Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

आचार्य शांतिसागर परम्परा का पद्यमयी इतिहास

February 18, 2017कविताएँjambudweep

आचार्य शांतिसागर परम्परा का पद्यमयी इतिहास



यह भारत वसुन्धरा ऋषियों की जन्मभूमि कहलाती है।

उनके ही पावन कृत्यों से यह कर्मभूमि कहलाती है।।

यहाँ धर्म की गंगा बहने से यह धर्मभूमि कहलाती है।

परकृत उपसर्ग सहन करने से धन्य भूमि कहलाती है।।१।।

यहाँ कितने ही कविराज हुए जो गुरु महिमा लिख चले गए।

क्या दौलत क्या भूधर, द्यानत को गुरु के दर्शन नहीं हुए।।

कब मिलहीं वे मुनिराज जिन्होंने से सरेंगे सगरे काज मेरे।

बस यही पंक्ति रटते रटते चल दिये काल के मुख में वे।।२।।

बीसवीं सदी का यह मार्मिक इतिहास सुना है गुरुओं से।

जब दक्षिण भारत में केवल दो एक मुनी ही रहते थे।।

उत्तर भारत में नाम लेश भी सुनने में कम आता था।

अतएव शास्त्र का पठन श्रवण भक्तों की प्यास बुझाता था।।३।।

इक शांतिसिंधु नामक मुनिवर देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य हुए।

