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कृत्रिम जिनप्रतिमा

July 18, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

जिनप्रतिमा का लक्षण (कृत्रिम जिनप्रतिमा)

(यक्ष-यक्षी समेत)


शान्तप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारकृत।
सम्पूर्णभावरूपानुविद्धांगं लक्षणान्वितम्।।
रौद्रादिदोषनिर्मुक्तप्रातिहार्यां – कयक्षयुक्।
निर्माप्य विधिना पीठे जिनबिम्बं निवेशयेत्।।
 
अर्थ – जिसके मुख की आकृति शांत हो, प्रसन्न हो, मध्यस्थ हो, नेत्र विकाररहित हो, दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर हो, जो केवलज्ञान के सम्पूर्ण भावों से सुशोभित हो, जिसके अंग उपांग सब सुन्दर हों, रौद्र आदि भावों से रहित हों, आठों प्रातिहार्यों से विभूषित हों, चिन्ह से सुशोभित हों, यक्ष-यक्षी सहित हों और ध्यानस्थ हों, इस प्रकार के शुभ लक्षणों से सुशोभित जिनप्रतिमा बनवाना चाहिए और प्रतिष्ठा कराकर पूजा करनी चाहिए। जिस प्रतिमा में ये लक्षण न हों, वह अरहन्त की प्रतिमा नहीं कही जा सकती।
प्रातिहार्याष्टकोपेतां यक्षयक्षीसमन्विताम्।
स्वस्वलांच्छनसंयुक्तां जिनार्चां कारयेत्सुधी:।।
 
अर्थ – जो आठ प्रातिहार्यों से सुशोभित है, यक्ष-यक्षी सहित है और अपने-अपने चिन्हों से सुशोभित है, ऐसी प्रतिमा बुद्धिमानों को बनवानी चाहिए।
यक्षं च दक्षिणे पाश्र्वे वामे शासनदेवताम्।
लाञ्छनं पादपीठाध: स्थापयेद् यस्य यद्भवेत्।।
 
अर्थ – जिनप्रतिमा के दार्इं ओर यक्ष की मूर्ति होनी चाहिए, बाई  ओर शासन देवता अर्थात् यक्षी की मूर्ति होनी चाहिए और सिंहासन के नीचे जिनकी प्रतिमा हो, उनका चिन्ह होना चहिए।स्थापयेदर्हतां छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णके।
पीठं भामण्डलं भाषां पुष्पवृष्टिं च दुन्दुभिम्।।
स्थिरेतरार्चयो: पादपीठस्थायौ यथायथम्।
लांच्छनं दक्षिणे पाश्र्वे यक्षो यक्षी च वामके।।
 
अर्थ – अरहन्त प्रतिमा के निर्माण के साथ-साथ तीन छत्र, अशोक वृक्ष, सिंहासन, भामण्डल, चमर, दिव्यध्वनि, दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि ये आठ प्रातिहार्य अंकित होने चाहिए। प्रतिमा चाहे चल हों, चाहे अचल हों परन्तु उनका चिन्ह सिंहासन के नीचे होना चाहिए।
अथ बिम्बं जिनेन्द्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वितम्।
कृत्वायतनसंस्थानं तरुणांगं दिगम्बरम्।।
मूलप्रमाणपर्वाणां कुर्यादष्टोत्तरं शतम्।
अङ्गोपांगविभागश्च जिनबिम्बानुसारत:।।

प्रातिहार्याष्टकोपेतं सम्पूर्णावयवं शुभम्।
भावरूपानुविद्धांगं कारयेद्बिम्बमर्हत:।।
प्रातिहार्यं बिना शुद्धं सिद्धं बिम्बमपीदृशम्।
सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम्।।
 
