जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आदि पाॅंच तीर्थंकरों की जन्मभूमि बड़ी मूर्ति परिसर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में आज विशिष्ट शिक्षाविद जन पधारें और उन्होंने 31 फुट उत्तुंग भगवान के प्रतिमा के दर्शन करके गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से आशीर्वाद प्राप्त किया।
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ज्ञानमती_माताजी_के_प्रवचन) भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव का जब छह माह का योग पूर्ण हो गया तब वे यतियों-मुनियों की आहार विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के लिये निर्दोष आहार हेतु निकल पड़े। महामेरू भगवान ऋषभदेव ईर्यापथ से गमन कर रहे हैं,
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ब्राह्मी-माताजी वंदामि! आज मैं आपसे अक्षयतृतीया पर्व के विषय मे जानना चाहती हूं। युगप्रवर्तक भगवान आदिनाथ को हुए करोड़ों-करोड़ों साल व्यतीत हो गए किन्तु क्या कारण है कि उनके प्रथम आहार दिवस अक्षयतृतीया को आज भी संपूर्ण भारतवासी विशेष पर्व.
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The most revered “Ganini Aryika Ratna Gyanmati Mataji” The most revered “Ganini Aryika Ratna Gyanmati Mataji” has completed a span of half century of her perceivance which is a highly remarkable and glorifing event.
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अयोध्या में निर्माण कार्य प्रगति पर नवमार्ग बनाने वाले होते हैं विरले प्राणीउस पथ पर चलकर फिर तो बन जाते कितने ज्ञानी।। परमपूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चन्दनामती माताजी द्वारा लिखित यह वाक्य विश्वविभूति, जैन समाज की ज्येष्ठ-श्रेष्ठ, सर्वोच्च साध्वी
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चारित्रचन्द्रिका, तीर्थंकर जन्मभूमि विधान, नवग्रहशांति विधान, भक्तामर विधान, समयसार विधान आदि लगभग १०० पुस्तकों का लेखन, वर्तमान में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा ‘‘षट्खण्डागम (प्राचीनतम जैन सूत्र ग्रंथ) एवं ‘‘भगवान ऋषभदेव चरितम्’’ की संस्कृत टीकाओं का हिन्दी अनुवाद कार्य,
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भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव का जब छह माह का योग पूर्ण हो गया तब वे यतियों-मुनियों की आहार विधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति के लिये निर्दोष आहार हेतु निकल पड़े। महामेरू भगवान ऋषभदेव ईर्यापथ से गमन कर रहे हैं, अनेकों ग्राम नगर शहर आदि में पहुँच रहे हैं। उन्हें देखकर मुनियों की चर्या को न जानने वाली प्रजा बड़े उमंग से साथ सन्मुख आकर उन्हें प्रणाम करती है। उनमें से कितने ही लोग कहने लगते हैं कि हे देव! प्रसन्न होइये और कहिये क्या काम है ? हम सब आपके किंकर हैं, कितने ही भगवान के पीछे-पीछे हो लेते हैं। अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान् के सामने रख देते हैं और कहते हैं कि हे नाथ प्रसन्न होइये, तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये, कितने ही सुन्दरी और तरुणी कन्याओं को सामने करके कहते हैं प्रभो! आप इन्हें स्वीकार कीजिये, कितने ही लोग वस्त्र, भोजन, माला आदि अलंकार ले-लेकर उपस्थित हो जाते हैं, कितने ही लोग प्रार्थना करते हैं कि प्रभो! आप आसन पर विराजिये, भोजन कीजिये इत्यादि इन सभी निमित्तों से प्रभु की चर्या में क्षण भर के लिए विघ्न पड़ जाता है पुनः वे आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जगत को आश्चर्य में डालने वाली गूढ़ चर्या से विहार करते हुए भगवान के छह माह व्यतीत हो जाते हैं।
जन्मभूमि विकास की द्वितीय कड़ी के रूप में पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९९३-९४ में शाश्वत तीर्थ अयोध्या का विकास एवं जीर्णोद्धार हुआ अत: प्रसंगोपात्त अयोध्या का परिचय यहाँ दृष्टव्य है- जो कर्मशत्रुओं को जीतें वे ‘जिन’ कहलाते हैं और जिन के उपासक ‘‘जैन’’ कहलाते हैं। यह जैनधर्म अनादिनिधन है और प्राणी मात्र का हित करने वाला होने से ‘‘सार्वभौम’’ धर्म है। इसी प्रकार से जो जीवों को संसार के दु:ख से निकालकर उत्तम सुख में पहुँचावे, वह ‘धर्म’ है। ‘धर्म तीर्थं करोति इति तीर्थंकर:’’ इस व्याख्या के अनुसार जो ऐसे धर्मतीर्थ को करते हैं अर्थात् प्रवर्तन करते हैं वे ‘‘तीर्थंकर’’ कहलाते हैं। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी है, जिसे ‘साकेता’, ‘विनीता’ और ‘सुकोशला’ भी कहते हैं। इस आर्यखण्ड में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के दोनों कालों में सुषमा-सुषमा आदि नाम से छह कालों का परिवर्तन होता रहता है।
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भारतदेश की वसुन्धरा पर शाश्वत तीर्थ अयोध्या और सम्मेदशिखर के समान ही कर्मयुग की आदि से प्रयाग तीर्थ का प्राचीन इतिहास रहा हैं ।
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२६ दिसम्बर, १९०९ ई. को श्री अर्जुनलाल सेठी, ब्र. शीतल प्रसाद, श्री माणिकचन्द पानाचन्द मुंबई, श्री हीरालाल नेमचन्द सोलापुर, रायबहादुर अण्णासाहेब लठ्ठे ने लाहौर
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भगवान ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं।[4] उन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान हुंडा अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर हैं।.
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