जैन सिद्धान्त के रहस्य को जानने वाला प्रत्येक मनुष्य कर्म की अटल सत्ता को स्वीकार करता है। इसी अटल सिद्धान्त का विवेचन यहाँ प्रस्तुत है-
दार्शनिक संसार में कर्म का अखण्ड साम्राज्य है। विश्व के समस्त दार्शनिकों और विचारकों ने कर्म की प्रबल सत्ता को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार किया है। कोई भी विचारक कर्म की सत्ता का अपलाप नहीं करता है। विविध बातों के सम्बन्ध में मतभेद होने पर भी कर्म की सत्ता के सम्बन्ध में सब दार्शनिक और तत्त्व-चिन्तक एक—मत हैं। इससे कर्म की निराबाध सत्ता प्रमाणित होती है। भारतीय तत्त्व-विचारकों ने कर्म के सम्बन्ध में पर्याप्त ऊहा-पोह की है और उसकी विपुल शक्ति का अनुभव-पूर्ण प्रतिपादन भी किया है। ‘‘कर्मणां गहना गति:” कहकर उन्होंने कर्म की दुर्लभ शक्ति का आभास करा दिया है।
कर्म-सिद्धान्त का जैसा स्पष्ट, सर्वाङ्गपूर्ण और सुन्दर विवेचन जैनधर्म तथा जैनदर्शन में किया गया है, वैसा और किसी भी दर्शन में नहीं किया गया है। मीमांसक दर्शन में इतना ही कहा गया है कि जो वैदिक कर्म-कांड करता है, उसे स्वर्ग में सुखादि की प्राप्ति होती है। इसके सिवाय कर्म की प्रकृति, उसका फल, भोग आदि विषयों में उसने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया। वेदान्त दर्शन भी ब्रह्माद्वैतवाद की सिद्धि करने में ही लगा रहा है । उसने भी इस विषय में कोई विशिष्ट विवेचन नहीं किया। सांख्य और योग दर्शन के लिए भी यही बात है । वैशेषिकदर्शन में भी कर्म की तात्त्विक विवेचना नहीं है। ऐसा होते हुए भी जीव अपने कर्मों के कारण ही सुख-दुःख आदि भोगते हैं—यह बात सब स्वीकार करते हैं। न्याय-दर्शन, बौद्ध-दर्शन और जैन-दर्शन ने कर्म के विषय में ठीक-ठीक विचार किया है। इनमें क्या-क्या साम्य और वैषम्य है ?-यह दिव्âसूचन करना यहाँ प्रसंगत: आवश्यक है।
न्यायदर्शन कर्म को पुरुष-कृत मानता है और उसका फल भी होना चाहिए, यह भी स्वीकार करता है, परन्तु उसका कहना है कि कई बार पुरुष-कृत कर्म निष्फल भी होते देखे जाते हैं, इसलिए वह कर्म और उसके फल के बीच में एक नवीन कारण-ईश्वर को स्थान देता है। उसका मन्तव्य है कि ‘‘कर्म अपने-आप फल नहीं दे सकता है। यह निश्चित है कि फल कर्म के अनुसार ही होता है, तदपि उसमें ईश्वर कारण है। जैसे-वृक्ष बीज के अधीन है, तदपि वृक्ष की उत्पत्ति में हवा, पानी, प्रकाश की आवश्यकता रहती है, इसी प्रकार कर्म के अनुसार ही फल होता है, तदपि फलोत्पति में ईश्वर कारण है।” इस तरह न्यायदर्शन कर्म का साक्षात् फलभोग न मानते हुए ईश्वर को कर्मफल का नियन्ता मानता है ।
यह मान्यता बौद्ध और जैनदर्शन के विपरीत है । इन दोनों दर्शनों का मन्तव्य है कि कर्म-फल के लिए किसी दूसरी शक्ति के नियंत्रण की आवश्यकता नहीं है। कर्म अपना फल अपने-आप देता है । ईश्वर को इसमें हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह कहा जा सकता है कि प्राणी बुरे कर्म तो कर लेता है, परन्तु वह उसका फल भोगना नहीं चाहता। अत: उसे कर्म-फल देने वाली कोई दूसरी शक्ति माननी चाहिए।… .