Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

आर्ष परम्परा में आर्यिका दीक्षा!

July 9, 2017जैनधर्मaadesh

आर्ष परम्परा में आर्यिका दीक्षा


आचार्य विद्यानन्द मुनि आर्षवाद आर्षग्रन्थेषु कथाकोषादिषु स्वरूपं ज्ञातव्यम्।
—(आचार्य सिंहनंदि, व्रततिथिनिर्णयम, २५४)
आर्ष ग्रंथों अर्थात् ऋषियों एवं मुनियों द्वारा प्रणीत ग्रंथों एवं कथा—कोष आदि के ग्रंथों से स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए। भगवान् ऋषभदेव की आर्ष—परम्परा के अनुगामियों को यह बात विचारणीय है कि क्या आर्यिकाओं की दीक्षा आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु मुनिराज के द्वारा दी जाती है ? आर्ष—परम्परा के शास्त्रों में आर्यिकाओं की दीक्षा आर्यिकाओं द्वारा ही दी जाने के अनेक प्रमाण पढ़ने को मिलते हैं। कुछ आगमोक्त उदाहरण इस प्रकार हैं—

ब्राह्मी और सुन्दरी की आर्यिका दीक्षा

ब्राह्मीय सुन्दरीयं च समस्तार्यागणाग्रणी:। कुमारीभ्यां प्रिये ताभ्यां मारभंग: स्पुटीकृत:।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, १२/४२)
हे प्रिय ! यह समस्त आर्यिकाओं की अग्रणी ब्राह्मी है और यह सुन्दरी है। इन दोनों ने कुमारी अवस्था में ही कामदेव को पराजित कर दिया है।
‘‘ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे कुमार्यौ धैर्यसंगते। प्रव्रज्य बहुनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ९/२१७)
धैर्य से युक्त ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कुमारियाँ अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ले आर्यिकाओं की स्वामिनी बन गयीं। पुरुदेवचम्पू में भी इस प्रकार कहा गया है—
‘ब्राह्मीसुन्दर्यौ च संसारनिर्वेदनिर्धूतविवाहचिन्ते भट्टारकपादमूले दीक्षामासाद्य गणिनीगणप्रधाने बभूवतु:।’
—(आचार्य पुरुदेवचम्पू, टीका, ८/४५)
संसार से वैराग्य होने के कारण जिन्होंने विवाह की चिन्ता दूर कर दी थी, ऐसी ब्राह्मी और सुन्दरी भी भगवान के पादमूल में दीक्षा प्राप्त कर आर्यिकाओं के समूह में प्रधान हो गयीं। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘ब्राह्मी ससुन्दरी तुष्टा प्रपद्य शरणं पुरुम्। अभिषेकम वावा भूर्दािमकाणां पुररसरी’’।।
(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, आदिनाथचरित, ३/८४)
सुन्दरी और ब्राह्मी ने अतिसन्तुष्ट हो आदिनाथ भगवान की शरण ली और मनुष्य तथा देवों से अभिपिक्त होकर आर्यिकाओ में अग्रणी हुई। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘भरतरयानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात्। गणिनीपदमार्याणां सा भेजे पूजितामरै:।।’’
—(आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, २४/१७५)
भरत की बहन ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों ने कुमारी अवस्था में ही समस्त आर्यिकाओं का गणिनी पद ग्रहण किया।

सुलोचना की आर्यिका दीक्षा

आर्यिका ब्राह्मी और सुन्दरी से सेनापति जयकुमार की पत्नी सुलोचना ने दीक्षा ग्रहण की। यथा—
‘‘दु:संसारस्वभावज्ञा सपत्नीभि: सिताम्बरा।
ब्राह्मीं च सुन्दरीं श्रित्वा प्रवव्राज सुलोचना।।
द्वादशांगधरो जात: क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी।
एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, १२/५१—५२)
दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ सपेद वस्त्र धारण कर लिये और आर्यिका ब्राह्मी तथा सुन्दरी के पास जाकर दीक्षा ले ली। मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र की द्वादशांग के पाठी होकर भगवान के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गयी। पाण्डवपुराण में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु सुलोचना के साथ सुभद्रा ने भी दीक्षा ली थी। यथा—
‘‘सुलोचना वियोगार्ता विरक्ता च सुभद्रया। चक्रिपत्न्या समं ब्राह्मीसमीपे व्रतमग्रहीत्।।’’
—(आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, ३/२७७)
पति—वियोग से दु:खी सुलोचना ने विरक्त होकर चक्रवर्ती भरत की पत्नी सुभद्रा के साथ ब्राह्मी आर्यिका के समीप दीक्षा ग्रहण की।

सीता की आर्यिका दीक्षा

‘‘पृथ्वीमत्यार्यया तावद्दीक्षिता जनकात्मजा।
ततो दिव्यानुभावेन सा विघ्नपरिवर्जिता।
संवृत्ता श्रमणा साध्वी वस्त्रमात्रपरिग्रहा।।’’
—(आचार्य रविसेन, पद्मपुराण, १०५/७७—७८)
सीता राम आदि सभी को सम्बोधित करके पृथ्वीमति आर्यिका से दीक्षित हो गयी। तदनन्तर देवकृत प्रभाव से जिसके सब विघ्न दूर हो गये थे, ऐसी पतिव्रता सीता वस्त्र मात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्यिका हो गयीं। उत्तरपुराण में इस प्रकार मिलता है कि सीता और लक्ष्मण की पृथ्वीसुन्दरी आदि पत्नियों ने आर्यिका दीक्षा श्रुतवती आर्यिका से ली थी। यथा—
‘‘तथा सीता महादेवी पृथ्वीसुन्दरी युता:।
देव्य: श्रुतवती क्षान्तिनिकटे तपसि स्थिता:।।
रामचत्रयग्रदेव्याद्या: काश्चिदीयुरितोऽच्युतम् ।।’’
—(आचार्य गुणचन्द्र, उत्तरपुराण, ६८/७१२, ७२१)
सीता महादेवी और पृथ्वीसुन्दरी से सहित अनेक देवियों ने आर्यिका श्रुतवती के समीप दीक्षा धारण कर ली। तदनंतर सीता तथा पृथ्वीसुन्दरी आदि कितनी ही आर्यिकाएँ अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुई। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
सीयापुहइहिं सुयवइहिं पाय आसंघिय भावें चत्तराय।
भुवणुट्ठिउ तिट्ठावज्जियाउ जायाउ ताउ तिंह अज्जियाउ।।
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ७९/१३/२—३/२२३)
सीता और पृथ्वीदेवी ने भी श्रुतव्रती आर्यिका के रागशून्य चरणों का भावपूर्वक आश्रय लिया और संसार से विरक्त, तृष्णा से रहित वे दोनों आर्यिकाएँ बन गयीं।
(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ६८/६६६)

कुन्ती आदि की आर्यिका दीक्षा

‘‘कुन्ती च द्रौपदी देवी सुभद्राद्याश्च योषित:।
राजीमत्या: समीपेता: समरतारतपसि रिथता:।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६४/१४४)
कुन्ती, द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि जो स्त्रियाँ थीं, वे सब राजीमती आर्यिका के समीप तप में लीन हो गयीं।
‘‘राजीमत्यार्यिकाभ्यर्णे कुन्ती हित्वा सुकुन्तलान्।
सुभद्रया च द्रौपद्या संयमं परमग्रहीत्।।’’
—(आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, २५/१५)
माता कुन्ती ने सुभद्रा और द्रौपदी के साथ राजीमती आर्यिका२ के पास जाकर केशलोंच किया और आर्यिकाओं का उत्तम संयम धारण किया। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु राजीमती आर्यिका के स्थान पर राजमती आर्यिका का नाम मिलता है। यथा—
‘कोंति सुहद्द दुवइ सुयसत्तउ, रायमईहि पासि णिक्खंतउ।’
—(महाकवि पुष्पदंत, महापुराण, ९२/१९/६/२४९)
शास्त्रों में आसक्त कुन्ती, सुभद्रा और द्रौपदी ने आर्यिका राजमती के पास दीक्षा ले ली।

धनश्री, मित्रश्री तथा नागश्री की आर्यिका दीक्षा

नकुल और सहदेव पूर्व भव में क्रमश: धनश्री और मित्रश्री नाम की कन्याएँ थीं। इनकी छोटी बहिन नागश्री ने मुनि को आहारदान में विष दे दिया था। इस कृत्य में धनश्री और मित्रश्री दोनों ने समस्त संसार—वासना से विरक्त होकर गुणवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण कीं। यथा—
‘‘धनश्रीश्चापि मित्रश्रीर्गुणवत्यार्यिकान्तिके।
अदीक्षिषातां नि:शेषभववासविषादत:।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६४/१३)
महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है, पर धनश्री के स्थान पर नागश्री का नाम मिलता है, यथा—
‘‘गुणवइखंतिहि पयइं णवेप्पिणु, कामु कोहु मोहु वि मेल्लेप्पिणु।
तरुणिहिं संजमगुणवित्थिण्णउ, मित्तणाय सिरिहिं मि वउं चिण्णउ।।’’
—(महाकवि पुष्पदंत, महापुराण, ९२//१५/४—५/२४५)
गुणवती आर्यिका के चरणों को प्रणाम कर काम, क्रोध और मोह को छोड़कर तरुणियों—मित्रश्री, नागश्री ने—भी संयमगुण से विस्तीर्ण (आर्यिका) व्रत ग्रहण कर लिये। नागश्री पूर्वभव में द्रौपदी का जीव था, तदनन्तर वह दुर्गन्धा५ नाम की कन्या हुई, जिसका नाम सुकुमारिका भी मिलता है।६ सुकुमारिका (नागश्री) के पूर्व पापोदय के कारण उसका शरीर दुर्गंधयुक्त था। उसने अपने पूर्वभव की निन्दा करते हुए एक दिन का उपवास किया तथा अनेक आर्यिकाओं से युक्त क्षान्ता नाम की आर्यिका को बड़ी भक्ति से भोजन कराया। तदनन्तर संसार से विरक्त होकर उन्हीं आर्यिका (क्षान्ता) से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। यथा—
‘‘आत्मानमपि निन्दन्तीं सोपवासान्यदा च स।
क्षान्तार्यामार्यिकायुक्तां भोजयित्वातिभक्तितत:।।
इति श्रुत्वार्यिकावाक्यं निर्विण्णा सुकुमारिका।
तदन्ते सा प्रवव्राज संसारभयवेदिनी।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६४/१२२, १३२)
उत्तरपुराण में इस प्रकार मिलता है किन्तु क्षान्ता आर्यिका के स्थान पर क्षान्ति आर्यिका का नाम मिलता है। यथा—
‘‘इते दीक्षामिति क्षान्तिवचनाकर्णनेन सा।
सुकुमारी च निर्विण्णा सम्मता निजबान्धवै:।।
तत्समीपेऽगमद्दीक्षामन्येद्युर्वनमागताम् ।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७२/२५६—५७)
क्षान्ति आर्यिका के वचन सुनकर सुकुमारी बहुत विरक्त हुई और अपने कुटुम्बीजन की सम्मति लेकर उसने उन्हीं आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली।

