जैनधर्म के अनुसार संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मानव के २८ मूलगुण रूप सकल संयम (मुनि-आर्यिका) अथवा ११ प्रतिमारूप देशसंयम ग्रहण करने का नाम ‘दीक्षा’ है। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा भी है-
मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।
अर्थ-मोहरूपी अंधकार के नष्ट हो जाने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करके साधुजन राग-द्वेष की निवृत्ति से सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् अनंत संसार को वृद्धिंगत करने वाली मोह मदिरा को पीकर यह जीव अनादिकाल से संसार की चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। आत्मकल्याण के इच्छुक वही जीव जब मिथ्यात्वयुक्त मोह को घटाकर सम्यक्त्व क्रियाओं सहित चारित्र को गुरु के समीप धारण करते हैं, तब दीक्षा की प्रक्रिया आरंभ होती है।
व्यवहारिक दृष्टि से जिस प्रकार विवाहोपरान्त कन्या और वर का जीवन पूर्णरूपेण गृहस्थ धर्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के करकमलों से मुनि-आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका रूप व्रतों को धारण करने पर यतिधर्म के रूप में मानव जीव का आमूल चूल परिवर्तन होता है। एक वैराग्य अष्टक में मैंने लिखा है-
दीक्षा का अर्थ न केवल वेष परावर्तन कहलाता है।
इस परिवर्तन के साथ भाव परिवर्तन भी हो जाता है।।
आतमज्योति का दीप जले पशुता का भाव क्षपण होता।
वह दानक्षपण से सहित भाव ही दीक्षा का मतलब होता।।१।।
अपने दीक्षित परिणामों को मैं सदा-सदा स्मरण करूँ।
यदि किंचित विकृति हो मन में उस ही क्षण का संस्मरण करूँ।।
कलिकाल का यह अभ्यास मेरा परभव में मुक्ति दिलाएगा।
भव भव का यह पुरुषार्थ मेरा फिर व्यर्थ कभी ना जाएगा।।२।।
अर्थात् वेष परिवर्तन के साथ-साथ मन का परिवर्तन होकर भावों में परम शुद्धता आती है और सिरमुण्डन-केशलोंच के साथ मन का मुण्डन भी होता है, इन्द्रियों को वश में किया जाता है एवं वस्त्र त्याग के साथ-साथ विकारों को पूर्णरूपेण हटाया जाता है।
दिगम्बर जैन परम्परा की दीक्षा में दीक्षार्थी स्त्री-पुरुष के वैराग्य परिणामों की परीक्षा करके गुरू सर्वप्रथम उनका केशलोंच करते हैं पुन: मस्तक पर मूलगुणों के संस्कार आरोपित कर उन्हें पूज्य बनाते हैं। मुनि-आर्यिकाओं के वे २८ मूलगुण श्री गौतम स्वामी के शब्दों में-
वदसमिदिंदिय रोधो, लोचो आवासयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदन्तवणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च।।
५ महाव्रत, ५ समिति, पंचेन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक (समता-स्तव-वंदना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान-कायोत्सर्ग), केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त (एक बार भोजन) ये अट्ठाईस मूलगुण मुख्यरूप से मुनियों के होते हैं। इनमें से आर्यिकाओं के आचेलक्य-निर्वस्त्र के स्थान पर एक साड़ी पहनने का विधान है तथा स्थितिभोजन-खड़े होकर करपात्र में भोजन करने की जगह बैठकर करपात्र में भोजन ग्रहण करना ही उनका मूलगुण है इसीलिए चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी की गुरु परम्परानुसार आर्यिकाओं के भी मुनियों के समान ही २८ मूलगुण माने जाते हैं तथा उन्हें मुनियों के समान ही दीक्षाविधि से दीक्षित करके प्रायश्चित्तादि एक समान प्रदान किया जाता है, जबकि क्षुल्लक-क्षुल्लिका की दीक्षाविधि बिल्कुल भिन्न होती है।
दीयते ज्ञानसद्भावं, क्षीयते पशुभावना।
दानक्षपणभावेन, दीक्षा तेनैव उच्यते।।
अर्थात् दी और क्षा इन दो शब्दों के द्वारा ज्ञान के सद्भाव का आदान-प्रदान एवं पशुत्व भावना का क्षपण होकर ‘‘दीक्षा’’ का अर्थ स्पष्ट और सार्थक हो जाता है। इसमें सिर मुंडन-केशलोंच के साथ-साथ मन और इन्द्रियों का भी मुण्डन-निग्रह होता है। ऐसी सम्यक् दीक्षा से दीक्षित साधुओं के लिए सागारधर्मामृत में वर्णन आया है-
