३.१ प्रवाह की दृष्टि से जैनधर्म अनादि है। समय का चक्र अनादिकाल से अबाधगति से चल रहा है। उसका प्रभुत्व सब पर है। चेतन और अचेतन-सब उससे प्रभावित हैं। धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। धर्म शाश्वत होता है, पर उसकी व्याख्या समय के साथ बदलती रहती है। वर्तमान में जैन धर्म का प्रवर्तन भगवान ऋषभदेव से माना जाता है। कुछ विद्वान इसे वैदिक धर्म की शाखा, तो कुछ इसे बौद्ध धर्म की शाखा मानते हैं। पर वर्तमान में हुए शोध-अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि यह न वैदिक धर्म की शाखा है और न बौद्ध धर्म की शाखा है। यह एक स्वतंत्र धर्म है।
विश्व के प्राचीनतम धर्मों में जैनधर्म प्राचीनतम धर्म है। पुरातन भारत के पुरातत्त्व तथा इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि जैन विचारधारा प्राचीन काल से ही अनवरत चल रही है। जैनधर्म सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक धर्म है। यह किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं है। किन्तु यह तो आत्मा के लिए है आत्मा द्वारा प्राप्त किया जाता है, आत्मा में प्रतिष्ठित होता है, इसलिए इसे ‘आत्म-धर्म’ भी कहा जाता है।
जन-जन को सम्यक् सुख एवं शांति का जिसमें पौरुष बताया जाये वह ‘जैनधर्म’ कहलाता है। यह धर्म अस्तित्व की अपेक्षा से अनादिनिधन अपौरूषेय अर्थात् स्वयंसिद्ध है।
भगवान ऋ़षभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हुए हैं जिन्होंनें जैन धर्म की स्थापना नहीं वरन् जैन तीर्थ (धर्म) का प्रवर्तन किया। लोक भाषा में जन-जन तक पहुँचाया। जिसके माध्यम से अगणित भव्यात्माओं ने अक्षय शांति का साम्राज्य प्राप्त किया। भगवान ऋषभदेव से पूर्व अगणित बार २४-२४ तीर्थंकर एक-एक काल में हो चुके हैं, जिन्होंने धर्म ध्वजा को फहराया।
जैनधर्म वैदिक धर्म की शाखा नहीं है, क्योंकि वैदिक मत में वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं। विद्वान वेदों को ५००० वर्ष प्राचीन मानते हैं। वेदों में ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि श्रमणों का उल्लेख किया मिलता है। वेदों के पश्चात् उपनिषद, आरण्यक, पुराण आदि में भी इनका वर्णन आता है। यदि इन ग्रंथों की रचना से पूर्व जैनधर्म न होता, भगवान ऋषभ न होते, तो उनका उल्लेख इन ग्रंथों में वैâसे होता ? इससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म वैदिक धर्म से अधिक प्राचीन है।
जैनधर्म बौद्धधर्म की भी शाखा नहीं है अपितु उससे प्राचीन है। जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर हैं, यह भ्रान्त दृष्टिकोण ही इसे बौद्धधर्म की शाखा मानने का कारण रही है। पर अब इस विषय में हुए शोधों से यह स्पष्ट हो गया कि भगवान महावीर से पूर्व भी जैनधर्म का अस्तित्व था।
डॉ. हर्मन जैकोबी ने अपने ग्रंथ ‘‘जैन सूत्रों की प्रस्तावना’’ में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। आज पार्श्वनाथ जब पूर्णत: ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध हो चुके हैं तब भगवान महावीर से जैनधर्म का शुभारंभ मानना मिथ्या ही है। जैकोबी लिखते हैं ‘‘इस बात से अब सब सहमत हैं कि नाथपुत्त जो वर्धमान अथवा महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए, वे बुद्ध के समकालीन थे। बौद्ध ग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख हमारे इस विचार को और दृढ़ करते हैं कि नाथपुत्त से पहले भी निर्ग्र्रन्थों का जो धर्म आज अर्हत् या जैन नाम से प्रसिद्ध हैं-उसका अस्तित्व था।’’