परन्तु यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि प्राणी के चाहने या न चाहने से कर्म अपना फल देते हुए नहीं रुक सकते हैं और नहीं रुकते भी हैं। प्राणी जब तक कर्म नहीं करता है, वहाँ तक वह स्वतन्त्र है, परन्तु जब वह कर्म कर चुकता है, तो वह उस कृतकर्म के अधीन हो जाता है। अत: उसके न चाहने पर भी कर्म अपना फल उस पर प्रकट कर देता है। जैसे एक व्यक्ति गर्म पदार्थ खाकर धूप में खड़ा हो जाय और फिर चाहे कि मुझे प्यास न लगे, तो उसके चाहने मात्र से प्यास लगे बिना नहीं रह सकती है। वे गर्म पदार्थ अपना असर बताये बिना नहीं रह सकते । इसी तरह कर्म भी अपना फल दिये बिना नहीं रहते। अत: कर्म और कर्म-फल के बीच में किसी और शक्ति का हस्तक्षेप उचित नहीं प्रतीत होता ।
यह भी शंका की जा सकती है कि कर्म जड़ हैं, इसलिए वे जीव को फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ?… इसका समाधान यह है कि जीव के साथ कर्म जब सम्बद्ध होते हैं, तब उनमें कर्म-फल देने की शक्ति उसी तरह प्रकट हो जाती है, जैसे-नेगेटिव और पोजिटिव तारों के मिश्रण से बिजली। अत: कर्म और उसके फल के लिए किसी तीसरी शक्ति की उसी तरह आवश्यकता नहीं है, जैसे-शराब का नशा लाने के लिए शराबी और शराब के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति की। अत: जीव स्वयं अपने कर्मों का कर्ता है और स्वयं उसके फल का भोक्ता है, यह मान्यता ही उचित और संगत है। न्यायदर्शन ने जो कर्म-फल के विषय में आपत्ति उपस्थित करते हुए कहा कि पुरुष-कृत प्रयत्न कभी निष्फल भी जाते हुए देखे जाते हैं-इसका जैनाचार्यों ने सुन्दर समाधान किया है । उन्होंने कहा कि कर्म का फल कभी व्यर्थ नहीं होता है, इसका फल-जल्दी या देर से कभी-न-कभी अवश्य प्राप्त होता है।
कभी पापात्मा सुखी देखे जाते हैं और धर्मात्मा प्राणी कष्ट का अनुभव करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, इसका कारण ‘कर्म का फल नहीं मिलना’ नहीं है, परन्तु यह उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का फल समझना चाहिए। पापात्मा का सुखी देखा जाना उसके पूर्वकृत शुभकर्म का उदय है। वह अभी जो पाप कर रहा है, उसका दुष्परिणाम उसे आगे भोगना पड़ेगा ही। इसी तरह जो धर्मात्मा अभी दुःखी देखा जाता है। यह उसके पूर्वकृत अशुभ कर्म का परिणाम समझना चाहिए । अभी के किये हुए धर्मानुष्ठान का फल उसे भविष्य में अवश्य प्राप्त होगा । इस प्रकार कर्म और कर्म-फल के कार्य-कारण-भाव में कोई दोष नहीं आता है। इस व्यवस्था के लिए कर्म और कर्मफल के बीच में ईश्वर को डालने की कोई आश्यकता नहीं है।
‘‘कर्म में स्वयं फल देने की शक्ति है”-इस विषय में जैनदर्शन और बौद्धदर्शन एकमत हैं, तदपि कर्म के स्वरूप के विषय में इनमें महत्त्वपूर्ण भेद है, बौद्धदर्शन के अनुसार कर्म केवल पुरुष-कृत-प्रयत्न ही नहीं है, अपितु एक विश्वव्यापी नियम है अर्थात् बौद्ध कर्म को कार्य-कारण-भाव के रूप में मानते हैं, जबकि जैनदर्शन कर्म को स्वतंत्र पुद्गलद्रव्य मानता है। जीव की तरह कर्म भी स्वतंत्र जड़ पदार्थ है। जैनदर्शन के अनुसार कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को अपने साथ सम्बन्धित कर लेता है, जिनके कारण उसका मूल शुद्ध स्वरूप विकृत हो जाता है । इस प्रकार जैनदर्शन कर्म को जीव-विरोधी-गुण वाला जड़ द्रव्य मानता है। इस जीव की सम्बद्ध कर्म शक्ति के द्वारा सारा विश्व-प्रवाह प्रवाहित होता रहता है। यही संसार का मूल स्रोत है। यही आत्मा और परमात्मा के भेद का कारण है ।