कर्मबंध के पाँच कारण माने गये हैं-‘मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव:’।।१।।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
१. मिथ्यात्व के गृहीत और अगृहीत, ऐसे दो भेद होते हैं।
गृहीत-पर के उपदेश आदि निमित्त से विपरीत बुद्धि का होना। कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु आदि का श्रद्धान करना।
अगृहीत-बिना उपदेश, अनादिकालीन संस्कारवश परवस्तु को अपनी समझना, किसी भी प्रकार की एकान्त बुद्धि रखना आदि। मिथ्यात्व के गृहीत, अगृहीत और सांशयिक, ऐसे तीन भेद भी होते हैं तथा एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान, ऐसे पाँच भेद भी होते हैं।
एकांत-अनेक धर्मात्मक पदार्थ को किसी एक धर्मात्मक मानना, इसको एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं, जैसे-वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है अथवा नित्य ही है, वक्तव्य है अथवा अवक्तव्य ही है इत्यादि।
विपरीत-धर्मादिक के स्वरूप को विपर्ययरूप मानना, जैसे कि हिंसा से स्वर्ग मिलता है।
विनय-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव गुरु शास्त्रों में समान बुद्धि रखना, उन सबका समान विनय नमस्कार आदि करना।
संशय-सच्चे तथा झूठे दोनों प्रकार के पदार्थों में किसी एक पक्ष का निश्चय न होना, जैसे-सग्रन्थ लिंग मोक्ष का साधन है या निर्ग्रन्थ लिंग।
अज्ञान-जीवादि पदार्थों को ‘यही है, इसी प्रकार से है’ इस तरह से विशेषरूप न समझने को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।
विस्तार से मिथ्यात्व के ३६३ भेद भी माने गये हैं तथा जीव के परिणामों की अपेक्षा और अधिक विस्तार करने से असंख्यात लोक प्रमाण तक भेद हो सकते हैं।
द्रव्यकर्म और भावकर्म के भेद से कर्म दो प्रकार का है। शास्त्रों में प्रधानरूप से पुद्गल की पर्याय को द्रव्यकर्म और जीव की पर्याय को भावकर्म कहा गया है। पुद्गल की पर्याय क्रिया—प्रधान और जीव की पर्याय भाव—प्रधान है। इसलिए पुद्गल—वर्गणाओं के आपसी सम्बन्ध से बना स्कन्ध द्रव्यकर्म है और जीव के उपयोग में राग आदि के कारण ज्ञेयों के साथ हुआ बन्ध भावकर्म है। योगों की परिस्पन्द क्रिया के फलस्वरूप द्रव्यकर्म—रूप पुद्गल—स्कन्ध जीव के आत्म प्रदेशों के साथ बँधते हैंं।
वर्गणाभेद की अपेक्षा (पुद्गल की २३ वर्गणाओं में से केवल पाँच वर्गणाएँ आहार—वर्गणा, भाषा—वर्गणा, मनोवर्गणा, तेजोवर्गणा और कार्मण—वर्गणा) ही जीव द्वारा कर्मरूप से ग्रहण करने योग्य हैं। इन्हें जीव—द्रव्य कर्म—रूप से ग्रहण करता और छोड़ता है। इनमें कार्मण—वर्गणा से कार्मण शरीर, तैजस् वर्गणा से तैसज् शरीर और शेष तीन से शरीर, भाषा, श्वासोच्छ्वास, द्रव्यमन आदि बनते हैं। इसे नो—कर्म कहते हैं। इस प्रकार कर्म और नोकर्म,—ये दो भेद हैं। जीव जिस प्रकार योगों द्वारा कार्मणवर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसी प्रकार शरीर—सम्बन्धी नोकर्म वर्गणाओं को भी ग्रहण करता है। इसमें नामकर्म निमित्त होता है।