अर्थ – भगवान जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा लक्षण सहित बनवानी चाहिए। जो समचतुरस्र संस्थान हो, तरुणावस्था की हो, दिगम्बर हो, उसका आकार वास्तुशास्त्र के अनुसार दशताल प्रमाण हो, उसके आकार के एक सौ आठ भाग हों, अंग-उपांगों का विभाग प्रतिमा के अनुसार ही होना चाहिए। जो आठ प्रातिहार्यों से सुशोभित हो, जिसके सम्पूर्ण अवयव हों, जो शुभ हो, उसका शरीर केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले भावों से परिपूर्ण हो, इस प्रकार अरहन्त की प्रतिमा बनवानी चाहिए। यदि उस प्रतिमा के साथ आठ प्रातिहार्य न हों, तो वह सिद्धों की प्रतिमा हो जाती है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमा भी आगम के अनुसार बनवानी चाहिए।
कारयेदर्हतो बिम्बं प्रातिहार्यसमन्वितम्।
यक्षाणां देवतानां च सर्वालंकारभूषितम्।।
स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वांगसुन्दरम्।
 
अर्थ – जिनप्रतिमा आठ प्रातिहार्य सहित होनी चाहिए तथा यक्ष-यक्षी सहित होनी चाहिए। वे यक्ष और यक्षी समस्त अलंकारों से सुशोभित होने चाहिए, अपने-अपने आयुध और वाहन सहित हों तथा सर्वांग सुन्दर हो। सैद्धं नु प्रातिहार्यांकयक्षयुग्मोज्झितं शुभम्। अर्थ – जिस प्रतिमा में आठ प्रातिहार्य न हों और यक्ष-यक्षी न हों, उनको सिद्ध प्रतिमा कहते हैं। अष्टप्रातिहार्यसमन्वितार्हत्प्रतिमा तद्रहिता सिद्धप्रतिमा। अर्थ – जिस प्रतिमा में आठ प्रातिहार्य हो, वह अरहन्त की प्रतिमा है तथा जिसमें प्रातिहार्य नहीं है वह सिद्ध प्रतिमा है। प्रतिष्ठा के समस्त ग्रंथो में अरहन्त प्रतिमा का यही स्वरूप बतलाया है। त्रिलोकसार, राजवार्तिक में भी प्रतिमा का यही स्वरूप है। यथा-
सिंहासणादिसहिया विणीयलकुन्तल-सुवज्जमयदंता।
विद्दुम अहरा किसलयसोहायर हत्थपायतला१।।९८५।।

सिरि देवी सुअदेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणिय जिणपासे मंगलमट्ठविह मवि होई।।९८८।।
 
अर्थ – जिनप्रतिमा के निकट इन चारित्र का प्रतिबिम्ब होई है। यहाँ पर प्रश्न-जो श्रीदेवी तो धनादिक रूप है और सरस्वती जिनवाणी है। इनका प्रतिबिम्ब कैसे होई है। ताका-समाधान-श्री और सरस्वती ये दोऊ लोक में उत्कृष्ट हैं तातें इनका देवांगना का आकार रूप प्रतिबिम्ब होई है। बहुरि दोऊ यक्ष विशेष भक्त हैं तातें तिनके आकार हो हैं। आठ मंगल द्रव्य हों।

शासन देव-देवी के प्रमाण

गोवदणमहाजक्खा तिमुहो जक्खेसरो य तुंबुरओ।
मादंगविजयअजिओ बम्हो बम्हेसरो य कोमारो।।९३४।।

छम्मुहओ पादालो किण्णरविंपुरुसगरुडगंधव्वा।
तह य कुबेरो वरुणो भिउडीगोमेधपासमातंगा।।९३५।।

गुज्झकओ इदि एदे जक्खा चउवीस उसहपहुदीणं।
तित्थयराणं पासे चेट्ठंते भत्तिसंजुत्ता।।९३६।।

जक्खीओ चक्केसरिरोहिणिपण्णत्तिवज्जसिंखलया।
वज्जंकुसा य अप्पदिचक्केसरिपुरिसदत्ता य।।९३७।।

