सम्पूर्ण जैन विचारशास्त्र एवं जैन जीवन, कर्मसिद्धान्त पर आधारित है। कर्म ही जीवों को हँसाते हैं और कर्म ही उन्हें रुलाते भी हैं तथा विभिन्न गतियों में नचाते भी हैं। जो भी हमारे साथ घटता है, वह सब कर्म जन्य ही होता है। विश्व के प्राय: सभी धर्म किसी न किसी रूप में कर्म की सत्ता को स्वीकारते हैं और वे-सब अपने साँचे के अनुसार उसकी व्याख्या करते हैं। जैन विचारशास्त्र ने कर्म को बड़ी सूक्ष्मता से देखा है। कर्म वैâसे होते हैं, उनका स्वरूप कैसा होता है, वे कैसे बँधते हैं, वे कैसे उदय में आते हैं, उनका परिणाम हमें कैसे मिलता है और कब एक प्रकार के कर्म हमारी साधना में दूसरी प्रकार के कर्मों में बदल जाते हैं और कब साधना से ही कर्म अपना फल देने से बच जाते हैं; इस लोक से जब जीव परलोक में जाता है तो वह न धन ले जाता है, न सम्पत्ति ले जाता है, न परिवार ले जाता है, उसके साथ उसके कर्म ही जाते हैं इसीलिए कुछ लोग मरने के बाद भी स्मरण किये जाते हैं और कुछ रहते हुए भी नहीं जाने जाते हैं। यह सब कर्म का ही चमत्कार है। पूर्वोल्लिखित प्राय: सभी प्रश्नों के उत्तर जैन कर्मसिद्धान्त ने दिये हैं।
प्राय: लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि जब हम जैसे कर्म करते हैं वैसा ही फल हमें मिलता है अर्थात् कर्म का फल मिलकर ही रहता है और जब यह स्थिति है तो-फिर हमें ध्यान, आराधना, पूजा आदि साधना करने से क्या लाभ ?…… अर्थात् प्रश्न यह है कि ध्यान, आराधना, पूजा, साधना आदि कर्म हमारे पूर्व संचित कर्म पर या कर्म फल पर जब कोई प्रभाव डाल ही नहीं सकते तो फिर ध्यान, आराधना, पूजा, साधना आदि कर्मों को हम आखिर क्यों करें ? ….उक्त प्रश्न पर विचार करने से पहले यह जानने की जरूरत है कि हम सबसे पहले यह जानें कि जो कर्म हमने पूर्व में किये हैं, उससे जो कर्म हमारी आत्मा के साथ बन्धन को प्राप्त हुए हैं, उन बँधे हुए कर्मों की प्रकृति आखिर क्या है ?……. जब तक हम कर्मबंधन की इस प्रकृति को नहीं जानेंगे, तब तक हम कर्म फल सिद्धान्त को या उसकी सार्थकता को ठीक से नहीं समझ पाएँगे। इसे जानने के लिए जरूरी है कि पहले हम कर्मों को और उनके वर्गीकरण को ठीक से समझें। जैन आचार्यों ने कर्म सिद्धान्त की पूरी प्रक्रिया में कर्मों की १० अवस्थाएँ बतायी हैं-१. बन्ध,२. सत्त्व, ३. उदय, ४. उदीरणा ५. उत्कर्षण, ६. अपकर्षण ७. संक्रमण, ८. उपशम, ९. निधत्त, और १०. निकाचित।
१. बन्ध—कर्मों के आत्मा के साथ बँधने के भाव (एक क्षेत्रावगाह संबंध) को हमारी परम्परा में बंध कहा गया है इसीलिए आचार्यों ने कहा कि ‘‘बंधो णाम दुभावपरिहारेण एयत्तावत्तो”। वस्तुत: जब आत्मा और कर्म की अलग-अलग सत्ता न रहकर एकीभाव को प्राप्त हो जाती है तब कर्मबन्ध घटित होता है । वस्तुत: आत्मा जीवरूप है और कर्म पुद्गलरूप। कर्म पुद्गल द्रव्य रूप होते हुए भी आत्मा के साथ, आत्मा के प्रदेशों के साथ, संश्लिष्ट संबंधों के साथ जब बँध जाते हैं या संश्लिष्ट हो जाते हैं तब कर्म की बंध अवस्था प्राप्त होती है, यही जीव के संसार में होने का प्रमुख कारण है और इस अवस्था के कारण ही बंध की अन्य अवस्थाएँ अर्थात् जीव की गुणस्थान १ से लेकर १३ तक की उपस्थित रूप अवस्थाएँ घटती हैं इसलिए कर्मबंध को हमारे यहाँ कर्म सिद्धान्त में/कर्म सिद्धान्त की प्रक्रिया की व संसार भाव की पहली अवस्था कहा गया है।