जीव के उपयोगरूप भावकर्म संकल्परूप होने से गणना करने योग्य नहीं हो पाते, परन्तु स्थूलरूप से भावकर्म को १४ प्रकारों में विभक्त किया गया है—मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और ३ वेद। ये सभी मोह, राग, द्वेष में गर्भित हैं। मिथ्यात्व मोह में, मान—लोभ—हास्य—रति और तीनों वेद आदि सात राग में तथा क्रोध, माया, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा—ये छह द्वेष में समाहित हैं। राग भी शुभ और अशुभ आदि दो प्रकार का है। दान, पूजा, संयम, तप आदि शुभ हैं और हिंसा, झूठ, चोरी आदि अशुभ हैं। शुभ को पुण्यकर्म और अशुभ को पापकर्म कहा जाता है। द्वेष तो सर्वथा अशुभ/पापरूप ही होता है।
भाव से प्रभावित कर्म और कर्म से प्रभावित भाव जैसे—शराब पीने से पीने वाले के शरीर, मन, नाड़ी—तन्त्र, क्रिया—कलाप प्रभावित होते हैं, वैसे ही जीव के योग (आत्म प्रदेशों के कम्पन) एवं उपयोग (भाव—विचार—संवेग—आवेग) से भी कर्म प्रभावित होते हैं। शुभयोग—उपयोग कर्मपरमाणु पुण्य—प्रशस्त—सुखदायक कर्म—रूप में परिणमन करते हैं, तो अशुभ योग–उपयोग से वे ही कर्म–परमाणु पाप—कर्म—रूप (अशुभ—अप्रशस्त—दु:खदायी) से परिणमन कर लेते हैं तथा शुद्धोपयोग (आत्मा के निर्मल परिणाम) से कर्म–परमाणु पुण्य या पाप किसी भी रूप से परिणमन नहीं करते हैं, शुभ—अशुभ और शुद्ध—योग—उपयोग से केवल बँधने वाले नवीन पुद्गल—परमाणुओं में ही परिणमन नहीं होता, अपितु नवीन के साथ—साथ पूर्व—बद्ध कर्म–परमाणुओं में भी परिवर्तन होते हैं, अर्थात् पूर्व—बद्ध—कर्म भी प्रभावित होते हैं। शुद्ध परिणामों से बँधे हुए प्राचीन कर्म—परमाणुओं के बन्धन में शिथिलता (ढीलापन) आती है और उनकी निर्जरा या क्षय हो जाता है। इस सिद्धान्त को मनोविज्ञान, शरीरविज्ञान, चिकित्सा—विज्ञान, जीनोमथ्योरी, विधिकानून आदि भी स्वीकार करते हैं तथा अनुभव में भी आता है। देखिये—
शरीर विज्ञान के अनुसार अच्छे भावों से शरीर—ग्रंथियों से स्रवित—रस बड़ा गुणकारी होता है और दूषित भावों से स्रवित रस हानिकारक होता है। प्रेम एवं वात्सल्य भाव से पिलाया गया माँ का दूध अमृत—तुल्य प्रभावक होता है और दूषित परिणामों से वही दूध विष—तुल्य बन जाता है। इसी प्रकार आत्म–विश्वास व अनुकूल सद्विचार आदि अच्छे परिणामों से रोग—प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है और रोग शीघ्र दूर होते हैं। इसके विपरीत आत्म–विश्वास की कमी प्रतिकूल विचार आदि से प्रतिरोधक शक्ति घटती है और रोग शीघ्र दूर नहीं होते। दुश्चिन्ता, क्रोध, ईर्ष्या, तनाव, आवेग, उद्वेग आदि दूषित भावों से विभिन्न शारीरिक, मानसिक रोग होते हैं तथा दया, सेवा, परोपकार, क्षमा, नम्रता, सरलता और सद्विचारों से प्राय: आधि—व्याधि नहीं होती, रोग—प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है, श्वेत—रक्त कणिकाओं में वृद्धि होती है, आभा—मंडल उद्दीप्त होता है।
