भारतदेश की पवित्र वसुन्धरा पर जैनशासन के अनुसार मुनि-आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका रूप चतुर्विध संघ परम्परा की व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। उनमें जहाँ दिगम्बर मुनियों को धर्मेश्वर के अंश कहकर सम्बोधित किया गया है, वहीं आर्यिका माताओं को ‘‘सद्धर्मकन्या’’ संज्ञा प्रदान की गई है। यथा-
तत्र प्रत्यक्षधर्माणो, धर्मेशांशो इवामला:।
भासन्ते वरदस्याग्रे, वरदत्तादियोगिन:।।१४९।।
अर्थात् वहाँ (भगवान नेमिनाथ के समवसरण में) उत्कृष्ट वर को प्रदान करने वाले भगवान नेमिनाथ के आगे-समक्ष वरदत्त को आदि लेकर अनेक मुनि सुशोभित थे, जो धर्म के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाले एवं अत्यन्त निर्मल धर्मेश्वर के अंश जान पड़ते थे।।१४९।।
ह्रीदयाक्षान्तिशान्त्यादि, गुणालंकृतसंपद:।
समेत्योपविशन्त्यार्या, सद्धर्मतनया यथा।।१५१।।
(हरिवंशपुराण, सर्ग ५७, पृ. ६५६)
उसके बाद तीसरी सभा में लज्जा, दया, क्षमा, शान्ति आदि गुणरूपी सम्पत्ति से सुशोभित आर्यिकाएँ विराजमान थीं, जो सद्धर्मतनया अर्थात् समीचीन धर्म की पुत्रियों के समान जान पड़ती थीं।।१५१।।
मुनिराजों को सैद्धान्तिक व्यवस्थानुसार छठा-सातवाँ गुणस्थान माना जाता है और आर्यिकाओं को पंचमगुणस्थानवर्ती कहा गया है। इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि आर्यिकाएँ श्रावक-श्राविकाओं के समान देशव्रती श्राविका हैं। चरणानुयोग ग्रंथों में मुनियों को सकलसंयमी, महाव्रती कहा है और आर्यिकाओं को उपचार महाव्रती कहा है, जैसा कि आचारसार ग्रंथ में श्री
आचार्य वीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है—
अर्थात् बुद्धिमान आचार्यों के द्वारा उन आर्यिकाओं की सज्जाति की ज्ञप्ति के लिए देशव्रतों के साथ उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया जाता है।
इस प्रकार आचार्यश्री के उपर्युक्त कथन से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के ऊपर महाव्रतों का आरोपण किया जाता है।
आर्यिकाओं को महाव्रती मानना उनके किसी अभिमान पुष्टि के लिए नहीं समझना चाहिए अपितु जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा एवं प्राचीनतम गुरु परम्परा के संरक्षण की दृष्टि से ही यहाँ विभिन्न प्रमाण प्रस्तुत हैं—
जैसा कि पद्मपुराण में श्री रविषेणाचार्य ने कहा है—
महाव्रतपवित्रांगा, महासंवेगसंगता।
देवासुरसमायोगं, ययौ चोद्यानमुत्तमम्।।८१।।
(भाग ३, पर्व १०६, पृ. २८४)
अर्थात् महाव्रतों के द्वारा जिसका शरीर पवित्र हो चुका था तथा जो महासंवेग को प्राप्त थी, ऐसी सीता देव और असुरों के समागम से सहित उत्तम उद्यान में चली गई।।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिका महाव्रतों से पवित्र रहती हैं।
यही कारण है कि ऐलक के पास एक लंगोटी मात्र का परिग्रह होने पर भी एक साड़ी धारण करने वाली आर्यिकाएँ ऐलक से पूज्य होती हैं। जैसा कि सागारधर्मामृत में पं. आशाधर जी ने कहा है-
कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतं।
अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटकेऽप्यार्यिकार्हति।।३७।। (पृ. ५१८)
