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णमोकार मंत्र

November 20, 2022जैनधर्मjambudweep

णमोकार मंत्र


२.१ जैनधर्म में व्यक्ति पूजा का नहीं, गुण पूजा का महत्व है। गुणों की पूजा को भी प्रश्रय इसलिए दिया गया है, ताकि वे गुण हमें प्राप्त हो जाये। गुण पूजा का प्रतीक णमोकार महामंत्र है। यह मंत्र किसी ने बनाया नहीं है बल्कि सदा से इसी रूप में चला आ रहा है। इसलिए इसे अनादि कहा जाता है। इसी मंत्र से संसार के सब मंत्रों की उत्पत्ति हुई है और यह बीजाक्षरों का जन्मस्थल है। यह महामंत्र इस प्रकार है।

क्र- पद अक्षर मात्रा स्वर व्यंजन
१ णमो अरिहंताणं ७ ११ ६ ६
२ णमो सिद्धाणं ५ ९ ५ ५
३ णमो आइरियाणं ७ ११ ७ ५
४ णमो उवज्झायाणं ७ १२ ७ ६
५ णमो लोए सव्वसाहूणं ९ १५ ९ ८
  योग ३५ ५८ ३४ ३०

णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।

यह मंत्र प्राकृत भाषा में है और इसकी रचना ‘‘आर्या’’ छन्द में है। इस मंत्र के अंतिम पद में ‘‘लोए’’ और ‘‘सव्व’’ शब्दों का उपयोग हुआ है। ये शब्द ‘‘अन्त्यदीपक’’ हैं। ‘‘अन्त्य’’ का अर्थ अन्त में और ‘‘दीपक’’ का अर्थ प्रकाशित करना होता है। जिस प्रकार प्रज्वलित दीपक को अन्य वस्तुओं के अन्त में रख देने से वह दीपक पूर्व में रखी सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए अर्थात् इन शब्दों को सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले त्रिकालवर्ती अरिहन्त आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिये उन्हें प्रत्येक पद के साथ जोड़ लेना चाहिए। इस प्रकार इस मंत्र का अर्थ निम्नानुसार होता है-

लोक में सब अरिहन्तों को नमस्कार हो।
लोक में सब सिद्धों को नमस्कार हो।
लोक में सब आचार्यों को नमस्कार हो।
लोक में सब उपाध्यायों को नमस्कार हो।
लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो।

णमोकार मंत्र का किसी भी अवस्था में कहीं भी स्मरण किया जा सकता है क्योंकि यह मंगलकारक है और सभी मंगलों में प्रथम मंगल है। फिर भी प्रात: जागते ही, रात्रि को सोने से पूर्व तथा मन्दिरजी में इसका पठन-स्मरण अवश्य करना चाहिए। श्रावक की दिनचर्या में सबसे पहला कर्तव्य नमस्कार मंत्र का स्मरण करना बतलाया है-

‘‘ब्रह्मे मुहूर्ते उत्तिष्ठेत् परमेष्ठि-स्तुतिं पठेत्’’

अर्थात् प्रात: ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर परम मंगल के लिये नमस्कार मंत्र का स्मरण करें। यात्रा शुरू करने, भोजन के प्रारम्भ करने व समाप्त करने आदि के समय भी प्राय: इस मंत्र का स्मरण किया जाता है। मुनि भी इस मंत्र का जाप करते हैं।

अनादिनमन का वास्तविक भाव (Actual Meaning of Naman or Greetings)-

केवल नमस्कार मंत्र को बोलना अथवा नमस्कार करना सही अर्थों में नमन नहीं है। पाँचों परमेष्ठियों के स्वरूप को  समझकर उनके गुण चिन्तन करते हुए मन में जो समर्पण भाव उत्पन्न होता है वही वास्तविक नमन है। श्रद्धा इस मंत्र का मूल प्रवाह है। यह मंत्र ‘‘णमो’’ से शुरू होता है और ‘‘णमो’’ अहंकार का विसर्जन है। जो व्यक्ति नमस्कार करता है, समर्पण भाव रखता है, उसके अहंकार को कोई स्थान नहीं रहता है।

जो भी शब्द हम बोलते हैं उससे वातावरण में प्रकम्पन पैदा होता है और उसकी तरंगें हमें बहुत प्रभावित करती हैं। अत: साधक को मंत्र के शब्दों का सही चयन, अर्थ का बोध, शुद्ध उच्चारण और श्रद्धा भावना का योग करना होता है, तभी मंत्र का तदनुसार प्रकम्पन प्रभावशाली और लाभदायक होता है। नमस्कार मंत्र ऐसा मंत्र है जिसमें शब्दों का शक्तिशाली चयन है। इस मंत्र का निश्चित ध्वनि से एकाग्रतापूर्वक जप करने से यह अधिक प्रभावशाली हो सकता है और इसके चिन्तन से आत्मशुद्धि होती है। अत: इसका शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है।


