श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि जैनधर्म का मेरुदण्ड उसका ‘आचार’ है। जिस प्रकार मेरुदण्ड मानवीय देह-यष्टि को पुष्ट एवं सुव्यवस्थित बनाने में सर्वथा कृतकार्य है, उसी प्रकार ‘आचार’ जैन धर्म को पुष्ट एवं सुप्रतिष्ठित करने में सर्वतोभावेन समर्थ है।
सामाजिक तथा व्यावहारिक परिवेश के अतिरिक्त अपने वास्तिविक रूप में भी आचार का अत्यधिक महत्त्व है। जैन साधकों ने अपने चिन्तन से यह सिद्ध किया है कि जीवन की ऊँचाई मात्र ज्ञान अथवा विश्वास से नहीं आंकी जा सकती है, अपितु दिव्यता की ओर होने वाली यात्रा का प्रमुख मापदण्ड ‘आचार’ ही है। यह सभी को ज्ञात है कि विश्वास और ज्ञान तब तक जीवन में साकार नहीं हो पाते, जब तक मनुष्य अपने आचार-व्यवहार को मानवोचित आकार प्रदान नहीं करता है।
‘आचार’ धर्म के अंतस्तल का परिज्ञापक-
विश्व के प्राचीनतम धर्मों में ‘जैनधर्म’ का महत्वपूर्ण स्थान है। उसकी प्राचीनता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इसके सभी नियम-उपनियम प्रकृति से अपना सामंजस्य स्थापित किये हुए हैं। किसी भी धर्म के अंतस्तल को जानने हेतु उसके आचार मार्ग की जानकारी होना आवश्यक है, क्योंकि आचार-मार्ग के प्रतिपादन में ही धर्म का धर्मत्व समाहित होता है। जैनधर्म की बाह्य अभिव्यक्ति ही ‘आचार’ है।
सामान्यत: सिद्धान्तों, आदर्शों तथा विधि विधान का व्यवहारिक, प्रयोगात्मक अथवा क्रियात्मक पक्ष ‘आचार’ कहा जाता है। अर्थात् स्वशक्ति के अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि में यत्नशील रहना आचार है।
आचार के मूलत: पांच भेद हैं-
१. दर्शनाचार।
२. ज्ञानाचार।
३. चारित्राचार।
४. तपाचार।
५. वीर्याचार।
दर्शनाचार का तात्पर्य सम्यग्दर्शन विषयक आचरण से है। अर्थात् शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित तत्त्वश्रद्धानरूप विषयों में किया गया प्रयत्न दर्शनाचार है। दर्शनाचार के अन्तर्गत जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा, और मोक्ष इन नव पदार्थों का वर्णन है।
(१) जीव-चेतना जिसका लक्षण है, वह जीव है।
जीव दो प्रकार के होते हैं-(१) संसारी, (२) मुक्त।
संसारी जीव-जो जीव चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते हैं वे संसारी हैं।
मुक्त जीव-मुक्ति को प्राप्त हुए जीव मुक्त कहलाते हैं।
संसारी जीव के भेद-
संसारी जीव पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह भेद वाले होते हैं।
(२) अजीव तत्त्व-जीव तत्त्व से विपरीत लक्षण वाले को अजीव तत्त्व कहते हैं। यह रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का है :
रूपी द्रव्य के भेद-रूपी द्रव्य के ४ भेद होते हैं-
(१) स्कन्ध-भेद सहित सम्पूर्ण पुद्गल स्कन्ध कहलाता है।
(२) देश-भेद सहित सम्पूर्ण पुद्गल स्कन्ध के आधे को देश कहते हैं।
(३) प्रदेश-पुद्गल द्रव्य के आधे के आधे को प्रदेश कहते हैं।
(४) परमाणु-अविभागी हिस्से को परमाणु कहते हैं।
अरूपी द्रव्य के भेद-धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये अरूपी द्रव्य के भेद हैं—
(१) धर्म द्रव्य-जो जीव और पुद्गल को गमन करने में सहकारी होता है उसे धर्म द्रव्य कहते हैं।
(२) अधर्म द्रव्य-जो जीव और पुद्गल को ठहरने में सहकारी कारण होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं।