यह सत्य है कि ‘‘जैनधर्म’’ इस शब्द का प्रयोग वेदों में, त्रिपिटकों में और आगमों में देखने को नहीं मिलता, जिसके कारण भी कुछ लोग जैनधर्म को प्राचीन न मानकर अर्वाचीन मानते हैं। प्राचीन साहित्य में ‘‘जैनधर्म’’ का नामोल्लेख न मिलने का कारण यह था कि उस समय तक इसे जैनधर्म के नाम से जाना ही नहीं जाता था। उसके बाद उत्तरवर्ती साहित्य में ‘जैन’ शब्द व्यापक रूप से प्रचलित हुआ। ऋषभ से लेकर महावीर तक इसके प्राचीनतम नाम हमें जो उपलब्ध होते हैं, वे हैं-श्रमण, निर्ग्रन्थ, आर्हत्, व्रात्य आदि।
जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य है-सत्य का साक्षात्कार करना। सत्य की उपलब्धि में प्राचीन और नवीन का कोई महत्त्व नहीं होता। जिसके द्वारा आत्म-साक्षात्कार हो सके, उसी का महत्त्व होता है, फिर चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन। परइतिहास की दृष्टि में प्राचीन और अर्वाचीन का महत्त्व होता है। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है। जैनधर्म के प्राचीन होने की संपुष्टि हम दो तथ्यों के आधार पर कर सकते हैं-१. साहित्य के आधार पर, २. पुरातत्त्व के आधार पर।
भारतीय साहित्य में वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं। वेदों में तथा उनके पार्श्ववर्ती ग्रंथों में प्रयुक्त शब्द यथा-श्रमण, केशी, व्रात्य, अर्हत्, निर्र्ग्रन्थ आदि जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
श्रमण- ऋग्वेद में ‘वातरशन मुनि’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ये अर्हत् ऋषभ के ही शिष्य हैं। श्रीमद्भागवत् में ऋषभ को श्रमणों के धर्म का प्रवर्तक बताया गया है। उसके लिए श्रमण, ऋषि, ब्रह्मचारी आदि विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं। वातरशन शब्द भी श्रमणों का सूचक है।
‘वातरशन ह वा ऋषभ: श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूतु:’
तैत्तिरीयारण्यक और श्रीमद्भागवत् द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती है। वहाँ वातरशना मुनियों को श्रमण और ऊर्ध्वमन्थी कहा गया है। जिनसेनाचार्य ने वातरशन शब्द का अर्थ निर्ग्रन्थ (निर्वस्त्र) किया है। श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद और रामायण आदि में भी होता रहा है।
केशी- ऋग्वेद के जिस प्रकरण में वातरशन मुनि का उल्लेख है, उसी में केशी की स्तुति की गई है-
केश्यग्नि केशी विष केशी बिभर्ति रोदसी।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।।
अर्थात् केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन करता है। केशी ही प्रकाशमान ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता है। यह केशी भगवान ऋषभदेव का वाचक है। उनके केशी होने की परम्परा जैन साहित्य में आज भी उपलब्ध है।
व्रात्य- वैदिक साहित्य में व्रात्य संस्कृति एवं उसके तपस्वियों के उल्लेख आए हैं, जिनका विशेष संबंध श्रमण संस्कृति से होना चाहिए। व्रतों का आचरण करने के कारण वे व्रात्य कहे जाते थे। संहिता काल में व्रात्यों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। ऋग्वेद में व्रात्यों की प्रशंसा में अनेक मंत्रों की रचना की हैं। व्रात्यों की यह प्रशंसा ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद काल तक प्राप्त होती है। अथर्ववेद में तो स्वतंत्र ‘व्रात्य सूक्त’ की रचना मिलती है। व्रात्य सूक्त के १५वें काण्ड में २२० मंत्रों द्वारा व्रात्यों की स्तुति की गई है।
ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उनके प्रजापति रूप की प्रशंसा इस प्रकार की गई है-‘‘व्रात्य नाम का एक राजा हुआ, उसने राज्य धर्म का प्रारंभ किया। प्रजा, बंधु-बान्धव और प्रजातंत्र सभी का उसी से उदय हुआ। व्रात्य ने सभा, समिति, सेना आदि का निर्माण किया।
अर्हन्- वातरशन, मुनि आदि के समान ऋग्वेद में जैनों के लिए अर्हन् शब्द का प्रयोग भी हुआ है। जो अर्हत् के उपासक थे वे आर्हत् कहलाते थे। अर्हन् शब्द श्रमण संस्कृति का बहुत प्रिय शब्द है। वे अपने तीर्थंकरों को वीतराग आत्माओं को अर्हन् कहते हैं। ऋग्वेद में अर्हन् शब्द का प्रयोग श्रमण नेता के लिए ही हुआ है-
