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जैनेतर संस्कृत साहित्य में भगवान वृषभदेव

July 8, 2018शोध आलेखjambudweep

जैनेतर संस्कृत साहित्य मेंभगवान् वृषभदेव


डा. जयकुमार जैन
 
वर्तमान अवसर्पिणी कालचक्र के तृतीय अर में चौदह कुलकर हुए, जिनमें चौदहवें कुलकर नाभिराय एवं उनकी अर्धागिनी मरुदेवी से मति, भुत, अवधिज्ञान के धारक पुत्र का जन्म हुआ । इन्द्रों ने बालक का सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया और उनका नाम वृषभ रखा । वृषभदेव के वृषभ नाम का औचित्य बताते हुए आदि पुराण में जिनसेनाचार्य ने लिखा है
 
वृषभोउयं जगन्नेष्ठो वर्षिष्यति जगद्धितम्।
धर्मामृतामितीन्द्रास्तमकार्षुर्वृषभाहयम्।।
वृषो हि भगवान्धर्म: तेन यरमाति तीर्थकृत्।
ततो5यै वृषभस्वामीत्याहास्तैन पुरन्दर:।।
स्वर्गावतरणे इष्ट: स्वप्ने5स्य वृषभो यत:। 
जनन्या तदयं देवैराहूतो वृषभाख्यया।।
 
ये भगवान् वृषभदेव जगत् भर में ज्येष्ठ हैं और जगत् का हित करने वाले धर्म रूपी अमृत की वर्षा करेंगे इसलिए इन्द्रों ने उनका वृषभदेव नाम रखा था । अथवा वृष श्रेष्ठ धर्म को कहते हैं और तीर्थकर भगवान्, उस श्रेष्ठ धर्म (वृष) से शोभायमान हो रहे हैं, इसलिए ही इन्द्र ने उन्हें वृषभस्वामी नाम से पुकारा था । अथवा उनके गर्भावतरण के समय में माता मरुदेवी ने एक वृषभ (बैल) देखा था, इसलिए देवों ने उनका वृषभ नाम से आहान किया था । वृषभ का पर्यायवाची ऋषभ होने से वे ऋषभदेव भी कहलाते है । भागवत पुराण के अनुसार अनेक सद्‌गुणों के कारण नाभि ने उनका नाम ऋषभ रखा ।2 

वृषभदेव के अन्य नाम

वृषभदेव को धर्म-कर्म का आदि उपदेष्टा होने से आदिनाथ नाम से भी जाना जाता है । पुरुदेव, इक्ष्याकु, हिरण्यगर्भ, स्वयंभू प्रजापति, विधाता आदि वृषभदेव के अन्य अनेक नामों का उल्लेख भी मिलता है । आदिपुराण में कहा गया है कि इन्द्र ने सबसे पहले वृषभदेव को पुरू कहकर पुकारा था । इसी कारण इन्द्र का ‘पुरुहूत’ ऐसा सार्थक नाम हो गया । हरिवंशपुराण में कहा गया है कि वृषभदेव समस्त पुराण पुरुषों में प्रथम थे, महिमा के धारक और महान् थे तथा अतिशय देदीप्यमान थे, अत: उन्हें पुरुदेव कहते हैं ।’ यहाँ यह कध्य है कि पुरु शब्द पालन-पोषण अर्थ वाली पू धातु से कु प्रत्यय से निष्पन्न रूप है । उनके इह्वाकु नाम करण के सम्बन्ध में हरिवंशपुराणकार जिनसेनाचार्य का कहना है कि उनके समय प्रजा ने इसु रस का उगस्वादन किया था, इसलिए उन्हें इह्वाकु कहते हैं ।र्त्र श्वेताम्बर परम्परा में एक कथन आया है कि जब वृषभदेव एक वर्ष से कुछ कम के थे, उस समय वे पिता के अंक में बालक्रीडा कर रहे थे । तभी इन्द्र हाथ में इधु लेकर आया । बालक का इधु के प्रति आकर्षण देखकर इन्द्र ने उन्हें इस्वाकु और उनके वंश को इस्वाकुवंश नाम से अभिहित किया ।’ हरिवंशपुराण में वृषभदेव के लिए प्रसिद्ध हिरणयगर्भ, स्वयंभू विधाता एवं प्रजापति नामों का कथन करते हुए कहा गया है कि-
 
