जैन समाज में खान पान की शुद्धि पर विशेष ध्यान हमेशा से दिया जाता रहा है। खान पान की शुद्धि जैनत्व की पहचान रही है। हमारे आचार्यों ने श्रावकाचार ग्रंथों के माध्यम से हमें श्रावक बनाये रखने का भरपूर प्रयास किया है परन्तु अब मर्यादायें टूटती जा रही हैं। पाश्चात्य संस्कृति की देखादेखी ने जीवन का दृष्टिकोण ही बदल दिया है। विज्ञान के नए-नए चमत्कार जहाँ समृद्धि के सूचक हैं, ज्ञानार्जन में सहयोगी हैं, वहीं नई पीढ़ी को अपनी पावन परम्पराओं से दूर हटाने में भी सहायक हो रहे हैं। व्यसन और फैशन का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है। लगता है श्रावकाचार शब्द कहीं खो गया है। आधुनिक पीढ़ी में खान-पान का विवेक चिंतनीय स्थिति तक गिर गया है। खान-पान की अशुद्धता इस पीढ़ी को धर्म विमुख भी कर रही है और सदाचारी भी नहीं रहने दे रही क्योंकि खानपान के विवेक बिना श्रावक धर्म का पालन तो दूर, सदाचारी नागरिक होना भी कठिन है। उक्ति प्रसिद्ध है-
यादृशं भक्ष्येदन्नं, तादृशी जायते मति:।
दीपोऽपि भक्षयते ध्वांतं, कज्जलं च प्रसूयते।।
जैसा खान-पान होता है उसी के अनुसार व्यक्ति की मति हो जाती है, दीपक अंधकार का भक्षण करता है अत: काजल उत्पन्न करता है। हमारे धर्मगुरु खान-पान की इस गिरावट से खिन्न हैं, समाज का नेतृत्व भी चिंतित है, सोच रहा है कि किस प्रकार युवाशक्ति को धर्म और समाज के कार्यों के लिए प्रोत्साहित करते हुए उनमें श्रावकाचार-सदाचार को प्रतिष्ठित किया जाये किन्तु यदि जनक ही दिग्भ्रमित होकर खान-पान की शुद्धि को शिथिल कर रहा हो तो फिर नई पीढ़ी में संस्कार कहाँ से आयेंगे। अर्थतंत्र के इस युग में शिक्षा का उद्देश्य भी मात्र अर्थप्राप्ति रह गया है। अर्थ प्राप्ति की होड़ में लोग यह देखने की आवश्यकता ही नहीं समझते कि अर्थ-अनर्थ भी कर रहा है। बचपन में पड़े संस्कार आसानी से बदलते नहीं हैं। यदि वे संस्कार अच्छे हुए तो भविष्य अच्छा होगा और यदि हमारी लापरवाही से बच्चों में बुरे संस्कार पड़ गये तो भविष्य भी अंधकारमय ही होगा अत: हमें पहले अपने और परिवार के खान-पान की ओर ध्यान देना होगा।
इस स्थिति में श्रावकाचार का पालन संजीवनी का कार्य कर सकता है। वर्तमान में श्रावकाचार के ग्रंथों का पठन-पाठन कम ही देखा जाता है। या तो अपने को शुद्ध-बुद्ध सिद्ध करने के लिए समयसार, प्रवचनसार जैसे महान ग्रंथों का स्वाध्याय होता है या साधुओं में दोष देखने के लिए श्रमणाचार बताने वाले ग्रंथ पढ़े जाते हैं। विचार करें फिर अपना कल्याण वैâसे होगा ? उपरोक्त ग्रंथों का हार्द भी यदि हृदयंगम किया जाये तो वह भी श्रावकाचार का पाठ पढ़ायेगा। यदि हम श्रावक धर्म का यथाविधि पालन करना-कराना चाहते हैं तो मेरी दृष्टि में हमें तीन बातें परिवार में अपनाना आवश्यक है।
(१) सत्संग (साधु संगति),
(२) सत्साहित्य (स्वाध्याय) और
(३) सत्संगति (गुणी और सदाचारी लोगों की संगति)।
यह कार्य सभी उम्र के लोगों के लिए लाभदायक होगा, यदि हम यह कर सकें तो हम सच्चे श्रावक बन सकेंगे और नई पीढ़ी को भी श्रावकाचार का पाठ पढ़ा सकेंगे। श्रावकाचार का स्वतंत्र रूप से वर्णन करने वाले प्रथम ग्रंथ ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने मद्य, मांस, मधु के त्याग के साथ अहिंसादि पाँच अणुव्रतों के पालन को श्रावक के आठ मूलगुणों के रूप में बताकर हमें श्रावकधर्म का उपदेश दिया है। यथा-
मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रत पंचकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तम:।।६६।।
उक्त श्लोक से यह ध्वनित होता है कि आचार्य महाराज गृहस्थों के लिए खानपान की शुद्धि पर विशेष जोर देना चाहते हैं। अभक्ष्य आहार से धार्मिक प्रवृत्ति और शारीरिक शक्ति शिथिल होकर चित्त की प्रवृत्ति अनुचित विषयों में लग जाती है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये जो पाँच पाप हैं ये अशुभ कर्मबंध के कारण होने से हमारे आगामी भवों को भी बिगाड़ते हैं और वर्तमान में भी व्यक्ति को परिवार, समाज और कानून की दृष्टि में हेय बनाकर दुखी और अपमानित करते हैं। रात्रिभोजन का त्याग न होना भी नई पीढ़ी में खान-पान की अशुद्धि का कारण बन रहा है। आचार्य श्री सकलकीर्ति महाराज ने अपने ग्रंथ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में रात्रिभोजन त्याग आवश्यक मानते हुए एक श्लोक दिया है-