अर्थ-आश्चर्य है कि लंगोटी मात्र में ममत्व भाव रखने से उत्कृष्ट श्रावक उपचरित भी महाव्रत के योग्य नहीं है और आर्यिका साड़ी में भी ममत्व भाव न रखने से उपचरित महाव्रत के योग्य होती है।
प्रवचनसार ग्रंथ में कहा है-
तम्हा तं पडिरूवं, लिंगं तासिं जिणेिंह णिद्दिट्ठं।
कुलरूववओजुत्ता, समणीओ तस्समाचारा।।
(प्रवचनसार)
टीका-………….तत्प्रतिरूपं वस्त्रप्रावरणसहितं लिंगं चिन्हं तासां स्त्रीणां जिनवरै: सर्वज्ञै: निर्दिष्टं कथितम्।…..युक्ता भवन्ति। का: ? श्रामण्यार्यिका:। पुनरपिं किं विशिष्टा:? तासां स्त्रीणां योग्यस्तद्योग्य आचारशास्त्रविहित समाचार आचरणं यासां तास्तत्समाचारा: इति।
अर्थात् जिनेन्द्रदेव ने उन आर्यिकाओं का चिन्ह वस्त्र आच्छादन सहित कहा है…..आचारशास्त्र में उनके योग्य जो आचरण कहा गया है, उसको पालने वाली हों, ऐसी आर्यिका होनी चाहिए। इस गाथा में आचार्य कुंदकुंददेव ने आर्यिकाओं को समणीओ अर्थात् श्रमणी संज्ञा दी है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवान जिनेन्द्र की आज्ञास्वरूप उपचार महाव्रत धारण करने वाली श्रमणी आर्यिका ही है।
सूत्रपाहुड़ में आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव ने जहाँ ‘‘णिच्चेल-पाणिपत्तं…..इत्यादि गाथा नं. १० के द्वारा दिगम्बर मुनिमार्ग के अतिरिक्त शेष मुद्राओं को अमार्ग—उन्मार्ग कहा है, वहीं सूत्रपाहुड़ की गाथा नं. ७ में कहा है—
सूत्तत्थपयविणट्ठो, मिच्छाइट्ठी हु सो मुणेयव्वो।
खेडे वि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स।।७।।
अर्थात् जो मनुष्य सूत्र के अर्थ और पद से रहित है उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए, वस्त्र सहित को क्रीड़ामात्र में भी पाणिपात्र—करपात्र में भोजन नहीं करना चाहिए अत: आर्यिकाओं को भी पाणिपात्र में आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए यह कथन पुष्ट होता है किन्तु गाथाओं का अर्थ ग्रंथ में पूर्वापर संबंध जोड़कर करना चाहिए अर्थात् सवस्त्र मुनि (श्वेताम्बर साधु की अपेक्षा कथन है) का यहाँ करपात्र में भोजन का निषेध है, आर्यिकाओं को करपात्र में आहार लेने का विधान है अथवा सचेल—किसी गृहस्थ को पाणिपात्र में कभी भोजन नहीं लेना चाहिए।
णिच्चेलपाणिपत्तं…….आदि गाथा नं. १० की टीका में श्री श्रुतसागर सूरि ने स्पष्ट कहा है कि सेसा य अमग्गया सव्वे-शेषा मृगचर्म-वल्कल-कर्पासपट्टकूल-रोमवस्त्र-तट्ट-गोणीतृण-प्रावरणादिसर्वे, रक्तवस्त्रादि पीताम्बरादयश्च विश्वे अमार्गा: संसारपर्यटनहेतुत्वान्मोक्षमार्गा न भवन्तीति भव्यजनैर्ज्ञातव्यम्।’’
इसका हिन्दी अनुवाद करते हुए पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने लिखा है—
‘‘इसके सिवाय (निर्ग्रन्थ मुनिवेष के अतिरिक्त) मृगचर्म, वृक्षों के वल्कल, कपास, रेशम, रोम से बने वस्त्र, टाट तथा तृण आदि के आवरण को धारण करने वाले सभी साधु तथा लाल वस्त्र, पीले वस्त्र को धारण करने वाले सभी लोग अमार्ग हैं, संसार परिभ्रमण के हेतु होने से ये मोक्षमार्ग नहीं हैं, ऐसा भव्य जीवों को जानना चाहिए।’’
यह उपर्युक्त कथन दिगम्बर जैन साधुओं के सिवाय अन्य साधुओं की अपेक्षा है किन्तु आर्यिकाओं अथवा ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं पर कदापि घटित नहीं होता है क्योंकि दिगम्बर मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका के वेष तो जिनशासन के सर्वमान्य अनादि और प्राकृतिक पद हैं उन्हें किसी व्यक्ति विशेष ने स्थापित नहीं किया है।
