संसार में विद्याएँ दो प्रकार की मानी गई हैं, एक ‘अपरा’ विद्या अर्थात् संसारी विद्या है और दूसरी ‘परा’ विद्या अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान है। पहली व्यक्ति की पेट-पूजा के लिये आवश्यक है और दूसरी आत्मकल्याण के लिये अनिवार्य है। सफल जीवन के लिये इन दोनों विद्याओं का समन्वय आवश्यक है।
प्रत्येक प्राणी की जन्म से मरण तक एक ही मौलिक माँग है—हमें सुख चाहिए। जीव का हर प्रयास इसी की प्राप्ति के लिये है। यदि यह जान लिया जाए कि हमें कैसा सुख चाहिये तो आगे की यात्रा बहुत सहज हो जायेगी। हम चाहते हैं ऐसा सुख जो सबसे मिले, सब जगह मिले और हर समय मिले। ऐसा सुख जो सर्वत्र मिले, सर्वदेश, सर्वकाल में मिले, प्रचुर मात्रा में मिले, बिना परिश्रम मिले तथा पराधीन न हो, ऐसे सुख को परम सुख कहा जाता है, शाश्वत-सुख (eternal happiness) कहा जाता है। इसी सुख की प्राप्ति है प्रत्येक प्राणी के जीवन का लक्ष्य। हम पढ़ाई कर रहे हैं इसी सुख के लिये, कल को व्यापार या नौकरी करेंगे इसी सुख के लिये, विवाह होगा, सन्तान होगी, इसी सुख की प्राप्ति के लिये इत्यादि। खोज इसी सुख की है परन्तु मिल तो यह नहीं रहा है। तो भूल कहाँ है ? अविनश्वर सुख की जगह नश्वर क्यों मिल रहा है ? आज के जो विद्यार्थी हैं, वे ही कल देश के नागरिक एवं कर्णधार होंगे। उन्हें अपने जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति हो सके, इसके लिये कतिपय दृष्टान्तों एवं महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित प्रेरक प्रसंगों को प्रस्तुत किया जा रहा है। इनमें निहित शिक्षाओं को अपनी जीवनचर्या में उतारकर वे अपने जीवन के शाश्वत लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
एक राजकन्या अपनी सखियों के साथ जलक्रीड़ा के लिए गई है। सरोवर के किनारे राजकन्या ने अपना अनमोल गले का हार उतारकर रख दिया। स्नान का सम्पूर्ण सुख लेकर जल से बाहर निकल अपने कपड़े पहन रही है। राजकन्या का नौलखा हार नहीं मिल रहा। किसी सहेली की शरारत नहीं, क्योंकि सभी सरोवर के भीतर थीं। इधर-उधर खोजने पर भी न मिला। महल पहुँचकर राजा को सूचना दी गयी, नगर में घोषणा हुई, जो ढूँढकर लौटायेगा, उसे एक लाख रुपये इनाम मिलेगा। खोज शुरू, लेकिन सभी असफल। एक लकड़हारा प्यास से व्याकुल हो पानी पीने के लिये उसी सरोवर के किनारे गया। पानी पीते-पीते उसे हार नीचे तल पर पड़ा दिखायी दिया। उसकी प्रसन्नता की सीमा न रही, डुबकी लगायी, हार पकड़ने की कोशिश की परंतु हाथ में हार नहीं कीचड़ आता है। बाहर निकला, जल निश्चल हुआ, पुन : हार दिखा, डुबकी लगायी, फिर हाथ में पंक। जाकर राजा को सूचना दी। विशेषज्ञ बुलवाये गये, उनके भी सभी प्रयास विफल। सब चकित एवं निराश। एक सन्त का आगमन हुआ, भीड़ का कारण पूछा ? समस्या सुनी, कुशाग्र बुद्धि थे, अविलम्ब समझ गये कि हार ऊपर पेड़ पर लटक रहा था, जिसे पंछी उठाकर अपने घोंसले में ले गया था, उसी का प्रतिबिम्ब जल में दिखायी दे रहा था। छाया को कैसे पकड़ा जाए ? अत: सबके हाथ में कीचड़। हम चाहते तो बिम्ब हैं—परम सुख को और पकड़ रहे हैं प्रतिबिम्ब को, नश्वर सुख को, तो हाथ कीचड़ ही आता है अर्थात् दु:ख या दु:खयुक्त सुख ही जीवन भर मिलता है, हमारी खोज ही त्रुटिपूर्ण है।
प्रतिबिम्ब से वस्तु प्राप्त नहीं होती अत: बिम्ब को पकड़ो अर्थात् उसे पकड़ो जहाँ सुख निवास करता है।
विषय सुख या सांसारिक सुख उस परमानन्द परम सुख की परछाई है अतएव संसार से कभी सुख नहीं मिलेगा। शान्ति, सुख और आनन्दरूपी हीरों का हार जिसे हम संसार में प्रतिबिम्ब की तरह पाने की कोशिश कर रहे हैं और निराश होते हैं—कीचड़ अर्थात् दु:ख बार-बार हाथ लगता है, उस सुख-शान्ति-आनन्द का स्रोत है परमात्मा अर्थात् बिम्ब। इसी की प्राप्ति है प्रत्येक जीवन का लक्ष्य।
आचार्य विनोबा भावे एक आँखों देखी घटना सुनाया करते थे—‘मैं रेलयात्रा कर रहा था, डिब्बा खचाखच भरा था। एक स्टेशन से एक वृद्ध भिखारी फटे-पुराने कपड़े, पिचका पेट, बिखरे बाल, धँसी हुई आँखें, लाचारी का ढाँचा शरीर उसी डिब्बे में प्रविष्ट हुआ। यात्री उतर-चढ़ रहे थे। गाड़ी चल पड़ी। सभी अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गये। भिखारी ने भजन गाना शुरू किया, आवाज में अद्भुत माधुर्य, जादू! सभी यात्री चुप, भजनानन्द में डूब गये। वृद्ध भजन गाता इधर-उधर आ-जा रहा था। भजन का अर्थ था—‘परमात्मा की कृपा के बिना कुछ नहीं होता, वह न दे तो कोई कुछ पा नहीं सकता। वह दाताशिरोमणि देता ही देता है।’ एक अमीर जमींदार ने भिखारी से पूछा—‘दिन भर भजन गाकर कितना कमा लेते हो ?’ उत्तर मिला—दो-चार आने मिल जाते हैं। रामेच्छा से जो मिल रहा है, ठीक है, उसी में खुश हूँ। ‘‘यह लो एक रुपया कई दिन चलेगा किंतु भजन नहीं, कोई फिल्मी गीत सुनाओ।’ भिखारी नहीं माना, मैं भजन ही गाता हूँ।’ अच्छा १०० रुपये ले लो, शेष जीवन सुख से निकलेगा, गाड़ी में भजन गाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब तक क्या मिला भजन गा-गाकर ? अब फिल्मी गीत गाया करो। ‘‘नहीं बाबूजी! क्षमा करें, कुछ रुपयों के लिये मैं अपना लक्ष्य नहीं बदल सकता, सन्मार्ग से भटक नहीं सकता। कुछ मिले न मिले, मैं भजन ही गाऊँगा।’’
एक भिखारी अपनी गरीबी, भूख मिटाने के लिये, बदन ढकने के लिये प्रभु के मार्ग से हटना नहीं चाहता। कितने हैं ऐसे जिन्हें भौतिक सुख नहीं, अविनाशी सुख चाहिये ? एक भिखारी ने रामपथ चुन रखा है, उसे इसी में सन्तोष है, इस मार्ग पर उसे आनन्द मिलता है। वह भिखारी नहीं सम्राट है। विनोबाजी समझाते हैं—लक्ष्य तो है प्रभु प्राप्ति परन्तु व्यक्ति सांसारिक सुखों को ही लक्ष्य मान इसमें खोकर असली लक्ष्य को भूल जाता है अत: भटकता रहता है, सदा दु:खी रहता है। बुद्धिमत्ता इसी में है कि हम लक्ष्य पर अडिग रहें तो मंजिल तक अवश्य पहुँचेंगे।
