साधुओं के लिए अहोरात्र संबंधी अट्ठाईस कृतिकर्म या कायोत्सर्ग बतलाये गये हैं। साधु किस-किस कृतिकर्म का प्रयोग किस-किस काल में करते हैं, सो देखिए-
निज आत्मस्वरूप में चित्त का स्थिर हो जाना इसका नाम योग अथवा समाधि है। इस योग की सिद्धि के लिए पहले उसकी योग्यता उत्पन्न करने हेतु जो क्रियाएँ पाली जाती हैं, उन्हें परिकर्म कहते हैं। ये साधु इस परिकर्म के स्वाध्याय आदि भेदों का प्रतिदिन पालन करते ही रहते हैं क्योंकि परिकर्म के बिना योग की सिद्धि असंभव है और योग के बिना आत्मस्वरूप की प्राप्ति भी असंभव ही है।
परिकर्म का प्रथम भेद जो स्वाध्याय है उसका काल और उसकी विधि बताते हैं। स्वाध्याय के काल चार हैं-गौसर्गिक, अपराण्हिक, प्रादोषिक और वैरात्रिक अथवा इन्हें पौर्वाण्हिक, अपराण्हिक, पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक नामों से भी जाना जाता है। सूर्योदय से दो घड़ी (४८ मिनट) बाद से लेकर मध्यान्ह के दो घड़ी पहले तक पौर्वाण्हिक स्वाध्याय का काल है। मध्यान्ह के दो घड़ी बाद से लेकर सूर्यास्त के दो घड़ी पहले तक अपराण्हिक स्वाध्याय का काल है। सूर्यास्त के दो घड़ी बाद से अर्द्धरात्रि के दो घड़ी पहले तक पूर्वरात्रिक स्वाध्याय का काल है और अर्धरात्रि में दो घड़ी बाद से लेकर सूर्योदय के दो घड़ी पहले तक अपररात्रिक स्वाध्याय का काल है।
निद्रा समाप्त कर उठने के बाद सबसे प्रथम अपररात्रिक स्वाध्याय का विधान है।’’ साधु लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति करके स्वाध्याय की प्रतिष्ठापना करते हैं पुन: स्वाध्याय करके लघु श्रुतभक्ति के द्वारा निष्ठापन कर देते हैं।’’
‘‘सूत्रादि ग्रंथों का स्वाध्याय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक यथोचित काल में करने से वह मुक्ति के लिए कारण होता है अन्यथा इससे विपरीत होने से वह कर्मबंध के लिए कारण हो जाता है।’’
‘‘वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश, इन पाँच प्रकार के स्वाध्यायों को विधिवत् करना श्रुतज्ञान का ज्ञानाचार है। द्रव्य, क्षेत्रादि की शुद्धि करके विनय के साथ केवल मोक्ष के लिए शिष्यों को सूत्र और अर्थ का पढ़ाना वाचना स्वाध्याय है।’’
द्रव्यशुद्धि-अपने शरीर में ज्वर, नेत्ररोग, उदरशूल आदि कोई भी पीड़ा हो अथवा शरीर से पीव, रुधिर आदि बह रहा हो या मलमूत्रादि लिप्त हो, ऐसी अवस्था में द्रव्यशुद्धि असंभव है।
क्षेत्रशुद्धि-व्याख्यान स्थान से चारों दिशाओं में पंचेन्द्रिय का कलेवर, गीला चर्म, माँस, हड्डी, रुधिर आदि पदार्थ कम से कम बत्तीस धनुष दूर होना चाहिए। मनुष्य और तिर्यंचों का सूखा चमड़ा दो सौ हाथ दूर होना चाहिए और मल-मूत्र डेढ़ सौ हाथ दूर होना चाहिए।
यदि कोई पंचेन्द्रिय जीव पीड़ा से दु:खी हो या मर रहा हो अथवा त्रस-स्थावर जीवों का घात हो रहा हो। यदि अज्ञानी अथवा बालक, जल, दीपक, अग्नि का बुझना आदि अत्यन्त समीप हो या वन में लगी हुई अग्नि का धुआं उठ रहा हो अथवा उसकी दुर्गंध आ रही हो, इत्यादि में वाचना-स्वाध्याय बंद कर देना चाहिए।
कालशुद्धि-जिन दिनों नंदीश्वर की महापूजा चल रही हो, जिस समय अर्हंत, आचार्य, उपाध्याय आदि आराध्य जनों का आगमन हो, एक योजन के भीतर सन्यास धारण करने वाले का महान उपवास हो, उन दिनों को छोड़कर तथा समस्त पर्व के दिन और आवश्यक क्रियाओं के समय को छोड़कर बाकी के समय में विशुद्धिप्रद ऐसी कालशुद्धि होती है। यदि आचार्य का स्वर्गवास अपने ही गाँव में हो तो सात दिन तक, यदि चार कोश के भीतर हो तो तीन दिन तक और यदि किसी दूर क्षेत्र में हो तो एक दिन तक वाचना स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
‘‘पिछली रात्रि के स्वाध्याय की निष्ठापना करके भूमि में स्थित होकर पूर्वाण्ह वाचना स्वाध्याय हेतु पूर्वादि दिशाओं में नव-नव गाथाओं का उच्चारण करते हुए कायोत्सर्ग करने से प्रत्येक दिशाओं की शुद्धि होती है, यह कालशुद्धि की विधि है।’’
जिस समय बिजली चमक रही हो, इन्द्रधनुष दिख रहा हो, पृथ्वी कंपायमान हो रही हो, अग्नि लग रही हो, युद्ध, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, अकालवृष्टि या मेघ गर्जना हो रही हो, उस समय भी वाचना स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
पूर्वाण्ह स्वाध्याय के अनंतर अपराण्ह स्वाध्याय के लिए णमोकार मंत्र की ७-७ गाथा चारों दिशाओं में पढ़कर दिक्शुद्धि करनी चाहिए। इसी प्रकार अपराण्ह स्वाध्याय के अनंतर पूर्वरात्रिक स्वाध्याय हेतु चारों दिशाओं में क्रम से पाँच-पाँच गाथा पढ़कर दिक्शुद्धि की जानी चाहिए। पश्चिमरात्रिक स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि के कारणों का अभाव होने से सूत्रादि ग्रंथों की वाचना नहीं की जाती है। ‘‘आकाशगामी, चारणऋद्धिधारी, अवधिज्ञानी आदि मुनियों के क्षेत्र शुद्धि होने से वे पश्चिमरात्रि में भी वाचना स्वाध्याय करते हैं। यह दिक्शुद्धि का विधान अन्यत्र भी है-
भावशुद्धि-यश, पूजा, पुरस्कार वा पारितोषिक की इच्छा न रखते हुए अहंकाररहित और श्रुतज्ञानरूपी अमृत के आनंद में मग्न बुद्धि का होना भाव शुद्धि है।
इस तरह चारों प्रकार की शुद्धियों को करके तथा अपने हाथ-पैरों को शुद्धकर शुद्ध देश में स्थित होकर भक्तिपूर्वक विधि के अनुसार क्रिया करके साधु पर्यंकासन से बैठ जाते हैं और आचार्य के पादकमलों को नमस्कार करके अपने कुक्षि आदि अंगों को स्पर्श न करते हुए अंजुलि जोड़कर सूत्रों का अध्ययन करते हैं। काल के अनुसार ही वाचना स्वाध्याय करके विसर्जन कर देते हैं। वाचना नाम के स्वाध्याय में ही यह विधि है किन्तु पुराण, आराधना, पंचसंग्रह आदि शास्त्रों के स्वाध्याय में इस विधि की आवश्यकता नहीं है। गणधरदेव, अभिन्नदशपूर्वी, प्रत्येक बुद्ध और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित ग्रंथ सूत्र कहलाते हैं। ऐसे सूत्र के अध्ययन में ही द्रव्यादि शुद्धि की आवश्यकता मानी है।
‘‘इस विधि का उल्लंघन करके जो सूत्रों का स्वाध्याय करते हैं वे अनेक प्रकार के रोग, असमाधि, स्वाध्याय भंग आदि अनेक दु:खों को प्राप्त करते हैं।’’
संशय को दूर करने के लिए प्रहास, उद्धत्ता को छोड़कर तथा बड़प्पन न दिखलाते हुए बड़ी नम्रता के साथ जो पूछना है, वह पृच्छना स्वाध्याय है।
जाने हुए तत्त्वों का बार-बार चिंतवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है।
शब्दों के उच्चारण के दोषों से रहित बार-बार पढ़ना, पाठ करना वा घोकना (रटना) आम्नाय नाम का स्वाध्याय है।
द्वादशांग श्रुतज्ञान का अथवा उसके एकदेश का उपदेश देना धर्मोेपदेश नाम का स्वाध्याय है।
स्वाध्याय से मुनियों की बुद्धि तीक्ष्ण होती है, अन्तरंग प्रसन्न होता है और असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होती है। महान् सिद्धांत ग्रंथ धवला में भी कहा है-