(३) आकाश द्रव्य-जो जीवादि पांचों द्रव्यों को अवकाश देने में सहकारी कारण होता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं।
(४) काल द्रव्य-पांचों द्रव्यों के परिणमन में कारण भूत वर्तना लक्षण वाला काल द्रव्य है।
३. आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं।
४. बन्ध-आत्मा और कर्म के प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाना बन्ध है।
यह पुण्य पाप रूप से दो प्रकार का है।
पुण्य-सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, पंचमहाव्रतरूप चारित्र, कषायों के निग्रहरूप गुणों से जो परिणत है, वह ‘पुण्य’ है। इन परिणामों से सहित जीव को ‘पुण्य—जीव’ कहते हैं। शुद्ध उपयोग, अनुकम्पा आदि शुभ कर्मों का आगमन ही पुण्यास्रव का कारण है।
पाप-मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, तथा कषायरूप गुणों से परिणत हुआ पुद्गल समूह ‘पाप’ कहलाता है। मिथ्यात्व आदि से परिणत जीव ‘पाप—जीव’ कहलाते हैं।
अशुद्ध मन वचन काय की क्रियारूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानोपयोगरूप से परिणत होना पापास्रव के कारण हैं।
५. संवर-मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, योगरूप कर्मास्रव के द्वारों को दृढ़व्रतरूपी दरवाजों के द्वारा रोक देना संवर कहलाता है।
६. निर्जरा-पूर्वकृत कर्मों का आत्मप्रदेशों से एक देश क्षय हो जाना निर्जरा कहलाती है। यह सविपाक एवं अविपाक दो प्रकार की है।
सविपाक निर्जरा-उदयरूप से कर्मों के फल का अनुभव करना सविपाक निर्जरा कहलाती है।
अविपाक निर्जरा-समय से उदय में आये हुए गोपुच्छरूप से तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणरूप उपाय के द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय हो जाना अविपाक निर्जरा कहलाती है।
७. मोक्ष-आत्मा से समस्त कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है। रागी जीव कर्मों से बंधता है किन्तु विरागी जीव कर्मबन्ध से छूटता है।
१. नि:शंकित-निश्चय के अभाव को शंका कहते हैं इसके विपरीत जिसमें वस्तु स्वरूप का निश्चय होने से परिणामों में जो दृढ़ता होती है उसे नि:शंकित अंग कहते हैं। शंका से रहित साधु इस शुद्धि को धारण करने वाले होते हैं।
२. निकांक्षित-इहलोक और परलोक के भोगों की अभिलाषा आकांक्षा कहलाती है। यह तीन प्रकार की होती है। इन भोगों में रुचि का अभाव होना निकांक्षित अंग कहलाता है।
आकांक्षा के तीन प्रकार-
इहलोकाकांक्षा-जो इस लोक में बलदेव, चक्रवर्ती, राजा आदि होने की अभिलाषा करता है उसके इहलोकाकांक्षा होती है।
परलोकाकांक्षा-जिसकी परलोक में, स्वर्गादि में देवपने की अभिलाषा होती है वह परलोकाकांक्षा कहतलाती है।
कुधर्माकांक्षा-अपने धर्म को छोड़कर अन्य सम्प्रदायों के धर्म में जो अभिलाषा होती है। वह कुधर्माकांक्षा कहलाती है।
इस प्रकार इन तीन आकांक्षाओं से रहित जीव निकांक्षित अंग की शुद्धि का पालन करने वाला होता है।
३. निर्विचिकित्सा-विचिकित्सा का अर्थ ‘ग्लानि’ है। यह द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार की होती है।
द्रव्यविचिकित्सा-मलमूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं को देखकर उसमें ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है।
