‘आवश्यक’ शब्द का सामान्य अर्थ है जिसका अवश्य पालन होना चाहिये; जरूरी या सापेक्ष। निरुक्तिपरक अर्थ है—वश्य उसे कहते हैं जो किसी के अधीन होता है और जो ऐसा नहीं होता उसे अवश्य कहते हैं और उसके कर्म को आवश्यक कहते हैं।
अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य हो वह आवश्यक शब्द से कहा जाना चाहिये परन्तु आवश्यक शब्द यहां पारिभाषिक अर्थ में साधु और श्रावक की विशेष क्रियाओं के लिये प्रसिद्ध है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में कहा है—
१. जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं।।गाथा।१४१।
२. ण वसो अवसो, अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा।।गाथा १४२।
मूलाचार (गाथा २१५) में कहा है कि जो कषाय, रागद्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवश का जो आचरण वह आवश्यक है।
‘‘यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन तत्।
आवश्यकमवश्यस्य कर्माहोरात्रिकं मुने:।।८/१६।।’’
रोग आदि से पीड़ित होने पर भी इन्द्रियों के अधीन न होकर मुनि के द्वारा जो दिन-रात के कर्त्तव्य किये जाते हैं, उन्हें आवश्यक कहते हैं। जो ‘वश्य’ अर्थात् इन्द्रियों के अधीन नहीं होता उसे अवश्य कहते हैं और अवश्य के कर्म को आवश्यक कहते हैं।
‘आवासक’ ऐसा शब्द मानकर ‘आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यका:’ ऐसी भी निरुक्ति होती है अर्थात् जो आत्मा में रत्नत्रय का निवास कराते हैं, उनको आवासक/आवश्यक कहते हैं।
अभिप्राय यह है कि चाहे अनगार हो या सागार—आगम में दोनों ही के लिये अपनी—अपनी स्थिति के अनुरूप कुछ ऐसी क्रियाएँ निर्दिष्ट की गई हैं जो उन्हें मोक्षमार्ग में सतत गतिमान रखती हैं और जिन्हें नियमत: कर्त्तव्यरूप में बिना प्रमाद किए सोल्लास प्रतिदिन सम्पन्न करना चाहिये। इन क्रियाओं को ‘आवश्यक’ संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
विवेकवान, विरक्तचित्त गृहस्थ को श्रावक कहते हैं, जो पाक्षिक, नैष्ठिक व साधक के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। आचार्यों ने श्रावकों के मूल व उत्तरगुणों का निर्देश किया है। प्रत्येक श्रावक को मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिये क्योंकि (अष्ट) मूलगुण धारण व (सप्त) व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं हो सकता। पंचाध्यायीकार का कथन है—
एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामत:।
किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।।
उत्तरार्द्ध ७२५।।
सागार धर्मामृतकार ने विभिन्न आचार्यों की मूलगुण सम्बन्धी स्थापनाओं का उल्लेख किया है जिनका सुष्ठु समाहार निम्नलिखित श्लोक में हो जाता है—
मद्यपलमधुनिशासन पञ्चफलीविरति पञ्चकाप्तनुती।
जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।।२/१८।।
मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन व पांच उदुम्बर फलों का त्याग, देववन्दना, जीवदया करना और पानी छानकर पीना ये आठ मूलगुण माने गये हैं। इन आठ मूलगुणों में एक पाक्षिक श्रावक के योग्य सभी आचार आ जाता है। ‘मूल’ जड़ को कहते हैं, जैसे—दृढ़ जड़ के अभाव में वृक्ष की स्थिति सम्भव नहीं है उसी प्रकार इन मूलगुणों के अभाव में श्रावक भी धार्मिक क्रियाओं का सम्यक् निर्वाह नहीं कर सकता है अत: प्रत्येक श्रावक या गृहस्थ को ‘पात्र’ कहलाने के लिये इन आठ मूलगुणों को अवश्य धारण करना चाहिये।
मूलगुणों के बाद आचार्यों ने श्रावक के अनेक उत्तर गुणों की भी विशद चर्चा की है। गृहस्थ के आवश्यक या गृहस्थ के कर्त्तव्य भी उत्तरगुणों के अन्तर्गत ही आते हैं।
