तर्ज – चाँद मेरे आ जा रे ……………….. सुनो हम कथा सुनाते हैं -२
गणिनीप्रमुख ज्ञानमति मां की शिष्या ,के गुण गाते हैं।। सुनो।।टेक.।।
बाराबंकी जनपद है उत्तरप्रदेश का गौरव, उसमें टिकैतनगरी जो , अत्यन्त धर्ममय है वो ।।
उसकी रज सिर पे चढ़ाते हैं-२ उस पावन भू में जन्में,रत्नों को दिखाते हैं ।। सुनो.।।१।।
श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जी ,निज पत्नी संग रहते थे ,
धार्मिक प्रवृत्ति और गुण को नर –नारी नित कहते थे, उन्हीं की गाथा गाते हैं -२
संस्कारों की महिमा को ,जन-जन को बताते हैं ।।सुनो.।।२।।
उन दम्पत्ती की पहली कन्या मैना कहलाईं, बन ज्ञानमती माताजी जिनधर्म की कीर्ति बढ़ाई,
उन्हें हम शत-शत नाते हैं, दिव्य विभूती,माँ शारदे को शीश झुकाते हैं ।।सुनो.।।३।।
तेरह संतानें जन्मीं,जिनमें से चार बडभागी , जिनशासन की सेवा में,
बन गए सभी वैरागी , बनें उन सम यह भाते हैं , त्रय पुत्री एक पुत्र की गौरव गाथा गाते हैं ।।सुनो.।।४।।
बारहवीं कन्या माधुरि,जिनसे जिनशासन महका , बनीं ज्ञानमती की शिष्या,
आध्यात्मिक सूर्य है चमका , उन्हीं की कथा बताते हैं-२
चंदनामती माँ के जीवन से परिचित कराते हैं ।।सुनो.।।५।।
[यहाँ पर एक सूत्रधार को दिखाएँ ]- सुनो, सुनो,सुनो ! इस टिकैतनगर ग्राम की गौरवगाथा सुनो । यह वह पवित्र नगरी है जहाँ सन् १९३४ में बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रम्हचारिणी कु. मैना का जन्म हुआ , जिन्होंने अपने माता-पिता एवं कुल के गौरव को बढ़ाते हुए बालपन में ही मात्र अपने घर से ही नहीं अपितु पूरे नगर से मिथ्यात्व को भगाकर सम्यक्त्व को स्थापित कर दिया और उस समय तलवार की धार पर चलने के समान असिधारा व्रत को अंगीकार किया जब कोई भी क्वारीं कन्या त्याग के मार्ग पर नहीं निकलती थी अर्थात् सन् १९५२ में परम पूज्य राष्ट्रगौरव आचार्यश्री देशभूषण महाराज से आजीवन ब्रम्हचर्यव्रत एवं सप्तम प्रतिमा लेकर क्वारीं कन्याओं के लिए त्याग का मार्ग प्रशस्त किया और वही कहलाईं गणिनीप्रमुख,राष्ट्रगौरव ,दिव्यशक्ति परम पूज्य ज्ञानमती माताजी ” जय हो, जय हो, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की जय हो । अरे भैया ! उन्होंने अपने जन्म से लेकर आज तक अपने ८३ वर्ष के जीवन में जो अद्भुत और अलौकिक कार्य किये हैं उसे सुनकर आप सब दातों तले उंगली दबा लेंगे , साक्षात् सरस्वती हैं वो । अब सुनो उन्हीं माता-पिता की पांचवीं कन्या कु. मनोवती भी इसी त्यागमार्ग पर चल दीं और बन गईं चारित्रश्रमणी आर्यिका श्री अभयमती माताजी ,उनका जीवन भी अपने आप में विलक्षण रहा है। जय बोलो अभयमती माताजी की जय । अब आगे सुनो, उस टिकैतनगर ग्राम में उन्हीं माता-पिता से नवमीं संतान के रूप में जन्में कर्मयोगी बालब्रम्हचारी श्री रवींद्रजी का परिचय, जो यूनिवर्सिटी की पढाई पढ़ने के बाद भी ज्ञानमती माताजी का वैराग्यमयी उपदेश सुनकर बालब्रम्हचारी हो गए ,जो युवाओं के आदर्श हैं ,कर्मठ व्यक्तित्व हैं , मधुर मुस्कान इनकी पहचान है , इनके बारे में कहा जाता है कि अगर किसी तीर्थ को विश्व के मानसपटल पर पहुँचाना हो तो इनके हाथ में दे दो ,फिर देखो क्या चमकता है तीर्थ , मैनेजमेंट गुरू कहलाते हैं ये, जय हो, जय हो, अब तो वे स्वस्ति श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी बन गए हैं , उनकी जय हो ” और अब ले चलते हैं आपको उस चौथे रत्न की कथा बताने, जिनका नाम है माधुरी ,मधुरता से भरी एक प्यारी सी कन्या। परन्तु इससे पूर्व आपको यह जानना है कि पिता छोटेलाल एवं माता मोहिनी की तेरह सन्तानें जन्मीं, जिनमें से ४ तो मोक्षमार्ग पर चल पड़ीं और शेष संतानों ने गृहस्थाश्रम में रहकर भी देव,शास्त्र ,गुरु की भक्ति करते हुए अपनी आगे की पीढ़ी में धर्म का बीजारोपण किया है , आज उस पूरे परिवार में २५० से भी अधिक सदस्य हैं जो धर्म से ओतप्रोत हैं, और यह सारा श्रेय जाता है पिता श्री छोटेलाल एवं माता मोहिनीदेवी को ,जिन्होंने अपनी संतानों को ऐसे धार्मिक संस्कार दिए जिसके सम्मुख सारा विश्व नतमस्तक है ” जय हो, जय हो,ऐसे माता –पिता की जय हो । माता मोहिनी ,जिन्होंने अपने पति की अंत समय सुंदर समाधि बनवाकर एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया और स्वयं दीक्षा लेकर बन गईं माता रत्नमतीजी ” जय हो, ऐसे विलक्षण परिवार की जय हो,रत्नमती माताजी की जय हो ” अच्छा तो अब हम चलते हैं टिकैतनगर ग्राम के श्रेष्ठी छोटेलाल जी के घर की ओर ,जहाँ एक कन्या का जन्म होने वाला है ,अरे, अरे ! थाली बजने की आवाज आ रही है ,लगता है कन्या का जन्म हो गया है, भाई मैं तो चला उस घटना का प्रत्यक्ष गवाह बनने ।
[बाहर पिता छोटेलाल के साथ कुछ लोग बैठे हैं तभी एक महिला अंदर से आकर कहती है ]-
महिला – (बाहर आकर ) अरे लालाजी ! बधाई हो, कन्या जन्मी है कन्या ।
लालाजी – (खुश होकर ) क्या कहा ! मेरे घर एक और लक्ष्मी आई है। वाह, कैसी लगती है मेरी लाडो।
महिला – अरे लालाजी ! चांद का टुकड़ा है बिटिया , बस थोड़ी ज्यादा कमजोर है। [ तभी दो-चार श्रावक लालाजी के निकट आकर कहते हैं ] –
श्रावकगण – बधाई हो लालाजी ,बधाई हो, आप एक बार फिर पिता बन गए हैं।
लालाजी – धन्यवाद भइया ! अभी मिठाई खिलाता हूँ सबको । [तभी एक श्रावक हंसकर ]- अरे लालाजी ! कन्या के जन्म पर भी आप इतने खुश हैं ?