जीनोमथ्योरी के अनुसार—जीनों की विविधतानुसार भाव, रोग, अंग–उपांग होते हैं। जीव परिवर्तन के साथ जीन—सम्बन्धी भाव आदि में भी परिवर्तन करता हुआ पुन: दोष न करने की प्रतिज्ञा लेता है, उसके भावों में निर्मलता आती है, तनाव दूर होता है। गुरु भी उसे दोष—मुक्त कर कम दण्ड देते हैं। अमूर्तिक सूक्ष्म भावों में बाहर के जड़ तथा चेतन पदार्थों को प्रभावित करने की विचित्र सामर्थ्य होती है, यह इससे स्पष्ट होता है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग,—ये ५ बन्ध के कारण शास्त्रों में कहे गऐ हैं। कषाय—सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गल स्कन्धों का जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है। बन्ध के योग्य सूक्ष्म अनन्त—अनन्त पुद्गल वर्गणाएँ लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित हैं। काजल की डिब्बी की भाँति ये सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त हैं। अत: ये जीव के आत्म—प्रदेशों में भी स्थित हैं। बन्ध—योग्य इन वर्गणाओं को ‘‘विस्रसोपचय’’ कहते हैं। जीव के राग—द्वेषादि भावों का निमित्त पाकर ये ही द्रव्य—कर्म और नो—कर्मरूप से परिणत हो जाती हैंं द्रव्यकर्मरूप कार्मणवर्गणाएँ आत्म—प्रदेशों पर एकक्षेत्रावगाही द्रव्य से स्थित होकर एक सूक्ष्म शरीर की रचना करती हैं, जिसे ‘कार्मण शरीर’ कहते हैं। यही संसारी जीव का मूलभूत शरीर है, जो जीव की एक पर्याय समाप्त होने पर भी जीव का साथ नहीं छोड़ता। अनादिकाल से ही यह जीव के साथ बँधा चला आ रहा है। इसमें यद्यपि प्रतिक्षण कुछ पुराने कर्मप्रदेश झड़ते हैं और कुछ नये प्रदेश जुड़ते चले आते हैं, तो भी संतान क्रम से यह ध्रुव बना रहा है। जीव के बाह्य शरीरों का और रागादि भावों का प्रेरक यही जो कार्मण शरीर है, उसके पूर्णनाश/क्षय होने पर ही मुक्ति होती है। मुमुक्षु साधक इसी को पाने के लिए सतत् साधना—रत रहते हैं। मुक्त जीव फिर कर्म—बन्धन में नहीं पड़ते। जैसे—घी फिर दूध नहीं बनता।
बन्ध—भेद—प्रकृति बन्ध, स्थिति—बन्ध, अनुभाग–बन्ध और प्रदेश—बन्ध के भेद से बन्ध चार प्रकार का है।
(क) प्रकृति बन्ध—आत्मा के सम्बन्ध को पाकर कर्मों के स्वभावों को प्रकट होना प्रकृति–बन्ध है; प्रकृति अर्थात् स्वभाव। जैसे–नीम का स्वभाव कड़वा और ईख का स्वभाव मीठा। जीव का स्वभाव जानना—देखना और पुद्गल का स्वभाव रूप—रसादि है। जैसा—जैसा चित्र–विचित्र योग तथा उपयोग यह जीव करता है, वैसा—वैसा विचित्र स्वभाव इस कार्मण शरीर में पड़ जाता है। जैसे–यह शरीर चलने—बोलने, देखने—सुनने आदि विभिन्न प्रकृतियों (स्वभावों) को पाकर अनेक अंगोपांग वाला हो जाता है, वैसे ही यह एक कार्मण—शरीर भी विभिन्न स्वभावों को पाकर अनेक भेदों वाला हो जाता है। इस तरह द्रव्यकर्म की ज्ञानावरणादि ८ मूल प्रकृतियाँ और १४८ उत्तर प्रकृतियाँ कर्म–सिद्धान्त के शास्त्रों में कही गई हैं।
कर्म की आठ प्रकृतियाँ और उनका स्वभाव—
(१) ज्ञानावरण—जो ज्ञान को ढके, वह ज्ञानावरण; इसका स्वभाव देवता के मुख पर वस्त्र जैसा है। देवता—विशेष के मुख पर पड़ा वस्त्र उस देवता—विशेष के ज्ञान होने में बाधक बनता है।
(२) दर्शनावरण—जो वस्तु को नहीं देखने देवे, वह दर्शनावरण; जैसे–प्रतिहार अर्थात् राजद्वार पर बैठा पहरेदार। यह राजा को देखने (मिलने) से रोकता है। इसी तरह दर्शनावरण वस्तु का दर्शन नहीं होने देता।