२.२ अरिहंत को पहिले नमस्कार क्यों ? ( Why Arihantas are Greeted First)-


इस मंत्र में सर्वप्रथम ‘‘अरिहन्त’’ को नमस्कार किया गया है जबकि पंच परमेष्ठी में सबसे ऊँचा स्थान ‘‘सिद्धों’’ का है। इसका कारण यह है कि संसार सागर को पार करने का दिव्य उपदेश जीवों को अरिहन्त द्वारा ही दिया जाता है, ‘‘सिद्धों’’ द्वारा नहीं। चूँकि ‘‘अरिहन्त’’ की कृपा से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है और जग का कल्याण होता है, अत: उनके उपकार के अनुरूप सर्वप्रथम ‘‘अरिहन्त’’ को नमस्कार करना युक्तिसंगत है।

इसके अतिरिक्त परमात्मा की दो अवस्थाएँ होती हैं-अरिहन्त और सिद्ध। अत: पहली अवस्था को पूर्व में और दूसरी अवस्था को बाद में नमस्कार किया गया है।

णमोकार मंत्र के विभिन्न नाम (Various names of Namokar Mantra)-

णमोकार मंत्र प्राकृत भाषा का मंत्र है। प्राकृत में इसे णमोकार मंत्र कहते हैं। संस्कृत में इसे नमस्कार मंत्र कहते हैं। हिन्दी में इसी का अपभ्रंश नाम नवकार मंत्र है।

इस मंत्र के अनेक नाम हैं। इनमें प्रमुख हैं-पंच नमस्कार मंत्र, महामंत्र, अपराजित मंत्र, मूलमंत्र, मंत्रराज, अनादिनिधन मंत्र, मंगल मंत्र आदि। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

(१) पंच नमस्कार मंत्र-  जो परम पद (मोक्ष) प्राप्त कर चुके हैं अथवा उस मार्ग पर अग्रसर हैं, ऐसे पांच परमेष्ठियों को इस मंत्र में नमस्कार किया गया है, अत: इसे पंच नमस्कार मंत्र कहते हैं।

(२) महामंत्र-अपराजित मंत्र- तीनों लोकों में इस मंत्र के समान कोई मंत्र नहीं है। आचार्य उमास्वामी ने णमोकार मंत्र स्तोत्र में कहा है कि तराजू के एक पलड़े में णमोकार मंत्र और दूसरे में तीन लोक रख दें तो णमोकार मंत्र वाला पलड़ा ही भारी रहेगा। अत: इसे महामंत्र अथवा अपराजित मंत्र भी कहते हैं।

(३) मूलमंत्र-मंत्रराज-  यह मंत्र संसार के सभी मंत्रों का जनक (मूल) है। इससे ८४ लाख मंत्रों की उत्पत्ति हुई है। अत: इसे मूल मंत्र अथवा मंत्रराज भी कहते हैं।

(४) अनादि निधन मंत्र- पांचों परमेष्ठी अनन्त काल से होते आ रहे हैं और भविष्य में भी अनन्त काल तक होते रहेंगे। इस प्रकार इनका आदि भी नहीं है और अन्त भी नहीं है। इस मंत्र को किसी ने बनाया नहीं है और न यह कभी नष्ट होगा। अतः यह अनादि-निधन मंत्र कहलाता है। वर्तमान काल की अपेक्षा से आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त ने इस मंत्र को जैनधर्म के महान् ग्रन्थ ‘षट्खण्डागम’ में सर्व प्रथम प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध किया।

(५) मंगल मंत्र- यह मंत्र पापों का नाश करने वाला व मंगल करने वाला है।


२.३ णमोकार मंत्र का माहात्म्य (Significance of Namokar Mantra)-


‘‘एसो पंच णमोयारो सव्व-पावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवई मंगलं ।।’’

यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है और समस्त मंगलों में पहला मंगल है।

मंत्र की विशेषताएँ (Characteristics of Mantra)-

(१) इस मंत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी विशेष व्यक्ति या देवी-देवता को नमस्कार नहीं किया है। जिन्होंने तप-ध्यान करके अपनी आत्मा का कल्याण किया है और परमेष्ठी पद प्राप्त किया है अथवा इस हेतु प्रयासरत रहे हैं अथवा प्रयासरत हैं, ऐसे सभी महापुरुषों को नमस्कार किया गया है।

(२) यह मंत्र किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से सम्बन्ध नहीं रखता है। सभी प्राणी चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, धर्म, देश के हों अथवा गरीब हों, अमीर हों, इस मंत्र के द्वारा अपना कल्याण कर सकते हैं।