यहाँ ध्यान दीजिएगा कि क्या सूत्रपाहुड़ की गाथा आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका पर घटित करके आप इन्हें अमार्गी—जिनमार्ग से बहिर्भूत सिद्ध करना चाहेंगे ? क्योंकि आर्यिकाएं लज्जा-शील आदि गुणस्वरूप श्वेत साड़ी धारण करती हैं, ऐलक गेरुए या सफेद रंग की लंगोट पहनते हैं, क्षुल्लकगण गेरुए या सफेद रंग की लंगोट और दुपट्टा ये दो वस्त्र ग्रहण करते हैं तथा क्षुल्लिका सफेद धोती और दुपट्टा ये दो वस्त्र उपयोग करती हैं। यह जिनशासन कथित मार्ग के अनुसार प्रवृत्ति होती है अत: ये कभी अमार्ग—उन्मार्ग नहीं कहे जा सकते हैं। यहाँ यह भी विशेष ज्ञातव्य है कि आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने ये दर्शनपाहुड़, चारित्रपाहुड़, सूत्रपाहुड़, बोधपाहुड़ आदि रूप अष्टपाहुड़ों को अनादिनिधन दिगम्बर जिनशासन से निर्गत नूतन पन्थ (जैनाभास) के विरोध में लिखा है जिसे टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरि ने जगह-जगह अपनी टीका में स्पष्ट किया है अत: उनके वाक्यों को अधूरे रूप में अथवा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करके चतुर्विध संघ की मर्यादा और पवित्रता को भंग नहीं होने देना चाहिए।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मूलाचार के सामाचार अधिकार में कहा है-
एसो अज्जाणं पि य, सामाचारो जहाक्खिओ पुव्वं।
सव्वम्हि अहोरत्ते, विभासिदव्वो जहा जोग्गं।।१८७।।
इसकी आचारवृत्ति टीका में श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने लिखा है-
एसो-एष:। अज्जाणं पि य-आर्याणामपि च। सामाचारो-सामाचार:। जहक्खिओ-यथाख्यातो यथा प्रतिपादित:। पुव्वं-पूर्वस्मिन्। सव्वम्मि-सर्वस्मिन्। अहोरत्ते-रात्रौ दिवसे च। विभासिदव्वा-विभाषयितव्य: प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा। जहाजोग्गं—यथायोग्यं आत्मानुरूपो वृक्षमूलादिरहित:। सर्वस्मिन्नहोरात्रे एषोपि सामाचारो यथायोग्यमार्यिकाणां आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यो विभावयितव्यो वा यथाख्यात: पूर्वस्मिन्निति।।१८७।।
अर्थात् पूर्व में मुनियों की सामाचार विधि का जैसा निर्देश किया है, आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण कालरूप दिन और रात्रि में यथायोग्य—अपने अनुरूप अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों से रहित वही सम्पूर्ण सामाचार विधि आचरित करनी चाहिए। इस मूलाचार का हिन्दी अनुवाद पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने किया है, उसके भावार्थ में उन्होंने स्पष्ट किया है
इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि तथा वे ही औघिक, पदविभागिक समाचार माने गये हैं जो कि यहाँ तक चार अध्यायों में मुनियों के लिए वर्णित हैं। मात्र ‘यथायोग्य’ पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है और यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रन्थ नहीं है।
अन्यत्र आचारसार के अध्याय २ में भी कहा है—
लज्जाविनयवैराग्य, सदाचारादिभूषिते।
