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जीव दया परम धर्म है!

August 14, 2017कहानियाँHarsh Jain

जीव दया परम धर्म है


शुभा-माताजी! अब की महावीर जयन्ती के समय एक विद्वान् के उपदेश में मैंने सुना है कि दया, दान, पूजा, भक्ति करते-करते, करते-करते अनन्तकाल निकल गया किन्तु इस जीव का कल्याण नहीं हुआ और न ही होने का, क्योंकि ये दया, दान आदि कार्य धर्म नहीं है। उपदेश के बाद बाहर निकलकर कुछ लोगों में आपस में फुसफुसाहट चल रही थी और कुछ लोग आपस में ही एक-दूसरे से उखड़ रहे थे। सो क्या कारण है आप मुझे समझाइये? माताजी-शुभा! तुम जैसी बालिकाएँ अभी सैद्धान्तिक ज्ञान से बहुत दूर हैं, ये तो सब विद्वानों की चर्चाएँ हैं। तुम लोग अपने ज्ञान को परिपक्व बनाने के लिए पहले प्रारंभ से ही जैनधर्म की पुस्तकों का अध्ययन करो। बाल विकास पढ़ो, प्रद्युम्न-चरित्र, जम्बूस्वामी चरित्र, धन्यकुमार चरित्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार, द्रव्यसंग्रह और तत्त्वार्थसूत्र आदि पढ़ो पुन: इस उपर्युक्त शंकाओं का समाधान तुम्हें सहज ही मिल जायेगा। सरिता-नहीं माताजी! मुझे आज ही समझाओ कि दया धर्म है या नहीं? माताजी-बेटी सरिता! श्री गौतम स्वामी द्वारा रचित जिस यतिप्रतिक्रमण का पाठ साधुवर्ग हर पन्द्रह दिनों में करते हैं, उसमें स्पष्ट कहा है कि- ‘‘सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण-समणाणं पंचमहव्वदाणि-सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि। तं जहा-पढमे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं…..।’’ हे आयुष्मन्त भव्यों! मैंने (गौतम स्वामी ने) इस भरत क्षेत्र में होने वाले श्रमण भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में सुना है कि पाँच महाव्रत आदि श्रमणों के लिए समीचीन धर्म है, उनका उन्होंने उपदेश दिया है। उसमें सर्वप्रथम प्राणी िंहसा से विरत होना यह अहिंसा महाव्रत है। उसी प्रकार से श्रावक और क्षुल्लक (ऐलक) तक के उपासकों के लिए भी कहा है कि- 
सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण सावयाणं
सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेणं पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि
चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसदाणि।
हे आयुष्मंत भव्यों! मैंने (गौतम ने) श्रमण भगवान् महति महावीर के द्वारा उपदिष्ट गृहस्थ धर्म को सुना है जो कि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं और श्रावक-श्राविकाओं तथा क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं के लिए कहा गया है। इन पाँच अणुव्रत आदि धर्मों में सर्वप्रथम अहिंसा अणुव्रत है जो कि दया ही है पुन: चार शिक्षाव्रत में जो अतिथि संविभागव्रत है, वह चार प्रकार के दानरूप है तथा सामायिकव्रत में अरहंत, सिद्ध, आचार्य आदि नव देवताओं की भक्ति का ही विधान है। सामायिक और अतिथि संविभाग व्रतों में ही जिनपूजा एवं गुरुपूजा का, उनकी भक्ति का विधान है पुन: ये दया, दान, पूजा और भक्ति धर्म क्यों नहीं हैं? अवश्य हैं पुनश्च- ‘‘अहिंसा परमो धर्म: यतो धर्मस्ततो जय:।’’ ये पंक्तियाँ भी आचार्यों की ही हैं, तो फिर दया को धर्म न कहना ये कहाँ की बुद्धिमानी है? ऐसे ही श्री कुन्दकुन्ददेव ने चारित्रपाहुड़ में कहा है कि-
एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं। सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे।।
पाँच अणुव्रत आदि बारहव्रतों का वर्णन करके कहते हैं कि इस प्रकार से श्रावकधर्मस्वरूप श्रावक आचरण तो कहा, यह कला सहित अर्थात् एकदेश है अब निष्कल अर्थात् परिपूर्ण यतिधर्मरूप संयमचरण को कहॅूँगा। पुनश्च-
धम्मो दयाविसुद्धो, पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगय मोहो, उदयकरो भव्वजीवाणं।।
दया से विशुद्ध धर्म, सर्वपरिग्रह रहित दीक्षा और मोहादि दोष रहित देव ये तीनों भव्य जीवों के उदय को करने वाले हैं। ये तो मैंने तुम्हें सिर्पक श्री गौतम स्वामी और कुन्दकुन्ददेव के दो-चार वाक्य दिखलाये हैं, ऐसे हजारों वाक्य जैन ग्रंथों में भरे पड़े हैंं। दया के उदाहरण में श्री जीवंधरस्वामी का उदाहरण तुम्हें बहुत बढ़िया लगेगा। सरिता-माताजी! उसे भी सुना दीजिए। माताजी-किसी समय एक तपस्वी महात्मा भूख से पीड़ित हुए नगर के निकटवर्ती एक बगीचे में पहुँचे। वहाँ पर बहुत से बच्चे खेल रहे थे, उन सभी में एक बालक सभी बालकों में अधिक तेजस्वी दिख रहा था। साधु ने उससे पूछा- ‘‘नगर कितनी दूर है?’’ बालक ने कहा- ‘‘बालकों की क्रीड़ा को देखकर कौन ऐसा वृद्ध है जो कि अनुमान न लगा ले कि नगर इस बगीचे के निकट ही है? अरे! धुएँ को देखकर कौन पुरुष अग्नि का अनुमान नहीं लगाता है और ठंडी वायु के आने पर कौन यह नहीं जान लेता कि कहीं पर जल वर्षा हुई है।’’ इत्यादि मधुर वचनों से और उसके सुन्दर रूप से साधु ने यह समझ लिया कि यह कोई होनहार महापुरुष है और बालक ने भी साधु के शरीर को देखकर यह समझ लिया कि इन महात्मा को भोजन कराना चाहिए अत: वे उन महात्मा को साथ लेकर घर आ पहुँचे और अपने रसोइये को बोले कि ‘‘इन्हें भोजन करा दीजिए।’’ रसोइये ने एक तरफ साधु के लिए आसन लगा दिया और सामने ही एक तरफ उस बालक के लिए भी भोजन परोस दिया।