हिरण्यवृष्टिरिष्टाभ्र गर्भस्थे5पि यतस्वयि।
हिरण्यगर्भरिक्षच्चैर्गीर्वाणेर्गीयसे तत:।।
सह ज्ञानत्रयेणात्र तृतीयभवभाविना।
स्वयंभूतो यतो5तस्त्रं स्वयंभूरिति भाष्यसे।।
व्यवस्थानां विधाता स्व भविता विविधात्मनाम्।
भारते यत्नतोउन्वर्थ विधातेत्याभिधीयसे।।
अपूर्व: सर्वतो रक्षा कुर्वन् जात: पति: प्रभो।
प्रजानां त्वं यतस्तस्मात् प्रजापतिरितीर्यसे।।
 
हे नाथ! जब आप छ? ०,० -४९! इष्ट हिरण्य (सुवर्ण) की वृष्टि हुई थी, इसलिए देवों ने आपको हिरण्यगर्भ कहा है । इस भव से तीसरे भव में जो तीन ज्ञान प्रकट हुए थे, उन्हीं के साथ आप यहाँ उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू कहे जाते हैं । क्योंकि आप भरत क्षेत्र में नाना प्रकार की व्यवस्थाओं के करने वाले होंगे, इसलिए आप सार्थक विधाता नाम के धारी कहे जाते हैं । हे प्रभो! आप सब ओर से प्रजा की रक्षा करते हुए अपूर्व प्रभु हुए हैं, इसलिए आप प्रजापति कहलाते हैं ।
 
वेदों में ऋषभदेव वेदों की गणना विश्व के प्राचीनतम साहित्य में की जाती है । वेदों में भी सर्वाधिक प्राचीन माने जाने वाले कग्वेद की अनेक ऋचाओं में ऋषभदेव का उल्लेख हुआ है । यद्यपि वैदिक परम्परा के व्याख्याकारों सायण, दयानन्द आदि ने कग्वेद की ऋचाओं में समागत ‘ऋषभ’ शब्द को जैन तीर्थंकर परक या अन्य व्यक्तिपरक नहीं माना है, तथापि उनमें वर्णित भाव ‘ऋषभ’ शब्द को आदि तीर्थकंर ऋषभदेव सिद्ध करने में समर्थ है । कतिपय ऋचायें द्रष्टव्य हैं

‘असूत पूर्वो वृषभो व्यायानिमा अस्य शुरुध: सन्ति पूर्वी।

दिवो नपाता विदधस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे।।

स्पष्ट अर्थात् जिस प्रकार जल से भरा मेघ वर्षा का प्रमुख स्रोत है और भूमि की प्यास बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वज्ञानधारी वृषभ महान् हैं, उनका शासन वर दे । उनके शासन में पूर्व का ज्ञान आत्मा के क्रोधादि शत्रुओं का विध्वंसक हो । दोनों आत्मायें (संसारी एवं मुक्त) अपने आत्मगुणों से चमकती हैं । अत: वही राजा है, वे पूर्व ज्ञान के आगार हैं और आत्म पतन नहीं होने देते हैं । उक्त मन्त्र से प्रतीत होता है कि ऋषभदेव को ज्ञान का आगार तथा दुःखो एवं शत्रुओं का विनाशक कहा गया है । आदि तीर्थकर की प्रमुख मान्यता आत्मा में परमात्मौ की सत्ता मानना है । ऋषभदेव की इस मान्यता का नामोल्लेखपूर्वक कथन कग्वेद के प्रस्तुत मन्त्र में द्रष्टव्य है

‘चत्वारि मृङ्‌गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्ष सप्त हस्तासो अस्य।

