार अंगुली आदि से इशारा करना।
३१. दर्दुर-वंदना के पाठ को इतनी जोर से बोलते हुए महाकलकल ध्वनि करना कि जिससे दूसरों की ध्वनि दब जाये।
३२. चुरुलित-एक ही स्थान में खड़े होकर हस्तांजलि को घुमाकर सबकी वंदना करना अथवा पंचम आदि स्वर से गा-गाकर वंदना करना।
इए प्रकार वंदना के ३२ दोष हैं। इन दोषों से रहित वंदना ही शुद्ध वंदना है जो कि विपुल निर्जरा का कारण है। इन ३२ दोषों में से किसी एक दोष को करता हुआ भी साधु कृतिकर्म करते हुए भी कृतिकर्म से निर्जरा को करने वाला नहीं होता है। एक हाथ के अन्तराल से, अपने शरीरादि के स्पर्श से देव का स्पर्श या गुरु को बाधा न करते हुए अपने अंगादि का पिच्छिका से प्रमार्जन करके साधु वंदना की प्रार्थना करके वंदना करता है अर्थात् मैं वंदना करता हूँ, ऐसी विज्ञापना करके यदि गुरु की वंदना करना है, तो उनकी स्वीकृति लेकर वंदना करता है।’’
प्रमाद आदि से उत्पन्न होने वाले दोषों का विशोधन करना प्रतिक्रमण है। इसके नाम आदि की अपेक्षा छह भेद हैं। पाप हेतुक नाम से दूर होना अथवा प्रतिक्रमण दण्डक के शब्दों का उच्चारण करना नाम प्रतिक्रमण है। सरागस्थापना से अपने परिणाम हटाना स्थापना प्रतिक्रमण है। सावद्य द्रव्य के सेवन से परिणाम हटाना द्रव्य प्रतिक्रमण है। क्षेत्र के आश्रय से होने वाले अतिचार से निवृत्त होना क्षेत्र प्रतिक्रमण है। काल के आश्रय से होने वाले अतिचार हटाना काल प्रतिक्रमण है। राग-द्वेषादि दोषों से होने वाले अतिचारों से अपने को हटाना भाव प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण के सात भेद हैं-दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और औत्तमार्थ।
दिवस संबंधी दोषों के विशोधन हेतु सायंकाल में जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वह दैवसिक प्रतिक्रमण है। जो कि ‘‘जीवे प्रमादजनिता:’’ आदि पाठरूप से पढ़ा जाता है।
रात्रि संबंधी दोषों के निराकरण हेतु जो पश्चिम रात्रि में प्रतिक्रमण किया जाता है, वह रात्रिक प्रतिक्रमण है।
आहार के लिए जाते समय, गुरुवंदना और देववंदना के लिए जाते समय, शौचादि के लिए जाते समय जो जीवों की विराधना हुई हो, उसके दोषों को दूर करने के लिए ‘‘पडिक्कमामि भंत्ते! इरियावहियाए’’ इत्यादि पाठ बोलकर महामंत्र का नव बार जाप्य किया जाता है, वह ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण है।
प्रत्येक मास में पन्द्रह दिन वा चतुर्दशी या अमावस्या अथवा पूर्णिमा को जो बृहत्प्रतिक्रमण किया जाता है, वह पाक्षिक प्रतिक्रमण है।
‘‘कार्तिक मास के अन्त में और फाल्गुन मास के अन्त में चतुर्दशी अथवा पूर्णिमा को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है।’’
‘‘आषाढ़ मास के अन्त में चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन वार्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है।’’
मरणकाल में सम्पूर्ण दोषों की आलोचना करके जो यावज्जीवन चतुराहार का त्याग कर दिया जाता है। वह उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
इनसे लोच प्रतिक्रमण, गोचरी प्रतिक्रमण, अतिचार प्रतिक्रमण आदि लघु प्रतिक्रमण होते हैं, जो कि ईर्यापथ आदि में सम्मिलित हो जाते हैं।
पाँच वर्ष के अन्त में जो गुरु के सान्निध्य में बड़ा प्रतिक्रमण होता है, वह यौगिक या योगांतिक कहलाता है। तथाहि-
‘‘प्रतिक्रमण के भेदों में बृहत्प्रतिक्रमण सात माने हैं-व्रतारोपण, पाक्षिक, कार्तिकांतचातुर्मासिक, फाल्गुनांतचातुर्मासिक, आषाढांतसांवत्सरिक, सार्वातिचारिक और औत्तमार्थिक।’’ दीक्षाग्रहण काल से लेकर संन्यासग्रहण काल तक जितने भी दोष होते हैं, वे सार्वातिचार कहलाते हैं। उनका प्रतिक्रमण सार्वातिचारी प्रतिक्रमण है। व्रतों के आरोपण के समय जो आचार्य द्वारा प्रतिक्रमण सुनाया जाता है, वह व्रतारोपणी प्रतिक्रमण है। इनमें से व्रतारोपणी और सार्वातिचारी प्रतिक्रमण ये दोनों उत्तमार्थ प्रतिक्रमण में गर्भित हो जाते हैं।