आज स्कूल-कॉलेजों में जो विद्या दी जा रही है, वह हमें रोटी-रोजी (आजीविका)कमाने योग्य बनाती है अत: यह विद्या बन्द नहीं करनी, पूरी तत्परता से इसे पूरा करना है पर साथ-ही-साथ परा विद्या का मिश्रण भी हो, तभी जीवन में पूर्णत्व की प्राप्ति होगी अन्यथा अधूरापन बना रहेगा।
एक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक विदेश से भारत पधारे। उन्होंने किसी भारतीय सन्त से भेंट की हार्दिक इच्छा प्रकट की। दर्शनार्थ प्रबन्ध किया गया। वैज्ञानिक महोदय ने सन्त से पूछा—‘आधुनिक विज्ञान के बारे में आपकी क्या राय है ?’ सन्त ने कहा—‘मेरी दृष्टि में इसका कोई मूल्य नहीं।’ वैज्ञानिक चकित एवं व्यथित, कहा—‘जिस विज्ञान ने मनुष्य को इतनी सुख-सुविधाएँ प्रदान कीं, उसे आप निरर्थक बता रहे हैं ?’ महात्मा ने कहा—‘आपकी इस वर्णित उपलब्धि से मैं सहमत हूँ परन्तु विज्ञान की सबसे बड़ी हार है कि वह मानव को मानव की भाँति जीना न सिखा सका, परस्पर प्रेम करना, दूसरों के काम आना, उन्हें सुख बाँटना न सिखा सका। मानव में मानवता प्रकट करने की योग्यता सांसारिक विद्याओं में नहीं है, यह महान् कार्य परा विद्या ही कर सकती है।’ चूँकि हमें इन्सान की भाँति, एक नेक इन्सान की भाँति रहकर जीवन यापन की उत्कृष्ट इच्छा है अतएव दोनों विद्याओं का समन्वय अति आवश्यक है। प्राय: कहते सुना जाता है, ‘अमुक व्यक्ति डॉक्टर तो बहुत अच्छा है, पर इन्सान किसी काम का नहीं, चरित्रहीन है, क्रोधी है, लोभी है। गुणवान बनना तथा दुर्गुणहीन मनुष्य बनना परा विद्या ही सिखाती है। मानवता अनमोल है।
डॉक्टर सी. वी. रमण एक सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक हुए हैं। इन्हें अपने कार्य में सहायता हेतु एक युवा वैज्ञानिक की आवश्यकता थी। अनेक अभ्यर्थी साक्षात्कार के लिये पधारे परन्तु सभी अयोग्य घोषित किये गये। कोई पसन्द नहीं आया। सभी लोग तो चले गये पर एक अभ्यर्थी रमणजी को उनके ऑफिस के बाहर चक्कर लगाता दिखा, पूछा—‘जब तुम रामकर दिये गये हो तो व्यर्थ में आगे—पीछे क्यों घूम रहे हो ?’ युवक ने कहा, सर! आप नाराज न हों। आने-जाने के लिये आपके ऑफिस की ओर से खर्चा दिया जाता है, गलती से मुझे अधिक दिया गया है, उसे लौटाने के लिये क्लर्क को ढूँढ रहा हूँ।’ रमणजी ने तुरन्त कहा—`You are selected’। वैज्ञानिक क्षेत्र की कमी तो मैं पढ़ाकर, सिखाकर पूरी कर दूँगा परंतु गुणी, चरित्रवान् बनना तो मैं नहीं सिखा सकता। सांसारिक विद्या बेशक बहुत कुछ सिखा सकती है पर इन्सान बनना नहीं सिखा सकती। यह परा-विद्या ही सिखायेगी अतएव सार्थक, सम्पूर्ण जीवन के लिये इन दोनों विद्याओं का सम्मिश्रण हो। दोनों में से मात्र एक भौतिक विद्या का वरण न व्यवहारिक ही लगता है और न ही सही।
एक चित्रकार, चित्रकला में अति कुशल, सजीव चित्र बनाता। एक बार उसने एक नन्हे बालक का चित्र बनाया। भोला-भोला मुख इतना आकर्षक कि लाखों ने खरीदकर अपने घरों में लगाया। गृहों की शोभा बन गया वह चित्र। चित्रकार अति प्रसन्न, सुविख्यात हो गया। जब वह वृद्ध हो गया तो सोचा, आज जीवन का अन्तिम चित्र किसी ऐसे दुष्ट, क्रूर, अपराधी का बनाऊँगा, जिसकी आकृति से उसकी क्रूरता इस प्रकार झलके कि उस रचना को देख लोग कुकर्म—अपराध करना बन्द कर दें। ऐसे व्यक्ति की खोज में एक जेल में गया। अनेक बन्दी अपराधी देखे, एक पसन्द आ गया। उसके पास बैरक के बाहर बैठ उसका चित्र बनाना शुरू किया। अपराधी ने पूछा—मिस्टर! क्या कर रहे हो ?’ ‘आपका चित्र बना रहा हूँ।’ ‘मुझमें ऐसा क्या है ?
चित्रकार ने मासूम बालक का चित्र दिखाते हुए कहा—‘बन्धु! अनेक वर्ष पहले मैंने इसे बनाया था। लोगों को बेहद पसन्द आया था, आज आपका बनाना चाहता हूँ।’ चित्र को देखकर बन्दी की आँखों में आँसू आ गये। चित्रकार ने कहा—‘लगता है चित्र देख आपको अपने पुत्र की याद आ गयी। कृपया क्षमा करें, मैंने आपकी भावनाओं को आहत किया है।’ ‘नहीं चित्रकार! यह चित्र मेरे बच्चे का नहीं, मेरा है। अपने बचपन और वर्तमान को देख रोना निकल गया। कुसंस्कारों एवं कुसंगति के कारण और सुसंस्कार न मिलने के कारण दुष्प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर मैं एक क्रूर अपराधी बन गया।
काश ! मुझे कोई सन्मार्ग दिखाने वाला मिल जाता, जिसकी सत्संगति से मेरे सुसंस्कार उभर सकते, मैं भी ईश्वरोन्मुख हो सकता तथा महानता से युक्त होकर उनकी कृपा का, दया-करुणा का तथा उनके प्यार का पुण्यपात्र बन सकता, तो आज यह दुर्दशा न होती।’ अगर आप सत्संगति का वरण करेंगे तो कुसंगति से बचे रहेंगे और जीवन में दिव्यता आ जाएगी। यही स्थान है जहाँ परा—विद्या सिखायी जाती है। यह हमें झुकना सिखायेगी, विनम्र बनना, अपने अभिमान को मारना सिखायेगी, हमें मानव बनना सिखायेगी, पशुता को मारेगी और मानवता को उभारेगी।
सबसे प्रेम करना तथा अपने भीतर से वैर—विरोध—घृणा का उन्मूलन करना सिखायेगी यह विद्या। दुर्गुणों, दोषों, दुर्बलताओं को दूर कर हमें सद्गुणों, जैसे—सद्भावना, सहनशीलता, क्षमा, संयम आदि से सम्पन्न करेगी यह विद्या। हमें यह नहीं सोचना कि अन्य न तो करते हैं, न कर ही पाये हैं तो हम क्यों करें ? नहीं, और सुधरे न सुधरें, हमें अपना सुधार करना है तब परमात्मा हमारा उद्धार करेगा। उद्धार उन्हीं का, जो चलने, आगे बढ़ने का अभ्यास जारी रखेंगे।
कक्षा में अध्यापक ने छात्र को जलती हुई मोमबत्ती दिखाई और पूछा—बताओ इसमें प्रकाश कहाँ से आया ?
छात्र ने कुछ सोचा और मोमबत्ती को फूँक मारकर बुझा दिया और प्रतिप्रश्न किया कि बताइये इसका प्रकाश कहाँ गया ?
