ऋषि पञचमी व्रत का दूसरा नाम आकाशपंचमी व्रत भी है। श्री जैनव्रत कथा संग्रह के अनुसार यह व्रत भाद्रपद शुक्ला पंचमी को किया जाता है। इस दिन खाद्य, स्वाद, लेह्म और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्यागकर पूर्ण उपवास धारण करते है और अष्टद्रव्य से श्री जिनालय में जाकर भगवान का अभिषेक पूर्वक पूजन की जाती है। पश्चात् रात्रि के समय खुले मैदान में या छत पर बैङ्गकर भजनपूर्वक जागरण किया जाता है तथा वहाँ भी सिंहासन रखकर श्री चौबीस तीर्थंकरो की प्रतिमा स्थापित करके प्रत्येक प्रहर में अभिषेक करके पूजन की जाती है और यदि उस समय उस स्थान पर वर्षा आदि के कारण कितने ही उपसर्ग आवें तो सब सहन करे लेकिन उस स्थान को नहीं छोड़ना चाहिए ।
तीनों समय महामं णमोकार की १०८ जाप्य करे । इस प्रकार ५ वर्ष तक करे। जब व्रत पूर्ण हो जाए तो उत्साह सहित उद्यापन करें जिसमें छत्र, चमर, सिंहासन, तोरण, पूजन के बर्तन आदि प्रत्येक ५ नग मन्दिर में भेंट करें और कम से कम ५ शास्त्र पधरावें, चार प्रकार के संघ (मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका) को चारों प्रकार के दान (औषधि, शास्त्र, अभय, आहार) देवे और भी विशेष प्रभावना करे । भारत वर्ष के उत्तर प्रदेश में स्थित अवथ प्रांत में आज भी यह परम्परा है कि नवविवाहित जोड़े विवाह के प्रथम वर्ष में ही गुरू के सम्मुख या जिनप्रतिमा के सम्मुख आकाश पञचमी व्रत लेकर ५ वर्ष तक इस व्रत का पूर्णतया पालन करते है।
व्रत विधान संग्रह पुस्तक में इस व्रत को करने की अवधि ५ वर्ष ५ मास बताई है जिसमें ६५ उपवास किये जाते है। आषाढ़ शुक्ला पञचमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास की दो-दो पञचमी को उपवास करते है तथा जाप्यमंत्र – णमोकार मंत्र का त्रिकाल जाप्य करते हैं।