जिनके द्वारा आत्मा को परतंत्र किया जाये, उसे कर्म कहते हैं। जीव और कर्म का अनादिकाल से संंबंध है और इन दोनों का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है।
जीव कर्म को कैसे ग्रहण करता है?-यह जीव शरीर नामकर्म से सहित होकर कर्म और नोकर्म वर्गणाओं को प्रति समय सम्पूर्ण तथा चारों तरफ से ग्रहण करता है जैसे कि अग्नि से तपा हुआ लोहे का गोला पानी को सब ओर से अपनी तरफ खींचता है।
एक समय में कितने पुद्गल परमाणु कर्मरूप होते हैं?-यह जीव एक समय में सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग और अभव्य राशि के अनन्तगुणे, ऐसे अनंत पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है। एक समय में ग्रहण करने से ‘समयप्रबद्ध’ कहते हैं। यह सामान्य कथन है। योगों से कुछ विसदृशता भी हो जाती है।
एक समय में कितने कर्म खिरते हैं-एक-एक समय में कर्म परमाणु एक-एक समयप्रबद्ध फल देकर खिर जाया करते हैं। कदाचित् कुछ तपश्चरण आदि के निमित्त से अनेक समयप्रबद्ध भी एक समय में झड़ जाया करते हैं। फिर भी कुछ कम डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्ध कर्म सत्ता में अवस्थित रहा ही करते हैं।
कर्म कितने हैं?-सामान्यपने से कर्म एक है, उसमें भेद नहीं है। द्रव्य-भाव के भेद से दो भेद हैं। उसमें ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल द्रव्य का पिण्ड ‘द्रव्यकर्म’ है और द्रव्यपिण्ड में फल देने की जो शक्ति है वह ‘भावकर्म’ है अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुए जो अज्ञानादि व क्रोधादिरूप परिणाम हैं, वे भी भावकर्म हैं।
कर्म के सामान्य से आठ भेद हैं अथवा एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोकप्रमाण भी उसके भेद होते हैं।
उन आठ कर्मों के घातिया और अघातिया से दो भेद हैं।
आठ कर्म के नाम-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। घातिकर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। अघातिकर्म-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र।
घातिया कर्म का लक्षण-जो जीव के केवलज्ञान आदि क्षायिकभाव और क्षायोपशमिक भावों का घात करे।
अघाति कर्म का लक्षण-जो जीव के गुणों का पूर्णतया घात न करे।
ज्ञानावरण-जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढके-प्रकट न होने दे, जैसे-देवता के मुख पर पड़ा हुआ वस्त्र।
दर्शनावरण-जो आत्मा का दर्शन न होने दे, जैसे-राजा का पहरेदार।
वेदनीय-जो जीव को सुख-दु:ख का वेदन-अनुभव करावे, जैसे-शहद लपेटी तलवार की धार।
मोहनीय-जो आत्मा को मोहित-अचेतन करे, जैसे-मदिरापान।
आयु-जो जीव को उस-उस स्थान में-पर्याय में रोक रखे, जैसे-सांकल अथवा काठ का यंत्र।
नामकर्म-जो अनेक तरह के शरीर की रचना करे, जैसे-चित्रकार।
गोत्रकर्म-जो ऊँच-नीचपने को प्राप्त करावे, जैसे-कुम्भकार।
अन्तराय-जो दाता और पात्र में अन्तर-व्यवधान करे, जैसे-भंडारी दूसरे के लिए दान देते समय राजा को रोक देता है।
आठ कर्मों के उत्तर भेद-ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ९३, गोत्र के २ और अन्तराय के ५, ऐसे कुल ५+९+२+२८+४+९३+२+५=१४८ भेद होते हैं।
मतिज्ञानावरण-जो जीव के मतिज्ञान को आवृत करे-ढके।
श्रुतज्ञानावरण-जो श्रुतज्ञान का आवरण करे।
अवधिज्ञानावरण-जो अवधिज्ञान का आवरण करे।
मन:पर्ययज्ञानावरण-जो मन:पर्यय ज्ञान का आवरण करे।
केवलज्ञानावरण-जो जीव के पूर्णज्ञान को प्रकट न होने दे।
१. चक्षुदर्शनावरण-जो चक्षु से दर्शन नहीं होने देवे।