निज शुद्ध दिगम्बर चर्या से वे जग में बहुत प्रसिद्ध हुए।।

आजादी से त्रय युग पहले वे सप्तऋषी संग आए थे।

आचरणों का दुर्भिक्ष दूर करने वे दिल्ली आए थे।।४।।

सम्मेदशिखर जी सिद्धक्षेत्र यात्रा को मुनि संघ निकला था।

तब सारे उत्तर भारत में मुनि के अस्तित्व को खतरा था।।

पर दृढ़ता की उस मूरत ने सबके ही छक्के छुड़ा दिये।

अंग्रेजों ने भी शांतिसिंधु के सन्मुख मस्तक झुका लिए।।५।।

कहिं पर न विहार रुका उनका लन्दन से भी आज्ञा आई।

उस यथाजात मुद्रा धारी ने कई फोटुएं खिंचवाई।।

इतिहास हमारे भारत का युग युग तक यह बतलाएगा।

ऋषि मुनियों का उत्कृष्ट त्याग मानवता को दर्शाएगा।।६।।

उत्तर भारत के जन-जन में कुछ ज्ञान ज्योति प्रस्पुटित हुई।

जहाँ खान पान अविवेक पूर्ण वहिं कुछ विवेक की वृद्धि हुई।।

नेत्रों को धन्य किया अपने जीवन भी सफल किया जग ने।

मुनिदर्शन दुर्लभ को पाकर सौभाग्य सराहा था सबने।।७।।

जो चले गए बिन गुरुदर्शन उनकी आशा नहिं भर पाई।

पर हम सबकी प्यासी अँखियाँ मुनिवर का दर्शन कर पाई।।

इक सदी बीसवीं के पहले आचार्य बने शांतिसागर।

इनसे आगे का स्रोत बहा ये चारितचक्री रत्नाकर।।८।।

मुनिपरम्परा के संग में ही नारी दीक्षा प्रारंभ हुई।

थीं चन्द्रमती आर्यिका बनीं गुरुवर की शिष्या प्रथम हुई।।

क्षुल्लिका अजितमती ने गुरुवर का वरदहस्त भी प्राप्त किया।

क्षुल्लक समन्तभद्र ने दीक्षा लेकर निज उत्थान किया।।९।।

इस तरह शताब्दी में चउविध संघ का क्रम गुरु ने चला दिया।

मानव की हृदय कलुषता को गुरु उपदेशों ने गला दिया।।

दीक्षाओं की शृँखला चली मुनिमारग आज प्रशस्त हुआ।

अस्वस्थ असंयत जीवन भी इनकी चर्या से स्वस्थ हुआ।।१०।।

छत्तीस वर्ष तक शांतिसिंधु ने चतुर्मुखी सुविकास किया।

व्रतसंयम का चरमोत्कर्ष जब दस हजार उपवास किया।।

जिनवाणी सेवा में महान सिद्धान्त ग्रन्थ उद्धार किया।

चारित्रचक्रवर्ती कहकर जनता ने गुरु सत्कार किया।।११।।

यह पद केवल औपाधिक था तुमको उससे क्या नाता था।

तब ही तुम जैसी काया पर सर्पों ने झुकाया माथा था।।

कोन्नूर गुफा में बहुत देर तक सर्प गले में लिपट गया।

खुद को ही पावन करने को मानो वह तुमसे चिपट गया।।१२।।

ऐसे कितने ही अतिशय जो तुमने जीवन में प्राप्त किए।

कलियुग में भी सतयुग जैसे गुरुदेव जगत को प्राप्त हुए।।

जितना काया से बन पाया उतना उससे श्रम साध लिया।

फिर जा वुंथलगिरि पर्वत पर आहार आदि भी त्याग दिया।।१३।।

उन्निस सौ पचपन इसवी सन् चल रही समाधी गुरुवर की।

बारहवर्षीय तपस्या की अन्तिम तिथि आई मुनिवर की।।

आचार्यपट्ट निज त्याग दिया श्रीवीरसिंधु को कहलाया।

हो आज से तुम आचार्य चतुर्विध संघ ने उनको लिखवाया।।१४।।

नूतन पिच्छी दे सूरजमल ब्रह्मचारी जयपुर भेज दिया।

आज्ञा कर ली स्वीकार शिष्य ने यह वापस संदेश दिया।।

गुरुदेव पूर्ण वैरागी को आत्मा आत्मा में लीन हुई।

भादों सुदि दूज पुण्यतिथि में आत्मा शरीर से भिन्न हुई।।१५।।

लाखों नर नारी ने देखा मुनिवर का शौर्य पराक्रम भी।

नहिं कोई नेत्र बचे जिससे आंसू का झरना बहा नहीं।।

अब तो गुरु के आदेशों का पालन जीवन में शेष रहा।

अब जन समूह आचार्य वीरसागर में उनको देख रहा।।१६।।

श्री ज्ञानमती माताजी जब क्षुल्लिका अवस्था में ही थीं।