आर्याव्रते समाचार: संयतेष्वि किन्त्विह।।८१।।
अर्थ-लज्जा, विनय, वैराग्य, सदाचार आदि से भूषित आर्यिकाओं के समूह में समाचार विधि संयतों के समान ही है किन्तु आतापन योग आदि कुछ विधि आर्यिकाओं के नहीं है।
इसी प्रकार मूलाचार प्रदीप में श्री सकलकीर्ति आचार्य ने आर्यिकाओं की समाचार नीति का वर्णन किया है—
अयमेव समाचारो, यथाख्यातस्तपस्विनाम्।
तथैव संयतीनां च, यथायोग्यं विचक्षणै:।।२२९०।।
अहो-रात्रेऽखिलो मुक्त्यै, विज्ञेयो हितकारक:।
वृक्षमूलादि-सद्योग-रहितो जिनभाषित:।।२२९१।।
अर्थात् कुन्दकुन्दाचार्य सदृश आपने भी आर्यिकाओं को ‘‘संयतिका’’ शब्द से संबोधित करके उन्हें मुनियों के सदृश ही दिन-रात समाचार विधि अपनाने का निर्देश किया है।
इन आर्यिकाओं को आगमानुसार सिद्धांतग्रंथ भी पढ़ने और लिखने का पूर्ण अधिकार है यह बात श्री कुन्दकुन्ददेव के शब्दों में सप्रमाण देखिए-
तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स।
एत्तो अण्णो गन्थो कप्पदि पढिदुमसज्झाये।।९७।। (मूलाचार)
टीकांश-तत्सूत्रं पठितुमस्वाध्याये न कल्प्यते न युज्यते विरतवर्गस्य संयतसमूहस्य, स्त्रीवर्गस्य चार्यिकावर्गस्य च। (पृ. २३३)
अर्थ-अस्वाध्याय काल में मुनि और आर्यिकाओं को उपर्युक्त सूत्रग्रंथों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए किन्तु इनसे भिन्न ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकते हैं।
हरिवंशपुराण में तो आर्यिका सुलोचना को ग्यारह अंग तक श्रुतज्ञान भी प्राप्त करने का प्रमाण दिया है-
दु:संसारस्वभावज्ञा, सपत्नीभि: सितम्बरा।
ब्राह्मीं च सुन्दरीं श्रित्वा, प्रवव्राज सुलोचना।।५१।।
द्वादशांगधरो जात: क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी।
एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना।।५२।।
अर्थ-संसार के दुष्ट स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ सफेद वस्त्र धारण कर लिए और ब्राह्मी तथा सुन्दरी के पास जाकर दीक्षा ले ली।
मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान् के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गई।।५१-५२।।
आचार्य कुन्दकुन्द रचित बोधपाहुड़ की गाथा नं. २२ की टीका में भी लिखा है कि—
णाणं पुरिसस्स हवदि, लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो।
णाणेण लहदि लक्खं, लक्खंतो मोक्खमग्गस्स।।२२।।
(षट्प्राभृत, पृ. १४४)
टीकांश—‘‘अपि शब्दात् ब्राह्मी-सुन्दरी, राजमती एवं चन्दनादिवत एकादशांगानि लभन्ते। मृगलोचनापि स्त्रीलिंगं छित्वा स्वर्गसुखं भुक्त्वा राजकुलादिषूत्पन्ना मोक्षं तृतीयेऽपि भवे लभन्ते।’’
अर्थात् ‘‘यहाँ गाथा में ‘सुपुरिसोवि-सत्पुरुषोऽपि’ के साथ जो अपि शब्द दिया है उससे यह सूचित होता है कि ब्राह्मी-सुन्दरी, राजीमती (राजुल) तथा चन्दना आदि के समान स्त्रियाँ भी ग्यारह अंग तक श्रुतज्ञान प्राप्त करती हैं और वे भी स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गसुख का उपभोग कर राजकुल आदि में उत्पन्न हो तृतीय भव में मोक्ष को प्राप्त होती हैं।’’
ये तो कतिपय प्रमाण यहाँ दिये गये हैं जिनसे मुनि और आर्यिका की सारी चर्या एक समान मानी गई है इसीलिए उनका प्रतिक्रमण एक ही है, उनकी दीक्षाविधि एक सदृश है और उनका प्रायश्चित्त भी एक समान है।