२. अचक्षुदर्शनावरण-जो नेत्र के सिवाय दूसरी चारों इन्द्रियों से सामान्यावलोकन नहीं होने देवे।
३. अवधिदर्शनावरण-जो अवधि द्वारा दर्शन न होने देवे।
४. केवलदर्शनावरण-जो त्रिकाल में रहने वाले सब पदार्थों के दर्शन का आवरण करे।
५. निद्रा-जिसके उदय से मद, खेद आदि दूर करने के लिए केवल सोना हो।
६. निद्रानिद्रा-जिसके उदय से, गहरी निद्रा से आँख की पलक नहीं उघाड़ सके।
७. प्रचला-जिसके उदय से शरीर की क्रिया आत्मा को चलावे, निद्रा में कुछ काम करे, उसकी याद भी रहे।
८. प्रचलाप्रचला-जिसके उदय से मुख से लार बहती रहे, हाथ वगैरह अंग चलते रहें।
९. स्त्यानगृद्धि-जिसका उदय होने पर यह जीव नींद में ही उठकर बहुत पराक्रम का तो काम करे, परन्तु जाग्रत होने पर उसे भान नहीं रहे कि क्या किया था, उसे स्त्यानगृद्धि निद्रा कहते हैं।
सातावेदनीय-जिसके उदय से देवादि गति में जीव को शारीरिक तथा मानसिक सुखों की प्राप्तिरूप साता का वेदन-अनुभव होवे, उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं।
असातावेदनीय-जिसके उदय से अनेक प्रकार के नरकादि गति के दु:खों का अनुभव होवे, वह असातावेदनीय कर्म कहलाता है।
मोहनीय के मूल में दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय।
दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति।
मिथ्यात्वकर्म-जिसके उदय से मिथ्या श्रद्धान हो, सर्वज्ञकथित वस्तु के यथार्थ स्वरूप में रुचि न हो।
सम्यक्मिथ्यात्व-जिसके उदय से परिणामों में वस्तु का यथार्थ श्रद्धान और अयथार्थ श्रद्धान दोनों ही मिले हुए हों।
सम्यक्त्वप्रकृति-जिसके उदय से जीव के सम्यक्त्व गुण का घात तो न हो परन्तु परिणामों में चल, मलिन दोष आ जावें, उसे सम्यक्त्वप्रकृति कहते हैं। यह प्रकृति मिथ्यात्व प्रकृति का कुछ धुला हुआ अंश है।
चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-कषाय वेदनीय, नोकषाय वेदनीय।
कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इनके क्रोध, मान, माया और लोभ, ऐसे चार-चार भेद कर देने से सोलह भेद हो जाते हैं।
अनन्तानुबंधी क्रोध-अनन्त नाम संसार का है और उसका जो कारण है, वह अनन्तानुबंधी है, जिसके उदय से अनन्त संसार के लिए कारणभूत क्रोध उत्पन्न होवे, वह अनन्तानुबंधी क्रोध है।
अनन्तानुबंधी मान-जिसके उदय से अनन्त संसार के लिए कारणभूत मान कषाय उत्पन्न होवे।
अनन्तानुबंधी माया-जिसके उदय से विशेष मायाचार प्रवृत्ति हो।
अनन्तानुबंधी लोभ-जिसके उदय से तीव्र लोभ बना रहे। यह अनन्तानुबंधी कषाय सम्यक्त्वगुण का घात करती है।
अप्रत्याख्यानावरण-जो ‘अ’ अर्थात् ‘ईषत्’-थोड़े से भी प्रत्याख्यान-त्याग को न होने देवे-एकदेशव्रत को भी न होने देवे, उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। यह कषाय जीव के अणुव्रतों को नहीं होने देती। इसके भी क्रोध, मान आदि चारों भेद घटित कर लेना चाहिए।
प्रत्याख्यानावरण-जिसके उदय से प्रत्याख्यान-पूर्ण त्याग का आवरण हो, महाव्रत नहीं हो सकें। इसके भी क्रोध आदि चारों भेद होते हैं।
संज्वलन-जिसके उदय से ‘सं’ एकरूप होकर ‘ज्वलति’-प्रकाश करे, जिसके उदय से कषाय अंश से मिला हुआ संयम रहे। कषाय रहित निर्मल यथाख्यात संयम न हो सके। इसमें भी क्रोध आदि चारों भेद होते हैं, इस प्रकार से कषाय वेदनीय के १६ भेद कहे।
नोकषाय वेदनीय-जो ‘नो’ ईषत्-थोड़ा हो-प्रबल न हो, उसे नोकषाय कहते हैं, इसके ९ भेद होते हैं।
हास्य-जिसके उदय से हास्य प्रकट हो।