गुरुवर के दर्शन करने को कुंथलगिरि पर वे पहुँची थीं।।

क्षुल्लिका विशालमती के संग जा गुरु के चरण प्रणाम किया।

परिचय संक्षिप्त पूछ गुरु ने मुनि वीरसिंधु का नाम लिया।।१७।।

आचार्यश्री के हाथों से ही दीक्षा की शुभ इच्छा थी।

पर गुरु ने अपना त्याग बता उनको छोटी सी शिक्षा दी।।

उत्तर की अम्मा कहकर लघुवय लखकर गुरु संतुष्ट हुए।

तुम वीरसिंधु से दीक्षा लेना यह कह आशिर्वचन दिये।।१८।।

जयपुर में ही शुभ तिथि मुहूर्त में प्रथम पट्ट अभिषेक हुआ।

मुनि वीरसिंधु ने उदासीन मन से गुरुपद स्वीकार किया।।

चार्य वीरसागर जी की जयकारों से नभ गूँज उठा।

उस युग का था यह प्रथम चतुर्विध संघ न कोई दूजा था।।१९।।

आचार्य वीरसागर मुनिवर मितभाषी ज्येष्ठचरित्री थे।

स्वाध्यायशील गंभीरमना दृढ़ता की एक प्रशस्ती थे।।

शिष्यों के संग में पिता सदृश रहकर वात्सल्य लुटाते थे।

सर्वांग योग्य शिक्षाओं से शिष्यों को योग्य बनाते थे।।२०।।

शिष्यों की इसी शृँखला में क्वांरी कन्या का क्रम आया।

पहली कुमारिका बनी आर्यिका ज्ञानमती जग ने पाया।।

लगभग दो वर्षों तक उस राजस्थान प्रान्त में भ्रमण किया।

शारीरिक अशक्तता वश फिर गुरुवर ने जयपुर गमन किया।।२१।।

खानिया क्षेत्र श्री वीरसिंधु का कर्मक्षेत्र बन आया था।

आश्विन मावस को जहाँ उन्होंने मरण समाधि बनाया था।।

सन् सत्तावन की काली मावस उन्हें उजाली बना गई।

साधक की साध्य साधना को मानों सिद्धी ही दिला गई।।२२।।

अब संघ चतुर्विध के समक्ष नायक का प्रश्न उभर आया।

फिर संघ चतुर्विध ने मिलकर शिवसागर जी को अपनाया।।

थे बड़े तपस्वी ज्येष्ठ शिष्य आगम के दृढ़ श्रद्धानी थे।

निज गुरु का मान बढ़ाने में शिवसागर मुनिवर नामी थे।।२३।।

आचार्य बने वात्सल्य दिया संघ एकसूत्र में बंधा रहा।

साधू साध्वी बनने का क्रम कुछ परम्परा से और बढ़ा।।

चालीस साधुओं के विशाल संघ का जग में इतिहास रहा।

मेवाड़ व राजस्थान तथा गुजरात में संघ प्रवास रहा।।२४।।

श्री वीरसिंधु के बाद संघ गिरनार क्षेत्र की ओर चला।

ज्ञानी वरिष्ठ मुनि तथा आर्यिकाओं से गुरु सम्मान बढ़ा।।

इस यात्रा के पश्चात् पुन: वे राजस्थान पधारे थे।

भक्तों की भक्ती से हर्षित भी नभ के चाँद सितारे थे।।२५।।

जिस राजस्थान मरुस्थल में हरियाली कहीं न दिखती है।

वहाँ देवशास्त्रगुरु भक्ती की हरियाली सब में दिखती है।।

बस इसीलिए मुनिसंघों का सान्निध्य अधिक वहाँ मिलता है।

अधिकाधिक पुण्यार्जन करने वालों का भाग्य निखरता है।।२६।।

आचार्य संघ के सभी साधु संयम के कट्टर साधक थे।

निज ज्ञान साधना में तत्पर सचमुच शिवपथ आराधक थे।।

जीवन की सुख दुख घड़ियों में, दश वर्ष समय भी निकल गया।

आचार्य संघ श्री महावीर जी तीर्थक्षेत्र पर पहुँच गया।।२७।।

श्री शांतिवीरनगर में शांतिनाथ प्रतिष्ठा अवसर था।

दो गुरुओं के संस्मरण चिन्ह से युक्त नवोदित तीरथ था।।

फाल्गुन शुक्ला में पंचकल्याणक उत्सव होने वाला था।

ग्यारह दीक्षा का एक साथ दीक्षोत्सव होने वाला था।।२८।।

श्री शिवसागर जी की प्रसन्नता अंग अंग से फूट रही।

अपनी बगिया में वृद्धि सोच अन्तर की कलियाँ फूट रहीं।।

क्या मालुम था उन कलियों को खुद गुरुवर खिला न पाएंगे।

अपनी खुशियों में रमकर वे अपने ही संग ले जाएंगे।।२९।।

ज्वर का प्रकोप कुछ बढ़ा देह में सहज क्षीणता आई थी।