उस समय उस रसोइये ने

उस समय उस रसोइये ने घर में पाँच सौ बालकों के लिए और बहुत से लोगों के लिए भोजन बनाया हुआ था, सो रसोइया तो साधु को परोसता गया और साधु भोजन करता ही चला गया। वह बालक बड़े आश्चर्य से उस साधु को देख रहा था और उसके हृदय में करुणासागर उमड़ता ही चला आ रहा है अत: उसने स्वयं भोजन करना शुरू नहीं किया। मात्र वह अतिशय करुणा से एकटक उस साधु को देखता ही रह गया। ‘‘हाँ! उस समय यदि और कोई साधारण बालक होता तो यह तो उसकी इस क्षुधा को देखकर हँसने लगता या गुस्सा करने लगा कि आखिर हम सभी लोग क्या खायेंगे?’’ किन्तु वह बालक अन्त में अपने हाथ में लिए हुए चावल के ग्रास को, जिसे कि अभी मुँह में नहीं रखा था, बस वह देखने में ही स्वयं खाना भूल ही गया था, उस ग्रास को बहुत ही आदर के साथ उस महात्मा को दे दिया। महात्मा ने जैसे ही उस एक ग्रास चावल को खाया कि उसका पेट उसी क्षण भर गया। उसी क्षण साधु को परम तृप्ति हो गई और तब वह साधु अपनी पहले की प्रवृत्ति से अत्यधिक लज्जा को प्राप्त हुआ।’’ श्री वादीभसूरि कहते हैं कि उस समय साधु की बीमारी के क्षय का समय आ पहुँचा था, अथवा उनकी दया का माहात्म्य था अथवा वह कार्य ही वैसा होने वाला था कि जिससे जीवंधर कुमार के हाथ के एक ग्रास के खाने से ही साधु की भस्मक व्याधि शान्त हो गई।’’ शुभा-माताजी! उस साधु के यदि असाता कर्म का उदय शांत न होता, तो उस जीवंधर जी की दया से और उनके द्वारा दिये गये ग्रास से रोग कैसे शांत होता? माताजी-यह सर्वथा एकांत नहीं है, यद्यपि रोग के क्षय में अन्तरंग कारण कर्मों की मंदता है फिर भी बहिरंग कारण तो औषधि या बाह्य वस्तुएँ ही हुआ करती हैं अत: यहाँ पर जीवंधर की दया को बलवान बहिरंग कारण मानना ही पड़ेगा। जीवंधर स्वामी के जीवन की एक और घटना है, उसे सुनो। किसी समय जीवंधर कुमार एक वन से निकले। उस समय वहाँ भयंकर अग्नि लग रही थी। तमाम हाथी आदि प्राणी झुलस रहे थे, तमाम पशु-पक्षी इधर-उधर भाग रहे थे। उन हाथी आदि जीवों को देखकर उनका हृदय दया के अधीन हो गया, उन्हें इतना दु:ख हुआ कि मानों वह उपद्रव उनके शरीर पर ही हो रहा हो। उस समय उन्होंने उस उपद्रव को दूर करने के लिए हृदय में श्री जिनेन्द्रदेव के चरणों को विराजमान करके क्षण भर खड़े होकर ध्यान किया कि तत्क्षण ही आकाश में मेघों की गर्जना शुरू हो गई और मूसलाधार पानी बरसने लगा। यह उस समय जीवंधर की करुणा का ही प्रभाव था अथवा करुणा बुद्धि से रक्षा हेतु किया गया जिनेन्द्रदेव का जो