रति-जिसके उदय से देश, धन, पुत्रादि में विशेष प्रीति हो।
अरति-जिसके उदय से देश आदि में अप्रीति हो।
शोक-जिसके उदय से इष्ट के वियोग होने पर क्लेश हो।
भय-जिसके उदय से उद्वेग हो।
जुगुुप्सा-जिसके उदय से ग्लानि या अपने दोष को ढंकना और दूसरे के दोष को प्रकट करना हो।
स्त्रीवेद-जिसके उदय से स्त्री संबंधी भाव, मायाचार की अधिकता, नेत्र विभ्रम आदि द्वारा पुरुष के साथ रमने की इच्छा हो।
पुरुषवेद-जिसके उदय से स्त्री में रमण की इच्छा आदि परिणाम हों।
नपुंसकवेद-जिसके उदय से स्त्री-पुरुष दोनों में रमण करने की इच्छा आदि मिश्रित भाव हों।
इस तरह से नव नोकषाय और सोलह कषाय मिलकर पच्चीस भेद चारित्र मोहनीय के और तीन दर्शन मोहनीय के सब मिलकर मोहनीय के अट्ठाइस भेद हो जाते हैं।
नरकायु-जो आत्मा को नरक शरीर में रोक रखे।
तिर्यञ्चायु-जो आत्मा को तिर्यञ्च पर्याय में रोक रखे।
मनुष्यायु-जो आत्मा को मनुष्य शरीर में रोक रखे।
देवायु-जो आत्मा को देव शरीर में रोक रखे।
गतिनामकर्म-जिसके उदय से यह जीव एक पर्याय से दूसरी पर्याय को ‘गच्छति’ प्राप्त हो, वह गति नामकर्म है। उसके चार भेद हैं-जिसके उदय से जीव नारकी के आकार, तिर्यंच शरीराकार, मनुष्य शरीराकार हो, उसे क्रम से नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति तथा देवगति कहते हैं।
जाति नामकर्म-जो उन गतियों में अव्यभिचारी-सदृश धर्म से जीवों को इकट्ठा करे। एकेन्द्री, दोइन्द्री आदि जीव समान स्वरूप होकर आपस में एक-दूसरे से मिलते नहीं, यह तो अव्यभिचारीपना और एकेन्द्रियपना सब एकेन्द्रियों में सदृश है यह हुआ सदृशपना, यह अव्यभिचारी धर्म एकेन्द्रियादि जीवों में रहता है अत: एकेन्द्रियादि जाति शब्द से कहे जाते हैं।
जातिकर्म के पाँच भेद हैं-जिसके उदय से यह आत्मा एकेन्द्री, दोइन्द्री, तेइन्द्री, चौइन्द्री अथवा पंचेन्द्री कही जाये, उसे क्रम से एकेन्द्रीजाति, दो इन्द्रीजाति, तीन इन्द्रीजाति, चार इन्द्रीजाति तथा पंचेन्द्रीजाति नामकर्म कहते हैं।
शरीर नामकर्म-जिसके उदय से शरीर बने। शरीर के पाँच भेद हैं-जिसके उदय से औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर उत्पन्न हो, उसे क्रम से औदारिक शरीर, वैक्रियिक, शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर तथा कार्मण शरीर कहते हैं।
बंधन नामकर्म-शरीर नामकर्म के उदय से जो आहार वर्गणारूप पुद्गल स्कंध इस जीव ने ग्रहण किये थे, उन पुद्गल स्कंध के प्रदेशों का जिस कर्म के उदय से आपस में संबंध हो, उसे बंधन कहते हैं। उसके औदारिक बंधन, वैक्रियिक बंधन, आहारक बंधन, तैजस बंधन, कार्मण बंधन, ऐसे पाँच भेद हैं।
संघात नामकर्म-जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के परमाणु आपस में मिलकर छिद्र रहित बंधन को प्राप्त होकर एक रूप हो जावें, उसे संघात नामकर्म कहते हैं। इसके भी औदारिक संघात, वैक्रियिक संघात, आहारक संघात, तैजस संघात, कार्मण संघात, इस तरह पाँच भेद हैं।
संस्थान नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बने। उसके छह भेद हैं-
समचतुरस्र संस्थान-जिसके उदय से अंगोपांगों की लम्बाई, चौड़ाई सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार ठीक-ठीक बनी हों।
न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान-जिसके उदय से शरीर का आकार न्यग्रोध के (वट वृक्ष के) सरीखा नाभि के ऊपर मोटा और नाभि से नीचे पतला हो।
स्वाति संस्थान-जिसके उदय से स्वाति नक्षत्र के अथवा सर्प की वामी के समान ऊपर से पतला और नाभि के नीचे मोटा हो।