जम्बूस्वामी की माँ एव पत्नियों की आर्यिका दीक्षा

‘‘जिणवइ सुप्पइ—अज्जियहि पासि, दिक्खिय जिणवय—धरि महुरभासि।
पउमसिरि पमुहं चारि वि दिणीय, तविस दियाइं महि वण्णणीय।
मह उग्ग दित्त तवठाव खीण, हुय सयलि जिणायमि ते पवीण।।’’
—(जंबूसामिचरिउ, रइधू, ५८/१, पृष्ठ ६१)
मधुर वचन से जिनमति (जम्बूस्वामी की माँ) ने आर्यिकाश्री सुप्रभा से दीक्षा ले ली और वह जैन व्रत का पालन करने लगी। पद्मश्री, कमलश्री, रूपश्री, कनकश्री जम्बूकुमार की सुप्रसिद्ध पत्नियों ने भी आर्यिका व्रत धारण किए और सभी जन मिलकर एक जगह उग्र तपस्या करके शरीर को कृश किया और दूसरी तरफ वे सभी जिनागम में प्रवीण हो गए। जंबूसामिचरिउ में भी इस प्रकार मिलता है—
जणवइयए सुप्पअज्जियासु, तवचरणु लइउ पासम्मि तासु।
पउमसिरिपमुह वहुआउ जाउ, पव्वज्जिउ अज्जिउ जाउ ताउ।।
—(वीर विरचित, जंबूसामिचरिउ, १०/२१/४—५, पृष्ठ २१२)
जिनमति ने भी सुप्रभा आर्यिका के पास तपश्चरण ले लिया। पद्मश्री आदि प्रमुख जो बहुएँ थीं, वे भी प्रव्रजित होकर आर्यिकाएँ हो गयीं।

प्रभावती और प्रियदत्ता की आर्यिका दीक्षा

‘‘ततोऽवतीर्य भूभागं श्रीपुरं प्राप्य सद्गुरो:।
श्रीपालात्संयमं लेभे विलुब्धो बुधसेवित:।।
तन्मात्रा गुणवत्यास्तु दीक्षां प्राप्ता प्रभावती।
प्रियदत्ता मुनिं नत्वा प्रभावत्युपदेशत:।।
अदीक्षत क्षमापन्ना विरक्ते: फलमीदृशम्।।’’
—(आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, ३/२२६/२२७, २३२)
श्रीपुर नगर में सद्गुरु श्रीपाल मुनि से (हिरण्यवर्म ने) मुनिव्रत धारण किया, उनकी माता जो शशिप्रभा आर्यिका थी, उनके सान्निध्य में रहने वाली गुणवती आर्यिका से प्रभावती ने दीक्षा ग्रहण की। मुनि हिरण्यवर्म को नमस्कार करके प्रभावती आर्यिका के उपदेश से प्रियदत्ता भी क्षमा धारण करने वाली आर्यिका हो गयी। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘गुणवइयाइ पहावइ दिक्खिया।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ३०/९/११/२६८)
गुणवती आर्यिका से प्रभावती दीक्षित हुई।
‘‘कयलीवंदलकोमलगत्तइ, किउ णिक्खवणु तुरिउ पियदत्तइ।
संतहि दंतहि बहुगुणगणणिहि, चरणमूलि तहि गुणवइगणणिहि।।’’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ३०/१७/३—४/२७४)
केले के वृक्ष की तरह कोमल शरीर वाली प्रियदत्ता ने शान्त—दान्त बहुत से गुणों से गणनीय गुणवती आर्यिका के चरणों में तुरन्त संन्यास (आर्यिका दीक्षा) ले लिया।

कनकमाला और वसंतसेना की आर्यिका दीक्षा

कनकशांति की दो पत्नियाँ (कनकमाला, वसंतसेना) थीं। वह वन में क्रीड़ा करने के लिए अपनी दोनों प्रियाओं के साथ गया। वहाँ उसने विमलप्रभ नामक मुनि को देखा। उनके चरणों को वंदन कर उनके मुख से धर्मस्वरूप सुन लिया। उनका मन विरक्त हुआ, तत्काल उसने उन मुनीश के पास दीक्षा ली। कनकशांति की दोनों रानियों ने भी विमला नाम की आर्यिका के पास दीक्षा लेकर तप करना प्रारम्भ किया। जो कुलीन स्त्रियाँ होती हैं, वे अपने पति के अनुकूल ही आचरण रखती हैं। कुलीन स्त्रियों की यह प्रवृत्ति सर्वथा प्रशंसनीय है। यथा—
‘‘दिदीक्षे तत्क्षणे राज्ञयौ विमलागणिनीं श्रिते।
अदीक्षेतां तपोयुत्ते युत्तं तत्कुलयोषिताम्।।’’
—(आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, ५/४३
पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘प्राव्राजिष्टां तेऽपि निर्विण्णे विमलमतिपार्श्व।’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, शांतिनाथचरित, ४/३५)
दोनों रानियाँ (कनकमाला और वसन्तसेना) विमलमति आर्यिका के पास दीक्षित हो गयीं।

पूतिगन्धिका की आर्यिका दीक्षा

श्रीकृष्ण नारायण की दूसरी पटरानी रुक्मिणी, जो कि पूर्वभव में त्रिपद नामक धीवर की मण्डूकी नामक स्त्री से पूतिगन्धिका नामक पुत्री हुई। समाधिगुप्त मुनिराज ने उसके पूर्वभव सुनाये, जिससे उसने धर्म धारण कर आर्यिका संघ में प्रवेश किया। यथा—
पुरं सोपारकं याता तत्रार्या: समुपास्य सा।
ययौ राजगृहं ताभि: कुर्वाणा चाम्लवर्धनम्।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/३६)
एक बार पूतिगन्धिका सोपारक नगर गयी। वहाँ आर्यिकाओं की उपासना कर वह उन्हीं के साथ आचाम्ल नाम का तप करती हुई राजगृह नगर चली गयी।

सुमति की आर्यिका दीक्षा

‘‘वङ्कामुष्टे सुभद्रायां सुमतिस्तनयाभवत्।
सुन्दर्यार्यिकया पाश्र्वे कृत्वा रत्नावलीतप:।।
सा त्रयोदशपल्यायुर्बह्येन्द्राग्रांगनाभवत्।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/५१—५२)
नारायण श्रीकृष्ण की तीसरी पटरानी जाम्बवती, जो कि पूर्वभव में वङ्कामुष्टि की सुभद्रा स्त्री से सुमति नाम की पुत्री हुई। वहाँ उसने सुन्दरी नामक आर्यिका से प्रेरित हो उनके समीप आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर रत्नावली नाम का तप किया, जिसके प्रभाव से मरकर वह तेरह पल्य की आयु की धारक ब्रह्मेन्द्र की प्रधान इन्द्राणी हुई। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु सुन्दरी नामक आर्यिका के स्थान पर सुव्रता नामक आर्यिका का नाम मिलता है। यथा—
‘‘पुणु वि पुंडिंरकिणिपुरि तरुणिहि, वज्र्जे वणिएं सुप्पहघरिणि।
तुहुं सुय सुमइ णाम संभूई, ता णं धम्में पेसिय दूई।
सुव्वय भिक्खामग्गि पइट्ठी, भवणंगणि चडंति पइं दिट्ठी।
सहुं परिवाएं पय धोएप्पिणु, दिण्णउं दाणु समाणु करेप्पिणु।
अवरु वि तणुसंतवियपयासें, रयणावलिणामेणुववासे।
मुय संणासें णिरु णिम्मच्छर, हुई बंभलोइ तुहुं अच्छर।’’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ९०/८/१४—१९/१९४—९५)
पुण्डरीकिणी नगरी में वङ्कामुष्टि वणिक् की सुप्रभा नाम की युवती गुहिणी से, हे पुत्री! तुम सुमति१ नाम से उत्पन्न हुई। इतने में तुमने धर्म के द्वारा प्रेषित दूती के समान, भिक्षामार्ग में प्रविष्ट, घर के आँगन में चढ़कर आती हुई सुव्रता आर्यिका को देखा। प्रणाम के साथ उनके चरणों को धोकर तुमने सम्मान के साथ आहारदान दिया और शरीर को शान्त करने के प्रयास वाले रत्नावली नाम के उपवास और संन्यास (आर्यिका दीक्षा) से मरकर तुम ब्रह्मलोक में ईष्र्या से रहित अप्सरा हुईं।
‘‘जम्बूपर्वविदेहे दिवोऽवतीर्णाऽत्र पुण्डरीकिण्याम्।
तनया तु वङ्कामुष्टेर्बभूव सुमति: सुभद्रायाम्।।
गृही व्रतानि जगृहे श्रेष्ठिगृहे सा सुदर्शनार्याया:।
रत्नाविंल चरित्वा विधिवत्प्राणान्प्रहायाऽन्ते।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह नेमिनाथचरित, ५/४२—४३)
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कामुष्टि और रानी सुभद्रा से सुमति नाम की पुत्री हुई। एक दिन उसने सेठ के घर में सुदर्शना नाम की आर्यिका से श्रावकों के व्रत लिये तथा रत्नाली व्रत को विधिपूर्वक पालकर अन्त में मरकर ब्रह्म स्वर्ग में इन्द्र की इन्द्राणी हुई।