२. सत्व—कर्म बँधने के बाद अपना फल देने से पूर्व सत्ता में एक अंतराल तक विद्यमान रहते हैं। यह कर्मों की विद्यमान बने रहने की बीच की स्थिति ही हमारी परम्परा में कर्मों की सत्ता की स्थिति या कर्म-सत्त्व की स्थिति मानी गयी है। वास्तविक बात यह है कि सत्त्व काल में या कर्म के सत्ता के काल में कर्म सत्ता में रहता तो है पर वह उस अवस्था में सक्रिय नहीं रहता है। सत्ता कर्मों की वह स्थिति विशेष है जिसमें कर्म सुसुप्त अवस्था में आत्मा के साथ बँधे रहकर पड़े रहते हैं। भाव यह है कि कर्मों की सुसुप्त अवस्था का नाम सत्ता है। इसकी स्थिति ठीक उस औषधि की तरह है जिसे आपने खा तो लिया है पर वह अपना परिणाम एक घंटे बाद दिखाना प्रारम्भ करेगी। ठीक वैसे ही कर्म भी बँधने के बाद कुछ काल तक सत्ता में बना रहता है और फिर कालांतर में वह अपना फल दिखाना प्रारम्भ करता है। यह सत्ता में बना रहने वाला काल ही कर्म-सत्त्व या कर्म-सत्ता कहलाता है।
उदय—राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि कारणों से कर्म बँध गये हैं और सत्ता में ही हैं पर जैसे ही वे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं, उनके कर्मों के इस फल देने के कार्य को या प्रक्रिया को हमारी परम्परा में कर्म उदय की प्रक्रिया या कर्म उदय कहा गया है। आबाधा काल के पूर्ण होने पर निषेक रचना के अनुसार कर्मों का फल प्राप्त होना उदय कहलाता है। कर्म की सत्ता का काल आबाधा काल माना जाता है। अपना फल देने के बाद कर्म की निर्जरा हो जाती है अर्थात् फल देने के बाद कर्म का प्रभाव चुक जाता है। कर्मोदय की इस प्रक्रिया को या कर्मों के उदय की इस प्रक्रिया को हमारी शास्त्र-परम्परा में दो प्रकार का माना गया है—
१. प्रदेशोदय और ३. फलोदय। चेतन को अपनी अनुभूति कराए बिना ही कर्म के निर्जरित हो जाने को प्रदेशोदय कहा गया है; उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति की आपरेशन-थियेटर में शल्य क्रिया हो रही हो अर्थात् उसका आपरेशन हो रहा हो एवं उस आपरेशन के दौरान एनेस्थीसिया के प्रभाव से वह व्यक्ति अचेतन अवस्था में पहुँच गया हो और उस अचेतनावस्था के कारण ही उसके शरीर में होने वाली पीड़ा की अनुभूति उसे नहीं हो पाती है । भाव यह है कि पीड़ा तो होती है पर पीड़ा की अनुभूति नहीं होती है और इस प्रकार बिना अपनी फलानुभूति कराये पीड़ारूप कर्म व्यक्ति विशेष की आत्मा के उदय में आकर निर्जरित हो जाते हैं, यही प्रदेशोदय कहलाता है तथा इसके ठीक विपरीत कर्म का अपनी फलानुभूति कराते हुए निर्जरित होना फलोदय कहलाता है। फलोदय में पीड़ारूप फल की अनुभूति अवश्य होती है इसीलिए शास्त्रों में यह उल्लेख है कि फलोदय की प्रक्रिया में प्रदेशोदय अवश्य होता है पर प्रदेशोदय में फलोदय हो, ऐसा कोई अनिवार्य नियम नहीं है। फलोदय और प्रदेशोदय को जैन सिद्धान्त की हमारी परम्परा में स्व मुखोदय और पर मुखोदय भी कहा गया है।