कुब्जक संस्थान-जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो।
वामन संस्थान-जिसके उदय से बौना शरीर हो।
हुंडक संस्थान-जिस कर्म के उदय से शरीर के आगोपांग किसी खास शक्ल के न हो।
अंगोपांग-जिसके उदय से अंग-उपांगों का भेद हो, उसके तीन भेद हैं-औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक अंगोपांग, आहारक अंगोपांग।
संहनन नामकर्म-जिसके उदय से हाड़ों के बंधन में विशेषता हो। संहनन के छह भेद हैं-
वङ्कार्षभनाराच संहनन-जिस कर्म के उदय से ऋषभ (बेठन), नाराच (कीला), संहनन (हाड़ों का समूह) वङ्का के समान हो अर्थात् इन तीनों का किसी से छेदन-भेदन न हो सके।
वङ्कानाराच संहनन-जिसके उदय से शरीर में वङ्का के हाड़ और वङ्का की कीली हों परन्तु बेठन वङ्का के न हों।
नाराच संहनन-जिसके उदय से शरीर में वङ्का रहित बेठन और कीली सहित हाड़ हों।
अर्धनाराच संहनन-जिसके उदय से हाड़ों की सन्धियाँ आधी कीलित हों।
कीलित संहनन-जिसके उदय से हाड़ परस्पर कीलित हों।
असंप्राप्त सृपाटिका संहनन-जिसके उदय से जुदे-जुदे हाड़ नसों से बंधे हों-परस्पर में कीले हुए न हों।
वर्ण नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में वर्ण हो, उसके पाँच भेद हैं-कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत।
गंध नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में गंध हो। गंध के दो भेद हैं-सुरभिगंध, असुरभिगंध।
रस नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में रस हो, उसके पाँच भेद हैं-तिक्तरस, कटुरस, कषायरस, आम्लरस, मधुरस।
स्पर्श नामकर्म-जिसके उदय से शरीर में स्पर्श हो, उसके आठ भेद हैं-कर्कशस्पर्श, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष।
आनुपूर्व्य नामकर्म-जिसके उदय से विग्रह गति में मरण से पहले के शरीर के आकार से आत्मा के प्रदेश बने रहे अर्थात् पहले शरीर के आकार का नाश न हो। उसके चार भेद हैं-
नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य-जिसके उदय से नरकगति को प्राप्त होने के सन्मुख जीव के शरीर का आकार विग्रह गति में पूर्व शरीराकार का रहे। इसी प्रकार तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्य में भी समझना।
अगुरुलघुनामकर्म-जिस कर्म के उदय से, ऐसा शरीर मिले जो लोहे के गोले की तरह भारी न हो आक की रुई की तरह हल्का न हो।
उपघात-जिसके उदय से बड़े सींग अथवा मोटा पेट इत्यादि अपने ही घातक अंग हों।
परघात-जिसके उदय से तीक्ष्ण सींग, नख, सर्प आदि की दाढ़ इत्यादि पर के घात करने वाले शरीर के अवयव हों।
उच्छ्वास-जिस कर्म के उदय से श्वासोच्छ्वास हो।
आतप-जिसके उदय से पर को आताप करने वाला शरीर हो।
यह आतप नामकर्म का उदय सूर्यबिंब के विमान के पृथ्वीकायिक बादर जीव के रहता है, उसके मात्र किरणों में ही उष्णता रहती है, मूल में नहीं।
उद्योत-जिस कर्म के उदय से प्रकाशरूप शरीर हो। यह उद्योत कर्म चन्द्रबिंब के विमान में स्थित एकेन्द्रिय बादर पृथ्वीकायिक जीव के होता है जुगनू आदि के भी इस कर्म का उदय रहता है।
विहायोगति-जिसके उदय से आकाश में गमन हो, उसके दो भेद हैं-प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति।
त्रसनामकर्म-जिसके उदय से दो इन्द्रियादि जीवों की जाति में जन्म हो।
बादर-जिसके उदय से ऐसा शरीर हो, जो कि दूसरे को रोके और दूसरे से आप रुके।
पर्याप्ति-जिसके उदय से जीव अपने-अपने योग्य आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियों को पूर्ण करे।