त्रिधा बद्‌धो वृषभो रोरवीति महो देवो मत्यीं आ विवेश।।

चार (अनुयोग) इसके शृंगच्फ्काशमान किरण स्वरूप हैं, तीन (रल-त्रय) इसके चरण हैं । दो (धर्म एवं शुक्ल ध्यान) इसके शीर्ष हैं तथा सात (तत्व) इसके हाथ हैं । तीन (मन, वचन, कर्म) से संयत ऋषभ ने घोषणा की है कि परमात्मा मर्दों में बसता है । कग्वेद के अन्य मन्त्र जिनमें वृषय7कृषय शब्द आया है और जिनकी फषयदेवपरक व्याख्या की जा सकती है-

अनर्वाण वृषभ मन्द्रजित वृहस्पति वर्धया नव्यमर्के:।

गाथान्यः सुरूचो यस्य देवा आशृण्वन्ति नवमानस्य मर्ता।।

ऋग्वेद, 1/19०/1 पृष्ठ 144

ऋषभ मा समानानां सपत्नानां विषसहिम्।

हन्तारं शबूणां कृधि विराज गोपति गवामू।।

5 ऋग्वेद, 1०/166/1 पृष्ठ 755

ककर्दवे वृषभो युक्त आरतीदवावचीस्सारथिरस्व केशी।

दुथे युक्तस्य द्रवत: सहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्‌गलीनाम्।।

ऋग्वेद, 1०/1०2/6 पृष्ठ 736

आ नो गोत्रा दर्ट्टहि गोपते गा: समस्मष्यै सनयी यन्तु वाजा:।

दिवक्षा असि वृषभ सत्यशुष्मो5स्मम्यं सु मधवन्योधि गोदा:।।

ऋग्वेद, 3/31/21 पृष्ठ 2०5

त्वं रथ प्र भरो योधमृध्वमावो युध्यन्तं वृषभ दशयुम्।

आ: हु _ त्वं तुद्रं वेतसवे सचाहत्त्वं सुजिं गृणन्तमिन्दू छूती:।।

ऋग्वेद, 6/26/4 पृष्ठ 359

एवारे वृषभा सुते5सिन्यन्भूर्यावय:।

हु रु- ६ श्वप्नीव निवता चरन्।।

ऋग्वेद, 8/45/38 पृष्ठ 522

प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम्।

न् स न: पर्षदति द्विष: । ।

ऋग्वेद, 1०/187/1 पृष्ठ 781

समिद्धस्य प्रमहसोदुग्ने वन्दे तवश्रियम्।

वृषभो युम्नवाँ असिसम्ध्वरेष्यिध्यसे।।

ऋग्वेद, 5/28/4 पृष्ठ 293

मरुत्वन्तं वृषभ वावृधानमकवारि दिव्य शासमिन्द्रम्।

विश्वासाहमवसे मूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम।।

ऋग्वेद, 6/19/11 पृष्ठ 353
यह कहना समीचीन नहीं है कि सर्वत्र कथित ऋषभ शब्द ऋषभदेव वाचक ही है । उपर्युक्त वृषभ,ऋषभ नामोल्लेख वाली ऋचाओं के अतिरिक्त ऋषभदेव का उल्लेख शिश्नदेव, वातरशना मुनि एवं केशी के रूप में भी ऋग्वेद में किया गया प्रतीत होता है । यथा-

न यातव इन्द्र खर्बुनो न वन्दना शविष्ट वेद्याभिः।

स शर्धदर्यो विषुणस्थ जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपि गुर्कृत न: । ।

ऋग्वेद, 7/21/5 पृष्ठ 412
ऋग्वेद में एक केशी सूक्त हैं, जिसके ऋषि जूति, वातजूति, विप्रजूइत, वृषाणक, करिकत, एतश और फष्यशृंग नामक सात वातरशना मुनि हैं । वातरशना शब्द पश्चाद्‌वर्ती जैनेतर साहित्य में भी दिगम्बर श्रमण के लिए प्रयुक्त हुआ है । कतिपय सन्दर्भ द्रष्टव्य हैं

वातरशना ह वा ऋषय: श्रमणा ऊर्धामंथिनो बखः ।

तोहरीयारण्यक

श्रमणा: दिगम्बरा: श्रमणा: वातरशना: ।’