साधूनां यद्वदुद्दिष्ट-मेवमार्यागणस्य च।
दिनस्थानत्रिकालीनं, प्रायश्चित्तं समुच्यते।।११४।।
अर्थात् जैसा प्रायश्चित्त साधुओं के लिए कहा है वैसा ही आर्यिकाओं के लिए भी कहा गया है। विशेष इतना है कि दिन, प्रतिमा, त्रिकालयोग, पर्यायछेद, मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित्त आर्यिकाओं के लिए नहीं है।।
इससे आधा क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का एवं उससे आधा प्रायश्चित्त ब्रह्मचारियों को दिया जाता है।
इसी प्रकार प्रवचनसार, जीवंधर चम्पू, पद्मपुराण आदि ग्रंथों में आर्यिकाओं को समणी (श्रमणी) शब्द से सम्बोधित किया है। इनकी वंदना विधि एवं आहारकाल में नवधाभक्ति जैसी वर्तमानकाल में (चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर परम्परानुसार) चल रही है वह आगमानुकूल है।
जैनेश्वरी दीक्षा को धारण करने वाले मोक्ष की ओर उन्मुख महापुरुष त्रिकाल वंदनीय होते हैं, यह आगम एवं व्यवहार दोनों प्रकार से स्थापित सत्य है। परस्पर साधु-साधु एवं श्रावकों के द्वारा भी दिगम्बर जैन मुनि/आर्यिकाओं की वंदना का विधान जैनागम में निर्दिष्ट है, जिसके अनुसार मुनि महाराज को नमोस्तु, आर्यिका माता को वंदामि, ऐलक-क्षुल्लक-क्षुल्लिका जी को इच्छामि कहने की स्वस्थ परम्परा आगम के परिप्रेक्ष्य में आज तक चली आ रही है।
मूलाचार ग्रंथ-पूर्वार्द्ध (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) के पृष्ठ ४३९ पर गाथा ५९९ में जो विशेष कथन किया गया है, वह दृष्टव्य है—
संयतमप्येवं स्थितमेतेषु स्थानेषु च न वंदेतेत्याह—
वाखित्तपराहुत्तं तु पमत्तं मा कदाइ वंदिज्जो।
आहारं च करंतो णीहारं वा जदि करेदि।।५९९।।
व्याक्षिप्तं ध्यानादिनाकुलचित्तं परावृत्तं पराङ्मुखं पृष्ठदेशत: स्थितं प्रमत्तं निद्राविकथादिरतं मा कदाचिद् वंदिज्ज नो वंदेत संयतमिति संबंधस्तथाऽहारं च कुर्वन्तं भोजनक्रियां कुर्वाणं नीहारं वा मूत्रपुरीषादिकं यदि करोति तदाऽपि नो कुर्वीत वंदनां साधुरिति।
अर्थात् जो व्याकुलचित्त हैं, पीठ फेर कर बैठे हुए हैं या प्रमाद सहित हैं उन मुनियों की उस समय वंदना न करे और यदि आहार कर रहे हैं अथवा नीहार कर रहे हैं उस समय भी वंदना न करे।।५९९।।
केन विधानेन स्थितो वंद्यत इत्याशंकायामाह—
आसणे आसणत्थं च उवसंत उवट्ठिदं।
अणु विण्णय मेधावी किदियम्मं पउंजदे।।६००।।
आसने विविक्तभूप्रदेशे आसनस्थं पर्यंकादिना व्यवस्थितं अथवा आसने आसनस्थमव्याक्षिप्तमपराङ्मुखमुपशांतं स्वस्थचित्तं उपस्थितं वंदनां कुर्वीत इति स्थित अनुविज्ञाप्य वंदनां करोमीति संबोध्य मेधावी प्राज्ञोऽनेन विधानेन कृतिकर्म प्रारभेत प्रयुंजीत विदधीतेत्यर्थ:।
अर्थात् किस विधान से स्थित हों तो वंदना करे ? सो ही बताते हैं—
जो आसन पर बैठे हुए हैं, शांतचित्त हैं एवं सन्मुख मुख किए हैं उनकी अनुज्ञा लेकर विद्वान् मुनि वंदना विधि का प्रयोग करें।
यहाँ गाथा में जो कृतिकर्म शब्द है उसका अर्थ जानना है—
दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव च।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।।६०३।।