४. उदीरणा—उदयावली के बाहर स्थित कर्म द्रव्य का अपकर्षण करके उसे उदयावली काल के पूर्व ही उदयावली में लाना उदीरणा है। जैसे-आपको १२० कि. मी. की यात्रा करना है और सामान्य स्पीड ६० कि. मी. प्रति-घंटे की है तो सामान्य अवस्था के अनुसार आप लक्ष्य तक की यात्रा दो घंटे में कर पाते हैं पर आपने यत्न तेज किया, गाड़ी तेजी से दौड़ायी और उसकी गति सामान्य ६० से बढ़ाकर ८० कर दी, जिसके परिणामस्वरूप ८० की गति से लक्ष्य को दो घंटे के स्थान पर डेढ़ घंटे में पा लेना उदीरणा है। बात साफ है कि गाड़ी की स्पीड सामान्यत: बँधी होती है और उस बँधी हुई स्पीड से लक्ष्य दो घंटे में ही प्राप्त होता पर विशेष प्रयत्न से लक्ष्य पहले पा लेना उदीरणा है। भाव यह है कि कर्म फल के काल को सामान्य से घटाकर जल्दी ला देने का नाम उदीरणा है। अभिप्राय यह है कि जिस कर्म प्रकृति का उदय या भोग चलता है, उसकी या उसकी सजातीय कर्म प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है, विजातियों की नहीं।
५. उत्कर्षण—पहले से बँधे हुए कर्मों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि हो जाने का नाम उत्कर्षण है। हमारी परम्परा में माना गया है कि जिस कर्म का या जिस कर्म प्रकृति का जब बन्ध होता है अर्थात् बंध के बिना उत्कर्षण नहीं होता, भाव यह है कि कर्म के बंधन के बाद ही उदय से पहले उसका उत्कर्षण भी होता है या हो सकता है, बन्ध के बिना उत्कर्षण नहीं और बन्ध के बिना अपकर्षण भी नहीं। उत्कर्षण में स्थिति और अनुभाग बंध को बढ़ाये जाने की बात है जबकि अपकर्षण में उसके घटाये जाने की बात है। नया बंध करते समय आत्मा अपने पूर्वबद्ध कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ा भी सकता है। काल मर्यादा और तीव्रता/सघनता को बढ़ाने की प्रक्रिया का नाम ही उत्कर्षण है ।
६. अपकर्षण—पहले से बँधे कर्म की स्थिति और अनुभाग में हानि का होना अपकर्षण है। सामान्यत: किसी भी छात्र को दसवीं कक्षा पास करने में दश वर्ष लगते हैं पर विशेष अध्ययन से दसवीं कक्षा उसने ८ वर्ष में या ९ वर्ष में ही पास कर ली तो यह ८ वर्ष या ९ वर्ष में पास करने की क्रिया को ही जैन सिद्धान्त में अपकर्षण की प्रक्रिया माना गया। इस प्रक्रिया से कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता/सघनता को कम किया जाता है या कम किया जा सकता है।
कर्मों के बँधने के बाद बँधे हुए कर्मों में प्राय: दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। अशुभ कर्मों का बंध करने वाला जीव यदि शुभ भाव करता है, तो पहले से बँधे हुए कर्मों की स्थिति और अनुभाग अर्थात् समय, मर्यादा और फल की सघनता उसके प्रभाव से कम हो जाती है ।……..पर इसके विपरीत यदि अशुभ कर्म का बंध करने के बाद जीव और भी अधिक कलुषित परिणाम करता है तो उसके इस और अधिक कलुषित अशुभ भाव के प्रभाव से उसके स्थिति और अनुभाग में वृद्धि भी हो जाती है। इस प्रकार इस उत्कर्षण और अपकर्षण की प्रक्रिया के कारण कुछ कर्म शीघ्र फल दे देते हैं और कुछ और विलम्ब से। किसी का कर्म फल और सघन हो जाता है अर्थात् और तीव्र तथा किसी का और मंद अर्थात् मन्दतर।
