२.१ प्राणिवध से निवृत्ति तथा इन्द्रियजय में प्रवृत्ति रूप चारित्र गुण से युक्त होना ‘चारित्राचार’ कहलाता है।
पंचमहाव्रत, पंचसमिति और त्रयगुप्ति इस प्रकार १३ प्रकार के चारित्र को अवधारण करना ‘चारित्राचार’ कहलाता है। पंचसमिति एवं त्रय गुप्ति इनको अष्टप्रवचन माता भी कहते हैं क्योंकि जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है वैसे ही मुनियों के रत्नत्रय का रक्षण और संवर्धन ये अष्ट प्रवचन माता करती हैं।
अिंहसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत, अपरिग्रह महाव्रत।
१. ईयासमिति–मार्ग शुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोग शुद्धि और आलम्बन इन चार शुद्धियों का अवलम्बन करने वाले मुनि की सूत्रानुसार गमन क्रिया ईर्या समिति कहलाती है।
२. भाषा समिति–असत्यादि दोषों से वर्जित आगम के अनुकूल सत्य और अनुभय वचन बोलना ‘भाषा समिति’ कहलाती है। पापभीरू मुनि यदि मौन न रह सके तब उसे िंहसादि पाप तथा अयोग्य वचनों से रहित योग्य वचन बोलना चाहिये। वचन के चार भेद हैं–
१. सत्य,
२. असत्य,
३. सत्यासत्य,
४. असत्यमृषा।
(१) जनपद सत्य–जनपद का अर्थ देश है अत: इसे देश सत्य भी कहते हैं। देश विशेष की अपेक्षा से शब्दों का व्यवहार करना जनपद सत्य है। विभिन्न देशवासियों के व्यवहार में जो शब्द अपने किसी विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो गये हों, जैसे—ओदन (भात) शब्द को द्रविड़ में चीर कहते हैं। कन्नड़ भाषा में कूल और गौड़ी भाषा में भक्त कहा जाता है। इस प्रकार एक देश का रूढ़ शब्द दूसरे देश में असत्य भी कहा जा सकता है, फिर भी किसी एक देश की अपेक्षा से कोई इसका प्रयोग करे तो वह (जनपद) सत्य ही है।
(२) सम्मतिसत्य–प्राचीन विद्वानों, आचार्यों या बहुजन द्वारा मान्य किये गये अर्थ में शब्दों का प्रयोग करना सम्मति सत्य है। बहुजन सम्मत शब्द जब सर्वसाधारण अर्थ में रूढ़ हो जाते हैं तब वे सम्मति सत्य बन जाते हैं। जैसे–राजा की स्त्री मनुष्य जाति की स्त्री होते हुए भी महादेवी शब्द से रूढ़ है लोक में इसे स्त्री न कहकर देवी कहा जाता है। यही ‘सम्मतिसत्य’ है।
(३) स्थापना सत्य–समान आकार या भिन्न आकार वाली व्यक्ति विशेष की स्थापना करके उसे उसी रूप में मानना अर्थात् किसी वस्तु में उससे भिन्न गुणों का समारोप करके उसे तद्रूप मानना स्थापना सत्य है। जैसे—पत्थर की प्रतिमा में अर्हन्तादि की स्थापना करके उसे तद्रूप मानकर आदर, पूजन आदि करना। इसी तरह शतरंज की गोटों में बादशाह, वजीर की कल्पना करना यह ‘स्थापना सत्य’ है।
(४) नाम सत्य–गुणों की अपेक्षा न करके व्यवहार के लिये देवदत्त आदि नाम रखना। चूंकि वह नाम देवों द्वारा दत्त नहीं है किन्तु व्यवहार के लिये देवदत्त कहना ‘नाम सत्य’ है।
(५) रूप सत्य–रूप विशेष की प्रधानता के कारण किसी व्यक्ति या द्रव्य को काला, सफेद आदि वर्ण वाला कहना ‘रूप—सत्य’ है। जैसे—बगुला पक्षी कई वर्णों के होते हैं किन्तु श्वेत वर्ण की प्रधानता के कारण उन्हें श्वेत कह दिया जाता है।