प्रत्येक-जिसके उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो।
स्थिर-जिसके उदय से शरीर के रसादि धातु और वात, पित्त आदि धातु, उपधातु अपने-अपने ठिकाने पर स्थिर रहें। इससे शरीर में रोग शांत रहता है।
शुभ नामकर्म-जिसके उदय से मस्तक वगैरह शरीर के अवयव और शरीर सुन्दर हो।
सुभग-जिस कर्म के उदय से दूसरे जीवों को अच्छा लगने वाला शरीर हो।
सुस्वर-जिसके उदय से अच्छा स्वर हो।
आदेय-जिसके उदय से कांति सहित शरीर हो।
यशस्कीर्ति-जिसके उदय से अपना पुण्य गुण जगत् में प्रगट हो।
निर्माण-जिसके उदय से शरीर के अंगोपांगों की रचना ठीक-ठीक हो।
तीर्थंकर-जो श्रीमत् अर्हंत पद का कारण हो। इस प्रकृति के बंध हो जाने से जीव तीनों लोकों में आश्चर्य और शांति उत्पन्न करने वाला महान् भगवान कहलाता है।
स्थावर-जिसके उदय से एकेन्द्रिय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति) में जन्म हो।
सूक्ष्म-जिसके उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर हो, जो कि न तो किसी को रोके और न किसी से रुके।
अपर्याप्त-जिसके उदय से कोई भी पर्याप्ति पूर्ण न हो अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त अवस्था हो।
साधारण-जिस कर्म के उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हों।
अस्थिर-जिसके उदय से धातुु और उपधातु अपने-अपने ठिकाने न रहें। इससे शरीर रुग्ण रहता है।
अशुभ-जिससे शरीर के मस्तक आदि अवयव सुन्दर न हों।
दुर्भग-जिसके उदय से रूपादिगुण सहित होने पर भी दूसरे को अच्छा न लगे।
दु:स्वर-जिसके उदय से स्वर अच्छा न हो।
अनादेय-जिसके उदय से प्रभा रहित शरीर हो।
अयश:कीर्ति-जिसके उदय से संसार में जीव की प्रशंसा न हो।
इस प्रकार से नामकर्म के ९३ भेद हुए।
उच्चगोत्र-जिसके उदय से लोक पूजित कुल में जन्म हो, उसे उच्चगोत्र कहते हैं।
नीचगोत्र-जिसके उदय से लोक निंदित कुल में जन्म हो, वह नीच गोत्र है।
दानांतराय-जिसके उदय से दान देना चाहे परन्तु न दे सके।
लाभान्तराय-जिसके उदय से लाभ की इच्छा होते हुए भी लाभ न हो सके।
भोगांतराय-जिसके उदय से पुष्पादि और अन्नादि वस्तुओं को भोगना चाहे परन्तु भोग न सके।
उपभगान्तराय-जिसके उदय से स्त्री आदि उपभोग वस्तु का उपभोग न कर सके।
वीर्यान्तराय-जिसके उदय से अपनी शक्ति प्रगट करना चाहे परन्तु प्रगट न कर सके।
इस प्रकार आठ कर्मों के १४८ भेद होते हैं।
इन कर्मों में प्रशस्त अप्रशस्त, ऐसे दो भेद भी होते हैं-जो प्रकृतियाँ सांसारिक सुख देवें, वे पुण्य प्रकृतियाँ हैं एवं अशुभ फल देने वाली पाप प्रकृतियाँ हैं।
पुण्य प्रकृतियाँ-१ साता वेदनीय, ३ तिर्यंच, मनुष्य, देवायु, १ उच्चगोत्र, २ मनुष्यजाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, २ देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, १ पंचेन्द्रिजाति, ५ शरीर, ५ बंधन, ५ संघात, ३ अंगोपांग, २० शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, १ समचतुरस्रसंस्थान, १ वङ्कार्षभनाराच संहनन, उपघात के बिना अगुरुलघु आदि ६, १ प्रशस्तविहायोगति और त्रस आदि १२, इस प्रकार से ६८ प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं।