इत्येवं दोष संयुक्तं त्याज्यं सम्भोजनं निशि।
विषान्नमिव नि:शेषं पापभीतैर्नरै: सदा।।२२-८१।।
अर्थात् पापों से डरने वाले मनुष्यों को अनेक दोषों से भरे हुए रात्रिभोजन को विष मिले हुए अन्न के समान सदा के लिए अवश्य त्याग कर देना चाहिए। रात्रिभोजन त्याग की बात विज्ञान की कसौटी पर भी खरी उतरती है। चिकित्सा विज्ञान मानता है कि रात्रि विश्राम से चार घंटे पूर्व भोजन बंद कर देना चाहिए क्योंकि नींद आ जाने के बाद पाचन क्रिया बंद हो जाती है। उसकी मान्यता यह भी है कि भोजन के कुछ तत्व मस्तिष्क को उत्तेजित कर देते हैं जिससे नींद नहीं आती। यह उत्तेजना मादक पदार्थों के सेवन या गरिष्ठ भोजन से विशेष रूप से आती है। एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में वायुमंडल अधिक आक्सीजनयुक्त होने के कारण स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होता है। यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि सूर्य की रोशनी में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति कम होती है तथा सूर्यास्त के बाद बढ़ जाती है। रात्रि में उत्पन्न होने वाले विषाक्त कीड़े आदि भोजन में पड़ जायें, तो फूड पायजिनिंग की घटनों भी हो जाती हैं। जैन श्रावकाचार ग्रंथों के अतिरिक्त वैदिक शास्त्रों में भी रात्रि भोजन का निषेध किया गया है।
इस प्रसंग में महाभारत का यह श्लोक भी महत्वपूर्ण है-
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्द भक्षणम्।
ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थयात्राजपस्तप:।।
अर्थात् जो मद्यपान करते हैं, मांस खाते हैं, रात्रि भोजन करते हैं, कन्दमूल भक्षण करते हैं, उनकी तीर्थयात्रा और जप तप सब व्यर्थ हो जाते हैं। श्रावकाचार के अनुसार कन्दमूल खाना भी हम श्रावकों के लिए वर्जित है। इस पर बहुत ऊहापोह होता है, अनेक प्रकार के कुतर्कों का सहारा लेकर कन्दमूल खाना उचित ठहराने का प्रयत्न किया जाता है परन्तु सत्य तो सत्य ही रहेगा। जैनाचार्यों का मानना है कि कन्दमूल अनन्त जीवों का पिण्ड है। देखें प्रश्नोत्तर श्रावकाचार का यह श्लोक-
तिलमात्रसमे कन्दे चानन्तजीवसंस्थिति:।
तस्य भक्षणतो भुक्ता: सर्वे जीवा: कुदृष्टिभि:।।९८-१७।।
अर्थात् तिल के समान थोड़े से कन्दमूल में भी अनन्त जीवों का निवास होता है। इस श्लोक में आचार्य सकलकीर्ति महाराज ने कन्दमूल की स्थिति भी बताई और यह भी घोषित कर दिया कि सम्यग्दृष्टि जीव कन्दमूल नहीं खाते। जैनाचार्यों ने पाँच प्रकार के अभक्ष्यों का वर्णन किया है। ये अभक्ष्य हमें धर्मविमुख भी करते हैं और हमारे शरीर में विकृति उत्पन्न करके हमें अस्वस्थ भी बनाते हैं। पंडित आशाधर जी ने गृहस्थ धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सागारधर्मामृत’ में इन अभक्ष्यों का वर्णन इस प्रकार किया है-
पलमधुमद्यवदखिल त्रसबहुघात प्रमादविषयोऽर्थ:।
त्याज्योऽन्यथाऽप्यनिष्टोऽनुपसेव्यश्च व्रताद्धि फलमिष्टम्।।
अर्थात् मद्य, मांस, मधु के समान ही त्रसघातविषयक, बहुघातविषयक, प्रमादविषयक, अनिष्टकारक और अनुपसेव्य पदार्थों का त्याग कर देना चाहिए। आचार्य श्री कुंथुसागर महाराज ने अपने श्रावकाचार ग्रंथ ‘श्रावक धर्म प्रदीप’ में तो यहाँ तक लिख दिया कि-
मद्यमांसमधूनां हि सेवनं स्पर्शनं तथा।
अकार्यं दु:खदं निन्द्यं श्रावकैर्धर्मवत्सले।।
अर्थात् मांस आदि पदार्थों का सेवन तो बहुत दूर उसे स्पर्श करना भी निंद्य और पापकर्म होने से दु:खदायक है। और भी अनेक प्रकार से आचार्य भगवन्तों ने और पंडित आशाधरजी जैसे विद्वानों ने अपने ग्रंथों में श्रावकधर्म का वर्णन करते हुए खान-पान की शुद्धि के लिए हमें सचेत किया है। आवश्यकता है उनके उपदेशों को जीवन में उतारने की और आधुनिक पीढ़ी को उन उपदेशों का मर्म समझाने की। आधुनिक पीढ़ी हमसे अधिक समझदार है, वह यदि श्रावकाचार की उपयोगिता को समझ लेगी तो हमें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