मणवेगाकालीओ तह जालामालिणी महाकाली।
गउरीगंधारीओ वेरोटी सोलसा अणंतमदी।।९३८।।

माणसिमहमाणसिया जया य विजयापराजिदाओ य।
बहुरूपिणिवुंभंडी पउमासिद्धायिणीओ त्ति१।।९३९।।
 
गोवदन, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुम्बुरव, मातंग, विजय, अजित, ब्रह्म, ब्रह्मेश्वर, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, कुबेर, वरुण, भृकुटि, गोेमेध, पाश्र्व, मातंग और गुह्यक, इस प्रकार ये भक्ति से संयुक्त चौबीस यक्ष ऋषभादिक तीर्थंकरों के पास में स्थित रहते हैं।।९३४-९३६।। चव्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वङ्काशृंखला, वङ्काांकुशा, अप्रतिचव्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, गौरी, गांधारी, वैरोटी, सोलसा, अनन्तमती, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, वूष्माण्डी, पद्मा और सिद्धायिनी, ये यक्षिणियाँ भी क्रमश: ऋषभादिक चौबीस तीर्थंकरों के समीप में रहा करती हैं।।९३७-९३९।।
चमरकरणागजक्खगबत्तीसंमिहुणगेहि पुह जुत्ता।
सरिसीए पंतीए गब्भगिहे सुट्ठु सोहंति।।९८७।।

सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्ठविहमवि होदि२।।९८८।।
 
चमर। चमरकरनागयक्षगतद्वात्रिंशन्मिथुनै: पृथक् पृथक्
गर्भगृहे सदृश्या पंक्त्या युक्ता: सुष्ठु शोभन्ते।।९८७।।
 
सिरि। तज्जिनप्रतिमापाश्र्वे श्रीदेवी श्रुतदेवी सर्वाह्नसनत्कुमारयक्षाणां
रूपाणि अष्टविधानि मङ्गलानि च भवन्ति।।९८८।।
गाथार्थ-वे जिनप्रतिमाएँ, चमरधारी नागकुमारों के बत्तीस युगलों और यक्षों के बत्तीस युगलों सहित, पृथक्-पृथक् एक-एक गर्भगृह में सदृश पंक्ति से भली प्रकार शोभायमान होती हैं। उन जिनप्रतिमाओं के पाश्र्वभाग में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाह्न यक्ष और सानत्कुमार यक्ष के रूप अर्थात् प्रतिमाएँ हैं तथा अष्टमंगल द्रव्य भी होते हैं। झारी, कलश, दर्पण, पङ्खा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोना ये आठ मंगल द्रव्य हैं। ये प्रत्येक मंगल द्रव्य १०८-१०८ प्रमाण होते हैं।।९८७-९८८-९८९।। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में भी कहा है-
सिरिसुददेवीणतहासव्वाण्हसणक्कुमार जक्खाणं।
रूवाणिं पत्तेक्वं पडि वररयणइरइदाणिं१।।१८८१।।
अर्थ – प्रत्येक प्रतिमा के प्रति उत्तम रत्नादिकों से रचित श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाह्न व सानत्कुमार यक्षों की मूर्तियाँ रहती हैं।।१८८१।।
विश्वेश्वरादयो ज्ञेया देवता शांतिहेतवे।
व्रूरास्तु देवता: हेया येषां स्याद्वृत्तिरामिषै:२।।
अर्थ – जिनागम में विश्वेश्वर, चव्रेश्वरी, पद्मावती आदि देवता शान्ति के लिए बतलाये हैं परन्तु जिन पर बलि चढ़ाई जाती है, जीव मारकर चढ़ाये जाते हैं, ऐसे चण्डी-मुण्डी आदि देवता त्याग करने योग्य हैं। इसका भी खुलासा इस प्रकार है-
मिथ्यात्वपूरिता: व्रूरा: सशस्त्रा: सपरिग्रहा:।
निंद्या आमिषवृत्तित्वा-न्मद्यपानाच्च हीनका:३।।१।।