दूसरा श्रावक –[व्यंग्य से ] अरे लालाजी ! दो लाख का हुंडा आ गया ,अभी से दहेज़ का इंतजाम शुरू कर दो [ सभी हंस पड़ते हैं तब लालाजी नाराज होकर कहते हैं ]
लालाजी – [नाराज होकर ] देखो भैया ! मेरी बेटियों को कुछ मत कहना , मेरी बेटियां बेटी नहीं रत्न हैं रत्न , और देखो ,किसी की भी बेटी हो , हमारे भाग्य का थोड़े ही खाती हैं , सब अपने-अपने भाग्य का खाती हैं और अपने-अपने भाग्य का ले जाती हैं ।
एक श्रावक – (हाथ जोड़कर) गलती हो गयी लालाजी ! माफ़ करना ,आप सच ही कह रहे हैं । देखो ना ! हमारी मैना बिटिया ने आज जो किया उसका मुकाबला क्या हमारे नगर का कोई बेटा कर सकता है।
दूसरा श्रावक- हाँ भाई ! हमारी सोच ही गलत है ,सचमुच में कन्या रत्न होती है , वह एक नहीं दो – दो कुल की शोभा होती है।
तीसरा श्रावक – चलो भाई ! अब बहुत हो गया (लालाजी से ) लालाजी , जल्दी से मुंह मीठा कराओ भाई।
लालाजी- हाँ, हाँ, क्यों नहीं ” लालाजी सभी का मुंह मीठा कराते हैं और सभी उनकी प्रशंसा करते हुए वापस चले जाते हैं।
सूत्रधार- इस प्रकार भाइयों ! लालाजी के घर में जन्मीं वह बारहवीं कन्या धीरे-धीरे माता-पिता और कुटुम्बीजनों के लाड़-प्यार में पलते-बढ़ते घुटने से पैरों के बल चलकर बाल्यावस्था में आ जाती है ” चूँकि कन्या के अंदर प्रारम्भ से ही धार्मिक संस्कार थे अतः वह खेलकूद में समय कम लगाकर माँ के साथ स्वाध्याय और मंदिर जाने में अधिक रुचि रखती थी “
मोहिनीदेवी मन्दिर जा रही हैं , तभी बच्चे बोलते हैं –
मनोवती – माँ , माँ, आप मंदिर जा रही हैं क्या ?
माँ – हाँ बिटिया ! मैं मंदिर जाकर आती हूँ , तुम सब यहीं रुकना और पिताजी को परेशान मत करना।
कैलाश – हम भी मंदिर जाएँगे।
प्रकाश – हाँ, हाँ माँ ! हम सब भी मंदिर जाएँगे।
कुमुदनी – माँ, हम मंदिर में आपको परेशान नहीं करेंगे।
माँ – ठीक है बच्चों, चलो, पर मंदिर में शोर नहीं करना।
मालती – माँ, हम बिल्कुल भी शोर नहीं करेंगे और दर्शन करके वापस आ जायेंगे।
सभी बच्चे – चलो,चलो, सभी चलते हैं।
पिताजी – [नाराज होकर ] चुप बैठो सब लोग ! कोई नहीं जाएगा, मंदिर में जाकर केवल शोर करोगे।
मोहिनी – [पति से ] जाने दीजिए, दर्शन करके सब वापस आ जायेंगे।
छोटेलालजी – बिलकुल नहीं , क्या तमाशा है, काली के पीछे फौज भागी, इंजन चला और सारे डिब्बे चल दिए ,कोई नहीं जायेगा ” मैना की माँ ,बस तुम जाओ।
रवींद्र –[तोतली भाषा में ] दाने दो ना पितादी, तोर नहीं तरेंदे अम।
पिताजी- [हंसकर ] चलो जाओ, पर जल्दी आना। [ सभी बच्चे मंदिर जाकर जल्दी आ जाते हैं किन्तु माधुरी कन्या माँ के साथ ही वापस आती थी ,नित्य का उसका यही क्रम था , उस दिन भी ऐसा ही हुआ , जब मोहिनी देवी मंदिर से वापस आईं तब पिताजी सहसा मोहिनी से बोल पड़े ] –
छोटेलालजी – [मोहिनी से ] मैना की माँ ! देखो, रोज सभी बच्चे मंदिर जाते हैं , मुझे बुरा नहीं लगता किन्तु शाम को दुकान से घर आने पर घर खाली-खाली लगता है ,बस इसीलिये मैं नाराज होता हूँ।
मोहिनी- मुझे मालूम है ,इसीलिए मैंने इन सबको समझा दिया है कि दर्शन करके तुरंत वापस आ जाया करो।
छोटेलालजी – मैना की माँ ! मैंने एक बात देखी है कि जब भी तुम मंदिर जाती हो माधुरी बिटिया तुम्हारे साथ ही मंदिर जाती है और साथ ही वापस आती है ,ये हर समय तुमसे चिपकी रहती है [माधुरी को पास बुलाकर ] बिटिया , इधर आओ। [माधुरी पास में आ जाती है ]
मोहिनी- मैं क्या करूँ ? मैं कितनी बार कहती हूँ पर आती ही नहीं है।
छोटेलालजी – [ हंसकर ] देखो मोहिनी ! जिस तरह से यह तुमसे चिपकी रहती है ऐसा लगता है यही जिंदगी भर तुम्हारी सेवा करेगी। [उसके सिर पर हाथ फेरते हैं ]
माधुरी- [ मन में ] काश! पिताजी के यह शब्द मेरे जीवन में फलीभूत हो जाएँ।
सूत्रधार – बंधुओं ! सचमुच ही पिता के वह शब्द माधुरी कन्या पर सार्थक सिद्ध हो उठे और कन्या माधुरी के लिए वह पिता का आशीर्वाद बन गए जिसकी गूंज आज भी दीक्षा लेने के बाद उनके मष्तिस्क में है क्योंकि इन्होंने आजीवन अपनी माता की सेवा की है और दीक्षित अवस्था में उनकी समाधि बनाने में अपना अतुलनीय योगदान दिया है। बंधुओं ! कन्या माधुरी प्रारम्भ से ही तीक्ष्ण एवं विलक्षण बुद्धि की धनी थीं ” स्कूल की शिक्षा ग्रहण करते हुए भी अपनी अनुपम प्रतिभाशक्ति से भजन की रचना किया करती थीं , साथ ही अध्यापकों को विशेष प्रिय थीं , स्कूल में इन्हें डी. एम . कहा जाता था। चलिए, मैं आपको ले चलता हूँ टिकैतनगर के स्कूल श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की ओर , जहां वह विद्याध्ययन कर रहीं हैं ” ]
[क्लास का दृश्य। सभी विद्यार्थी पढ़ रहे हैं ,प्रिंसिपल साहब पूछते हैं ]
प्रिंसिपल साहब – बच्चों ! जो पाठ हमने आप सभी को याद करने के लिए दिया था ,याद कर लिया।
सभी बच्चे – Yes sir !
प्रिंसिपल साहब – Very good ! बताओ अनिल , What is your name ?
अनिल – Sir, My Name is , My, My…….