सूचना क्रान्ति के इस युग में तात्कालिक जवाब या तर्कशक्ति सहजता से प्राप्त हो रही है जो बड़ों को भी निरुत्तर कर देती है परन्तु उसका समग्र विकास करने वाली मेधा या बुद्धि सकारात्मक प्रशिक्षण से ही विकसित की जा सकती है।
वास्तव में हर बच्चे का जन्म एक अलग व्यक्तित्व के रूप में होता है। बच्चे कुछ कर्म संस्कार अपने पूर्वजन्मों से साथ लाते हैं तथा कुछ उत्तर गुणों के रूप में माता-पिता और वातावरण से सीखते हैं, ग्रहण करते हैं। विद्यार्थी जीवन एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्रयास के द्वारा अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत होती है और सम्पूर्ण जीवन उससे प्रभावित होता है।
जीवन विज्ञान प्रणाली में विद्यार्थी के विकास के मुख्यत: चार आयाम बताये गये हैं—(१) शारीरिक विकास
(२) मानसिक विकास (३) बौद्धिक विकास (४) भावनात्मक विकास।
छात्र प्रारम्भिक अवस्था में कच्ची मिट्टी के समान होते हैं जिसे कुशल प्रशिक्षक चाहे जैसा रूप प्रदान कर सकता है।
सर्वप्रथम है आहार—आहार पर ही स्वास्थ्य टिका हुआ है। स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है अत: छात्रों का आहार मौसम के अनुकूल, पौष्टिक एवं बलबुद्धिवर्द्धक होना चाहिये ताकि स्वास्थ्य संबंधी कठिनाइयाँ उनके मेधा विकास में बाधक न बनें।
घर का वातावरण—छात्र की प्रथम पाठशाला घर होता है, मतभेद वाले घरेलू वातावरण में बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं, उनसे बहुत सारी अपेक्षाएँ ना करें, उनके अच्छे काम की प्रशंसा करें ताकि उनमें आत्मविश्वास ब़ढ़े और वे अच्छा परफार्म कर सकें, उन्हें व्यस्त अवश्य रखें किंतु उस पर ममता की छाप हो, हर जायज-नाजायज इच्छा को पूरा न करें कि वे लापरवाह हो जायें, खुद अनुशासित रहकर उनमें अच्छी आदतों का विकास करें, समय प्रबन्धन सिखायें, छोटे-छोटे काम उन्हें खुद करने दें, आत्मनिर्भर बनायें, घर उन्हें Sweet Home ही नजर आना चाहिये जहाँ वे खुलकर बात कर सकें और अपनी हर समस्या का समाधान पा सकें।
शिक्षा सहज मनोग्राही हो—उनके विद्यालय का चयन करते समय परिस्थितियों का ध्यान रखें, आपके बजट से महंगा स्कूल उन्हें हीन भावना से ग्रसित कर सकता है, स्कूल की शिक्षा का स्तर देखें, समय-समय पर शिक्षकों के संपर्क में रहें। आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन भी लें।
लक्ष्य निर्धारित करें—लक्ष्य निर्धारित होने से इन्द्रियाँ व मन उसी दिशा में लग जाते हैं, सबसे पहले उनकी रुचि को पहचानें। सचिन, लता मंगेशकर या किरण बेदी ने जिन क्षेत्रों में अपनी मेधा का परचम लहराया, अगर वे उनकी रुचि या क्षमता के अनुसार नहीं होते तो वे संभवत: इतने सफल नहीं होते, उनके अभिभावकों ने उनके गुणों को पहचान कर उन्हें स्थापित किया तो आज वे दूसरों के लिये मिसाल बन गये।
उन्हें सामाजिक बनायें—फैमिली गेट टुगेदर में ले जायें, ज्ञानशाला, किशोर कन्या मण्डल या अन्य ऐसी संस्था से जोड़ें जहाँ वे अपने हमउम्र बच्चों के साथ व्यवहार, सामाजिकता के गुण, धैर्य, विनम्रता, सकारात्मक सोच, कर्त्तव्य- निष्ठा जैसे संस्कारों को सीख सकें। जीवन विज्ञान अपने आपमें एक सम्पूर्ण कोर्स है जो प्रायोगिक प्रशिक्षण के द्वारा छात्रों का समग्र विकास करता है, ऐसी विद्या जो अनुशासन की संकल्पशक्ति का जागरण करती है—
‘‘विद्या ददाति विनयम्, विनयम् ददाति पात्रताम्’’
शारीरिक श्रम हेतु खेलों का महत्व—श्रमशील छात्र जीवन के क्षण का उपयोग करता हुआ आगे बढ़ता है। वह असफलताओं से विचलित नहीं होगा, खेलकूद व अन्य रचनात्मक गतिविधियाँ उसे जागरूकता के द्वारा ऊर्जावान बनाये रखेंगी।
रखें दोस्तों पर नजर—पियर प्रेशर की वजह से विद्यार्थी जो नहीं करना चाहते वो करने पर मजबूर हो जाते हैं। अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं। उनकी संगति पर नजर रखें पर जासूस की तरह नहीं, एक दोस्त बनकर, गलत कार्य होने पर समझाकर सही राह निकालें।
आधुनिक उपकरणों का संयम सिखायें—गैजेट्स की मायावी दुनिया भ्रमित करने वाली है। टी. वी., मोबाइल, इन्टरनेट का संयमित व यथोचित प्रयोग करना सिखायें।
आध्यात्मिक माहौल—यह मस्तिष्क का सन्तुलित आहार है, उन्हें समय-समय पर गुरु दर्शनार्थ एवं धार्मिक-नैतिक शिविरों में ले जायें ताकि वे जीवन के महत्व और उद्देश्यों को समझें, अपनी बुद्धि का समग्र उपयोग करें, खुद जीवन में सफल बनें एवं देश, समाज, परिवार व अपना नाम रोशन करें।
वर्तमान युवा को शैक्षणिक युग से नवाजा जा रहा है। शिक्षा का महत्व वैसे तो हर युग में रहा है किन्तु युग जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है शिक्षा का महत्व भी बढ़ता जा रहा है। आज हम सम्पूर्ण विश्व को नये रूप में देख रहे हैं। नित नये अनुसंधान, आविष्कार हमारे सामने आ रहे हैं। अतीत के इतिहास को देख वर्तमान से तुलना करें तो अभूतपूर्व परिवर्तन नजर आयेगा। इस परिवर्तन के कारणों की खोज करें तो इसका मूल कारण है—मनुष्य का प्रशिक्षित मस्तिष्क। मनुष्य के शिक्षित मस्तिष्क ने जिस तरह विश्व के सम्पूर्ण नक्शे को बदला है निश्चित ही शिक्षा का मान, मूल्य और महत्व बढ़ा है-बढ़ता जा रहा है। इसी का परिणाम है जहाँ प्राचीनकाल में पाठशाला, विद्यालय अथवा विद्याश्रम अल्प संख्या में कहीं-कहीं होते थे आज गाँव-गाँव और नगर-नगर में स्कूलों की बाढ़ सी आ रही है। विद्यालयों की संख्या के साथ-साथ छात्रों की संख्या में इजाफा हुआ है। साथ ही हर छात्र अपने साथ वाले छात्र से आगे बढ़ने की चाह भी रखता है। प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। सभी अपने आपको आगे लाना चाहते हैं, सबकी मेधा एक जैसी नहीं रहती है। ऐसे में हमारे सामने अहं प्रश्न है कि मेधा क्षमता को कैसे बढ़ाया जाये। प्रश्न है तो समाधान भी निश्चित ही है। छात्र मेधावी होने के लिए बड़ी नहीं अपितु छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना प्रारम्भ कर दे तो प्रत्येक छात्र अपने आपको मेधावी या प्रतिभावान छात्र के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
१. स्वस्थता-मेधा क्षमता का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। मस्तिष्क की क्षमता जितनी विकसित होगी या ज्ञान तंतु जितने सक्रिय होंगे उतनी ही ग्रहण और धारणा शक्ति तीव्र होगी। मस्तिष्कीय क्षमता या मेधा क्षमता के विकास के लिए प्रथम शत& है स्वस्थता। स्वस्थता से तात्पय& केवल शारीरिक स्वस्थता से नहीं है अपितु शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ होना भी उतना ही अपेक्षित है। इनमें से कोई भी अस्वस्थ है तो मस्तिष्कीय क्षमता या मेधा क्षमता को प्रभावित करेगी अत: तन-मन और भावों से स्वस्थ होकर ही छात्र मेधावी बन सकता है।
२. लक्ष्य-मेधावी बनने के लिए लक्ष्य का निर्धारण भी अपेक्षित है। जब तक लक्ष्य निध&ारित नहीं है तब तक मस्तिष्कीय शक्ति विकेन्द्रित रहेगी। लक्ष्य का निमा&ण होने पर शक्ति एक दिशा में केन्द्रित हो जायेगी। केन्द्रित शक्ति के साथ जब छात्र आगे बढ़ता है तो वह भटकाव से बचकर अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है। जो लक्ष्य के प्रति पूण& समपि&त होता है, केवल एकमात्र लक्ष्य ही दिखता है, वह निश्चित ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। जैसे—अज&ुन के सामने चिड़िया की आँंख बिंधने का लक्ष्य था तो उसे केवल आँख ही दिख रही थी। आँख के अतिरिक्त उसका ध्यान कहीं नहीं था तो वह लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो गया था।