७. संक्रमण—संक्रमण में कर्म के स्वरूप में परिवर्तन होता है, जैसे-नीच गोत्र कर्म का उच्च गोत्र कर्म में बदलना अर्थात् भाव यह है कि एक कर्मप्रकृति का उसी कर्म की दूसरी कर्म-प्रकृति में बदलने का नाम संक्रमण है। जिस प्रकृति का पूर्व में बंध किया था, उस प्रकृति का अन्य प्रकृति रूप में परिणमन हो जाना या बदल जाना संक्रमण है, पर संक्रमण के संबंध में विशेष बात यह है कि कर्मों की मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। जैसे-मोहनीय कर्म का वेदनीय में संक्रमण नहीं होता और इसी प्रकार दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय में या आयुकर्म में संक्रमण नहीं होता। कुल मिलाकर भाव यह है कि संक्रमण की प्रक्रिया के अपने सिद्धान्त हैं। कर्म बदलते हैं, पर मूल रूप में नहीं। यही संक्रमण की प्रक्रिया का मूल आधार है।……… और यदि ऐसा न हो और सभी कर्म बदलने लग जाएँ तो फिर अष्टविध या आठ प्रकार के कर्मों की सत्ता की बात ही न हो पाए और सब कर्म एक प्रकार के कर्म में ही अन्तर्भुक्त होकर या संक्रमित होकर केवल एक प्रकार के कर्म ही सत्ता में रह जाएँ और तब एक प्रकार के कर्म का ही उदय आदि हो। बात इतनी ही नहीं बल्कि बात तो यहाँ तक है कि जब एक ही प्रकार के कर्म सत्ता में हों तो फिर आठ प्रकार के कर्मों के नष्ट करने का नाम भी मोक्ष न कहा जाय या मोक्ष न रह जाय। मोक्ष का स्वरूप ही गड़बड़ा जाय पर तथ्य ऐसा नहीं है इसीलिए जैन विचार परंपरा में अष्टविध कर्मों के नाश को ही मोक्ष कहा गया।
८. उपशम—जो कर्म उदयावली में प्राप्त न किया जाय अथवा जिसको उदीरणा अवस्था प्राप्त ही न हो वह उपशम करण है । इस उपशम में कर्म सत्ता में रहता तो है अर्थात् उसकी सत्ता समाप्त नहीं होती है पर निष्क्रिय शांत पड़ा रहता है इसीलिए इसका नाम उपशम है। भाव यह है कि कुछ काल विशेष के लिए वह अक्षम बना दिया गया होता है। इसकी स्थिति राख में दबी हुई आग जैसी है, आग अस्तित्व में तो है पर उस पर पड़ी हुई राख के कारण आग की तेजी से होने वाली ज्वलन क्रिया नहीं हो रही है। यही उपशम करण है।
९. निधत्त—आचार्यों ने कर्म की उस अवस्था का नाम निधत्त कहा है जिसमें कर्म न तो अवान्तर भेदों में अर्थात् अपने सजातीय उपभेदों में संक्रमित या रूपान्तरित होते हैं और न ही अपने नियत काल से पूर्व या बाद में अपना फल प्रदान करते हैं लेकिन कर्मों की स्थिति और अनुभाग को हीन या अधिक अर्थात् कम या अधिक किया जा सकता है। इस अवस्था विशेष का नाम निधत्त है। भाव यह है कि इस अवस्था में कर्मों का उत्कर्षण और अपकर्षण तो संभव है पर उनकी उदीरणा और संक्रमण नहीं होते। कुल मिलाकर तथ्य यह निकला कि जहाँ कर्मों का उत्कर्षण और अपकर्षण संभव हो पर उदीरणा और संक्रमण संभव न हो उस अवस्था को आचार्यों के द्वारा निधत्त कहा गया।
