विश्ववंद्य जगद्हितैषी चारित्रचक्रवर्ती हे शांतिसागर! इस विकट समय में जब कि अज्ञानरूपी अंधकार में यह जैन समाज अपनी स्वात्मनिधि को ढूंढ रही थी, उस समय आपने ज्ञानरूपी सूर्य बन करके प्रत्येक कोने-कोने में प्रकाश पैâला दिया, सूर्य की किरणों में उष्णता रहती है परन्तु अहो शांतिसूर्य! आपके प्रकाश में एक अतीव शांति मिल रही है।हे शांति सुधाकर! आपने दक्षिण, उत्तर इत्यादि चारों तरफ के जीवों को स्वात्मानुभव अमृत का पान कराया और करा रहे हैं कि जिसके फलस्वरूप वे कृतकृत्य हो गये हैं।हे अकलंक! स्वत: कलंकरहित होते हुए आपने भव्यजीवों के लिए कर्मकलंक को दूर करने का मार्ग दिखलाया। नाथ! इसलिए आज यह जैन जनता आपको पाकर सनाथ हो गई है। अहो भगवन्! इस मर्त्यलोक में आपकी कीर्तिरूपी ध्वजा फहरा रही है, जो कि गगनचुंबित हो जाने से मानो सबको बुला रही है कि आओ-आओ हे धर्मवीरों! आओ! परमशांति को प्राप्त करो।हे मुनिवर! मर्त्यलोक के सौभाग्य तिलक! आज इस ‘‘वसुन्धरा’’ देवी के सौभाग्य को देखकर ही मानो ‘‘स्वर्गश्री’’ को ईर्ष्या उत्पन्न हो गई है क्या? जो कि इस ‘‘धरावती’’ के सौभाग्य को छीनने का प्रयत्न कर रही है परन्तु हे ‘‘स्वर्गश्री’’ तू याद रख, इस मत्सरभाव से तुझे क्या सदैव सुख मिल सकता है? नहीं, एक न एक दिन तुझे भी वसुन्धरा के समान होना पड़ेगा क्योंकि यह ‘‘वर’’ मुक्तिश्री के ही योग्य है। उसे ही अक्षयसुख भोगने का अधिकार है।
हे जिनपुत्र! आपको जिनेंद्रप्रभु ने जो ‘‘युवराज’’ पदवी प्रदान की है, सो ठीक ही है, क्योंकि भविष्य में त्रिभुवनराज्य के अधिकारी आप ही हैं।हे भट्टारक! युद्ध क्षेत्र में आपकी इस वीरता को देखकर मोह सम्राट् की सेना भयभीत हो स्तब्ध है तथा विचार में है कि कदाचित् एक वीरभट से हार गये तो क्या हुआ, क्योंकि सर्वलोक में हमारी सत्ता बलवान है ही।हे धर्मवीर! यमराज से हँस-हँस कर सामना करने वाले व मृत्यु को महोत्सव मानने वाले ‘‘जिनकुमार’’ के सिवाय कौन हो सकते हैं? कोई नहीं, परन्तु हम लोग अपने स्वार्थ के वश होकर खेदखिन्न हो रहे हैं।
‘‘अहो धर्मस्तम्भ व धर्म की धुरा के धारक! आपने इस धुरा को ‘‘श्री वीरसागर’’ जी के कंधों पर धरकर उन्हें उत्तराधिकारी बनाया कि जिससे आचार्य परम्परा के द्वारा भव्यजीव अपना कल्याण करते रहें। यह अत्यन्त हर्ष की बात है कि जिससे हम लोगों को कुछ संतोष प्राप्त हुआ, जिनशासन की छत्रछाया में चिरकाल तक रहकर हम लोग संसाररूपी ताप से बचते रहेंगे।हे सिद्धांतसंरक्षक व धर्मतीर्थसंवर्द्धक! जिस प्रकार कलिकाल में धर्मसंरक्षण के लिए श्री धरसेनाचार्य ने जिनश्रुत को श्री पुष्पदंत जी व भूतबलि जी को पढ़ाया था तथा उन महर्षियों ने उसे षट्खंडागम के रूप में लिपिबद्ध किया था, वैसे ही वर्तमान में आपने उसी परमपावन षट्खंडागम धवलगं्रथ को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण करवाकर चिरकाल तक जिनशासन की रक्षा की। ऋषिवर्य! आपके लोकोपकार अवर्णनीय हैं। हम लोग उसे शब्दबद्ध कहाँ तक करेंगे?
हे जगद्गुरो! इस श्रद्धारूपी कुसुमांजलि को भरकर आपके चरणकमलों में समर्पण करते हुए विनम्र होकर शत-शत बार नमस्कार करते हुए मैं यह प्रार्थना करती हूँ। यही आशीर्वाद दीजिए कि आपके पदचिन्हों पर चलकर अपनी जीवनयात्रा सफल कर सवूँâ। नमोस्तु-३
ॐ ह्रीं श्री शांतिसागर मुनीश्वराय नम:
द्वितीय भाद्रपद कृ. ३, वीर नि. सं. २४८१ क्षुल्लिका वीरमती
सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी, ईसवी सन् १९५५ (वर्तमान गणिनी ज्ञानमती)