श्रीकान्ता की आर्यिका दीक्षा

‘‘श्रीमत्यामभवत् कन्या श्रीकान्ता नामत: सुता। जिनदत्तार्यिकोपान्ते विनिष्क्रम्य कुमारिका।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/६९—७०)
नारायण श्रीकृष्ण की चौथी पटरानी सुशीला, जो कि पूर्वभव में श्रीमती नामक रानी थी, जिससे श्रीकान्ता नाम की पुत्री हुई। श्रीकान्ता ने कुमारी अवस्था में ही जिनदत्ता आर्यिका के पास दीक्षा लेकर रत्नावली नाम का तप किया। ऐसा ही उत्तरपुराण में कहा है किन्तु श्रीमती नामक रानी के स्थान पर सोमश्री रानी का नाम मिलता है। यथा—
‘‘सोमश्रियश्च श्रीकान्ता सुता भूत्वा कदाचन। जिनदत्तार्यिकोपान्ते दीक्षामादाय सुव्रता।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७१/३९४—९५)
सोमश्री रानी के श्रीकान्ता नाम की पुत्री हुई। किसी एक दिन उसने जिनदत्ता आर्यिका के पास दीक्षा ले ली। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘पुरिहि पुंडरीकिणिहि असोयहु, सोमसिरिहि भुंजियणिवभोयहु। सुयसिरिवंत णाम होएप्पिणु, जिणयत्तहि समीवि वउ लेप्पिणु।।’’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ९०/१२/५—६/१९८)
(इस पूर्व विदेह में पुष्कलावती के सुन्दर शुभंकर देश में) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा के ऐश्वर्य को भोगने वाले अशोक और सोमश्री की श्रीकान्ता नाम की पुत्री होकर तुमने जिनदत्ता नामक आर्यिका के पास आर्यिका व्रत ग्रहण कर लिये। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘जिनदत्ताऽऽर्यापाश्र्वे धर्मं श्रुत्वाऽन्यदा विनिष्क्रान्ता। कनकावलिं चरित्वा महेन्द्रस्याभवत्कान्ता।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित, ५/६१)
एक समय उसने (श्रीकान्ता) जिनदत्ता आर्यिका के पास धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा ले ली और कनकावली तप करने लगी और अन्त में मरकर महेन्द्र स्वर्ग में इन्द्राणी हुई।

विनयश्री की आर्यिका दीक्षा

‘‘विनयश्रीर्गुणै: ख्याता नित्यालोकपुरेशिन:।
महेन्द्रविक्रमस्यैषा योषिद्गुणसमन्विता।।
चारणश्रमणाभ्यां तु धर्मं श्रुत्वा स मन्दरे।
राज्ये नियोज्य निष्क्रान्तो नन्दनं हरिवाहनम्।।
विनयश्रीस्तु कृत्वासौ सर्वभद्रपोषितम्।
पंचपल्यस्थितिर्जाता सौधर्मेन्द्रस्य वल्लभा।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/९०—९२)
नारायण श्रीकृष्ण की छठी पटरानी गान्धारी, जो कि पूर्वभव में विनयश्री रानी थी, जो गुणों से अत्यन्त प्रसिद्ध थी और नित्यालोक नगर के स्वामी राजा महेन्द्र विक्रम की गुणवती स्त्री थी। कदाचित् सुमेरु पर्वत पर चारण ऋद्धि के धारक युगल मुनियों से धर्म श्रवण कर राजा महेन्द्र विक्रम संसार से विरक्त हो गया और उसने हरिवाहन नामक पुत्र को राज्य कार्य में नियुक्त कर दीक्षा धारण कर ली। विनयश्री ने भी संसार से विरक्त (आर्यिका) हो, सर्वभद्र नामक उपवास किया और उसके प्रभाव से वह पाँच पल्य की स्थिति की धारक सौधर्मेन्द्र की देवी हुई। उत्तरपुराण में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु विनयश्री के स्थान पर सुरूपा नाम मिलता है। नित्यालोकपुर के स्वामी राजा महेन्द्र विक्रम की रानी सुरूपा थी। चारणऋद्धिधारी मुनि के उपदेश से वे दोनों परम तृप्ति को प्राप्त हो दीक्षित हो गए।
‘‘तयोर्नरपतिर्दीक्षामादात्तच्चारणान्तिके। सुभद्रापादमासाद्य सापि संयममाददे।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७१/४२३)
उन दोनों में से राजा महेन्द्र विक्रम ने तो उन्हीं चारण मुनिराज के समीप दीक्षा ले ली और रानी सुरूपा ने सुभद्रा नामक आर्यिका के चरणमूल में जाकर संयम धारण कर लिया। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु विनयश्री और सुरूपा के स्थान पर विमलश्री नाम मिलता है—
‘गोवइखंतिहि पासि कय, विमलसिरीइ सुतवविहि।।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ९०/१८/१२/२०६)
विमलश्री देवी ने गोवई आर्यिका के पास सुतपविधि अर्थात् आर्यिका दीक्षा स्वीकार कर ली।

धर्ममति की आर्यिका दीक्षा

‘‘जिनमत्यार्यिकापाश्र्वे तपो जिनगुणाभिधम्। गृहीत्वोपोष्य जातासि महाशुव्रेन्द्रवल्लभा।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/१०२)
नारायण श्रीकृष्ण की सातवीं पटरानी गौरी, जो कि पूर्वभव में धर्ममति थीं, जिसने जिनमति आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण कर जिनगुण नाम का तप लेकर उपवास किये और उनके फलस्वरूप वह महाशुक्र स्वर्ग के इन्द्र की वल्लभा हुई।

विमलश्री की आर्यिका दीक्षा

नारायण श्रीकृष्ण की आठवीं पटरानी पद्मावती, जो पूर्वभव में राजा श्रीधर की श्रीमति नामक रानी से विमलश्री नाम की पुत्री थी। विमलश्री भद्रिलपुर के राजा मेघनाद के लिए दी गई। उसके संयोग से उसने पृथ्वी पर मेघघोष नाम से प्रसिद्ध पुत्र प्राप्त किया। कदाचित् पति का स्वर्गवास हो जाने पर उसने पद्मावती आर्यिका के समीप दीक्षा लेकर आचाम्लवर्धन नाम का तप किया और उसके प्रभाव से वह स्पर्ग गई। यथा—
‘‘भर्तरि स्वर्गगते सापि पद्मावत्यार्यिकान्तिके। आचाम्लवर्धमानाख्यं तप: कृत्वा दिवं ययौ।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/११९)
उत्तरपुराण में भी इस प्रकार है किन्तु मेघनाद के स्थान पर मेघरथ नाम आया है। भद्रिलपुर के स्वामी राजा मेघरथ की इच्छित सुख देने वाली विमलश्री नाम की रानी थी, जब राजा ने धर्म नामक मुनिराज के समीप व्रत धारण कर लिया तब विमलश्री भी पद्मावती नाम की आर्यिका के पास दीक्षित हो गई। यथा—
‘‘साऽपि पद्मावतीक्षान्तिं सम्प्राप्यादाय संयमम्। आचाम्लवर्धनामानं समुपोष्यायुषावधौ।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७१/४५६)
विमलश्री ने पद्मावती नाम की आर्यिका के पास जाकर संयम (आर्यिकाव्रत) धारण कर लिया और आचाम्लवर्धन नाम का उपवास किया। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘पद्मावत्यार्याऽन्ते पत्यौ सा स्वर्गते विनिष्क्रम्य।
आचाम्लवर्धमानं समुपोष्यान्ते समाराध्य।।
कल्पे तु सहस्रारे देवेन्द्रस्याऽग्रगामिनी भूत्वा।
त्रिगुण नवकानि पल्यान्याशीदमराङ्गनासौख्यम् ।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित, ५/११६—११७)
विमलश्री ने पद्मावती आर्यिका के समीप दीक्षा लेकर आचाम्लवर्धन नामक तप को करके अन्त में आराधनाओं को आराधन कर सहस्रार स्वर्ग के इन्द्र की इन्द्राणी हुई।

सत्यभामा और रूपिणी आदि की आर्यिका दीक्षा

‘‘सच्चहाम—रूविणि सिय सेविहिं, सुण्हहं समउ अट्ठ—महएविहिं।
गहियउ वउ रायमइ णवेविणु, भिण्णु सरीरु जीउ मण्णेविणु।।’’
—(महाकवि सिंह, पज्जुण्णचरिउ, १५/२१/१५—१६/३३३)
अपनी लक्ष्मी सेवी बहुओं के साथ सत्यभामा एवं रूपिणी आदि आठ महादेवियों ने भी राजीमती को नमस्कार कर तथा आत्मा एवं शरीर को भिन्न मानकर आर्यिका व्रत ग्रहण कर लिये।

देवकी की पुत्री की आर्यिका दीक्षा

देवकी की पुत्री हुई, इस बात को सुनकर फस ने उस कन्या की नाक चपटी कर दी। उसे धाय ने बड़े प्रयत्न से पाला, जब वह बड़ी हुई तो अपने विकृत रूप को देखकर वैराग्य हो गया। उसने आर्यिका दीक्षा लेकर अपना आत्मकल्याण किया। यथा—
‘‘सा सुव्रतार्यिकाभ्यर्णे शोकात्रवविकृताकृते:।
गृहीतदीक्षा विन्ध्याद्रौ स्थानयोगमुपाश्रिता।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७०/४०८)
बड़ी होने पर उसने (देवकी की पुत्री) अपनी विकृत आकृति को देखकर शोक से सुव्रता आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली और विन्ध्याचल पर्वत पर रहने लगी।

ज्येष्ठा की आर्यिका दीक्षा

वैशाली नगर के चेटक नामक प्रसिद्ध राजा की सुभद्रा नाम की रानी थी। उनकी सात पुत्रियों में से ज्येष्ठा जिसने कि बहन चेलना द्वारा ठगे जाने पर आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। यथा—
‘‘तयाहमिति शोकार्ता निजमामीं यशस्वतीम्।
दृष्ट्वा क्षान्तिं समीपेऽस्या: श्रुत्वा धर्मं जिनोदितम्।।
निर्विद्य संसृतेर्दाrक्षां प्राप पापविनाशिनीम्।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७५/३२—३३)
अन्त में ज्येष्ठा ने अपनी मामी यशस्वती नाम की आर्यिका के पास जाकर जैनधर्म का उपदेश सुना और संसार से विरक्त होकर पापों का नाश करने वाली आर्यिका दीक्षा धारण कर ली।
‘‘चन्दना च यशस्वत्या गणिन्या: सन्निधौ स्वयम्।
सम्यक्त्वं श्रावकाणां च व्रतान्यादत्त सुव्रता।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७५/३५)
तदन्तर उत्तम व्रत धारण करने वाली चन्दना ने भी स्वयं यशस्वती आर्यिका के समीप जाकर सम्यग्दर्शन और श्रावकों के व्रत ग्रहण किये। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘बहिणिविओयसोयसंतत्ती, खंतिहि जससईहि उवसंती।
पायमूलि तपचरणु लएप्पिणु, थक्क जेट्ठ इंदियइं जिणेप्पिणु।
ताहि सुखंतिहि पासि णिहालिउ, चंदणाइ सावयवउ पालिउ।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ९८/११/१—२—६/३३६—३७)
अपनी बहिन (चेलना) के वियोग से संतप्त ज्येष्ठा उपशम भाव को धारण कर आर्यिका यशोवती के चरणों में तपश्चरण लेकर इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए स्थित हो गई। चन्दना ने भी उन्हीं यशोवती आर्यिका के पास सम्यक्त्व के साथ सुन्दर श्रावक व्रत ग्रहण कर लिये।