१०. निकाचित—कर्म की या कर्मबंधन की प्रगाढ़ अवस्था का नाम निकाचित है। विशेष बात यह है कि इस अवस्था में न तो कर्मों की स्थिति और अनुभाग को कम या अधिक किया जा सकता है और न समय के पहले ही उनका उपभोग या भोग किया जा सकता है, इसके साथ ही साथ कर्म अपने अवान्तर भेदों में भी रूपान्तरित नहीं हो पाते हैं। इस अवस्था में कर्म का जिस रूप में बंधन होता है उसे उसी रूप में भोगना पड़ता है। यह कर्मों की बड़ी प्रगाढ़ और युवा अवस्था है इसीलिए यह अवस्था सामान्यत: टाले नहीं टलती क्योंकि इसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण आदि चारों प्रक्रियाओं का अभाव रहता है।
उदाहरणार्थ १ अक्टूबर को किसी फैक्टरी में काम करने जाना था, क्योंकि मालिक के साथ वैसा ही करार हुआ था। उदीरणा से हम १२ अक्टूबर के स्थान पर २५ सितम्बर को भी काम पर जा सकते थे। संक्रमण से मालिक हमें उस फैक्टरी से किसी और अच्छी या और खराब फैक्टरी में भेज सकता था पर दोनों में से कोई काम नहीं हुए अर्थात् १ अक्टूबर को काम पर गये और उसी काम पर गये जिसके लिए नियुक्त हुए, यह निधत्त है। निकाचित में सही समय पर अर्थात् यथा फल-काल पर, सही स्थान पर, सही समय पर कर्मबंध का भोग चलता रहना होता है। सामान्यत: निधत्त व निकाचित में परिवर्तन नहीं होता पर विशेष परिस्थिति में उसमें भी परिवर्तन की बात आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने धवलाग्रंथ में कही है। वे कहते हैं कि जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त व निकाचित कर्म भी क्षय को प्राप्त होते हैं। यह ठीक उस प्रकार है, जैसे-उच्चतम न्यायालय ने किसी को मृत्युदण्ड दे दिया है और उसे निश्चित समय पर मृत्युदण्ड होना है पर वह किसी तरह राष्ट्रपति के दरबार में पहुँच जाए और राष्ट्रपति की अनुकम्पा से उसे जीवनदान मिल जाय, तो इस प्रकार उसका जीवन बच जाता है यह तो एक भौतिक उदाहरण बताया है किन्तु त्रैलोक्यपति जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त व निकाचित कर्म भी झड़ जाते हैं और व्यक्ति विशेष मोक्षमार्ग की ओर बढ़ने लगता है, यही है कर्मसिद्धान्त की विशेषता और महिमा।
कर्म सिद्धान्त की चर्चा में स्पृष्ट अर्थात् शिथिल कर्मों का उल्लेख और आता है। स्पृष्ट या शिथिल कर्म वे हैं जो प्रायश्चित व प्रतिक्रमण आदि के करने से झड़ जाते हैं। बद्ध कर्म को नष्ट करने के लिए हमें प्रायश्चित व प्रतिक्रमण आदि से और आगे जाकर तप आराधना आदि करनी होती है तब वे उस तप आराधना से झड़ते हैं। निधत्त कर्म वे कहलाते हैं जो बड़ी दृढ़ता के साथ आत्मा के साथ बँधे होते हैं और बिना गहन तपस्या के उनकी निर्जरा नहीं होती है। निकाचित कर्मों की ऐसी अन्तिम कोटि है जो फल देकर ही रहती है और यही कारण है कि तीर्थंकर आदि महापुरुषों को भी जो उपसर्ग आदि झेलने पड़ते हैं वे इन