(३) इस मंत्र की एक विशेषता यह भी है कि इसमें किसी प्रकार की याचना नहीं की गई है। केवल निःस्वार्थ भाव से पंच परमेष्ठी के प्रति भक्तिभाव प्रकट किया गया है। अन्य मंत्रों में कोई न कोई चाहना (इच्छा) प्राय: की जाती है। जैसे ‘‘सर्वशांतिं कुरु-कुरु स्वाहा’’। इसमें भी शांति की याचना की गई है। यद्यपि यह सार्वजनिक हित के लिये याचना है फिर भी याचना तो की ही गई है। मगर णमोकार मंत्र में किसी से भी किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष या परोक्ष याचना नहीं की गई है।

(४) णमोकार मंत्र को किसी भी स्थान व स्थिति आदि में जपा जा सकता है। चाहे वह स्थान पवित्र हो, अपवित्र हो, चाहे व्यक्ति गतिमान हो या स्थिर हो, खड़ा हो या बैठा हो, सभी स्थितियों में यह मंत्र जपा जा सकता है।

णमोकार मंत्र को पूर्ण श्रद्धा के साथ जपने से यह बहुत ही फलदायक है। अत: आवश्यकता इसी बात की है कि हमें इस मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए। राजकुमार जीवंधर ने मरणासन्न कुत्ते को यह मन्त्र सुनाया तो कुत्ते का जीव सुदर्शन नामक यक्षेन्द्र हुआ। पद्मरुचि सेठ ने मरणासन्न बैल को णमोकार मंत्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह वृषभध्वज राजकुमार बना। कुछ भव पश्चात् ये दोनों क्रमश: राम और सुग्रीव बने। जिनदत्त सेठ के वचनों को प्रमाणित मानकर अंजन चोर ने परोक्ष रूप से इस मंत्र पर श्रद्धान किया तो उसे आकाशगामिनी विद्या प्राप्त हुई और अंजन से निरंजन बना।

इस मंत्र का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। इस मंत्र का अपमान दु:खदायी होता है। सुभौम चक्रवर्ती ने अपने प्राणों की रक्षार्थ णमोकार मंत्र को समुद्र के पानी पर लिखकर अपने पैरों से मिटाकर अपमान किया तो व्यन्तर देव ने उसे लवण समुद्र में डुबो दिया और वह मरकर सातवें नरक में चला गया।

‘‘आचार्यों ने द्वादशांग जिनवाणी का वर्णन करते हुए प्रत्येक की पदसंख्या तथा समस्त श्रुतज्ञान अक्षरों की संख्या का वर्णन किया है। इस महामंत्र में समस्त श्रुतज्ञान विद्यमान है क्योंकि पंचपरमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य श्रुतज्ञान कुछ नहीं है। अत: यह महामंत्र समस्त द्वादशांग जिनवाणीरूप है।’’


२.४ महामंत्र के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष-


इस मंत्र में ५ पद और ३५ अक्षर हैं। णमो अरिहंताणं=७ अक्षर, णमो सिद्धाणं=५, णमो आइरियाणं=७, णमो उवज्झायाणं=७, णमो लोए सव्वसाहूणं= ९ अक्षर, इस प्रकार इस मंत्र में कुल ३५ अक्षर हैं। स्वर और व्यंजनों का विश्लेषण करने पर ऐसा प्रतीत होता है-

यथा-

ण्+अ+म्+ओ+अ+र्+इ+ह्+अं+त्+आ+ण्+अं।
ण्+अ+म्+ओ+स्+इ+द्+ध्+आ+ण्+अं।
ण्+अ+म्+ओ+आ+इ+र्+इ+य्+आ+ण्+अं।
ण्+अ+म्+ओ+उ+व्+अ+ज्+झ्+आ+य्+आ+ण्+अं।
ण्+अ+म्+ओ+ल्+ओ+ए+स्+अ+व्+व्+अ+स्+आ+ह्+ऊ +ण्+अं।

इस तरह प्रथम पद में ६ व्यंजन, ६ स्वर, द्वितीय पद में ६ व्यंजन, ५ स्वर, तृतीय पद में ५ व्यंजन, ७ स्वर, चतुर्थ पद में ६ व्यंजन, ७ स्वर, पंचम पद में ८ व्यंजन, ९ स्वर हैं। इस मंत्र में सभी वर्ण अजंत हैं, यहाँ हलन्त एक भी वर्ण नहीं है। अत: ३५ अक्षरों में ३५ स्वर और ३० व्यंजन होना चाहिए था किन्तु यहाँ स्वर ३४ हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि ‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में ६ ही स्वर माने जाते हैं। मंत्रशास्त्र के व्याकरण के अनुसार ‘णमो अरिहंताणं’ पद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। यद्यपि प्राकृत में

‘एङ:’-नेत्यनुवर्तते। एङित्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: संधि: प्राकृते तु न भवति।