प्रिंसिपल साहब – [नाराज होकर ] – अरे बेवकूफ ! बैठ जाओ। कल्लू ! तुम खड़े हो जाओ , बताओ What is your name ?
कल्लू – (कान खुजाते हुए ) सर, मेरे सिर में दर्द था इसलिए मैंने याद नहीं किया।
प्रिंसिपल साहब – आलसी कहीं के , चलो जाओ , किनारे जाकर खड़े हो जाओ और याद करो । ( खड़ा हो जाता है ) अमरचंद ! तुम खड़े हो जाओ।
अमरचंद- (खड़े होकर ) Yes sir!
प्रिंसिपल साहब – What is your mother’s name ?
अमरचंद – My , My mother name , He, She , Sir , वो, वो …….
प्रिंसिपल साहब – क्या वो वो लगा रखा है , तुम भी खड़े हो जाओ। (खड़ा हो जाता है पुनः प्रिंसिपल साहब माधुरी से कहते हैं )- माधुरी ! खड़ी हो जाओ।
माधुरी – Yes Sir !
प्रिंसिपल साहब – What is your name ?
माधुरी – Sir, My name is Madhuri jain .
प्रिंसिपल –What is your father’s and mother’s name .
माधुरी – My Father’s name is shree chhotelalji and my Mother’s name is smt. Mohini devi .
प्रिंसिपल – शाबाश ! बहुत अच्छी ! सीखो बच्चों , इस बालिका से कुछ सीखो ,यह हमारे विद्यालय की शान है , कोई भी काम इसे दे दो हर एक में अव्वल रहती है , निश्चित ही यह जीवन में बहुत नाम कमाएगी। बैठ जाओ बेटे।
माधुरी – Thank you Sir ! [ प्रिंसिपल साहब चले जाते हैं , सभी बच्चे आपस में चर्चा करने लगते हैं , तभी माधुरी की सहेलियां कहने लगती हैं ] –
मीना – अरे वाह माधुरी ! तुम तो सचमुच बहुत होशियार हो।
रमा – माधुरी ! हमें गर्व है कि हमें तुम जैसी सहेली मिली।
गुड़िया – बिल्कुल ! हमें माधुरी से हर चीज सीखनी पड़ेगी , अच्छा ! ज़रा अंग्रेजी की कापी तो देना।
मंजू – हाँ , मुझे इतिहास की कापी चाहिए।
रमा – मुझे भी ज़रा हिंदी की कापी देना।
माधुरी सभी को कापी देती है तभी रमा कहती है – अरे गुड़िया, मंजू, देखो तो , इसकी राइटिंग कितनी सुंदर है।
सभी – हाँ तो , लगता है जैसे मोती जड़ दिए हों।
रमा – [चौंककर ] अरे ! इसके पीछे कविता लिखी है – वीतराग प्रभु की छवि न्यारी , जो इनके ढिग आता, मनोकामना पूरी होती , संकट सब मिट जाता “”…….. माधुरी ! किसने लिखी है यह कविता , बड़ी सुंदर है।
माधुरी – [ हंसकर ] अरे कुछ नहीं ! बस यूँ ही बैठे – बैठे कुछ लिख लेती हूँ।
गुडिया – अरे वाह ! कैसे करती हो भला ! हमें भी बताओ।
माधुरी – पता नहीं ,बस मन में शब्द आते हैं और……..
रमा – [ बीच में ही ] सचमुच ! तुम हम सबकी शान हो , हमें तुम पर गर्व है ” [सभी माधुरी की प्रशंसा करती हैं तभी स्कूल की घंटी बजती है और सभी घर के लिए प्रस्थान कर देती हैं ]
सूत्रधार – [ इस प्रकार कन्या माधुरी निरन्तर अपने जीवन में उन्नति कर सबकी लाडली बनती जा रही थी। एक बार सन् १९६९ में पिता से आज्ञा लेकर इनके भाई श्री प्रकाशचंदजी अपनी पत्नी ज्ञानादेवी एवं बच्चों के साथ पूज्य माताजी के दर्शनार्थ जयपुर जा रहे थे , बस ये भी जिद पर आ गईं कि मैंने कभी माताजी के दर्शन नहीं किये हैं , मुझे भी उनके दर्शन करने हैं , अब बालहठ के आगे तो अच्छे – अच्छे परास्त हो जाते हैं अतः उन्हें भी यह पुण्य अवसर मिल गया और यह उनके जीवन रूपी मंदिर पर मानो स्वर्ण कलशारोहण के समान ही था ” आइये , देखते हैं, माताजी के प्रथम दर्शन ने उनके जीवन पर क्या चमत्कार किया।
[ घर का दृश्य , भाई – भाभी जाने की तैयारी कर रहे हैं , ग्यारह वर्षीय माधुरी पूछती है ]
माधुरी – भैया , भाभी , आप कहाँ जा रहे हैं ?
प्रकाशचंद – बिटिया , हम ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने जा रहे हैं।
माधुरी – क्या ! मैं भी जाऊंगी , मैंने कभी माताजी के दर्शन नहीं किये हैं ,बस नाम ही सुना है।
पिताजी – नहीं बिटिया ! अभी नहीं, जब हम चलेंगे तब चलना।
माधुरी – [ पास में बैठे पिता से ] – पिताजी ! हम भी जायेंगे।
पिता- मेरी रानी बिटिया ,जिद नहीं करते
माधुरी – [जिद करके ] नहीं , हमें अभी जाना है , अभी जाना है।
पिता – [प्यार से सिर पर हाथ फेरकर ] देखो बिटिया , मैं तुम्हें नहीं भेजूंगा , भगवान जाने माताजी में क्या चुम्बक है जो उनके पास जाता है वह कभी वापस नहीं आता है। देखो ना, मेरी मनोवती बिटिया उनके पास गई और वापस नहीं आई [ रोने लगते हैं। ] कैसे मैं अपने कलेजे के टुकडों को अपने से अलग करूँ। पता है , वह माताजी सबके बाल नोंच देती हैं।
माधुरी – [आंसू पोछकर ] पिताजी ! मैं वादा करती हूँ मैं वापस आ जाऊँगी।
पिताजी – [थोड़ा मुस्कुराकर ] चलो भाई ,तुम्हारी इतनी जिद है तो जाओ पर भैया – भाभी को परेशान मत करना।
प्रकाश – अरे नहीं पिताजी ! यह तो मेरी सबसे दुलारी बहन है और बहुत सीधी है , चलो माधुरी बिटिया , तुम भी जल्दी से अपने कपड़े ले आओ। [ माधुरी अपनी तैयारी करके भैया – भाभी के साथ माताजी के दर्शनार्थ जयपुर चली जाती है और वहाँ पहुचकर सभी साधुओं के दर्शन करती है , पुनः माताजी को देखकर उसे बहुत आश्चर्य होता है ]
[ महाराज का संघ है सभी जाकर नमस्कार करते हैं , पुनः माताजी के पास पहुँचते हैं और नमस्कार करते हैं ]
माताजी दो – तीन शिष्याओं के साथ बैठी हैं।
सभी –[ नमोस्तु करके ] वन्दामि माताजी , वंदामि , वंदामि।
ज्ञानमती माताजी – सद्धर्मवृद्धिरस्तु ! अरे प्रकाश ! तुम तो ऐसा गए इतने दिनों बाद आए , कौन – कौन है तुम्हारे साथ ?