कुदेवाश्च ताज्ञेया ब्रह्मोमाविष्णुकादय:।
प्रतिपत्तिश्च तासां हि मिथ्यात्वस्य च कारणम्।।२।।

तस्माद्धेया: कुदेवास्ते मिथ्याभेषधरावहा:।
ग्राह्या: सम्यक्त्व सम्पन्ना जिनधर्मप्रभावका:।।३।।

चव्रेश्वर्यादिदिक्पाला यक्षाश्च शांतिहेतवे।
सम्यग्दर्शनयुक्तत्वात्ते पूज्या जिनशासने।।४।।

नाप्यस्ति मूढता तत्र दृगादिपूजने यत:।
अर्थ – जो देव मिथ्यात्वी, व्रर, हिंसक हैं, शस्त्र, परिग्रह सहित हैं, मांस की वृत्ति और मद्य की वृत्ति होने से निंद्य और हीन हैं, ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, उमा, चण्डी, मुण्डी आदि देवता कुदेवता कहाते हैं। उनकी पूजा करना मिथ्यात्व का कारण है इसलिए मिथ्या भेष को धारण करने वाले ऐसे कुदेव त्याज्य हैं परन्तु जो देव सम्यग्दृष्टि हैं, जो जिनधर्म की प्रभावना करने वाले हैं, ऐसे चव्रेश्वरी, दिक्पाल, यक्ष आदि देवता शान्ति प्रदान करने वाले हैं। ऐसे देव सम्यग्दृष्टी होने के कारण पूज्य हैं, ऐसा जैन शास्त्रों का आदेश है, उनकी पूजा करने में देवमूढ़ता नहीं होती क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा पूज्य होता है। पूजा के प्रकरण में प्रमाण श्री पूज्यपाद आचार्यदेव ने अपने ‘अभिषेक पाठ’ के अन्त में जो यक्ष-यक्षी आदि के अघ्र्य चढ़ाने के लिए कहा है, उसका पूरा क्रम और विधि ‘प्रतिष्ठातिलक’ ग्रंथ में उपलब्ध है। पूजा प्रारंभ विधि में जो क्रिया है वह सब श्री पूज्यपादस्वामी के अभिषेक पाठ के प्रारंभिक श्लोकों के अनुसार ही है सो देखिये-
आनम्यार्हंतमादावहमपि विहितस्नानशुद्धि: पवित्रै:।
तोयै: सन्मंत्रयंत्रैर्जिनपतिसवनाम्भोभिरप्यात्तशुद्धि:।।
आचम्याघ्र्यं च कृत्वा शुचिधवलदुवूलान्तरीयोत्तरीय:।
श्रीचैत्यावासमानौम्यवनतिविधिना त्रि:परीत्य क्रमेण।।१।।

द्वारं चोद्घाट्य वक्त्राम्बरमपि विधिनेर्यापथाख्यां च शुद्धिं।
कृत्वाहं सिद्धभक्तिं बुधनुतसकलीसत्क्रियां चादरेण।।
श्री जैनेन्द्रार्चनार्थं क्षितिमपि यजनद्रव्यपात्रात्मशुद्धिं।
कृत्वा भक्त्या त्रिशुद्ध्या महमहमधुना प्रारभेयं जिनस्य१।।२।।
 