यथा देवो अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं, इत्यादि। सूत्र के अनुसार संधि न होने से ‘अ’ का अस्तित्व ज्यों का त्यों रहता है। ‘अ’ का लोप या खंडाकार नहीं होता है, किन्तु मंत्रशास्त्र में ‘बहुलम्’ सूत्र की प्रवृत्ति मानकर ‘स्वरयोरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य। इस सूत्र के अनुसार ‘अरिहंताणं’ वाले पद के ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है अत: इस पद में ६ ही स्वर माने जाते हैं। अत: मंत्र में कुल ३५ अक्षर होने पर भी ३४ ही स्वर माने जाते हैं। इनमें जो द्धा, ज्झा, व्व से संयुक्ताक्षर हैं, उनमें से एक-एक व्यंजन लेने से ३० व्यंजन होते हैं। इस प्रकार से कुल स्वर और व्यंजनों की संख्या ३४+३०=६४ है। मूल वर्णों की संख्या भी ६४ ही है। प्राकृत भाषा के नियमानुसार अ, इ, उ और ए मूल स्वर तथा ज झ ण त द ध य र ल व स और ह ये मूल व्यंजन इस मंत्र में निहित हैं। अतएव ६४ अनादि मूलवर्णों को लेकर समस्त श्रुत-ज्ञान के अक्षरों का प्रमाण निम्न प्रकार निकाला जा सकता है। गाथा सूत्र निम्न प्रकार है-

चउसट्ठिपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा।
रूऊणं च कए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति।।

अर्थ- उक्त चौंसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्ध राशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं।
इस नियम से गुणाकार करने पर-

एकट्ठ च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता।
सुण्णं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणयं च।

अर्थात् एक आठ चार-चार-छह-सात-चार-चार-शून्य-सात-तीन-सात-शून्य-नौ-पाँच-पाँच-एक-छह-एक-पाँच, यह संख्या आती है। इस गाथा सूत्र के अनुसार १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ये समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं।

इस प्रकार णमोकार मंत्र में समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर निहित हैं, क्योंकि अनादिनिधन मूलाक्षरों पर से ही उक्त प्रमाण निकाला गया है अत: संक्षेप में समस्त जिनवाणीरूप यह मंत्र है। इसका पाठ या स्मरण करने से कितना महान् पुण्य का बंध होता है तथा केवलज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति भी इस मंत्र की आराधना से होती है। ज्ञानार्णव में श्री शुभचन्द्राचार्य ने इस मंत्र की आराधना को बताते हुए लिखा है-

‘‘इस लोक में जितने भी योगियों ने मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया है, उन सबने श्रुतज्ञानभूत इस महामंत्र की आराधना करके ही प्राप्त किया है। इस महामंत्र का प्रभाव योगियों के अगोचर है। फिर भी जो इसके महत्व से अनभिज्ञ होकर वर्णन करना चाहता है, मैं समझता हूँ कि वह वायुरोग से व्याप्त होकर ही बक रहा है। पापरूपी पंक से संयुत भी जीव यदि शुद्ध हुए हैं, तो इस मंत्र के प्रभाव से ही शुद्ध हुए हैं। मनीषीजन भी मंत्र के प्रभाव से ही संसार के क्लेश से छूटते हैं।’’  इसलिए इस महामंत्र की महिमा को अचिन्त्य ही समझना चाहिए।

अयं महामंत्र: मंगलाचरणरूपेणात्र संग्रहीतोऽपि अनादिनिधन:, न तु केनापि रचितो ग्रथितो वा।
उक्तं च णमोकारमंत्रकल्पे श्रीसकलकीर्तिभट्टारकै:-

महापंचगुरोर्नाम, नमस्कारसुसम्भवम्।
महामंत्रं जगज्जेष्ठ-मनादिसिद्धमादिदम्।।६३।।

महापंचगुरूणां च, पंचत्रिंशदक्षरप्रमम्।
उच्छ्वासैस्त्रिभिरेकाग्र-चेतसा भवहानये।।६८।।

श्रीमदुमास्वामिनापि प्रोक्तम्-

ये केचनापि सुषमाद्यरका अनन्ता, उत्सर्पिणी-प्रभृतय: प्रययुर्विवर्ता:।
तेष्वप्ययं परतर: प्रथितप्रभावो, लब्ध्वामुमेव हि गता: शिवमत्र लोका:।।३।।

अथवा द्रव्यार्थिकनयापेक्षयानादिप्रवाहरूपेणागतोऽयं महामंत्रोऽनादि:, पर्यायार्थिकनयापेक्षया हुंडावसर्पिणीकालदोषापेक्षया तृतीयकालस्यान्ते तीर्थंकरदिव्यध्वनिसमुद्गत: सादिश्चापि संभवति।

यह मंत्र किसी के द्वारा रचित या गूँथा हुआ नहीं है। प्राकृतिक रूप से अनादिकाल से चला आ रहा है।
‘‘णमोकार मंत्रकल्प’’ में श्री सकलकीर्ति भट्टारक ने कहा भी है-

श्लोकार्थ- नमस्कार मंत्र में रहने वाले पाँच महागुरुओं के नाम से निष्पन्न यह महामंत्र जगत् में ज्येष्ठ-सबसे बड़ा और महान है, अनादिसिद्ध है और आदि अर्थात् प्रथम है।।६३।।