कलिप्रावृषि मिथ्यादृङ्, मेघच्छन्नासु दिक्ष्विह।
खद्योतवत् सुदेष्टारो, हा! द्योतन्ते क्वचित्-क्वचित्।।
अर्थात् इस कलिकालरूपी वर्षाऋतु में जब दिशाएं मिथ्यादृष्टियों रूपी काली घटाओं से आच्छन्न (व्याप्त) हैं, ऐसी स्थिति में खेद है कि जिनमुद्रा के धारक साधु जुगनू के समान कहीं-कहीं प्रकाशित होते हैं।
किन्तु यह कलिकाल भी किसी अपेक्षा से पुण्यशाली है कि आज लगभग ग्यारह सौ साधु-साध्वियों का विचरण पूरे देश में हो रहा है। इसी शृँखला में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की परम्परा को सुवासित एवं वृद्धिंगत करने वाली पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान साधु जगत् की प्रकाशस्तंभ हैं-
यह सत्य है कि सवा सौ करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले भारत देश में जैन समाज की संख्या वर्तमान में अति अल्प है किन्तु उसकी आध्यात्मिक देन के रूप में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत एवं ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त आज भी पूरे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत हैं। जैन रामायण के अनुसार तो साधु-संतों की तपस्या का छठा भाग पुण्य देश के राजा को भी प्राप्त होता है, जिससे राजा को न्यायपूर्वक राज्यव्यवस्था संचालित करने का बल प्राप्त होता है।
आगम में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों के मनुष्य के लिए ही जैनेश्वरी दीक्षा का नियम बताया है।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार में कहा है—
वण्णेसु तीसु एक्को, कल्लाणंगो तवो सहो वयसा।
सुमुहो कुंछारहिदी, िंलगग्गहणे हवदि जोग्गो।।
गाथार्थ—ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य इन तीन वर्णों में से एक वर्ण वाला आरोग्य शरीरधारी, तपस्या को सहन करने वाला, अवस्था से सुन्दर मुख वाला तथा अपवाद रहित पुरुष साधु भेष के लेने योग्य होता है। (पृ. ५३७)
श्री कुन्दकुन्ददेव ने आचार्यभक्ति में भी कहा है—
देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता।
तुम्हं पायपयोरुहमिहमंगलमत्थु मे णिच्चं।।१।।
आप देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त हैं। ऐसे हे आचार्यदेव! आपके पादकमल इस लोक में हमारे लिए नित्य ही मंगलस्वरूप होवें।
इसी की पुष्टि हेतु आगम में जिन सप्तपरमस्थानों का वर्णन आया है, उनके नाम यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता।
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा।।
१. सज्जाति, २. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत), ३. पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत), ४. सुरेन्द्रपद, ५. साम्राज्य (चक्रवर्ती पद) ६. अरहंतपद और ७. निर्वाणपद ये सात परम स्थान कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परमस्थानों को प्राप्त कर लेता है।
इन्हें कर्त्रन्वय क्रिया भी कहते हैं। इन सप्तपरमस्थानों का कर्त्रन्वय क्रियाओं के नाम से आदिपुराण में सुन्दर विवेचन देखा जाता है।
यहाँ प्रसंगोपात्त सज्जाति परमस्थान का कथन किया जाता है, क्योंकि उसके बिना जैनेश्वरी दीक्षा की पात्रता नहीं पाई जाती है।
सज्जाति का आशय—
स नृजन्मपरिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये।
विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते।।८३।।
पितुरन्वयशुद्धिर्यो तत्कुलं परिभाष्यते।
मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते।।८५।।
विशुद्धिरूभयस्यास्य सज्जातिरनुवर्णिता।
यत्प्राप्तौ सुलभा बोधिरयत्नोपनतैगुणैः।।८६।।