भोजन की शुद्धि एवं स्वास्थ्य के संरक्षण हेतु अभक्ष्य वस्तुओं के सेवन करने का त्याग भी गृहस्थ का प्रथम कर्त्तव्य है। मद्य, मांस, मधु एवं मर्यादा से बाहर की वस्तुओं को अभक्ष्य कहा गया है। जैसा कि पूर्व में मूलगुणों के प्रकरण में कहा गया है। मदिरापान करना स्वास्थ्य के लिये तो हानिकारक है ही, वह अपने जीवन को बर्बाद करने का भी एक प्रमुख कारण है। हजारों घर अपने घर के एक ही मद्यपायीजन के द्वारा बर्बाद होते रहते हैं। मद्यपायी का जीवन धर्म-कर्म और सभी सत्कार्यों के विनष्ट हो जाने से अनेक आपत्ति-विपत्तियों का घर बन जाता है। मदिरापान करने वालों की दुर्दशा से प्राय: सभी परिचित हैं।
मांसभक्षण तो और भी अनेक अनर्थों की जड़ है। मांस पंचेन्द्रिय जानवरों के शरीर का कलेवर है जो उनकी हत्या किये बिना प्राप्त नहीं होता। इसके सिवाय स्वयं मरे हुए जानवरों के मांस में भी निरन्तर असंख्य सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते और मरते रहते हैं, जिसके सेवन से अनेक रोग सहज ही उत्पन्न हो जाते हैं अत: मांसाहार जैनियों के चौके में कहीं भी और कभी भी निर्माण नहीं किया जाता और न कोई जैन मांसाहार करता ही है।
ग्रंथों में अभक्ष्य पांच प्रकार के वर्णित हैं-
१. जिसके सेवन से दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की िंहसा हो, जैसे-मांसाहार।
२. जिस एक वस्तु के सेवन से अनंत स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवों का घात हो, जैसे-कंदमूल, आलू, गाजर, घुइयां, जमीकंद, अदरक आदि।
३. वे पदार्थ जिनका भक्ष्य होकर भी मर्यादा से बाहर हो जाने से स्वाद बिगड़ गया हो, जिनसे सड़ांध पैदा हो गई हो, इन्हें चलित रस भी कहते हैं। जैसे-सड़े—गले फल, बदबूदार घी, तेल, दही, दूध आदि। इनमें सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति हो जाने से अभक्ष्य हैं।
४. वे पदार्थ जो भक्ष्य और निर्दोष तो हैं किन्तु व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिये हानिकर हैं। जैसे-खांसी के बीमार को खटाई आदि।
५. वे पदार्थ जो सेवन करने योग्य नहीं हैं, जैसे-जानवरों का मल-मूत्र अथवा स्वयं के मूत्र का पान करना आदि।
इसके सिवाय निम्न २२ प्रकार के अभक्ष्यों का वर्णन भी शास्त्रों में मिलता है।
ओला, घोर, बड़ा, निशिभोजन, बहुबीजा बैगन संधान।
बड़, पीपल, ऊमर, कठऊमर, पाकर फल जो होय अजान।।
कंदमूल, माटी, विष, आमिष, मधु माखन अरु मदिरापान।
फल अति तुच्छ, तुषार चलित रस, ये बावीस अभक्ष्य बखान।।
जिन खाद्य पदार्थों के निर्दोष होने से सेवन की जो मर्यादा बताई गई है वह इस प्रकार है। ये मर्यादों विज्ञानसम्मत हैं। मर्यादा के पश्चात् सूक्ष्म जीव भोज्य पदार्थों में उत्पन्न हो जाते हैं अत: निषेध किया गया है।
१. आटा, बेसन, पिसा हुआ अनाज-शीत ऋतु में ७ दिन, ग्रीष्म ऋतु में ५ दिन, वर्षा ऋतु में ३ दिन।
२. पानी छना हुआ १ मुहूर्त (दो घड़ी) अर्थात् ४८ मिनट।
३. लवंगादि द्रव्यों से प्रासुक (दो पहर-छ: घंटे)
४. गरम पानी की ८ पहर (२४ घंटे) की मर्यादा है।
५. दूध दुहकर दो घड़ी में उबाल लेने पर उसकी मर्यादा २४ घंटे की है। मर्यादा के बाहर या दूध के न उबालने पर दूध में सम्मूर्छन जीव पैदा हो जाते हैं अत: वह दूध अभक्ष्य-अशुद्ध माना जाता है।
६. दूध गर्म कर जमाया हुआ दही भी ८ पहर तक भक्ष्य है।
७. दही बिलोते समय गर्म पानी डालकर बनाई गई छाछ भी उसी दिन भक्ष्य है। यदि ठंडा पानी डाला गया तो केवल एक मुहूर्त ही भक्ष्य है।
८. शकर के बूरे की मर्यादा शीत ऋतु में एक मास, गर्मी में १५ दिन और बरसात में ७ दिन की है।
९. घी, गुड़, तेल आदि की मर्यादा इसके स्वाद न बिगड़ने तक है।
१०. खिचड़ी, कढ़ी, दाल की मर्यादा दो पहर (छ: घंटे) की है तथा पुआ, रोटी, पराठा आदि की मर्यादा ४ पहर है। पूड़ी, पपड़िया, खाजा, घेवर, लाडू की मर्यादा ८ पहर है।
११. मगद के लड्डू की मर्यादा आटे के बराबर ७-५-३ दिन है।
१२. पिसी हल्दी, मसाला, धनिया आदि की मर्यादा भी आटे के बराबर है।
१३. बूरा, मिश्री, खारक, किसमिस आदि मीठे पदार्थों से मिश्रित दही या रायते की मर्यादा दो घड़ी है।
जैन रसोई के मुख्य किरदार हैं-श्रावक एवं श्राविका। जिनका मुख्य दायित्व अपने परिवार के अलावा श्रमण अर्थात् साधुओं व त्यागियों के लिये उचित आहार उपलब्ध कराना है। जैनाचार में आहार पर गहराई से विचार हुआ। श्रावक के लिये व साधुओं के लिये कौन सा आहार उपयुक्त है इसकी विवेचना प्रत्येक ग्रंथ में हुई है। जैन चिंतन में भोजनशाला को एक प्रयोगशाला के रूप में वर्णित किया है, जिसके उपकरण व कर्मी सभी नियमों से बंधे हैं, जिनका लक्ष्य ऐसे भोजन का निर्माण करना है जो स्वास्थ्यवर्धक हो, शुद्ध हो, शाकाहारी हो व मन व मस्तिष्क को चैतन्य रखने में सक्षम हो।