चन्दनबाला की आर्यिका दीक्षा

‘‘प्रापितैतत्पुरं वीरं वन्दितुं निजबान्धवान्।
विसृज्य जातनिर्वेगा गृहीत्वान्नैव संयमम्।।
तपोवगममाहात्म्यादध्यरथाद् गणिनीपदम् ।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७५/६८—६९)
उसी नगर (वत्स देश के कौशाम्बी नगर) में सब लोग महावीर स्वामी की वन्दना के लिए गये थे, चन्दना भी गयी थी और तपश्चरण तथा सम्यग्ज्ञान के माहात्म्य से उसने उसी समय गणिनी (समस्त आर्यिकाओं की अग्रणी) का पद प्राप्त कर लिया। हरिवंशपुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘सुता चेटकराजस्य कुमारी चन्दना तदा।
धौतैकाम्बरसंवीता जातार्याणां पुर:सरी।।
सम्यग्दर्शनसंशुद्धा: शुद्धैकवसनावृता:।
सहस्रशोद धु: शुद्धा नार्यस्तत्रार्यिकाव्रतम्।।’’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, २/७०, १३३)
राजा चेटक की पुत्री कुमारी चन्दना एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर आर्यिकाओं में प्रमुख हो गयी। सम्यग्दर्शन से शुद्ध तथा एक पवित्र वस्त्र को धारण करने वाली हजारों शुद्ध स्त्रियों ने आर्यिका के व्रत धारण किये।

पद्मावती की आर्यिका दीक्षा

भरत क्षेत्र के हेमांगद देश में एक अत्यन्त सुन्दर राजपुर नाम का नगर था। उस नगर में एक वृषभदत्त नाम का सेठ था। उसकी स्त्री का नाम पद्मावती था। कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर एक दिन वृषभदत्त सेठ अपने स्थान पर पुत्र जिनदत्त को बैठाकर आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु पत्नी सहित जिनधर्म में दीक्षित हो गया। यथा—
‘‘गुणपालाभिधानस्य लब्धबोधिरदीक्षित।
सुव्रताक्षान्ति सान्निध्यं सम्प्राप्यादाय संयमम्।
पद्मावती च कौलीन्यं सुव्रता सान्वपालयत्।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७५/३१९—२०)
ऋषभदत्त सेठ गुणपाल नामक मुनिराज के निकट दीक्षित हो गया और उसकी स्त्री पद्मावती ने भी सुव्रता नाम की आर्यिका के पास जाकर संयम धारण कर लिया तथा उत्तम व्रत धारण कर वह अपनी कुलीनता की रक्षा करने लगी। विजयारानी गन्धर्वदत्ता आदि रानियों की आर्यिका दीक्षा हेमांगद नाम के देश में राजपुर नाम का शोभायमान नगर था। उसमें राजा सत्यन्धर अपनी विजयलक्ष्मी के समान विजया नाम की रानी के साथ रहता था। उनका पुत्र जीवन्धरकुमार था। जिसकी गन्धर्वदत्ता, गुणमाला, पद्मा, क्षेमश्री, कनकमाला विमला, सुरमंजरी और लक्ष्मणा नाम की सुन्दर पत्नियाँ थीं राजा जीवन्धर कुमार के दीक्षित हो जाने पर उनकी माँ और पत्नियों ने भी चन्दना आर्यिका के समीप आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। यथा—
‘‘सत्यन्धरमहादेव्या सहाष्टौ सद्द्दश: स्रुषा:।
सद्यो गन्धर्वदत्ताद्यास्तासामपि च मातर:।।
समीपे चन्दनार्याया जगृहु: संयमं परम्।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७५/६८३—८४)
महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘विजयाएविइ सुललियभुयाइ, चंदणहि पासि सुरवरथुयाइ।
अट्ठ वि तहु धरिणिउ दिक्खियाउ, सत्थंगोवंगइं सिक्खियाउ।।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ९९/२०/८—९/३७२)
विजयादेवी (माँ) और जीवन्धर की आठों पत्नियों ने आर्यिका चन्दना के पास दीक्षा ग्रहण कर ली एवं अंग—उपांग सहित शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। क्षत्रचूड़ामणि में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु आर्यिका चन्दना के स्थान पर आर्यिका पद्मा नाम मिलता है। यथा—
‘‘इति वैराग्यतस्तरया:, सुनन्दापि व्यरज्यत।’
पाके हि पुण्यपापानां, भवेद् बाह्यं च कारणम्।।
तत: कृच्छ्रायमाणं तं, महीनाथं च कृच्छ्रत:।
अनुज्ञाप्य ततो गत्वाऽदीक्षिषातां यथाविधि:।।
पद्माख्या श्रमणीमुख्या, विश्राण्य श्रमणीपदम्।
तन्मातृभ्यां ततस्तं च, महीनाथमबोधयत्।।’’
—(वादीभिंसह सूरि, क्षत्रचूड़ामणि, ११/१४—१६)
जीवधंर स्वामी की माँ विजयारानी और गन्धोत्कट सेठ की पत्नी सुनन्दा ने संसार से विरक्त होकर पद्मा नामक एक प्रधान आर्यिका से आर्षोक्त विधिपूर्वक आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। जीवन्धरचम्पू में भी इस प्रकार मिलता है—‘तदनु वैराग्यपदवीमनुगच्छन्त्या सुनन्दया सह महादेवी महीनाथं कृच्छ्रायमाणं कृच्छ्रेणानुज्ञाप्य यथाविधि श्रमणीवर्याया: पद्मार्याया: सकाशेऽदीक्षिष्ट। श्रमणीनामग्रगण्या पद्मार्या विजयासुनन्दाभ्यां विश्राणितश्रमणीपदा नभसो निपतिता रत्नवृष्टिरिव प्रव्रज्या न प्रतिषेध्येति महीनाथं बोधयामास।’ तदन्विति—तदनु तदनन्तरम्, वैराग्यपदवीं विरक्तिमार्गम्, अनुगच्छन्त्यानुयान्त्या, सुनन्दया गन्धोत्कटपत्न्या, सह सार्धम्, महादेवी विजया, कृच्छ्रायमाणं दु:खीभवन्तम्, महीनाथं जीवन्धरम् कृच्छ्रेण कष्टेन, अनुज्ञाप्य सम्बोध्य, यथाविधि विधिपूर्वकम्, श्रमणीवर्याया: साध्वीश्रेष्ठाया: पद्माया: पद्माभिधानाया आर्यिकाया:, सकाशे निकटे, अदीक्षिष्ट दीक्षां जग्राह। विजयासुनन्दाभ्यां जीवकजननीभ्याम्, विश्राणितं श्रमणीपदं प्रदत्तमार्यिकापदं यथा सा, पद्मार्या।
—(महाकवि हरिचन्द्र, जीवन्धरचम्पू, ११/१०)
उसी समय गन्धोत्कट की पत्नी सुनन्दा को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया अत: उसके साथ महादेवी विजया ने अत्यन्त दु:खी राजा जीवन्धर को बड़ी कठिनाई से समझाकर पद्मा नाम की उत्तम आर्यिका के पास विधिपूर्वक दीक्षा ले ली। आर्यिकाओं में अग्रगण्य पद्मा नाम की आर्यिका ने विजया और सुनन्दा के लिए आर्यिका का पद दिया और राजा जीवन्धर को यह कहकर समझाया कि आकाश से पड़ती हुई रत्नवृष्टि के समान दीक्षा का निषेध नहीं करना चाहिए।

सुप्रबुद्धा की आर्यिका दीक्षा

जम्बूद्वीप के कोशल देश सम्बन्धी अयोध्या नगरी में अरिन्दम नाम के राजा थे। उनकी स्त्री का नाम श्रीमती था। उनकी सुप्रबुद्धा नाम की प्यारी पुत्री थी। जब वह पूर्ण यौवनवती होकर स्वयंवर—मण्डप की ओर जा रही थी, तब उसे पूर्व जन्म के पति कुबेर नामक यक्ष ने समझाया, जिससे उसने प्रियदर्शना नाम की आर्यिका के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली। यथा—
‘यक्षेण बोधिता दीक्षामित्वाप्य प्रियदर्शनम्।’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७२/३५)
महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
‘तं णिसुणिवि सा संजयमणाहि, पावइय पासि पियदरिसणाहि।’’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ९१/५/३/२१२)
(पूर्वभव ज्ञात कर सुप्रबुद्धा विनीता ने) संयम मन वाली प्रियदर्शना आर्यिका के पास प्रव्रजित (दीक्षित) हो गयी।

मदनवेगा की आर्यिका दीक्षा

विजयार्ध पर्वत के दक्षिण तट पर वस्त्वालय नाम के नगर में राजा सेन्द्रकेतु और उसकी सुप्रभा नाम की स्त्री से मदनवेगा नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। उसने अपने पूर्वभवों को सुनकर वैराग्य धारण किया। यथा—
‘‘प्रियमित्राभिधां प्राप्त गणिनी गुणसन्निधिम्।
सुधीर्मदनवेगा च कृच्छ्रमुच्चाचरत्तप:।।’’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ६३/२५३—५४)
गुणों की भण्डार स्वरूप बुद्धिमती मदनवेगा ने प्रियमित्रा नाम की आर्यिका के पास जाकर दीक्षा धारण कर कठिन तपश्चरण करने लगी।

प्रीतिमती की आर्यिका दीक्षा

विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में अरिन्दमपुर नगर के राजा अिंरजय रहते थे। उनकी अजित सेना नाम की रानी थी और दोनों के प्रीतिमती८ नाम की सती पुत्री थी। कारणवश प्रीतिमती संसार से विरक्त हो आर्यिका दीक्षा के लिए अग्रसर हुई। यथा—
‘निर्विण्णा सा निवृत्यार्यिकाभ्यासेऽगात्तप: परम् ।’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७०/३५)
प्रीतिमती ने निवृत्ता नाम की आर्यिका के पास जाकर उत्कृष्ट तप धारण कर लिया।