निकाचित कर्मों के ही परिणाम से होते हैं। सामान्यत: इन निकाचित कर्मों से फल भोगे बिना बचा नहीं जा सकता और अगर इन्हें भी भोगे बिना बचा जा सकने वाला मान लिया जाएगा तो फिर कर्मसिद्धान्त का साक्षात् फल दिखना ही बन्द हो जाएगा इसलिए जो साधकजन होते हैं उन्हें केवल निकाचित कर्मों का फल ही भोगना पड़ता है। अन्य कर्मों के फल को वे कदाचित् अपनी साधना के बल से, अपने को कर्मभोग के फल से मुक्त कर लेते हैं।
कर्मफल के बारे में प्रवचनसार में उल्लेख आता है कि वस्तुत: कर्म से उत्पन्न किया जाने वाला सुख-दुःख ही कर्म-फल है। यह सुख-दुःख की अनुभूति वस्तुत: कर्म उदय के पाfरणामस्वरूप होती है। कर्म का प्रभाव जब उदय में आता है तो वह ही कर्म भोग काल कहलाता है। कर्म सिद्धान्त के बारे में आबाधा काल पर भी चर्चा करना आवश्यक है।
आबाधा काल वह समय विशेष है, जिसमें कर्म आत्मा के साथ बँधा रहता है अर्थात् कर्मों का आत्मा के साथ बँधे रहने के काल का नाम ही आबाधा काल है।
जैन कर्म सिद्धान्त की प्रक्रिया में कर्म के फल विपाक की नियतता और अनियतता दोनों का उल्लेख है। जिसका अभी ऊपर वर्णन हुआ है। शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि जैसे-जैसे आत्मा कषायों से मुक्त होकर अपने आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ती है, वैसे-वैसे वह कर्मफलविषयक नियतता को समाप्त करने में सक्षम होती जाती है। कर्म कितना बलवान होगा, यह बात केवल कर्म के अपने बल पर निर्भर नहीं है अपितु आत्मा की पवित्रता पर निर्भर है। इन अवस्थाओं का उल्लेख यह भी बताता है कि कर्मों का विपाक या उदय होना एक अलग बात है तथा उससे नवीन कर्मों का बंध होना या न होना एक अलग बात है। यहाँ उल्लेखनीय यह है कि कषाय से युक्त आत्मा कर्मों के उदय के समय में नये-नये कर्मों को और बाँधता चलता है और ठीक इसके विपरीत कषायमुक्त आत्मा कर्मों के उदय के समय में नये कर्मों को बाँधता नहीं, वह तो केवल मात्र पहले से बँधे हुए कर्मों की निर्जरा भर करता है।
(१) प्रकृति बंध—प्रत्येक समय में बँधने वाले कर्म परमाणुओं के भीतर ज्ञान, दर्शनादि आत्मा के गुणों को ढँकने/ आवरणादि करने का जो स्वभाव है, उसे आचार्यों ने प्रकृति बंध कहा है। प्रकारान्तर से हम कह सकते हैं कि जब कर्म वर्गणाएँ राग-द्वेषादि भावों का निमित्त पाकर आत्मा के योग से आकर बँधती हैं और बँधने के समय उनमें जो आत्मा के ज्ञान आदि गुणों को ढँकने का कर्मस्वरूप रूप स्वभाव पड़ता है, उसे आचार्यों ने प्रकृति बंध कहा है, इसके ८ मूल भेद व १४८ उत्तरभेद माने जाते हैं।
(२) स्थिति बंध—राग-द्वेषादि भावों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बँधे हुए कर्म परमाणु जितने समय तक या जिस काल-मर्यादा पर्यन्त आत्मा के साथ बँधे रहते हैं, उस काल-मर्यादा तक बँधे रहने के भाव को आचार्यों ने स्थिति बंध कहा है, इसीलिए कहा गया है कि कर्मों में कषायों के अनुसार मर्यादा का पड़ना अर्थात् जब तक वे कर्म स्वभाव को लिये हुए रहेंगे, वह समय आयुकर्म के अतिरिक्त सब सात कर्मों की सब प्रकृतियों की स्थिति का है, जो तीव्र कषाय से अधिक और मंद कषाय से कम होता है इसलिए हमारी परंपरा में स्थिति बंध के लिए कारणभूत आत्मा के कषाययुक्त परिवारों को माना गया है।