पाँच महागुरुओं के पैंतीस अक्षर प्रमाण मंत्र को तीन श्वासोच्छ्वासों में संसार भ्रमण के नाश हेतु एकाग्रचित्त होकर सभी भव्यजनों को जपना चाहिए अथवा ध्यान करना चाहिए।।६८।।

श्रीमत् उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है-

श्लोकार्थ- उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्त युग पहले व्यतीत हो चुके हैं उनमें भी यह णमोकार मंत्र सबसे अधिक महत्त्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बहिर्भूत (बाहर) मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस णमोकार मंत्र को नमस्कार करता हूँ।।३।।

अथवा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से अनादि प्रवाहरूप से चला आ रहा यह महामंत्र अनादि है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा हुंडावसर्पिणी कालदोष के कारण तृतीय काल के अंत में तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से उत्पन्न होने के कारण यह सादि भी है।


२.५ परमेष्ठी का स्वरूप एवं पंच परमेष्ठी के मूलगुण-


जो परम अर्थात् इन्द्रों के द्वारा पूज्य, सबसे उत्तम पद में स्थित हैं, वे परमेष्ठी कहलाते हैं। वे पाँच होते हैं-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु।

अरिहंत का स्वरूप

जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, जिनमें ४६ गुण हैं और १८ दोष नहीं हैं, उन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते हैं।

दोहा- चौंतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ।
अनंतचतुष्टय गुण सहित, छियालीसों पाठ।।१।।

३४ अतिशय + ८ प्रातिहार्य और + ४ अनंतचतुष्टय ये अरिहंत के ४६ मूलगुण हैं। उत्तरगुण अनन्त हैं।
सर्व साधारण प्राणियों में नहीं पायी जाने वाली अद्भुत या अनोखी बात को अतिशय कहते हैं। इन ३४ अतिशयों में जन्म के १०, केवलज्ञान के १० और देवकृत १४ होते हैं।

जन्म के १० अतिशय-

अतिशय रूप सुगंध तन, नाहिं पसेव निहार।
प्रियहित वचन अतुल्यबल, रुधिर श्वेत आकार।।

लक्षण सहसरु आठ तन, समचतुष्क संठान।
वङ्कावृषभनाराचजुत, ये जनमत दस जान।।

अतिशय सुन्दर शरीर, अत्यन्त सुगंधित शरीर, पसीना रहित शरीर, मल-मूत्र रहित शरीर, हित-मित-प्रिय वचन, अतुल-बल, सफेद खून, शरीर में १००८ लक्षण, समचतुरस्र संस्थान और वङ्कावृषभनाराच संहनन ये १० अतिशय अरिहंत भगवान के जन्म से ही होते हैं।

केवलज्ञान के १० अतिशय-

योजन शत इक में सुभिख, गगन-गमन मुख चार।
नहिं अदया, उपसर्ग नहीं, नाहीं कवलाहार।।

सब विद्या ईश्वरपनो, नािंह बढ़े नख-केश।
अनिमिष दृग छाया रहित, दश केवल के वेष।।

भगवान के चारों ओर सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता, आकाश में गमन, एक मुख होकर भी चार मुख दिखना, हिंसा न होना, उपसर्ग नहीं होना, ग्रास वाला आहार नहीं लेना, समस्त विद्याओं का स्वामीपना, नख केश नहीं बढ़ना, नेत्रों की पलकें नहीं लगना और शरीर की परछाई नहीं पड़ना। केवलज्ञान होने पर ये दश अतिशय होते हैं।

देवकृत १४ अतिशय-

देव रचित हैं चार दश, अर्ध मागधी भाष।
आपस माहीं मित्रता, निर्मल दिश आकाश।।

होत फूल फल ऋतु सबै, पृथ्वी काँच समान।
चरण कमल तल कमल हैं, नभतैं जय-जय बान।।

मंद सुगंध बयार पुनि, गंधोदक की वृष्टि।
भूमि विषै कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि।।

धर्मचक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार।
अतिशय श्री अरिहंत के, ये चौंतीस प्रकार।।

भगवान की अर्ध-मागधी भाषा, जीवों में परस्पर मित्रता, दिशाओं की निर्मलता, आकाश की निर्मलता, छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक ही समय में फलना-फूलना, एक योजन तक पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल होना, चलते समय भगवान् के चरणों के नीचे सुवर्ण कमल की रचना, आकाश में जय-जय शब्द, मंद सुगंधित पवन, सुगंधमय जल की वर्षा, पवन कुमार देवों द्वारा भूमि की निष्कंटकता, समस्त प्राणियों को आनन्द, भगवान् के आगे धर्मचक्र का चलना और आठ मंगल द्रव्यों का साथ रहना ये १४ अतिशय देवों द्वारा किये जाने से देवकृत कहलाते हैं और केवलज्ञान होने पर होते हैं।