स्मरण था, उसी का ही वह प्रभाव था। ऐसे ही एक समय जीवंधर कुमार वनक्रीड़ा के लिए गये थे। वहाँ पर मरणासन्न कुत्ते को देखकर अपार दया के सागर ने उनके कान में पंच नमस्कार मंत्र सुनाया। यद्यपि वह कुत्ता उस समय उस महामंत्र को कान से ही सुन रहा था, मन से नहीं, तो भी उसका कुछ क्लेश कम हो गया और मंत्र सुनते-सुनते उसके प्राण निकल गये। मरकर के वह कुत्ता उस मंत्र के प्रभाव से देवपर्याय में सुदर्शन नाम का यक्षपति हो गया। इस यक्षेन्द्र ने जीवन भर जीवंधर का उपकार करके अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है। निष्कर्ष यह निकला कि जब तद्भव मोक्षगामी ऐसे जीवंधर स्वामी ने भी इस प्रकार से दया को धर्म माना था और महामुनि भी अपनी सारी प्रवृत्ति दया धर्म को पूर्णतया पालन करने के लिए ही संयमित रखते हैं पुन: हम और आप जैसे लोगों के लिए तो यह दया ही परमधर्म है और उसका यथाशक्ति पालन करना भी परम कर्तव्य है। सरिता-इस दया धर्म को पालन करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? माताजी-तुम्हें सर्वप्रथम अष्ट मूलगुण धारण करना चाहिए। सरिता-वह कौन-कौन हैं? माताजी-मद्य, माँस और मधु का त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, रात्रि में भोजन का त्याग, जल छानकर पीना, किसी जीव की हिंसा नहीं करना और देवदर्शन करना ये आठ मूलगुण हैं। शुभा-आजकल कुछ लोग रात्रि में अन्न नहीं खाते हैं, किन्तु कलाकन्द, आलू की टिकिया आदि खाते हैं सो यह क्या है? माताजी-बात यह है कि रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना उत्तम मार्ग है किन्तु यदि आप सभी कुछ नहीं छोड़ सकते तो जितना भी छोड़ दो, उतना ही अच्छा है। कुछ मर्यादा तो बनेगी, धीरे-धीरे तुम्हारी सब कुछ छोड़ने की भावना बन जायेगी, किन्तु आलू आदि जमीकंद पदार्थ तो सर्वथा ही अभक्ष्य हैं, इनका त्याग करना ही उत्तम है। शुभा-अभी हमें आप रात्रि में मात्र अनाज की वस्तु का ही त्याग दे दीजिए और बाकी के सभी मूलगुण दे दीजिए। सरिता-हाँ! मुझे भी इन आठ मूलगुणों को दे दीजिए। माताजी-(व्रतों को विधिवत् देकर) अच्छा, इन व्रतों को लेकर ही आज तुम भाव से जैन बनी हो, अभी तक मात्र नाम से या द्रव्य से जैन थी। शुभा-आज मेरा जीवन पवित्र हो गया है, जो कि मैंने इन व्रतों को गुरु के द्वारा ग्रहण किया है। शरद-चलो बहन! अब घर चलें, कल फिर अपन माताजी से कुछ विशेष चर्चा करेंगे।
 
Tags: Jain Stories
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