(३) अनुभाग बंध—जैन कर्मसिद्धान्त की प्रक्रिया में अनुभाग की चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है। कर्मों की फल देने की शक्ति को अनुभाग कहा गया है। प्रत्येक कर्म की फल देने की शक्ति एक सी नहीं होती अर्थात् प्रत्येक कर्म का फल दान एक सा नहीं रहता। जीव के शुभ-अशुभ भावों के अनुसार बँधने वाले प्रत्येक कर्म का अनुभाग अपने-अपने नाम के अनुरूप तर भाव और तम भाव लिये रहता है। कुछ कर्मों का अनुभाग अत्यन्त तीव्र / अत्यन्त सघन होता है, कुछ का मन्द और कुछ का मध्यम। कर्मों का अनुभाग वस्तुत: कषायों की तीव्रता व मन्दता पर निर्भर है। कषाय तीव्र तो कर्मों का अनुभाग सघन। कषाय यदि मन्द तो कर्मों का अनुभाग मन्द। कषायों की तीव्रता होने पर अशुभ कर्मों का अनुभाग अधिक होता है और शुभ कर्मों का मन्द तथा ठीक इसके विपरीत कषायों की मन्दता होने पर शुभ कर्मों का अनुभाग अधिक होता है तथा अशुभ कर्मों का मन्द। कुल मिलाकर भाव यह है कि जो प्राणी कषायों की तीव्रता से जितना अधिक जुड़ा होगा उसके अशुभ कर्म उतने ही सबल एवं प्रबल होंगे तथा शुभ कर्म उतने ही निर्बल या अबल होंगे; जो प्राणी जितना अधिक कषायों से मुक्त होगा उसके शुभ कर्म उतने ही प्रबल होंगे, सबल होंगे एवं पाप कर्म उतने ही दुर्बल।
(४) प्रदेश बंध—आत्मा के साथ बद्ध कर्म परमाणुओं की मात्रा ही वस्तुत: कर्मों के प्रदेश हैं। जीव के भावों का आश्रय लेकर बँधने वाले सभी कर्मों के परमाणुओं की मात्रा एक जैसी या समान नहीं होती। एक साथ आत्मा के साथ बँधने वाले समस्त कर्मपरमाणु एक निश्चित अनुपात से आठ कर्मों में बँध जाते हैं। बँधने का शास्त्रानुसार एक निश्चित नियम है, उक्त क्रम के अनुसार आयु कर्म के सबसे कम कर्म परमाणु होते हैं, नाम कर्म के परमाणु उससे कुछ अधिक होते हैं, गोत्र कर्म के परमाणुओं की मात्रा नाम कर्म के परमाणुओं के बराबर होती है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों कर्मों के परमाणु विशेष अधिक होते हैं तथा यह भी मान्यता है कि तीनों की मात्रा परस्पर समान होती है। मोहनीय कर्म के परमाणु इससे भी अधिक होते हैं और सबसे अधिक परमाणु वेदनीय कर्म के होते हैं। यह मूल कर्मों का विभाजन है। प्रत्येक कर्म के प्रदेशों में कम या अधिक होने का आधार यही है। कर्म परमाणुओं का विभाजन कर्मों के बंध काल में ही होता है।
जैन विचारशास्त्र मानता है कि कर्मों की गति बड़ी विचित्र है; कभी यह बाँधती है अर्थात् बंधन में डालती है और कभी यह मुक्त भी कराती है । जब तक जीव संसार में रहता है तब तक यह उसे हँसाती भी है, रुलाती भी है पर जीव की यदि साधना मोक्षगामी नहीं है तो उसे संसार में ही भटकाती रहती है। इसलिए आइए, हम सब कर्मसिद्धांत को समझकर मोक्षगामी साधना के पथिक बनें।