‘‘व्याख्यान करने वालों और सुनने वालों को भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि से व्याख्यान करने या सुनने में प्रवृत्ति करनी चाहिए। उनमें ज्वर, कुक्षि रोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, विष्ठामूत्रलेप, अतिसार और पीव का बहना इत्यादिकों का शरीर में न रहना द्रव्यशुद्धि है। व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश से चारों ही दिशाओं में निश्चित दूरी तक क्षेत्र में विष्ठा-मूत्र, हड्डी, केश, नख और चमड़े आदि के अभाव को क्षेत्रशुद्धि कहते हैं। बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य-चन्द्र का ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आच्छादित दिशा में, दिशादाह, धूमिकापात (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नंदीश्वरमहिमा और निजमहिमा इत्यादि के अभाव को कालशुद्धि कहते हैं।’’
यहाँ कालशुद्धि करने के विधान को कहते हैं। वह इस प्रकार है-‘‘पश्चिम रात्रि के स्वाध्याय को समाप्त करके बाहर निकलकर प्रासुक भूमि प्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारणकाल से पूर्व दिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणा रूप से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओं को शुद्ध कर लेने पर ३६ गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा १०८ उच्छ्वास काल से कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराण्हकाल में भी इसी प्रकार से काल शुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है इस समय की कालशुद्धि प्रत्येक दिशा में ७-७ गाथाओं द्वारा ८४ उच्छ्वासों में समाप्त होती है। पश्चात् सूर्यास्त होने से पहले क्षेत्रशुद्धि करके सूर्यास्त हो जाने पर कालशुद्धि पूर्ववत् करना चाहिए। इसमें प्रत्येक दिशा में ५-५ गाथा के उच्चारण से २० गाथाओं द्वारा ६० उच्छ्वास में यह कालशुद्धि होती है। अपररात्रि—रात्रि के पिछले भाग में वाचना नहीं है क्योंकि उस समय क्षेत्रशुद्धि करने का कोई उपाय नहीं है।’’ अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, समस्त अङ्गश्रुत के धारक, आकाश स्थित चारण तथा मेरु कुलाचलों में स्थित चारण ऋषियों के अपररात्रिक वाचना भी है क्योंकि वे क्षेत्रशुद्धि से रहित हैं अर्थात् भूमि पर न रहने से उन्हें क्षेत्र शुद्धि की आवश्यकता नहीं होती।
राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यान से रहित, पाँच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आचार से वृद्धि को प्राप्त साधु के भावशुद्धि होती है।
यम पटह का शब्द सुनने पर, अङ्ग से रक्तस्राव बहने पर, अतिचार के होने पर तथा दाताओं के अशुद्ध काय होते हुए भोजन कर लेने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
तिल मोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगंधित भोजनों के खाने पर तथा दावानल का धुआँ होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।
एक योजन के अंदर संन्यास विधि के होने पर महोपवास विधि आवश्यक क्रिया एवं केशों का लोंच होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।
आचार्य का स्वर्गवास होने पर सात दिन तक, योजन मात्र में तीन दिन तक और अतिदूर में होने पर एक दिन तक अध्ययन का निषेध है।
प्राणी के तीव्र दु:ख से मरणासन्न होने पर या अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा एक निवर्तन (एक बीघा या गुंठा) मात्र में तिर्यंचों का संचार होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।
उतने मात्र में स्थावरकाय जीवों के घातरूप कार्य में प्रवृत्त होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यंत सड़ी गंध के आने पर ठीक अर्थ समझ में न आने पर अथवा अपने शरीर के शुद्धि से रहित होने पर मोक्षसुख के चाहने वाले व्रती पुरुष को सिद्धान्त का अध्ययन नहीं करना चाहिए।
मल छोड़ने की भूमि से सौ अरत्नि प्रमाण दूर तनुसलिल अर्थात् मूत्र के छोड़ने में भी इस भूमि से पचास अरत्नि दूर, मनुष्य शरीर के लेशमात्र अवयव के स्थान से पचास धनुष तथा तिर्यंचों के शरीर संबंधी अवयव के स्थान से उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमि को शुद्ध करना चाहिए।
व्यंतरों के द्वारा भेरीताड़न करने पर, उनकी पूजा का संकट होने पर, कर्षण के होने पर, चाण्डाल बालकों के समीप में झाडू-बुहारी करने पर अग्नि, जल व रुधिर की तीव्रता होने पर तथा जीवों के मांस व हड्डियों के निकाले जाने पर क्षेत्र की विशुद्धि नहीं होती। जैसा कि सर्वज्ञों ने कहा है।
क्षेत्र की शुाfद्ध करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरों को शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मनयुक्त होता हुआ प्रासुक देश में स्थित होकर वाचना को ग्रहण करे।
वह साधु बाजू और कांख आदि अपने अंग का स्पर्श न करता हुआ उचित रीति से अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययन करके पश्चात् शास्त्रविधि से वाचना को छोड़ दे।
‘‘साधु पुरुषों ने बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय को श्रेष्ठ कहा है इसीलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना चाहिए।
पर्वदिनों (अष्टमी व चतुर्दशी आदि) नंदीश्वर के श्रेष्ठ महिमदिवसों अर्थात् आष्टान्हिक पर्व के दिनों में और सूर्य, चन्द्र का ग्रहण होने पर विद्वान व्रती को अध्ययन नहीं करना चाहिए।
अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों के वियोग को करता है। पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशी के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है।
यदि साधुजन कृष्णा चतुर्दशी और अमावस्या के दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवासविधि सब विनाशवृत्ति को प्राप्त होते हैं।
मध्यान्हकाल में किया गया अध्ययन जिनरूप को नष्ट करता है। दोनों संध्याकालों में किया गया अध्ययन व्याधि को करता है तथा मध्यम रात्रि को किये गये अध्ययन से अनुरक्तजन भी द्वेष को प्राप्त होते हैं।
अतिशय तीव्र दु:ख से युक्त और रोते हुए प्राणियों को देखने या समीप में होने पर, मेघों की गर्जना व बिजली के चमकने पर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।
सूत्र और अर्थ की दिशा के लोभ से किया गया द्रव्यादि शुद्धि का अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादि की विराधना, अस्वाध्याय अर्थात् शास्त्रादिकों का अलाभ, कलह, व्याधि और वियोग को करता है।
‘‘विनय से पढ़ा गया श्रुत यदि किसी भी प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो परभव में वह उपस्थित हो जाता है और केवलज्ञान को भी प्राप्त कराता है।’’
भगवान कुंदकुंददेव भी कालशुद्धि में पढ़ने योग्य ग्रंथ और अकाल में भी पढ़ने योग्य ग्रंथों का विभाजन कर रहे हैं-
‘‘गणधरदेव द्वारा कथित प्रत्येक बुद्ध, अभिन्नदशपूर्वी और श्रुतकेवली ऐसे महर्षियों द्वारा प्रणीत ग्रंथ सूत्र कहे जाते हैं। विरत—मुनिवर्ग और स्त्रीवर्ग—आर्यिकाओं को इन सूत्रग्रंथों का पठन अस्वाध्याय काल में नहीं करना चाहिए। इनसे अतिरिक्त जो ग्रंथ हैं, उनको अस्वाध्यायकाल—कालशुद्धि बिना अकाल में भी पढ़ सकते हैं। वे ग्रंथ कौन से हैं ? आराधना शास्त्र, मरण को कहने वाले शास्त्र, भगवती आराधना आदि, पंचसंग्रह आदि शास्त्र, स्तुति आदि के प्रतिपादक शास्त्र, प्रथमानुयोग शास्त्र, द्वादशानुप्रेक्षा आदि के वर्णन करने वाले शास्त्र इनको अकाल में भी पढ़ सकते हैं।’’
स्वाध्याय के समय विनयशुद्धि कैसी होनी चाहिए ?