प्रकाश – माताजी ! यह संसार का चक्र ही ऐसा है कि यहाँ चाहकर भी आदमी निकल नहीं पता है , यहाँ से जाने के बाद पिता ने जबरदस्ती मेरी शादी कर दी और मैं संसार के चक्र में फंस गया। कब से आपके दर्शन की इच्छा थी पर क्या करूँ ? खैर, माताजी , यह मेरी धर्मपत्नी हैं , यह बेटा वीरकुमार है और यह मेरी पुत्री माला है।
माताजी – और यह कौन है ?
प्रकाश – माताजी ! यह मेरी छोटी बहन है माधुरी।
माताजी – अरे ! इसे तो मैंने पहली बार देखा है।
प्रकाश – जी माताजी ! सन् १९५८ मैं इसका जन्म हुआ , आपने तो सन् ५२ में ही घर छोड़ दिया था , अभी यह मात्र ११ वर्ष की है।
माताजी – ठीक है , तुम सब जाकर स्नान आदि करो , मैं तुम सबसे बाद में चर्चा करूंगी।
सभी – जी माताजी।
[सभी जाते हैं तब रास्ते में माधुरी जोर से हंस पड़ती है और भाई से कहती है। ] –
माधुरी – [ जोर से हँसते हुए ] भैया ! क्या यह सफ़ेद साड़ी में लिपटी और मुंडे सिर वाली मेरी बहन हैं ।
प्रकाश – [समझाते हुए ] बिटिया ! इनको हँसते नहीं , यह महान चारित्र की धारक माताजी हैं, बहुत विद्वान हैं ये।
माधुरी – [हंसकर ] जी भैया ” [सभी कुछ दिन वहीँ रुककर आहार आदि का लाभ लेते हैं , एक दिन समय पाकर माताजी माधुरी कन्या को बुलाकर पूछतीं हैं ] –
माताजी – माधुरी ! इधर आओ।
माधुरी – जी ! वन्दामि माताजी। बताइए, आपने मुझे याद किया।
माताजी – माधुरी ! तुमने लौकिक पढ़ाई के साथ – साथ कुछ धार्मिक अध्ययन भी किया है ?
माधुरी – जी माताजी ! मैंने बालबोध , छहढाला आदि पढ़ा है और माँ ने भी बहुत सी कथाएँ पढ़ाई हैं।
माताजी – [ खुश होकर ] अच्छा , अगर मैं तुम्हें कुछ पढ़ाऊं तो पढ़ोगी ?
माधुरी – जी, अवश्य पढूंगी , आप मुझे पढ़ाइए।
माताजी – ठीक है , देखो , यह गोम्मटसार जीवकाण्ड है इसकी गाथा पढ़ो। –
सिद्धं शुद्धं पणमिय जिणिंदवर णेमिचंद मकलंकं ” गुणरयण भूसणुदयं जीवस्स परूवणं वोच्छं
[माधुरी वैसा ही पढ़ती है , माताजी पुनः एक श्लोक पढ़ाकर उसे याद करने को कहती हैं। माधुरी स्पष्ट उच्चारण में अगले दिन दोनों श्लोक सुना देती है तब माताजी बहुत प्रसन्न होती हैं और कहती हैं ]
माताजी – अरे वाह ! तुम्हारा उच्चारण तो बहुत शुद्ध है , तुम तो बहुत होशियार हो। माधुरी , अगर तुम धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़ो तो बहुत नाम रोशन करोगी , क्या इसे आगे और पढ़ोगी ?
माधुरी – जी माताजी ! अवश्य ” [ माताजी ने देखते – देखते १२ दिन में माधुरी को गोम्मटसार की ३५ गाथाएं पढा दीं जिसे उन्होंने कंठाग्र सुना दिया। अब तो माताजी को लालच आ गया कि अगर यह त्यागमार्ग में निकले तो बहुत नाम रोशन करेगी। बस , उन्होंने माधुरी को समझाना शुरू कर दिया। ]
माताजी – माधुरी बेटा ! तुम्हारी बुद्धि बहुत अच्छी है , अगर तुम इसका सदुपयोग धर्म के लिए करोगी तो समाज की निधि बन जाओगी। क्या तुम मेरे पास रहोगी।
माधुरी – हाँ माताजी ! मैं आपके पास रहूंगी।
माताजी – ठीक है। भैया – भाभी के साथ मत जाना।
माधुरी – जी माताजी।
सूत्रधार – [ माधुरी कन्या यह बात कह तो देती है किन्तु भैया – भाभी जब घर जाने लगते हैं तो महावीरजी के दर्शन के बहाने उनके साथ चली जाती है। जाते – जाते माताजी उसे ५ साल का ब्रम्हचर्य व्रत दे देती हैं जिसे कोई जान नहीं पाता है। वह दिन २५ अक्टूबर , शरदपूर्णिमा का था। जब कन्या माधुरी अपने पिता के पास पहुँचती है तब पिता बहुत ही खुश होकर उसे सीने से लगा लेते हैं कि मेरी बेटी वापस आ गई। शायद उन्हें यह नहीं पता था कि यह बालिका भी त्याग के मार्ग पर कदम बढ़ा चुकी है। उस समय टिकैतनगर में पुण्योदय से आचार्य श्री सुबलसागर महाराज का चातुर्मास हो रहा था जब उन्हें पता चला कि माधुरी कन्या अपने भाई के साथ माताजी के दर्शन करके आई है तो एक दिन मंदिर में महाराज ने उससे पूछ लिया ] –
[ जिनमंदिर के अंदर का दृश्य ]
महाराजजी – बेटी ! मैंने सुना है कि तुम ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने गई थीं।
माधुरी – जी महाराजजी ! मैंने पहली बार माताजी के दर्शन किये।
महाराजजी – अच्छा यह बताओ कि तुम्हें माताजी के दर्शन करके कैसा लगा ?