इनसे अतिरिक्त भी जो अतिचारी प्रतिक्रमण है, वह सार्वातिचारी में और जो त्रिविधाहारव्युत्सर्जन प्रतिक्रमण उत्तमार्थ में शामिल हो जाते हैं। पाँच वर्ष के अन्त में किया जाने वाला प्रतिक्रमण यौगांतिक प्रतिक्रमण है वह संवत्सर प्रतिक्रमण में गर्भित हो जाता है।
‘‘ऐसे ही लुंचन, रात्रिक, दैवसिक, गोचार, निषिद्धिका गमन, ईर्यापथ और अतिचार ये सात लघु प्रतिक्रमण माने गये हैं।’’
केशलोचसंबंधी लोचप्रतिक्रमण है, निषिद्धिका (जहाँ गुरुओं की समाधि हुई है या तीर्थंकरों की कल्याणभूमि) के लिए गमन संबंधी प्रतिक्रमण निषिद्धिका गमन प्रतिक्रमण है। आहारसंबंधी प्रतिक्रमण गोचार प्रतिक्रमण है और दु:स्वप्न आदि अतिचार संबंधी प्रतिक्रमण अतिचार प्रतिक्रमण है, मार्ग में गमन संबंधी प्रतिक्रमण ईर्यापथिक है, दिवस संबंधी प्रतिक्रमण दैवसिक और रात्रि संबंधी रात्रिक है। इनमें से निषिद्धिका गमन प्रतिक्रमण ऐर्यापथिक में, अतिचार प्रतिक्रमण रात्रिक प्रतिक्रमण में और लोचप्रतिक्रमण तथा गोचार प्रतिक्रमण दैवसिक प्रतिक्रमण में अंतर्भूत हो जाते हैं।
भगवान् आदिनाथ और महावीर प्रभु ने ‘अपराध हों चाहे न हों’ शिष्यों को यथासमय प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया है। किन्तु अजितनाथ आदि बाईस तीर्थंकरों ने अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करने को कहा है। प्रथम और अंतिम जिनेश्वर ने एक दोष होने पर भी सभी प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करना कहा है। क्योंकि इनके समय के शिष्यों का चित्त चंचल होने से अन्धकघोटक न्याय से उन्हें सभी प्रतिक्रमण यथासमय करना ही होता है।
जैसे-एक घोड़े की आँख की ज्योति नष्ट हो गई। एक वैद्य के यहाँ आँख ठीक करने की दवाई तो थी किन्तु उसे पता नहीं था कि कौन सी दवा है। उसने कहा कि आप इस घोड़े की आँख में सभी दवाई प्रयोग करते चलिए जो आँख खुलने की होगी, उससे आँख खुल जायेगी। घोड़े के स्वामी ने ऐसा ही किया, तब जब आँख की औषधि का क्रम आ गया, तब एकदम औषधि लगते ही आँख खुल गई, इसे अन्धघोटक न्याय कहते हैं। इसी प्रकार साधु सभी दण्डकों का उच्चारण करते हैं जिस किसी एक पर भी मन स्थिर हो जाने से दोषों का विनाश हो जाता है।
मध्यम तीर्थंकरों के शासन के शिष्य दृढ़बुद्धि वाले, स्मरण शक्ति से सहित, एकाग्रचित्त वाले होते हैं, किन्तु आदि और अंतिम तीर्थंकर के शासन के शिष्य चंचल मन वाले, मोह से सहित ऋजुजड़मति वाले और वक्रजड़मति वाले होते हैं। यही कारण है कि आज सभी प्रतिक्रमण करना जरूरी है।’’
साधु दोष लगने पर विनयपूर्वक पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर गारव, मान आदि दोषों को छोड़कर कृतिकर्म करके गुरु के पास आलोचना करते हैंं और ‘मिच्छा मे दुक्कडं’ आदि दण्डकों का उच्चारण कर प्रतिक्रमण करते हैं।
भविष्यत् और वर्तमान के दोषों का निराकरण करना प्रत्याख्यान है। इसके भी छह भेद हैं-पाप के उत्पन्न करने वाले अयोग्य नाम नहीं रखना, नहीं रखवाना और न अनुमोदना करना नाम प्रत्याख्यान है। मिथ्या देवता आदि के प्रतिबिम्ब की स्थापना नहीं करना स्थापना प्रत्याख्यान है। सावद्य अथवा निरवद्यद्रव्य का त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान है। जहाँ रहने से असंयमादि उत्पन्न हों, ऐसे क्षेत्र का त्याग करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है। असंयमोत्पादक काल का त्याग करना काल प्रत्याख्यान है। मिथ्यात्व, असंयम, कषायादि भावों का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है।
प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में क्या अन्तर है ?