अनन्तमती की आर्यिका दीक्षा

चम्पापुरी में जिनेन्द्र भक्त प्रियदत्त नाम का सेठ था, उसकी अंगवती नाम की पत्नी थी। सर्वांग लक्षणों तथा गुणों से युक्त अनन्तमती नाम की उनकी प्रिय कन्या थी। पूर्वकर्म के कारण अनन्तमती ने इस भव में अनेक कष्ट उठाये। संसार की विचित्रता को देखकर उसने मन में आर्यिका दीक्षा के भाव बना लिये। पिता जी के समझाने पर भी वह अपने संकल्प पर दृढ़ रही, उसने आत्मकल्याण हेतु आर्यिका दीक्षा धारण की। यथा—
‘‘एव्वहिं सिवसंगमु पर वंच्छमि, खंति—पयाय समीवें अच्छमि। अज्जिय ताहि पासि।’’
—(पुण्यास्रव कथा कोश, ३/७/२, ५)
अनन्तमती कहती है—हे पिताश्री! मैं तो केवल शिव (मोक्ष) का संगम चाहती हूँ। अत: अब मैं क्षांतिका आर्यिका के पदों के समीप में ही रहूँगी। पिता ने अनुमति देकर पुत्री को आर्यिका के लिए समर्पित कर दिया। संयता उस पवित्र अनन्तमती ने आर्यिका दीक्षा धारण कर ली।

रानी चेलना की आर्यिका दीक्षा

‘इति ध्यात्वा चिरं राज्ञी निवृत्त्य भवभोगत:।
चंदनार्यां समालभ्य स्वस्वसारं प्रणम्य च।।
जगृहे संयमं सारं राजदारादिभि: समम्।।’’
—(आचार्य शुभचन्द्र, श्रेणिक पुराणम्, १४/१३९, १४१)
रानी चेलना भवभोगो से सर्वथा विरक्त हो गयी और चंदना नाम की आर्यिका के पास गयी तथा अपनी सासू को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अनेक रानियों के साथ शीघ्र ही संयम धारण (आर्यिका दीक्षा) कर लिया।

अभयमती की आर्यिका दीक्षा

‘‘अभयमई जाय विरत्तभाव, कुसुमावलि अज्जिय सुद्धभाव।
तहि पायमूलि खुल्लियहि वित्तु, छड्डेवि धित्तु अज्जियचरित्तु।।’’
—(महाकवि पुष्पदन्त, जसहरचरिउ, ४/२८/२२/१५२)
अभयमती ने विरक्तभाव से शुद्धभाव कुसुमावली आर्यिका के चरणमूल में अपना क्षुल्लिका व्रत छोड़कर आर्यिका दीक्षा ग्रहण की।

हिरण्यवती और रामदत्ता की आर्यिका दीक्षा

दिव्यबल और उसकी रानी सुमति के हिरण्यवती नाम की पुत्री हुई। वह सती हिरण्यवती पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र के लिए दी गयी। उनकी रामदत्ता नाम की पुत्री हुई। माँ और पुत्री दोनों ने संसार से विरक्त होकर आर्यिका दीक्षा ले ली। यथा—
‘माता ते दान्तमत्यन्ते दीक्षित क्षान्तिरद्य ते।’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ५९/२१२)
गुरु ने कहा—तेरी माता हिरण्यवती ने आर्यिका दान्तमती के समीप दीक्षा धारण की थी और फिर हिरण्यवती माताजी से रामदत्ता ने दीक्षा धारण की है। हरिवंशपुराण में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु आर्यिका दान्तमती के स्थान पर दत्तवती आर्यिका नाम मिलता है। यथा—
दत्तवत्यार्यिकापाश्र्वे माता धत्तार्यिकाव्रतम्।
पूर्णचन्द्रमुने: श्रुत्वा रामदत्ताम्बिकार्यिका।।
प्रवृत्तिं रामदत्ताया गत्वा बोधयति रम ताम्।
प्राव्रजद्रामदत्ता सा संसारभयवेदिनी।।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, २७/५६—५८)
कदाचित् रामदत्ता की माता हिरण्यवती आर्यिका ने अवधिज्ञानी पूर्णचन्द्र मुनि (गृहस्थावस्था के पति) से रामदत्ता का सब समाचार सुना और जाकर सम्बोधित किया। माता के मुख से उपदेश श्रवण कर रामदत्ता संसार से भयभीत हो उठी, जिससे उसने उसी समय आर्यिका दीक्षा ले ली।

श्रीधरा और यशोधरा की आर्यिका दीक्षा

धरणातिलक, नामक नगर के स्वामी अतिवेग विद्याधरा की पत्नी सुलक्षणा थी, श्रीधरा से यशोधरा नाम की पुत्री हुई। यशोधरा की शादी सूर्यावर्त से हुई। माँ श्रीधरा तथा पुत्री यशोधरा दोनों ने संसार से विरक्त होकर आर्यिका दीक्षा ले ली। यथा—
सूर्यावर्ते तपो याते श्रीधरा च यशोधरा। दीक्षां समग्रहीषातां गुणवत्यार्यिकान्तिके।।
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ५९/२३२)
मुनिचन्द्र नाम के मुनि से धर्मोपदेश सुनकर राजा सूर्यावर्त तप के लिए चले गये और श्रीधरा तथा यशोधरा ने गुणवती आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली। हरिवंशपुराण में भी इस प्रकार मिलता है—
गुणवत्यार्यिकापाश्र्वे श्रीधरा सयशोधरा। सम्यग्दर्शनसंशुद्धा प्रवज्यां प्रत्यपद्यता।।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, २७/८२)
श्रीधरा और यशोधरा ने भी सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो गुणवती आर्यिका के पास दीक्षा ले ली।
‘तइयहुं सिरिजसहरउ विणीयउ, पावइयउ तहिं मायाधीयउ।
मुणिचरणारविंदरइमइयहि, पासु वसंतियाहिं गुणमइयहि।।’’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ५७/२०/६—७/३०७)
माँ और बेटी विनीता श्रीधरा और यशोधरा ने भी मुनियों के चरणारविन्द में जिनकी बुद्धि तीव्र है, ऐसी गुणवती वसन्तिका आर्यिका के पास प्रवज्या (दीक्षा) ग्रहण कर ली।

नन्दयशा, प्रियदर्शना और ज्येष्ठा की आर्यिका दीक्षा

भद्रिलपुर नगर के सेठ धनदत्त तथा सेठानी नन्दयशा के नौ पुत्र तथा प्रियदर्शना और ज्येष्ठा ये दो पुत्रियाँ थीं। कारणवश संसार से विरक्ति हो जाने से माँ और दोनों पुत्रियाँ आर्यिका दीक्षा का धारण करती है। यथा—
तत्ते नन्दयशा पुत्रिकाद्वयेनागमत्तप:। सुदर्शनपर्यिकाभ्यर्णे तूर्णनिर्णीतसंसृति:।।
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७०/१८९–९०)
नन्दयशा सेठानी अपनी दो पुत्रियों प्रियदर्शना और ज्येष्ठा के साथ सुदर्शना नाम की आर्यिका के पास गयी और शीघ्र ही संसार के स्वरूप का निर्णय कर आर्यिका दीक्षा धारण की।

यमुनादत्ता की आर्यिका दीक्षा

मथुरा नगर में शौर्य देश का स्वामी शूरसेन नामक राजा रहता था। उसी नगर में भानुदत्त सेठ रहता था, जिसकी पत्नी का नाम यमुनादत्ता था। भानुदत्त के संयम धारण कर लेने पर यमुनादत्ता को भी वैराग्य हो गया और उसने भी आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। यथा—
जिनदत्तार्यिकाभ्यर्णे श्रेष्ठिभार्या च दीक्षिता।’
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७१/२०६)
सेठ की सेठानी यमुनादत्ता ने जिनदत्ता नामक आर्यिका के पास दीक्षा धारण की।‘
जउणादत्तइ वणि पुल्लणीवि, वउ लइयउं जिणदत्तासमीवि।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ८९/९/५/१७२)
भानुदत्त सेठ के विरक्त हो जाने पर सेठानी यमुनादत्ता ने भी वन में खिले हुए कदम्ब वृक्ष के नीचे जिनदत्ता नाम की आर्यिका के निकट आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘इभ्योऽन्यदा दिदीक्षे श्रुत्वाऽभयनन्दिन: परमधर्मम् ।
जिनदत्ताया: पाश्र्वे प्राव्राजीच्छ्रेष्ठिनी चापि।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित, २/४३)
एक समय उस सेठ (भानु) ने अभयनन्दि मुनि से धर्मोपदेश सुन दीक्षा ले ली तथा सेठानी (यमुनादत्ता) ने भी जिनदत्ता आर्यिका के समीप आर्यिका के व्रत धारण कर लिये।

नन्दयशा और रेवती धाय की आर्यिका दीक्षा

हस्तिनापुर नगर में राजा गंगदेव रहता था। उसकी स्त्री का नाम नन्दयशा था। उसकी रेवती नामक धाय थी। रानी नन्दयशा के सातों पुत्र दीक्षित हो जाने के कारण उसको भी संसार से वैराग्य हो गया, साथ में रेवती धाय ने भी दीक्षा धारण कर ली। यथा—
तथा नन्दयशा रेवती नामादित संयमम्। सुव्रताख्यार्यिकाभ्याशे पुत्रस्नेहाहितेच्छया।।
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७१/२८७—८८)
रानी नन्दयशा तथा रेवती धाय ने सुव्रता आर्यिका के समीप संयम धारण किया।
सुव्वय पणवेप्पिणु संजईउ, जायउ णंदयसारेवईउ।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ८९/१८/१०/१८३)
सुव्रता नाम की आर्यिका को प्रणाम कर नन्दयशा और रेवती धाय भी आर्यिका बन गयीं। महापुराण में भी इस प्रकार मिलता है और साथ में बन्धुमती की आर्यिका दीक्षा का वर्णन मिलता है—
‘‘देवी च सधात्रीका बन्धुमती सुव्रतार्यिकापाश्र्वे।
प्राव्राजिष्टां नितरां तदेवं निर्वेदमासाद्य।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित, २/१०२)
नन्दयशा रानी ने भी रेवती धाय और बन्धुमती सेठानी के साथ विरक्त होकर सुव्रता आर्यिका के पास दीक्षा ले ली।

कनकश्री की आर्यिका दीक्षा

‘सुप्पहहि पासि थिय संजमेण, गणणिहि संतिहि कहिएं कमेण।’
—(महाकवि पुष्पदंत, महापुराण, ६१/११/८/३९४)
कनकश्री उपदिष्ट क्रम और संयम (दीक्षित होकर) के साथ शान्त सुप्रभा आर्यिका के पास स्थित हो गयी।

प्रसन्नमति और प्रीतंकरी की आर्यिका दीक्षा

‘पीइंकरि सुव्वयसंजइहि पासि मुएप्पिणु घरणियलु, चंदायणु चरिवि पसण्णमइ मय पक्खालिवि पावमलु।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ६१/२०/१४—१५/४०२)
प्रसन्नमति और प्रीतंकरी भी सुव्रता आर्यिका के पास धरिणीतल को छोड़कर चान्द्रायण तप कर तथा पाप मल का प्रक्षालन कर मृत्यु को प्राप्त हुई।