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा का वास्तविक मौलिक स्वरूप अनन्त-ज्ञानमय, अनन्त—दर्शनमय, अनन्त-सुखमय, अनन्त शक्तिमय और शुद्ध ज्योतिर्मय है। वह स्फटिक मणि की तरह निर्मल और प्रकाश-स्वभाव वाली है; परन्तु अनादिकाल से वह विभाव-दशा को प्राप्त हो रही है। दर्शनमोह-अज्ञान के कारण वह रागद्वेष रूप परिणति करता है। यह राग-द्वेष की परिणति ही भावकर्म है। यह आत्म—गत-संस्कार विशेष है। भावकर्म के कारण आत्मा अपने आस-पास चारों तरफ रहे हुए भौतिक परमाणुओं को आकृष्ट करता है और उन्हें एक विशेष स्वरूप अर्पित करता है। यह विशिष्ट अवस्था को प्राप्त भौतिक परमाणु-पुञ्ज ही द्रव्यकर्म या कार्मण शरीर कहा जाता है। यह कार्मण शरीर संसारवर्ती आत्मा के साथ सदा बना रहता है। आत्मा जब एक जन्म से दूसरे जन्म में जाती है, तब भी यह सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है और यही स्थूल शरीर की भूमिका बनता है। परलोक या पुनर्जन्म का आधाररूप यही कार्मण-शरीर या कर्म-तत्त्व है।
जैनदर्शन तात्त्विक दृष्टि से सब जीवात्माओं को समान मानता है, फिर-भी संसारवर्ती जीवात्माओं में जो भिन्नता और विविधता दृष्टिगोचर होती है, उसका कारण यह कर्म ही है । कर्मों की भिन्नता के कारण जीवात्माओं में नानात्व पाया जाता है। तात्त्विक दृष्टि से सूक्ष्म निगोद के जीवों में भी वही अनन्त-ज्ञान-दर्शन-मय आत्मा शक्तिरूप में विद्यमान है, परन्तु उनकी शक्ति कर्मों के गाढ आवरण के वैविध्य से जीवों की अवस्था में भी वैविध्य पाया जाता है। इसलिए कोई आत्मा पृथ्वीकाय में, कोई अप्काय में, कोई अग्नि, वायु और वनस्पति-काय में, कोई त्रस रूप में, कोई पशु-पक्षी की योनि में, कोई मनुष्य की योनि में, कोई नरक और स्वर्ग योनि में नाना-विध दुःख-सुख का अनुभव करती है । आत्मा जैसे-जैसे कर्म करती है, उसी के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न योनियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे या बुरे अनुभवों का वेदन करना पड़ता है ।
कर्म और आत्मा के सम्बन्ध के विषय में विचारवर्ग में नाना प्रकार के प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है । कोई यह शंका करता है कि आत्मा तो अमूर्त है और कर्म मूर्त है, तो अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध कैसे हो सकता है?……. कोई यह प्रश्न करता है कि आत्मा का मूल स्वरूप तो शुद्ध-बुद्ध है तो उसके साथ कर्म का सम्बन्ध क्यों हुआ? कब हुआ? और कैसे हुआ? शुद्ध आत्मा के साथ यदि किसी तरह सम्बन्ध होना मान लिया जाय, तब तो मुक्तात्मा के साथ भी कर्म का सम्बन्ध क्यों नहीं होगा?….. इसप्रकार के प्रश्नों का जैनाचार्यों ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया है। उनका कहना है कि जिस प्रकार चैतन्य-शक्ति अमूर्त है और शराब मूर्त है, तदपि मूर्त शराब का अमूर्त चैतन्य-शक्ति के साथ सम्बन्ध होता है, जिसके कारण शराब पीते ही चैतन्य-शक्ति पर आवरण आ जाता है । इसी तरह आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त है, तदपि मूर्त कर्मों से अमूर्त आत्म-शक्ति पर आवरण पड़ जाता है। अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध होना अघटित नहीं है ।
