जैनधर्म की २४ तीर्थंकर परम्परा के अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान् हम सबके आराध्य हैं। वे चन्द्रमा के समान कान्तिवाले होने के कारण ‘चन्द्रप्रभ’ नहीं हैं किन्तु चन्द्रमा की प्रभा को भी हरने वाले हैं क्योंकि चन्द्रकान्ति तो रात्रि में ही प्रकाशित होती है जबकि वे तो अपनी प्रभा से दिन और रात, दोनों को प्रकाशित करने वाले थे। आचार्य श्री गुणभद्र ने श्री चन्द्रप्रभ भगवान् को नमस्कार करते हुए लिखा है कि—
देहप्रभेव वाग्स्याह्लादिन्यपि च बोधिनी। तन्नमामि नभोभागे सुरतारापरिष्कृतम्।।
अर्थात् जो स्वयं शुद्ध हैं जिन्होंने अपनी प्रभा के द्वारा समस्त सभा को एक वर्ण की बनाकर शुद्ध कर दी, वे चन्द्रप्रभ स्वामी हम सबकी शुद्धि के लिए हों। शरीर की प्रभा के समान जिनकी वाणी भी हर्षित करने वाली तथा पदार्थों को प्रकाशित करने वाली थी और जो आकाश में देवरूपी ताराओं से घिरे रहते थे उन चन्द्रप्रभ स्वामी को नमस्कार करता हूँ। आचार्य श्री समन्तभद्र ने स्वयंभू स्तोत्र में उनकी स्तुति इस प्रकार की है—
अर्थात् मैं चन्द्रमा की किरणों के समान गौर वर्ण, संसार से दूसरे चन्द्रमा के समान सुन्दर, इन्द्र आदि बड़े—बड़े जनों के वन्दनीय, गणधरादि ऋषियों के स्वामी कर्म रूप शत्रुओं को जीतने वाले ओर अपने विकारी भाव स्वरूप कषाय के बन्धन को जीतने वाले चन्द्रमा के समान कान्ति के धारक चन्द्रप्रभ नामक अष्टम तीर्थंकर की वन्दना करता हूँ। इस प्रकार महामहिमाशाली अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान् का चरित हम सबके लिए जानने योग्य है। जिन्होंने पहले श्रीवर्मा, फिर श्रीधरदेव, फिर अजितसेन, फिर अच्युत स्वर्ग के इन्द्र, फिर राजा पदमनाभ और फिर अहमिन्द्र पद को प्राप्त किया; ऐसा पुण्यशाली जीव जिसने राजा पद्मनाभ की पर्याय में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था वह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चन्द्रपुर नामक नगर में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री, वैभव सम्पन्न राजा महासेन की महारानी लक्ष्मणा (लक्ष्मीमती) के गर्भ में चैत्र कृष्ण पंचमी को आकर नौ माह पर्यन्त गर्भ में रह पौष कृष्ण एकादशी के दिन शक्र योग अनुराधा नक्षत्र में उत्पन्न हुआ। जन्म से ही यह बालक मति, श्रुत, अवधि; इन तीन ज्ञान का धारी था। जन्म के समय ही तीन लोक में अपूर्व शांति छा गयी। इधर सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ तो उसने जाना कि चन्द्रपुर में तीर्थंकर बालक का जन्म हुआ है। वह अपने समस्त वैभव एवं इन्द्रपरिकर के साथ ऐरावत हाथी को लेकर चन्द्रपुर में आया और अपनी शची से प्रसूतिगृह से तीर्थंकर बालक को मंगवाकर ऐरावत हाथी पर विराजमान कर सुमेरुपर्वत पर ले गया और वहाँ पाण्डुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल से भर १००८ कलशों से उनका अभिषेक किया। पश्चात् उनका नाम ‘चन्द्रप्रभ’ घोषित किया। उनका चिह्न अद्र्ध चन्द्रमा था। इन्द्र ने तीर्थंकर बालक चन्द्रप्रभ के सामने ‘आनन्द’ नामक नाटक किया और महान् हर्ष प्रकट किया। बाद में क्षमायाचनापूर्वक वह बालक माता—पिता को सौंप दिया। इस जन्मोत्सव (जन्म कल्याणक महोत्सव) के मध्य इन्द्र ने माता—पिता के पुण्य की महिमा की सराहना की और रानी लक्ष्मणा से कहा कि आप बड़ी पुण्यशालिनी हैं जो तीर्थंकर