जैनधर्म का मूल मंत्र णमोकार महामंत्र है जिससे ८४ लाख मंत्रों की उत्पत्ति हुई है। इस मंत्र में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों में से प्रथम परमेष्ठी अरहंत भगवान है जिनका लक्षण इस प्रकार है- जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके है, जिनमें ४६ गुण हैं और १८ दोष नहीं है उन्हें अरिहन्त परमेष्ठी कहते हैं। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है। उस परमात्मा की दो अवस्थाएं है जीवन्मुक्त व देहमुक्त अवस्था। पहली अवस्था अर्हन्त और दूसरी अवस्था सिद्ध है। अर्हन्त भी दो प्रकार के है- विशेष पुण्य सहित अरिहन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाए जाते है तीर्थंकर कहलाते है और शेष सर्वसामान्य अर्हन्त कहलाते हैं।
केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व युक्त होने के कारण इन्हें केवली भी कहते हैं।