पाप प्रकृतियाँ-चारों घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ ४७, १ नीचगोत्र, १ असातावेदनीय, १ नरकायु, २ नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, २ तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, ४ एकेन्द्रियादि जाति, समचतुरस्र को छोड़कर ५ संस्थान, पहले संहनन के सिवाय ५ संहनन, अशुभ वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये २०, १ उपघात, १ अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि १०, ये १०० पाप प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार ६८±१००·१६८ भेद हो गये। पहले १४८ प्रकृतियाँ ही गिनाई हैं। मतलब यह है कि स्पर्श, रस, गंध और वर्ण की जो बीस प्रकृतियाँ हैं, वे पुण्य और पाप दोनों में सम्मिलित हो जाती हैं।
संज्वलन कषायों की वासना का काल, अन्तर्मुहूर्त, प्रत्याख्यान का पन्द्रह दिन, अप्रत्याख्यान का छह महीना तथा अनन्तानुबंधी का संख्यात, असंख्यात और अनन्तभव समझना।
वासना का लक्षण-किसी ने क्रोध किया, पीछे वह दूसरे काम में लग गया, वहाँ पर क्रोध का उदय नहीं है, परन्तु जिस पुरुष पर क्रोध किया था उस पर क्षमा भी नहीं है, इस प्रकार जो क्रोध का संस्कार चित्त में बैठा हुआ है, उसी की वासना का काल यहाँ पर कहा गया है।
करण-हर एक प्रकृति के दश करण (अवस्थाएं) होते हैं, उन्हीं का नाम करण है। उनके नाम-बंध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और निकाचना।
बंध-कर्मों का आत्मा से संबंध होना अर्थात् मिथ्यात्वादि परिणामों से जो पुद्गल द्रव्य का ज्ञानावरणादिरूप होकर परिणमन करना, जो कि ज्ञानादि का आवरण करता है, वह बंध है।
उत्कर्षण-जो कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग का बढ़ना है, वह उत्कर्षण है।
संक्रमण-बंधरूप प्रकृति का दूसरी प्रकृतिरूप परिणमन कर जाना।
अपकर्षण-स्थिति तथा अनुभाग का कम हो जाना।
उदीरणा-उदयकाल के बाहर स्थित अर्थात् जिसके उदय का अभी समय नहीं आया है, ऐसा जो कर्म द्रव्य उसको अपकर्षण के बल से उदयावली काल में प्राप्त करना उदीरणा है।
सत्त्व-पुद्गल का कर्मरूप रहना सत्त्व है।
उदय-कर्म का अपनी स्थिति को प्राप्त होना अर्थात् फल देने का समय प्राप्त हो जाना उदय है।
उपशान्त-जो कर्म उदयावली से प्राप्त न किया जाये अर्थात् उदीरणा अवस्था को प्राप्त न हो सके, वह उपशान्तकरण है।
निधत्ति-जो कर्म उदयावलि में भी प्राप्त न हो सके और संक्रमण अवस्था को भी प्राप्त न हो सके, उसे निधत्तिकरण कहते हैं।
निकाचना-जिस कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण, ये चारों ही अवस्थाएं न हो सकें, उसे निकाचितकरण कहते हैं।
यह निकाचित कर्म प्राय: फल देकर ही छूटता है, इसके बंध में कारण बतलाये गये हैं कि देव, शास्त्र गुरु की आसादना आदि करने से ऐसी जाति का कर्म बंध जाता है।
इन कर्मों की बंध, उदय और सत्त्व अवस्थाएं अधिक प्रसिद्ध हैं।
५ बंधन, ५ संघात ये ५ शरीर के साथ अविनाभावी हैं अत: इन्हें शरीर में सम्मिलित कर दीजिए, तब १५-१०·५ ही रह गई, दस घट गई। ५ वर्ण, ५ रस, २ गंध और ८ स्पर्श इन २० को ८ में ही शामिल कर दीजिए तथा दर्शन मोहनीय के ३ भेद में मिथ्यात्व का ही बंध होता है। सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का बंध नहीं होता है अत: ये दो घट गईं, मतलब १०+१६+२·२८, १४८-२८ घटने से १२० प्रकृतियाँ ही बंध योग्य हैं।
बंध योग्य १२० में सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति मिला देने से १२२ प्रकृतियाँ उदय योग्य होती हैं।
ऊपर कही हुई १४८ प्रकृतियाँ सभी सत्ता में रहने योग्य हैं।