वर्तमान युग में अनेक खाद्य सामग्री बाजार में उपलब्ध है। नये स्वादों ने चटोरों की भीड़ खड़ी कर दी है। अभक्ष्य वस्तुओं की एक लंबी लिस्ट हमारे सामने है। प्रत्येक रसोईघर बाजारवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले होटल बन गये हैं। फलत: परिवारों में बढ़ रहा है-बीमार एवं अर्द्धजीवी समूह का प्रतिशत। मेडिकल साइंस ने फास्ट फूड, प्रिजर्वफूड, रात्रिभोजन, मांसाहार आदि के दुष्परिणामों को स्वीकार किया है। कई बीमारियों का कारण खाद्य आदतें हैं, शोध व अनुसंधानों ने इसे सत्य साबित किया है जबकि हमारे श्रमण चिंतकों ने जीवन की प्रयोगशाला में पहले ही समझ लिया था इसलिये जैनागम में रसोई के लिये चार प्रमुख शर्तें निर्धारित हैं—
१. द्रव्य शुद्धि-खाना तैयार करने वाली सामग्री की शुद्धि, अन्न की शुद्धि, जल की शुद्धि, वनस्पति की शुद्धि ।
२. क्षेत्र शुद्धि-खाना बनाने के स्थान का शुद्धिकरण ।
३. काल शुद्धि-भोजन बनाने वाली सामग्री की समय मर्यादा एवं रात्रि में भोजन तैयार न करना काल शुद्धि कहलाता है।
४. मन शुद्धि-प्रसन्नतापूर्वक भोजन तैयार करना व खिलाना, ये चारों प्रकार की शुद्धियां बनाने का उद्देश्य है- शुद्धता, प्रासुकता, संतुलन व निरामिष भोजन।
आज समय की कसौटी पर यह सिद्ध हो गया है कि रात्रि में भोजन न देने वाली माँ बड़ी भारी वैज्ञानिक होती है। छना पानी पीने वाला जैन समाज एक्वागार्ड के सिद्धांत से ५००० वर्ष पूर्व भी परिचित था। जैन रसोई के भेद विज्ञान को समझने के लिये हम प्रवेश करते हैं हमारे चौके में, जिसकी डायरेक्टर है जैन विदुषी गृहणी। हमारी दैनिक क्रिया आरम्भ होती है पानी छानने की क्रिया से। । बासी पानी को एक मटके से दूसरे मटके में छानना, उसके बाद गलने को एक पात्र में धोना तथा जीवाणी को उचित स्थान पर पहुँचाना कितना सूक्ष्म विवेक है यह अहिंसा का, जो शायद ही अन्य समाज में होता होगा। पानी छानकर पीना न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से अपितु स्वास्थ्य की दृष्टि के अनुरूप है। वाशिंगटन के वर्ल्ड वाच संस्थान ने साफ पानी को लंबी उम्र का कारण माना है। डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने एक बूंद जल में ३६४५० बैक्टीरिया को साबित किया है अत: पानी छानना जो कि जैन जीवनाचार का एक अंग है वही वैज्ञानिक भी है।
जैन चौके की लगाम सूरज के हाथ में है। सूरज की पहली किरण जैन किचन पर दस्तक देती है। अंतिम किरण उसकी चटखनी लगा देती है। आज वैज्ञानिक व हमारा आयुर्वेद भी स्वीकार करता है कि रात्रि भोजन अहितकर है। सूरज की रोशनी में अनेक जीवाणु निकल नहीं पाते किन्तु रात में वे सक्रिय हो जाते हैं जो भोजन के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वैज्ञानिक तर्क है कि जीवाणुओं की ऐसी प्रकृति है कि एक निश्चित तापमान पर तेजी से बढ़ते हैं इसलिये किसी खाद्य सामग्री का कब तक उपयोग करना यह मर्यादित करना नितांत आवश्यक है। जैनागम में उदम्बर फल व जमीकंद को खाने योग्य नहीं माना गया है। आलू, प्याज में अधिक रुचि रखने वाली हमारी युवा पीढ़ी को यह जानकारी होनी चाहिए कि यदि हम जड़, तना तथा किसी कंद को भोज्य पदार्थ के रूप में लेते हैं तो उस जाति के सम्पूर्ण पौधे का नाश होता है। यही नहीं, सूर्य वेâ प्रकाश के अभाव में प्रचुर मात्रा में सूक्ष्म जीव उत्पत्ति इस भूमिगत वनस्पति में हो जाती है, इसका सेवन सूक्ष्म जीवों का घात है।
जैन चौके में जीवाणुओं की उत्पत्ति, नियंत्रण के उपाय विज्ञानसम्मत हैं। वर्तमान में जहाँ हम कीटनाशी दवाइयों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जो कि स्वास्थ्य व पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है। हमारे बुजुर्ग खाद्य पदार्थ के संरक्षण के लिये जिन चीजों का इस्तेमाल करते थे यथा-अनाज की सुरक्षा के लिए नीम की पत्ती, अरंडी का तेल, गुजरे जमानों की बात हो गई है जहाँ इन करिश्माई उत्पादों को हम भूलते जा रहे हैं वहाँ पाश्चात्य देशों में इनका भरपूर उपयोग प्रारंभ हो गया है। जैन भोजन पद्धति जीवन को तामसिकता से दूर रखकर, शारीरिक व मानसिक रूप से संतुलित रखकर निर्बाधगति से जीवन को अपनी चरमावस्था तक पहुँचाता है। हमारे रसोईघर की वैज्ञानिकता तभी कारगर रह सकती है जब भोजन ग्रहण करने वाले सभी सदस्यों की अवस्था इस पद्धति पर हो। सारे परिवार की सोच इसके साथ जुड़े तभी अपेक्षित सफलता मिलेगी। सुखद स्वस्थ जीवन शैली के लिये जैन भोजन विज्ञान आवश्यक है।