को जन्म दिया। जो माता तीर्थंकर को जन्म देती है वह अपनी स्त्री पर्याय को सार्थक करती है। सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान् के मोक्ष जाने के बाद नौ सौ करोड़ सागर का अन्तर बीत जाने पर तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभ उत्पन्न हुए थे। उनकी १० लाख पूर्व की आयु भी इसी में समाहित थी। उनका शरीर १५० धनुष ऊँचा, धवल वर्णी था। वे द्वितीया के चन्द्रमा की तरह बढ़ रहे थे। सारा संसार उनके आगे नतमस्तक था। उनके शरीर की कांति इस प्रकार थी मानो उन्हें अमृत से बनाया गया हो। उनकी द्रव्य लेश्या अर्थात् शरीर की कांति पूर्ण चन्द्रमा की कांति को जीतने वाली ऐसी सुशोभित होती थी। मानो बाह्य वस्तुओं को देखने के लिए अधिक होने से भाव लेश्या ही बाहर निकल आयी हो। अर्थात् उनका शरीर और भाव दोनों शुक्ल थे। श्री चन्द्रप्रभ स्वामी ने ढाई लाख पूर्व कुमार काल व्यतीत किया, वैवाहिक सुखों का भोग किया। साढ़े छ: लाख पूर्व और चौबीस पूर्वांग राज्य का उपभोग किया ओर अपने राजकीय कौशल से प्रजा का संरक्षण किया। एक दिन जब वे अपने महल में अपना मुख कमल दर्पण में देख रहे थे तभी बिजली कौंधी और क्षणभर में उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो यह शरीर नश्वर है और इससे जो प्रीति की जाती है वह ईति के समान दु:ख दायी है। उन्होंने विचार किया कि—
किं सुखं यदि न स्वस्मात्का लक्ष्मीश्चेदियं चला। किं यौवनं यदि ध्वंसि किमायुर्यदि सावधि।।
सम्बन्धो बन्धुभि: कोऽसौ चेद्वियोगपुरस्सर:। स एवाहं त एवार्थास्तान्येव करणान्यपि।।
तत्र किं जातमप्येष्त्काले किं वा भविष्यति। इति जानन्नहं चास्मिन्मोमुहीमि मुहुर्मुहु:।।
(आचार्य गुणभद्र : उत्तरपुराण, श्लोक-२०५ से २०८)
अर्थात् वह सुख ही क्या है जो अपनी आत्मा से उत्पन्न न हो, वह लक्ष्मी ही क्या है जो चंचल हो, वह यौवन ही क्या है जो नष्ट हो जाने वाला हो, और वह आयु ही क्या है जो अवधि से सहित हो—सान्त हो। जिसके आगे वियोग होने वाला है ऐसा बन्धुजनों के साथ समागम किस काम का ? मैं वही हूँ, पदार्थ वही है, इन्द्रियाँ भी वही हैं, प्रीति और अनुभूति भी वही है, नया प्रवृत्ति भी वही है किन्तु इस संसार की भूमि में यह सब बार—बार बदलता रहता है। इस संसार में अब तक क्या हुआ है और आगे क्या होने वाला है वह मैं जानता हूँ, फिर भी बार—बार मोह को प्राप्त हो रहा हूँ; यह आश्चर्य है। इस प्रकार विचार कर उन्होंने आत्मकल्याण के लिए जिन दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। उनके निश्चय को जानकर लोकांतिक देवों ने आकर उनके विचारों की अनुमोदना की। महाराज चन्द्रप्रभ ने अपना राज्यभार अपने सुपुत्र वरचन्द्र को सौंप दिया। अनन्तर वे दीक्षा हेतु वनगमन के लिए प्रवृत्त हुए। देवों और मनुष्यों ने उन्हें विमला नाम पालकी में विराजमान किया और सर्वर्तुक वन में ले गये। वहाँ उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर पौष कृष्ण एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ नाग वृक्ष के नीचे निग्र्रंथ दीक्षा स्वीकार की। दीक्षा के साथ ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया। दूसरे दिन वे मुनि चन्द्रप्रभ आहारचर्या हेतु नलिन नामक नगर में गये वहाँ राजा सोमदत्त ने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक उत्तम आहार दिया। वहाँ आकर वे पुन: ध्यानस्थ हो गये। उनका छदमस्थकाल तीन माह रहा। इस प्रकार जिनकल्प मुद्रा के द्वारा तीन माह बिताकर दीक्षा वन में नाग वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर स्थित हुए। