जैन धर्म अहिंसा प्रधान है पर अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना कि लोक में समझा जाता है, इसका व्यापार बाहर व भीतर दोनों ओर होता है। बाहर में तो किसी भी छोटे-बड़े जीव को मन,वचन, काय से किसी भी प्रकार हानि-पीड़ा न पहुंचाना, उसका दिल न दुखाना अहिंसा है और अन्तरंग में राग द्वेष परिणामों से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थित होना अहिंसा है। बाह्य अहिंसा को व्यवहार और अंतरंग को निश्चय कहते है। वास्तव में अन्तरंग में आंशिक सभ्यता आये बिना अहिंसा सम्भव नहीं और इस प्रकार इसके अतिव्यापक रूप में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी सद्गुण समा जाते है इसीलिए अहिंसा को परम धर्म कहा जाता है। जल, थल आदि में सर्वत्र ही क्षुद्र जीवों का सद्भाव होने के कारण यद्यपि बाह्य में पूर्ण अहिंसा पलनी असम्भव है पर यदि अंतरंग में साम्यता और बाहर में यत्नाचार में प्रमाद न हो तो बाह्य जीवों के मरने पर भी साधक अहिंसक ही रहता है।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण ये पांच अणुव्रत है जिनका श्रावकगण एक देश रूप पालन करते है और मुनि आर्यिका पूर्ण पालन करते है जिन्हें महाव्रती संज्ञा हें मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस जीवों को जो नहीं मारता, उस क्रिया को गणधरादिक निपुण पुरूष स्थूल हिंसा से विरत होना अर्थात् अहिंसाणुव्रत कहते है। बन्ध, बध, छेद, अतिभारारोपण, अन्नपान का निरोध ये अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार है । हिंसामें यथा- हिंसक निरन्तर उद्वेजनीय है’’ वह सदा वैर को बांधे रखता है, इस लोक में वध, बन्ध और क्लेश आदि को प्राप्त होता है तथा परलोक में अशुभ गतिम को प्राप्त होता है ओर गर्हित भी होता है इसलिए हिंसा का त्याग श्रेयस्कर है इस प्रकार हिंसादि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए ।
काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कुल, आयु, योनि- इनमें सब जीवों को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है। सब देश और सब काल में मन, वचन, काय से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियों के प्राण पांच प्रकार के पापों से डरने वालो को नहीं घातने चाहिए अर्थात् जीवों की रक्षा करना अहिंसाव्रत है वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन ये अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएं है।
अहिंसा ही जगत की माता है क्योंकि समस्त जीवों का परिपालन करने वाली है अहिंसा ही आनन्द की सन्तति है, अहिंसा ही उत्तमगति और शाश्वतलक्ष्मी है जगत में जितने उत्तमोत्तम गुण है वे सब इस अहिंंसा में ही है । सर्व व्रतों में अहिंसाव्रत ही प्रधान है । एक जीवदया के द्वारा ही चिन्तामणि की भांति अन्य सकल धार्मिक क्रियाओं के फल की प्राप्ति हो जाती है । आयुष्मान होना, सुभगपना, धनवानपना, सुन्दर रूप कीर्ति आदि ये सब कुछ मनुष्यों को एक अहिंसाव्रत के माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते है।