‘‘पर्यंकासन से बैठकर पिच्छिका के द्वारा ग्रंथ, भूमि आदि का प्रतिलेखन करके पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर प्रणाम करके सूत्र और अर्थ में उपयोग स्थिर करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना चाहिए।’’
वर्तमानकाल में जो भी ग्रंथ हैं, उनमें उपर्युक्त सूत्र का लक्षण घटित न होने से वे सूत्र नहीं हैं, ऐसा नहीं समझना। धवला और जयधवला सिद्धांतग्रंथों में इन षट्खण्डागम सूत्रों को और कसायपाहुड़ सूत्रों को स्वयं श्रीवीरसेनाचार्य ने सूत्ररूप प्रामाणिक सिद्ध किया है। यथा-‘‘जो गणरधरदेव या प्रत्येकबुद्ध आदि के द्वारा कहा गया है’’ वह सूत्र है इस वचन के अनुसार ये एक सौ अस्सी गाथाएँ (कसायपाहुड़) सूत्र नहीं हो सकती हैं क्योंकि गुणधर भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी ही हैं। इस पर समाधान करते हुए आचार्य श्री वीरसेन कहते हैं कि-नहीं, क्योंकि निर्दोषत्व, अल्पाक्षरत्व और सहेतुकत्वरूप प्रमाणों द्वारा गुणधर भट्टारक की गाथाओं की सूत्र के साथ समानता है अर्थात् गुणधर भट्टारक आचार्य की गाथाओं में भी सूत्रत्व पाया जाता है।’’
अन्यत्र भी षट्खण्डागम और कषायप्राभृत की सूत्र संज्ञा है। यथा-
शंका-तो फिर इस युग के आचार्यों द्वारा कहे गये सत्कर्मप्राभृत (षट्खण्डागम) और कषायप्राभृत को सूत्रत्व वैâसे प्राप्त हो सकेगा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने जिनकी ग्रंथ रचना की है। ऐसे बारह अंग आचार्य परम्परा से निरन्तर चले आ रहे हैं परन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर और उन अंगों को धारण करने वाले योग्य पात्र के अभाव में उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं इसलिए जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषों का अभाव देखा और जो अत्यन्त पापभीरु थे और जिन्होंने गुरु परम्परा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था, उन आचार्यों ने तीर्थविच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंग संबंधी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रत्व नहीं आ सकता है अर्थात् वे षट्खण्डागम और कसायपाहुड ग्रंथ सूत्र ही हैं।’’
इन सूत्रग्रंथों के स्वाध्याय का अधिकार मुनि और आर्यिकाओं को ही है। जैसा कि ऊपर मूलाचार का प्रमाण उद्धृत किया गया है तथा सुलोचना आर्यिका का उदाहरण भी है-‘‘वह सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंग के ज्ञान को धारण करने वाली हो गई थी।’’
क्षुल्लक, ऐलक, श्रावक आदि को सिद्धांत ग्रंथ पढ़ने का अधिकार नहीं है। यथा-
‘‘दिन में प्रतिमायोग धारण करना—दिन में नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या—मुनि के समान गोचरी करना, त्रिकालयोग—गमा में पर्वत के शिखर पर, बरसात में वृक्ष के नीचे और सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन और रहस्य—प्रायश्चित्त ग्रंथों का अध्ययन, इतने कार्यों में देशविरत (क्षुल्लक-ऐलक पर्यंत) श्रावकों को अधिकार नहीं है।’’
‘‘कुछ क्षण अर्थात् अधिक से अधिक चार घड़ी प्रमाण जो मध्यरात्रि का काल स्वाध्याय के लिए अयोग्य है उतने कालमात्र (डेढ़ घंटे मात्र) योगनिद्रा से श्रम दूर करके—शरीर को विश्रांति देकर साधु जागृत हो जाते हैं और अपररात्रिक स्वाध्याय प्रारंभ कर देते हैं। विधिवत् स्वाध्याय करके सूर्योदय होने के दो घड़ी पहले विसर्जित कर देते हैं।’’ पुन: बाहर निकलकर प्रासुक प्रदेश में खड़े होकर दिग्दाह, उल्कापात, मेघ गर्जनादि, अकाल से रहित देखकर पूर्वाण्ह स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि करते हैं अर्थात् पूर्व दिशा में मुख करके कायोत्सर्ग मुद्रा से २७ उच्छ्वासों में ९ बार जाप्य करते हैं पुन: इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा की शुद्धि करते हैं।
अनंतर वे साधु पश्चिम रात्रि में रात्रिक प्रतिक्रमण करते हैं। उस समय आचार्य के पास सभी साधु विनय से बैठकर ‘‘जीवे प्रमादजनिता:’’ इत्यादि पाठ बोलते हुए करते हैं। इसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशति भक्ति ऐसे चार भक्तियाँ होती हैं। वीरभक्ति के प्रारंभ में ५४ उच्छ्वास में १८ बार णमोकार मंत्र का जाप किया जाता है।
रात्रियोग निष्ठापना-पुन: रात्रियोग निष्ठापना करते हैं अर्थात् सायंकाल प्रतिक्रमण के बाद जो रात्रियोग ग्रहण किया था (मैं आज रात्रि में इसी वसतिका में निवास करूँगा) इस रात्रियोग का योगभक्ति द्वारा विसर्जन कर देते हैं।’’ उसकी विधि यह है कि विधिवत् कायोत्सर्ग करके योगभक्ति पढ़ते हैं। पुन: सभी साधु लघु आचार्य भक्ति के द्वारा आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य वंदना करते हैं। यदि आचार्य प्रत्यक्ष में नहीं हैं तो परोक्ष में ही वंदना करते हैं।
इतने में रात्रि की शेष रही दो घड़ी (४८ मिनट) का काल व्यतीत हो जाता है। पुन: सूर्योदय के समय साधु देववंदना अर्थात् सामायिक क्रिया को विधिवत् करते हैं।
त्रिकाल देववंदना-सामायिक करने में चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति इन दो भक्तियों का विधिवत् प्रयोग किया जाता है। पुन: सर्वदोष विशुद्धि के लिए प्रिय भक्ति-समाधिभक्ति पढ़ी जाती है।
इस देववंदना में कृतिकर्म के छ: भेद होते हैं-
स्वाधीनता, त्रि:परीति, त्रयीनिषद्या, त्रिबार कायोत्सर्ग, द्वादश आवर्त और चार शिरोनति इस प्रकार कृतिकर्मरूप वंदना के छह कृति अथवा अंग हैं।’’
सिद्धांतग्रंथ में भी कहा है-
आदाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तिऊणदं चदुस्सिरं वारसावत्तं चेदि।’’
१. वंदना करने वाले की स्वाधीनता २. तीन प्रदक्षिणा ३. तीन भक्ति संबंधी तीन कायोत्सर्ग ४. तीन निषद्या—ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनंतर बैठकर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी विज्ञापन करना, चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पंचमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना, पंचमहागुरुभक्ति के अंत में बैठकर आलोचना करना, ५. चार शिरोनति और ६. बारह आवर्त। यही सब आगे किया जाता है।