पर उनके तप के नहिं समक्ष ऐसी प्रतीति हो पाई थी।।

ज्वर का होगा शायद निमित्त या काल स्वयं ही आया था।

फाल्गुनी अमावस दिवस पूज्यवर का अंतिम दिन आया था।।३०।।

चल दिये चतुर्विध संघ छोड़ नवकार मंत्र सुनते-सुनते।

महावीर प्रभू के चरणों की पावन रज मस्तक पर धरके।।

लेकिन इस अघटित घटना को नहिं साधु सहन कर पाए थे।

थे कौन नेत्र जिनने आँसू के झरने नहीं बहाए थे।।३१।।

यूँ तो सब विज्ञ जानते थे सबको इस जग से जाना है।

अपना शरीर जब नहिं अपना तब किसका कौन ठिकाना है।।

लेकिन ऐसे मार्मिक प्रसंग में ज्ञानी भी हिल जाता है।

यह धर्मप्रेम तो रागी मुनिराजों में भी आ जाता है।।३२।।

उन्निस सौ उनहत्तर सन् का वह कैसा अशुभ दिवस आया।

जब सभी साधुओं के ऊपर से उठा पिता जैसा साया।।

उस परम कारुणिक अवसर के क्षण नहीं लेखनी लिख सकती।

गंभीर नदी भी रोई उस क्षण रोई महावीर धरती।।३३।।

पर जाने वाला चला गया वह वापस नहिं आ सकता है।

संयोग वियोग रहित पदवी वैरागी ही पा सकता है।।

कुछ समय चला कुछ धैर्य बंधा आगे का निर्णय शेष बचा।

किसको आचार्य बनाना है सारे संघ में यह शोर मचा।।३४।।

कुछ दिन से अलग धर्मसागर मुनिवर भी यहाँ मिले आकर।

चउविध संघ को निर्णय लेना था कौन बने आचार्य प्रवर।।

बहुतेक विचार विमर्शों में बस साधु संघ एकत्र हुआ।

श्रीधर्मसिंधु श्रुतसागर दो नामों पर बहुत विमर्श हुआ।।३५।।

विद्वत्ता में श्रुतसागर जी का नाम लिया कुछ मुनियों ने।

लेकिन दीक्षा में ज्येष्ठ धर्मसागर जी थे सब मुनियों में।।

अतएव उन्हीं का तृतीय पट्ट आचार्य किया निर्णय सबने।

हो गया पट्ट अभिषेक वहीं चउसंघ के वे आचार्य बने।।३६।।

कुछ पुण्य विशेष रहा उनका सर्वाधिक दीक्षा दे डालीं।

श्री धर्मसिंधु ने धर्मक्षेत्र में विस्तृत उन्नति कर डाली।।

पच्चीस सौंवे निर्वाण महोत्सव पर दिल्ली संघ आया था।

आचार्यश्री का प्रमुख मार्गदर्शन जन-जन को भाया था।।३७।।

चारों प्रकार के जैनों का सम्मेलन इस उत्सव में था।

राष्ट्रीय महोत्सव का व्यापक रूपक भी इस उत्सव में था।।

तब से ही दिल्ली वासी भी आचार्य श्री को जान गए।

इस पावन परम्परा की कट्टरता को भी पहचान गए।।३८।।

उत्तरप्रदेश पश्चिमी क्षेत्र का बच्चा-बच्चा कहता है।

ऐसा निस्पृह आचार्य नहीं जग में कोई मिल सकता है।।

इस क्षेत्र में भी उनके अनेक शहरों में संघ विहार हुए।

वे चार वर्ष पश्चात् पुन: मरुभूमि तरफ ही चले गये।।३९।।

अट्ठारह वर्षों तक शिष्यों के संवद्र्धन का कार्य किया।

इस मध्य पूज्य श्रुतसागर जी ने पुन: संघ स्वीकार किया।।

मुनिराज अजितसागर जी का लघु संघ अलग ही रहता था।

शिष्यों के पठन व पाठन में ही तृप्त सदा वह रहता था।।४०।।

उन्नीस शतक बहत्तर सन् में ज्ञानमती माताजी भी।

अपना आरिका संघ लेकर पैदल दिल्ली की ओर चलीं।।

निर्वाणोत्सव के बाद हस्तिनापुर की तरफ विहार हुआ।

उनके इस पद विहार से इक प्राचीन तीर्थउद्धार हुआ।।४१।।

श्री धर्मसिंधु भी संघ सहित आए थे इस तीरथ पर।

महावीर प्रभू को सूरिमंत्र दे गये जो आज कमल मंदिर।।

यहाँ निर्मित जम्बूद्वीप रचना है ज्ञानमती की अमरकृती।

यह एक मिशाल जगत में है नारी आदर्शों की स्मृति।।४२।।

सन् उन्निस सौ सत्तासी था सीकर में संघ विराज रहा।