माधुरी – महाराजजी मुझे बहुत अच्छा लगा , उन्होंने मुझे पढ़ाया भी।
महाराजजी – [ खुश होकर ] अच्छा ! क्या पढ़ा तुमने उनसे , माताजी तो वैसे भी बहुत विद्वान हैं।
माधुरी – महाराजजी , मैंने गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा पढ़ी हैं।
महाराजजी – अरे वाह ! ज़रा सुनाओ तो।
माधुरी – जी महाराजजी ! [ माधुरी महाराजजी को एक –एक करके ३५ गाथा सुनाती है जिसे सुनकर महाराजजी को बहुत आश्चर्य हुआ ,उन्होंने माताजी और माधुरी की खूब प्रशंसा की ]
महाराजजी – माधुरी ! तुम धन्य हो जो ऐसी माताजी की बहन कहलाने का गौरव तुम्हें प्राप्त हुआ है। वे माँ भी धन्य हैं जिन्होनें तुम जैसे रत्न जन्में हैं। तुम एक दिन बहुत नाम कमाओगी।
[इस प्रकार पूरे नगर में माधुरी की बहुत प्रशंसा हुई। धीरे – धीरे यूं ही समय बीतता गया , एक बार लालाजी बहुत बीमार हो गए उन्हें पीलिया हो गया , बहुत इलाज किया गया परन्तु वे स्वस्थ नहीं हो रहे थे। बंधुओं ! कभी –कभी जीवन में ऐसे दुखद क्षण आते हैं जिसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। क्या कोई नर है इस जग में , विधि का विधान जो टाल सके, अनहोनी तो होकर रहती , नहिं होनहार कोई टाल सके। सन १९६९ ,२५ दिसंबर को जब सभी क्रिसमस की खुशियाँ मना रहे थे , उस समय दुर्भाग्य से छोटेलाल रूपी वह रत्नाकर अस्त हो गया जिसने इस धारा को ऐसी निधियां दीं ,ऐसे रत्न दिए जिनसे यह भारत देश सनाथ हुआ है। बंधुओं ! उस न लिखी जाने वाली घड़ी को सबने धैर्यपूर्वक झेला , माता मोहिनी ने विशेष धैर्य का परिचय देकर अपने पत्नी धर्म का परिचय देते हुए अंत समय पति की सुंदर समाधि बनवाई और एक आदर्श उपस्थित किया ” अब मोहिनी देवी को संसार से वैराग्य होने लगा था। सन् १९७१ में मोहिनीदेवी अजमेर में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के दर्शनार्थ बड़े पुत्र कैलाश,पुत्रवधू एवं कन्या माधुरी के साथ गयी थीं ,जहां पूज्य माताजी भी विराजमान थीं ” उस समय अवसर पाकर माताजी ने माधुरी से पूछा–अजमेर के छोटे धडे की नशिया का दृश्य –
माताजी – [माधुरी से ] माधुरी ! तुमने क्या विचार किया है , क्या आगे विवाह करोगी ?
माधुरी – [१३ वर्षीय ] नहीं माताजी ! मुझे विवाह नहीं करना।
माताजी – तब क्या तुम आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत लेना चाहती हो।
माधुरी – जी माताजी।
माताजी – ठीक है , जाओ , एक श्रीफल ले आओ।
[ माधुरी जाकर एक श्रीफल लाती है , माताजी कहती हैं ] इसे भगवान के सम्मुख चढ़ाओ। [माधुरी श्रीफल चढ़ाती है , माताजी मंत्र पढ़कर उसे आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत दे देती हैं और कहती हैं।]
माताजी – माधुरी ! आज भाद्रपद शुक्ला दशमी है , इसे सुगंधदशमी कहते हैं , तुमने आज के पावन दिन व्रत लिया है जो तुम्हारे जीवन में सुगंधि भर देगा।
माधुरी – [मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर ] हे भगवान ! भविष्य में मैं सब संघर्षों को झेलकर अपने व्रत का निर्विघ्नतया पालन करूँ ऐसी शक्ति मेरे अंदर प्रकट हो।
सूत्रधार – [ इस प्रकार उस कन्या का जीवन उस असिधारा व्रत को लेकर सुगन्धित हो उठा , यह बात किसी को भी पता नहीं थी ” जब माता मोहिनी वैराग्य भावना से ओतप्रोत हो दीक्षा लेने लगीं तब माताजी ने उन्हें बताया तो वह आश्चर्यचकित हो उठीं कि इतनी छोटी बालिका और व्रत , पुनः बोलीं जब मैं ही दीक्षा ले रही हूँ तो किसी को आत्मकल्याण के लिए क्यों रोकूँ ? इधर माता मोहिनी के दीक्षा ले लेने से पूर्व में पिता के प्यार से वंचित सारा परिवार क्षुभित हो उठता है, पुनः धैर्य धारण कर माधुरी , त्रिशला को पढ़ाई के लिए लेकर सब चले जाते हैं। कुछ समय बाद पुनः यह दोनों वापस आती हैं , इस प्रकार संघ में इनका आना – जाना लगा रहा किन्तु घर में किसी को इनके व्रत के बारे में नहीं मालूम था। उस समय तक बड़े भाई रवीन्द्र ने भी व्रत ले लिया था जिससे घर वाले काफी दुखी थे। एक समय घर में भाई –भाभियों के द्वारा इनके विवाह की चर्चा चलती है। तब यह अपने व्रत के बारे में बताते हुए वैराग्यवर्धक उपदेश द्वारा उन्हें समझाती हैं ] –
माधुरी और भाई – भाभियों का संवाद –
सभी भाई – सुन ले मेरी प्यारी बहना, उमर ब्याह की हो आई।
जो कर्तव्य हमारा उसको, पूर्ण करेंगे सब भाई ,पूर्ण …………।। टेक.।।
माधुरी – सुन लो मेरे प्यारे भैया ,ब्याह मुझे नहिं करना है।
ज्ञानमती माँ के पथ पर चल , जीवन सार्थक करना है, जीवन….।। टेक.।।
कैलाश भाई – [ दुखी होकर ] बहना मेरी ऐसी बातें ,करके दिल को मत तोड़ो।
मात–पिता सब छोड़ गए अब, तुम तो हमको मत छोड़ो।
जो पितु का कर्तव्य वही मैं, पूरा उसे निभाऊंगा।
अपनी प्यारी बहना का ,सुन्दर विवाह रचवाऊंगा।
माधुरी – भैया देखो भव –भव में कितने ही कुटुम्बी हैं पाए।
तृप्ति नहीं हो पाई और नहिं, मोह को हम ठुकरा पाए।।
इसी मोह के कारण चारों, गतियों में हम भरमाए।
आज मिला सम्बोधन गुरु का, आत्मरमण के ढिग आए।।
प्रकाश भाई – [आँखों में आंसू भरकर ] ये कैसी अनहोनी बातें, तेरे इस मन में आईं।
क्या हमको संसार कहेगा,एक बहन नहिं परणाई।।
माँ दीक्षित अरु पिता नहीं क्या, भाई ने कर्तव्य किया।