प्रातिहार्य का लक्षण-

विशेष शोभा की चीजों को प्रातिहार्य कहते हैं

आठ प्रातिहार्य-

तरु अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार।
तीन छत्र शिर पर फिरें, भामंडल पिछवार।।

दिव्यध्वनी मुखते खिरें, पुष्पवृष्टि सुर होय।
ढोरें चौंसठ चमर जख, बाजें दुुंदुभि जोय।।

भगवान के पास अशोक वृक्ष, रत्नमय सिंहासन, भगवान के सिर पर तीन छत्र, पीठ पीछे भामंडल, दिव्यध्वनि, देवों द्वारा पुष्प वर्षा, यक्षदेवों द्वारा चौंसठ चंवर ढोरे जाना और दुंदुभि बाजे बजना ये आठ प्रातिहार्य हैं।

अनन्त चतुष्टय-

चार घातिया कर्मों के नाश से जो चार विशेष गुण प्रकट होते हैं, उन्हें अनंत चतुष्टय कहते हैं।

ज्ञान अनन्त, अनन्त सुख, दरश अनंत प्रमान।
बल अनंत अरिहंत सो, इष्टदेव पहिचान।।

अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य ये चार अनंत चतुष्टय हैं अर्थात् भगवान के ये दर्शन-ज्ञानादि अन्त रहित होते हैं। चार घातिया कर्म के नाश से जो चार विशेष गुण प्राप्त होते हैं, उनको अनन्तचतुष्टय कहते हैं।

अठारह दोषों के नाम-

जन्म जरा तिरखा क्षुधा, विस्मय आरत खेद।
रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद।।

राग द्वेष अरु मरण जुत, ये अष्टादश दोष।
नाहिं होत अरिहंत के, सो छवि लायक मोष।।

जन्म, बुढ़ापा, प्यास, भूख, आश्चर्य, पीड़ा, दु:ख, रोग, शोक, गर्व, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, पसीना, राग, द्वेष और मरण ये अठारह दोष अरिहंत भगवान में नहीं होते हैं।

सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप

जो आठों कर्मों का नाश हो जाने से नित्य, निरंजन, अशरीरी हैं, लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके आठ मूलगुण होते हैं, उत्तरगुण तो अनन्तानंत हैं।

सोरठा- समकित दरसन ज्ञान, अगुरुलघू अवगाहना।
सूक्षम वीरज वान, निराबाध गुण सिद्ध के।।

क्षायिक सम्यक्त्व, अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अनंतवीर्य और अव्याबाधत्व ये सिद्धों के आठ मुख्य गुण हैं।

आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप

जो पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे मुनियों से कराते हैं, मुनि संघ के अधिपति हैं और शिष्यों को दीक्षा व प्रायश्चित्त आदि देते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी हैं। इनके ३६ मूलगुण होते हैं।

छत्तीस मूलगुण-

द्वादश तप, दश धर्मजुत, पालें पंचाचार।
षट् आवश्यक, गुप्ति त्रय, आचारज गुणसार।।

१२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ये आचार्य के ३६ मूलगुण हैं। उत्तर गुण अनेक हैं।

१२ तप के नाम-

अनशन ऊनोदर करें, व्रत संख्या रस छोर।
विविक्त शयन आसन धरें, काय कलेश सुठोर।।

प्रायश्चित्त धर विनयजुत, वैयावृत स्वाध्याय।
पुनि उत्सर्ग विचारि के, धरैं ध्यान मन लाय।।

अनशन (उपवास), ऊनोदर (भूख से कम खाना), व्रतपरिसंख्यान (आहार के समय अटपटा नियम), रसपरित्याग (नमक आदि रस त्याग), विविक्त शय्यासन (एकांत स्थान में सोना, बैठना), कायक्लेश (शरीर से गर्मी, सर्दी आदि सहन करना) ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त (दोष लगने पर दण्ड लेना), विनय (विनय करना), वैयावृत्य (रोगी आदि साधु की सेवा करना), स्वाध्याय (शास्त्र पढ़ना) व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व छोड़ना) और ध्यान (एकाग्र होकर आत्मचिन्तन करना) ये छह अंतरंग तप हैं। इस प्रकार ये १२ तप होते हैं।

दस धर्म-

छिमा मारदव आरजव, सत्य वचन चित पाग।
संजम तप त्यागी सरब, आकिंचन तिय त्याग।।

उत्तम क्षमा- क्रोध नहीं करना, मार्दव- मान नहीं करना, आर्जव- कपट नहीं करना, सत्य- झूठ नहीं बोलना, शौच- लोभ नहीं करना, संयम- छह काय के जीवों की दया पालना, पाँच इन्द्रिय और मन को वश करना, तप- बारह प्रकार के तप करना, त्याग-चार प्रकार का दान देना, आकिंचन्य- परिग्रह का त्याग करना और ब्रह्मचर्य- स्त्रीमात्र का त्याग करना।