भाव विचिकित्सा-क्षुधा, तृषा, दंशमशक, नग्नता आदि के प्रति मन में ग्लानि होना भाव विचिकत्सा है। दोनों प्रकार की विचिकित्सा (ग्लानि) का अभाव निर्विचिकित्सा है। इस प्रकार से मुनि इस अंग का पालन करते हुए सम्यक्त्व को शुद्ध रखते है।
४. अमूढ़दृष्टि-मिथ्यादेवों में श्रद्धा का भाव मूढ़ दृष्टिपना है तथा कुगुरू, कुदेव, कुधर्म आदि में श्रद्धा का अभाव होना अमूढ़दृष्टि अंग है इस अंग का पालन करने वाले साधु दर्शनाचार को निर्मल बना लेते हैं।
५. उपगूहन-सम्यग्दर्शन और चारित्र से मलिन साधर्मिक को धर्म भक्तिभाव से उसके दोषों को आच्छादित करना उपगूहन अंग है। यह अंग दर्शन और चारित्र गुण को निर्मल करता है। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध संघ के दोषों को आच्छादित करना अथवा इनके द्वारा हुए प्रमादाचरण को प्रकट न करना उपगूहन अंग है।
६. स्थितिकरण-सम्यग्दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्म बुद्धिपूर्वक हित, मित और प्रिय वचनों द्वारा दोष दूरकर शीघ्र ही रत्नत्रय में स्थिर करना स्थितिकरण है।
७. वात्सल्य-जैसे गाय अपने बछड़े पर स्नेह रखती है वैसे ही चतुर्गति के भ्रमण का नाश करने वाले ऋषि, आर्यिका, श्रावक एवं श्राविकारूप चतु:संघ में वात्सल्य भाव रखना चाहिए।
८. प्रभावना-धर्म कथा आदि के कथन, आतापन, वृक्षमूल, आदि योगों द्वारा तथा िंहसा आदि दोष रहित अपने अिंहसामय धर्म की जीवदया, अनुकम्पा, दान, पूजा आदि द्वारा प्रभावना करना।
इस प्रकार जिनोपदिष्ट तत्त्वार्थों का स्वरूप भावत: सत्य है ऐसा मानना सम्यग्दर्शन है। जो मुनि इनका तथा आठ अंगों का निर्दोष पालन करते हैं वही दर्शनाचार कहलाता है।
ज्ञानाचार से तात्पर्य श्रुतज्ञान विषयक आचरण अर्थात् मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पांच ज्ञानों की उत्पत्ति के कारणभूत शास्त्रों का अध्ययन, आदर आदि करना ज्ञानाचार है। यहाँ ज्ञान से तात्पर्य सम्यग्ज्ञान से है, जिसके द्वारा तत्त्व का स्वरूप ज्ञात किया जाता है, चित्तवृत्ति का निरोध किया जाता है, जिसके आश्रय से आत्मा विशुद्ध बन जाता है तथा जिस ज्ञान के माध्यम से जीव राग, द्वेष, काम, क्रोधादि विभावों से विरक्त होकर श्रेयस् में अनुरक्त होता है, मैत्रीभाव की ओर बढ़ता है वही ज्ञान जिनशासन में प्रमाण है।
काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय—इनकी शुद्धिपूर्वक ज्ञान का अभ्यास करना ज्ञानाचार है। ये ही ज्ञानाचार के आठ भेद कहलाते हैं।
१. काल ज्ञानाचार-काल क्रमानुसार निर्धारित कार्यों को उसी के अनुसार करना अथवा स्वाध्याय काल विशेष में शास्त्र पठन, पुन: पुन: उच्चारण, व्याख्यान आदि कार्य जिस समय किये जाने का विधान है उन्हें उसी समय करना काल ज्ञानाचार है।
स्वाध्याय प्रारम्भ एवं समाप्ति काल में दिग्विभाग शुद्धि एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव शुद्धि का ध्यान रखना आवश्यक है।
द्रव्य शुद्धि-रुधिर, पीव, मांस, मूत्र, लेप, पंचेन्द्रिय जीव का अवयव ये अपने शरीर में या अन्य के शरीर में निकल रहे हों तो उस समय द्रव्यशुद्धि के अभाव में स्वाध्याय वर्जित है।
क्षेत्र शुद्धि-व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश से चारों दिशाओं में अट्ठाईस हजार प्रमाण क्षेत्र में विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख, चमड़े आदि के अभाव को ‘क्षेत्र शुद्धि’ कहते हैं।
