Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

गणितीय छंद ग्रंथ— षट्खण्डागम्!

July 22, 2017शोध आलेखHarsh Jain

जैन गणित

गणितीय छंद ग्रंथ— षट्खण्डागम्


हम आज जानते हैं दो के दूने चार और आठ के पौने छ: होते हैं । जिसे हम अंकों के खेल के रूप में गिनती और पहाड़े कहकर याद करते हैं वह प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की बेटी एवं बाहुबलि की अनुजा सुन्दरी का प्रतिदान है । गिनती के एक से लेकर नौ तक के अंकों को शून्य से संपन्न कराकर दशमलव का उपयोग भी उसी विदुषी ने समाज को दिया और कहते हैं कि उसने समूचे गणितों को रूप दिया । इस सब कार्य के लिए उसे लंबी आयु भी मिली थी जो उसने आप गणिनी ब्राह्मी के साथ आर्यिका रूप में रहते हुये काटी। उसके चिंतन ने ‘‘सूत्रों’’ का रूप लिया और सरलतम सूत्र अर्थात् पहाड़े बन गए। लंबे अंतराल के बाद जब गणित ने अपना उपयोग रेखाश्रित भवन निर्माण और ज्योतिषीय गणित के रूप में लेते हुए कलात्मक एवं खगोलीय रूप में उपयोगी बना दिया था तब तक महावीर का काल प्रारंभ हो चुका था। वह ज्ञान अध्यात्म की दिशा में पूर्वाचार्य समझ रहे थे। द्वादशांगी ज्ञान अपना पूर्ण विकास पा चुका था । अठारह महाभाषायें और सात सौ उपभाषायें अपना विकास पा चुकी थीं। लेखन कला अपना प्रभुत्व जमा चुकी थीं। संहिताऐं जन्म पा चुकी थीं और समूचे संसार में मानव सभ्यता अपने चरम विकास पर थी। ईजिप्ट के पिरामिड, चीन के कम्प्यूटर्स, तक्षशिला, नालंदा की विशेष शिक्षण योजनाऐं, मूर्तिकला/सिक्के, पनपकर वाणिज्य के क्षेत्र में जहाजों द्वारा दूर—दूर तक अपना डंका बजा चुके थे। वैय्यावृत्तिक आयुर्वेद, चारों वेद रूप ले चुके थे और २३ तीर्थंकरों ने आदि प्रभु के बतलाए पथ पर चलते हुए अपना आत्मपद प्राप्त कर लिया था अज्ञानियों ने प्रमादवश ज्ञान को वैâद करने का दुस्साहस कर लिया । साधु परम्परा में वीतरागी प्रभाव के कारण ग्रंथों का ‘‘परिग्रह’’ भी स्वीकार न था। अत: द्वादशांगी साहित्य श्रेष्ठियों और श्रावकों के बीच पड़ा रह गया । बारहवाँ अंग जो ‘‘दृष्टिवाद’’ के नाम से जाना जाता था उनके पांच भेद होते थे और १,१२,८३,५८,००५ पद थे (एक अरब, बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार, पांच)। इसके अन्तर्गत चौदह पूर्व थे। मात्र यही एक अंग स्वामी भद्रबाहु के संघ के संरक्षण में दक्षिण की ओर ले जाया जा सका। शेष सब काल कवलित हुए और उनकी रचना बहुत बाद में चार बार वाचनाओं द्वारा संशोधन करते हुए शिथिलाचारी साधुओं द्वारा अपनी सुविधा के हित में की गई । यह बारहवाँ ‘‘दृष्टिवाद’’ अंग अपने पूर्वों द्वारा जिस गणित की प्रस्तुति करता था वह सहज विधि द्वारा कर्म सिद्धांत को स्पष्ट कराता था। जैन दर्शन का मूल आधार कर्म सत्ता और उनसे विमुक्ति है। भावों के द्वारा कर्मास्रव और बंध द्वारा आत्मा का कसा जाना। सत्ता में बैठे कर्मों का उनकी प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग के अनुसार कर्म फल देकर आत्मा को कसते हुए विवंâपन पैदा करना और पुनर्आस्रव फिर बंध, यह सब जैन दर्शन में विवेचित है। इसके विपरीत ज्ञानियों द्वारा कर्म प्रभाव को शांति से झेलते हुए उनकी निर्जरा अथवा तप द्वारा उन्हें आगे खींचकर उनका विपाक मोक्षमार्ग प्रशस्त करने की विधि दर्शाई है। फिर भी इस संपूर्ण प्रयोग का नियमन जिस गणित के आधार पर संभव था उसे हम ईसा पूर्व शती के ‘‘षट्खण्डागम’’ के रूप में पाते हैं। इसी को आधार बनाकर ‘‘धवला’’ की रचना हुई। जयधवला ने भी ऐसे ही गणितीय ग्रंथ ‘‘कषायपाहुड़’’ से रूप लिया है। वह गणित सूत्रों में गणना होते हुए भी बीज एवं रेखा गणित को आधार भूत लेते हुए कर्म सिद्धांत को अभिव्यक्त करता था। बिना इस गणित के जन सामान्य का विश्वास पा सकना संभव भी नहीं। गणित जितनी दूरी तक सामान्य ज्ञान का विषय बन पाता है उतनी ही दूरी तक कर्म सिद्धांत जनसामान्य में स्थान बना पाया। इसी गणित को सहज बनाने के लिये आचार्य नेमिचंद्र, जिनसेन एवं वीरसेन ने गणितीय माडलों की अभिव्यक्ति की जिन्हें सरलीकृत करके कम्प्यूटर ग्राफिक्स द्वारा टी.वी. स्क्रीन पर प्रस्तुत करना अब कम्प्यूटर विशेषज्ञों को चुनौती देता है। औषधि विज्ञान में जिस प्रकार शारीरिक प्रतिक्रियाएं प्रतिलक्षित करके औषधियों का शरीर द्वारा रक्त शोषण, प्रतिशत विभाजन, उनका प्रभाव काल, उनका निष्कासन प्रभाव आदि सामान्य सूत्रों द्वारा आंक लिया जाता है अथवा कि भौतिक विज्ञान में गति तथा रसायन विज्ञान में क्रिया के फलन को सूत्रों द्वारा जाना जा सकता है वह माडल्स पर आधारित गणना ही होती है । कर्म सिद्धांत में भी हमारे पूर्वाचार्यों ने इसी प्रकार माडलों के आधार पर संपूर्ण सिद्धांत की अभिव्यक्ति दी है। यह ग्रंथ भारतीय मूल संस्कृति और मूल धर्म का प्राण हैं। यह जैन दर्शन की न केवल अमूल्य निधि है बल्कि प्रत्येक मानव की आत्म उपलब्धि की वुंâजी होने के कारण सरलीकरण के लिये अति उपयुक्त हैं। ाqजस प्रकार ग्राफिक्स द्वारा बचपन के चेहरे को स्क्रीन पर बिन्दुओं के आधार पर वृद्धावस्था की छवि से जोड़कर काल की परिणति को अति शीघ्र दर्शा दिया जाता है उसी प्रकार भवों की कर्म फलन शक्ति को आत्मा के भटकन में दर्शाते हुए भावों का प्रभाव, कर्मास्रव, बंध, सत्ता और कर्म फल के जोड़ते हुए स्वस्तिक की चार गतियों में भटकान दर्शाना अति उपयोगी होगा। यह न केवल मनुष्य को सदाचरण की ओर प्रेरित करेगा बल्कि पर्यावरण की सुरक्षा भी करेगा। गणितीय छंद ग्रंथो का इससे सुंदर उपयोग भला और क्या होगा ? मनुष्य का भव—भव परिवर्तन से कर्म प्रभाव में एवेंâद्रिय से पंचेद्रिय तक के तिर्यंचों की ८४ लाख योनियों की भटकान तब स्वयमेव विराम की ओर प्रशस्त होगी। तभी धर्म के सिद्धांतों का सही निरूपण होगा। अध्यात्म प्रेमियों तथा बंधुओं से आशा है कि वे इस दिशा में कम्प्यूटरों का उपयोग करके बालकों के खेलने हेतु प्रथमानुयोग और करणानुयोग के सिद्धांतों वाली सामग्री प्रस्तुत करें। जैन दर्शन का संपूर्ण न्याय और लॉजिक भी इसी गणित पर आधारित है । थर्मोडायनेमिक्स के शक्ति संबंधी सिद्धांत जिस प्रकार पौद्गलिक शक्ति को आत्म की शक्ति से भिन्न होने के बाद भी उस पर समान रूप से लागू होते हैं उसे ही आधार बनाते हुए कम्प्यूटर खेल मॉडल बनाया जाना संभव एवं उपयोगी होगा। तब द्रव्यानुयोग सहज हो चुकेगा और हत्याओं पर रोक लगेगी। अहिंसा अपना प्रभाव तभी दर्शावेगी जब आधुनिक वैज्ञानिक साधनों से उस परम विज्ञान की अविव्यक्ति सुलभ होगी जो कि कठिन तो है किन्तु असंभव नहीं।

स्नेह रानी जैन पूर्व प्रवाचक— फार्मेसी विभाग

डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, छवि,

नेहानगर, मकरोनिया, सागर— ४७०००४, 

अर्हत् वचन अप्रैल—१९९७

Tags: Arhat Vachana
Previous post दिगम्बर जैन आम्नाय में मंत्र व्यवस्था! Next post दानवीर सेठ माणिकचन्द्र!

Related Articles

तीन लोक—आधुनिक दृष्टि में!

July 14, 2017Harsh Jain

नागदा तीर्थ एवं यहां का जीर्ण शीर्ण पार्श्वनाथ मन्दिर

June 24, 2015jambudweep

गोपाचल दुर्ग का जैन पुरावशेष!

July 7, 2017jambudweep
Privacy Policy