(३) वेदनीय—सुख—दु:ख का वेदन/अनुभव कराता है, वह वेदनीय, इसका स्वभाव शहद लपेटी तलवार की तरह है, जिसे चखने पर कुछ सुख मिलता है, पर जीभ के कटने से अत्यन्त दु:ख होता है। इसी तरह साता—असाता वेदनीय कर्म सुख—दु:ख को उत्पन्न करते और उनका अनुभव कराते हैं।
(४) मोहनीय—मोहित/अचेत करना। इसका स्वभाव मदिरा जैसा होता है। मद्य अर्थात् मदिरा शराबी को मदहोश/अचेत/असावधान कर देती है। उसे अपने स्वरूप का/अपने आप का कुछ भी विचार नहीं रहता। इसी तरह मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित/बेभान बना देता है, जिससे उसे अपने स्वरूप का विचार/बोध ही नहीं हो पाता।
(५) आयुकर्म—जो पर्याय धारण करने के निमित्त प्राप्त हो अर्थात् जो किसी पर्यायविशेष में रोके रखे। इसका स्वभाव लोहे की साँकल या काठ के यंत्र की तरह है। जैसे—साँकल या काठयंत्र पुरुष को अपने स्थान में ही रोके रखते हैं, अन्यत्र नहीं जाने देते, वैसे ही आयुकर्म मनुष्यादि पर्यायों में रोके रखता है। आयु—समाप्ति के पूर्व अन्य पर्याय में नहीं जाने देता।
(६) नामकर्म—जो नाना तरह के चित्र बनाता है, उसी तरह नामकर्म जीव के नाना रूपों का निर्माण करता है।
(७) गोत्रकर्म—ऊँच—नीचपने को प्राप्त करना। इसका स्वभाव कुम्हार के समान है। जैसे—कुम्हार मिट्टी के छोटे—बड़े बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्र—कर्म ऊँच—नीच गोत्रों में जन्म कराता है। जीव की ऊँच नीच अवस्था बनाता है।
(८) अन्तराय—जो अन्तर/व्यवधान बाधा पैदा करे, वह अन्तराय कर्म है। इसका स्वभाव भंडारी (खजांची) की तरह है। जैसे—भंडारी दूसरे को दान देने में विघ्न करता है, वैसे ही अन्तराय कर्म दान—लाभ आदि में बाधा उपस्थित करता है।
घाती—अघाती प्रकृतियाँ—जीव में दो प्रकार के विकार होते हैं—(१) द्रव्य—प्रदेश—विकार, और (२) भाव—विकार।
१. प्रदेश—विकार अर्थात् बाह्य संयोग—वियोग। जैसे—जीव का शरीर काला—गोरा, दुबला—पतला या छोटा—बड़ा होना। भाव विकार से तात्पर्य है जीव के राग—द्वेष मोह—भावों का होना, ज्ञान की हानि—वृद्धि होना। जीव के अन्तरंग/शुद्धभाव मुख्यत: ज्ञान—दर्शन सुख—वीर्य हैं। घाती—कर्म जीव के इन्हीं गुणों को प्रकट नहीं होने देते। ये जीव के भावों को आच्छादित/विकृत करते हैं। अत: ये घातिया कहलाते हैं। उल्लिखित कर्म की ८ मूल प्रकृतियों में से चार—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय घातिया कर्म हैं। ये भी सर्वघाती और देशघाती के भेद से दो प्रकार की हैं। कर्मों की कुल १४८ प्रकृतियों में से सर्व—घाती २० और देशघाती २६ उत्तर प्रकृतियाँ हैं।
२. जीव के यदि मोह—मिथ्या नहीं हैं, तो उसके प्रदेश—विकारों का/बाह्य संयोग—वियोगरूप द्रव्य विकारों का उसके शुद्ध स्वभाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे—अरिहन्त अवस्था में अघातिया कर्मों के रहते हुए भी उनके ज्ञानादि गुणों का घात नहीं होता। अघाती कर्मों के रहते हुए भी जीव के राग—द्वेषात्मक भाव विकार नहीं होते, जीव के स्वाभाविक गुणों का घात नहीं होता। इसलिए ये अघातिया कहे जाते हैं। ये मूलत: चार