इन क्रियाओं में कल्याण करने वाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो कि निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है। दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति नाम का परमस्थान होता है। विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी संपदा सज्जाति है। इस सज्जाति से ही पुण्यवान् मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम-उत्तम वंशों को प्राप्त होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को ‘‘सज्जाति’’ कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुये गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है।
आर्यखंड की विशेषता से सज्जातित्व की प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलने पर प्राणियों के अनेक प्रकार के कल्याण उत्पन्न करती है। यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही वर्णन की गई है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूल कारण यही एक सज्जाति है। संस्कार रूप जन्म से जो सज्जाति का वर्णन है वह दूसरी ही सज्जाति है उसे पाकर भव्य जीव द्विजन्मा कहलाता है अर्थात् प्रथम उत्तम वंश में जन्म यह एक सज्जाति हुई पुनः व्रतों के संस्कार से संस्कारित होना यह द्वितीय जन्म माना जाने से उस भव्य की ‘‘द्विज’’ यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है। जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है।
यहाँ विशेष बात समझने की यह है कि जाति व्यवस्था को माने बिना ‘‘सज्जातित्व’’ नहीं बन सकती। इसी बात को श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं—
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णोः शेषा शूद्राः प्रकीर्तिता।।४९३।।
अच्छेद्यो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः।
तद्धेतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात्।।४९४।।
शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः।
एवं वर्णविभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे।।४९५।।
‘‘जिनमें शुक्लध्यान के लिये कारण ऐसे जाति, गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं। उनसे अतिरिक्त शेष शूद्र कहे जाते हैं। विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में जाति की परम्परा चलती है। जिनागम में मनुष्यों का वर्ण-विभाग इस प्रकार बतलाया गया है।
कृतयुग की आदि में जब प्रजा भगवान् के सामने अपनी आजीविका की समस्या लेकर आई तब भगवान् ने उसे आश्वासन देकर विचार किया—
पूर्वापरविदेहेषु या स्थितिः समवस्थिता।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमूप्रजाः।।१४३।।
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थितिः।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्च प्रथग्विधाः।।१४४।।
‘‘पूर्व और पश्चिम विदेहक्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मसि आदि षट्कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर, नगर आदि की रचना है वह सब यहाँ पर भी होनी चाहिये। अनन्तर भगवान् के स्मरण मात्र से देवों के साथ सौधर्म इंद्र वहाँ आया और उसने शुभ मुहूर्त में जगद्गुरु भगवान् की आज्ञानुसार मांगलिक कार्यपूर्वक अयोध्या के बीच में ‘‘जिनमन्दिर’’ की रचना की एवं चारों ाfदशाओं में चार जिनमंदिर बनाये। पुनः सर्वप्रथम ग्राम, नगर आदि की रचना कर प्रजा को बसाकर चला गया।
‘‘पुनः भगवान् ने असि, मसि आदि षट् कर्मों का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की। उस समय प्रजा अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य आजीविका नहीं करती थी इसलिये उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) नहीं होती थी। उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान् की आज्ञानुसार ही होते थे अर्थात् कर्मभूमि की आदि में भगवान् वृषभदेव ने अपने अवधिज्ञान के बल से विदेह क्षेत्र की अनादिनिधन कर्मभूमि की व्यवस्था को देखकर उसी के सदृश ही यहाँ सब व्यवस्था बनाई थी अतः जैसे इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग की व्यवस्था सादि है भोगभूमि में या प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा पंचम और छठे काल में मोक्ष नहीं होता है वैसे ही यह वर्ण व्यवस्था भी सादि है फिर भी इसके बिना मोक्ष नहीं है।
सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री नेमिचंद्राचार्य भी कहते हैं—
दुब्भावअसुयसूदगपुप्फवईजाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९१४।।
‘‘दुर्भाव, अशुचि, सूतक-पातक दोष से युक्त, रजस्वला स्त्री और जातिसंकर आदि दोष से दूषित लोग यदि दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं तथा जो कुपात्र में दान देते हैं वे भी कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं।
जाति व्यवस्था मानने पर ही ‘‘जातिसंकर’’ दोष बनेगा अन्यथा नहीं।
उपासकाध्ययन में भी कहा है—
पित्रोः शुद्धौ यथापत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते।
तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता।।९६।।
‘‘जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर संतान की शुद्धि देखी जाती है। वैसे ही आप्त के निर्दोष होने पर उनका कहा हुआ आगम निर्दोष माना जाता है। ‘‘द्रव्य, दाता और पात्र की विशुद्धि होने पर ही विधि शुद्ध हो सकती है।
जैनेन्द्र व्याकरण में श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है—
वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानाम्।।९७।।
जो वर्ण से—जाति विशेष से अर्हंत रूप-निर्ग्रंथता के अयोग्य हैं उनमें द्वंद्व समास करने पर नपुंसकलिंग का एकवचन होता है। यथा—
तक्षायस्कारं—बढ़ई और लुहार, रजकतंतुवायं—धोबी और जुलाहा। ‘‘वर्ण से’’ ऐसा क्यों कहा ? तो ‘‘मूकबधिरौ’’ गूँगा और बहरा, इसमें वर्ण का सम्बन्ध नहीं होने से एकवचन नहीं हुआ। ‘‘अर्हद्रूप के लिए अयोग्य हो’’ ऐसा क्यों कहा तो ‘‘ब्राह्मण क्षत्रियौ—’’ब्राह्मण और क्षत्रिय, ये वर्ण से अर्हंत िंलग के लिए अर्थात् दिगम्बर मुनि रूप जिनमुद्रा के लिए योग्य हैं इसलिए इनमें भी द्वन्द्व समास में द्विवचन होता है। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही जिनमुद्रा की प्रतीक जैनेश्वरी दीक्षा धारण करने के योग्य हैं।
मुनियों के पाँच भेद हैं-पुलाक, वकुश, कुशील, निर्र्ग्रन्थ और स्नातक।
‘‘पुलाक-
जिनका चित्त उत्तरगुणों की भावना से रहित है और व्रतों में भी क्वचित् कदाचित् परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाते हैं अर्थात् पाँच महाव्रतों में भी दोष लग जाते हैं। बिना शुद्ध हुए (किंचित् लालिमा सहित) धान्य सदृश होने से वे पुलाक कहलाते हैं।’’
इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम पाये जाते हैं। श्रुतज्ञान की अपेक्षा उत्कृष्ट रूप से ये अभिन्नदशपूर्वी हो सकते हैं और जघन्य से आचार वस्तु मात्र है।
‘‘ये दूसरों की जबरदस्ती से पाँच महाव्रत और रात्रिभोजनत्याग ऐसे छठे अणुव्रत इनमें से किसी एक की विराधना कर लेते हैं, इसीलिए पुलाक कहलाते हैं।’’ इस प्रसंग में तत्त्वार्थवृत्ति में प्रश्न किया है कि-
‘‘प्रश्न-रात्रिभोजनत्याग का विराधक वैâसे हो जाता है ?
उत्तर-‘श्रावक आदिकों का इससे उपकार होगा’ ऐसा सोचकर अपने छात्र आदि को रात्रि में भोजन करा देते हैं, इसलिए विराधक हो जाते हैं।’’
वकुश-
‘जो निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त हैं, मूलगुणों को अखंडित-निरतिचार पालते हैं, शरीर और उपकरण की शोभा के अनुवर्ती हैं, ऋद्धि और यश की कामना रखते हैं, सात और गौरव के आश्रित हैं, परिवार—शिष्यों से घिरे हुए हैं और छेद से जिनका चित्त शबल-चित्रित है, वे मुनि वकुश कहलाते हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी ने ‘‘इन्हें विविध प्रकार के मोह से युक्त कहा है।’’