३. समय का नियोजन-लक्ष्य निर्माण के साथ-साथ मेधावी बनने के लिए समय का नियोजन भी अपेक्षित है। जो समय का मूल्यांकन नहीं करता, समय उसका मूल्यांकन नहीं करता है। जो अपने दैनिक काय&क्रमों को निधा&रित समय के साथ न करके मन आये वैसे काय& करता है, वह लक्ष्य के साथ खिलवाड़ करता है अत: मेधावी बनने के लिये समय का नियोजन भी अपेक्षित है।
४. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा-छात्र को मेधावी बनने के लिये अपने सहपाठियों के साथ प्रतिस्पर्धा भी करनी चाहिए लेकिन प्रतिस्पर्धा स्वस्थ हो यह आवश्यक है। अपने सहपाठी से पीछे नहीं रहें इसलिए अपनी शक्ति का विकास करना तो उचित है किन्तु अपनी शक्ति का विकास नहीं करके सहपाठी की शक्ति को येन-केन प्रकार से कम करना या ईर्ष्या की भावना उचित नहीं है। ईर्ष्या की भावना स्वयं के लिये भी हानिकारक ही सिद्ध होगी।
५. विनम्रता-अहंकार हमेशा आगे बढ़ने में अवरोध पैदा करता है। जो छात्र अहंकारी होगा वह कभी किसी से कुछ ग्रहण नहीं कर पायेगा। वह अपनी अकड़ में ही रहेगा। इसके विपरीत विनम्र और समर्पण का गुण जिनके भीतर होगा वह कहीं से भी कुछ ग्रहण कर लेता है। अहंकार जब भीतर में नहीं है तो जिज्ञासा करने में, छोटी -छोटी बात पूछने में संकोच नहीं करेगा। यही भावना उसको आगे बढ़ाती रहती है।
६. समर्पण-मेधा क्षमता के बढ़ाने हेतु समर्पण का होना भी अपेक्षित है, जिसका समर्पण जिस दिशा में होगा वह रुचि के साथ अपनी शक्ति को उस दिशा में लगा देगा। यदि अध्ययन के प्रति पूर्ण समर्पण हो जाये, सारी शक्ति और रुचि अध्ययन के साथ जुड़ जाये तो वह जो भी याद करना चाहता है वह कर ही लेता है । अध्ययन के प्रति समर्पण को दर्शाने वाला एक दोहा भी यही बोध देता है—
खान पान सब ही तजे, निश्चित मांडे मरण।
घो ची पू ली करतो रहवे, जद आवे व्याकरण।।
अर्थात् खान-पान, खेल-कूद, आमोद-प्रमोद आदि सबको छोड़ दे। अध्ययनकाल को मृत्युकाल की तरह कठिन ही मान केवल अध्ययन करता रहे। घो ची पू ली करता रहे अर्थात् घो—घोटना, पाठ को याद करना या रटना, ची—चितारना—याद किये हुए पाठ का पुनरावर्तन करना, पू—पूछना—जिज्ञासा करना, जो समझ में नहीं आया उसे पूछकर समझना, ली—लिखना—किये हुये पाठ को लिखकर देखना, ठीक लिखा या नहीं । जो इस प्रकार समर्पण के साध अध्ययन करता है उसके विस्मृति होने की संभावना नहीं रहती है। याद किया हुआ अच्छी तरह से दिमाग में जम जाता है।
७. मंत्र-ज्ञान को बढ़ाने या बुद्धि को बढ़ाने के लिए अनेक मंत्र भी बताये गये हैं, उनमें से किसी मंत्र का चयन कर विधिवत् निरन्तर व एकाग्रता से जप करने से मेधा क्षमता को बढ़ा सकते हैं। कुछ मंत्र इस प्रकार हैं—
१. ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नम:।
२. ॐ ह्रीं श्री सरस्वती देव्यै नम:।
३. ॐ णमो अरिहं वद—वद वाग्वादिनी स्वाहा।
४. ॐ ह्रीं द्वादशांगिन्यै नम:।
५. ॐ हीं श्रीं क्लीं ऐं नम:।
उपरोक्त मंत्र में से किसी भी मंत्र की एक माला या १५ मिनट उच्चारण सहित जाप्य करने से मंत्र की ध्वनि तरंग ज्ञान तंतुओं को प्रकंपित करती है। जिससे ज्ञान तंतु सक्रिय होकर मेधा क्षमता बढ़ाते हैं।
८. अनुप्रेक्षा-अनुप्रेक्षा का तात्पर्य है किसी भी बिंदु पर बार-बार अनुचिंतन करना। जैसा रसायन वैसा व्यवहार, जैसा चिंतन वैसा भाव, इसलिए सकारात्मक चिंतन करें । बुद्धि को बढ़ाने वाला चिंतन बार-बार करते रहें।
जैसे-ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं-मैं ज्ञानानन्दी हूँ।
९. दीर्घ श्वांस प्रेक्षा-दीर्घ श्वांस प्रेक्षा से भी मेधा क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। श्वांस के साथ मन की गति जुड़ी रहती है। जिनका श्वांस जितना छोटा होगा उसकी मन की गति उतनी ही तेज होगी। इसके विपरीत जो लम्बा श्वांस लेता है तथा लम्बा श्वांस छोड़ता है, उसके मन की गति मंद होगी, चंचलता कम होगी। चंचलता की कमी व एकाग्रता का विकास मेधा क्षमता को बढ़ा देता है।
१०. ध्वनि-ध्वनि तरंग भी मस्तिष्क को सक्रिय करती है। ध्वनि का प्रयोग सम्यक् विधि से किया जाये तो उसका प्रभाव मस्तिष्क नाड़ीतंत्र पर पड़ता है, ध्वनि के प्रभाव से नाड़ी तंत्र प्रकंपित होकर सक्रिय होता है। ध्वनि भी विभिन्न प्रकार की होती है। उनमें महाप्राण ध्वनि ॐ की ध्वनि, अर्हम् की ध्वनि मुख्य हैं।
मेधा क्षमता को बढ़ाने में उपरोक्त बातें एवं उपाय बहुत कारगर सिद्ध हो सकते हैं। आवश्यकता है उपरोक्त बातों पर िंचतन और नियमित क्रियान्वयन की। साथ ही बताये गये उपायों में से किसी एक भी उपाय का सम्यक् प्रयोग मेधा क्षमता को बढ़ाने में सहयोगी बन सकता है। ये बातें दिखने में छोटी लग सकती हैं। जैसे—छोटी सी गोली (कैप्सूल) पूरे शरीर को प्रभावित कर सकती है वैसे ही ये छोटी—छोटी बातें भी मेधा क्षमता को प्रभावित कर सकती हैं अत: अपेक्षित है इन छोटी—छोटी बातों पर पूर्ण श्रद्धा, विश्वास एवं क्रियान्वयन के साथ ध्यान देने की।
आहार हमारे जीवन की परम आवश्यकता है। केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं हमारे बौद्धिक स्वास्थ्य में भी आहार मुख्य भूमिका निभाता है आयुर्वेद ग्रंथों में सम्यक् आहार को जीवन का एक उपस्तम्भ माना है। इसके अनुसार मात्र खाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि क्या और कितना खाना ? इन कसौटियों पर खरा उतरा आहार ही सम्यक् होता है। हमें अपने मस्तिष्क की सुरक्षा एवं इसके विकास के लिए उपरोक्त कसौटियों को अच्छी तरह जानना चाहिये ।
क्या खाना?—
बौद्धिक शक्ति को प्रबल एवं दीर्घकाल तक बनाए रखने के लिए भोजन में जिन-जिन तत्वों की हमें आवश्यकता है उन सबका उचित मात्रा में होना जरूरी है। आहार विज्ञान के अनुसार हमारे आहार में वसा, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन्स, खनिज पदार्थ आदि आवश्यक तत्वों की संतुलित मात्रा होनी चाहिए। इन पोषक तत्त्वों के साथ जल भी आहार का ही अंग है इसलिए इसकी मात्रा भी संतुलित होनी चाहिए। इन पोषक तत्त्वों में से किसी भी तत्व की कमी होती है तो भोजन का संतुलन बिगड़ता है और बौद्धिक क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ता है इसलिए विद्यार्थियों को अपने भोजन में दूध, घी, मक्खन, फल, सब्जियाँ, रोटी, चावल, दाल आदि शुद्ध और सात्विक आहार संतुलित मात्रा में लेना चाहिए। आयुर्वेद में बौद्धिक प्रखरता लाने के लिए स्निग्ध व मधुर आहार करने का परामर्श दिया जाता है।
क्या नहीं खाना ?—
बौद्धिक विकास के लिए खाने के साथ न खाने का प्रश्न भी बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बहुत से पदार्थ ऐसे होते हैं जो हमारे मस्तिष्क को कमजोर करते हैं। आयुर्वेद ग्रंथों में इन्हें अवश्य आहार कहा जाता है। इसके अनुसार अति तीखे, मसालेदार, खट्टे, चटपटे, बासी, फास्ट फूड, चाट, अति मीठे, अति ठण्डे, अति गर्म, पान मसाला, सुपारी, चुटकी, तम्बाकू आदि पदार्थ सामान्यत: हमारे पूरे स्वास्थ्य और मुख्यत: हमारे मस्तिष्क के दुश्मन हैं। इनसे बौद्धिक विकृतियाँ पैदा होने की सम्भावना ज्यादा रहती हैं। विद्यार्थियों को अपने उज्ज्वल भविष्य पर नजर रखते हुए इन पदार्थों का विवेक करना चाहिए।
कितना खाएँ ?—