भूतकाल के अतिचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है और वर्तमान तथा भविष्य के दोषों का त्यागना प्रत्याख्यान है। अथवा व्रतादि के अतिचारोें का त्यागना प्रतिक्रमण है और अतिचार के कारण जो सचित्त, अचित्त और मिश्रपदार्थ इनका तप के लिए त्यागना अथवा प्रासुक द्रव्यों का भी त्याग करना प्रत्याख्यान है।
प्रत्याख्यान के दश भेद-
अनागत-भविष्यत् काल में किये जाने वाले उपवास आदि अनागत हैं, जैसे चतुर्दशी के दिन किया जाने वाला उपवास त्रयोदशी को कर लेना, यह अनागत प्रत्याख्यान है।
अतिक्रांत-चतुर्दशी आदि में किये जाने वाले उपवासादि को प्रतिपदा आदि में करना यह अतिक्रांत प्रत्याख्यान है।
कोटिसहित-कल दिन में स्वाध्याय के अनन्तर यदि शक्ति होगी तो उपवास करूँगा, अन्यथा नहीं करूँगा, ऐसा संकल्प करके जो प्रत्याख्यान होता है, वह कोटिसहित प्रत्याख्यान है।
निखंडित-पाक्षिक आदि में अवश्य करने योग्य उपवासादि करना निखंडित प्रत्याख्यान है।
साकार-सर्वतोभद्र, कनकावली, आदि उपवासों को करना यह भेद सहित होने से साकार प्रत्याख्यान है।
अनाकार-स्वेच्छा से नक्षत्रादि कारणों के बिना उपवासादि करना अनाकार प्रत्याख्यान है।
परिमाणगत-कालप्रमाण सहित उपवास करना, जैसे-षष्ठ-बेला, अष्टम-बेला आदि उपवास करना परिमाणगत प्रत्याख्यान है।
अपरिशेष-यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का त्याग करना अपरिशेष प्रत्याख्यान है।
अध्वानगत-मार्गविषयक त्याग-जैसे इस जंगल में निकलने तक या यह नदी पार करने तक आहार का त्याग करना अध्वानगत प्रत्याख्यान है।
सहेतुक-उपसर्ग आदि के निमित्त से उपवास आदि करना यह सहेतुकप्रत्याख्यान है।
अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य के भेद से आहार चार प्रकार का है। प्रतिदिन आहार के अनन्तर जो अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग किया जाता है। वह भी प्रत्याख्यान कहलाता है।
काय से ममत्त्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। इसके भी नामादि की अपेक्षा छह भेद हैं-तीक्ष्ण, कठोर आदि पापयुक्त नाम से आये हुए दोषों का परिहार करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह नाम कायोत्सर्ग है। पाप स्थापना के द्वारा आये हुए अतिचार को दूर करने के लिए किया गया कायोत्सर्ग स्थापना कायोत्सर्ग है। सावद्य द्रव्य के सेवन से उत्पन्न हुए दोष के नाशार्थ किया गया कायोत्सर्ग द्रव्य कायोत्सर्ग है। पापयुक्त क्षेत्र के सेवन से हुए दोष के नाशार्थ जो कायोत्सर्ग है वह क्षेत्र कायोत्सर्ग है। सावद्य काल के आचरण से प्राप्त हुए दोष परिहारार्थ कायोत्सर्ग करना काल कायोत्सर्ग और मिथ्यात्व आदि दोषों के दूर करने के लिए जो कायोत्सर्ग होता है, वह भाव कायोत्सर्ग है।
दोनों हाथ लटकाकर जिनमुद्रा से निश्चल होकर शुभध्यान में स्थिर होना कायोत्सर्ग है।
‘‘कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट प्रमाण एक वर्ष है और जघन्य प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। मध्यम कायोत्सर्ग के एक अन्तर्मुहूर्त से लेकर एक वर्ष के मध्य, गत अनेकों भेद हो जाते हैं।’’ एक बार णमोकार मंत्र के उच्चारण में तीन श्वासोच्छ्वास होते हैं। यथा-‘णमो अरिहंताणं’ पद बोलकर श्वास ऊपर खींचना और ‘णमो सिद्धाणं’ पद बोलकर श्वास नीचे छोड़ना, ऐसा एक श्वासोच्छ्वास हुआ। ऐसे ही ‘णमो आइरियाणं’ और ‘णमो उवज्झायाणं’ में एक श्वासोच्छ्वास तथा ‘णमो लोए’ और ‘सव्व साहूणं’ इस पद में एक श्वासोच्छ्वास, ये तीन स्वासोच्छ्वास हो जाते हैं। आगे कायोत्सर्ग का प्रमाण बतलाने में आचार्य स्वासोच्छ्वासों से गणना बताते हैं।
दैवसिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में १०८ स्वासोच्छ्वास होते हैं। अर्थात् वीरभक्ति के प्रारंभ में ३६ बार णमोकार मंत्र जपने में १०८ स्वासोच्छ्वास हो जाते हैं। रात्रिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में ५४ स्वासोच्छ्वास (१८ बार णमोकार जाप्य), पाक्षिक, प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में ३०० स्वासोच्छ्वास, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में ४०० स्वासोच्छ्वास तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में ५०० श्वासोच्छ्वासों में महामंत्र का ध्यान होता है।
पाँच महाव्रतों में से किसी भी महाव्रत में अतिचार लगने पर १०८ स्वासोच्छ्वास किये जाते हैं।
आहार के अनन्तर गोचार प्रतिक्रमण में, ग्राम से ग्रामांतर गमन में, जिनेन्द्रदेव के पंचकल्याणक स्थानों की वंदना में, साधु की निषद्या वंदना में तथा मल-मूत्र विसर्जन के अनन्तर मुनिराज २५ स्वासोच्छ्वासपूर्वक नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करते हैं। अर्थात् उपर्युक्त स्थान के कायोत्सर्ग में २५ स्वासोच्छ्वास ही किये जाते हैं।
ग्रंथ स्वाध्याय के प्रारंभ और समापन में तथा देववंदना में जो कायोत्सर्ग होता है, उसमें २७ स्वासोच्छ्वास किये जाते हैं। कायोत्सर्ग के अनन्तर साधु धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान में स्थिर होते हैं। स्थिर मुद्रा के करने से जैसे अङ्गोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं, वैसे ही कायोत्सर्ग के करने से कर्मधूलि झड़ जाती है।
उत्थित-उत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्ट-उत्थित और उपविष्ट-निविष्ट।
जो साधु खड़े होकर जिनमुद्रा से कायोत्सर्ग कर रहे हैं और उनके परिणाम भी धर्मध्यान या शुक्लध्यान रूप हैं, उनका वह कायोत्सर्ग उत्थित-उत्थित है।
जो कायोत्सर्ग मुद्रा में तो खड़े हैं किन्तु परिणाम में आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यान चल रहा है। उनका वह कायोत्सर्ग उत्थितनिविष्ट है।
जो बैठकर योगमुद्रा से कायोत्सर्ग कर रहे हैं किन्तु अन्तरंग में धर्मध्यान या शुक्लध्यान रूप उपयोग चल रहा है। उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्ट उत्थित है।
जो बैठकर आर्तध्यान या रौद्रध्यान रूप परिणाम कर रहे हैं। उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टनिविष्ट कहलाता है।
इनमें से प्रथम और तृतीय अर्थात् उत्थित-उत्थित और उपविष्टोत्थित ये दो कायोत्सर्ग इष्टफलदायी हैं और शेष दो अनिष्ट फलदायी हैं।
जो प्राणायामविधि से मानसिक जाप्य करने में असमर्थ हैं, वे उपांशुरूप वचनोच्चारणपूर्वक वाचनिक जाप्य करते हैं किन्तु उसके फल में अन्तर पड़ जाता है। यथा-
‘‘कायोत्सर्ग में वचन द्वारा ऐसा उच्चारण करें कि जिससे अपने पास बैठा हुआ भी कोई न सुन सके, उसे उपांशु जाप्य कहते हैं। यह वाचनिक जाप्य भी किया जाता है। किन्तु इसका पुण्य सौ गुणा है, तो मानसिक जाप्य का पुण्य हजारगुणा अधिक होता है।’’