(६) प्रतीत्य सत्य–इसे आपेक्षिक सत्य भी कहते हैं। अपेक्षा विशेष से वस्तु को छोटी-बड़ी कहना ‘प्रतीत्य सत्य’ है। मध्यमा अंगुली की अपेक्षा अनामिका को छोटी एवं कनिष्ठा अंगुली की अपेक्षा बड़ी कहना।
(७) व्यवहार सत्य–नैगम, संग्रह आदि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाय वह ‘व्यवहार सत्य’ है। जैसे—चावल पकाने की तैयारी में संलग्न व्यक्ति से पूछने पर कि क्या कर रहे हो ? वह उत्तर दे कि मैं भात पका रहा हूँ। चूंकि भात तो स्वयं पके हुए चावल हैं, तब चावल पकायेगा न कि भात। फिर भी व्यवहार से ऐसे कथन सत्य मान लिये जाते हैं।
(८) सम्भावना सत्य–असम्भवता का निराकरण करते हुए वस्तु के किसी धर्म का निरूपण करना ‘सम्भावना सत्य’ है। जैसे–यह कहना कि इन्द्र चाहे तो पृथ्वी को पलट सकता है।
(९) भाव सत्य–सत्य वचन भी यदि िंहसादि दोष सहित हों तो उन वचनों को भी नहीं बोलना अर्थात् िंहसादि दोष रहित योग्यवचन बोलना भाव सत्य है। जैसे–किसी कसाई द्वारा पूछने पर कि इधर से गाय को जाते हुए देखा है? मैंने नहीं देखा—कह देना भाव सत्य है।
(१०) उपमा सत्य–किसी एक अंश की भी समानता को लेकर एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना करना ‘उपमा सत्य’ है। जैसे–पूजन कार्य में प्रयुक्त पीले चावलों को सादृश्य के कारण पुष्प कह देना। इसी तरह किसी स्त्री को चन्द्रमुखी कह देना। पल्योपम, सागरोपम आदि भी उपमा सत्य के उदाहरण हैं। उपमा के चार भेद हैं–
१. सत् की सत् से उपमा अर्थात् विद्यमान पदार्थ को विद्यमान पदार्थ से उपमित करना। जैसे—नेत्र कमल के समान विकसित हैं।
२. सत् की असत् से उपमा—जैसे यह कहना कि इन्द्र में इतना बल है कि वह मेरुपर्वत को दण्ड और पृथ्वी को छत्र बना सकता है किन्तु ऐसा करता नहीं।
३. असत् की सत् से उपमा।
४. असत् की असत् से उपमा—जैसे यह कहना कि चन्दन का पुष्प आकाश पुष्प की तरह है। इसमें उपमा उपमेय दोनों असत् हैं।
असत्य वचन–सत्य वचन से जो विपरीत है वह असत्य वचन है। क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, भय, आख्यायिका, हास्य, उपहास इन कारणों के आश्रित होकर व्यक्ति असत्य बोलता है। भाषा समिति के पालक मुनिराज इसके पूर्णतया त्यागी होते हैं।
सत्यासत्य या सत्यमृषा वचन–वचन का तृतीय भेद सत्य मृषा है इसके शब्द वाक्य या वचन में सत्यता और असत्यता दोनों का समावेश रहता है।
असत्य मृषा वचन–जो वचन न सत्य होता है और न असत्य अर्थात् जिसमें सत्यता, असत्यता इन दोनों का अभाव हो ऐसे अनुभय रूप पदार्थ के जानने की शक्ति रूप भावमन को चतुर्थ असत्यमृषा या सामान्य वचन कहते हैं।
असत्यमृषा वचन के नव भेद हैं–
(१) आमन्त्रणी–जिसके द्वारा आमन्त्रण किया जाता है वह आमन्त्रणी भाषा है अथवा किसी व्यक्ति को कार्य में लगाने से पूर्व उसे बुलाने के लिए प्रयुक्त वचन। जैसे—हे देवदत्त! यहां आओ।
(२) आज्ञापनी–जिसके द्वारा आज्ञा दी जाती है वह आज्ञापनी भाषा है, जैसे—स्वाध्याय करो।
(३) याचनी–जिस भाषा के द्वारा किसी से वस्तु की याचना की जाय।
(४) पृच्छनी–जिसके द्वारा प्रश्न किया जाता है वह पृच्छनी भाषा है। जैसे–मैं आपसे पूछता हूँ।