भोजन की मात्रा भी हमारे मस्तिष्क के स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करती है। इस संदर्भ में हमें दो बातों का ध्यान रखना चाहिए—
(१) न अति कम—बहुत से विद्यार्थी अस्त-व्यस्त जीवनशैली के कारण भोजन पर्याप्त मात्रा में नहीं करते। सुबह देर से उठेंगे, स्कूल जाने की जल्दी होगी तो नाश्ते की उपेक्षा कर देते हैं। सुबह का पौष्टिक नाश्ता हमारे शरीर और मस्तिष्क को ऊर्जा प्रदान करता है। इसकी कमी से शरीर और मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बहुत से विधार्थी मोटा हो जाने के भय से भी खाना कम कर देते हैं इससे शरीर और मस्तिष्क दोनों कमजोर हो जाते हैं। भोजन की कमी से एसीडिटी, चिड़चिड़ापन, गुस्सा आदि बढ़ता है और मानसिक एकाग्रता भंग हो जाती है। अनेक शोध अध्ययनों से यह पता चला है कि जिन व्यक्तियों को किशोरावस्था में पौष्टिक आहार पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता उनका मस्तिष्क कमजोर ही रह जाता है।
(२) न अति अधिक—एक सामान्य व्यक्ति के लिए भी ठूँस-ठूँसकर खाना अहितकर है परन्तु एक विद्यार्थी के लिए तो यह अभिशाप के समान है। हमारे पूरे शरीर का संचालन प्राण ऊर्जा या विद्युत ऊर्जा के द्वारा होता है। यह ऊर्जा ग्लूकोज और ऑक्सीजन इन दो स्रोतों से प्राप्त होती है। जब भोजन पर्याप्त मात्रा में होता है तो हमारा पाचन संस्थान अपने हिस्से में आने वाली विद्युत ऊर्जा से काम चला लेता है पर यदि भोजन की मात्रा अतिरिक्त होती है तो अतिरिक्त भोजन को पचाने के लिए हमारा पाचन संस्थान अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा का उपभोग करता है। जिस प्रकार अधिक विद्युत उपयोग करने वाली कोई मशीन (मोटर या हीटर) चलाने पर छोटे बल्व का प्रकाश और भी कम हो जाता है क्योंकि मोटर अधिक मात्रा में विद्युत खींच लेती है उसी प्रकार पाचन संस्थान द्वारा अतिरिक्त प्राण ऊर्जा का उपयोग किए जाने पर मस्तिष्क को मिलने वाली प्राण ऊर्जा की मात्रा कम हो जाती है। फलत: पेट की क्रिया प्रधान और मस्तिष्क की क्रिया गौण हो जाती है। आदमी का पेट मोटा और दिमाग छोटा हो जाता है। बौद्धिक विकास के अनुकूल माना जाने वाला स्निग्ध और मधुर आहार भी जब मात्रा से अधिक खाया जाता है तो इससे वासनाएँ उद्दीप्त होती हैं, चंचलता बढ़ती है उसके फलस्वरूप मस्तिष्क की शक्तियों में कमी आती है।
भोजन की मात्रा प्रत्येक व्यक्ति के लिए पाचन शक्ति, श्रम, उम्र आदि अपेक्षाओं से भिन्न-भिन्न हो सकती है। इसका निर्धारण व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है । इसकी कसौटी यह है कि—भोजन के बाद पेट में भार महसूस न हो तो समझना चाहिए अति अधिक नहीं है।
भोजन की मात्रा के साथ-साथ द्रव्यों की संख्या एवं भोजन के कालान्तर की भी बौद्धिक स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है इसलिए एक साथ अधिक द्रव्य नहीं खाने चाहिए। इस संदर्भ में श्वेताम्बर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी कहते हैं कि किसी के सिर पर एक साथ बहुत काम लाद दिया जाए तो वह घबरा जाएगा, नहीं कर पाएगा। एक-एक काम आसानी से कर लेगा। इसी प्रकार कम वस्तु पेट में जाती है तो पचने में सुविधा रहती है। अनेक वस्तुएँ एक साथ पेट में जाती हैं तो उन्हें पचाने में अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। इसी प्रकार दिन में तीन बार से अधिक नहीं खाना चाहिए। प्रत्येक भोजन के बीच कम से कम तीन घण्टे का अन्तर होना चाहिए।
भोजन करने का उद्देश्य मात्र इतना ही नहीं है कि पेट की आग को बुझाना है। हमें भोजन को सर्वांगीण दृष्टि से देखना है। आहार के संबंध में सम्यक् ज्ञान पाकर हम शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
छात्र शब्द के साथ शिक्षक का जिक्र ना हो तो कुछ आधा—अधूरा सा लगता है। गुरु-शिष्य सबके मन में इन पंक्तियों का उभरना स्वाभाविक है—
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।
छात्र को मेधावी बनने के लिए सबसे पहले अपने अन्दर अध्यापक के प्रति आदर, निष्ठा व समर्पित भाव पैदा करने होंगे क्योंकि गुरू बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना ओजस्वी, मेधावी बनना संभव नहीं। साथ ही गुरू को भी छात्रों पर इतना विश्वास होना चाहिए कि जैसा वे (गुरू) चाहेंगे, छात्रों को ढाल लेंगे।
करत करत अभ्यास के, जड़ मति होत सुजान।
रसरी आवत जात है, सिल पर परत निशान।।
समय के साथ जो दोनों के बीच की दूरियाँ बढ़ गयी हैं उसमें फिर से प्यार, विश्वास व आत्मीयता भरते हुए कुछ मुख्य बिन्दुओं पर ध्यान देना होगा।
अनुशासन—छात्र जीवन में पहला गुण अनुशासन का होना चाहिए ? छात्रों को किसी के कहने या थोपे हुए अनुशासन के बजाय स्वयं मन से अनुशासित रहना चाहिए। अपनी मर्यादाओं को, सीमाओं को पहचानते हुए व्यवहार करना चाहिए। छात्र बनने की पहली सीढ़ी आज के समय में २—१/२ वर्ष की उम्र से ही शुरू हो जाती है अत: छात्रों में बचपन से ही अनुशासन के बीजारोपण का अभ्यास अभिभावकों को करना चाहिए, अनुशासनहीन जीवन की कल्पना पशुतुल्य होती है। जीवन के हर क्षेत्र में सफलता का मूल मंत्र अनुशासन है। अनुशासनरूपी बीज के बीजारोपण का पहला कदम माँ बढ़ाए। उसके बाद खाद व सुरक्षा पिता की हो और हवा-पानी व रोशनी के साथ पल्लवित करने का दायित्व यदि पाठशालाएँ व गुरुजन उठाएँ तो मेधावी छात्र रूपी भवन की नींव का काम पूरा हो सकेगा जिस पर सुन्दर इमारत बनाना आसान होगा।
प्रमाद का त्याग/अप्रमाद—मेधावी छात्र जीवन के निर्माण की दूसरी महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है अप्रमाद। प्रमाद का त्याग, आलस्य का त्याग, समय के एक-एक क्षण की कीमत को समझाते हुए श्रमप्रयुक्त स्वावलम्बी बनें और जीवन में हर समय जागरुकता बनाए रखें। जब भी कहीं जीवन में अवसर प्राप्त हो उसका लाभ उठाएँ।
सकारात्मक सोच—किसी भी सफल व्यक्तित्व के पीछे सकारात्मक सोच का बहुत बड़ा हाथ होता है। छात्र जीवन में सकारात्मकता का बहुत बड़ा महत्व है। एक औसत से निम्न बुद्धि वाले छात्र में भी यदि सकारात्मक सोच का विकास किया जाए, जैसे मैं भी प्रथम आ सकता हूँ, मैं भी अपने लक्ष्य की ऊँचाई को स्वयं तय कर उसे प्राप्त कर सकता हूँ, जीवन में कोई काम असंभव नहीं है, मुश्किल हो सकता है पर मुश्किलें हमेशा हारती हैं, संघर्ष करने वाले हमेशा जीतते हैं, जैसे विचारों के साथ छात्र के मेधावी होने में कोई शंका हो ही नहीं सकती है। एक सकारात्मक सोच के विकास के साथ कई ऐसे गुण स्वत: विकसित हो जाते हैं, जो आपके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाते हैं, जैसे—सकारात्मक सोच से आत्मविश्वास स्वत: जागता है, जिससे आप दूरगामी परिणामों को सोचते हुए निर्णयात्मक शक्ति का विकास कर पाते हैं। जीवन में किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए निश्चित समय सीमा के साथ मन में संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति प्रबल होती है जिससे जीवन सरस होता है। छात्रों में आगे बढ़ने का उत्साह बना रहता है। वहीं अगर छात्र जीवन में निराशा के भाव पैदा हो जायें, यह मैं नहीं कर सकता, इतने प्रतिशत अंक प्राप्त करना असंभव है। घ्. A. ए., घ्. झ्. ए. आदि ऊँचे पदों पर आसीन होने के लिए अमुक-अमुक परीक्षाएँ मैं पास नहीं कर सकता आदि विचार छात्र के जीवन को ऐसे अँधेरे में धकेल देते हैं कि उन छात्रों को उजाले से भी डर लगने लगता है।