हैं—वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म। अघातिया कर्मों के भी दो भेद हैं—१. प्रशस्त (पुण्यरूप) और २. अप्रशस्त (पापरूप) प्रकृतियां। प्रशस्त—प्रकृतियों की संख्या भेद की विवक्षा से ६८ और अभेद विवक्षा से ४२ हैं। अप्रशस्त प्रकृतियों की संख्या भेद—विवक्षा से बन्ध रूप ९८ और उदय रूप १०० हैं तथा अभेद विवक्षा से बंध योग्य ८२ और उदययोग्य ८४ प्रकृतियाँ हैं। ५ वर्ण, ५ रस, २ गंध, ८ स्पर्श आदि—ये २० प्रकृतियाँ प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों रूप में होती हैं। अत: इनकी गणना दोनों में होती है।
वेदनीय को अघातिया कर्मों में गिनाया गया है, परन्तु यह सर्वथा अघातिया नहीं हैं। मोहनीयकर्म के सद्भाव में यह सुख—दु:ख का (साता—असाता) का तीव्र वेदन कराती हैं। अत: वेदनीय की मूल प्रवृत्ति अघातिया होते हुए भी घातियावत् मानी गई है। यह मोही जीवों को ही सुख—दु:ख का वेदन कराती है, निर्मोही वीतरागी साधकों को नहीं।
(ख) स्थिति बन्ध—जीव के रागादि भावों के निमित्त से कार्मण—वर्गणाओं का ज्ञानावरणादि ८ मूल प्रकृतियों के रूप में परिणमन हो जाने के बाद जितनी अवधि तक वह जीव के आत्म—प्रदेशों के साथ बद्धरूप से टिकी रहे, उतना काल उस बन्ध की स्थिति का कहलाता है। अर्थात् बद्धकर्म में स्थिति/कालावधि का निश्चित होना स्थितिबन्ध है। जघन्य स्थिति में लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक इसके अनेक भेद हैं। सबसे जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की है। प्रत्येक कर्मप्रकृति की जघन्य, उत्कृष्ट अथवा मध्यम बन्ध—रूप स्थिति अवश्य होती है। दर्शनमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा—कोड़ी सागर की है। आठों कर्मों की स्थिति में यह सर्वोत्कृष्ट है। चारित्रमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ा—कोड़ी सागर की है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर है। नाम और गोत्रकर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ा—कोड़ी सागर है तथा आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरमात्र है। वेदनीय की जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त, नाम और गोत्र कर्मों की जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त तथा शेष सभी कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
बन्ध—सत्त्व—उदय—निर्जरा—बद्ध कर्म—विशेष बन्ध की स्थिति के काल से लेकर जितने काल तक बिना फल दिए बेकार—सा पड़ा रहता है, उसे ‘‘कर्म की सत्ता’’ कहा जाता है; परन्तु बन्ध स्थिति—काल के पूरा होने पर वह कर्म फलोन्मुख होता है, जीव के भावों पर अपना प्रभाव डालने के लिए तत्पर होता है, तो यह उसका परिपाक या उदयकाल कहलाता है। स्थिति—काल का अन्तिम क्षण ही वस्तुत: उदय—काल का प्रारम्भ है, क्योंकि उस क्षण में वह फल देकर उत्तरवर्ती क्षण में ही वह आत्म—प्रदेशों से छूटकर पुन: कार्मण वर्गणाओं में मिल जाता है। इसे ही कर्मों का झड़ना या निर्जरा कहा जाता है।