‘‘जिणसिद्धाइरियबहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम। तस्स आदाहीण-तिक्खुत्त-पदाहिण-तिओणद-चदुसिर-वारसावत्तादिलक्खणं विहाणं फलं च किदियम्मं वण्णेदि।’’
जिन, सिद्ध, आचार्य और बहुश्रुत की वंदना करने में जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं। उस कृतिकर्म के आत्माधीनता, तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण, भेद तथा फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है। पराधीन जीव हमेशा ही दीन बना रहता है अत: चैत्यवंदना आदि कार्यों में स्वाधीनता अवश्य चाहिए। ‘‘श्रुतज्ञानरूपी’’ चक्षु से अपनी आत्मा में चिच्चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा को देखते हुए जिनालय में जाकर द्रव्यादि की शुद्धि से शुद्ध हुए साधु ‘‘नि:सही नि:सही नि:सही’’ इस प्रकार उच्चारण करते हुए मंदिर के भीतर प्रवेश करके जिनप्रतिमा के मुखचन्द्र का अवलोकन कर अत्यन्त प्रसन्न होते हुए भगवान को तीन बार नमस्कार करते हैं पुन: चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देते हैं। इसके बाद ‘‘अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य’’ अथवा ‘‘दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि’’ स्तोत्र को पढ़कर वंदना मुद्रा के द्वारा ‘‘पडिक्कमामि भंत्ते! इरियावहियाए’’ इत्यादि ईर्यापथशुद्धि पाठ बोलते हैं पुन: कायोत्सर्ग करके पंचांग नमस्कार करके ‘‘ईर्यापथे प्रचलिताद्य मया प्रमादा’’—इत्यादि आलोचना करके यदि धर्माचार्य हैं तो उनके निकट अन्यथा भगवान के समक्ष पंचांग नमस्कार करके कर्तव्य कर्म को स्वीकार करते हैं अर्थात् ‘नमोस्तु भगवन्! देववंदनां करिष्यामि’—जय हे भगवन्! नमस्कार हो, अब मैं देववंदना करूँगा। इस प्रकार कर्तव्य की प्रतिज्ञा करके पर्यंकासन से बैठकर ‘‘सिद्धं सम्पूर्णभव्यार्थं’’ इत्यादि से प्रारंभ कर ‘‘खम्मामि सव्वजीवाणं’’ इत्यादि सूत्रपाठों द्वारा साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं पुन: वंदना क्रिया का विज्ञापन करते हैं अर्थात् ‘‘पौर्वाण्हिकदेववंदनायां पूर्वा……..चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसा बोलकर विज्ञापना करके खड़े होकर भूमिस्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करते हैं। पश्चात् चार अंगुल प्रमाण पैरों में अन्तर रखकर खड़े होकर मुक्ताशुक्तिमुद्रा बनाकर तीन आवर्त और शिरोनति करके ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दंडक का पाठ करके तीन आवर्त और एक शिरोनति करके जिनमुद्रा से कायोत्सर्ग (९ बार णमोकार मंत्र का जाप २७ उच्छ्वास में) करते हैं। पुन: पंचांग नमस्कार करके खड़े होकर पूर्ववत् मुक्ताशुक्ति मुद्रा से तीन आवर्त एक शिरोनति करके ‘‘थोस्सामि हं जिणवरे’’ इत्यादि चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर तीन आवर्त एक शिरोनति करते हैं। पश्चात् वंदना मुद्रा बनाकर ‘‘जयति भगवान् हेमांभोज’’ इत्यादि चैत्यभक्ति बोलते हुए जिनेन्द्र भगवान की तीन प्रदक्षिणा दे देते हैं। पुन: बैठकर ‘‘इच्छामि भंत्ते! चेइयभत्ति……….आदि चैत्यभक्ति की आलोचना करते हैं। अनन्तर ‘‘पौर्वाण्हिक देववंदनायां पंचमहागुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसी विज्ञापना करके उठकर पंचांग नमस्कार करके पूर्ववत् सामायिक दंडक, कायोत्सर्ग, थोस्सामि स्तव पढ़कर वन्दना मुद्रा से ‘‘प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:। ‘‘शास्त्राभ्यासो’’ इत्यादि लघुसमाधिभक्ति पढ़कर बैठकर ‘‘इच्छामि भंत्ते! समाहिभत्ति’’ इत्यादि आलोचना करते हैं। अनन्तर यथावकाश आत्मध्यान करते हैं।
पुन: सभी साधु मिलकर लघु सिद्धभक्ति और आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य की वंदना करते हैं। कहा भी है-‘‘प्रात:काल देववंदनारूप प्राभातिक अनुष्ठान के अनन्तर साधुजन विधिवत् आचार्य आदि की वंदना करते हैं। मध्यान्हकाल में देववंदना के बाद करते हैं और सायंकाल में प्रतिक्रमण के बाद करते हैं। यह त्रिकाल गुरुवंदना है।
गुरुवंदना की विधि यह है-‘‘मुनि गवासन से बैठकर लघु सिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिपूर्वक आचार्य की वंदना करते हैं। यदि आचार्य सिद्धान्त पारंगत हैं तो लघु सिद्ध, श्रुत, आचार्य इन तीन भक्ति को बोलकर वंदना करते हैं। अपने से दीक्षा में बड़े सामान्य साधु की लघु सिद्धभक्ति बोलकर और सिद्धान्तविद् साधु की लघु सिद्ध, लघु श्रुतभक्तिपूर्वक वंदना करते हैं।’’
प्रयोग विधि—
‘‘अथ आचार्यवन्दनायां पूर्वा……सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’। ऐसी प्रतिज्ञा करके विधिवत् कायोत्सर्ग करके ‘‘तवसिद्धे णयसिद्धे’’ इत्यादि लघु सिद्धभक्ति पढ़ते हैं पुन: ‘‘अथ आचार्यवंदनायां पूर्वा…….आचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसी प्रतिज्ञा करके कायोत्सर्ग करके ‘‘श्रुतजलधिपारगेभ्य:’’ इत्यादि लघु आचार्य भक्ति पढ़ते हैं।
देववंदना में कम से कम दो घड़ी काल का विधान है इसलिए सूर्योदय से दो घड़ी काल समाप्त हो जाता है।
पूर्वाण्ह स्वाध्याय—
सूर्योदय से दो घड़ी बाद पौर्वाण्हिक स्वाध्याय हेतु विधिवत् श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति करके स्वाध्याय प्रारंभ करते हैं और मध्यान्ह के दो घड़ी पहले-पहले लघु श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय विसर्जित कर देते हैं।
पुन: अपराण्हिक स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि करते हैं अर्थात् चारों दिशाओं में ७-७ बार णमोकार मंत्र उच्छ्वासपूर्वक जपते हैं।
मध्यान्ह देववंदना—पुन: प्रात:कालीन देववंदना के समान विधिवत् माध्यान्हिक देववंदना करके लघु सिद्धभक्ति लघु
आचार्यभक्तिपूर्वक गुरु—आचार्य की वंदना करते हैं।
अनंतर यदि उस दिन उपवास है तो मुनि उस दो घड़ी के अस्वाध्याय काल में जाप्य व ध्यानादि करते हैं और यदि उपवास नहीं है तो वे गुरु वंदना के अनंतर ही आचार्यश्री के पीछे आहार के लिए निकलते हैं।
उस समय साधु बायें हाथ में पिच्छी और कमण्डलु को लेकर दाहिने हाथ की मुद्रा को कंधे पर रखकर आहारमुद्रा में निकलते हैं। तब श्रावक उन्हें विधिवत् पड़गाहन कर घर में ले जाकर नवधाभक्तिपूर्वक आहार देते हैं।