सात्विक सुपाच्य भोजन—छात्र जीवन में सात्विक, सुपाच्य भोजन का भी अपना महत्त्व है। छात्र को ऐसा भोजन करना चाहिए जिससे उसके शरीर की स्फूर्ति व मन को शांति मिले। उचित भोजन के अभाव में छात्रों को अधिक निद्रा या अनिद्रा की शिकायत हो जाती है। जो छात्र के लिए उपयुक्त नहीं है। भोजन कभी-कभी अशान्त मन का कारण भी बनता है।
ध्यान—प्राणायाम—कुशाग्र बुद्धि, अच्छी स्मरण शक्ति व सकारात्मक भावों के लिए ध्यान-प्राणायाम का अपना ही महत्त्व है। ध्यान-प्राणायाम शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्रदान करता है, जो छात्र जीवन में विशेष योगदान देता है। स्वयं पर नियत्रंण बढ़ता है। इससे आस्था पैदा होती है और आस्था आपको सफलता दिला सकती है, आस्था में ताकत होती है और जीवन में ताकत का होना जरूरी होता है।
नम्रता—किसी से कुछ ग्रहण करने या सीखने के लिए नम्रता का होना जरूरी है। छात्र जीवन में नम्रता ऐसा गुण है जिसके द्वारा आप हर व्यक्ति में से कोई न कोई अच्छाई को खोजते हुए स्वयं के जीवन में उतारने में सक्षम हो जाते हैं।
दूरदर्शन—छात्र अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए दूरदर्शन से दूर रहें ताकि समय का सदुपयोग कर सकें।
विषय—चयन—छात्र अपनी रुचि के अनुसार विषय का चयन करें। माता-पिता की महत्वाकांक्षा के अनुरूप नहीं, स्वयं की रुचि पहचान कर उस क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए सफलता प्राप्त की जा सकती है। थोपे हुए कार्य में कुशलता हासिल करना बहुत कठिन हो सकता है।
एक संत के अनुसार रंग हमारे जीवन को प्रभावित ही नहीं परिवर्तित भी कर देते हैं। उन्होंने प्रमाण रूप में एक घटना भी उद्धृत की है—सोवियत रूस में एक स्कूल के विद्यार्थी बहुत उद्दण्ड और उच्छृंखल थे। स्कूल के अधिकारियों और अध्यापकों के सामने एक बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई। उन्होंने सोचा—उद्दण्डता का कारण क्या है ? दो-चार बच्चे उद्दण्ड हो जायें, यह बात समझ में आ सकती है। प्राय: सभी विद्यार्थी उद्दण्ड वैâसे हो सकते हैं ? इसका कारण क्या है ? जो विद्यार्थी बहुत शांत और संयमित लग रहे थे, वे भी उद्दण्ड और असंयत बनते जा रहे हैं। आखिर रंग वैज्ञानिकों को बुलाया गया। उन्होंने इस समस्या का कारण बतलाया—आपके स्कूल का रंग लाल है, खिड़कियाँ और दरवाजे भी लाल रंग से पुते हुए हैं। खिड़कियों में जो काँच के शीशे हैं, वे भी लाल हैं। पर्दे भी लाल, फर्श का कालीन भी लाल है। स्कूल ड्रेस भी लाल। जहाँ लाल की अधिकता होगी वहाँ उद्दण्डता प्रबल होगी।
विशेषज्ञों के परामर्श के अनुसार कमरों का रंग हरा, गुलाबी या नीला बदल दिया गया। समस्या का समाधान मिल गया। हमारे जीवन के प्रत्येक आयाम पर रंगों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
ज्ञान केन्द्र (सिर के चोटी के भाग) पर एवं दोनों कनपटियों पर पीले रंग के ध्यान से बौद्धिक विकास के साथ-साथ मानसिक कमजोरी, उदासीनता आदि दूर होते हैं तथा आत्मिक प्रसन्नता और आनन्द का जागरण भी होता है। प्रतिदिन १० मिनट तक नियमित रूप से पीले रंग का ध्यान किया जाये तो बौद्धिक विकास के क्षेत्र में आश्चर्यजनक सकारात्मक परिणाम देखे जा सकते हैं।
प्रयोग विधि—मस्तिष्क और कनपटियों को अंगुलियों से रगड़कर प्रकम्पन पैदा करें। ध्यानासन में बैठें। अनुभव करें—अपने चारों ओर सूरजमुखी के फूल या स्वर्ण की भाँति चमकते हुए पीले रंग का प्रकाश फैल रहा है, पीले रंग के परमाणु फैल रहे हैं। अब इस पीले रंग का श्वांस लें। अनुभव करें, प्रत्येक श्वांस के साथ पीले रंग के परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। चित्त को ज्ञान केन्द्र पर केन्द्रित करें। वहाँ पर चमकते हुए पीले रंग का ध्यान करें।
कुछ समय बाद) अनुभव करें—ज्ञान केन्द्र से पीले रंग की रश्मियाँ निकलकर शरीर के चारों ओर फैल रही हैं। पूरा आभामण्डल पीले रंग की रश्मियों से भर रहा है। उन्हें देखें, अनुभव करें।…… अनुभव करें—ज्ञान-तंतु विकसित हो रहे हैं, ज्ञान-तंतु विकसित हो रहे हैं, ज्ञान—तंतु विकसित हो रहे हैं, दो-तीन गहरे लम्बे श्वांस के साथ प्रयोग सम्पन्न करें।
मनुष्य विकासशील है। विकास का मुख्य आधार है प्रतिभा (Talent)। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कोई न कोई प्रतिभा छिपी हुई है। किसी व्यक्ति में शिक्षा की प्रतिभा है तो किसी में खेलकूद की, किसी में गणित तो किसी में विज्ञान की प्रतिभा है। किसी में कला की प्रतिभा है तो किसी में अध्यात्म की प्रतिभा है। सभी में प्रतिभा समान तो नहीं है पर विद्यमान है अवश्य। आवश्यकता है उसे जागृत करने की, उजागर करने की। जो प्रतिभा आंतरिक क्षमता (Potential) के रूप में छिपी हुई है उसे प्रकट करने की जरूरत है।
मेधा की परिभाषा—
जब प्रतिभा ज्ञान से संस्कारित और पल्लवित होती है तब वह विशिष्ट बन जाती है। इस विशिष्ट प्रतिभा को ही मेधा कहा जाता है। मेधा का एक अर्थ है-धारण करने की क्षमता। आचार्य हेमचंद्र ने अभिधानचिन्तामणि कोष में लिखा है-‘‘सा मेधा धारण क्षमा ”। यह ज्ञान के प्रबंधन का महत्वपूर्ण सूत्र है। ज्ञान का अर्जन प्राय: सभी व्यक्ति करते हैं पर उस ज्ञान को धारण करके रखना, संजोकर रखना एक बहुत बड़ी कला है। प्राय: सभी विद्यार्थी मेधावी बनना चाहते हैं परन्तु हर कोई मेधावी नहीं बनता। वही बनता है जो ज्ञान का प्रबंधन जानता है. योग के साथ क्षेम को जानता है। योग का अर्थ है-अप्राप्त की प्राप्ति और क्षेम का अभिप्राय है उसकी रक्षा, उसे बनाये रखना ।
मेधा शब्द का प्रचलित अर्थ है बौद्धिक विकास। इसका आधार है ग्रहण क्षमता (Grasping Power) । स्थानांग के वृत्तिकार ने कहा भी है-‘‘श्रुतग्रहणशक्ति: मेधा” जिसकी ग्रहण शक्ति तेज है, प्रखर बुद्धि है, वह हर परीक्षा और प्रवृत्ति में श्रेष्ठ प्रदर्शन (Outstanding Performance) करता है।
मेधा का अर्थ श्रुतग्रहण और उसे संजोकर रखने तक ही सीमित नहीं है अपितु व्यापक और बहुत विस्तृत है। मेधा जीवन में रचनात्मक परिवर्तन लाती है। क्या उचित और क्या अनुचित ? ये कर्त्तव्य विवेक भी मेधा का विषय है अर्थात् व्यापक अर्थ में मेधा ज्ञान का उत्कर्ष है।
मेधा का कार्य-मेधा का कार्य है महान् साध्य के प्रति उत्सुकता, उत्कण्ठा पैदा करना। महान् साध्य की खोज व उन्हें उपलब्ध करना यह भी मेधा की परिधि में आता है।
मेधावी की योग्यता-हमारी प्राचीन संस्कृति में मेधावी बनने की क्षमता का अच्छा विश्लेषण मिलता है। विद्यार्थी की पात्रता या लक्षणों के विषय में कहा गया है-
काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
स्वल्पाहारी स्त्रियस्त्यागी विद्यार्थिपंचलक्षणम्।।
काकचेष्टा-जैसे कौवा अपनी प्यास बुझाने के लिए भरसक प्रयत्न करता है उसी प्रकार विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्ति के लिए तत्पर रहना चाहिए।
बकध्यान-जैसे बगुला अपने शिकार के लिए ध्यान लगाता है उसी प्रकार विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्ति के लिए एकाग्र बनना चाहिए।
श्वाननिद्रा-कुत्ता जिस प्रकार अल्प निद्रा लेता है और नींद में भी जागरुक रहता है उसी प्रकार विद्यार्थी को भी जागरुकता और निद्रा संयम का अभ्यास करना चाहिए।
स्वल्पाहारी-आहार औषधि भी है और बीमारी का कारण भी। आहार विवेक विद्यार्थी के लिए अपेक्षित है।