आचार्य धर्मसागर जी का अंतिम समाधि का काल वहाँ।।

अपने शिष्यों के मध्य उन्होंने विधिवत् मरण समाधि किया।

प्रभु नाम मंत्र जपते-जपते गुरु वीरसिंधु का नाम लिया।।४३।।

वैशाख बदी नवमी का दिन जब गुरुवर सबको छोड़ चले।

अपने आदर्शों की इस जग में अमिट छाप वे छोड़ चले।।

यह दीर्घ काल भी निकल गया मानों कुछ चंद समय बनकर।

फिर से जिम्मेदारी आई आचार्य बनाने की संघ पर।।४४।।

पहले तो सभी साधुओं ने श्रुतसागर जी से विनय किया।

लेकिन निज नियमबद्धता से उनने न उसे स्वीकार किया।।

फिर वरिष्ठता की श्रेणी में श्री अजितसिंधु का क्रम आया।

तब शहर उदयपुर में चतुर्थ आचार्यपट्ट उनने पाया।।४५।।

चउविध संघ का संचालन कर वे तो अपने में समा गए।

उन्निस सौ नब्बे की वैशाख पूर्णिमा को वे चले गए।।

सन् उन्निस सौ नब्बे को था दस जून ज्येष्ठ वदि में आया।

श्रेयांस सिंधु मुनि ने पंचम आचार्य पट्ट तब था पाया।।४६।।

चौबीस जून सन् नब्बे में ही एक और आचार्य बने।

मुनि वर्धमानसागर द्वितीय थे पंचम पट्टाचार्य बने।।

सन् उन्निस सौ नब्बे से दो आचार्यों की यह परम्परा।

चल गई शांतिसागर जी का उपवन दोनों से हरा-भरा।।४७।।

श्रेयांससिंधु ने संघ सहित दक्षिण की ओर विहार किया।

वात्सल्यमूर्ति आचार्यप्रवर ने धर्म का खूब प्रचार किया।।

दो वर्ष अभी नहिं पूर्ण हुए थे कालचक्र ने वार किया।

दो तीन दिनों की बीमारी ने उन पर कड़ा प्रहार किया।।४८।।

था नगर बांसवाड़ा जहाँ पर उनकी समाधि का दिन आया।

फाल्गुन वदि एकम् दिवस संघ के लिए वियोगी क्षण लाया।।

वे अपनी दृढ़ता का प्रतीक अपने पीछे बस छोड़ गए।

कितनों के बोझिल मन को वे अपनी ममता से तोड़ गये।।४९।।

प्राणी अपने लघु जीवन में कितने ही स्वांग रचाता है।

पर कालचक्र के आने पर सब स्वांग रचा रह जाता है।।

केवल उसका शुभ अशुभ कर्म ही उसके संग मे जाता है।

बाकी सारा ताना बाना बस यहीं पड़ा रह जाता है।।५०।।

फिर से विमर्श प्रारंभ हुआ षष्ठम आचार्य किसे मानें।

संघस्थ साधुओं के हार्दिक भावों को कैसे पहचानें।।

अब वरिष्ठता की श्रेणी में श्री अभिनंदनसागर मुनि हैं।

बस इसीलिए षष्ठम आचार्यपट्ट के वे ही लायक हैं।।५१।।

यह निर्णय संघ साधुओं का शीघ्रातिशीघ्र सम्पन्न हुआ।

खान्दूकालोनी में जनता के मध्य कार्य सम्पन्न हुआ।।

तब संघ चतुर्विध ने उनको ही घोषित पट्टाचार्य किया।

सब जनसमूह ने भक्तिभाव से गुरु का जयजयकार किया।।५२।।

तिथि फाल्गुन सुदी चतुर्थी का सन् उन्निस सौ बानवे वर्ष।

था आठ मार्च रविवार चतुर्विध संघ में छाया परम हर्ष।।

षष्ठम आचार्य पट्ट पद पर हो गए प्रतिष्ठापित मुनिवर।

श्री शांतिसिंधु की परम्परा में निष्कलंक आचार्य प्रवर।।५३।।

जयशील रहो आचार्यप्रवर यह परम्परा जयशील रहे।

कलिकाल प्रभावों से विमुक्त दृढ़ता का शुद्ध प्रतीक रहे।।

अन्तिम मुनि वीरांगज तक यह मुनि परम्परा ही जाएगी।

‘चन्दनामती’’ यह श्रद्धा ही युग-युग तक ज्योति जलाएगी।।५४।।

Tags: Jain Poetries
Previous post सत् नारी का बलिदान कभी, इस जग में व्यर्थ नहीं जाता Next post मातृभक्ति

Related Articles

निर्ग्रन्थ वन्दना गुरु स्तुति

June 11, 2020Indu Jain

नारी तेरे कितने रूप

October 26, 2014jambudweep

सीता जी से बनी हैं रामायण

February 1, 2018jambudweep
Privacy Policy