पड़गाहन करना, उच्चस्थान देना, पादप्रक्षालन करना, अष्टद्रव्य से पूजन करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि तथा भोजनशुद्धि करना ये नवधाभक्ति कहलाती हैं। दान देने वाले दातार श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विवेक, निर्लोभता, क्षमा और सत्त्व इन सात गुणों से सहित होते हैं।
नवधाभक्ति पूर्ण हो जाने पर जब श्रावक मुनि से आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करते हैं तब वे मुनि अपने खड़े होने की जगह और दातार के खड़े होने की जगह को ठीक से देख लेते हैं कि कोई विकलत्रय आदि जीव जंतु तो नहीं है। पुन: शुद्ध गरम प्रासुक जल से श्रावक द्वारा हाथ धुलाये जाने पर वे ‘‘पूर्व दिन के ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान या उपवास की सिद्धभक्तिपूर्वक निष्ठापना करके आहार शुरू करते हैं।’’ अन्यत्र भी कहा है-‘‘जिस घर के योग्य दाता ने प्रतिग्रह और प्रणाम करके ठहराया है उसके घर में………दाता के द्वारा दिये गये अपने योग्य उचित आसन पर बैठ जाते हैं। दातार के द्वारा पादप्रक्षालन आदि क्रियाओं के होने के बाद, उनके द्वारा प्रार्थना की जाने पर साधु सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान का निष्ठापन करते हैं और समचतुरंगुल पाद से (पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर) खड़े होकर नाभि से ऊपर हाथ रखते हुए करपात्र में दातार द्वारा प्रदत्त आहार ग्रहण करते हैं। आहार करते समय उनके दोनों हाथ के पुट (अंजुलि) बंधे-मिले रहते हैं-अलग नहीं होते हैं। वे विकार-मुख बिगाड़ना, अरुचि या ग्लानि आदि न करते हुए, अति शीघ्रता न करते हुए और हुँकार आदि शब्द न करते हुए आहार लेते हैं। खड़े होकर आहार ग्रहण करने में हेतु यही है कि ‘‘जब तक मुझमें खड़े होने की शक्ति है और जब तक मेरे दोनों हाथ मिल सकते हैं तभी तक मैं भोजन करूँगा अन्यथा आहार का त्याग कर दूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा होती है।’’
पुन: भोजन के अनन्तर शीघ्र ही लघु सिद्धभक्तिपूव&क प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण कर लेते हैं। यथा-‘‘भोजन के अनन्तर तत्क्षण ही साधु लघु सिद्धभक्तिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवे। यह विधि वहीं चौके में आचार्य के असान्निध्य में ही होती है। अनन्तर आचार्य के पास आकर लघु योगिभक्ति और लघु सिद्धभक्ति बोलकर पुन: गुरु के पास प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण करके लघु आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य की वंदना करते हैं।’’
शंका-शीघ्र ही वहीं पर साधु प्रत्याख्यान क्यों ग्रहण कर लेते हैं ?
समाधान-यदि कदाचित् गुरु के पास आते हुए मार्ग में मरण भी हो जाए तो वह प्रत्याख्यानपूर्वक होगा, यह हेतु है।
प्रत्याख्यान करने के बाद साधु आहार संबंधी दोषों का विशोधन करते हैं उसे गोचर प्रतिक्रमण कहते हैं।
‘‘आहार के लिए साधु यदि निकल चुके हैं और कारणवश किसी ने पड़गाहन नहीं किया या और कुछ कारण से वे वापस अपनी वसतिका में आते हैं तो पुन: उस दिन वे आहार के लिए नहीं जाते हैं—उपवास ही करते हैं।’’
तात्पर्य यह है कि साधु देववंदना (सामायिक) और गुरुवंदना करके आहारार्थ जाकर नवधाभक्ति के बाद प्रत्याख्यान की निष्ठापना करते हैं। उसकी विधि-
‘‘अथ प्रत्याख्याननिष्ठापनक्रियायां ………सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं’’ पुन: नौ बार णमोकार मंत्र जपकर लघु सिद्धभक्ति पढ़कर आहार शुरू करते हैं। आहार पूर्ण हो जाने पर मुखशुद्धि करके शीघ्र ही-
‘‘अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां…….सिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं’’ ऐसा बोलकर ९ बार जाप्य करके लघु सिद्धभक्ति पढ़ते हैं, पुन: श्रावक उन्हें पिच्छी समपि&त कर देते हैं। वे वहाँ से आकर आचार्यदेव के सान्निध्य में गवासन से बैठकर पुन: विधिवत् प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं-
‘‘अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां……सिद्धभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहं’’ (९ बार जाप्य) लघुसिद्ध भक्ति करके ‘‘अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां……योगभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं’’ (९बार जाप्य) लघु योगभक्ति पढ़कर ‘‘अथ आचार्यवंदनायां आचार्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं’’ (९ बार जाप्य) लघु आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करके आहार के लिए जाकर वापस आने तक या आहार में जो कोई बात हुई हो, उसको गुरु के सामने निवेदन कर देते हैं।
अनन्तर अपराण्हिक स्वाध्याय हेतु विधिवत् श्रुतभक्ति, आचार्य आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय प्रारंभ कर देते हैं। पढ़ना, पढ़ाना, प्रश्न करना—चर्चा करना, पढ़े हुए का चिंतन करना, घोकना—पाठ याद करना या धर्मोपदेश देना आदि सभी स्वाध्याय के अंतर्गत हैं। पुन: सूर्यास्त से दो घड़ी पहले ही लघु श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय विसजित करके पूर्वकरात्रिक स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि करने के लिए चारों दिशाओं में ५-५ बार णमोकार मंत्र उच्छ्वास सहित जपते हैं।
दैवसिक प्रतिक्रमण—अनंतर सब साधु गुरु के पास बैठकर-‘‘जीवे प्रमादजनिता:’’ इत्यादि रूप दैवसिक प्रतिक्रमण करते हैं। पुनरपि योगभक्तिपूर्वक ‘रात्रियोग’ ग्रहण करके गवासन से बैठकर लघुसिद्ध भक्ति, लघु आचार्य भक्ति बोलकर आचार्य की वंदना करते हैं।
रात्रियोग प्रतिष्ठापना की प्रयोग विधि-‘‘अथ रात्रियोगप्रतिष्ठापनायां……. योगिभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं’’ विधिवत् सामायिकदंडक, ९ जाप्य और थोस्सामि स्तवन करके ‘‘जातिजरोरुरोग…..’’ इत्यादि अथवा ‘‘प्रावृट्काले’’ इत्यादि योगभक्ति का पाठ करते हैं।
अपराण्हिक वंदना-ये क्रियाएँ सूर्यास्त तक दो घड़ी में समाप्त हो जाती हैं। तब साधु सूर्यास्त के समय विधिवत् ‘‘अपराण्हिक देववंदना’’ करते हैं।