सर्वप्रथम आप दाल, चावल, गेहूं आदि को शोधने के कार्य में चतुराई बर्तें। गेहूं के जिन दानों में छोटे—छोटे छेद दिखा करते हैं उन्हें नाखून से कुरेद कर देखें, अंदर से छोटा सा जीव जिसे घुन कहते हैं वह निकलता है। यदि साफ किये हुए गेहूं में कुछ घुने गेहूँ रह जाते हैं तो दो-तीन दिन बाद उस गेहूं को छलनी से छानकर देखें तो कितने ही घुन निकलेंगे तथा बहुत सारे गेहूं या किसी भी घुने अन्न को काम में नहीं लेना चाहिये। चना, मटर, लोबिया, राजमा आदि किसी भी अन्न को रात्रि में पानी में भिगो दीजिए सुबह साफ करते समय आप पायेंगी कि सजीव चना या मटर के ऊपर एक काला गोल निशान मिलेगा, उसके छिलके को उतारने पर जीव बाहर निकल आता है। बरसात में इन चीजों में जीव अधिक पाये जाते हैं। बाजार में बनी हुई चीजो को खाने से इसलिये अनेकों प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं क्योंकि वहाँ बिना देखे, शोधे चीजों को पकाकर कमाई का साधन बनाया जाता है अत: घर का बना हुआ शुद्ध, सात्त्विक और सन्तुलित भोजन ही स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है। यह तो सूखे अन्न से सम्बन्धित शुद्धि है, इसके साथ ही आप सब्जियां बनाती हैं उसमें भी शोधन क्रिया की अत्यन्त आवश्यकता है। जैसे कि सर्दी के सीजन की फलियां आती हैं उनको छीलते समय कभी आप ध्यान से देखें, किन्हीं-२ मटर के दानों पर बहुत सूक्ष्म छोटे—छोटे मटर के रंग के ही हरे जीव चिपके नजर आयेंगे, कभी-कभी वे चलने भी लगते हैं। मटर की फली में जो मोटी लटे होती हैं वे तो आसानी से दिख जाती हैं और उन्हें हम निकाल देते हैं किन्तु ये सूक्ष्म जीव शायद ही कोई दृष्टिपात करता हो। जब आप प्रत्यक्ष में ये जीव देख लेंगे तो उसके बाद किसी दूसरे के द्वारा शोधित वस्तु के प्रति आपकी ग्लानि बनी रहेगी और जब तक आप स्वयं अपनी दृष्टि से उसका शोधन नहीं करेंगे उसे खाने की इच्छा नहीं हो सकती। पत्तियों के साग में बथुआ, पालक, मेथी, सरसों सभी कुछ प्रयोग में आता होगा। खासतौर से इनकी शोधन क्रिया और भी सूक्ष्म है। जैसे बथुआ को ले लें इसमें पत्तियों से मिश्रित सफेद छोटे—छोटे फूल भी होते हैं। उन फूलों में अनन्तकायिक जीव जैनागम में बताये गये हैं। बथुआ की चार पत्तियों के आस—पास ४—५ फूल तो अवश्य मिलते हैं, लेकिन आज तक किसी को भी फूल तोड़कर बथुआ संवारते नहीं देखा गया है। हाँ यह अवश्य है कि इन कार्यों में समय काफी नष्ट होता है किन्तु दोषास्पद अभक्ष्य वस्तुओं से तो अच्छा है कि उसके स्थान पर किसी दूसरी सब्जी का चयन किया जाए कि जिसे सरलता से अचित्त किया जा सके।
अनन्तकायिक जीवों का ही पिण्ड गोभी को बतलाया है जिसे आज भी जैन समाज के बहुत से व्यक्ति अभक्ष्य मानकर नहीं खाते हैं। गोभी के फूल को सूरज की रोशनी में जमीन पर एक बारीक सफेद कपड़ा बिछाकर उस पर रख दीजिए। थोड़ी देर में साक्षात् त्रस जीव उस कपड़े पर चलते नजर आयेंगे। सूखे मसाले तैयार करते समय भी विशेष चतुराई की आवश्यकता है। जैसे कि सौंफ, धनिया में बारीक छेद या काला निशान देखने में आता है जिन्हें टुकड़े करने पर जीव या अण्डा बाहर निकलता है। लाल मिर्ची के टुकड़े करके देखिये, कई मिर्चियों में फफूंदी आदि मिलेंगे जिनमें बारीक जीव भी पाये जाते हैं। इन्हें सूक्ष्मता से साफ किये बिना प्रयोग में नहीं लेना चाहिये। अब हमारी महिलाएँ स्वयं ही सोच सकती हैं कि हमें कितनी चतुराईपूर्वक गृहस्थ कार्यों का संचालन करना चाहिये। घर के पुरुषवर्गों के, बड़े बुजुर्गों के स्वास्थ्य का उत्तरदायित्व महिलाओं पर ही आधारित है।