अनेक आचार्यों ने अपेक्षाभेद से श्रावक के २, ४, ५ और ६ तक आवश्यक कर्त्तव्य निश्चित किये हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य ने ‘रयणसार’ में दान और पूजा को श्रावक का प्रमुख कर्त्तव्य माना है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।
‘‘दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा’’ १०
(श्रावकाचार संग्रह, पृ. ४८०) भाग ३
‘व्रतोद्योतन श्रावकाचार’ में अभ्रदेव ने भी आचार्य के उक्त कथन को ही प्रधानता दी है—
बहुना जल्पितेनात्र किं प्रयोजनमुच्यते।
श्रावकाणामुभौ मार्गौ दानपूजाप्रवर्तिनौ।।१८४।।
(श्रावकाचारसंग्रह भाग ३, पृ. २२६)
कषायपाहुड में श्रावक के चार धर्म कहे गये हैं—‘‘दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो’’ दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं।
सागार धर्मामृतकार ने भी एक स्थान पर श्रावकों के लिये चार प्रकार का आचार निर्दिष्ट किया है—
‘‘दानशीलोपवासार्चाभेदादपि चतुर्विध:।
स्वधर्म: श्रावकै: कृत्यो भवोच्छित्त्यै यथायथम्’’।।५१।।
(ज्ञानपीठ संस्करण—पृ. ३०५)
अमितगति आचार्य ने भी अपने श्रावकाचार में श्रावकों के संसार—कान्तार को जलाने के लिये चार प्रकार का धर्म कहा है—
दानं पूजा जिनै: शीलमुपवासश्चतुर्विध:।
श्रावकाणां मतो धर्म: संसारारण्यपावक:।।९/१।।
(पृ. ३४४ श्रा. संग्रह भाग १)
पण्डित आशाधरजी ने सागार धर्मामृत के प्रथम अध्याय के १८वें श्लोक में श्रावक के पांच धर्म—कर्म गिनाये हैं—
नित्याष्टाह्निक सच्चतुर्मुखमहान्कल्पद्रुमैन्द्रध्वजा—
विज्या: पात्रसमक्रियान्वयदयादत्तीस्तप: संयमौ।
स्वाध्यायं च विधातुमाहतकृषी सेवावणिज्यादिक:
शुद्ध्याऽऽप्तोदितया गृही मललवं प्रक्षादिभिश्च क्षिपेत्।।१८।।
(पृ. ३४ ज्ञानपीठ सं.)
कृषि, सेवा, व्यापार आदि छह आजीवन कर्मों को यथायोग्य स्वीकार करने वाले गृहस्थ को नित्यपूजा, आष्टाह्निक पूजा, सच्चतुर्मुख पूजा, कल्पद्रुम पूजा और इन्द्रध्वज पूजा को, पात्रदत्ति, समक्रियादत्ति, अन्वयदत्ति और दयादत्ति को तथा तप, संयम और स्वाध्याय को करने के लिये गुरुओं के द्वारा कहे हुए प्रायश्चित्त के द्वारा तथा पक्षचर्या साधन के द्वारा पाप के लेश को दूर करना चाहिये।
आचार्य जिनसेन ने महापुराण में गृहस्थ के षट्कर्म इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम तथा तप बतलाए हैं।
‘‘इज्यां वार्तां च दिंत्त च स्वाध्याय: संयमं तप:’’ ३८/२४।
पण्डित आशाधरजी ने वार्ता को छोड़कर—जो आजीविका से सम्बद्ध हैं, शेष पांच ही गिनाए हैं।
चामुण्डराय प्रणीत चारित्रसार में भी गृहस्थों के छह आर्य कर्म उल्लिखित हुए हैं—
‘‘गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्ति: स्वाध्याय: संयम: तप इत्यार्य षट्कर्माणि भवन्ति।।’’
(श्रा. सं. १/२५८)
‘‘देवसेवा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमं तप:।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने’’।।
(उपासकाध्ययन)
आचार्य पद्मनन्दि ने भी अपनी पंचिंवशतिका में यही छह आवश्यक कर्म बताये हैं—
‘‘देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने’’।।६/७।।
(श्रा. सं. भाग ३ पृ. ४२७)
मेधावी पण्डित विरचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार में गृहस्थ के छह कर्म बताए गए हैं। इसमें गुरुपास्ति के स्थान पर ‘वार्ता’ को गृहस्थ का आवश्यक कर्म माना है—
इज्या वार्त्ता तपो दानं स्वाध्याय: संयमस्तथा।
ये षट्कर्माणि कुर्वन्त्यन्वहं ते गृहिणो मता:।।६/२६।।
(श्रा. संग्रह भाग २ पृ. १५४.)
