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चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज का जीवन परिचय

July 16, 2017Books, ज्ञानमती माताजीjambudweep

चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज का जीवन परिचय



जिस प्रकार किसी छोटे बालक से यदि समुद्र की गहराई पूछी जाए तो वह अपने नन्हें-नन्हें हाथों को अपनी शक्ति के अनुसार फैलाकर समुद्र को उतना ही बड़ा सिद्ध करने का प्रयास करता है अथवा यदि कोई बौना व्यक्ति ऊँचे आम्र वृक्ष के नीचे खड़ा होकर उसके फलों को तोड़ने की इच्छा से अपने हाथों को ऊँचा करता है और हंसी का पात्र बन जाता है ठीक उसी प्रकार बीसवीं शताब्दी के महान आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शान्तिसागर जी महाराज के गुणों का वर्णन करना वास्तव में हास्यास्पद ही है।
 
यह तो हमारा परम सौभाग्य है कि वर्तमान में हमें लगभग एक हजार साधुओं के दर्शन हो रहे हैं। कविवर भूधरदास और द्यानतराय आदि विद्वानों के समय मुनिराजों के दर्शन दुर्लभ थे तभी तो उन्होंने अपने भजनों में लिखा है—
 
कर जोड़ भूधर बीनवे, कब मिलहिं वे मुनिराज।
यह आश मन की कब फलै, मम सरहिं सगरे काज।।
 
इन पंक्तियों से यह सहज ही ज्ञान हो जाता है कि अब से लगभग १०० वर्ष पूर्व इस वसुन्धरा पर मुनियों के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हो गये थे।
 
दक्षिण भारत में जो कतिपय मुनिराज थे वे छोटे-छोटे गांव में भ्रमण कर अपनी चर्या का परिपालन कर रहे थे। ऐसी विषम परिस्थिति में सन् १८७२ में दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त में भोजग्राम के निकट येळगुळ गाँव में सातगौंडा नामक एक बालक का जन्म हुआ। जिसने अपनी त्याग-तपस्या के द्वारा सैकड़ों वर्ष के अंधकारमय इतिहास को प्रकाशमान कर दिया।
 
सातगौंडा की माता का नाम सत्यवती था एवं पिता का नाम था भीमगौंडा। ये पाटिल घराने के थे। उधर प्रान्त में नगर के राजा को पाटिल कहते थे। श्री भीमगौंडा पाटिल का समाज में उसी प्रकार मान-सम्मानपूर्ण स्थान था। घर में प्रारंभ से ही धार्मिक वातावरण होने के कारण सातगौंडा का जीवन भी काफी प्रभावित हुआ।
 
इनके दो बड़े भाइयों के नाम थे—देवगौंडा और आदिगौंडा।
 
उस समय चूँकि बालविवाह की परम्परा थी अतः दोनों भाइयों के विवाह के पश्चात् ९ वर्षीय बालक सातगौंडा का विवाह एक ७ वर्षीय बालिका के साथ सम्पन्न कर दिया गया किन्तु शीघ्र ही उस बालपत्नी का स्वर्गवास हो जाने से सातगौंडा विवाहित होकर भी बाल ब्रह्मचारीवत् रहे और ४० वर्ष की आयु तक अपने माता-पिता की सेवा करने के पश्चात् त्यागमार्ग की ओर कदम बढ़ा दिये।
 
मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज से सन् १९१३में क्षुल्लक दीक्षा तथा सन् १९२० में मुनिदीक्षा ग्रहण कर शांतिसागर नाम प्राप्त किया। दीक्षा लेने के बाद मुनियों के योग्य ग्रंथ मूलाचार का स्वाध्याय करके मुनि परम्परा में व्याप्त शिथिलताओं को दूर किया तथा अनेक शिष्यों का संग्रह कर चतुर्विध संघ बनाया।
 
सन् १९२४ में मुनि श्री शांतिसागर जी महाराज को समडोली ग्राम में चतुर्विध संघ के द्वारा शताब्दी का प्रथम आचार्य घोषित किया गया पुनः१९२७ में आचार्यश्री ने अपने संघ सहित सम्मेदशिखर यात्रा के उद्देश्य से दक्षिण से उत्तर की ओर विहार किया उस समय संघ में सात मुनिराज थे—मुनि श्री वीरसागर जी, मुनि श्री नमिसागर जी, मुनि श्री नेमीसागर जी, मुनि श्री चन्द्रसागर जी, मुनि श्री पायसागर जी, मुनि श्री सुधर्मसागर जी, मुनि श्री कुंथुसागर जी।
 
इस संघ की ‘‘सप्तऋषि’’ के नाम से उत्तर भारत में बहुत ही अधिक प्रसिद्धि हो गयी। आचार्यश्री की रत्नत्रय साधना अत्यन्त कठोर थी। वे शरीर को पराया समझकर उसे कभी-कभी ही आहार प्रदान करते थे अर्थात् उन्होंने ३५ वर्ष के दीक्षित मुनि जीवन में २५ वर्ष छह मास उपवास में व्यतीत किये।
 
आपके उपवासों की संख्या ९३३८ है। आपने उपवासों के माध्यम से चारित्रशुद्धिव्रत, सिंहनिष्क्रीडितव्रत, गणधरवलय, तीस चौबीसी आदि अनेक व्रतों को करके शरीर को कृश किया था क्योंकि वे भली प्रकार जानते थे कि—
 
यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ।
यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम् ।।
 
अर्थात् अनेक साधन सामग्रियों से भले ही शरीर का उपकार होता है किन्तु उससे आत्मा का अहित होता है तथा व्रत, उपवास आदि से यद्यपि शरीर कृश हो जाता है किन्तु उससे आत्मा का उपकार होता है।
 
आचार्यश्री ने ३५ वर्षीय कठोर तपस्या की शृंखला में १२ वर्ष की उत्कृष्ट सल्लेखना के अन्तर्गत १८ अगस्त १९५५ को कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर यमसल्लेखना ग्रहण की थी। २४ अगस्त १९५५ को अपना आचार्यपट्ट अपने प्रथम शिष्य मुनिश्री वीरसागर जी को प्रदान किया तथा २६ अगस्त १९५५ को आचार्यश्री ने सल्लेखना विधि के अनुसार सबसे क्षमायाचना की, पुनः १९ सितम्बर १९५५ को प्रातः ६ बजकर ५५ मिनट पर ‘‘ॐ सिद्धाय नमः’’ का उच्चारण करते हुए आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज वास्तव में शांति के अथाह सागर में निमग्न हो गये। मोक्षमार्ग के इस सच्चे पथिक ने आज से ५९ वर्ष पूर्व स्वर्ग की ओर प्रयाण कर दिया था।
 
वह दिन भादों शुक्ला दूज का था तभी से सम्पूर्ण भारतवर्ष में आचार्यश्री की स्मृति में समाधिदिवस मनाया जाता है। समस्त भव्यात्मा प्राणी भी चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी के जीवन से प्रेरणा लेकर उनके समान ही अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का सफल पुरुषार्थ करे, यही मंगल भावना है।
 
Tags: Shravak Sanskaar
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