खानपान की शुद्धि प्रत्येक दृष्टि से आवश्यक है। धार्मिक दृष्टि से, वैज्ञानिक व स्वास्थ्य की दृष्टि से हमें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की शुद्धिपूर्वक भोजन ग्रहण करना योग्य है। इन चार के नाम से ही ‘चौका’ शब्द परम्परा में प्रचलित चला आ रहा है। शुद्ध ज्ञात पदार्थ, काल मर्यादित पदार्थ, शुद्ध स्थान पर निर्मित भोजन, विशुद्ध भावनायुक्त निर्मित एवं प्रदत्त भोजन ही मन को शुद्ध रखने में कारण होता है। रात्रि भोजन त्याग एवं छने जल को भ्ाी मूलगुण तक में सम्मिलित किया गया है। मद्य-मांस-मधु तथा पाँच उदुम्बर का त्याग तो सर्वप्रथम ही श्रावक को कराया जाता है। यद्वा-तद्वा भोजन, बाजार का भोजन, अज्ञात भोजन त्याज्य है। वर्तमान में रेडीमेड फास्ट फूड आदि के नाम पर जो आकर्षण दिखाई देता है, वह चिन्तनीय है। साधुवर्ग की आहार व्यवस्था में मन-शुद्धि, वचन शुद्धि और कायशुद्धि की अनिवार्यता है, आहार-जल शुद्धि की भी अनिवार्यता है, इससे गृहस्थ एवं साधु दोनों का जीवन शुद्ध रहता है अत: भोजन शुद्धि का सदैव ध्यान रखना योग्य है क्योंकि अहिंसा परम धर्म है।
चौके पर एक वैज्ञानिक दृष्टि डालें। यह वो प्रयोगशाला है, जहाँ अन्नपूर्णा प्रतिदिन स्वाद और स्वास्थ्य के लिये नये परीक्षण करती है। जहाँ बनने वाली प्रत्येक वस्तु, कच्ची सामग्री और उठने वाली सुगन्धों का हमारे जीवन और दर्शन से सीधा सम्बन्ध होता है। बिना चौके के घर की कल्पना भी नहीं हो सकती। घर का आग्नेय कोण जहाँ से शांति का जन्म होता है, माँ जहाँ काम करती है और किसी जादूगर की तरह जो भी कच्ची सामग्री उपलब्ध हो, उससे ही भोजन बनाना और उसमें श्रेष्ठता का जादू जगाना तो कोई माँ से सीखे। हल्दी, सोंठ, काली मिर्च और तुलसी तथा और भी कितनी औषधियाँ, हर मर्ज का इलाज जैसे उनके चौके में मौजूद है। यह प्रात:स्मरणीय चिकित्सक हर घर में प्रतिदिन नि:शुल्क मातृत्व के पर्चे पर आपके तन के लिये ममता की चाशनी में पका हुआ भोजन जो औषधि भी है और पथ्य भी है, लिखती रहती है, बनाती रहती है। यह मात्र भोजन ही नहीं जो शरीर को पोषित कर रहा है, यह तो सात्विक भावों को निरन्तर आपके मन में जड़ें जमाने के लिये उत्प्रेरित करने वाला शाकाहार भी है, और यह माँ ही तो है, जो तपती रहती है। बस, इसीलिये कि जिन्दगी की तपिश सहन करने के काबिल आप बने रहें।
कहीं-कहीं जैन चौके के सोलह शृंगार माने गये हैं–जिसे आज हम ‘किचन’ कहते हैं, मध्यकाल में उसे ‘रसोईघर’, ‘रसोई’ या ‘रसोड़ा’ कहते रहे हैं। यह शब्द आज भी प्रचलित है। अधिक लोकप्रिय शब्द है किचन, जो अंग्रेजी का शब्द है। रसोई संस्कृत के ‘रस’ शब्द में हिन्दी के ‘ओई’ प्रत्यय के मेल से बना है। जिसके मायने हैं पका हुआ भोजन, तैयार आहार। ‘किचन’’ लैटिन मूल का शब्द है। जिसका अर्थ है ‘रसोई बनाना।’ ‘चौका’ शब्द भी काफी प्रचलित है। यह एक ऐसा शब्द है जो हमारी सांस्कृतिक गरिमा और सांस्कृतिक श्रेष्ठता को व्यक्त करता है। चौका संस्कृत के ‘‘चतुष्क’’ प्राकृत के ‘चउक्क’ और हिन्दी के ‘‘चौके’’ का विकसित रूप है। जिसका अर्थ है वह स्थान, जहाँ रसोई तैयार की जाती है और कुटुम्ब के सदस्य, अतिथि आदि जहाँ बैठकर भोजन करते हैं, आज रसोई बनती है किन्तु भोजन डाइिंनग कक्ष में बैठकर किया जाता है। जब हम चार कोने वाले रसोई घर की बात करते हैं तो ‘सोला’ शब्द हमारे कदमों में लिपट जाता है। सोला शब्द का अर्थ सोलह भी है, यह संख्या बड़े महत्त्व की है, सोलह स्वर्ग हैं। चन्द्रमा की सोलह कलायें हैं। सोलहकारण भावनायें हैं, सोलह वर्ष का लड़का, मित्र और लड़की सयानी हो जाती है। स्त्री के सोलह शृंगार सर्वविदित हैं। चूँकि चौके या किचन का एक गृहिणी से सीधा सरोकार है। अत: क्या हम यह नहीं सोचें कि जिस तरह नारी के सोलह शृंगार हो सकते हैं वैसे ही एक किचन के सोलह शृंगार होते हैं। किचन में किसी तरह की किच-किच न होना किचन है। सन्तुलित स्वास्थ्य के लिए सन्तुलित आहार आवश्यक है, सन्तुलित आहार का मतलब ऐसे आहार से है जो तन के लिये हो, मन और आत्मा के उन्नयन के लिए भी लाभकारी हो, जो सिर्फ शरीर की शीर्णता को मन्द रखता हो वही आहार सन्तुलित नहीं, बल्कि वह आहार सन्तुलित है जो क्रोध, मान, माया, लोभ की गति को भी मन्द रखता हो। इस सन्तुलन का परिणाम यह होगा कि हमारा अन्तर बाह्य चरित्र विकसित होगा और हम अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। खुराक सिर्फ खुराक कहाँ है ? वह कला, शिल्प, पुरातत्त्व, इतिहास, भूगोल, व्यापार, उद्योग, साहित्य, धर्मदर्शन, संस्कृति, कानून, भक्ति और उपासना सब है–प्रश्न मात्र रहस्य बोध है जिसने आहार के मर्म को सब कुछ समझ लिया, उसे नियन्त्रित कर लिया, उसने वस्तुत: वह सब कुछ पा लिया, जिसके लिये सदियों साधना करनी होती है।