शान्तिमती की आर्यिका दीक्षा

 ‘संतिमइ सुगंथ वियक्खणाहि, हूई सीसिणिय सुलक्खणाहि।’
—(आचार्य पुष्पदन्त, महापुराण, ६१/२१/४/४०२)
कन्या शान्तिमती सुशास्त्रों में पारंगत आर्यिका सुलक्षणा की शिष्या (दीक्षित) हो गयी।

जयसेना और वसन्तसेना की आर्यिका दीक्षा

‘वसुसारयणयरि समुद्दसेण, रायहु जयसेण वसंतसेण।
णारिहि ण चल मइ जणियसंति, आसंघिय विमलमइ त्ति खंति।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ६१/२२/३, ७/४०३)
वसुसार नगर के समुद्र राजा की जयसेना और वसन्तसेना स्त्रियाँ थीं। वे दोनों ही अविचल मति एवं शान्ति देने वाली विमलमती नाम की आर्यिका से दीक्षित हुई।

पृथ्वीतिलका की आर्यिका दीक्षा

‘सुमईगणिणिहि सा सरणु गय, कटपंकयलुहियभाल तिलय। तवचरणि लग्ग पुहई तिलय।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ६२/५/१—२/४०९)
राजा अभयघोष का पृथ्वीतिलका के प्रति स्नेह न होने से पृथ्वीतिलका सुमति नाम की आर्यिका की शरण में चली गयी। अपने हाथ से उसने मस्तक का तिलक पोंछ डाला और आर्यिका हो तपश्चरण में लग गयी। ‘पुराणसारसंग्रह’ में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘उद्यानेऽविहरन्ती पृथ्वीतिलकाऽवमाननिर्विण्णा।
सुमतिगणिन्या: पार्श्व धर्मं श्रुत्वा प्रवव्राज।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, शांतिनाथचरित, ५/१९)
पृथ्वीतिलका के द्वारा किये गये अपमान से विरक्त हो सुमति नाम की आर्यिका के पास धर्मोपदेश सुनकर दीक्षित हो गयी।

तन्वंगी मंगिया की आर्यिका दीक्षा

‘जिणदत्तहि खंतिहि पायमूलि, उवसामियभवयरसल्लसूलि।
वउ लइयउं लहुं तणु अंगियाइ, णियचरियविसण्णइ मंगियाइ।’
—(महाकवि पुष्पदन्त, महापुराण, ८९/१३/९—१०/१७७)
आर्यिका जिनदत्ता के संसाररूपी कर की फाँस को नष्ट करने वाले पादमूल में अपने चरित से दु:खी होकर तन्वंगी मंगिया ने भी आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘मंगी च तादृगार्याजिनदत्ताग्रे तु सर्वमथ पृष्ट्वा। श्रुत्वाऽत्मकारणत्वं निर्विद्यैषा प्रवव्राज।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित, २/६२)
मंगी ने भी वैसे ही जिनदत्ता आर्यिका से सब वृत्तान्त पूछकर अपने ही चरित्र को वैराग्य का कारण जान विरक्त होकर दीक्षा ले ली।

सुभद्रा, सुदर्शना और सुज्येष्ठा की आर्यिका दीक्षा

‘सुदर्शनार्यिकापाश्र्वे सुभद्रा च सुदर्शना। सुज्येष्ठा च तपो ज्येष्ठं सहैव प्रतिपेदिरे।।’
—(जिनसेनाचार्य, हरिवंशपुराण, १८/११७)
सुदर्शना नामक आर्यिका के पास सुभद्रा रानी (मेघरथ की पत्नी) तथा (धनदत्त) नामक सेठ की पत्नी नन्दयशा की) सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामक दोनों पुत्रियों ने साथ ही साथ दीक्षा धारण कर ली। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘ससुतो नृपेण सार्धं नैग्र्रन्थ्यमुपाददे तदा श्रेष्ठी।
देवी सश्रेष्ठिसुता सुदर्शनां प्राप्य चार्यासीत्।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित, १/५०)
राजा के साथ सेठ ने भी अपने पुत्रों के साथ मुनि दीक्षा ले ली तथा रानी सुभद्रा भी उस सेठ की पुत्रियों (सुदर्शना और ज्येष्ठा) के साथ सुदर्शना आर्यिका के पास आर्यिका हो गयी।

राजीमती की आर्यिका दीक्षा

‘षट्सहस्रनृपस्त्रीभि: सह राजीमती तदा। प्रव्रज्याग्रेसरी जाता सार्यिकाणां गणस्य तु।।’
—(जिनसेनाचार्य, हरिवंशपुराण, ५७/१४६)
छह हजार रानियों के साथ दीक्षा लेकर राजीमती आर्यिकाओं के समूह की प्रधान बन गयी। पुराणसारसंग्रह में भी इस प्रकार मिलता है—
‘‘साद्र्धंबभूव भक्त्या षट्कसहस्रेण राजपुत्रीणाम्।
राजीमति: प्रवाजिता जातार्यिकाऽग्रेसरी गणिनी।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, नेमिनाथचरित ४/७०)
राजीमती ने भक्तिपूर्वक छह हजार राजकन्याओं के साथ दीक्षा ले ली और आर्यिकाओं की प्रमुख गणिनी हो गयी।

सुलोचना की आर्यिका दीक्षा

‘‘एकशाटी विना तयक्तद्विधासर्वपरिग्रहा:।
ध्यानाध्ययनसंसक्ता मुक्तिसंसाधनोद्यता:।।
सुलोचनादिमुख्या आर्यिको अस्य पदाम्बुजौ।
प्रणमन्त्येव षट्त्रिंशत्सहस्रसंख्यका: परा:।।
—(आचार्य सकलकीर्ति, श्रीपाश्र्वनाथचरित, २३/२९—३०)
एक साड़ी को छोड़कर शेष समस्त द्विविध परिग्रह का जिन्होंने त्याग कर दिया था, जो ध्यान और अध्ययन में संलग्न रहती थीं तथा मुक्ति की साधना में उद्यत रहती थीं, ऐसी सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार उत्कृष्ट आर्यिकाएँ इनके चरण कमलों को प्रणाम करती थीं। पुराणसारसंग्रह में भी वर्णन मिलता है किन्तु ३६,००० के स्थान पर ३८,००० आर्यिकाओं की संख्या मिलती है।
‘‘अष्टात्रिंशत् सहस्राणि चासन्ह्यार्या गुणाकरा:।
सुलोचनाऽभवत्तासु ज्येष्ठा देवेन्द्रपूजिता।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, पाश्र्वनाथचरित, ५/२४)
वहाँ गुणों की खानि स्वरूप आर्यिकाएँ अड़तीस हजार थीं, जिनमें इन्द्रों से पूज्य सुलोचना नाम की आर्यिका प्रधान थीं।

अनुकोशा की आर्यिका दीक्षा

पार्श्व कमलकान्ताया आर्याया सुसमाहिता।
सममूर्यानुकोशापि प्रव्रज्य तपसि स्थित।।
—(आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, ३०/१२४)
विमुचि की स्त्री अनुकोशा और कयान की माता ऊरी इन दोनों ब्राह्मणियों ने भी कमलकान्ता नाम की आर्यिका के पास दीक्षा लेकर तप धारण कर लिया।

मन्दोदरी और चन्द्रनखा की आर्यिका दीक्षा

संसारप्रकृतिप्रबोधनपरैर्वाक्यैर्मनोहारिभि— स्तस्या: प्राप्य विबोधमुत्तमगुणा संवेगमुग्रं श्रिता।
त्यक्तशेषगृहस्थवेषरचना मन्दोदरी संयता, जाताऽत्यन्तविशुद्धधर्मनिरता शुक्लैकवस्त्राऽऽवृता।।
लब्ध्वा बोधिमनुत्तमां शशिनखाऽप्यार्यामिमामाश्रिता, संशुद्धश्रमणा व्रतोरुविधवा जाता नितान्तोत्कटा।
चत्वािंरशदथाष्टवं सुमनसां ज्ञेयं सहस्राणि हि। स्त्रीणां संयममाश्रितानि परमं तुल्यानि भासां रवे:।।
—(आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, ७८/९४—९५)
तदनन्तर जो संसार दशा का निरूपण करने में तत्पर शशिकान्ता आर्यिका के मनोहारी वचनों से प्रबोध को प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेग को प्राप्त हुई थी, ऐसी उत्तम गुणों की धारक मन्दोदरी गृहस्थ सम्बन्धी समस्त वेश रचना को छोड़ अत्यन्त विशुद्ध धर्म में लीन होती हुई एक सपेद वस्त्र में आवृत आर्यिका हो गयी। रावण की बहिन चन्द्रनखा भी इन्हीं आर्यिका के पास उत्तम रत्नत्रय को पाकर व्रतरूपी विशाल—सम्पदा को धारण करने वाली उत्तम साध्वी हुई। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक! उस दिन मन्दोदरी आदि ने सूर्य की दीप्ति के समान देदीप्यमान अड़तालीस हजार स्त्रियों ने संयम धारण किया।

केकई की आर्यिका दीक्षा

पूर्वमेव जिनोत्तेन धर्माणाऽसौ सुभाविता।
महासंवेगसम्पन्ना सितैकवसनान्विता।।
सकाशे पृथ्वीमत्या: सह नारीशतैस्त्रिाभि:।
दीक्षां जग्राह सम्यक्तवं धारयन्ती सुनिर्मलम्।।
—(आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, ८६/२३—२४)
वह (केकई) जिनेन्द्र प्रणीत धर्म से तो पहले ही प्रभावित थी, इसलिए महान् वैराग्य से प्रयुक्त हो एक सपेâद साड़ी से युक्त हो गयी। तदनन्तर निर्मल सम्यक्त्व को धारण करती हुई उसने तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथ्वीमती नाम की आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण कर ली।

राजस्त्रियो की आर्यिका दीक्षा

प्रथितां बन्धुमत्याख्यामुपगम्य महत्तराम्।
प्रयुज्य विनयं भक्तया विधाय महमुत्तमम्।।
—(आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, ११३—४०)
राजस्त्रियों ने बन्धुमती नाम की प्रसिद्ध आर्यिका के पास जाकर तथा भक्तिपूर्वक नमस्कार और उत्तम पूजा कर दीक्षा धारण कर ली।
सप्तिंवशसहस्राणि प्रधानवरयोषिताम्।
श्रीमती श्रमणीपाश्र्वेबभूपु: परर्माियका।।
—(आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, ११९—४२)
सत्ताईस हजार प्रमुख—प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक आर्यिका के पास आर्यिका हुई।