स्त्रियस्त्यागी-विद्यार्थी को वैषयिक व क्षणिक सुख से विशेष बचाव रखना चाहिए।
रहस्य में आकर्षण होता है। हर व्यक्ति रहस्य को जानने के लिए उत्सुक होता है। मेधावी बनने की प्रक्रिया भी बहुत रहस्यमयी है। इसमें प्रबंधन, मनोविज्ञान, अध्यात्म, भावात्मक नियंत्रण और ज्ञानार्जन की विकसित पद्धतियों का समावेश होता है। मेधावी बनने की प्रक्रिया निम्नोक्त है-
लक्ष्य निर्धारण-लक्ष्य का निश्चय किये बिना व्यक्ति की ऊर्जा को एक दिशा नहीं मिलती। हमारे भीतर अनन्त ऊर्जा व अनन्त क्षमता है। अपेक्षा है उसे एक लक्ष्य पर केन्द्रित करने की। लक्ष्य निर्धारण के दो आधार हैं-
(अ) प्रतिभा-हमारे भीतर कोई न कोई प्रतिभा सन्निहित है। यदि हमें अपनी प्रतिभा का ज्ञान हो जाए तो हमारे लक्ष्य का निर्णय भी आसान होगा और हमें सफलता भी मिल सकेगी।
(ब) रुचि-हमारे भीतर कुछ स्वाभाविक रुचियाँ होती हैं। जिस विषय या कला में हमारी रुचि है उसमें हम पूर्ण परिश्रम कर सकेंगे और साथ ही आनंद का अनुभव भी करेंगे।
संकल्पशक्ति-लक्ष्य के साथ समर्पण जुड़े। हमारा संकल्प मजबूत होगा तभी लक्ष्य प्राप्ति संभव बनेगी। संकल्प के साथ दो बातें और जुड़ जाती हैं-
(अ) आत्मविश्वास-मैं कर सकता हूँ-यह आत्मविश्वास हमारे अन्तःकरण का उल्लास है। इससे हमारा विश्वास दृढ़ बन जाता है। साथ ही अतिविश्वास (Over Confidence) से बचना चाहिए।
(ब) आत्मानुशासन-संकल्प स्थिर तभी होगा जब व्यक्ति का स्वयं पर नियंत्रण होगा। विचारों की सकारात्मकता, वाणी में विवेक व निद्रा का संयम व्यक्ति के निज विवेक पर आधारित है। व्यक्ति स्वयं जागरुक है तो संकल्प भी शक्तिशाली बन जाएगा।
सम्यक् पद्धति-पद्धति का ज्ञान अनिवार्य है । पद्धति जाने बिना व्यक्ति का अथक परिश्रम और अमूल्य समय भी बेकार हो जाता है । ज्ञान की प्राचीन व आधुनिक पद्धतियों की जानकारी अपेक्षित है। इसके साथ दो बातें और जुड़ने से इसका लाभ शतगुणित हो जाता है।
(अ) सत्संगति-जैसा संग वैसा रंग। संगति का जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। पद्धति के ज्ञान के साथ विधि के ज्ञाता महान् पुरुषों का संपर्क भी अपेक्षित होता है। दोस्त भी विज्ञ व अनुकूल हो तो विकास की गति तीव्र हो जाती है।
(ब) जीवन शैली-हमारे शरीर में भी एक घड़ी है जिसका नाम है जैविक घड़ी। मनुष्य कब उठता है, कब सोता है इसके आधार पर उसकी जीवन शैली बनती है। सम्यक् पद्धति का निर्वाह भी वही व्यक्ति कर सकता है जिसकी जीवनशैली सम्यक् हो।
अथक परिश्रम-सफलता की कुंजी है श्रम। पुरुषार्थ से बढ़कर कार्यसाधक कुछ नहीं। उद्यमशीलता से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं। संस्कृत उक्ति भी है-उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:। पुरुषार्थ के साथ दो आयाम जुड़ना अपेक्षित है—
(अ) अभिप्रेरणा-प्रेरणा से व्यक्ति गतिशील बनता है। नये उत्साह व उमंग से कार्य करता है। यदि उसे निरंतर प्रेरणा मिले तो विद्यार्थी पूरा परिश्रम करते हुए भी थकान का अनुभव नहीं करेगा और निरंतर गतिशील रहेगा।
(ब) समय प्रबंधन-समय का मूल्य अमूल्य है। समय-कब-कहाँ कितना लगाना है इसका प्रबंधन अपेक्षित है। समय का नियोजन सही होगा तो हमारा परिश्रम सार्थक बनेगा। गंभीर अध्ययन के लिए प्रात:काल व हल्के विषय (सरल ग्राह्य), लेखन कार्य आदि के लिए दोपहर और शाम का समय उपयुक्त माना जाता है।
भावात्मक नियंत्रण-भावों के आधार पर सारे कार्य होते हैं। व्यक्ति कितना भी बौद्धिक विकास कर ले पर यदि संवेगों (Over Confidence) का सम्यक् ज्ञान व उन पर नियंत्रण न हो तो जीवन में सफलता नहीं मिलती। भावात्मक विकास के सहयोगी तत्व हैं-
(अ) उन्नत संस्कार-संस्कारों का भावात्मक विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार है संस्कार। संस्कार निरन्तर दिशा दर्शन करते रहते हैं।
(ब) कुशल चरित्र-चरित्र समाप्त तो सब कुछ समाप्त। चरित्र ही जीवन का शृंगार है। कुशल चरित्रसंपन्न विद्यार्थी ही अपने आवेगों पर अंकुश रखता हुआ उन्नति करता है।
मेधावी छात्र-मेधावी बनना गौरव की बात है। इसकी प्रक्रिया साधनाप्रधान है। मेधावी छात्र में बौद्धिकता, भावात्मक संयम और आध्यात्मिकता का संगम होता है। निरंतर प्रगतिशील रहने के लिए उसे दो बातों पर ध्यान
देना होगा।
(अ) जिज्ञासा-जिज्ञासा ज्ञान की जननी है। ज्ञान की पिपासा उसे अध्ययनशील बनाये रखती है।
(ब) तन्मयता-तन्मयता से किया गया कार्य सफल होता है। तन्मयता से कार्य करने में आनन्द भी आता है और परिश्रम की थकान भी दूर हो जाती है। बिखरे हुए तिनके स्वयं कचरा हैं और वे ही एक सूत्र में आबद्ध होकर झाडू बनकर सफाई कर देते हैं। वैसे ही हमारा चिन्तन व शक्तियाँ बिखरी रहती हैं तो साध्य को प्राप्त नहीं कर पातीं। एकाग्र होने पर लक्ष्य प्राप्ति अवश्यंभावी है।
मेधा के स्तर-
सबकी मेधा समान नहीं होती। मेधा की विभिन्नता के आधार पर मेधा को ५ स्तरों में विभक्त किया जा सकता है। जितना-जितना प्रतिभा का विकास होगा उतना-उतना मेधा का स्तर ऊँचा उठता जाएगा।
ग्रहण शक्ति-मेधा का पहला व अनिवार्य चरण है ग्रहण शक्ति। ग्रहण क्षमता तेज न हो तो व्यक्ति मेधा के अगले चरण में प्रवेश नहीं कर सकता।
धारणा शक्ति-इसका अभिप्राय है कि गृहीत विषय को दीर्घ समय तक धारण करके रखना। स्मृति विकास के प्रयोग इसमें सहयोगी बनते हैं। जिसकी ग्रहण शक्ति कमजोर है उसकी धारणा शक्ति भी सशक्त नहीं होगी।
समझ वैशिष्ट्य-समझा हुआ ज्ञान उपयोगी बन जाता है। यदि समझ शक्ति का अच्छा विकास होता है तो उसकी स्मृति लाभदायी बन जाती है।
तर्क शक्ति-आज तार्किक युग है। मनुष्य ने तर्कशक्ति के आधार पर विकास किया है। न्यायशास्त्र व दर्शन विद्या का तो मूल ही तर्क है। कोरा तर्क उपयोगी नहीं होता जिसने ग्रहण शक्ति, धारणा शक्ति और समझ का वैशिष्ट्य पाया है उस विद्यार्थी को तार्किक क्षमता का लाभ शतश: मिलता है। उसकी विश्लेषण क्षमता में अद्भुत निखार आ जाता है।
प्रज्ञा-यह मेधा का उत्कर्ष है जहाँ विवेक चेतना का जागरण होता है। पहले ४ स्तर तक का मेधावी छात्र बाैद्धिक विकास तो करता है पर भावात्मक पटुता के क्षेत्र में पीछे रह जाता है। जो प्रज्ञावान मेधावी है वह हर क्षेत्र में जटिल से जटिल स्थिति में भी अपनी प्रतिभा से नवीन से नवीन समाधान खोज लेता है।
प्रत्येक व्यक्ति अपना कार्य करता है। सभी के पास प्राय : समान हाथ, पाँव, नाक, कान होते हैं। ऐसे में मेधावी की पहचान कैसे हो ? भारतीय मनीषियों ने इसके ३ आधार बताए हैं-
वक्तृत्व-मेधावी व्यक्ति के कहने की शैली विशिष्ट व आकर्षक होती है ।
श्रवण-सभी कान से सुनते हैं पर मेधावी की श्रवण कला अनूठी होती है। उसके सुनने की शैली उसकी पहचान का कारण बनती है।
समझ-सबसे महत्त्वपूर्ण है समझना। वाक्पटुता व श्रवण कला तो फिर भी किसी सामान्य व्यक्ति में हो सकती है पर गहरी समझ केवल मेधावी में होती है ।
राजस्थानी भाषा में कहा भी है-
कान आंख अरु नासिका, सबके ही इक ठोर।
कहवो सुनवो समझवो, चतुरन को कुछ और।।
मेधावी के वैशिष्ट्य का एक अंग है उसकी प्रसन्नताप्रधान जीवन शैली।
मेधावी विषाद के संवेदन से मुक्त हो जाता है। वह किसी भी दशा में विषाद से, तनाव से ग्रस्त नहीं होता।