(५) प्रज्ञापनी–जिसके द्वारा प्रज्ञापना की जाय वह प्रज्ञापनी भाषा है। जैसे–मैं आपसे कुछ निवेदन करता हूँ।
(६) प्रत्याख्यानी–त्याग करना अर्थात् मैं इस वस्तु का त्याग करता हूँ अथवा मैं यह कार्य नहीं करूंगा—इस तरह के त्यागपूर्ण वचन प्रत्याख्यानी भाषा है।
(७) इच्छानुलोमा–पूछने वाले की इच्छा का अनुमोदन करना अर्थात् इसके अनुकूल अपनी इच्छा या अनुमोदना प्रगट करना। यथा—जैसा आप चाहते हैं वैसा ही मैं करता हूं।
(८) संशय वचनी–अव्यक्त या संशययुक्त वचन। जैसे—‘दन्तरहिता’ शब्द कहने से दो, तीन माह की बच्ची का भी ग्रहण हो सकता है और वृद्धा का भी अत: अभिप्राय की उभयात्मकता के कारण ऐसा वचन ‘असत्यमृषा’ है।
(९) अनक्षरगता–द्वीन्द्रिय आदि तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की चकार, मकरादि अक्षरों से रहित भाषा ‘अनक्षरगता’ है। अस्पष्ट आवाज, चुटकी, अंगुलि आदि के संकेत भी इसी के अन्तर्गत आते हैं।
जैसे—जिस पुरुष ने अंगुलि चटकाने आदि के शब्द या संकेत ग्रहण किये उसे तो ध्वनि सी प्रतीति होती है, दूसरे को नहीं होती। इस तरह यह वचन उभय रूप है।
इस प्रकार भाषा समिति के प्रसंग में वचन (भाषा) के भेद—प्रभेदों के सूक्ष्म विवेचन से ज्ञात होता है कि मुनि को भाषा या वचन प्रयोग में कितना सावधान रहना पड़ता है।
३. एषणा समिति-छ्यालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक, निर्दोष, पवित्र आहार लेना एषणासमिति है।
४. आदान निक्षेपण समिति–ज्ञानोपधि शास्त्र, संयमोपधि पिच्छिका, शुद्धता हेतु कमण्डलु रूप उपाधि तथा इसी तरह की अन्य संस्तर आदि उपाधि को ग्रहण करते या रखते समय प्रयत्न और उपयोगपूर्वक अपने नेत्रों से स्थान एवं द्रव्य को अच्छी तरह देखकर पिच्छिका से उनका प्रमार्जन करना ताकि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों का भी घात न हो—ऐसा सोचकर उक्त उपकरणों का उपयोग करना आदाननिक्षपेण समिति है। सामान्यत: वस्तुओं को उठाने रखने में चार दोषों की संभावना रहती है।
सहसादोष–बिना देखे सहसा कोई पुस्तक आदि उठाना—रखना।
अनाभोगित दोष–अस्थिर चित्त वृत्ति से बिना देखे वस्तुयें उठाना—रखना।
दुष्प्रमार्जित–पुस्तक आदि को पिच्छिका से असावधानीपूर्वक वस्तुओं को ग्रहण या निक्षेपण करना चाहिए तभी इस समिति का परिपूर्ण पालन किया जा सकता है।
५. व्युत्सर्ग समिति–अपने मलमूत्रादिक का त्याग सूखे एवं जन्तु रहित स्थान पर करना व्युत्सर्ग समिति है।
मनोगुप्ति–रागद्वेष से मन में उत्पन्न सभी प्रकार के संकल्पों का त्याग ‘मनोगुप्ति’ है।
वचन गुप्ति–असत्य कटु आदि वचनों का त्याग तथा मौन धारण करना ‘वचनगुप्ति’ है।
काय गुप्ति–शारीरिक क्रियाओं की निवृत्ति तथा कायोत्सर्ग करना एवं िंहसा आदि पापों से निवृत्त होने का नाम ‘कायगुप्ति’ है।
इस तरह मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को ध्यान और स्वाध्याय में समाहित करना चाहिए।
इस प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्राचार यहाँ वर्णित किया गया है।