रामदत्ता की आर्यिका दीक्षा

इंदिर विभवं तन्नै इरु वगियिर् सैदु मिंयद।
रंदरं पिरिदोंड्रेंड्रि इंबत्तु ळळुंदुं नाळुळ्।।
शिंदुर कळित्तु शीय शेनन् ट्रन् वार्तै केटु।
वंदनर् शांतिरन्य मदियेंबा तुरंद मादर्।।
अनिचत्तं पोटु कोइवार् पोलनी मयिरै वांगि।
पणिचप्पै येनय कोंगै पाणि निर पडत्तिन् वीकि।।
तनि चिंत्त वैत्त नंगै तामरै पूवि लन्नं।
पनि सुत्तन् सूट्टवेळ विरुंद दोर् पडि इरुंदाळ।।
—(वामनाचार्य, मेरुमंदर पुराण, तमिल भाषा, ३९२, ४०२)
राजमाता की आज्ञा के अनुसार िंसहचन्द्र का राज्याभिषेक करके राज्यपद दिया और पूर्णचन्द्र को युवराज पदवी दी। राजा सिंहचन्द्र सुखपूर्वक राजशासन करने लगा। राजा सिंहसेन के मरण का हाल सुनकर उस नगर में विराजमान शांतिमति व हिरण्यमति यह दोनों आर्यिकाएँ माता रामदत्ता के पास आयीं। तब आर्यिका ने रामदत्ता देवी के मन में तीव्र वैराग्य की भावना को देखकर उसको तथाऽस्तु कहकर दीक्षा की अनुमति दी। उसी समय आर्यिका माता की अनुमति लेकर रामदत्ता ने अपने शरीर के वस्त्र आभरण आदि को उतार दिया और उन्हें त्याग करके बारह भावना का िंचतवन करते हुए मन से एकाग्रचित होकर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। ऐसा ही विमलनाथ पुराण में कहा है किन्तु शांतिमती आर्यिका नाम के स्थान पर दांतमती आर्यिका का नाम मिलता है—
‘‘द्रव्यक्षेत्रादिसद्भावं ज्ञात्वाभ्यर्णे तयोस्तदा।
जग्राह संयमं शुद्धं रामदत्ता पवित्रधी:।।’’
—(ब्र. कृष्णदास, विमलनाथ, पुराण, ७/१६१)
द्रव्य, क्षेत्र आदि का स्वरूप समझकर राजा सिंहसेन की पत्नी रामदत्ता ने दांतमती और हिरण्यमती आर्यिकाओं के समीप में संयम धारण कर लिया।

वरुणा की आर्यिका दीक्षा

‘वरुणाद्यार्यिकाणां च विशुद्धतरचेतसाम्।
अशीतिश्च सहस्राणि लक्षमेवं क्षतैनसाम्।।
वरुणाद्र्याियकाणां वरुणार्यिका आद्या मुख्या यासां तासार्माियकाणां
च एवं लक्षम्, अशीति: सहस्राणि च। अभूवन्।।
—(श्रीवीरनन्दी, चन्द्रप्रभचरितम् १८/१५०)
तीर्थंकर चन्द्रप्रभ के समवसरण में वरुणा आदि एक लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ थीं, जिनके समस्त पाप विलीन हो चुके थे और जिनके हृदय अत्यन्त विशुद्ध हो गये थे। पुराणसार संग्रह में भी इस प्रकार मिलता है किन्तु वरुणा के स्थान पर सुलसा का नाम मिलता है और एक लाख अस्सी हजार के स्थान पर तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाओं का वर्णन आता है—
‘‘तिस्रो लक्षा अशीतिश्च सहस्राश्च शुभार्यिका:।
तासामग्रेसरी नात्रा सुलसा शीलधारिणी।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, चन्द्रप्रभवचरित, १/७५)
उनके (तीर्थंकर चन्द्रप्रभ) संघ में तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ थीं और उनमें प्रधान सुलसा नाम की आर्यिका थी।

प्रभावती की आर्यिका दीक्षा

‘‘पद्मावत्यार्यिकापाश्र्वे निष्क्रम्योग्रं प्रभावती।
रत्नावलिं तप: कृत्वा साऽप्यच्युतमुपेयुषी।।’’
—(आचार्य दमनन्दि, पुराणसारसंग्रह, आदिनाथचरित, १/४९)
प्रभावती ने पद्मावती आर्यिका के समीप दीक्षा लेकर उग्र रत्नावली तप तपकर अच्युत स्वर्ग में गयी।

सुप्रभा की आर्यिका दीक्षा

‘‘सुदर्शनार्यिकापाश्र्वे दीक्षित्वोग्रतपोवृता। कृत्वा रत्नावली सम्यक् सुप्रभा चाच्युतं गता।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, आदिनाथचरित, १/५७)
सुप्रभा ने सुदर्शना आर्यिका के पास दीक्षा ले ली और रत्नावली नाम के उग्र तप करके अच्युत स्वर्ग गयी।

अनन्तश्री और धनश्री की आर्यिका दीक्षा

‘‘कन्या सप्तशतवृता प्राव्राजीत्सुव्रतार्यिकापार्श्व।
कृत्वोग्रतप: सम्यक् साऽन्ते प्राप्तानतं कल्पम्।।’’
—(आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह, शांतिनाथचरित ३/३२)
अनन्तश्री और धनश्री नाम की दोनों कन्या सात सौ कन्याओं के साथ सुव्रता आर्यिका के पास दीक्षित हो गयी और उग्र तप तपकर अन्त में आनत कल्प में देव हुर्इं।

मैना सुन्दरी (मदन सुन्दरी) आदि की आर्यिका दीक्षा

राश्यो मदनसुन्दर्याद्याभव्यो भूभुजा समम्। एक शाटीं बिना संगांस्त्यक्त्वाददुस्तपोद्भुतम् ।।
—(आचार्य सकलर्कीित, श्रीपालचरित्र, १०/९६)
भव्यात्मा रानियाँ मदनसुन्दरी, मदनमंजूषा, गुणमाला आदि ने एक मात्र साड़ी के बिना शेष परिग्रहों को छोड़कर आश्चर्यकारी आर्यिका व्रत धारण किये।

जिनदत्त की पत्नियों की आर्यिका दीक्षा

‘‘कृत्वा सारतरं तपो बहुविधं शान्तश्चिरं चार्यिका:।
कल्पं तास्तम वापु रेत्य सकला दत्तो जिनादिर्गत:।।’’
—(आचार्य गुणभद्रस्वामी, जिनदत्तरचरित्र, ९/९८)
जिनदत्त की भार्याएँ आर्यिका व्रत से अलंकृत हो घोर तपश्चरण करने लगीं। वे शान्त चित्त, विकार रहित शुद्ध सपेâद एक साड़ी मात्र परिग्रह धारण कर कठोर साधना करने लगीं। अन्त में कषाय और शरीर का को कृश कर उत्तम समाधि कर उसी स्वर्ग को प्राप्त किया, जिसमें श्री जिनदत्त मुनिराज उत्पन्न हुए थे।

जिनमती सेठानी की आर्यिका दीक्षा

‘‘श्रेष्ठिनी जिनमत्याख्या तदा तद्गुरुपादयो:।
युग्मं प्रणम्य मोहादिपरिग्रहपराङ्मुखा।।
वस्त्रमात्रं समादाय लात्वा दीक्षां यथोचिताम्।
संश्रिता भक्तित: कांचिदार्यिकां शुभमानसाम्।।’’
—(आचार्य विद्यानन्दि, सुदर्शनचरित, ५/८७—८८)
जिनमती नामक सेठानी ने उन गुरु के चरणयुगल में प्रणाम कर मोहादि परिग्रह से पराङ्मुख होकर, वस्त्र मात्र ग्रहण कर यथायोग्य दीक्षा लेकर भक्तिपूर्वक शुभ मन वाली किसी आर्यिका का आश्रय किया।
मनोरमा की आर्यिका दीक्षा ‘‘त्रिधा सर्वं परित्यज्य वस्त्रमात्रपरिग्रहा।
तत्र दीक्षां समादाय शर्मदां परमादरात्।।
भूत्वार्यिका सती पूता जिनोत्तं सुतप: शुभम्।
संचकार जगच्चेतोरञ्जनं दु:खभञ्जनम्।।’’
—(आचार्य विद्यानन्दि, सुदर्शनचरित, ११/८९—९०)
मन—वचन—काय से सब त्याग कर, वस्त्र मात्र स्वीकार कर वहाँ परम आदर से सुख देने वाली दीक्षा ग्रहण कर, मनोरमा सती ने पवित्र आर्यिका होकर जिनोक्त शुभ सुतप किया, जो कि संसार के चित्त को प्रसन्न करने वाला और दु:ख का भंजन करने वाला है।

चतुर्थ काल की प्रथम आर्यिका

 ‘ब्राह्मीयं सुन्दरीयं च समस्तार्यागणाग्रणी:।’
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, १२/४२)
समस्त आर्यिकाओं की अग्रणी ब्राह्मी—सुन्दरी थीं।

बीसवीं सदी में प्रथम आर्यिका दीक्षा

वर्तमान दिगम्बर परम्परा की सर्वप्रथम दीक्षिता आर्यिकाश्री चन्द्रमती जी थीं। ‘कहा जाता है कि आचार्य शान्तिसागर जी ने अनेक महिलाओं को प्रार्थना करने पर भी दीक्षित नहीं किया था किन्तु केसरबाई को यह कहकर दीक्षित किया कि ‘नमूना तो बनो’ सचमुच ही ये भावी आर्यिका संघ के लिए उत्कृष्ट नमूना सिद्ध हुई।’
—(आर्यिका रत्नमती अभिनन्दन ग्रंथ, पृ. ४०७)

पंचम काल की अन्तिम आर्यिका

आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण में बताया है कि अयोध्या की रहने वाली पंचम काल की अन्तिम धर्मात्मा सर्वश्री आर्यिका होगी। वीरांगज मुनि, अग्निल श्रावक, सर्वश्री आर्यिका और फल्गुसेना श्राविका ये चारों ही जीव शरीर तथा आयु छोड़कर सद्धर्म के प्रभाव से प्रथम स्वर्ग में जाएँगे। यथा—
सर्वश्रीरार्यिकावर्गे पश्चिम: श्रावकोत्तम:।
वीरांगजोऽग्निल: सर्वश्रीरत्यक्त्वा श्राविकापि सा।।
देहमायुश्च सद्धर्माद् गमिष्यन्त्यादिमं दिवम्।।
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७६/४३३, ४३६)
आर्यिकाओं का स्वतन्त्र स्थान समवसरण में
ततोऽलंकृतनारीभिरार्यिकाततिराम्बभौ।
स्फुरद्विद्युद्भिराश्लिष्टा शारदीव घनावली।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, २/७८
अर्थ—तीर्थंकर भगवान के समवसरण की बारह सभाओं में से तृतीय सभाकक्ष में नाना प्रकार के अलंकारों से अलंकृत स्त्रियों के साथ आर्यिकाओं की पंक्ति इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार कि चमकती हुई बिजलियों से आलिंगित शरद् ऋतु की मेघपंक्ति सुशोभित होती है।
ह्रीदयाक्षान्तिशान्त्यादिगुणालंकृतसंपद:।
समेत्योपविशन्त्यार्या सद्धर्मतनया यथा।।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ५७/१५१)
अर्थ—तीसरी सभा में लज्जा, दया, क्षमा शान्ति आदि गुणरूपी सम्पत्ति से सुशोभित आर्यिकाएँ विराजमान थीं, जो समीचीन धर्म की पुत्रियों के समान जान पड़ती थीं।