दो शब्द हैं–‘सोला और शोला’, ‘सोला’ शब्द पवित्रता, मांगलिकता और उज्वलता का प्रतीक है। यह संस्कृत से व्युत्पन्न शब्द ‘सोला अरबी’ का शब्द है, जिसके मायने हैं—आग की लपट। आग का स्वभाव है, वह किसी वस्तु में दोष नहीं रहने देती। मराठी में ‘सोंवला’ शब्द आये हैं, जिसका अर्थ है—स्वाभाविक, निर्मल, अविकृत, स्वच्छ, पवित्र। ‘सोंवले’ उस रेशमी वस्त्र को भी कहा गया है जो किसी धार्मिक कृत्य के लिये सुरक्षित रखा गया हो। (अब रेशमी वस्त्र को अपवित्र माना जाता है क्योंकि रेशम उत्पादन में काफी हिंसा होती है) सोंवले का अर्थ धोया-सुखाया वस्त्र भी है। गुजराती में ‘सोल’ का अर्थ–‘सोलह’ और ‘सोलु’ का अर्थ–तेजोमय, स्वच्छ; साफ-सुथरा होता है। इसे संस्कृत में उज्ज्वल विशेषण से विकसित माना गया है। सोला करना महाराष्ट्र, दक्षिण भारत और बुंदेलखण्ड में बहुत प्रचलित है और इसका मतलब है बहुत साफ-सुथरे ढंग से किसी धार्मिक कृत्य को सम्पन्न करना। जैन चौके की लगाम सूरज के हाथ में है, वही उसके द्वारा खोलता और बन्द करता है किन्तु आज यह सच नहीं है। हमने सूरज से अपना सरोकार तोड़ लिया है, अब ना तो हम सूर्योदय देख पाते हैं और ना ही सूर्यास्त। कभी चौका ही हमारा चिकित्सक होता था किन्तु आज हमने चौके की बागडोर बड़े-बड़े होटलों, रेस्त्राँ और बड़ी दुकानों को सौंप दी है और स्वस्थ रखने का ठेका डॉक्टरों और दवा की दुकानों को दे दिया है।
जैन चौके का पहला शृंगार है–अहिंसा। जल से लेकर अन्न तक, रसोईघर के फर्श से लेकर उसकी छत तक, यह देखना कि उसका फर्श प्रासुक है, उसका आकाश प्रासुक है। पहली शर्त है कि छत को या तो नियमित साफ रखा जाये या फिर चन्दोवा बाँधा जाए। चन्दोवा यदि लगायें तो उसे सप्ताह में या फिर १५ दिन में एक बार धोएं जरूर।
अलमारियाँ साफ रखें। पात्र पोंछे, नेपकिन स्वच्छ रखें। जिन पात्रों में कच्ची सामग्री हो उन्हें सकरे हाथों से ना छुएं। खाने-पीने की वस्तुओं को शोधें, छानें, बीनें। तरल पदार्थों को छानने के लिये शुद्ध सूती वस्त्र काम में लें। स्वच्छता इतनी रखें कि चीटियाँ, तिलचट्टे, मकड़ियाँ, चूहे, छछूँदर और बिल्ली आपके चौके में परिक्रमा न करें। अप्रमत्त रहकर हम जैन किचन के इस शीर्ष शृंगार को अविचल रख सकते हैं। अिंहसा के अन्तर्गत रसोई बनाने वाले पर यह दायित्व अपने आप आ जाता है कि वह ना तो स्वयं की भावनाओं को दूषित रखे और ना ही चौके में भोजन के लिये पधारे परिजनों और अतिथियों के बारे में कोई दुर्भाव रखे।
दूसरा शृंगार है–प्रासुकता/निर्जन्तुकता, चौके की हर वस्तु को यहाँ तक कि मन को प्रासुक रखें। हर चीज इस तरह और इतनी अवधि तक रखें कि वह निर्जन्तुक और पौष्टिक बनी रहे। दु:खद है कि पश्चिम के जंक, कचरा और फास्ट (तुरता) फूड ने हमारे चौके की प्रभुसत्ता और वैयक्तिकता को लगभग ध्वस्त और खण्डित कर दिया है। जलगालन अर्थात् पानी छानना चौके का तृतीय शृंगार है जिसका विवरण पूर्व के पृष्ठों पर दिया जा चुका है। तेल, दूध जो भी तरल पदार्थ हों, उन्हें छानें, पानी छानकर पीने के अपने व्रत, अपनी मर्यादा को अवश्य निभों। चौथा शृंगार है शुद्धता अर्थात् बर्तन धोना, सब्जी सुधारना, निर्जन्तुक खाद्यों का इस्तेमाल करना शुद्धता के अन्तर्गत आ जाता है। जहाँ अिंहसा और प्रासुकता का पालन है, वहाँ करुणा की झिरियाँ (पाँचवां शृंगार) मन के भीतर खुद ब खुद फूट निकलती हैं। ध्यान रहे, करुणा की नहीं जाती, हो जाती है।
छठवें श्रंगार का सम्बन्ध स्वाद और परिमाण से है, हम कैसा खा रहे हैं और कितना खा रहे हैं, चौका इस पर तब नजर रख सकता है, जब हम चौके के अलावा कहीं और ना खाते—पीते हों। यदि हमारा चौका मीलों तक पैâला हुआ हो तो संयम का प्रश्न बहुत मुश्किल हो जाता है। हम एक तो अस्वाद को अपने जीवन में लायें और दूसरा पेट में जितना आ सकता हो उसका तीन चौथाई खायें। खाने के लिये न जीयें, जीने के लिये खायें, बेहतर जीने के लिये बेहतर खायें। सांतवें शृंगार के लिये हमने सादगी को चुना है। प्रासेस्ट/संसाधित खाने से बचें, कम मसाले खायें, तले हुए पदार्थ रोज न खायें, ऐसा खाना खायें जो प्राकृतिक रूप से और आसानी से बनाया जा सके और हमारा पाचन तन्त्र जिसे सरलता से पचा सके। वस्तुत: तामसिक पदार्थों से तन-मन की रक्षा ही सादगी है।