तत्त्वार्थवृत्ति में ‘अविविक्तपरिवारा:’ पद का अर्थ असंयत शिष्यादि किया है अर्थात् ‘‘जो निर्र्ग्रन्थ पद में स्थित हैं, व्रतों में दोष नहीं लगाते हैं किन्तु शरीर, उपकरण—पिच्छी, कमण्डलु, पुस्तक आदि की शोभा चाहते हैं, ऋद्धि, यश, सुख और वैभव की आकांक्षा रखते हैं, असंयत परिवार—शिष्यों से सहित हैं, अनुमोदना आदि विविध भावों से शबलचित्त हैं वे वकुश कहलाते हैं।’’
इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं। उत्कृष्ट से इनका ज्ञान अभिन्नदश पूर्व तक हो सकता है और जघन्य से अष्टप्रवचनमातृका (पाँच समिति, तीन गुप्ति) मात्र का ज्ञान रह सकता है।
‘‘वकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण वकुश और शरीर वकुश। उपकरणों में जिनका चित्त आसक्त है, जो नाना प्रकार के विचित्र परिग्रहों से युक्त हैं, बहुत विशेषता से युक्त उपकरणों के आकांक्षी हैं, उनके संस्कार और प्रतीकार को करने वाले हैं ऐसे साधु उपकरण वकुश कहलाते हैं तथा शरीर के संस्कार को करने वाले शरीर वकुश हैं।’’
कुशील-
कुशील मुनि के दो भेद हैं। वैâसे ? प्रतिसेवना और कषाय के उदय के भेद से अर्थात् प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील ये दो भेद हैं।
जो परिग्रह से अविविक्त—मुक्त नहीं हुए हैं, मूलगुण और उत्तरगुणोें में परिपूर्ण हैं किन्तु जिनके कथंचित्—किसी अपेक्षा से उत्तरगुणों की विराधना भी हो जाती है वे प्रतिसेवना कुशील हैं।
जो ग्रीष्मऋतु में जंघाप्रक्षालन आदि कर लेने से अन्य कषायोदय के वशीभूत हैं संज्वलनमात्र कषाय के आधीन हैं वे कषाय कुशील मुनि हैं।’’
प्रतिसेवना कुशील के सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो ही संयम होते हैं किन्तु कषाय कुशील के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय ये चार संयम होते हैं।
प्रतिसेवना कुशील मुनियों का भी उत्कृष्ट ज्ञान अभिन्नदशपूर्व तक है और जघन्य ज्ञान आठ प्रवचनमाता का ही है।
ये मूलगुणों में विराधना न करते हुए उत्तरगुणों में किंचित् विराधना कर सकते हैं।
कषाय कुशील मुनियों का उत्कृष्ट ज्ञान चौदहपूर्व है और जघन्य आठ प्रवचनमातृका ही है। इनके द्वारा मूलोत्तर गुणों में विराधना संभव नहीं है।
निर्ग्रन्थ—
‘‘जैसे जल में डंडे की लकीर तत्क्षण मिट जाती है वैसे ही जिनके कर्मों का उदय व्यक्त नहीं है, मुहूर्त के अनन्तर ही जिनको केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रगट होने वाले हैं वे निर्ग्रन्थ साधु हैं।’’
इनके यथाख्यात संयम ही होता है। उत्कृष्ट से इनका श्रुतज्ञान चौदहपूर्व है और जघन्य से वही अष्ट प्रवचनमातृका पर्यन्त है। इनके मूलोत्तर गुणों में विराधना असंभव है, चूँकि शुक्लध्यान में स्थित हैं।
स्नातक-
ज्ञानावरण आदि घातिकर्मों के क्षय से जिनके केवलज्ञानादि अतिशय विभूतियाँ प्रगट हो चुकी हैं, जो सयोगी सम्पूर्ण अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, कृतकृत्य हो चुके हैं ऐसे केवली भगवान स्नातक कहलाते हैं।
इनके भी एक यथाख्यात संयम ही है। इनके श्रुतज्ञान का सवाल ही नहीं है। क्योंकि पूर्ण—केवलज्ञान प्रगट हो चुका है।
ये पाँचों प्रकार के मुनि प्रत्येक तीर्थंकरों के समय होते हैं। ‘‘ये पाँचों प्रकार के भी भावलिंगी हैं।’’
इसमें से पुलाक मुनियों के तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं किन्तु ‘‘वकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनियों के छहों लेश्याएँ भी हो सकती हैं।’’ सर्वार्थसिद्धि की टिप्पणी में इस बात को स्पष्ट किया है कि-‘‘कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याएँ भी इन दोनों मुनियों के वैâसे संभव हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-इन दोनों प्रकार के मुनियों में उपकरण की आसक्ति संभव होने से कदाचित् आर्तध्यान संभव है और आर्तध्यान से ये अशुभ लेश्याएँ संभव हैं।’’
तत्त्वार्थवृत्ति में भी इसी बात को स्पष्ट किया है-
शंका-कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएँ वकुश और प्रतिसेवना कुशील में वैâसे संभव हैं ?