अर्हन् विभर्षि सायकानि धन्वार्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम्।
अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।।
ऋग्वेद में प्रयुक्त अर्हन् शब्द से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण संस्कृति ऋग्वैदिक काल से पूर्ववर्ती है।
यजुर्वेद में तीन तीर्थंकरों ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि के नामों का उल्लेख है। भागवतपुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभ जैनमत के संस्थापक थे। इस प्रकार साहित्य में उपलब्ध ये साक्ष्य जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
पुरातत्त्ववेत्ता भी अब इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि भारत में वैदिक सभ्यता का जब प्रचार-प्रसार हुआ, उससे पहले यहाँ जो सभ्यता थी, वह अत्यन्त समृद्ध एवं समुन्नत थी। प्राग्वैदिक काल का कोई साहित्य नहीं मिलता। किन्तु पुरातत्त्व की खोजों और उत्खनन के परिणामस्वरूप कुछ नये तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है। सन् १९२२ में और उसके बाद मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई भारत सरकार की ओर से की गई थी। इन स्थानों पर जो पुरातत्त्व उपलब्ध हुआ है, उससे तत्कालीन भारतवासियों के रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश पड़ता है। इन स्थानों पर यद्यपि कोई देवालय-मंदिर नहीं मिले हैं, किन्तु वहाँ पाई गई मुहरों, ताम्रपत्रों तथा पत्थर की मूर्तियों से उनके धर्म का पता चलता है।
मोहन-जोदड़ो में कुछ ऐसी मुहरें मिली हैं, जिन पर योगमुद्रा में योगी-मूर्तियाँ अंकित हैं। एक ऐसी मुहर भी प्राप्त हुई, जिसमें एक योगी कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानलीन हैं। उसके सिर के ऊपर त्रिशूल है। वृक्ष का एक पत्ता मुख के पास है। योगी के चरणों में एक भक्त करबद्ध नमस्कार कर रहा है। उस भक्त के पीछे वृषभ (बैल) खड़ा है। वृषभ के ऊपर वृक्ष है। नीचे सामने की ओर सात योगी कायोत्सर्ग की मुद्रा में भुजा लटकाये ध्यान-मग्न हैं। प्रत्येक के मुख के पास वल्लरी के पत्र लटक रहे हैं।
विद्वान् उक्त मुहर की व्याख्या इस प्रकार करते हैं-भगवान ऋषभदेव कायोत्सर्ग में ध्यानारूढ़ खड़े हैं। कल्पवृक्ष हवा में हिल रहा है और उसका एक पत्ता भगवान के मुख के पास डोल रहा है। उनके सिर पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह त्रिरत्नरूप त्रिशूल है। सम्राट भरत भगवान के चरणों में भक्ति से झुककर आनन्दाश्रुओं से उनके चरण-प्रक्षालन कर रहे हैं। उनके पीछे वृषभ लांछन है। नीचे सात मुनि भगवान का अनुसरण करके कायोत्सर्ग की मुद्रा में ध्यानलीन हैं। जो चार हजार व्यक्ति ऋषभदेव के साथ मुनि बने थे, उन्हीं के प्रतीक स्वरूप ये सात मुनि हैं। ये भी कल्पवृक्ष के नीचे खड़े हुए हैं और उनके मुख के पास भी पत्ता हिल रहा है। इस मुहर की इससे ज्यादा तर्कसंगत व्याख्या कोई दूसरी नहीं हो सकती।
कायोत्सर्ग मुद्रा जैन परम्परा की ही विशेष देन है। मोहन-जोदड़ों की खुदाई में प्राप्त मूर्तियों की यह विशेषता है कि वे प्राय: कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं, ध्यानलीन हैं और नग्न हैं। खड़े रहकर कायोत्सर्ग करने की पद्धति जैन परम्परा में बहुत प्रचलित है।
धर्मपरम्पराओं में योगमुद्राओं में भी भेद होता है। पर्यज्रसन या पद्मासन जैन मूर्तियों की विशेषता है। इसी संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा-प्रभो! आपके पर्यज्र्आसन और नासाग्र दृष्टि वाली योगमुद्रा को भी परतीर्थिक-अन्य मतावलम्बी नहीं सीख पाए हैं तो भला वे और क्या सीखेंगे। प्रोफेसर प्राणनाथ ने मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा पर ‘जिनेश्वर’ शब्द भी पढ़ा है।