खर्च नहीं करना था इस, हेतू ही संघ में छोड़ दिया।।
माधुरी – भैया मेरे तुमसे मैंने, लाड बहुत ही पाया है।
गिरि सम्मेद की यात्रा तुमने, पीठ पे मुझे कराया है।
सच्चे भाई होने का, कर्तव्य निभाओ ओ भैया।
त्यागमार्ग पर जाने दो बस, तुम ही पिता और मैया।
सुभाष भाई – [ हाथ पकड़कर ] प्यारी गुडिया सी ओ लाडली, ऐसा कैसे सोच किया।
नहीं छोड़ सकते हम तुझको, माँ ने जिम्मा हमें दिया।।
ठाठ – बाट से बना के दुल्हन, तेरा ब्याह रचाएंगे।
भाई का कर्तव्य निभाकर, हर इक खुशी दिलाएंगे।।
माधुरी – मेरी खुशी इसी में भाई ,त्यागमार्ग पर मैं जाऊं ।
इक दिन बनकर साध्वी माता , कीर्ति धर्म की फहराऊं।।
क्या रक्खा इस मोह और, माया के बंधन में भाई।
यह संसार असार बात यह, गुरु ने हमको समझाई।।
तीनों भाभियाँ – [रोते हुए ] ननद नहीं तुम पुत्री सम, हम सबने तुमको पाला है।
क्या रह गयी कमी जो इस, संकल्प को मन में ठाना है।
प्राण से हमको प्यारी हो तुम ,तुम्हें नहीं जाने देंगे।
रात्री दिन तेरी सेवा कर , कमी नहीं रहने देंगे।
माधुरी – माँ सम प्यारी मेरी भाभियों ! मोह में ना तुम उलझाओ।
ब्रम्हचर्य व्रत लिया जो मैंने , सहयोगी सब बन जाओ।
क्या रक्खा विवाह करने में ,कीचड़ सम संसार है ये।
जीवन का है सार मोक्षपथ ,करना अंगीकार हमें।
[पुनः भाइयों से ] – राम लखन सम प्यारे भैया , सच्चा अब कर्तव्य करो।
मोक्षमहल की सीढ़ी पर ,चढ़ने की हमको आज्ञा दो।।
रखना यह विश्वास कभी ना, पथ से विचलित होऊंगी।
मात –पिता कुल का यश हरदम, ही वृद्धिंगत कर दूंगी।
भाई – भाभी – तेरी दृढशक्ती के सम्मुख झुका रहे हम सब माथा।
भाई –भाभी हम तेरे इस, बात पे है गौरव आता।।
जाओ मेरी प्यारी बहना , धर्म का अलख जगाओ तुम।
ज्ञानमती माँ के पथ पर बढ़ , जिनशासन महकाओ तुम ,
जिनशासन महकाओ तुम …………………………………।।
सूत्रधार – [ इस प्रकार उस माधुरी कन्या ने जब से संघ में पूर्णरूपेण कदम रखा कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, सदा देव,शास्त्र,गुरु की भक्ति में दृढ़ रहकर पूज्य माताजी से उन्होंने प्रतिक्षण – प्रतिपल बहुत कुछ सीखा। अनेकों ग्रंथों को पढ़कर तीन वर्ष की शास्त्री की परीक्षा एक वर्ष में उत्तीर्ण की , पुनः विद्यावाचस्पति बनीं , साथ ही अनेकों भजन, पूजन, चालीसा, विधान की रचना, पद्यानुवाद, ग्रन्थ टीका आदि की रचना की, आज उनके द्वारा लिखे २०० ग्रन्थ विद्यमान हैं, जिससे प्राणी नूतन दिशा की प्राप्ति करता है। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत भाषा की ये सिद्धहस्त लेखिका हैं। उन्होंने अपनी अलौकिक प्रतिभा द्वारा अनेकों शिविर, विधान संपन्न कराये। इस मध्य इन्होंने त्यागमार्ग पर कदम बढ़ाते हुए दो प्रतिमा, पुनः सप्तम प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये। संस्थान में मंत्री पद को भी संभाला , चौका लगाकर खूब आहार दिया, गुरु वैयावृत्ति की। एक बार इन्होंने अपनी माँ के जीवन पर ५१ पद्यों की काव्य रचना की जिसे देखकर पंडित बाबूलाल जी जमादार बहुत प्रसन्न हुए, आज मातृभक्ति के रूप में वह कृति हमारे सामने है। सन् १९८० में इनकी जन्मभूमि से श्री प्रद्युम्न कुमारजी आकर माताजी से विशेष आग्रह कर इन्हें टिकैतनगर विधान करवाने ले गए। उनकी मधुर और ओजस्वी वाणी में हुए उस विधान की अनुगूँज आज भी वहाँ के लोगों के मस्तिष्क में है ” चलिए दिखाते हैं उसके कुछ दृश्य। ] –
[ टिकैतनगर का मंदिर, विधान की तैयारियां जोरों से चल रही हैं, कुछ श्रावक आपस में बात कर रहे हैं। ]
श्रावक (१) – भैया रमेश ! इतना बड़ा विधान है, कोई पंडित नहीं है, क्या हो गया है प्रद्युम्न जी को, कैसे पूरा होगा यह विधान।
श्रावक(२) – हाँ भैया ! कुछ समझ में नहीं आता,अपनी माधुरी बिटिया क्या इतना बड़ा विधान संपन्न करा पाएगी ?
श्रावक (३) – अभी समय है , हमें मिलकर सलाह देनी चाहिए कि किसी पंडित को बुला लो, चलो चलकर प्रद्युम्नजी से बात करते हैं। [सभी जाकर उनसे बात करते हैं ]
सभी श्रावक – भैया ! आपने यह क्या किया ,किसी पंडित को न बुलाकर मात्र माधुरी बिटिया को बुलाया ,कैसे होगा इतना बड़ा अनुष्ठान ?
प्रद्युम्नजी – भैया ! अभी आप सब इस माधुरी बिटिया की प्रतिभा से परिचित नहीं हैं इसलिए ऐसा बोल रहे हैं, असलियत तो यह है कि माताजी ने इनमें अपना पूरा ज्ञान उड़ेल दिया है। परसों जब विधान प्रारंभ होगा तब आप स्वयं देख लेना।
सभी श्रावक – ठीक है भाई ! जैसा आप उचित समझें। [सभी संशय भरे वहाँ से चले जाते हैं , दो दिन बाद जब कुमारी माधुरी शास्त्री विधान को सम्पूर्ण विधि के साथ शुरू करवाती हैं तो सारे जैन समाज के लोग गद्गद हो उठते हैं। ]
श्रावक (१) – भाई ! हम लोग कितना गलत सोच रहे थे , कितनी प्रकाण्ड विद्वान है अपनी माधुरी बिटिया, इसके आगे तो सारे पंडित बेकार हैं।
श्रावक (२) – और संस्कृत का उच्चारण तो देखो , कितना शुद्ध है।
श्रावक (३) – हाँ, जब बोलती हैं तो लगता है कंठ में कोकिला है।
श्रावक (४) – सचमुच ! २२ साल की उम्र में इतनी प्रतिभा होना स्वयं में विलक्षण है।
प्रद्युम्नजी – भाई ! मैंने कहा था न, जो भी प्राणी माताजी के पास रह जाता है वह हर चीज में निष्णात हो जाता है।