अर्थात् दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें। तात्पर्य यह है कि एक बार के कायोत्सर्ग में यह विधि सम्पन्न की जाती है, इसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववंदना (सामायिक), प्रतिक्रमण और सभी क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारंभ में की जाती है। इसके प्रयोग की सम्पूर्ण विधि मूलाचार में दृष्टव्य है।
यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जब किन्हीं विशेष श्रुतज्ञानी आचार्य महाराज की वंदना की जाती है तब लघु सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति एवं आचार्यभक्ति पढ़कर कृतिकर्मपूर्वक वंदना की जाती है (सामान्य आचार्य की वंदना में सिद्धभक्ति एवं आचार्यभक्ति का पाठ किया जाता है)। यह कृतिकर्मपूर्वक वंदना (प्रतिदिन गुरु की तीन बार करने का विधान है) करने हेतु है, सामान्यतया नमोस्तु करने हेतु नहीं परन्तु विहार के समय अथवा चलते-फिरते समय आचार्य महाराज की वंदना करने हेतु कृतिकर्म करना संभव नहीं हो सकता, तब सामान्यरूप से विनय प्रदर्शित करते हुए अपने स्थान से उठकर खड़े होकर नमोस्तु कहकर पंचांग नमस्कार किया जाता है।
आहार के समय जब नवधाभक्ति की जाती है तो उससे पूर्व पड़गाहन के अनंतर नमोस्तु कहकर ही मुनि महाराज को चौके के अंदर प्रवेश कराया जाता है, पुन: नवधाभक्ति के अंतर्गत नमोस्तु करके ही आहार प्रारंभ कराया जाता है, इन दोनों ही स्थितियों में कृतिकर्मपूर्वक वंदना नहीं की जाती है। पुन: जब कोई श्रावक आहार के मध्य में आहार देने हेतु चौके में आते हैं तो मन-वचन-काय की शुद्धि बोलकर नमोस्तु करके ही मुनिराज को आहार देते हैं, वहाँ भी कृतिकर्म नहीं किया जाता है।
उपरोक्त स्थितियों में कृतिकर्मपूर्वक वंदना यद्यपि नहीं की जाती है तथापि सामान्यतया नमोस्तु किया जाता है।
आचार्य रविषेण कृत पद्मपुराण (तृतीय भाग) के ९२ वें पर्व के २४ वें श्लोक में देखें—
पद्भ्यामेव जिनागारं प्रविष्टा: श्रद्धयोद्धया।
अभ्युत्थाननमस्यादिविधिना द्युतिनार्चिता:।।२४।।
उन आकाशगामी मुनियों (सप्तऋषियों) ने उत्तम श्रद्धा के साथ भूमि पर पैदल चलकर ही जिनमंदिर में प्रवेश किया तब महामुनि आचार्य श्री द्युति महाराज ने खड़े होकर नमस्कार करना आदि विधि से उनकी पूजा (वंदना) की।
कहने का अभिप्राय यह है कि सप्तऋषि महाराज आसन पर विराजमान होते, उससे पूर्व उनको देखते ही आचार्य श्री द्युति महाराज उठकर खड़े हुए एवं उनको नमोस्तु (नमस्कार) किया। सामान्यतया भी देखा जाता है कि जब साधु कहीं मंदिर आदि में प्रवेश करते हैं तो उस समय साधु और श्रावकगण उठकर खड़े होते हैं और घुटने टेककर उन्हें पंचांग नमस्कार करते हैं। यदि प्रत्येक बार जब साधु शांतचित्त होकर बैठें तब उसके बाद साधु या श्रावक उनको नमस्कार करें तो समयानुसार यह व्यवस्था घटित ही नहीं हो पाएगी। इसके अतिरिक्त यदि कोई आचार्य ज्वर आदि से पीड़ित हैं अथवा क्षपक-समाधिरत हैं या लेटे हैं, तब भी उसी अवस्था में उनको नमोस्तु किया जाता है। उनको बैठने का आग्रह करके पुन: उनके बैठने पर ही नमोस्तु करने की प्रक्रिया व्यवहारिकरूप से भी उचित नहीं है अत: आगम में वर्णित नमस्कार विधि में हमें स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि कृतिकर्मपूर्वक वंदना तो तब की जाती है जब आचार्य/साधु शांतचित्त विराजमान हों।