‘‘पूजा अभिषेक के प्रारंभ में स्नान करके शुद्ध हुआ मैं अर्हंत देव को नमस्कार करके पवित्र जलस्नान से, मंत्रस्नान से और व्रतस्नान से शुद्ध होकर आचमन कर, अघ्र्य देकर, धुले हुए सपेद धोती और दुपट्टे को धारण कर, वंदना विधि के अनुसार तीन प्रदक्षिणा देकर जिनालय को नमस्कार करता हूँ। तथा द्वारोद्घाटन कर और मुख वस्त्र पहनकर विधिपूर्वक ईर्यापथ शुद्धि करके, सिद्धभक्ति करके, सकलीकरण करके, जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए भूमिशुद्धि, पूजा द्रव्य की शुद्धि, पूजा पात्रों की शुद्धि और आत्मशुद्धि करके भक्तिपूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि से अब जिनेन्द्रदेव का महामह अर्थात् अभिषेक पूजा प्रारंभ करता हूूँ। इस कथित विधि के अनुसार आचार्य श्री नेमिचंद्र कृत प्रतिष्ठातिलक में क्रम से सर्वविधि का वर्णन है। प्रारंभ में जलस्नान के अनंतर ‘‘मंत्रस्नान’’ विधि का वर्णन है। अनंतर ‘‘पूजामुख विधि’’ शीर्षक में मंदिर में प्रवेश करने से लेकर सिद्धभक्ति तक का वर्णन है अर्थात् मंदिर में प्रवेश करना, प्रदक्षिणा देना, जिनालय की तथा जिनेन्द्रदेव की स्तुति करना, ईर्यापथ शुद्धि करके सकलीकरण करना, द्वारोद्घाटन, मुखवस्त्र उत्सारण (वेदी के सामने का वस्त्र हटाना) पुन: सामायिक विधि स्वीकार कर विधिवत् कृत्य विज्ञापना करके सामायिक दंडक, कायोत्सर्ग और थोस्सामि करके लघु सिद्धभक्ति करना यहाँ तक पूजामुख विधि होती है। पुन: विधिवत् अभिषेक करने का विधान है। अनंतर नित्य पूजा के बाद अंत में जो विधि करनी चाहिये उसके लिये ‘‘अभिषेक पाठ’’ में ही अंत में चार श्लोक दिये गये हैं उन्हें देखिये-
निष्ठाप्यैवं जिनानां सवनविधिरपि प्राच्र्यभूभागमन्यंं।
पूर्वोत्तैर्मंत्रयंत्रैरिव भुवि विधिनाराधनापीठयंत्रम्।।
कृत्वा सच्चंदनाद्यैर्वसुदलकमलं कर्णिकायां जिनेन्द्रान्।
प्राच्यां संस्थाप्य सिद्धानितरदिशि गुरून् मंत्ररूपान् निधाय।।३७।।

जैनं धर्मागमार्चानिलयमपि विदिक्पत्रमध्ये लिखित्वा।
बाह्ये कृत्वाथ चूर्णै: प्रविशदसदवैक़: पंचक़ मंडलानाम्।।
तत्र स्थाप्यास्तिथीशा ग्रहसुरपतयो यक्षयक्ष्य: क्रमेण।
द्वारेशा लोकपाला विधिवदिह मया मंत्रतो व्याह्नियन्ते।।३८।।

एवं पंचोपचारैरिह जिनयजनं पूर्ववन्मूलमंत्रे-
णापाद्यानेकपुष्पैरमलमणिगणैरंगुलीभि: समंत्रै:।।
आराध्यार्हंतमष्टोत्तरशतममलं चैत्यभक्त्यादिभिश्च।
स्तुत्वा श्रीशांतिमंत्रं गणधरवलयं पंचकृत्व: पठित्वा।।३९।।

पुण्याहं घोषयित्वा तदनु जिनपते: पादपद्मार्चितां श्री-
शेषां संधार्य मूध्र्ना जिनपतिनिलयं त्रि:परीत्य त्रिशुद्ध्या।
आनम्येशं विसृज्यामरगणमपि य:पूजयेत् पूज्यपादं
प्राप्नोत्येवाशु सौख्यं भुवि दिवि विबुधो देवनंदीडितश्री:।।४०।।
 