निषेक रचना—समय—समय में जो कर्म खिरैं, उनके समूह को निषेक कहते हैं। कर्मों की स्थिति में निषेकों की रचना होती है। किसी एक समय में बँधा हुआ कर्म—वर्गणाओं का समूह ‘‘एक समय प्रबद्ध’’ कहलाता है, इसमें आठों कर्म—प्रकृतियों के कार्मण—स्कन्ध शामिल रहते हैं। प्रत्येक प्रकृति के स्कन्ध में अनन्तों कार्मण—वर्गणाएँ होती हैं, जो समान स्थिति वाली नहीं होतीं। कुछ की स्थिति सबसे—कम होती है, कुछ वर्गणाओं की स्थिति सबसे—अधिक होती है। यही उस विवक्षित कर्म की सामान्य स्थिति कही जाती हैं
कर्मविशेष की विवक्षित स्थिति के समयों को ईटों की भाँति नीचे—ऊपर क्रम से स्थापित करके एक—समय—प्रबद्ध की एक—एक प्रकृति के द्रव्य को वर्गणाओं में विभाजित कर उन क्रमबद्ध समयों पर नीचे से ऊपर की ओर स्थापित करें। सबसे अधिक वर्गणाएँ उसके ऊपर दूसरे समय पर स्थापित करें। उससे कुछ कम तीसरे समय पर रखें। इस प्रकार हानि क्रम से प्रत्येक समय पर कुछ—कुछ वर्गणाएँ रखते जाएँ। सबसे ऊपर अन्तिम समय पर सबसे कम अन्तिम शेष भाग रखकर उस विवक्षित द्रव्य को समाप्त वâरें। इस प्रकार एक—एक समय पर स्थापित वर्गणाओं का पिण्ड ही उस—उस समय का निषेक होता है।
उदय—सत्तारूप से निश्चेष्ट पड़ा कर्म जब फलोन्मुख होता है, तब वह उदय में आया कहा जाता है, परन्तु उदयोन्मुख होने पर भी नींद से उठे व्यक्ति की खुमारी की तरह वह कर्म कुछ काल तक फल देने में समर्थ नहीं हो पाता, उतने काल को शास्त्रों में ‘‘आबाधा—काल’’ कहा जाता है। इस आबाधाकाल की समाप्ति पर अनन्तरवर्ती क्षण से ही उदय काल प्रारंभ हो जाता है।
एक समय प्रबद्ध कर्म का सारा द्रव्य एक ही बार फल देकर नहीं खिरता, अपितु उपर्युक्त निषेक रचना के अनुसार प्रति—समय क्रम से एक—एक निषेक उदय में आकर फल देकर खिरता है। इस क्रम से खिरते हुए अन्तिम समय पर स्थित अन्तिम निषेक उदय में आकर झड़ जाता है। इस प्रकार खिरते हुए जितने समयों में कुल द्रव्य खिर जाता है, वह उस विवक्षित कर्म की सामान्य स्थिति कही जाती है तथा जितने—जितने काल के पश्चात् जो—जो निषेक खिरता है, उतने—उतने काल—प्रमाण उस निषेक की ‘‘विशेष—स्थिति’’ कहलाती है। यह विशेष स्थिति एक विवक्षित निषेक की अपेक्षा केवल एक सूक्ष्म समय प्रमाण होती है। उदय—गत निषेक के अलावा आगामी समयों पर स्थित निषेक ‘‘सत्तागत निषेक’’ कहलाते हैं। उदय में आने पर ही ये अपना अच्छा या बुरा फल देते हैं।
(ग) अनुभाग बन्ध—‘‘विपाकोऽनुभव:’’ बद्धकर्म का परिपाक होना, उसमें फलदान शक्ति का पड़ना ‘‘अनुभाग—बन्ध’’ है। दूसरे शब्दों में कर्म की फलदान—शक्ति की तारतम्यता का नाम अनुभाग है, जो भावात्मक होता है। इसलिए इसका माप ‘‘अविभागप्रतिच्छेद’’ से किया जाता है। आज की भाषा में अनुभाग प्रतिच्छेद को ‘‘डिग्री’’ कह सकते हैं। ताप का माप डिग्री में किया जाता है। शक्ति अंश या भावनात्मक यूनिट का नाम अविभाग प्रतिच्छेद है।