अब आठवें शृंगार में बात आती है स्वच्छता की। नहायें, धोयें, झाड़ें, बुहारे, माँजें।
एक दूसरी वस्तु को अनावश्यक रूप से एक-दूसरे में न मिलायें। समय की मर्यादा का पालन करें। रसोई के उपकरणों को निर्मल/स्वच्छ रखें/उनकी अप्रमत्त/सावधानीपूर्वक देखभाल करें।
निरामिषता को हम नवम् शृंगार कह सकते हैंं। जैन चौके में मांस, मछली, अण्डे के प्रवेश का तो प्रश्न ही नहीं है। अिंहसा और प्रासुकता में निरामिषता अपने आप शामिल है। मधु, मांस, मद्य इन तीनों मकारों (मक्कारों) के लिये चौके के द्वार बन्द हैं। इनको कभी न खोलें, न खुलने दें। दसवाँ शृंगार है जमीकन्दों का त्याग, ये एकेन्द्रिय जीवों की कालोनियाँ हैं, इन्हें ना खायें। जो पदार्थ सूर्य की रोशनी में पनपते हैं, वे स्वास्थ्यकर और श्रेष्ठ होते हैं। अन्धेरे में रहकर प्रकाश को जन्म दे पाना जमीकन्दों के बस की बात नहीं है। जैन चौके का ग्यारहवाँ शृंगार–रात्रि में आहार न लें। जैन ग्रंथों में रात्रि में भोजन का निषेध है ही। महाभारत जैसे महान् ग्रंथ में भी लिखा है–मद्यमांसाशन रात्रौ भोजनं कन्दभक्षणम्। ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थयात्रा जपस्तप:।। (जो पुरुष मद्यपान करते हैं, माँस खाते हैं, रात में भोजन करते हैं, कंद भक्षण करते हैं। उनकी तीर्थयात्रा और जप–तप व्यर्थ हैं।) महर्षि मार्कण्डेय का कथन है–अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते। अन्न मांस समं प्रोक्तं मार्कण्डेय महर्षिणा।। (अर्थात् सूर्यास्त के बाद जल रुधिर हो जाता है, और अन्न मांस)। अब समय है सूरज से निवेदन करने का, कि वह पहले की तरह फिर से जैन चौके की चिटकनी ही नहीं, ताला भी बन्द करे।
बारहवाँ शृंगार–सड़ी-गली वस्तुओं के प्रवेश का कोई सवाल नहीं है। अचार तक वर्जित है । धर्म के अलावा यदि हम स्वास्थ्य और स्वच्छता के साधारण नियमों का भी ध्यान रखते हैं तो किचन में हम बाजारू जंक/फास्ट फूड के प्रवेश की अनुमति नहीं दे सकते जो पैकेजिंग के आकर्षण के कारण बाहर से खूबसूरत दिखते हैं किन्तु भीतर ही भीतर सड़ते रहते हैं । इसी तरह प्रिâज में रख देने से क्या वस्तु समय की मार से बच सकती है अत: वस्तुओं का इस्तेमाल करिए पर एडीटिव्ह /प्रिजर्वेटिव्ह्ज के चक्कर में अपने स्वास्थ्य को खतरे में नहीं डालिये। इस तरह ताजगी जैन चौके की अनिर्वायता है, वह उसका सर्वोत्तम आभूषण है। उक्त एक दर्जन शर्तों का पालन यदि हम करते हैं तो यह असम्भव ही है कि हम अस्वस्थ हों। अतिक्रमण या उल्लंघन की बात अलग है, उसके तो दुष्परिणाम निकलेंगे ही। स्वास्थ्य के बाद बारी आती है सन्तुलन की, हमें कितना चाहिये, हमें क्या चाहिये, हमें कब चाहिये, हमें कब चाहिये, हमें किसलिये चाहिए, इस आहार—विवेक का नाम सन्तुलन है। इसे निभाने पर स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई गड़बड़ी पैदा हो, वह असम्भव है।
जब हम इन शृंगारों का जोड़ करते हैं तो जो जोड़ आता है, जो प्रकट होता है, उसका नाम है—चरित्र । यहाँ चरित्र का मतलब अन्तरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के आचरण से है।
किसी का रसोईघर कैसा है, इसे जानकर उस आदमी का स्वभाव, रहन-सहन आदि का पता लगा सकते हैं।
किसी व्यक्ति के आहार की तालिका को देखकर आप आसानी से उस आदमी के बारे में सुनिश्चित भविष्यवाणी कर सकते हैं।
भेद विज्ञान जैन आगम का तकनीकी शब्द है। जो वस्तु जैसी है उसे वैसी जानना, शरीर को शरीर और आत्मा को आत्मा जानना और दोनों की अपनी-अपनी खुराकें अपने-अपने किचन से देना भेद विज्ञान का महत्त्वपूर्ण प्रभाग है। शरीर का किचन—रसोईघर और आत्मा का किचन—पुस्तकालय अथवा कोई धर्मस्थल। ‘‘सही जगह से सही खुराक उपलब्ध कराना जैन किचन का अन्तिम शृंगार है। सर्वविदित है कि आहार का विचार पर और विचार का आहार पर प्रभाव पड़ता है। यदि हम इस रहस्य को पूरी तलस्पर्शिता से जान सकें तो हमारी अनेक सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत समस्याएँ सुलझ जाती हैं।