गुणस्थान, मार्गणाओं की अपेक्षा इन प्रकृतियों का बंध, उदय, सत्त्व विशेष रूप से गोम्मटसार कर्मकाण्ड और पंचसंग्रह आदि ग्रंथों से समझना चाहिए।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म के आस्रव-ज्ञान और दर्शन में किये गये प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात, ये ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म के आस्रव हैं।
प्रदोष-किसी धर्मात्मा के द्वारा की गई तत्त्वज्ञान की प्रशंसा का नहीं सुहाना प्रदोष है।
निन्हव-किसी कारण से ज्ञान को छुपाना निन्हव है।
मात्सर्य-वस्तु स्वरूप को जानकर यह भी पण्डित हो जावेगा, ऐसा विचार कर किसी को न पढ़ाना मात्सर्य है।
अन्तराय-किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय है।
आसादन-दूसरे के द्वारा प्रकाशित होने योग्य ज्ञान को रोक देना आसादन है।
उपघात-सच्चे ज्ञान में दोष लगाना उपघात है।
वेदनीय के आस्रव-निज पर तथा दोनों के विषय में स्थित दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन, ये असाता वेदनीय के आस्रव हैं।
दु:ख-पाड़ारूप परिणाम विशेष को दु:ख कहते हैं।
शोक-अपना उपकार करने वाले पदार्थ का वियोग होने पर विकलता होना शोक है।
ताप-संसार में अपनी निन्दा आदि के हो जाने से पश्चात्ताप करना ताप है।
आक्रन्दन-पश्चात्ताप से अश्रुपात करते हुए रोना आक्रन्दन है।
वध-आयु आदि प्राणों का वियोग करना वध है।
परिदेवन-संक्लेश परिणामों का अवलम्बन कर इस तरह रोना कि सुनने वाले के हृदय में दया उत्पन्न हो जावे, सो परिदेवन है।
यद्यपि शोक आदि दु:ख के ही भेद हैं तथापि दु:ख की जातियाँ बतलाने के लिए सबका ग्रहण किया है।
साता वेदनीय के आस्रव-भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, सराग संयमादि, योग, क्षान्ति, शौच तथा अर्हद्भक्ति आदि ये साता वेदनीय के आस्रव हैं।
भूतव्रत्यनुकम्पा-भूत-संसार के समस्त प्राणी पर दया करना भूतानुकम्पा और व्रती, अणुव्रती या महाव्रती जीवों पर दया करना, सो व्रत्यनुकम्पा है।
दान-निज और पर के उपकार योग्य वस्तु के देने को दान कहते हैं।
सराग संयमादि-पाँच इन्द्रिय और मन के विषयों से विरक्त होने तथा छह काय के जीवों की हिंसा न करने को संयम कहते हैं और राग सहित संयम को सराग संयम कहते हैं।
यहाँ आदि शब्द से संयमासंयम (श्रावक के व्रत), अकाम निर्जरा (बन्दीखाने आदि में संक्लेश रहित भोगोपभोग का त्याग करना) और बालतप-(मिथ्यादर्शन सहित तपस्या करना) का भी ग्रहण होता है।
योग-इन सबको अच्छी तरह धारण करना योग कहलाता है।
क्षान्ति-क्रोधादि कषाय के अभाव को क्षान्ति कहते हैं।
शौच-लोभ का त्याग करना शौच है।
इति शब्द से अर्हद्भक्ति, मुनियों की वैयावृत्ति आदि का ग्रहण करना चाहिए।
दर्शन मोहनीय का आस्रव-केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद करना दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव है।
अवर्णवाद-गुणवानों को झूठे दोष लगाना, सो अवर्णवाद है।
केवली का अवर्णवाद-केवली ग्रासाहार करके जीवित रहते हैं इत्यादि कहना, सो केवली का अवर्णवाद है।
श्रुत का अवर्णवाद-शास्त्र में मांस भक्षण करना आदि लिखा है, ऐसा कहना श्रुत का अवर्णवाद है।
संघ का अवर्णवाद-ये साधु शूद्र हैं, मलिन हैं, निन्द्य हैं, नग्न हैं इत्यादि कहना संघ का अवर्णवाद है।
धर्म का अवर्णवाद-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए धर्म में कुछ भी गुण नहीं है, उसके सेवन करने वाले असुर होवेंगे, इत्यादि कहना धर्म का अवर्णवाद है।
देव का अवर्णवाद-देव मदिरा पीते हैं, मांस खाते हैं, जीवों की बलि से प्रसन्न होते हैं आदि कहना देव का अवर्णवाद है।