श्री उमास्वामी आचार्य ने इस महामंत्र को हमेशा जपते रहने को कहा है-
उठते, बैठते, चलते, फिरते समय, घर से निकलते समय, मार्ग में चलते समय, घर में कुछ काम करते समय पद-पद पर णमोकार को जो जपते रहते हैं, उनके कौन से मनोरथ सफल नहीं हो जाते हैं ? अर्थात् सम्पूर्ण वांछित सिद्ध हो जाते हैं।’’
अन्यत्र भी कहा है-
‘‘छींक आने पर, जँभाई लेने पर, खाँसी आदि आने पर या अकस्मात् कहीं वेदना के उठ जाने पर या चिन्ता हो जाने पर इत्यादि प्रसंगों पर महामंत्र का जाप करना चाहिए। सोते समय और सोकर उठते ही णमोकार मंत्र का स्मरण करना चाहिए।’’ कहने का तात्पर्य यही है कि हमेशा महामंत्र का ध्यान व चिंतन या उच्चारण करते रहना चाहिए। इससे विघ्नों का नाश होता है, शांति मिलती है तथा क्रम से ध्यान की सिद्धि होती है।
कायोत्सर्ग के ३२ दोष-
अब कायोत्सर्ग के ३२ दोष बतलाते हैं-
१. घोटक दोष-घोड़े के समान एक पैर उठाकर अर्थात् एक पैर से भूमि को स्पर्श न करते हुए खड़े होना।
२. लता दोष-वायु से हिलती लता के समान हिलते हुए कायोत्सर्ग करना।
३. स्तंभ दोष-स्तंभ का सहारा लेकर अथवा स्तंभ के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करना।
४. कुड्य दोष-दीवाल आदि का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना।
५. माला दोष-पीठादि-पाटा आदि के ऊपर आरोहण कर अथवा मस्तक के ऊपर कोई रज्जु वगैरह वस्तु का आश्रय लेव्ाâर खड़े होना।
६. शबरी दोष-भिल्लनी के समान गुह्य अंग को हाथों से ढककर या जंघा से जघन को पीड़ित करके खड़े होना।
७. निगड दोष-अपने दोनों पैरों को बेड़ी से जकड़े हुए की तरह पैरों में बहुत अंतराल करके खड़े होना।
८. लंबोत्तर दोष-नाभि से ऊर्ध्व भाग को लंबा करके अथवा कायोत्सर्ग में स्थित हुए अधिक ऊँचे होना या झुकाना।
९. स्तनदृष्टि दोष-अपने स्तन भाग पर दृष्टि रखना।
१०. वायस दोष-कौवे के समान इधर-उधर देखना।
११. खलीन दोष-जैसे घोड़ा लगाम लग जाने से दाँतों को घिसता-कटकट करता हुआ सिर को ऊपर-नीचे करता है, वैसे ही दाँतों को कट-कटाते हुए सिर को ऊपर नीचे करना।
१२. युग दोष-जैसे कंधे के जुए से पीड़ित बैल गर्दन पैâला देता है, वैसे ही ग्रीवा को लम्बी करके कायोत्सर्ग करना।
१३. कपित्थ दोष-वैâथ की तरह मुट्ठी बाँधकर कायोत्सर्ग करना।
१४. शिर:प्रकंपित दोष-कायोत्सर्ग करते समय सिर हिलाना।
१५. मूक दोष-मूक मनुष्य के समान मुख विकार करना, नाक सिकोड़ना।
१६. अंगुलि दोष-कायोत्सर्ग करते समय अंगुलियों से गणना करना।
१७. भ्रूविकार दोष-कायोत्सर्ग करते समय भृकुटियों को चढ़ाना या विकार युक्त करना।
१८. वारुणीपायी दोष-मदिरापायी के समान झूमते हुए कायोत्सर्ग करना।
१९. से २८ दिशावलोकन दोष-कायोत्सर्ग करते समय पूर्वादि दिशाओं का अवलोकन करना। इसमें दश दिशा संबंधी दश दोष हो जाते हैं।
२९. ग्रीवोन्नमन दोष-कायोत्सर्ग करते समय गर्दन को ऊँची उठाना।
३०. प्रणमन दोष-कायोत्सर्ग में गर्दन अधिक नीचे झुकाना।
३१. निष्ठीवन दोष-थूकना, श्लेष्मा आदि निकालना।
३२. अंगामर्श दोष-कायोत्सर्ग करने में शरीर का स्पर्श करना।
इन बत्तीस दोषों को छोड़कर धीर साधु दु:खों का नाश करने के लिए माया से रहित, विशेषतासहित, अपनी शक्ति और अवस्था-उम्र के अनुरूप कायोत्सर्ग करते हैं।