पूव&रात्रिक स्वाध्याय-अनंतर दो घड़ी बाद स्वाध्याय काल में विधिवत् ‘‘पूर्वरात्रिक’’ स्वाध्याय प्रारंभ कर देते हैं जो कि (अधिक से अधिक) मध्यरात्रि के दो घड़ी पहले तक करते हैं। पुन: स्वाध्याय विसज&न करके मध्यरात्रि के पहले की दो घड़ी और पश्चात् की दो घड़ी ऐसे चार घड़ी (डेढ़ घंटे) तक अस्वाध्याय काल में शरीर के श्रम को दूर करने के लिए निद्रा लेते हैं। इस प्रकार से साधुओं की यह अहोरात्रिक चर्या आगम के आधार से कही गई है।
स्वाध्याय करने का आसन—
पयं&कासन, पद्मासन अथवा वीरासन से बैठकर पिच्छिका सहित अंजुलि जोड़कर अपने वक्षस्थल के समीप रखकर नमस्कार करके विनयपूर्वक एकाग्रमना होकर साधु स्वाध्याय करते हैं और यदि खड़े होकर (पूर्वोक्त विधि से) वंदना करने में शक्तिहीन होते हैं तो वे इसी तरह बैठकर अंजुली जोड़कर वंदना करते हैं अर्थात पूर्व में जो देववंदना में खड़े होकर ही चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति पढ़ते हुए वंदना करने का विधान बताया है तो यदि खड़े होकर वंदना करने की शक्ति नहीं है तो साधु पयं&कासन आदि आसन से बैठकर ही वंदना करते हैं।
चतुदर्शी क्रिया-चतुदर्शी के दिन त्रिकाल देववंदना में चैत्यभक्ति करके श्रुतभक्ति की जाती है, पुन: पंचगुरु भक्ति होती है अथवा चैत्यभक्ति के पहले सिद्धभक्ति पुन: चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति ऐसे वंदना में पाँच भक्तियाँ भी की जाती हैं। यदि कदाचित् किसी धर्म व्यासंग—किसी की सल्लेखना आदि के प्रसंग में वैयावृत्ति आदि की बहुलता से, धर्मप्रभावना आदि विशेष कायों के निमित्त से चतुदर्शी की क्रिया न हो सके तो अमावस्या या पूर्णिमा को पाक्षिक क्रिया की जाती है। सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति को ‘पाक्षिकी क्रिया’ कहते हैं।
अष्टमी क्रिया-सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति इन चार भक्तियों द्वारा अष्टमी क्रिया होती है। इसमें चारित्र भक्ति को सालोचना करना होता है तब ‘पाक्षिक-प्रतिक्रमण’ में ‘‘इच्छामि भंत्ते! अट्ठमियम्मि आलोचेउं’’ इत्यादि पाठ प्रारंभ करके ‘‘जिनगुणसम्पत्ति होउ मज्झं’’ तक बोला जाता है अथवा त्रिलोक देववंदना में यह क्रिया करने पर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति ये दो भक्तियाँ करनी होती हैं अथवा चतुर्दशी और अष्टमी दोनों दिन की क्रियाएँ सामायिक में करने की भी परम्परा देखी जाती है।
सिद्धवंदना क्रिया-सिद्ध प्रतिमा की वंदना करते समय साधु एक सिद्धभक्ति ही करते हैं।
जिनवंदना क्रिया-जिनप्रतिमा की वंदना में सिद्ध, चारित्र और शांतिभक्ति करते हैं।
अपूर्व चैत्यवंदनादि क्रिया-अष्टमी आदि क्रियाओं के समय में ही अपूर्व चैत्यवंदना और त्रैकालिक नित्यवंदना का संयोग आकर उपस्थित हो जाता है तो साधु सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करते हैं।
पाक्षिक प्रतिक्रमण क्रिया-पाक्षिक प्रतिक्रमण प्रत्येक मास की चतुर्दशी, पूर्णिमा या अमावस्या को करते हैं। इसमें पहले विधिवत्-लघु सिद्ध, श्रुत, आचार्यभक्तिपूर्वक आचार्य की वंदना करके सभी साधुगण आचार्य के साथ सिद्धभक्ति और चारित्रभक्ति पढ़कर ‘‘इच्छामि भंत्ते! पक्खियम्मि’’ इत्यादि आलोचना पढ़ते हैं, पुन: भगवान के सामने अकेले आचार्य लघुसिद्धभक्ति, आलोचना सहित लघु योगभक्ति करके अपने दोषों की आलोचना करके प्रायश्चित्त लेते हैं। अनन्तर सभी शिष्य साधुगण पूर्वोक्त लघु सिद्धभक्ति, सालोचना योगभक्ति करके आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य वंदना करके, आचार्य से पन्द्रह दिन के अतिचारों का प्रायश्चित्त मांगते हैं। आचार्यवर्य शिष्यों को यथोचित प्रायश्चित्त (रस परित्याग-जाप्य-उपवासादि) देते हैं।
अनन्तर आचार्य सभी शिष्यों के साथ प्रतिक्रमण भक्ति का कायोत्सर्ग तक क्रिया करते हैं, पुन: केवल आचार्य ‘थोस्सामि’ से लेकर वीरभक्ति की प्रतिज्ञा तक प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करते हैं—पढ़ते हैं और सभी शिष्य बैठे हुए एकाग्रमना सुनते रहते हैं। अनन्तर सभी साधु ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि दंडक पढ़कर आचार्य के साथ आगे की भक्तियाँ बोलते हैं। जिसमें वीरभक्ति, चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति, चारित्रालोचनाचार्यभक्ति, वृहदालोचनाचार्यभक्ति और लघीयस्याचार्यभक्ति की जाती है। पाक्षिक प्रतिक्रमण में वीरभक्ति के समय ३०० उच्छ्वासों में कायोत्सर्ग किया जाता है। सम्पूर्ण विधि पूर्ण हो जाने पर सभी साधु विधिवत् तीन भक्तिपूर्वक आचार्य की वंदना करते हैं।
चातुर्मासिक प्रतिक्रमण-यह प्रतिक्रमण कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को तथा फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को चार-चार माह के अन्तराल से किया जाता है। इसमें यही पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि ‘‘सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं चातुर्मासिकप्रतिक्रमणक्रियायां’’ पाठ सर्वत्र बोला जाता है और वीरभक्ति में ४०० उच्छ्वासों में कायोत्सर्ग किया जाता है।
वार्षिक प्रतिक्रमण-आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को वार्षिक प्रतिक्रमण क्रिया जाता है। इस प्रतिक्रमण में ‘सांवत्सरिकप्रतिक्रमणक्रियायां’ पाठ सर्वत्र बोला जाता है और वीरभक्ति में ५०० उच्छ्वासों द्वारा कायोत्सर्ग किया जाता है।
पुन: व्रतारोपण आदि विषयक चार प्रतिक्रमणों में वृहदाचार्य भक्ति और मध्यमाचार्य भक्ति के अतिरिक्त पाक्षिक प्रतिक्रमण की ही सारी विधि की जाती है।’’
श्रुतपंचमी क्रिया-श्रुतपंचमी (ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी) के दिन साधुगण विधिवत् वृहत्सिद्ध भक्ति और वृहद् श्रुतभक्ति करके श्रुतस्कंध की प्रतिष्ठापना करके श्रुतावतार के उपदेश को स्वीकार करके वृहत्श्रुतभक्ति और वृहत् आचार्यभक्ति पढ़कर स्वाध्याय प्रारंभ करते हैं, पुन: वृहत् श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय की समाप्ति करके शांतिभक्ति का पाठ करते हैं, पुन: श्रावक स्वाध्याय को ग्रहण नहीं करते हैं तो सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और शांतिभक्ति करते हैं।