शुद्ध-बुद्ध आत्मा के साथ कर्म पुद्गल का सम्बन्ध क्यों हुआ, कब हुआ और कैसे हुआ? -इस प्रश्न का उत्तर सभी तत्त्व-विचारकों ने लगभग एक-सा ही दिया है। सांख्य-योग दर्शन में प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध वेदान्त दर्शन में माया और ब्रह्म का संबंध, न्यायवैशेषिक दर्शन में आत्मा और अविद्या का सम्बन्ध, कैसे, कब और क्यों हुआ? इसका उत्तर देते हुए वे-सब विचारक यही कहते हैं कि इन दोनों का सम्बन्ध अनादिकालीन है, क्योंकि इस सम्बन्ध का आदि क्षण ज्ञान-सीमा के सर्वथा बाहर है। जैनदर्शन का भी यही मन्तव्य है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक समय में आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध हुआ। यदि आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को कोई आदि मान ली जाती है, तो प्रश्न होता है कि उस सम्बन्ध के पहले आत्मा शुद्ध-बुद्ध था, तो उसे कर्म क्यों कर लगे?……… शुद्ध आत्मा को भी कर्म लग सकते हैं, तो मुक्त होने के बाद भी कर्म लग सकते हैं-यह मानना पड़ेगा, जो इष्ट नहीं है। अत: आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादिकालीन है। एक बार प्रयत्न-पूर्वक कर्मों को आत्मा से सर्वथा अलग कर देने पर पुन: कर्म क्यों नहीं लगते?……. इस प्रश्न का स्पष्टीकरण तत्त्व-चिन्तकों ने इस प्रकार किया है कि आत्मा स्वभावत: शुद्ध पक्षपाती है। शुद्धि के द्वारा आत्मिक गुणों का सम्पूर्ण विकास हो जाने के बाद राग-द्वेष-अज्ञान आदि दोष जड़ से उच्छिन्न हो जाते हैं, अत: वे प्रयत्न-शुद्धि-प्राप्त आत्मा में स्थान पाने के लिए सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं।
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि मान लेने पर भी यह शंका खड़ी होती है कि जो वस्तु अनादि है, उसका अन्त कैसे हो सकता है?…… .आत्मा और कर्म का सम्बन्ध यदि अनादि है, तो उसका अन्त नहीं हो सकता है और कर्मों का अन्त हुए बिना मोक्ष नहीं हो सकता है। आत्मा और कर्म का अनादि सम्बन्ध, मानने पर यह बाधा क्यों नहीं उपस्थित होगी?
इसका समाधान करते हुए तत्त्व-विचारकों ने कहा है कि जो अनादि है, वह अनन्त ही है, ऐसा कोई नियम नहीं है। खान में स्वर्ण और मिट्टी का संयोग अनादिकालीन है, तदपि अग्नि आदि के प्रयोग से उसका अन्त होता है। अत: अनादि होते हुए भी कोई वस्तु सान्त हो सकती है । कर्म और आत्मा का सम्बन्ध इसी प्रकार का है। वह अनादि होते हुए भी सान्त है। ज्ञान, ध्यान, तप आदि के द्वारा कर्म-बन्ध से मुक्ति हो सकती है अत: आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि-सान्त है। प्रवाह की अपेक्षा अनादि अनन्त हो सकता है। कर्म-सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि होते हुए भी व्यक्ति रूप से सादि भी है, क्योंकि राग-द्वेषादि की परिणति से कर्म-वासना की उत्पत्ति जीवन में होती रहती है। अत: आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि-सान्त, सादि और अनादि-अनन्त भी (भिन्न-भिन्न विवक्षाओं की अपेक्षा से) कहा जा सकता है। सामान्य रूप से यह सम्बन्ध अनादि- सान्त माना जाता है।