सभी – हाँ भैया ! आपने सच ही कहा था। जय हो, जय हो, ज्ञानमती माताजी की जय हो।
प्रद्युम्नजी – अब हम मिलकर एक दिन चौराहे पर पांडाल बनवाकर इनका प्रवचन कराएंगे।
सभी – हाँ, हाँ, हम सब मिलकर उसमें सहयोग करेंगे , ये तो हमारे नगर का गौरव हैं।
सूत्रधार – जब चौराहे पर उनका प्रवचन होता है तो जैन – जैनेतर मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते हैं , उस विधान की अनुगूँज आज भी वहाँ के जनमानस में है। उसके बाद तो उन्होंने अनेक स्थानों पर जाकर अनेक विधान संपन्न कराए। बंधुओं ! सन् १९८८ में दीक्षा के पूर्व गुजरात के अहमदाबाद शहर में एक शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया, जिसमें इनके साथ पूज्य माताजी के संघस्थ शिष्य ब्र. मोतीचंद्र जी एवं पं. सुधर्मचंद्र जी भी गए किन्तु ब्र. मोतीचन्द्रजी को उनकी माँ के आकस्मिक निधन का समाचार ज्ञात होने पर वे तुरंत चले गए और माधुरीजी को अकेले ही शिविर की बागडोर संभालनी पड़ी। जब उन्होंने शिक्षण शिविर प्रारम्भ किया तब लोग उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे ,वहाँ के प्रतिष्ठित महानुभाव तो यहाँ तक निवेदन करने लगे कि आप अब यहीं गुजरात में रहकर धर्म का प्रचार करें, माताजी के पास कभी – कभी जाएँ , हम आपके लिए पूरी सुविधा कर देंगे, उस समय इन्हें मंत्रियों जैसी व्यवस्था दी गयी थी फिर भी उन्हें गुरु के आगे ये क्षणिक सुख प्रभावित नहीं कर सके। बंधुओं ! यह है त्याग का प्रतिफल और गुरू के प्रति समर्पित भाव ” सन् १९८९ में जब इन्होंने दीक्षा का नारियल चढ़ाया, उस समय तक ये जन –जन में अपने मधुर व्यवहार, ओजस्वी वाणी, कर्णप्रिय आवाज, कुशल अनुशासन, अद्भुत लेखन आदि गुणों के कारण प्रसिद्ध हो चुकी थीं, अतः जब लोगों को पता चला तो सभी को हर्षमिश्रित दुख हुआ, दुख इस बात का कि अब ये माधुरी बहन के रूप में हमें नहीं मिलेंगी और हर्ष इस बात का, कि अब से ये जगत्माता के रूप में हमें प्राप्त होने वाली हैं ” दीक्षा की यह सूचना जब उनके प्रियजनों तक पहुँचती है तो सभी रो पड़ते हैं ” चलिए, दिखाता हूँ मैं आपको कतिपय स्थानों के कुछ दृश्य , जहां उनके प्रियजन आपस में चर्चा कर रहे हैं , सचमुच बंधुओं ! मोह की गति बड़ी विचित्र है। ]
[ सनावद नगर में इंदरचंद चौधरी का घर , साथ में और कई लोग बैठे हैं ]
चौधरी जी – अरे भाई देवेन्द्र ! कुछ सुना तुमने, अपनी माधुरी बहन दीक्षा ले रही हैं।
देवेन्द्र – हाँ, भाई साहब ! अब वो हमारी नगरी में कभी नहीं आएंगी, हम कभी उन्हें यहाँ नहीं बुला पाएँग।
चौधरीजी – [रोते हुए ] भाई मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि मैंने उन्हें सदैव बेटी से भी बढ़कर माना है , मैं उन्हें केशलोंच करते नहीं देख सकता।
प्रकाश – जी ! दादाजी ! आप बिलकुल ठीक कहते हैं, सगी बहन जैसा अपनत्व है उनसे, अभी उनकी उम्र ही क्या है ?
देवेन्द्र – हाँ भाई ! हम सब चलकर उन्हें मनाएँगे तो वह कुछ दिन रुक जाएंगी।
चौधरीजी – नहीं , वह नहीं रुकने वाली, वह अपने व्रतों में बहुत दृढ है।
प्रकाश – [ दुखी होकर ] तो क्या हम यूँ ही हार मानकर बैठ जाएँ ?
चौधरीजी – अब तो हमें दुखी मन से ही सही उनकी बिनौरी की तैयारी करनी चाहिए।
[ सभी दुखी होकर उनके स्वागत की तैयारी करते हैं। ] [ सरधना का दृश्य , मंदिर के पास बैठे कुछ लोग चर्चा कर रहे हैं ]
सतीश – विनोद भाई ! क्या सचमुच यह खबर सच्ची है कि माधुरी बहन दीक्षा ले रहीं हैं ?
विनोद – हाँ भाई ! उनकी तो दीक्षा का, मैंने सुना है पोस्टर भी छप गया है।
देवेन्द्र – क्या कहते हो भैया ! अबी कुछ दिन पहले तो मैं हस्तिनापुर गया था तो ऐसी कोई बात नहीं थी, फिर अचानक क्या हुआ ?
सतीश – भाई ! जीवन में कब किसको वैराग्य हो जाए क्या पता, फिर ये तो इतने सालों से माताजी के पास रह रही हैं, संसार की असारता का इनसे अच्छा ज्ञान किसे होगा ?
[ अफ़सोस करते हुए ] – मुझे तो जब भी कोई परेशानी होती थी मैं माधुरी बहन के पास पहुँच जाता था, कितना स्नेह बरसातीं थीं वे हम पर, अब तो वे माताजी बन जाएंगी तब ……...[ रोने लगते हैं। ]
विनोद – [ आँखों में आंसू भरकर ] – एक बहन के रूप में अब वे हमें कभी नहीं मिलेंगी।
देवेन्द्र – हाँ भाई ! मैंने तो कितनी बार उनके चौके में भोजन भी किया है, कितना ध्यान रखती थीं वे हम सबका, अब कौन ध्यान रखेगा हमारा। [ रोने लगते हैं, पुनः आंसू पोछकर सबसे कहते हैं ]- देखो ! इसमें अफ़सोस करने या दुखी होने से कुछ नहीं होने वाला, अतः हमें मिलकर हस्तिनापुर चलकर उनके स्वागत की तैयारी करनी चाहिए,आखिर बहन मानते हैं हम उनको, अब भाई होने का कर्त्तव्य निभाने का समय है।
सभी – सच कह रहे हो भाई, यह मोह ही तो संसार में दुख दे रहा है, इसे जीतने के लिए ही तो वे दीक्षा ले रही हैं, हम सब कल ही हस्तिनापुर चलेंगे। [ सभी प्रस्थान करते हैं ] [टिकैतनगर में उनके घर का दृश्य , कैलाशजी हाथ में तार लेकर आते हैं। ]
कैलाश – [घबराते हुए ] अरे प्रकाश ! सुभाष ! देखो तो, तार आया है, माधुरी बिटिया दीक्षा लेने जा रही हैं।
प्रकाश –[ आँखों में आंसू भरकर ]- नहीं, नहीं ऐसा नहीं हो सकता, अभी उसकी उम्र ही क्या है ?