सिद्धांतवाचना और आचारवाचना में यही विधि होती है अर्थात् वृहत्सिद्धभक्ति और वृहत् श्रुतभक्ति पढ़कर सिद्धान्तवाचना की प्रतिष्ठापना करके वृहत् श्रुत और वृहदाचार्य भक्तिपूर्वक स्वाध्याय स्वीकार कर उपदेश देते हैं। पुन: श्रुतभक्ति के द्वारा स्वाध्याय समाप्त कर अन्त में शांतिभक्ति बोलकर क्रिया समाप्त करते हैं। वृद्ध व्यवहार के अनुसार आचारवाचना में भी यही विधि की जाती है।
साधुगण सिद्धान्त के प्रत्येक अर्थाधिकार के अंत में कायोत्सर्ग करते हैं तथा प्रत्येक अर्थाधिकार के अंत में और आदि में सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति करते हैं। वाचना के दिन में भी यही क्रिया करते हैं। जहाँ वाचना की गई है उस स्थान पर दूसरे-तीसरे या अधिक दिन आदि भक्ति प्रगट करने के लिए छह-छह कायोत्सर्ग करते हैं। यह क्रिया सिद्धान्त और उसके अर्थाधिकार के प्रति उत्तम बहुमान प्रदर्शित करने के लिए कही गई है अतएव यह क्रिया अपनी शक्ति के अनुसार करनी चाहिए।
संन्यास प्रारंभ की क्रिया-वृहत्सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति बोलकर संन्यास की प्रतिष्ठापना (ग्रहण) करते हैं तथा संन्यास के आदि और अन्त के दिनों को छोड़कर मध्य के दिनों में वृहत्सिद्धभक्ति, वृहदाचार्यभक्ति के द्वारा स्वाध्याय करके वृहत् श्रुतभक्ति के द्वारा उसका निष्ठापन करते हैं। अन्त में क्षपक-साधु के संन्यास के कांत में क्षपक का अंत हो जाने पर सिद्धभक्ति और श्रुतभक्ति करके शांतिभक्तिपूर्वक संन्यास की निष्ठापना कर देते हैं।’’
तथा रात्रियोग या वर्षायोग आदि अन्यत्र ग्रहण कर चुके हैं तो भी परिचारक साधु पहले दिन स्वाध्याय की प्रतिष्ठापना करके उस संन्यास वसति में ही सोवें, ऐसा कथन है।
जो स्वाध्याय को ग्रहण नहीं करने वाले श्रावक हैं, वे संन्यास ग्रहण के प्रथम दिन और अंतिम दिन सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और शांतिभक्ति करते हैं।
नंदीश्वर क्रिया-‘‘आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन महीने में अष्टमी से लेकर पूर्णमासी पर्यन्त प्रतिदिन साधुगण आचार्य के साथ मध्यान्ह में पौर्वाण्हिक स्वाध्याय को समाप्त करके सिद्धभक्ति, नंदीश्वरभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा आष्टान्हिक क्रिया करते हैं।’’ नंदीश्वरभक्ति करते हुए तीन प्रदक्षिणा भी करने का विधान है।’’
अभिषेक वंदना क्रिया-जिनेन्द्रदेव के महाभिषेक दिवस सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करके वंदना करते हैं।
मंगलगोचर मध्यान्ह वंदना-‘‘वर्षायोग ग्रहण और विसर्जन के प्रसंग में मंगलगोचर मध्यान्ह वंदना होती है अर्थात् आषाढ़ सुदी तेरस के दिन साधु मंगलार्थ गोचरी करने के पहले मध्यान्ह में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करके मध्यान्ह वंदना करते हैं। इसे ही मंगलगोचर मध्यान्ह वंदना कहते हैं।’’
मंगलगोचर प्रत्याख्यान-पुन: आहार ग्रहण करके आकर आचार्य आदि सभी साधु मिलकर वृहत्सिद्धभक्ति, वृहत्योगभक्ति करके गुरु से भक्त प्रत्याख्यान—उपवास ग्रहण करके वृहत् आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य की वंदना करके शांतिभक्ति करते हैं। यही विधि कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को भी करते हैं। चूँकि वर्षायोग ग्रहण करने के लिए आषाढ़ सुदी चौदश का उपवास करते हैं और वर्षायोग निष्ठापना करने के लिए कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी का उपवास करते हैं।
‘‘प्रत्याख्यान प्रयोगविधि के अनंतर—त्रयोदशी को मंगलगोचर प्रत्याख्यान ग्रहण करने के बाद आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में साधु वर्षायोग प्रतिष्ठापन करते हैं।’’ आचार्य आदि सभी साधु मिलकर सिद्धभक्ति और योगभक्ति करके ‘‘यावंति जिनचैत्यानि’’ इत्यादि श्लोक बोलकर वृषभजिन और अजितजिन की स्तुति (स्वयंभुवा भूतहितेन इत्यादि स्वयंभू स्तोत्र की) बोलकर अंचलिका सहित ‘‘वर्षेषु वर्षान्तरपर्वतेषु’’ इत्यादि चैत्यभक्ति करके पूर्वदिक् चैत्यालय की वंदना करते हैं। ऐसे ही ‘‘यावंति जिनचैत्यानि’’ पुन: बोलकर संभवजिन और अभिनंदनजिन की ‘‘त्वं संभव:’ इत्यादि स्तुति पढ़कर अंचलिका सहित ‘वर्षेषु’ इत्यादि चैत्यभक्ति पढ़कर दक्षिणदिक् चैत्यालय की वंदना करते हैं। इसी तरह ‘सुमति पद्मप्रभजिन’ की स्तुतिपूर्वक चैत्यभक्ति करके पश्चिमदिक् और सुपार्श्व-चन्द्रप्रभ जिन की स्तुतिपूर्वक चैत्यभक्ति करके उत्तर चैत्यालय की वंदना करते हैं। साधु भाव से ही चारों दिशाओं की प्रदक्षिणा करते हैं और ‘‘वहाँ पर बैठे हुए लोग ही चारों दिशाओं में योगतंदुल—पीताक्षत प्रक्षेपण करते हैं, ऐसी परम्परा है।’’ पुन: साधु पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करते हैं। इस विधि से वर्षायोग ग्रहण करके (उस ग्राम के चारों तरफ कुछ मीलों की सीमा निश्चित करके) विधि समाप्त करते हैं।
वर्षायोग समापन विधि-‘कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में सभी साधु पूर्वोक्त विधि से वर्षायोग निष्ठापन कर देते हैं।’’ अन्तर केवल इतना ही है कि वर्षायोग ग्रहण विधि में-
‘‘अथ वर्षायोगप्रतिष्ठापनक्रियायां……….सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’’ बोलते हैं और वर्षायोगसमापन में ‘‘अथ वर्षायोगनिष्ठापनक्रियायां……….सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’’ बोलते हैं। बाकी सारी विधि वही की जाती है।
वर्षायोग काल की व्यवस्था—
‘‘वर्षायोग के सिवाय दूसरे समय—हेमंत ऋतु आदि में भी श्रमण संघ को किसी भी एक स्थान या नगर में एक महीने तक निवास करना चाहिए तथा वर्षायोग के लिए जहाँ जाना है वहाँ आषाढ़ में पहुँच जाना चाहिए और मगसिर महीना पूर्ण होने पर उस क्षेत्र को छोड़ देना चाहिए। यदि कोई विशेष प्रसंग आ जावे तो श्रावण कृष्णा चतुर्थी तक वर्षायोग स्थान पर पहुँच जाना चाहिए परन्तु इस स्थिति का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार वर्षायोगनिष्ठापना यद्यपि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में हो जाती है फिर भी कार्तिक शुक्ला पंचमी के पहले विहार नहीं करना चाहिए। श्रावण कृष्णा चतुर्थी के बाद और कार्तिक शुक्ला पंचमी के पहले वर्षायोग के काल में यदि कदाचित् दुर्निवार उपसर्ग आदि प्रसंगों से स्थान छोड़ना पड़े तो प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए।’’