प्रकृति और अनुभाग में अन्तर है। प्रकृति कर्म के स्वभाव को बतलाती है, जबकि अनुभाग कर्म की तीव्र या मन्द फलदान शक्ति को (रस की मात्रा को) बता जाता है। प्रकृति सामान्य है और अनुभव उसका विशेष है। जैसे—आम की प्रकृति सामान्यत: उसका मीठापन (मिठास) है, परन्तु वह कितना मीठा है ? ….. कम या अधिक ? यह उसका अनुभाग है, इसी प्रकार दूध भी सभी समान प्रकृति वाले होते हैं, परन्तु भैंस के दूध में गाय की अपेक्षा ज्यादा चिकनाहट होती है और बकरी के दूध में उससे कम। इसी तरह बद्धकर्म में फलदान शक्ति की तारतम्यता का नाम ‘अनुभाग’ है।
राग—द्वेषात्मक भावकर्म की तीव्रता और मन्दता के अनुसार ही कर्मों में फल—दान की शक्ति पड़ती है। अधिक तीव्रता वाले भावकर्म से अधिक अनुभाग वाले द्रव्यकर्म का बन्ध होता है और हीन या मन्द कषाय वाले भावकर्म से हीन अनुभाग युक्त द्रव्यकर्म का बन्ध होता है। यह अनुभाग बंध ही जीव के गुणों के विकास में बाधक है, प्रकृति नहीं।
घातिया कर्मों की फल देने की शक्ति—लता काठ, हड्डी और पत्थर के समान है। इनमें जैसा क्रम से अधिक—अधिक कठोरपना है, वैसा ही इनके अनुभाग में होता है। दारू भाग के अनन्तवें भाग तक शक्ति—रूप—स्पर्द्धक देश— घाती हैं और शेष बहुभाग से लेकर शैल—भाग तक के स्पर्द्धक सर्व—घाती हैं। इनके उदय होने पर आत्मा के गुण प्रकट नहीं होते। अघातिया कर्मों में प्रशस्त प्रकृतियों के शक्ति—भेद—गुड़, खांड, मिश्री और अमृत के समान उत्तरोत्तर मीठापन लिए हुए हैं। अप्रशस्त प्रकृतियों के शक्ति—भेद-नीबू, कांजीर विष और हालाहल के समान जानना चाहिए अर्थात् सांसारिक सुख—दुख के कारण दोनों ही पुण्य—पाप कर्म प्रकृतियों की शक्तियों को चार—चार तरह से तारतम्य—रूप से समझना अपेक्षित है।
(घ) प्रदेशबन्ध—बद्ध कर्म—स्कन्ध में स्थित परमाणुओं की संख्या प्रदेश—बन्ध है। इससे बद्ध कर्म के प्रदेशों का बोध होता है। द्रव्यकर्म की प्रत्येक प्रकृति में जितने कर्म परमाणु बन्ध को प्राप्त होते हैं, उन्हें उस कर्म—प्रकृति का प्रदेश बन्ध कहते हैं। एक समय—प्रबद्ध की तो बात ही क्या है, एक—एक निषेक में भी अनन्तानन्त प्रदेश होते हैं। आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि प्रति—समय योगविशेष से कर्मप्रकृतियों के कारणभूत एक क्षेत्रावगाहीरूप से स्थित सूक्ष्म अनन्तानन्त पुद्गल—परमाणु सब ओर से आत्म—प्रदेशों में सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि प्रदेश बन्ध से जीव को कोई हानि या लाभ नहीं होता, क्योंकि कम प्रदेश हो या अधिक प्रदेश हो, फल तो तीव्र या मन्द अनुभाग का ही होता है, प्रदेश संख्या का नहीं।
समय—प्रबद्ध का ८ कर्म—प्रकृतियों में बँटवारा—एक समय में ग्रहण किया हुआ समय—प्रबद्ध ८ मूल—प्रकृति—रूप परिणमता है। सभी मूल—प्रकृतियों में आयु कर्म का हिस्सा सबसे थोड़ा है। नामकर्म और गोत्रकर्म का भाग आपस में बराबर होता है, पर आयुकर्म से अधिक होता है। अन्तराय, दर्शनावरण और ज्ञानावरण इत्यादि इन तीनों का भाग भी आपस में समान है, तो भी नाम और गोत्रकर्मों से अधिक है। इससे भी अधिक मोहनीय कर्म का हिस्सा है तथा मोहनीय से भी अधिक भाग वेदनीय कर्म का रहता है। चूँकि वेदनीय कर्म सुख—दु:ख का कारण है। अत: इसकी निर्जरा अधिक होती है। इसी से द्रव्यकर्म का सबसे अधिक भाग इस वेदनीय कर्म के खाते में जाता है। बाकी सब मूल प्रकृतियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार बँटवारा होता है। जिसकी स्थिति अधिव्ाâ होती है, उसे अधिक हिस्सा, जिसकी स्थिति कम होती है, उसे कम हिस्सा तथा समान स्थिति वाले को समान द्रव्य हिस्से में आता है।