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के सायंकाल अनुराधा नक्षत्र में उन्हें चन्द्रपुरी में चार घातिया कर्मों का नाश करने पर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। जिससे वे परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन, अंतिम यथाख्यात, चारित्र, क्षायिक ज्ञान, दर्शन तथा ज्ञानादि पाँच लब्धियाँ पाकर शरीर सहित सयोगकेवली जिनेन्द्र हो गये। उस समय वे सर्वज्ञ थे, समस्त लोक के स्वामी थे, सबका हित करने वाले थे, सबके एक मात्र रक्षक थे, सर्वदर्शी थे, समस्त इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय थे और समस्त पदार्थों का उपदेश देने वाले थे। चौंतीस अतिशयों के द्वारा उनके विशेष वैभव का उदय प्रकट हो रहा था और आठ प्रतिहार्यो के द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म उदय व्यक्त हो रहा था। वे देवों के देव थे, उनके चरण कमलों को समस्त इन्द्र अपने मुकुटों पर धारण करते थे, अपनी प्रभा से उन्होंने समस्त संसार को अनान्तिद किया था, तथा वे समस्त लोक के आभूषण थे। गति, जीव, समास, गुणस्थान, नय, प्रमाण आदि के विस्तार का ज्ञान कराने वाले श्रीमान् चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र आकाश में स्थित थे। कुबेर के द्वारा निर्मित समोशरण की बारह सभाओं के मध्य अन्तरिक्ष में विराजमान सर्वज्ञ चन्द्रप्रभ ने तीर्थंकर प्रकृति के अनुरूप अपनी दिव्यध्वनि से संसार को मुनि एवं श्रावक धर्म का उपदेश दिया। जीव संरक्षण की भावना से युक्त प्रेरणाएँ दीं और कत्र्तव्य मार्ग बताया। उनके समोशरण में दत्त आदि ९३ गणधर, दो हजार पूर्वधारी, आठ हजार अवधिज्ञानी, दो लाख चार सौ शिक्षक, दस हजार केवलज्ञानी, चौदह हजार विक्रिया ऋद्धिधारक मुनि, आठ हजार मन:पर्यय ज्ञान के धारक मुनि तथा सात हजार छ: सौ वादी; इस प्रकार ढाई लाख मुनि थे। वरुणा आदि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। असंख्यात देव—देवियां, संख्यात तिर्यंच उनकी सेवा—स्तुति करते थे। उनकी वाणी को सुनकर अपने भव को पवित्र करते थे। भगवान् की दिव्यध्वनि में आया कि प्रत्येक वस्तु तत्त्व और अतत्त्व रूप अर्थात् अस्ति और नास्ति रूप है। आत्मा है, क्योंकि उसमें ज्ञान का सद्भाव है। कर्म रहने पर यह आत्मा संसार भ्रमण करती है और कर्म रहित होने पर सिद्धालय में विराजमान हो जाती है। द्रव्य का परिणमन गुणों से होता है, द्रव्य से गुण कभी अलग नहीं होते। इस प्रकार धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हुए तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ ने सम्मेदशिखर पहुँचकर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय योगनिरोध कर खडगासन से निर्वाण पद को प्राप्त किया। इन्द्र ने निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया और तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान् की जय—जयकार की। उनके कल्याणक क्षेत्र और जिनबिम्ब आज भी अतिशयकारी एवं पूजनीय हैं।
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन, जैनतीर्थवंदना वंदना अगस्त २०१४