समाधान-आपका कहना सत्य है, किन्तु इन दोनों प्रकार के मुनियों के उपकरणों में आसक्ति से उत्पन्न होने वाला आर्तध्यान कदाचित्-किसी काल में संभव है और आर्तध्यान संभव होने से कृष्ण आदि तीनों लेश्याएँ संभव ही हैं। दूसरे मत की अपेक्षा परिग्रह के संस्कार की आकांक्षा होने से और स्वयं ही उत्तरगुणों की विराधना हो जाने से आर्त-परिणामों में पीड़ा-क्लेश संभव है और उस आर्त से अविनाभावी छहों लेश्याएँ भी संभव हैं।
पुलाक मुनियों के आर्त के कारणों का अभाव होने से छह लेश्याएँ नहीं हैं किन्तु तीन शुभ ही हैं अर्थात् अशुभ लेश्याएँ नहीं हैं।’’
‘‘कषाय कुशील मुनियों में और परिहारविशुद्धि संयमी के कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेश्याएँ हैं।’’
‘‘इनमें भी कापोत इस अशुभ लेश्या के होने का मतलब पूर्वोक्त ही है, क्योंकि इनमें संज्वलन मात्र अन्तरंग कषाय का सद्भाव होने से और परिग्रह की आसक्ति मात्र का सद्भाव होने से यह लेश्या मानी है।’’
सूक्ष्मसांपराय, निर्र्ग्रन्थ और स्नातक के केवल एक शुक्ल लेश्या ही है।
पुलाक मुनि उत्कृष्ट रूप से यदि स्वर्ग में जाते हैं तो बारहवें में उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों में जन्म ले सकते हैं। वकुश और प्रतिसेवनाकुशील बाईस सागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर आरण और अच्युत कल्प जा सकते हैं। कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) तेतीस सागर की आयु लेकर सर्वार्थसिद्धि में जन्म ले सकते हैं। स्नातक केवली तो मोक्ष ही जाते हैं। स्नातक से अतिरिक्त सभी प्रकार के मुनि जघन्य—कम से कम सौधर्म स्वर्ग में दो सागर की आयु वाले ऐसे देव अवश्य होते हैं।
इन पाँच प्रकार के मुनियों के स्वरूप को अच्छी तरह से समझकर यह निर्णय करना चाहिए कि चतुर्थकाल में भी मूलगुणों में दोष लगाने वाले साधु हो सकते थे और आज भी पुलाक आदि मुनि विद्यमान हैं। जंघाप्रक्षालन या उपकरण की सुंंदरता में आसक्त हुए साधु को चारित्रहीन द्रव्यलिंगी कह देना उचित नहीं है।
श्री अकलंकदेव इसी बात को और भी स्पष्ट कहते हैं-
‘‘सम्यग्दर्शन और भूषा, वेश तथा आयुध से विरहित निर्र्ग्र्रंन्थरूप, यह सामान्यतया पुलाक आदि सभी में पाया जाता है, यही कारण है कि सभी को निर्ग्रन्थ शब्द से कहना युक्त है। अर्थात् ये पाँचों ही निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं चूँकि इनमें सम्यक्त्व और वस्त्राडंबर रहित निर्र्ग्रन्थरूप विद्यमान है।
प्रश्न-यदि भग्नव्रत—खंडितव्रत में भी निर्ग्र्रन्थ शब्द का प्रयोग होता है, तो श्रावक में भी करना चाहिए ?
उत्तर-नहीं, श्रावकों को निर्ग्रन्थ शब्द से सम्बोधित कभी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उसमें दोष लगता है।
प्रश्न-क्यों ?
उत्तर-क्योंकि उनमें-श्रावकों में निर्ग्रन्थरूप का अभाव है। हम लोगों को यहाँ पर निर्र्ग्रन्थरूप प्रमाण है और वह श्रावक में है नहीं, इसलिए अतिप्रसंग नहीं आ सकता है।
प्रश्न-यदि निर्ग्रन्थरूप ही आपको प्रमाण है तो अन्य भी किसी सरूप-सदृश अर्थात् नंगे में निर्र्ग्रन्थ संज्ञा हो जावेगी ?
उत्तर-ऐसा नहीं है।
प्रश्न-क्या कारण है ?
उत्तर-क्योंकि हर किसी नंगे में सम्यक्त्व का अभाव है। सम्यग्दर्शन के साथ जहाँ पर नग्न रूप है वहीं पर निर्र्ग्रन्थ यह नाम आता है किन्तु रूपमात्र-नंगे मात्र में नहीं।
प्रश्न-तो फिर यह पुलाक आदि नाम क्यों रखे हैं ?