गणिनी आर्यिका के अनुशासन में आर्यिकाएँ

ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे। गणिनीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज।।
—(आचार्य वट्टकेर, मूलाचार १९२)
आर्यिकाओं को बिना कार्य के पर—गृह में नहीं जाना चाहिए और अवश्य जाने योग्य कार्य में गणिनी से पूछकर साथ में मिलकर ही जाना चाहिए, अर्थात् आर्यिकाओं को गणिनी आर्यिका के अनुशासन में अपनी चर्या करनी चाहिए।

आर्यिकाओं द्वारा आचार्यादि का वंदना

पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरिदूणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।।
—(आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, १९५)
आर्यिकाएँ आचार्य को पाँच हाथ से उपाध्याय को छह हाथ से साधु को सात हाथ से दूर रहकर गवासन से ही वंदना करती हैं।

कुशल गणिनी द्वारा प्रायश्चित विधान

सामाचार: कथित: आर्याणां चेह यो विशेषस्तु। तस्य च भंगेन पुन: गणिना कुशलेन निर्दिष्टम्।।
—(आचार्य इन्द्रनन्दि, छेदशास्त्र, ७२)
आर्याणां अर्थात् आर्यिकाओं का आचार सम्बन्धी जो कथन यहाँ किया गया है, उसकी विशेषता यह है कि उस संघ की प्रमुखा गणिनी द्वारा वह भिन्न प्रकार से यहाँ विधिवत् निर्दिष्ट है।
‘‘यत श्रमणानामुत्तं प्रायश्चित्तं तथा यत् आचरणम्।
तेषां चैव प्रोक्तं तत् श्रमणीनामपि ज्ञातव्यम्।।’’
—(आचार्य इन्द्रनन्दि, छेदपिण्ड २८९)
९. समस्त आर्यिकाओं की प्रमुख साध्वी। श्रमणों के लिए मुक्ति पर्यंत जो प्रायश्चित्त तथा जो आचरण कहे गये हैं, वहीं प्रायश्चित्त तथा आचरण श्रमणियों के लिए भी जानना चाहिए।

आर्यिकाओं के समूह में गणिनी ही मुनि से वार्तालाप करे

‘‘तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को टु।
गणिनी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्व।।’’
—(आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, १७८, पृ. १४६)
पुन: उनमें से यदि अकेली आर्यिका प्रश्न करे तो अकेला मुनि उत्तर न देवे यदि गणिनी को आगे करके वह प्रश्न पूछती है तो फिर उत्तर कहना चाहिए।
‘बहुकालप्रव्रजिताया अप्यार्यिकाया अद्य प्रव्रजितोऽपि महान् ।’
—(आचार्य वट्टकेर, मूलाचार, टीका ९११)
बहुत काल से दीक्षित आर्यिका से आज का दीक्षित मुनि महान है।

विनय करने की क्रम पद्धति

‘निग्र्रन्थानां नमोऽस्तु, स्यादार्यिकाणां च वंदना।
श्रावकस्योत्तमस्थौच्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते।।’
—(आचार्य इन्द्रनन्दि, नीतिसार, ५१, पृ. १८)
भावार्थ—निर्ग्रन्थ—दिगम्बर अनगार को ‘नमोस्तु’, आर्यिकाओं को ‘वंदना’ तथा क्षुल्लक, ऐलक को ‘इच्छामि’ शब्दों द्वारा विनय प्रकट करना कहा है, अर्थात् उपर्युक्त शब्दों से ही उनकी वन्दना करनी चाहिए। यानी—क्षुल्लिका को भी ‘इच्छामि’ इच्छा—शब्देन नम: उच्यते। मुद्रा भी पूज्य है मुद्रा चाहे शासन वर्ग की हो या धार्मिक वर्ग की हो, वह मान्य होती है, ऐसा नीतिसार में आचार्य इन्द्रनन्दि ने निम्न प्रकार कहा है—
मुद्रा सर्वत्र मान्यास्यान्निर्मुद्रो नैव मन्यते।
राजमुद्राधरोऽत्यंतहीनवच्छास्त्रनिर्णय:।।
—(नीतिसार, आचार्य इन्द्रनन्दि, ७७)
अर्थ—मुद्रा की सर्वत्र मान्यता होती है, मुद्राहीन की नहीं। राजा की राजमुद्रा को धारण करने वाला अत्यन्त हीन व्यक्ति भी राजा माना जाता है, यह नीति शास्त्र का निर्णय है।

आर्यिकाओं की कुल संख्या

णभ—पण—दु—छ—पंचंबर—पंचंक—कमेण तित्थ—कत्ताणं।
सव्वाणं विरदीओ, चंदुज्जल—णिक्कलंक—सीलाओ।।
—(आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, गाथा ११८८)
अर्थ—सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में चन्द्र सदृश उज्ज्वल एवं निष्कलंक शील से संयुक्त समस्त आर्यिकाएँ क्रमश: ५०, ५६, २५० अंक प्रमाण थीं।

प्रमुख आर्यिकाओं के नाम

बम्हप्पकुज्ज—णामा, धम्मसिरी मेरुसेण—अयणंता।
तह रतिसेणा मीणा, वरुणा घोसा य धरणा य।।
चारण—वरसेणाओ, पम्मा—सव्वरिस—सुव्वदाओ वि।
हरिसेण—भाावियाओ वुंथू—मधुसेण—पुप्फदंताओ।।
मग्गिणि—जक्खि—सुलोया, चंदण—णामाओ उसह—पहुदीणं।
एदा पढम—गणीओ, एक्केक्का सव्वविरदीओ।।
—(आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, गाथा ११८९—११९१)
अर्थ— ब्राह्मी , प्रकुब्जा,  धर्मश्री , मेरुषेणा , अनन्ता,  रतिषेणा,  मीना,  वरुणा,  घोषा,  धरणा , चारणा,  वरसेना,  पद्मा , सर्वश्री , सुव्रता , हरिषेणा , भाविता , कुन्थुसेना,  मधुसेना , पुष्पदन्ता,  मार्गिणी, राजमती , सुलोका , चंदना नामक एक एक आर्यिका क्रमश: ऋषभादिक के तीर्थ में रहने वाली आर्यिकाओं के समूह में प्रमुख थी।

क्र. सं. तीर्थंकरों के नाम मुख्य आर्यिका आर्यिकाओं की संख्या

१. ऋषभनाथ ब्राह्मी ३,५०,०००
२. अजितनाथ प्रकुब्जा ३,२०,०००
३. सम्भवनाथ धर्मश्री ३,३०,०००
४. अभिनन्दननाथ मेरुषेणा ३,३०,६००
५. सुमतिनाथ अनन्ता ३,३०,०००
६. पद्मप्रभ रतिषेणा ४,२०,०००
७. सुपाश्र्वनाथ मीना ३,३०,०००
८. चन्द्रप्रभ वरुना ३,८०,०००
९. पुष्पदन्त घोषा ३,८०,०००
१०. शीतलनाथ धरणा ३,८०,०००
११. श्रेयांसनाथ चारणा १,३०,०००
१२. वासुपूज्य वरसेना १,०६,०००
१३. विमलनाथ पद्मा १,०३,०००
१४. अनन्तनाथ सर्वश्री १,०८,०००
१५. धर्मनाथ सुव्रता ६२,४००
१६. शान्तिनाथ हरिषेणा ६०,३००
१७. कुंथुनाथ भाविता ६०,३५०
१८. अरहनाथ कुंथुसेना ६०,०००
१९. मल्लिनाथ मधुसेना ५५,०००
२०. मुनिसुव्रतनाथ पूर्वदत्ता ५०,०००
२१. नमिनाथ मार्गिणी ४५,०००
२२. नेमिनाथ राजमती ४०,०००
२३. पाश्र्वनाथ सुलोका ३८,०००
२४. महावीर चन्दना ३६,०००
२.  कुन्ती सुभद्रा द्रौपद्यश्च दीक्षां ता: परां ययु:। निकटे राजिमत्याख्यगणिन्या गुणभूषणा:।।
(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७२/२६४—६५)
३. धनश्रीपूर्वको देवो मित्रश्रीपूर्वकस्तथा। नकुल: सहदेवश्च मद्रयां जातौ शरीरजौ।।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६४/१३८)
४. द्वेब्राह्मण्यौ परे प्रीते दृष्ट्वा नागश्रिया: कृतिम्। गुणवत्यार्यिकाभ्यर्णे प्रावा्रजिष्टां विरज्य च।।
—(आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, २३/११०)
गुणवत्यार्यिकाभ्याशे ब्राह्मण्यावितरे तदा। ईयतु: संयमं वृत्तमीदृक्सदसताभिदम्।।
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७२/२३६)
५. सा सुता भूत्तयोस्तन्ची दुर्गन्धाख्या विगन्धिका।
—(आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, २४/२५)
६. सा कुमारी दिवश्चयुत्वा द्रुपदस्य शरीरजा।।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६४/१३९)
७.पूर्व भव में सुमति ऐरावत क्षेत्र में विजयपुर नगर के राजा बन्धुषेण की बन्धुमती नामक स्त्री से बन्धुयशा नाम की कन्या हुई। बन्धुयशा ने कन्या अवस्था में ही श्रीमती नामक आर्यिका से जिनदेव प्ररूपित प्रोषधव्रत धारण किए थे। यथा—
बन्धुषेणस्य भूपस्य बन्धुमत्या: सुताभवत्। नाग्मा बन्धुयशा: कन्या श्रीमत्या प्रोषधव्रतम्।।
—(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, ६०/४८—४९)
८. सती प्रीतिमती मेरुगिरे: सकलखेचरान्।
—(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, ७०/३१)
 
Previous post पंचपरमेष्ठी के मूलगुण! Next post अकृत्रिमकमलों में जिनमंदिर!
Privacy Policy