महापुराण, चारित्रसार और मेधावी पण्डित रचित श्रावकाचार में ‘वार्ता’ को गृहस्थ के षट्कर्मों में गिनाया गया है परन्तु वार्ता तो कृषि आदि षट्कर्म रूप है जो आजीविका से सम्बद्ध है अत: धर्म-कर्म में सम्भवत: उसे स्वीकृति न देकर गुरुपासना को सम्मिलित किया गया है।
देवपूजादिषट्कर्मनिरत: कुलसत्तम:।
अद्यषट्कर्मनिर्मुक्त: श्रावक: परमो भवेत्।।९४।।
देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ही यहां षट्कर्म के रूप में उल्लिखित हुए हैं।
इस तरह भिन्न-भिन्न आचार्यों ने २, ४, ५, ६ तक षडावश्यक निश्चित किये हैं तथा उन्हें आवश्यक, दैनिक कर्म, धर्म—कर्म, आर्यकर्म, कर्त्तव्य, मुख्यकर्म आदि विविध संज्ञाओं से अभिहित किया है। इन धार्मिक कर्त्तव्यों को प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये। गृहस्थ दशा में शुभोपयोगरूप धर्म की सिद्धि होती है। उपर्युक्त सभी आवश्यक कर्त्तव्य—कर्म पुण्यबन्ध के हेतु हैं तथा वीतराग भाव की ओर लक्ष्य ले जाने में अत्यन्त सहायक हैं।
देवपूजा—
मन, वचन, काय से भगवान जिनेन्द्र—अरहन्त और सिद्ध परमेष्ठी के गुणों का विशेष रूप से वर्णन, चिंतन व मनन करते हुए अष्ट द्रव्यों से पूजन करना देवपूजा है। यह गृहस्थ का सर्वाधिक प्रमुख कर्त्तव्य है। यदि किसी कारणवश अष्ट द्रव्य से पूजन न कर सके तो स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर मन्दिर में जाकर अतिविनय और बहुत हर्ष के साथ देवाधिदेव का दर्शन करें। दर्शन, स्तवन, नमस्कार, प्रदक्षिणा आदि भी एक लघुपूजन है।
(अ) दर्शन विधि—जिनेन्द्रदेव के सम्मुख जाते ही अत्यन्त विनयपूर्वक हाथ जोड़कर सिर झुकावें। णमोकार मन्त्र पढ़कर कोई स्तवन, स्तोत्र या श्लोकादि पढ़कर अक्षत या फल चढ़ावें। अनन्तर अष्टांङ्ग अथवा पञ्चाङ्ग नमस्कार करें (धोक देवें)। फिर मन्द किन्तु स्पष्ट स्वर में शुद्ध उच्चारणपूर्वक संस्कृत या हिन्दी भाषा का स्तोत्र पढ़ते हुए अपनी बांयी ओर से चलकर वेदी की धीरे—धीरे तीन प्रदक्षिणा दें। स्तोत्र पूरा होने पर फिर नमस्कारपूर्वक धोक देवें। दर्शन करते समय अपनी दृष्टि जिनबिम्ब पर ही केन्द्रित रखनी चाहिये। स्तोत्र का वाचन उसके अर्थ को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये। दर्शन करते समय या प्रदक्षिणा लगाते समय इस बात की विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि कहीं मेरी इन क्रियाओं से अन्य व्यक्तियों के दर्शन—पूजन में तो विघ्न नहीं पड़ रहा है।
दर्शन के बाद भगवान के अभिषेक का ‘गन्धोदक’ शरीर के उत्तम (नाभि से ऊपर के) अंगों में लगाना चाहिये। देव दर्शन—पूजन करने हेतु गृहस्थ को खाली हाथ नहीं आना चाहिये—
‘‘रिक्तपाणिर्नैव पश्येद् राजानं देवतां गुरुम्।’’
चढ़ाने के लिये चावल आदि अवश्य साथ में ले जाने चाहिये। चावल चढ़ाने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह धान से छिलका उतर जाने पर फिर धान में उगने की शक्ति नहीं रहती, इसी प्रकार भगवान के दर्शन, पूजन—भक्ति करने से आत्मा पुन: जन्म लेने योग्य न रहे।