उत्तर-चारित्रगुण की उत्तरोत्तर प्रकर्र्ष में वृत्ति—रहना विशेष बतलाने के लिए ही ये पुलाक आदि भेदों का उपदेश किया गया है।’’
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये पुलाक आदि मुनि सदोषी-शिथिलाचारी नहीं हैं किन्तु भावलिंगी होने से पूज्य ही हैं। चूँकि ये यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले हैं।
प्रश्न होता है कि-
‘‘साधु को किस प्रकार ये प्रवृत्ति करना चाहिए ? कैसे खड़े होना चाहिए ? कैसे बैठना चाहिए ? कैसे सोना चाहिए ? कैसे भोजन करना चाहिए और कैसे बोलना चाहिए ? कि जिससे पाप का बंध नहीं होवे।’’
उत्तर में-‘‘यत्न से—ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करना चाहिए। यत्न से खड़े होना चाहिए। यत्न से—सावधानीपूर्वक जीवों को बाधा न देते हुए उन्हें पिच्छिका से हटाकर पद्मासन आदि से बैठना चाहिए। यत्न से—सोते समय भी संस्तर का संशोधन करके अर्थात् चटाई, फलक आदि को उलट-पुलट कर देखकर रात्रि में गात्र संकुचित करके सोना चाहिए। यत्न से—छ्यालीस दोष वर्जित आहार ग्रहण करना चाहिए। यत्न से—भाषा समिति से बोलना चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से पापबंध नहीं होता है।’’
क्योंकि जो साधु यत्नाचार से प्रवृत्ति करता है, दयाभाव से सतत प्राणियों का अवलोकन करता है। उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पुराना कर्म भी नष्ट हो जाता है। ‘‘जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके चारित्र में प्रवृत्त होता है वह क्रम से बध—हिंसा से रहित हो जाता है।’’
विशेष-ये पुलाक आदि मुनि सभी दिगम्बर हैं। इनकी अपेक्षा भी मुनियों में भेद होता है।
‘‘जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसे दो भेद किये हैं।
जिनकल्प-जो उत्तम संहननधारी हैं। जो पैर में कांटा चुभ जाने पर अथवा नेत्र में धूलि आदि पड़ जाने पर स्वयं नहीं निकालते हैं। यदि कोई निकाल देता है तो मौन रहते हैं। जलवर्षा होने पर गमन रुक जाने से छह मास तक निराहार रहते हुए कायोत्सर्ग से स्थित हो जाते हैं। जो ग्यारह अंगधारी हैं, धर्म अथवा शुक्लध्यान में तत्पर हैं, अशेष कषायों को छोड़ चुके हैं, मौनव्रती और कंदरा में निवास करने वाले हैं। जो बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेहरहित, नि:स्पृही यतिपति ‘जिन’ के समान हमेशा विचरण करते हैं। वे ही श्रमण जिनकल्प में स्थित हैं।
स्थविरकल्प-जिनेन्द्रदेव ने अनगार साधुओं को स्थविरकल्प भी बताया है। पाँच प्रकार के चेल—वस्त्र का त्याग करना, अकिंचनवृत्ति धारण करना और प्रतिलेखन—पिच्छिका ग्रहण करना, पाँच महाव्रतों को धारण करना, स्थितिभोजन और एकभक्त करना, भक्ति सहित श्रावक के द्वारा दिया गया आहार करपात्र में ग्रहण करना, याचना करके भिक्षा नहीं लेना, बारह प्रकार के तपश्चरण में उद्युक्त रहना, छह प्रकार की आवश्यक क्रियाओं का हमेशा पालन करना, क्षितिशयन करना, शिर के केशों का लोंच करना, जिनवर की मुद्रा को धारण करना, संहनन की अपेक्षा से इस दुषमाकाल में पुर, नगर और ग्राम में निवास करना। ऐसी चर्या करने वाले साधु स्थविरकल्प में स्थित हैं। ये वही उपकरण ग्रहण करते हैं कि जिससे चर्या—चारित्र का भंग नहीं होवे, अपने योग्य पुस्तक आदि को ही ग्रहण करते है। ये स्थविरकल्पी साधु समुदाय—संघ सहित विहार करते हैंं, अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हुए भव्यों को धर्मोपदेश सुनाते हैं और शिष्यों का संग्रह तथा उनका पालन भी करते हैंं।
इस समय संहनन अतिहीन है, दु:षमकाल है और मन चंचल है फिर भी वे धीर-वीर पुरुष ही हैं जो कि महाव्रत के भार को धारण करने में उत्साही हैं।