आचार तथा गुप्ति-

दर्शन ज्ञान चरित्र तप, वीरज पंचाचार।
गोपें मन वच काय को, गिन छत्तिस गुणसार।।

दर्शनाचार- दोषरहित सम्यग्दर्शन, ज्ञानाचार- दोषरहित सम्यग्ज्ञान, चारित्राचार- निर्दोषचारित्र, तपाचार- निर्दोष तपश्चरण और वीर्याचार- अपने आत्मबल को प्रगट करना ये पाँच आचार हैं।

मनोगुप्ति- मन को वश में करना, वचनगुप्ति- वचन को वश में करना और कायगुप्ति- काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं।

छह आवश्यक-

समता धर वंदन करें, नानाथुती बनाय।
प्रतिक्रमण, स्वाध्यायजुत, कायोत्सर्ग लगाय।।

समता- समस्त जीवों पर समता भाव और त्रिकाल सामायिक, वंदना- किसी एक तीर्थंकर को नमस्कार, स्तुति- चौबीस तीर्थंकर की स्तुति, प्रतिक्रमण- लगे हुए दोषों को दूर करना, स्वाध्याय- शास्त्रों को पढ़ना और कायोत्सर्ग- शरीर से ममत्व छोड़ना और ध्यान करना ये छह आवश्यक हैं। (मूलाचार आदि में स्वाध्याय की जगह ‘प्रत्याख्यान’ नामक क्रिया है, जिसका अर्थ है कि आगे होने वाले दोषों का, आहार-पानी आदि का त्याग करना) यहाँ तक आचार्य के ३६ मूलगुण हुए।

उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप

जो मुनि ११ अंग और १४ पूर्व के ज्ञानी होते हैं अथवा तत्काल के सभी शास्त्रों के ज्ञानी होते हैं तथा जो संघ में साधुओं को पढ़ाते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं। ११ अंग और १४ पूर्व को पढ़ना-पढ़ाना ही इनके २५ मूलगुण हैं।

ग्यारह अंग-

प्रथमहिं आचारांग गनि, दूजो सूत्रकृतांग।
ठाण अङ्ग तीजो सुभग, चौथो समवायांग।।

व्याख्यापण्णति पांचमों, ज्ञातृकथा षट् जान।
पुनि उपासकाध्ययन है, अन्त:कृत् दश जान।।

अनुत्तरण उत्पाद दश, सूत्रविपाक पिछान।
बहुरि प्रश्न व्याकरण जुत, ग्यारह अंग प्रमाण।।

आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, प्रश्नव्याकरणांग अनुत्तरोपपादकदशांग, और विपाकसूत्राँग ये ११ अंग हैं।

चौदह पूर्वों के नाम-

उत्पादपूर्व अग्रायणी, तीजो वीरजवाद।
अस्तिनास्तिपरवाद पुनि, पंचम ज्ञान प्रवाद।।

छट्ठो कर्मप्रवाद है, सत्प्रवाद पहिचान।
अष्टम आत्मप्रवाद पुनि, नवमों प्रत्याख्यान।।

विद्यानुवाद पूरब दशम, पूर्व कल्याण महंत।
प्राणवाद किरिया बहुल, लोकबिंदु है अन्त।।

उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यानुवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, सत्प्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणप्रवादपूर्व, प्राणानुवादपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिंदुपूर्व ये १४ पूर्व हैं। ये बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग में वर्णित पूर्वगत के १४ भेद हैं। इन्हें ही १४ पूर्व के नाम से जाना जाता है।

साधु परमेष्ठी का स्वरूप

जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा आरंभ और परिग्रह से रहित होते हैं, ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते हैं ऐसे दिगम्बर मुनि मोक्षमार्ग का साधन करने वाले होने से साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके २८ मूलगुण होते हैं।

अट्ठाइस मूलगुणों के नाम-

पंच महाव्रत समिति पन, पंचेन्द्रिय का रोध।
षट् आवश्यक साधु गुण, सात शेष अवबोध।।

५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण, ये साधु के २८ मूलगुण हैं।

पाँच महाव्रत-

हिंसा, अनृत, तस्करी, अब्रह्म, परिग्रह पाप।
मन वच तन तें त्यागवो, पंच महाव्रत थाप।।

हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का मन वचन काय से सर्वथा त्याग कर देना ये पाँच महाव्रत कहलाते हैं।

पाँच समिति-

ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान।
प्रतिष्ठापना जुत क्रिया, पाँचों समिति निधान।।

ईर्यासमिति- चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना, भाषा समिति- हित-मित-प्रिय वचन बोलना, एषणासमिति- निर्दोष आहार लेना, आदान निक्षेपण समिति- पिच्छी से पुस्तक आदि को देख-शोधकर उठाना धरना, प्रतिष्ठापना समिति- जीव रहित भूमि में मलादि विसर्जित करना, ये पाँच समिति हैं।