(आ) पूजन विधि—पूजा करने के लिए पूजक को शुद्ध छने जल से स्नान करके शुद्ध, स्वच्छ एवं अखण्ड वस्त्र (धोती, दुपट्टा) पहनना चाहिये। धोती और दुपट्टा अलग-अलग होना चाहिये।
पूजन की सामग्री वुँâए के जल से ही धोनी चाहिये क्योंकि वह जल शुद्ध होता है। जहां तक हो सके पूर्व या उत्तरदिशा की ओर मुख करके पूजन आदि शुभ कार्य करने चाहिये। पूजन प्रारम्भ करने से पूर्व अभिषेक एवं शान्तिधारा करनी चाहिये। यह पूजन का ही एक अंग है।
अभिषेक कर लेने के बाद विधिपूर्वक अष्टद्रव्य से पूजन प्रारम्भ करना चाहिये। अष्टद्रव्यों को चढ़ाते समय जलधारा झारी से, चन्दन अनामिका अंगुली से, अक्षत बँधी हुई मुट्ठी से, पुष्प दोनों हाथों से, धूप अग्नि में तथा नैवेद्य, फल और अर्घ्य रकेबी से चढ़ाने का विशेष ध्यान रखना चाहिये। जितनी पूजाएँ करनी हाें उतनी सब करने के पश्चात् भगवान् की आरती करके शांतिपाठ और विसर्जन करना चाहिये। अभिषेक, आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन, शांतिपाठ और विसर्जन ये सब पूजा के अंग हैं। इनको किए बिना पूजा अपूर्ण रहती है। जो अभिषेक करें उन्हें भगवान का पूजन अवश्य करना चाहिये। पूजा भी अभिषेकपूर्वक ही की जानी चाहिये।
प्रात:काल दर्शन-पूजन करने से हमारा मन पवित्र रहता है। अपने आदर्श के स्मरण के लिये सबको प्रात:काल सबसे प्रथम शुभ पदार्थ को देखना चाहिये, वीतराग भगवान से बढ़कर शुभ दर्शन और किसका हो सकता है ? अत: अन्य कोई घर, व्यापार आदि का कार्य आरम्भ करने से पूर्व भगवान का दर्शन-पूजन करना अत्यन्त आवश्यक कर्म है।
गुरु उपास्ति—
पूजन के बाद समस्त परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ गुरुओं (आचार्य, उपाध्याय, साधु, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका) के पास जाकर उन्हें अक्षत या फल आदि चढ़ाकर यथायोग्य नमोस्तु, वन्दामि आदि करके भक्तिभाव से उनकी स्तुति एवं पूजन करना चाहिये, धर्मोपदेश सुनना चाहिये। उनकी सेवा-सुश्रूषा करना, आवश्यकतानुसार कमण्डलु, पीछी, शास्त्र आदि उपकरण देना, विधिपूर्वक प्रफुल्ल हृदय से निर्दोष आहार कराना आदि क्रियाएँ भी गुरु उपासना ही हैं। यदि निकट में गुरुओं का समागम लाभ न हो तो बड़ी भक्ति सहित उनकी स्तुति आदि पढ़नी चाहिये।
स्वाध्याय—
अर्हन्त भगवान द्वारा उच्चरित, गणधरों द्वारा ग्रथित तथा आचार्यों द्वारा लिखित चारों अनुयोग (प्रथमं, करणं, चरणं, द्रव्यं) रूप आगम का पढ़ना—पढ़ाना, सुनना—सुनाना, पूछना व बताना, चिन्तन व मनन करना, चर्चा करना, स्वाध्याय नाम का तीसरा आवश्यक कर्म है।
स्वाध्याय शब्द का अर्थ तीन प्रकार से किया जाता है—
१. स्व + अध्याय (स्वस्य आत्मन: अध्ययनम्) अपनी आत्मा का अध्ययन, आत्मनिरीक्षण
२. स्व + अध्याय (स्वयं अध्ययन) · अपने आप अध्ययन, मनन
३. सु + अध्याय · उत्तम अध्ययन, आत्महित करने वाली वाणी का अध्ययन। प्रारम्भिक स्थिति सु + अध्याय की है और विकसित स्थिति स्वाध्याय की।
आचार्यों ने स्वाध्याय को आभ्यन्तर तप माना है और इसके पाँच भेद किए हैं—‘‘वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशा:’’ (९/२५ त. सू.) वाचना (पढ़ना), पृच्छना (संशय को दूर करने के लिये अथवा कृत निश्चय को दृढ़ करने के लिये प्रश्न पूछना), अनुप्रेक्षा (जाने हुए पदार्थ का बार-बार चिंतवन करना), आम्नाय (निर्दोष उच्चारण करते हुए पाठ करना) और धर्मोपदेश—धर्म का उपदेश करना।