काल शुद्धि-बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्यचन्द्रग्रहण, अकालवृष्टि, दिशा दाह, धूमिका पात, संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा, जिनमहिमा आदि के अभाव को काल शुद्धि कहते हैं।
भाव शुद्धि-राग—द्वेष, अहंकार, आर्त—रौद्र ध्यान से रहित, पंच महाव्रत, समिति, गुप्ति सहित, दर्शनाचार समन्वित मुनियों के भाव शुद्धि होती है।
जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि को न करके सूत्र और अर्थ की शिक्षा के लोभ में स्वाध्याय करते हैं वे असमाधि, सम्यक्त्व की विराधना, कलह, व्याधि या वियोग को प्राप्त होते हैं। जैसे अष्टमी के दिन किया हुआ स्वाध्याय गुरु और शिष्य दोनों के वियोग को करता है। पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन विद्या को नष्ट करता है। यदि साधुजन चतुर्दशी और अमावस्या के दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। मध्याह्न काल में किया गया अध्ययन जिनरूप को नष्ट करता है। दोनों सन्ध्या काल में किया गया अध्ययन व्याधि को करता है तथा मध्यम रात्रि में किये गए अध्ययन से अनुरक्त जन भी द्वेष को प्राप्त हो जाते हैं। यह सब कालाचार के अन्तर्गत आता है।
ज्ञान प्राप्ित के प्रयत्नों में सदैव विनम्रता का भाव रखना जैसे—पुस्तक आदि को पिच्छिका से शुद्धि करके, हाथ जोड़कर, प्रणाम करके स्वशक्त्यानुसार शुद्धोपयोग—पूर्वक सूत्रार्थ का अध्ययन करना विनय ज्ञानाचार है। अर्थात् मन, वचन, काय के निर्मल परिणामों से युक्त हो श्रुत का पठन पाठन, व्याख्यानादि करना ‘विनय ज्ञानाचार’ है।
श्रुत वाचन आदि के समय तप करना अर्थात् रसपरित्याग आदि के नियमपूर्वक अध्ययन आदि करना ‘‘उपधान ज्ञानाचार है। जैस—आचाम्ल (कांजी के साथ भात) निर्विकृति (जिससे, जिह्वा एवं मन विकार रहित हो ऐसा घी, दही आदि से रहित ओदन आदि रूप अन्न) तथा अन्य पक्वान्न—ये शास्त्र स्वाध्याय की एकाग्रता में सहायक होने से उपधान कहलाते हैं।
ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनराग, अर्थात् पूजा एवं सत्कारपूर्वक पठनादि कार्य करना ‘बहुमान ज्ञानाचार’ है। अंगश्रुत के सूत्रार्थों का शुद्ध पठन—पाठन उच्चारण और प्रतिपादन करने से कर्मों की निर्जरा होती है। अत: श्रमण को आचार्य, शास्त्रादि की आसादना न करके उनकी विनय, पूजन आदि द्वारा बहुमान प्रगट करना ‘बहुमान ज्ञानाचार’ है।
विद्यागुरु आचार्य आदि का नाम न छिपाना अथवा जिस श्रुत के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त किया हो उस श्रुत को प्रगट करना अनिह्रव ज्ञानाचार है। कुल, व्रत और शीलविहीन गुरु से शास्त्र पढ़कर के भी ऐसा कथन करना कि मैंने इन गुणों से युक्त गुरु से शास्त्राध्ययन किया है—यह ‘अनिह्नव ज्ञानाचार’ है।
सूत्र का वाचन करना, वर्ण, पद वाक्यों का शुद्ध उच्चारण करना तथा व्याकरण के आश्रय से निरुक्तिपूर्वक सूत्र ग्रंथ पढ़ना ‘व्यंजन ज्ञानाचार’ है।
अर्थ बोध करना अर्थात् शास्त्र में अनेकान्तात्मक अर्थ का समन्वय करके अविरोध पूर्वक अर्थ प्रतिपादन करना ‘अर्थ ज्ञानाचार’ है।
सूत्र व्यंजन और अर्थ शुद्धि के साथ शास्त्र का अध्ययन करना तदुभय ज्ञानाचार है। इस प्रकार ज्ञान गुण से सहित ज्ञानाचारकेवलज्ञान का कारण है।