इन्द्रियविजय और शेष मूलगुण-

सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत का रोध।
शेष सात मज्जन तजन, शयन भूमि का शोध।।

वस्त्र त्याग कचलुंच अरु, लघु भोजन इक बार।
दाँतुन मुख में ना करें, ठाड़े लेहिं अहार।।

स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण-इन पाँचों इन्द्रियों को वश करना ये पंचेन्द्रिय विजय नामक पाँच मूलगुण हैं।
स्नान का त्याग, भूमि पर शयन, वस्त्र त्याग, केशों का लोच, दिन में एक बार लघु भोजन, दांतोन का त्याग और खड़े होकर आहारग्रहण ये ७ शेष गुण हैं। पाँचों परमेष्ठी के सब मिलकर ४६+ ८+ ३६+ २५+ २८= १४३ मूलगुण हो जाते हैं।


२.६ ॐ पंचपरमेष्ठी का संक्षिप्त रूप (Ohm : Brief form of Panch- Permeshthi)-


पंचपरमेष्ठी का सबसे छोटा रूप ॐ है। ॐ अर्थात् ओम् में पांचों परमेष्ठी के प्रथम अक्षर (अ, अ, आ, उ और म्) सम्मिलित हैं और इन पांचों अक्षरों से ही ऊँ बना है। ओम् में (अ+ अ+ आ+ उ+ म्) होते हैं। इनसे अभिप्राय निम्न प्रकार है-

अरिहन्त      अशरीरी  (सिद्ध)       आचार्य        उपाध्याय     मुनि (साधु)
   अ        +         अ              +        आ      +        उ      +     म्

चत्तारि-दण्डक-

चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलि-पण्णत्तो धम्मो मंगलं।

चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।।

लोक में चार मंगल हैं- अरिहन्त भगवान मंगल हैं, सिद्ध भगवान मंगल हैं। साधु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) मंगल हैं तथा केवली भगवान द्वारा कहा गया धर्म मंगल है। मंगल का अर्थ है जो मल (मोह, राग, द्वेष आदि) को गलावे और सच्चा सुख उत्पन्न करे। उपरोक्त चारों मंगल स्वरूप हैं। इनमें भक्ति भाव होने से परम मंगल होता है।

लोक में चार उत्तम हैं- अरिहन्त भगवान उत्तम हैं, सिद्ध भगवान उत्तम हैं, साधु (आचार्य, उपाध्याय और मुनि) उत्तम हैं तथा केवली भगवान द्वारा कहा गया धर्म उत्तम है। लोगुत्तमा का अर्थ है-लोक में उत्तम (सर्वश्रेष्ठ)। लोक में उपरोक्त चारों उत्तम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं।

चार की शरण में जाता हूँ- अरिहन्तों की शरण में जाता हूँ, सिद्धों की शरण में जाता हूँ, साधुओं (आचार्य, उपाध्याय व साधु) की शरण में जाता हूँ और केवली भगवान द्वारा कहे गये धर्म की शरण में जाता हूँ।

विशेष-शरण का अर्थ है सहारा और पव्वज्जामि का अर्थ है प्राप्त होता हूँ अर्थात् जाता हूँ। पंच परमेष्ठी द्वारा बताये गये मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा की शरण लेना ही पंच परमेष्ठी की शरण है।

चत्तारि दण्डक में अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली भगवान द्वारा कहे गये धर्म को ही मंगल स्वरूप कहा गया है। ये चारों ही लोक में सर्व श्रेष्ठ बताये गये हैं और इन चारों को ही जीवों का सहारा (शरण) कहा गया है। इन चार के अतिरिक्त लोक में अन्य कोई मंगल-उत्तम-शरण नहीं है। इस प्रकार इस चत्तारि दण्डक में पंच परमेष्ठियों के महत्त्व को दर्शाया गया है।

किन्तु इसमें अरिहन्त, सिद्ध और साधुओं का ही उल्लेख है, आचार्य व उपाध्याय का उल्लेख नहीं है। इसके कारण निम्न हैं-

(१) सभी आचार्य और उपाध्याय ‘‘साधु’’ शब्द में परोक्ष रूप से सम्मिलित हैं। आचार्य व उपाध्याय अपने मूलगुणों के अलावा साधुओं के २८ मूलगुणों को भी धारण करते हैं, अतः वे ‘‘साधु’’ परमेष्ठी में सम्मिलित हैं। उन्हें छोड़ा नहीं गया है अपितु गौण किया गया है।

(२) मोक्ष पद प्राप्त करने हेतु मात्र साधु होना आवश्यक है, आचार्य या उपाध्याय होना आवश्यक नहीं है।

(३) जब तक आचार्य पद का परिग्रह है, उन्हें केवलज्ञान नहीं हो सकता है। आचार्य पद छोड़ने पर ही केवलज्ञान होता है।

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