उपर्युक्त चारों में से प्रकृति और प्रदेश—बन्ध जीव के योगों के द्वारा होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग—बन्ध कषाय—रंजित उपयोग द्वारा होते हैं। इन चारों में स्थिति और अनुभाग बन्ध ही घातक हैं। इन्हें रोकने के लिए आत्म—हितैषियों को सतत सावधान रहना चाहिए।
ये चारों प्रकार के बन्धों के कार्य—द्रव्यकर्म के बन्ध, उदय आदि कार्य सहज स्वभाव से ही निमित्त—नैमित्तिक भाव के द्वारा निष्पन्न होते रहते हैं। इनका कोई संचालक, दिशा—निर्देश या नियन्त्रण कर्ता नहीं है। संसार के सारे क्रिया—कलाप अपने आप कर्मसिद्धान्तानुसार संचालित होते रहते हैं। इन कार्यों के निष्पादन के लिए किसी भी नियन्ता की आवश्यकता नहीं होती। जब तक द्रव्यकर्म और भावकर्म का निमित्त—नैमित्तिक संबंध रहेगा, तब तक संसार इसी भाँति चलता रहेगा। भावों की शुद्धिपूर्वक साधनारत रहकर संसार का अन्त किया जा सकता है।
उपर्युक्त चारों बंधों में स्थिति और अनुभाग बन्ध ही जीव के लिए हानिकारक और बाधक हैं, प्रकृति और प्रदेशबन्ध नहीं, क्योंकि कम अनुभाग वाले अधिक प्रदेशों का उदय जीव को थोड़ी ही बाधा पहुँचाता है, जबकि अधिक अनुभाग वाले थोड़े भी प्रदेशों का उदय अधिक हानि पहुँचा सकता है। जैसे—खौलते हुए जल की एक कटोरी भी देह में फोड़े और जलन पैदा कर देती है, जबकि कम गरम जल की एक बाल्टी भी व्यक्ति को उतनी या कोई हानि नहीं पहुँचाती। अत: कर्म—सिद्धान्त में सर्वत्र स्थिति और अनुभाग के बंध, उदय, उत्कर्षण आदि ही मुख्य हैं, प्रकृति बंध और प्रदेश बंध नहीं।
कर्म जड़ हैं, निर्बल हैं। जीव चेतन है, सबल है, अनन्त शक्ति सम्पन्न है, परन्तु अनादिकाल से कर्मो की संगति से दुर्गतियों के दु:खों को भोग रहा है। ‘‘कर्म विचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घनघात, लोह की संगति पाई।।’’
विश्व—वैविध्य का वैज्ञानिक तर्क—पूर्ण समुचित समाधान—कारक, संसार—संचरण का सटीक, सरल, बोध—गम्य व्याख्या कारक, कर्म—बन्ध—प्रक्रिया और उससे मुक्ति हेतु मोक्षमार्ग का प्रेरक, ईश्वर कर्तृत्ववाद, भाग्यवाद, नियतिवाद—जैसी मिथ्या, भ्रान्त एवं एकान्त मान्यताओं का सयुक्तिक निराकरणकर्ता, कर्मविषयक सत्य तथ्यों का उद्घाटक जीवकर्म के अनादिसम्बन्ध का उद्घोषक, सच्चे सुख—शान्ति के सन्मार्ग का प्रकाशक, आत्मा की अनन्त शक्तियों के उद्घाटन का प्रेरक, थर्मामीटर की भाँति जीव के ऊँच—नीच भावों / परिणामों का अच्छा परिचायक, जीव और कर्म दोनों की स्वतन्त्र सत्ता का दिग्दर्शक, जैन सिद्धान्त और तत्त्वज्ञान में सुदृढ़ आस्था का कारक, जीव को स्वयं के सुख—दु:ख का कर्ता–भोक्ता— हर्ता का शुभ सन्देश देकर/बोध कराके सन्तोषी स्वावलम्बी और आत्मनियन्ता बनने की प्रेरणा देने वाला जैनाभिमत यह कर्म—सिद्धान्त जीवन और दृश्य जगत् के अनेक रहस्यों का उद्घाटन कर चिन्तकों को चमत्कृत करता है।