संसारी प्राणी रात दिन सुख, शान्ति पाने के लिये प्रयत्नशील रहता है किन्तु उसे मन की स्थिरता के अभाव में प्राय: निराशा ही मिलती है अत: चित्त की चञ्चलता को कम करने का प्रयत्न अपेक्षित है। स्वाध्याय मन को स्थिर करने का प्रथम और अमोघ उपाय है अत: प्रतिदिन नियमितरूप से कुछ समय निकालकर स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। आत्महित स्वाध्याय से ही होता है।
प्रथमानुयोग के ग्रंथ महापुरुषों के चरित्रों के माध्यम से हमें प्रेरणा प्रदान करते हैं तो करणानुयोग के ग्रंथों के माध्यम से सम्पूर्ण लोक का स्वरूप ज्ञात होता है। चरणानुयोग के ग्रंथ पापरूप कर्म से बचने व जीवन में सदाचार को ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं तथा द्रव्यानुयोग के ग्रंथों से तत्त्व विवेक जागृत होता है। सभी विषयों में ज्ञान के विकास के लिये सभी ग्रंथ पठनीय हैं। मुक्तिमार्ग पर अग्रसर होने वाले प्रत्येक मानव को सभी सद्शास्त्रों का अध्ययन, मनन और चिन्तन करना चाहिये।
संयम—
इच्छाएँ आकुलता की जननी हैं। मोक्षमार्ग पर चलने वाले पथिक को अपनी बढ़ती हुई इच्छाओं पर नियन्त्रण करना चाहिये तथा हिंसादि पांच पापों से बचना चाहिये। संयम शब्द का अर्थ है सम्यक् प्रकार से नियमन करना, दमन करना, किसको? आकुलता-व्याकुलता उत्पादक विकल्पों को—जो विषयभोगों के दृढ़ संस्कारवश प्रतिक्षण नवीन रूप धारण करके चित्त को चञ्चल किए रहते हैं, मुक्तिपथ में बाधक बनते हैं। इन्द्रिय संयम एवं प्राणिसंयम के भेद से संयम दो प्रकार का होता है। गृहस्थों को शक्त्यनुसार पांचों इन्द्रियों और मन के प्रसार को रोकना चाहिये तथा त्रस जीवों की दया करते हुए बिना प्रयोजन स्थावर प्राणियों की िंहसा भी नहीं करनी चाहिये। संयम के बिना जीवन निष्फल है। स्वच्छन्द प्रवृत्ति आत्मा को संसार में भटकाने वाली है अत: प्रतिदिन भोजन—पान, वस्त्राभूषण, मनोरंजन, काम सेवन आदि भोगोपभोग की सामग्री का नियम करना चाहिए तथा जीवों की विराधना से बचना चाहिये।
तप—
‘‘इच्छा निरोध: तप:’’ इच्छाओं को रोकना ही तप है। तप से कर्मों का संवर होता है साथ ही निर्जरा भी होती है। यद्यपि पुण्यकर्म का बन्ध होना भी तप का फल है तथापि तप का प्रधान फल कर्मों की निर्जरा ही है। जब तप में कुछ न्यूनता होती है तब उससे पुण्यकर्म का बन्ध होता है इसलिये पुण्य का बन्ध होना तप का गौण फल है।
मुनिधर्म तपश्चरण प्रधान है। आचार्यों ने ६ अन्तरंग और ६ बहिरंग तप माने हैं—
अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यारसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तप:।।१९।।
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।२०।।
(तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९)