कारण के बिना कार्य नहीं होता, यह सर्व-सम्मत सिद्धान्त है। अत: कर्म-बन्ध का कारण क्या है, प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। जैनाचार्यों ने कर्म-बन्ध का मुख्य कारण आत्मा की विभाव-परिणति को बताया है। आत्मा मोह व अज्ञान के कारण राग-द्वेष के चक्कर में पड़ जाता है, जिससे वह द्रव्यकर्म परमाणुओं को अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है । राग और द्वेष ही कर्म-बन्ध के मुख्य कारण हैं । कहा भी है- ‘‘रागो य दोसो दुवि कम्मबीयं।” संसार वृक्ष के लिए राग और द्वेष ही कर्म के बीज हैं । इसी को विशेष स्पष्टता के साथ कहते हुए कर्म-बंध के पाँच कारण भी बताये गये हैं- (१) मिथ्यात्व (अशुद्ध श्रद्धा) (२) अविरति (त्याग न करना), (३) प्रमाद (असावधानता), (४) कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और (५) अशुभ योग (अशुभ प्रवृत्ति)।
जैन दर्शन में कर्म-बन्ध का मुख्य आधार बाह्य क्रियाओं को नहीं, बल्कि भावनाओं को माना गया है। बाहर से क्रिया यदि पाप-मय भी दिखाई देती हो, तदपि उसमें यदि भाव-विशुद्धि है, तो वह चिकने कर्म-बन्धन का कारण नहीं होती। इसके विपरीत यदि भावों में मलिनता है, तो ऊपर से अच्छी प्रतीत होने वाली क्रिया से भी पाप का ही बन्धन होता है। बाह्य क्रिया पुण्य-पाप की सच्ची कसौटी नहीं है। इसका आधार भावनाओं पर है। अत: ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:” कहा गया है। जैनसाहित्य में प्रत्येक कर्म-प्रकृति के बन्ध के कारणों का विस्तार-पूर्वक विवेचन किया गया है। यहाँ उनका विस्तार-भय से उल्लेख नहीं किया जाता है ।
कर्म-बन्ध के कारणों का प्रतिपादन करने के साथ ही साथ कर्मों के चक्कर से छुटकारा पाने के उपायों का भी जैनदर्शन ने स्पष्ट रूप से विवेचन किया है। कर्मबन्धनों से छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि नवीन आते हुए कर्मों को रोकने का प्रयत्न किया जाय और पुराने बँधे हुए कर्मों को ज्ञान, ध्यान, रूप आदि के द्वारा दूर किया जाय। नवीन कर्मों के आगमन को रोकने का नाम ‘‘संवर” है और पुराने कर्मों को नष्ट करने का नाम ‘‘निर्जरा” है । संवर और निर्जरा के द्वारा जब आत्मा कर्म के बन्धनों को तोड़ डालता है, तब वह मुक्त हो जाता है ।
आत्मा को बन्धनों में बाँधने वाले मुख्यत: अज्ञान, राग और द्वेष हैं। इनके कारण ही आत्मा की यह बद्ध-अवस्था है। इन कारणों को दूर कर देने से आत्मा मुक्त हो सकती है। सम्यग्दर्शन (सत्यश्रद्धा) और मोक्षाभिमुख ज्ञान के द्वारा अज्ञान की निवृत्ति हो सकती है और मध्यस्थ भाव के कारण राग-द्वेष का उन्मूलन हो सकता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र ही मोक्ष को प्राप्त करने का राजमार्ग है। सबसे पहले यह श्रद्धा होनी चाहिए कि ‘‘मैंं इन सांसारिक पदार्थों से भिन्न हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप ज्ञानमय, दर्शन-मय सुखमय और शक्तिमय है। ये बाह्य पदार्थ मेरे नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूँ।” इस प्रकार जब आत्मा की वास्तविक प्रतीति होती है, तब सम्यग्दर्शन होता है। सम्यग्दर्शनपूर्वक मोक्षाभिमुख चैतन्य-प्रवृत्ति ही सम्यग्ज्ञान है। शुद्ध-श्रद्धा और शुद्ध-ज्ञान के साथ कल्याण-पथ का अनुसरण करना सम्यक्-चारित्र है। शुद्ध-ज्ञान और शुद्ध क्रियाओं के बल पर यह जीव कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकता है । आत्म-ज्ञान और माध्यस्थ्य-भाव यही मुक्ति के मूल उपाय हैं। ध्यान, व्रत, तप आदि इन्हीं मूल कारणों के पोषक होने से उपादेय हैं।
