संयम का विनाश न हो इस विधि से जो आता है वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते है। जिस महात्मा ने तिथि,पर्व, उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया है अर्थात् अमुक पर्व या तिथि में भोजन नहीं करना ऐसे नियम का त्याग कर दिया है उसको अतिथि कहते है।
हमारी भारतीय संस्कृति में सदैव अतिथि को देवता के रूप में मानकर उसका आदर-सत्कार किया जाता है। वैसे तो प्रत्येक आगत मेहमान अतिथि का रूप है परन्तु जैन वाड़्मय की दृष्टि से जैन साधु-साध्वी उत्कृष्ट अतिथि कहलाते है जिनका उचित आदर सत्कार करने से उत्तमगति की प्राप्ति होती है।
पद्मनन्दिपंचविंशतिका नामक ग्रन्थ में आचार्य पद्मनन्दी ने दान के प्रकरण में कहा कि जिस घर में उत्कृष्ट अतिथियों अर्थात् मुनि आर्यिका आदि को कभी आहारदान नहीं दिया जाता है वह घर श्मशान के समान है।