अर्थ – इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजाविधि को पूर्ण करके पूर्वाेक्त मंत्र-यंत्रों से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करे, पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्वदिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जैनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुये उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्णी मंडल बना लेवे। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इंद्रों को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ। इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान् का पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंतदेव की आराधना करे। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन की घोषणा करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा/आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात् पूजा के लिये बुलाए गए देवों का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद’’ जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी’’ से पूजित श्री विद्वान् मत्र्यलोक और देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है। (३७ से ४०) पुन: प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में देखिए- नित्य अभिषेक पाठ में पहले पंचकुमार पूजा व दशदिक्पाल पूजा दी है। पुन: पंचामृत अभिषेक पाठ है। अनन्तर अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा, श्रुतपूजा, गणधरदेव पूजा दी है। अनन्तर यक्ष-यक्षी की पूजा दी है।
अथ यक्ष पूजा –
 
उपजाति छंद-
यक्षं यजामो जिनमार्गरक्षा-दक्षं सदा भव्यजनैकपक्षम्।
निर्दग्धनि:शेषविपक्षकक्षं, प्रतीक्ष्यमत्यक्षसुखे विलक्षम्।।१।।
ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:। ॐ ह्रीं हे यक्ष! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (स्थापनं)। ॐ ह्रीं यक्षाय इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं अक्षतं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यताम् प्रतिगृह्यताम् स्वाहा।
अथ यक्षी पूजा
 
उपजाति छंद-
यक्षीं सपक्षीकृतभव्यलोकां, लोकाधिवैश्वर्यनिवासभूताम्।
भूतानुकंपादिगुणानुमोदां, मोदांचितामर्चनमातनोमि।।१।।
 
ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट्। ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:। ॐ ह्रीं हे यक्षि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (स्थापनं)। ॐ ह्रीं हे यक्षीदेवि! इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यताम् प्रतिगृह्यताम् स्वाहा। अनंतर नवदेवता की पूजा के बाद क्रमश: चौबीय यक्ष व चौबीस यक्षी-जिनशासन देव-देवियों के भी अघ्र्य हैं।
यथा- चौबीस यक्ष पूजा –
उपजाति छंद
-यक्षाधिका रक्षितधर्ममार्गा, ये गोमुखाद्यास्त्रिगुणाष्टसंख्या:। तृतीयसन्मंडलवर्तिनस्तान्-सपर्यया प्रीतिजुषस्तनोमि१।।१३।।ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-विंâपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशति-यक्षदेवता:! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्। ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-विंâपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशतियक्षदेवता:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:। ॐ ह्रीं गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबरु-कुसुम-वरनंदि-विजय-अजित-ब्रह्मेश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-विंâपुरुष-गरुड-गंधर्व-खेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-सर्वाण्ह-धरणेन्द्र-मातंगाभिधानचतुर्विंशति-यक्षदेवता:! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्। ॐ ह्रीं गोमुखादिचतुर्विंशतियक्षेभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
चौबीस यक्षी पूजा –
उपजाति छंद-
सम्यक्प्रभावितजिनेश्वरशासनश्री-चव्रेश्वरीप्रभृतिशासनदेवता या:। यक्षप्रमाणकलिता गुणिसंघगृह्यास्तास्तुर्यमंडलगता बलिना धिनोमि२।।१४।।ॐ ह्रीं चव्रेश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वङ्काशृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी-गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-वूष्मांडिनी-पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवता:! अत्र आगच्छत आगच्छत संवौषट्। ॐ ह्रीं चव्रश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वङ्काशृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी-गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-वूष्मांडिनी-पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवता:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:। ॐ ह्रीं चव्रेश्वरी-रोहिणी-प्रज्ञप्ती-वङ्काशृंखला-पुरुषदत्ता-मनोवेगा-काली-ज्वालामालिनी-महाकाली-मानवी-गौरी-गांधारी-वैरोटी-अनंतमती-मानसी-महामानसी-जया-विजया-अपराजिता-बहुरूपिणी-चामुंडी-वूष्मांडिनी-पद्मावती-सिद्धायिन्यश्चेति चतुर्विंशतिदेवता:! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्। ॐ ह्रीं चव्रेश्वर्यादिशासनदेवताभ्य इदमघ्र्यं पाद्यं जलं गंधं अक्षतान् पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं बलिं स्वस्तिवं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा।
दिग्पाल पूजाश्री पूज्यपाद स्वामी ने अभिषेक पाठ में दशदिक्पाल का अघ्र्य दिया है-
पूर्वाशादेश हव्यासन महिषगते नैर्ऋते पाशपाणे। वायो यक्षेन्द्र चन्द्राभरण फणिपते रोहिणीजीवितेश।। सर्वेऽप्यायात यानायुधयुवतिजनै: सार्धमों भूर्भुव: स्व:। स्वाहा गृह्णीत चाघ्र्यं चरुममृतमिदं स्वस्तिकं यज्ञभागं१।।११।।ॐ ह्रीं क्रों प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसम्पूर्णस्वायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवारा इन्द्राग्नियमनैर्ऋतवरुणवाहन-कुबेरेशानधरणेन्द्रसोमनामदशलोकपाला आगच्छत आगच्छत संवौषट्, स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:, ममात्र सन्निहिता भवत भवत वषट् इदमघ्र्यं पाद्यं गृह्णीध्वं गृह्णीध्वं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा। इन्द्रादिदशलोकपालपरिवारदेवतार्चनम्।
 