वीर निर्वाण क्रिया-‘‘साधुगण कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में वर्षायोग निष्ठापन करके सूर्योदय के समय सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्तिपूर्वक वीर निर्वाण क्रिया करते हैं।’’
इसकी प्रयोग विधि—
‘‘अथ वीरनिर्वाणक्रियायां……..सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इत्यादि प्रकार से निर्वाण क्रिया करके साधु और श्रावक नित्यवंदना (सामायिक) करते हैं।
तीर्थंकर भगवान का गर्भकल्याणक और जन्मकल्याणक जब हो तब साधु और श्रावक सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति पढ़कर क्रिया करते हैं। निष्काम कल्याणक में सिद्ध, चारित्र, योग और शांतिभक्ति करते हैं। केवलज्ञान कल्याणक में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग और शांतिभक्ति तथा निर्वाणकल्याणक में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग, निर्वाण और शांतिभक्ति करते हैं।
‘‘निर्वाणकल्याणक क्रिया में निर्वाण भक्ति पढ़ते समय तीन प्रदक्षिणा भी दी जाती है।’’
प्रयोग विधि—
‘‘अथ वृषभदेवजिनगर्भकल्याणकक्रियायां……………………… सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’’
ऐसे ही सर्वत्र समझना।
तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणकल्याणक से पवित्र क्षेत्रों की वंदना में भी उपर्युक्त भक्तिपाठ बोलकर वंदना करते हैं। यथा-
‘‘अथ पार्श्वनाथजिननिर्वाणकल्याणकनिषद्यावंदनायां………………. सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इत्यादि।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों के अवसर में भी उपर्युक्त विधि से भक्तिपाठ करते हुए वंदना करते हैं।
ऋषि के शरीर की और निषद्या की क्रिया—मुनि मरण को प्राप्त हो जायें तो उनके शरीर की वंदना करने में अथवा जहाँ पर उनका संस्कार किया जाता है, उसे निषेधिका या निषद्या कहते हैं। उसकी वंदना करने में भक्ति का विधान बताते हैं-
सामान्य साधु के शरीर की या निषद्या की वंदना में साधु सिद्धभक्ति, योगिभक्ति और शांतिभक्ति पढ़ते हैं, सिद्धान्तवेत्ता साधु के शरीर या निषद्या की वंदना में सिद्ध, श्रुत, योग और शांति ये चार भक्ति करते हैं। उत्तरगुणधारी साधु के शरीरादि की वंदना में सिद्ध, चारित्र, योग और शांतिभक्ति पढ़ते हैं। यदि ये सिद्धांतवेत्ता भी हैं तो सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग और शांतिभक्ति करते हैं। आचार्य के शरीर या निषद्या वंदना में सिद्ध, योग, आचार्य और शांतिभक्ति पढ़ते हैं। यदि आचार्य सिद्धांतवेत्ता हैं तो सिद्ध, श्रुत, योग, आचार्य और शांतिभक्ति से वंदना करते हैं और यदि आचार्य सिद्धांतवेत्ता और उत्तरगुणधारी भी हैं तो उनके शरीर या निषद्या की वंदना में सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, आचार्य और शांतिभक्ति पढ़कर वंदना करते हैं।
प्रयोग विधि—
‘‘अथ आचार्यशांतिसागरशरीरवंदनायां…………..सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इत्यादि। यह शरीर की वंदना तो साधु का समाधिमरण होने के बाद तत्क्षण ही की जाती है। अथवा उनकी निषद्या वंदना में-
‘‘अथ आचार्यशांतिसागरनिषद्यावंदनायां……..सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इत्यादि।
जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा में वंदना क्रिया-स्थिर जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा अथवा चल जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा के समय सिद्धभक्ति और शांतिभक्ति बोलकर वंदना की जाती है।
जिन भगवान की चल प्रतिमा की प्रतिष्ठा के चतुर्थ दिन के अभिषेक के समय सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति पढ़कर वंदना की जाती है तथा स्थिरप्रतिमा की प्रतिष्ठा के चतुर्थ दिन के अभिषेक के समय सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, बृहदालोचना और शांतिभक्ति बोलकर वंदना की जाती है। यह क्रिया साधुओं के लिए है। पुन: जो स्वाध्याय को ग्रहण नहीं करने वाले श्रावक होते हैं वे चल एवं स्थिर जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा में उपर्युक्त ही भक्तियाँ पढ़ें किन्तु अभिषेक क्रिया में आलोचनारहित वे ही भक्तियाँ पढ़ें अर्थात् सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति और शांतिभक्ति करें, किन्तु चारित्रभक्ति में जो आलोचना है उसको नहीं पढ़ें।
केशलोच क्रिया-साधु अपने सिर और दाढ़ी-मूँछ के केशों को हाथ से उखाड़ते हैं इसी का नाम केशलोच है। यह उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेदरूप है।
दो महीने में किया गया लोच उत्कृष्ट है, तीन महीने में किया गया मध्यम और चार मास में किया गया जघन्य है। लोच के दिन उपवास करके साधु लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति करके मौनपूर्वक लोंच करते हैं और अन्त में लघु सिद्धभक्तिपूर्वक समाप्त कर देते हैं।
प्रयोग—
‘‘अथ केशलोचप्रतिष्ठापनक्रियायां…….सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’’ इत्यादि समाप्ति में ‘प्रतिष्ठापन’ के स्थान पर ‘निष्ठापन’ शब्द बोलते हैं।
विशेष-सभी क्रियाओं के अंत में हीनाधिक दोष की विशुद्धि के लिए समाधिभक्ति अवश्य की जाती है। कहा भी है— हीनाधिक दोष की विशुद्धि के लिए सर्वत्र-सभी क्रियाओं की समाप्ति में प्रियभक्ति—समाधिभक्ति पढ़ी जाती है।’’
योगी की वंदना क्रिया-‘प्रतिमायोगधारी सूर्य की तरफ मुख करके ध्यान करने वाले ऐसे साधु योगी कहलाते हैं। भले ही वे दीक्षा में अपने से लघु हों, फिर भी अन्य साधु उनकी वंदना करते हैं। उसमें सिद्धभक्ति, योगभक्ति और शांतिभक्ति द्वारा वंदना करते हैं।’’ योगभक्ति पढ़ते-पढ़ते उन योगी की तीन प्रदक्षिणा भी देते हैं।