पद्मपुराण (तृतीय भाग) ९२ वें पर्व के ३४ वें श्लोक में स्पष्ट कहा गया है—
साधुरूपं समालोक्य न मुञ्चत्यासनं तु य:।
दृष्ट्वाऽपमन्यते यश्च स मिथ्यादृष्टिरुच्यते।।३४।।
अर्थात् जो सामने आते मुनि को देखकर अपना आसन नहीं छोड़ता है तथा उन्हें देखकर उनका अपमान करता है अर्थात् सम्मान, नमोस्तु आदि नहीं करता है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है अर्थात् साधु को देखने मात्र से अपना स्थान छोड़कर खड़े होना एवं नमोस्तु करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। साधुजन आसन ग्रहण कर लें, तभी उन्हें नमोस्तु किया जाये, यह आगम से भी विरुद्ध ठहरता है अत: आगम के रहस्य को सही प्रकार से हृदयंगम करना एवं सही प्रकार से प्रस्तुत करना चाहिए।
आर्यिका माताजी की वंदना करना एवं वंदना हेतु ‘वंदामि’ शब्द का प्रयोग करना सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज में व्याप्त है। यह शास्त्रीय आधार से है। श्री इंद्रनंदि आचार्य विरचित ‘नीतिसार समुच्चय’ में पृ. ५३ पर ‘मुनि आदि को नमस्कार की विधि’ देखें—
निर्ग्रन्थानां नमोऽस्तु स्यादार्यिकाणाञ्च वंदना।
श्रावकस्योत्तमस्योच्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते।।५१।।
टीका-निर्ग्रन्थानां यतीनां। परस्परं नमोऽस्तु इतिवाक्ये-नाचरेत्। आर्यिकाणां साध्वीनाम् अन्योन्यम् वंदना स्यात् वन्देऽहमिति वाक्येन संवदेत्। उत्तमस्य श्रावकस्य वानप्रस्थस्य परस्परं उच्चै: स्पष्टम्। इच्छाकारोऽस्तु। इच्छामि इतिवाक्येन चाभिधीयते व्यवह्रियते नियम्यते, अहं भवन्तमिष्टं पूज्यं गुरुवदनुमेने।।५१।।
अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिराजों को नमस्कार करते समय ‘नमोस्तु’ कहना चाहिए। आर्यिकाओं को ‘वंदना—वंदामि’ कहना चाहिए और उत्तम श्रावक अर्थात् दशवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकों को ‘इच्छामि’ वा इच्छाकार कहना चाहिए।
आर्यिका माताजी की वंदना की बात शास्त्रोक्त ही है। अन्य ग्रंथों में भी देखें—
नमोऽस्तु गुरवे कुर्याद्वन्दनां ब्रह्मचारिणे।
इच्छाकारं सधर्मिभ्यो वंदामीत्यार्यिकादिषु।।८६।।
अर्थात् गुरुओं को ‘‘नमोऽस्तु’’ ब्रह्मचारियों को ‘‘वंदना’’ साधर्मियों को ‘‘इच्छाकार’’ और आर्यिकाओं को ‘‘वंदामि’’ करें।।८६।।
यहाँ साधर्मी शब्द से दशवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक-ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका का पद विवक्षित है उन्हें इच्छाकार या इच्छामि कहकर नमस्कार किया जाता है तथा क्रम की विवक्षा में ब्रह्मचारी, साधर्मी के बाद आर्यिकाओं को लिया है सो यह क्रम भी पद की अपेक्षा विवक्षित नहीं है क्योंकि मुनि के बाद आर्यिका, पुन: ऐलक-क्षुल्लक-क्षुल्लिका तथा दशम प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक, उसके बाद ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी का क्रम आता है।
इस प्रकार जैनशासन के चतुर्विध संघ (मुनि-आर्यिका-क्षुल्लक-क्षुल्लिका) की समाचार विधि एवं नमस्कार करने की विधि को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। आप सभी इस नमस्कार पद्धति को अपनाकर सन्तों के आशीर्वाद से अपने जीवन को मंगलमयी बनावें, यही शुभेच्छा है।