बृहत्स्नपन-श्री गुणभद्रभदन्त कृत अभिषेक पाठ में- पृ. २५ से २८ तक दश दिक्पाल के अघ्र्य एवं क्षेत्रपाल का अघ्र्य है। श्री अभयनंदि आचार्य विरचित ‘लघु स्नपनं’ की टीका में श्री भावशर्मकृत संस्कृत टीका है। उसमें पृ. ५९-६० पर दश दिक्पालों के अघ्र्य हैं। पुन: पृ. ६६ से ७४ तक दशों दिक्पालों के पृथक्-पृथक् अघ्र्य हैं। यथा-ॐ पूर्वस्यां दिशि कुण्डलांशनिचयव्यालीढगण्डस्थलं शव्रं मूर्धनि बद्धसाधुमुकुटं स्वारूढमैरावतम्। पत्नीबान्धवभृत्यवर्गसहितं देवं समाह्वानये पाद्यार्घाक्षतदीपगन्धकुसुमं दत्तं मया गृह्यताम्२।।१५।।ॐ पूर्वस्यां दिशि इन्द्रदेवमाह्वानयामहे स्वाहा। अथ पूजामंत्र:-हे इन्द्र! आगच्छ। इन्द्राय स्वाहा। इन्द्रमहत्तराय स्वाहा। इन्द्रपरिजनाय स्वाहा। अग्नये स्वाहा। अनिलाय स्वाहा। वरुणाय स्वाहा। सोमाय स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। ॐ स्वाहा। भू: स्वाहा। भुव: स्वाहा। स्व: स्वाहा। ॐ भूर्भुव:स्व: स्वाहा। ॐ इन्द्रदिक्पालाय स्वगणपरिवृताय पाद्यं गंधं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बिंल स्वस्तिकमक्षतं यज्ञभागं च भावान्निवेदितं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा। श्री गजांकुश कवि विरचित ‘जैनाभिषेक’ में श्री प्रभाचंद्र देवकृत संस्कृत टीका है। इसमें पृ. ९४ पर दशदिक्पाल का अघ्र्य है। पं. श्री आशाधर विरचित ‘नित्यमहोद्योत’ अभिषेक पाठ में क्षेत्रपाल की विधिवत् पूजा है। यथा-क्षेत्रपालाय यज्ञेऽस्मिन्नेतत्क्षेत्राधिरक्षिणे। बलिं दिशामि दिश्यग्नेर्वेद्यां विघ्नविघातिने।।३६।।४ॐ आँ क्रों ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपाल! आगच्छागच्छ संवौषट्, तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:, मम सन्निहितो भव भव वषट्, इदं जलाद्यर्चनं गृहाण गृहाण स्वाहा। क्षेत्रपाल पूजाविश्वम्भरामम्बुकुशानलाभ्यां संशोध्य सन्तप्र्य फणीन् सुधाभि:। निक्षिप्य दर्भान्निखिलासु दिक्षु श्रीक्षेत्रपालाय बलिं ददामि।।३७।।क्षेत्रपाल का लक्षणतमालतरुकान्तिभाव् प्रकटिताट्टहासास्यवान्, दयागुणसमन्वितो भुजगभूषणैर्भीषण:। कनत्कनकविंकणीकलितनूपुराराववान् , दिगम्बरवपुर्मया जिनगृहेऽच्र्यते क्षेत्रप:।।