श्रावक भी मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के भाव रखता है अर्थात् उसके भाव भी मुनि बनने के रहते हैं अत: वह भी अभ्यासरूप में इन तपों को धारण करता है किन्तु शक्ति के अनुसार। गृहस्थ दशा में पूर्ण तप का पालन तो नहीं किया जा सकता है परन्तु फिर भी शक्ति के अनुसार ही तप, व्रत आदि करना चाहिये, शक्ति से अधिक नहीं। व्रतों या उपवासों के माध्यम से जिनगुणसम्पत्ति आदि व्रत करना भी तप में है।
सम्यक् श्रद्धा व संयम के साथ किया गया तप ही मुक्तिपथ की ओर ले जाने वाला होता है, आत्मा को निर्मल बनाने वाला होता है। भावों के बिना किया गया तप सार्थक नहीं होता। तप ख्याति लाभ से परे हो, छलकपट से रहित हो, इच्छाओं से रहित हो तभी उसकी सार्थकता है। उसी से आत्मशुद्धि सम्भव है इसलिये भले ही तप थोड़ा हो परन्तु समीचीन हो। गृहस्थ को यथाशक्ति प्रतिदिन इन तपों का अभ्यास करना चाहिये।
दान—
मोक्षमार्ग में प्रवृत्त सत्पात्रों के रत्नत्रय की वृद्धि के लिये, धर्मक्षेत्रों के निर्माण विकास के लिए तथा दीनदु:खी जीवों की प्राण रक्षा के लिए आवश्यकतानुसार, न्यायपूर्वक अर्जित अपने धन का त्याग करना, हमेशा के लिए दे देना दान कहलाता है।
‘‘पञ्चसूनाकृतं पापं यदेकत्र गृहाश्रमे।
तत्सर्वमतये वासौ दाता दानेन लुम्पति’’।।५९।।
(रत्नमाला; श्रावकाचार संग्रह भाग ३, पृ. ४१४)
आरम्भ परिग्रह से उत्पन्न पाप दान से नष्ट होता है। आहारदान, औषधिदान, ज्ञानदान और अभयदान के भेद से दान चार प्रकार का होता है। उत्तम पात्रों (रत्नत्रयधारी नग्न दिगम्बर साधु), मध्यम पात्रों (आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, व्रती श्रावक) तथा जघन्य पात्रों (अविरत सम्यग्दृष्टि) को आहार आदि चतुर्विध दान देना दानदत्ति है।
साधर्मियों के लिए धर्म, अर्थ, काम के साधनभूत पदार्थों का देना समदत्ति दान है। दीन-दु:खी जीवों को करुणापूर्वक भोजन, वस्त्र, औषधि आदि देने के साथ—साथ उन्हें पूर्ण अभय प्रदान करना दयादत्ति दान है।
गृहस्थ दशा का सम्पूर्ण भार स्वपुत्र को सौंपकर निश्चित होकर दीक्षा धारण करना या पूर्णत: धर्माराधन में तत्पर हो जाना अन्वयदत्ति दान है।
जिस दान के प्रदान करने से दाता और पात्र की आत्मा का कल्याण होता हो और जिस दान से मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति निरन्तर वृिंद्धगत होती रहे, वही दान वास्तव में दान है।
गृहस्थ को प्रतिदिन अपने बनाए हुए भोजन में से कुछ भोजन तथा अपनी आमदनी में से कुछ न कुछ द्रव्य का अवश्य दान करना चाहिये।
ये छह कर्तव्य या आवश्यक गृहस्थ को प्रतिदिन अवश्य करने चाहिए। इनके बिना गृहस्थ धर्म सार्थक नहीं होता।
पद्मनन्दि आचार्य ने पंचिंवशतिका में षडावश्यकों से शून्य गृहस्थजीवन को पत्थर की नाव के समान बताया है जो नियम से भवसागर में डूबने वाला है—
यैर्नित्यं न विलोक्यते जिनपतिर्न स्मर्यते नार्च्यते, न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम्।
सामर्थ्ये सति तद् गृहाश्रमपदं पाषाणनावा समं, तत्रस्था भवसागरेऽतिविषमे मज्जन्ति नश्यन्ति च।।
१८, देशव्रतोद्योतन।।
षडावश्यकों का गृहस्थ जीवन में अनिवार्यत: प्रतिदिन पालन करना चाहिये अन्यथा मनुष्य पर्याय और तिर्यञ्च पर्याय में क्या अन्तर रहेगा ? आहार, निद्रा, भय, मैथुन इन संज्ञाओं की अपेक्षा तो मनुष्य और पशु समान ही हैं।