सुभाष – अरे ! वह तो बहुत कमजोर है, दीक्षा लेकर कैसे पैदल कैसे चलेगी वह, एक बार खाकर कैसे रहेगी वह।
कैलाश – भाइयों ! अब तक तो उसकी दीक्षा का पोस्टर भी निकल गया होगा, तुम सब तो जानते ही हो कि तार आने में कितना समय लगता है। [दुखी हो जाते हैं ]
बड़ी भाभी – देखो दुखी मत हो, हम सब जाकर उन्हें मनाएंगे तो वे जरूर मान जाएंगी।
मंझली भाभी – हाँ भाई साहब ! उनमें बहुत ममता है बहुत दया है, वह हम सबको दुखी नहीं देख सकती हैं।
छोटी भाभी – भाई साहब ! कम से कम ब्रम्हचारिणी अवस्था में ही सही, वह कभी आती तो थीं [ रोने लगती हैं, उन्हें देख सब बच्चे रोने लगते हैं ]
जम्बू – (रोते हुए ) – तो क्या अब हमारी बुआजी कभी नहीं आएंगी।
वीरकुमार – (रोते हुए ) – नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, हमारी बुआजी हमें रोता देखकर मान जाएंगी।
माला – बाला – हाँ हाँ, हम सब उन्हें मनाएँगे। [सभी अपने – अपने माता पिता से लिपट कर रोने लगते हैं और कहते हैं। ]
सभी बच्चे – (रोते हुए ) – पिताजी, जल्दी टिकट कराइए, हमें हमारी बुआजी के पास जाना है।
कैलाश – [ आंसू पोछकर बच्चों को समझते हुए ] देखो ! तुम सब रोओ मत, वैसे तो उन्होंने जो संकल्प लिया है तो वह मानने वाली नहीं हैं क्योंकि जगह –जगह उनकी बिनौरी निकलने का कार्यक्रम भी तय हो चुका है ,ऐसा मैं अभी सुनकर आया हूँ और शायद १० -१२ दिन में यहाँ भी उनकी बिनौरी निकालने का कार्यक्रम बन रहा है , तब हम सब मिलकर उन्हें मनाएँगे, ठीक है बच्चों। [पुनः सभी की आँखों में आंसू आ जाते हैं ]
सूत्रधार – [ हालांकि बंधुओं ! सभी को यह पता था कि अब न तो माताजी मानने वाली हैं और न बहन माधुरी, इसलिए सब उनके आने की राह देखने लगे। इधर स्थान – स्थान पर लोग उनके स्वागत को आतुर थे लेकिन समयाभाव और अत्यधिक गर्मी के कारण कतिपय स्थानों पर ही उनकी बिनौरी निकाली जा सकी, जब टिकैतनगर में वे पधारीं तो बच्चे –बच्चे की आँखों में अश्रु थे, सभी उनके स्वागत को लालायित थे , घर –घर में उनका स्वागत हुआ, सभी ने उनके चरण छुए, शुभकामना दीं, अंत में चौराहे पर उनका भाषण हुआ तो जैन –अजैन सभी की आखें नम थीं। ]
ब्रम्हचारिणी माधुरी शास्त्री – [चौराहे पर भाषण देते हुए ] नमन करती हूँ उस माँ को, जिन्होंने मुझको जाया है। नमन उस मातृभूमि को, जहां का प्यार पाया है।। नमन उन श्री गुरू को,जिनकी मुझ पर छत्रछाया है। नमन उस तीर्थ को जिसने, मुझे तीरथ बनाया है।। मेरी पावन जन्मभूमि के नागरिकों ! आज मैं जो कुछ भी हूँ सब आप सबके प्यार और दुआओं की वजह से हूँ, यह आप सबका प्यार और श्रीगुरु की अनुकम्पा ही है जो आज मैं नारी जीवन के सर्वोच्च शिखर रूप आर्यिका दीक्षा की ओर कदम बढ़ा रही हूँ,आप सभी का स्नेह और श्रीगुरु की कृपा मुझ पर बनी रहे यही वीरप्रभू से मंगल प्रार्थना है। ]
[ सूत्रधार – उनके इन शब्दों से सर्वत्र बहन माधुरी और माताजी की जयजयकार गूंज उठती है, देखते ही देखते श्रावण शुक्ला एकादशी – १३ अगस्त १९८९ का वह पवित्र दिवस भी आ गया, जब हस्तिनापुर की पावन धरा पर विशाल जनसभा के मध्य कन्या माधुरी ने अपने केशों का लुंचन करना प्रारम्भ किया ” अपने लंबे – लंबे केश जब उन्होंने उखाड़े तो सारी जनता रो पड़ी ” पुनः दीक्षा लेने के पूर्व चूंकि रक्षाबंधन नजदीक था अतः अपने चारों भाइयों को उन्होंने अंतिम राखी बांधी, वह दृश्य वास्तव में अत्यंत कारुणिक था ” ] [ विशेष – यहाँ पर माधुरी कन्या को केशलोंच करते एवं केशलोंच के बाद चारों भाइयों को राखी बांधते हुए दिखाएँ, चारों भाई रो रहे हैं, भतीजे जम्बू और वीरकुमार को भी राखी बांधते दिखाएँ ] [ पुनः मंगल स्नान कर वह श्वेत साड़ी जो आर्यिकावस्था का चिन्ह है ; पहनकर जब मंगल चौक पर बैठीं तब ज्ञानमती माताजी कहती हैं ] –
ज्ञानमती माताजी – धर्मप्रेमी महानुभावों ! यह टिकैतनगर में जन्मीं लाला श्री छोटेलालजी एवं माता श्रीमती मोहिनी देवी की कन्या कु. माधुरी जो कि मेरी शिष्या हैं , दीक्षा लेना चाहती हैं, क्या यह दीक्षा के योग्य हैं ? क्या आप उन्हें अनुमति प्रदान करते हैं ? बोलो, परिवार वालों , मैं इन्हें दीक्षा देऊं क्या ?
सभी भाई – (आपस में ) देखो न भैया ! कैसी निष्ठुर हैं माताजी ! पहले तो हमारी फूल सी कोमल बहन के बाल उखाड़ दिए फिर पूछती हैं दीक्षा देऊं क्या ! अरे ऐसे योग्य शिष्य तो विरले ही मिलते हैं ” [सभी करतल ध्वनि और जय- जयकार के साथ दीक्षा की अनुमोदना करते हैं, माताजी उनके ऊपर दीक्षा के संस्कार करती हैं और कहती हैं –
माताजी – मैं चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज, जो कि बीसवीं शताब्दी के प्रथमाचार्य हैं, उनके शिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज की शिष्या आर्यिका ज्ञानमती हूँ और यह मेरी शिष्या माधुरी है, जिसके ऊपर दीक्षा के सम्पूर्ण संस्कार करके मैं उसका नाम ‘ चंदनामती’ घोषित करती हूँ ” जय बोलो चंदनामती माताजी की – सभी मिलकर – जय”जय हो, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की जय, आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की जय ” रत्नमती माताजी की जय “
[सूत्रधार – तो बंधुओं ! देखा आपने, कुमारी माधुरी से आर्यिका श्री चंदनामती माताजी बनने तक की यात्रा के कतिपय दृश्य। वास्तव में तो इनके अंदर इतने गुण विद्यमान हैं कि एक –एक गुण के वर्णन में कई ग्रन्थ बन जाएँ , सचमुच अद्वितीय गुरू की अद्वितीय शिष्या हैं ये , दीक्षा लेने के बाद से अब तक पूज्य माताजी के साथ उनके २८ चातुर्मास संपन्न हो चुके हैं , इस मध्य सदा गुरू की प्रतिछाया बनकर ख्याति,लाभ,पूजा से दूर उनका समर्पित व्यक्तित्व, उनका कृतित्व अद्भुत है, वन्दनीय है अभिवंदनीय है, स्मरणीय है, अनुकरणीय है,ग्रहणीय है। वे सदैव आगंतुक भक्तों एवं सभी संघस्थ शिष्यों को यही प्रेरणा देती हैं कि [ यहाँ एक बालिका को प्रवचन करते हुए दिखावें ] –
पूज्य आर्यिका श्री चंदनामती माताजी – भव्यात्माओं ! जैसे गाड़ी में ब्रेक जरूरी है वैसे ही गुरू जिंदगी की गाड़ी का ब्रेक है ” बिना ब्रेक के गाड़ी बेकार है और बिना गुरू के जिंदगी बेकार है ” जिंदगी में एक गुरू जरूरी हैं फिर वो चाहे मिट्टी के द्रोणाचार्य ही क्यों न हों ” गुरू एक तरह से फेमिली डॉक्टर है जो मन का इलाज करता है तन तो कभी –कभार बीमार पड़ता है पर मन तो सदैव बीमार है , इसकी औषधि गोली नहीं श्रीगुरु की बोली है अतः जीवन में गुरू अवश्य बनाएँ और गुरूर से दूर रहें ” बंधुओं !