३८।।क्षेत्रपाल का स्नपनसद्यस्केन सुगन्धेन स्वच्छेन बहलेन च। स्नपनं क्षेत्रपालस्य तैलेन प्रकरोम्यहम्।।३९।। सिन्दुरैरारुणाकारै: पीतवर्णै: सुसंभवै:। चर्चनं क्षेत्रपालस्य सिंदूरै: प्रकरोम्यहम्।।४०।। भो: क्षेत्रपाल! जिनपप्रतिमाज्र्भाल, दंष्ट्राकराल जिनशासनवैरिकाल। तैलाहिजन्मगुडचन्दन – पुष्पधूपै – र्भोगं प्रतीच्छ जगदीश्वरयज्ञकाले।।४१।। इदं जलादिकमर्चनं गृहाण गृहाण ॐ भूर्भुव:स्व: स्वधा स्वाहा इति क्षेत्रपालार्चनम्। पुन: वास्तुदेव, वायुकुमार, मेघकुमार, अग्निकुमार, नागकुमार इन पंच कुमारों के आह्वानपूर्वक अघ्र्य हैं। यथा- उत्खातपूरितसमीकृतसंस्कृतायां, पुण्यात्मनीह भगवन्मखमण्डपोव्र्याम्। वास्त्वर्चनादिविधिलब्धमखादिभागं, वेद्यां यजामि शशिभृद्दिशि वास्तुदेवम्।।४२।। पुन: दशदिक्पाल के पृथक्-पृथक् अघ्र्य हैं। यथा— रूप्याद्रिस्पर्धिघंटायुगपटुटज्ररभग्नारिशुम्भद् – भूषासख्यातिचित्रोज्वलकुथविलसल्लक्ष्मवष्र्मद्विपस्थम्। दृप्यत्सामानिकादित्रिदशपरिवृतं रुच्यशच्यादिदेवी- लोलाक्षं वङ्काभूषोद्भटसुभगरुचं प्रागिहेन्द्रं यजेऽहम्१।।९६।।ॐ ह्रीं क्रों इन्द्र! आगच्छ आगच्छ संवौषट्, तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:, मम सन्निहितो भव भव वषट् इन्द्राय स्वाहा। इन्द्रपरिजनाय स्वाहा, इन्द्रानुचराय स्वाहा, इन्द्रमहत्तराय स्वाहा, अग्नये स्वाहा, अनिलाय स्वाहा, वरुणाय स्वाहा, सोमाय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहा, ॐ स्वाहा, भू: स्वाहा, भुव: स्वाहा, स्व: स्वाहा, ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा, ॐ इन्द्रदेवाय स्वगणपरिवृताय इदमघ्र्यं पाद्यं गंधं पुष्पं धूपं दीपं चव्रं बलिं अक्षतं स्वस्तिवं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा। शासन देव-देवी, क्षेत्रपाल, दिग्पाल आदि के आह्वानन-अघ्र्य-पूजा आदि के प्रमाण प्राचीन आगम ग्रंथों में तो हैं ही, वर्तमान में भी अहिच्छत्र, हस्तिनापुर आदि अनेक तीर्थों पर तथा तेरहपंथ आम्नाय के प्राचीन एवं अर्वाचीन मंदिरों में विराजमान हैं। इनकी पूजा-अर्चना भी आगमसम्मत है।
 
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