जो आत्मा जितने अंश में मोह और राग-द्वेष की परिणति को मन्द करता है, वह उतना ही आत्म-स्वरूप के निकट पहुँचता है। इस तरतमता के कारण ही प्राणियों की विकसित या अविकसित अवस्थाएँ होती हैं। आध्यात्मिक विकास-क्रम की अवस्था का जैन-परम्परा में विशद वर्णन है। वह गुणस्थान के रूप में प्रसिद्ध है। जो आत्मा मोह और राग-द्वेष को नष्ट कर डालता है, वह मुक्तात्मा हो जाता है। वह ईश्वर हो जाता है और इस प्रकार वह आत्मा अपने मूल-स्वरूप में अवस्थित हो जाती है । उसमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहने पाता है। कर्मवाद का यह सिद्धान्त यह प्रेरणा करता है कि ‘‘हे आत्माओं! उठो पुरुषार्थ करो, अपने स्वरूप के दर्शन करो और कर्म के बन्धनों को तोड़कर परमात्मा-भाव को प्रकट करो। तुम स्वयं परमात्मा हो। आवश्यकता है उस पर आये हुए आवरण को अपने प्रबल पुरुषार्थ से चीर डालने की।” इस प्रकार कर्म का महान् सिद्धान्त पुरुषार्थ का प्रेरणा देने वाला महामंत्र है ।
कर्मवाद का सिद्धान्त व्यावहारिक जीवन में शान्ति का संचार करने वाला, वैराग्य के घने अन्धकार में प्रकाश की किरण चमका देने वाला और स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाने वाला गुरु भी है। मानव के जीवन में ऐसे भी अनेक प्रसंग आते हैं, जिनमें उसकी बुद्धि विचलित हुए बिना नहीं रहती। हर्ष और शोक के प्रसंगों में मानव क्रमश: उन्मत्त और अधीर हो उठता है। ऐसे प्रसंग पर उसकी बुद्धि को समतोल रखने के लिए कर्म के सिद्धान्त की महती उपयोगिता है। मानव जब यह जान लेता है कि मुझे प्राप्त होने वाला सुख-दुःख मेरे ही शुभाशुभ कार्यों का परिणाम है, मैं ही मेरे शुभाशुभ निर्माण का निर्माता हूँ इसमें किसी दूसरे का हाथ नहीं है, तो उसे एक-प्रकार की शान्ति का अनुभव होता है। सुख के समय में संयम और दुःख के प्रसंग में आश्वासन की सीख देने वाला कर्मवाद ही होता है।
जो आत्मा कर्म-सिद्धान्त के तत्त्व को हृदयंगम कर लेता है, वह कभी अपने को प्राप्त होने वाले दुःख के लिए किसी दूसरे को नहीं कोसता है। वह दूसरे पर कभी आक्षेप नहीं करता है कि इसके कारण मुझे यह हानि उठानी पड़ी या दुःख सहन करना पड़ा, वह अपने दुःख के लिए अपने-आपको उत्तरदायी मानता है। ऐसा करने से आत्म—निरीक्षण करने की प्रेरणा मिलती है और दूसरों पर आक्षेप करने की अनुचित प्रवृत्ति से सहज ही मुक्ति मिलती है।
जब जीवात्मा को यह विश्वास हो जाता है कि मेरा उत्थान और पतन मेरे हाथों में ही है, तब वह एकदम उत्साह और शौर्य से भर जाता है। निराशा का वातावरण दूर हो जाता है और अपने उज्जवल भविष्य का निर्माण करने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। इस निर्माण कार्य में आने वाली विघ्न-बाधाओं के सामने भी वह महान हिमाचल की तरह अडोल रह सकता है। कर्मवाद जीवन में नवीन प्राण फूँक देता है । वह जीवन में ऐसा प्रकाश भर देता है कि वह नवीन रूप में जगमगा उठता है। दुःख और नैराश्य से मुरझाया हुआ पौधा कर्मवाद से नवजीवन प्राप्त कर लह—लहा उठता है। यह है कर्मवाद का व्यावहारिक उपयोग। कर्मवाद जहाँ एक ओर व्यावहारिक शान्ति का मूल है, वहीं वह दूसरी ओर आत्मा को परमात्मा बनने की प्रेरणा करने वाला अनुपम तत्त्व भी है ।