पूर्व में-चतुर्थ काल में जिस शरीर से एक हजार वर्ष में जितने कर्मों की निर्जरा की जाती थी, इस समय हीन संहनन वाले शरीर से एक वर्ष में उतने ही कर्मों की निर्जरा हो जाती है।’’
इस प्रकार से जिनकल्प में स्थित साधु जिनकल्पी और स्थविरकल्प में स्थित स्थविरकल्पी कहलाते हैं। आज के युग में स्थविरकल्पी मुनि ही होते हैं, चूँकि उत्तम संहनन नहीं है।
अन्यत्र भी कहा है-
जिनकल्पसंयमी—
‘‘जो जितेन्द्रिय साधु सम्यक्त्व रत्न से विभूषित हैं, एकाक्षर के समान एकादशांग के ज्ञाता हैं, पाँव में लगे हुए कांटे को और लोचन में गिरी हुई रज को न स्वयं निकालते हैं न दूसरों को निकालने के लिए कहते हैं। निरंतर मौन रहते हैं,
वङ्कावृषभनाराचसंहनन के धारक हैं, गिरि की गुफाओं में, वनों में, पर्वतों पर तथा नदियों के किनारे रहते हैं, वर्षाकाल में मार्ग को जीवों से पूर्ण समझकर षट्मास पर्यंत आहार रहित होकर कायोत्सर्ग धारण करते हैं, परिग्रह रहित, रत्नत्रय से विभूषित, मोक्षसाधन में निष्ठ और धर्म तथा शुक्लध्यान में निरत रहते हैं, जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो जिन भगवान के समान विहार करने वाले होते हैं ऐसे जिनकल्प-जिनेन्द्रदेव के सदृश संयम धारण करने वालों को जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्पी कहा है।’’ यहाँ पर ‘कल्पप्रत्यय’ ईषत् असमाप्ति—किंचित् अपूर्णता के अर्थ में हुआ है।
स्थविरकल्पसंयमी—
जो जिनलिंग-नग्नमुद्रा के धारक हैं, सम्यक्त्व से जिनका हृदय क्षालित है, अट्ठाईस मूलगुणों के धारक हैं, ध्यान और अध्ययन में निरत हैं, पंचमहाव्रत और दर्शनाचार आदि पाँच आचारों के पालन करने वाले हैं, दशधर्म से विभूषित, ब्रह्मचर्य में निष्ठ, बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह से विरक्त हैं, तृण-मणि, शत्रु-मित्र आदि में समानभावी हैं, मोह, अभिमान और उन्मत्तता से रहित हैं, धर्मोपदेश के समय तो बोलते हैं और शेष समय मौन रहते हैं, शास्त्र समुद्र के पारंगत हैं, इनमें से कितने ही अवधिज्ञान के धारक होते हैं तथा कितने ही मन:पर्यय ज्ञानी भी होते हैं। अवधिज्ञान के पहले पाँच गुण वाली सुन्दर पिच्छी प्रतिलेखन के लिए धारण करते हैं। संघ के साथ-साथ विहार करते हैं, धर्मप्रभावना तथा उत्तम-उत्तम शिष्यों के रक्षण और वृद्ध साधुओं के रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं इसीलिए इन्हें महर्षि लोग स्थविरकल्पी कहते हैं।
‘‘इस भीषण कलिकाल में हीन संहनन के होने से साधु स्थानीय नगर, ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं। यद्यपि यह काल दुस्सह है, शरीर का संहनन हीन है, मन अत्यन्त चंचल है और मिथ्यात्व सारे संसार में विस्तीर्ण हो गया है। तो भी ये साधु संयम के पालन करने में तत्पर रहते हैं।’’
जो कर्म पूर्वकाल में हजार वर्ष में नष्ट किये जा सकते हैं, वे कलियुग में एक वर्ष में ही नष्ट किये जा सकते हैं।
इसी से मोक्षाभिलाषी साधु संयमियों के योग्य पवित्र तथा सावद्यरहित पुस्तक आदि ग्रहण करते हैं। इस प्रकार सर्वपरिग्रहादि रहित स्थविरकल्प कहा जाता है और जो यह वस्त्र, दण्ड, पात्र, कम्बल आदि धारण करना है वह स्थविरकल्प नहीं है किन्तु वह गृहस्थकल्प है अत: यह श्वेताम्बरों की वस्त्रादि कल्पना मोक्ष हेतु न होकर इन्द्रिय सुखानुभव हेतु ही है।
विशेष-वर्तमान में उत्तम संहनन का अभाव होने से जिनकल्पी साधु हो ही नहीं सकते हैं अत: सभी दिगम्बर साधु
स्थविरकल्पी ही होते हैं। इन दो भेदों की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाते हैं।