मानव जीवन दुर्लभ है। इसमें भी विद्या के अर्जन और अपनी प्रतिभा के विकास का अवसर मिलना दुर्लभतर है। जो विद्यार्थी अपनी प्रतिभा का यथेष्ट विकास कर उसका पूरा उपयोग करता है वह मेधावी बनता है। मेधावी में भी तारतम्य होता है। उत्कृष्ट मेधावी वह है जिसने अपनी प्रज्ञा का जागरण कर लिया और जिसने बौद्धिकता एवं भावनात्मकता के संतुलन से आध्यात्मिक चेतना जागृत कर ली है।
विज्ञान के जगत में यश-कीर्ति का शिखर छूने वाले महान वैज्ञानिक के पास एक विद्यार्थी आया! उसने पूछा—सर! आपकी सफलता का राज क्या है ? आइन्सटीन ने कहा-मेरी सफलता का मूलमंत्र है—उत्साह, उमंग के साथ अभ्यास करना, कभी निराश नहीं होना, हिम्मत न हारना, विश्वास का दामन नहीं छोड़ना, धैर्य की कमान सदा साथ रखना। प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने यह भी कहा—जब मैं पढ़ता था तब मुझे सभी बुद्धू कहते। मेरा मजाक करते। मेरी पीठ पर ‘‘बुद्धू’’ बड़े अक्षरों में लिख देते । मेरे अध्यापक कई बार सबके बीच यहाँ तक कह देते—तुम्हें सात जन्म तक भी गणित नहीं आएगा। अपमान, तिरस्कार में भी मैंने अपना हौसला नहीं छोड़ा, कभी झल्लाहट नहीं की। इत्मीनान के साथ समय का मूल्यांकन करता रहा।
मैन से सुपरमैन का सफर-
एक महान व्यक्ति की यशोगाथा में मेधावी बनने के सारे रहस्य छिपे हैं जो व्यक्ति को विशाल दायरा देते हैं। चिन्तन का चैत्यवृक्ष थमाते हैं। सोच का सकारात्मक नजरिया देते हैं और इन्द्रधनुषी उड़ान की ऊँचाई देते हैं।
साहस की श्रीसम्पदा-
साहस में लक्ष्मी निवास करती है। साहस के सामने पर्वत भी काँपने लग जाते हैं। साहसी जीवन असंभव को संभव एवं असाध्य को साध्य कर सकता है। ऐसी कोई उपलब्धि नहीं जो साहसी की विजयश्री का रोमाञ्च न हो।
सम्पर्क और साहस इज्जत का रास्ता दिखाते हैं। छत्रपति शिवाजी ने अद्भुत साहस के द्वारा समर्थ गुरु रामदास के लिए सिंहनी का दूध लाकर प्रस्तुत कर दिया। एक आंख और एक टाँग वाले महाराणा सांगा, एक आँख वाले राजा रणजीत सिंह ने, लंगड़े तैमूर ने साहस शौर्य के बलबूते पर महान कीर्ति के उत्तुंग शिखर को छू लिया, तो फिर सम्पूर्ण अवयवों वाला साहसी कदमों को आगे बढ़ाए तो क्या नहीं कर सकता, सबको कुदरत की देन से मेधा का वरदान नहीं मिलता पर घबराएँ नहीं, यदि साहस का लंगर आपके साथ है तो दुनिया में कुछ भी मुश्किल नहीं है। जब तलवार की धार, चाकू की धार को पैना किया जा सकता है तब मेधा की धार को पारगामी क्यों नहीं किया जा सकता। बशर्ते परम पराक्रम का पैमाना हर वक्त साथ रहे।
साहस ± उत्साह जब दो मिलते हैं तब १ + १ दो हो जाते हैं। १ — १ करके ११ हो जाते हैं । उत्साह लक्ष्मी के मूल भाग्य की प्रगति का द्वार है। उत्साही बालक, कवि, लेखक, डॉक्टर, मास्टर, एडवोकेट, जज, इंजीनियर और कुशल प्रबन्धक बन जाता है। उत्साह से सैनिक विजयी बन जाता है। उत्साह के अभाव में सफलता असफलता बन जाती है। तरक्की की तालिका अवरुद्ध हो जाती है। एक उर्दू शायर ने लिखा है-
सहारा जो गैरों का तकते रहे । वे तसवीर बनकर लटकते रहे ।
छात्र मेधावी बनने के लिए उत्साह-उमंगों का आशियाना सदा अपने साथ रखें। अब्राहम लिंकन की तरह उत्साह को कभी मंद न होने दें। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन सन् १८३१ से १८५९ तक चुनावों में हारते रहे। न ही वे व्यापार में सफल हो पाए पर उन्होंने धैर्य को कभी नहीं खोया। वे यही सोच-सपना लिए हर चुनाव में उम्मीद के साथ खड़े होते कि इस बार मेरी जीत अवश्य होगी। हारने पर उनका संकल्प होता- ‘‘एव्रीथिंग राइजेज बट टु फाल’’, जो चढ़ता है वह कभी पड़ता भी है। पर एक-दो बार गिरने से कभी कोई चलना नहीं छोड़ता। छोटा बालक जब चलना सीखता है तो बार-बार गिरता भी है पर वह चलने के प्रयास को बंद नहीं करता अपितु और अधिक उत्साह से जीवन की उजली भोर के उदित होने की प्रतीक्षा करता है।
स्वेट मार्टन नामक एक चिन्तक ने लिखा है कि असफलता के चार कारण हैं-
१. दिमाग की अस्थिरता
२. युग की गति को न समझना
३. कर्तव्य का पालन आधे मन से करना
४. आज का काम कल पर छोड़ना
कुछ लोगों की प्रवृत्ति होती है आज नहीं कल करेंगे। कल के नाम टाल-मटोल करते रहते हैं। कल अनिश्चित है। कल आये या ना आए, कोई भरोसा नहीं। कल की आदत आलस-अकर्मण्यता की प्रतीक है। कल शैतान का दूत है। इतिहास के पृष्ठों पर इस कल की धार से कितने ही प्रतिभाशालियों का गला कट गया अत: कल की उपासना मत करो। घड़ी कहती है-
What the Clock says Tick Tick Tick,
What you have to do do quick.
Time is gliding fast away,
Let us act act act today.
व्हाट दी क्लॉक सेज टिक टिक टिक ।
व्हाट यू हेव टू डू डू क्विक।
टाइम इज ग्लाइडिंग फास्ट अवे।
लेट अस एक्ट एक्ट एक्ट टुडे।
टिक टिक टिक करती हुयी घड़ी तुम्हें कहती है कि जो कुछ करना हो शीघ्र कर लो, समय तेजी से जा रहा है। सत्कर्म करना है तो आज ही करना चाहिए।
धर्मपुत्र युधिष्ठिर के पास एक ब्राह्मण आया। उसने धर्मराज से दक्षिणा माँगी । युधिष्ठिर ने कहा—कल आना। दक्षिणा कल दूँगा। निश्चयवाचक वाक्य सुनकर भीम ने नगाड़ा बजा दिया। युधिष्ठिर ने पूछा-अरे भीम! आज असमय में नगाड़ा क्यों बजाया ? भीम ने प्रत्युत्तर में कहा-आपने काल को जीत लिया इसलिए मैंने हर्षोल्लास में नगाड़ा बजाया है। भीम की पहेली की गूढ़ भाषा को युधिष्ठिर नहीं समझ पाए। तब भीम ने कहा-भैया! आपने ब्राह्मण को कहा-दक्षिणा कल दूँगा अर्थात् आपने कल के लिए काल को अपने अधीन बना लिया। आप कालजयी बन गए। युधिष्ठिर ने अपनी भूल महसूस करते हुए कल की दक्षिणा को आज के रूप में बदल दिया।
विद्यार्थी मेधासम्पन्न वही बन सकते हैं जो किसी पाठ पारायण को कल के भरोसे नहीं छोड़ते। ‘‘काले कालं समायरे’’ की सूक्ति को जीवन निर्माण का आदर्श वाक्य बनाते हैं। मेधा उनके सघन प्रयास को, सतत पुरुषार्थ को, अदम्य आत्मविश्वास को देखकर सक्रिय हो उठती है।
कहा जाता है-
करत करत अभ्यास नित, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ही, सिल पर परत निशान।।
अभ्यास से मूर्ख विद्वान बन जाता है। धीरे-धीरे पर्वत भी चूर्ण हो जाता है। बाण अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। बार-बार मिलने से अबन्धु बन्धु बन जाता है । दूरी के कारण अभ्यास की निरन्तरता न रहने से बन्धुओं में भी स्नेहभाव कम हो जाता है।
अभ्यास के सामने कोई भी कार्य दुष्कर नहीं होता। अभ्यास से सर्वत्र सफलता, सभी कलाओं में सिद्धि होती है। पेरिस निवासी कुमारी निकोली हम्बर्ट ने अभ्यास के सहारे प्रतिमिनट २६० शब्द लिखकर स्टेनोटाइम प्रतियोगिता में विजय हासिल की।
इंग्लैंड के एक प्रमुख नेता संसद में भाषण देने खड़े हुए किन्तु घबराहट में बोल नहीं पाये। शरीर पसीने से तरबतर हो गया। आत्मविश्वास ने जवाब दे दिया। वे चुपचाप अपनी जगह बैठ गये। सदस्य उनका मजाक करने लगे । उन्होंने कहा-मित्रों! आज तो मैं अपना स्थान ग्रहण कर रहा हूँ लेकिन वह दिन दूर नहीं जब आप मेरा भाषण सुनने के लिए दौड़े-दौड़े आएँगे। बस उसी दिन से उन्होंने भाषण का अभ्यास जारी रखा एवं ऐसी प्रगति की कि उनके कई भाषण विश्वव्यापी प्रसिद्धि के कारक बन गये।
एक विचारक ने लिखा है- “Practice makes a man perfect.” अभ्यास के द्वारा व्यक्ति हर क्षेत्र में निष्णात हो सकता है, किसी भी ऊँचे ओहदे पर पहुँच सकता है । पद-प्रतिष्ठा, सुयश-शोहरत के नामीगिरामी मुकाम को छू सकता है। अभ्यास में वह ताकत है जो मैन को सुपरमैन बना देती है, नर को नारायण बना देती है और अज्ञ को विशेषज्ञ बना देती है।