चारित्र मोहनीय के आस्रव-कषाय के उदय से होने वाले तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय के आस्रव हैं।
नरक आयु के आस्रव-बहुत आरंभ और परिग्रह का होना नरक आयु का आस्रव है।
तिर्यंच आयु के आस्रव-माया, छल-कपट करना तिर्यंच आयु का आस्रव है।
मनुष्य आयु का आस्रव-थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह का होना मनुष्य आयु का आस्रव है। स्वभाव से ही सरल परिणामी होना भी मनुष्य आयु का आस्रव है।
सब आयुओं का आस्रव-दिग्व्रतादि ७ शील और अहिंसा आदि पाँच व्रतों का अभाव भी समस्त आयुओं का आस्रव है।
शील और व्रत का अभाव रहते हुए जब कषायों में अत्यन्त तीव्रता, तीव्रता, मन्दता और अत्यन्त मन्दता होती है, तभी वे क्रम से चारों आयुओं के आस्रव के कारण होते हैं।
देव आयु का आस्रव-सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल तप, ये देव आयु के आस्रव हैं।
सम्यग्दर्शन से भी देवायु का आस्रव होता है।
सम्यग्दर्शन से वैमानिक देवों का आस्रव ही होता है अन्य देवों का नहीं। यद्यपि सम्यग्दर्शन किसी आस्रवरूप नहीं है, तो भी उसके साथ जो रागांश है, उससे बंध होता है।
अशुभ नामकर्म का आस्रव-योगवक्रता और विसंवाद से अशुभकर्म का आस्रव होता है।
शुभ नामकर्म का आस्रव-योगवक्रता और विसंवाद के विपरीत अर्थात् योगों की सरलता और अन्यथा प्रवृत्ति का अभाव ये शुभ नामकर्म के आस्रव हैं।
तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव-
१. दर्शनविशुद्धि-पच्चीस दोष रहित निर्मल सम्यग्दर्शन।
२. विनय सम्पन्नता-रत्नत्रय तथा उनके धारकों की विनय।
३. शीलव्रतेष्वनतिचार-अहिंसादि व्रत और उनके रक्षक क्रोधत्याग आदि शीलों में विशेष प्रवृत्ति।
४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना।
५. संवेग-संसार से भयभीत रहना।
६. शक्तितस्त्याग-यथा शक्ति दान देना।
७. शक्तितस्तप-उपवासादि तप करना।
८. साधु समाधि-साधुओं का उपसर्ग दूर करना या समाधि सहित वीर मरण करना।
९. वैयावृत्यकरण-रोगी तथा बाल-वृद्ध मुनियों की सेवा करना।
१०. अर्हद्भक्ति-अर्हंत भगवान की भक्ति करना।
११. आचार्यभक्ति-आचार्य की भक्ति करना।
१२. बहुश्रुतभक्ति-उपाध्याय की भक्ति करना।
१३. प्रवचनभक्ति-शास्त्र की भक्ति करना।
१४. आवश्यकापरिहाणि-सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं में हानि नहीं करना।
१५. मार्ग प्रभावना-जैनधर्म की प्रभावना करना।
१६. प्रवचन वात्सल्य-धर्मी में गोवत्स के समान प्रेम-स्नेह रखना। ये सोलह भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति नामक नामकर्म के आस्रव हैं। इन १६ भावनाओं में दर्शनविशुद्धि नामक प्रथम भावना मुख्य है। इस भावना के साथ अन्य १५ भावनाएं हों, चाहे कम हों तो भी तीर्थंकर नामकर्म का आस्रव हो सकता है।
नीच गोत्र कर्म का आस्रव-दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरे के मौजूद गुणों को ढांकना और अपने झूठे गुणों को प्रकट करना, ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।
उच्च गोत्र का आस्रव-नीच गोत्र के आस्रवों से विपरीत अर्थात् पर प्रशंसा तथा आत्म-निन्दा और नम्र वृत्ति तथा मद का अभाव ये उच्च गोत्र कर्म के आस्रव हैं।
अन्तरायकर्म का आस्रव-पर के दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न करना अन्तराय कर्म का आस्रव है।
आस्रव के इन समस्त कारणों को जानकर प्रत्येक प्राणी को अशुभ कर्मों के आस्रव से बचने का सतत प्रयास करना चाहिए।