डेल्फी से प्राप्त प्राचीन आर्गिव मूर्ति, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है, ध्यानलीन और उसके दोनों कंधों पर ऋषभ की भांति केश-राशि लटकी हुई है। डॉ. कालिदास नाग ने उसे जैन मूर्ति बतलाया है। वह लगभग दस हजार वर्ष पुरानी है।
मोहन-जोदड़ों से प्राप्त मूर्तियों के सिर पर नाग-फण का अंकन है। वह नाग-वंश के संबंध का सूचक है। सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ के सिर पर सर्प-मण्डल का छत्र था।
इस प्रकार मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा आदि में जो ध्यानस्थ प्रतिमाएँ मिली हैं, वे जैन तीर्थंकरों की हैं। ध्यानमग्न वीतराग मुद्रा, त्रिशूल और धर्मचक्र, पशु, वृक्ष, नाग, ये सभी जैन कला की अपनी विशेषताएं हैं। खुदाई में प्राप्त ये अवशेष निश्चित रूप से जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं।
साहित्य और पुरातत्त्व के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैनधर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है।
वर्तमान में भी उपलब्ध सभी संवत्सरों में वीर निर्वाण संवत् सबसे प्राचीन माना जाता है।
विष्णुपुराण- अध्याय १८, ४१-४४
मत्स्यपुराण-अध्याय २४
वैदिक पद्मपुराण-प्रथम सृष्टि खण्ड १३, पृ. ३३
वैदिक पद्मपुराण-अध्याय-१
भारतवर्ष में वैदकि आर्यों के पूर्व काल में प्रजापति (ऋषभदेव) के लिए ज्ञान यज्ञ का प्रचार था। ऋग्वेद व अथर्ववेद इसके समर्थक हैं। ऋग्वेद में भी ऐसे श्रमणों का उल्लेख है।
मुनि को नग्न क्षपणक व शन्तिपर्व में भी (मोक्ष धर्म अ. २६९, श्लोक ६) में सप्तभंगी का उल्लेख है, इसका अर्थ जैन धर्म प्रचलन में था।
विख्यात विद्वान् श्री विनोबा भावे लिखते हैं ‘‘जैन विचार नि:संशय प्राचीनकाल से है’’ (वेद मंत्र ११२, ३३,१०१ के अनुसार)
डॉ. जैकोबी के अनुसार ‘इंडो-आर्यन-इतिहास के अत्यन्त आरंभ काल में जैनधर्म का उद्भव हुआ था (Introduction outlines of Jainism, p.p.xxx to xxxiii)
‘‘डॉ. हेनरिच जिमर ने जैनधर्म को आर्यों का पूर्ववर्ती धर्म कहा है। जैनधर्म द्राविड़कालीन है जिसका सिन्धु की उपव्त्यका में उपलब्ध सामग्री से ज्ञान होता है। (The Philosophies of India p. 217)
श्री विसेन्ट स्मिथ के अनुसार ‘‘इस बात के स्पष्ट व अकाट्य प्रमाण हैं कि जैनधर्म प्राचीन है और वह प्रारंभ से भी वर्तमान स्वरूप था।’’
यजुर्वेद में ऋषभ, अजीत और अरिष्टनेमी नामक तीन तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है। इनका उल्लेख जैनधर्म के पहले, दूसरे और २२वें तीर्थंकर के रूप में किया गया है। भागवत पुराण भी इस बात की पुष्टि करता है कि जैनधर्म के संस्थापक ऋषभ ही थे।
विश्व शांति के संवाहक प्राचीनतम जैनदर्शन जन-जन का दर्शन बन गया और इसीलिए देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी इनके सिद्धान्तों के प्रति पूर्ण समादर रहा। इंडोनेशिया में स्थित बोरोबुदूर (नंदीश्वरद्वीप/समवसरण मंदिर), कंबोडिया, थाईलैण्ड में भी जैन पुरातत्त्व के अवशेष प्राप्त हुए हैं। वियतनाम, म्यान्मार (बर्मा), मेक्सिको से प्राप्त पुरातत्त्व अवशेषों से जैन संस्कृति के वहाँ प्रचलित होने के प्रमाण मिले हैं।
दिनाँक ५ मार्च २००६ को जैनधर्म को अर्न्तराष्ट्रीय धर्मों के संगठन (घ्Rध्) में १०वें धर्म के रूप में मान्यता प्रदान की गई।
अमेरिकी संसद ने दिनाँक २७-१०-२००७ को विधेयक क्र. ७४७ पास किया, जिसमें अमेरिका व विश्व में दीवाली के त्यौहार को अन्य धर्मों की तरह जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण के उपलक्ष में जैनों द्वारा महत्त्व रूप से मनाया जाना, ऐसा माना है।