‘निघण्टु की भूषण टीका

श्रमण।: वातरशना: आत्मविद्याविशारदा: ।

श्रीमद्‌भागवतपुराण, 11/2
 
आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में जो ‘दिग्वासा वातरशनो निर्यश्वेशो निरम्बर:’9 कहकर वातरशना को दिगम्बर का पर्यावाची कहा हैं, उसका समर्थन जैनेतर उक्त उल्लेखों से भी होता हैं । पहले उल्लिखित दशम मण्डल के इन्द्रसूक्त के एक मन्त्र में वृषभ और केशी शब्द वृषभ के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है भि अत: स्पष्ट है कि ऋग्वेद का केशी सूक्त कषभदेवपरक है । इस प्रसंग में केशी सूक्त द्रष्टव्य है, जिसमें वातरशना मुनियों को मलिन तन, पिंगल वर्ण, तप से देदीप्यामान, मौन अनुभूति वाला कहा गया है, जो दिगम्बर चर्या का अभिन्न अंग है-
 
”केश्यग्निं केशी विष केशी विभर्ति रोदसी।
केशी विश्व स्वर्ट्टशे केशीद ज्योतिरुचते।।’
मुनयो बातरशना फिरा वसते मला।
बातस्यानु धाजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत।।’
उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम्।
न्दस्माकं पूयै मर्तासो अभि पश्यथ।।’
अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत्।
मुनिर्देवस्य देवस्य सीकृत्याय सखा हित:।।’
वातस्थाश्वो वायो: सखायो देवेषितो मुनि:।
उभी समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापर:।। ‘
अप्सरसा गन्धर्वाणां मुगाणां चरणे चरन्।
केशी केतस्य विद्वान्सखा स्वादुर्मदिन्तम:।।
‘ ‘वायुरस्मा उपार-थत् पिनाष्टि स्मा कुनन्तमा।
केशी विषस्य पात्रेण यदुद्रेणापिबत्सह।।’ ‘
 
त्रग्वेद, 1०,136,1 -7 पृष्ठ 761 -762 रविषेणाचार्यकृत पद्यपुराण में ऋषभदेव की जटाओं का उल्लेख आया है’ ‘ तथा जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण में भी ऋषभदेव को लम्बी जटाओं को धारण करने वाला कहा गया है ।’ 2 उपलब्ध कषभदेव की मूर्तियों के सिर पर घुंघराले बालों का चित्रण भी ऋषभदेव का केशी होना सिद्ध करता है । कग्वेद का हिरण्यगर्भ सूक्त में हिरण्यगर्भ और प्रजापति की जो स्तुति की गई है, वह भी कषभदेवपरक हो सकती है । ‘ पं यह पूर्व में ही कहा जा चुका है कि ऋषभदेव को जैन परम्परा में हिरण्यगर्भ एवं प्रजापति भी कहा गया है । इस प्रसंग में एक मन्त्र द्रष्टव्य है-

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।

स दाधार पृथिवीं यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विसम।।

ऋग्वेद, 1०7121,1 हिरण्यगर्भ सबसे पहले उत्पन्न हुआ था । वह जन्म से ही उत्पन्न हुए प्राणियों का अकेला स्वामी था । उसने पृथिवी, आकाश एवं सबको धारण किया था । हम किसी (प्रजापति) देवता की हवि से पूजन करें । इस सूक्त के अन्य सभी मन्त्र भी ऋषभदेवपरक अनूदित हो सकते हैं । ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में अल्प?? एवं व्रात्यों का उल्लेख आया है । अनेक विद्वानों की अवधारणा है कि ये उल्लेख निर्गश्व संस्कृतिपरक हैं । मनुस्मृति में लिच्छवी, नाथ एवं मल्लों को व्रात्य कहा गया है । ‘4 ये सभी जातियाँ जैनधर्मानुयायी रही हैं । वैदिक परम्परा में व्रात्य का अर्थ व्रतहीन कर दिया गया,जबकि इसका अर्थ व्रत में स्थित हैं । अनेक उपनिषदों में व्रात्यों की प्रशंसा भी की गई है । यथा ‘व्रात्यस्तव प्राणैक ऋषिरत्ता विश्वस्य सलति: ।’ प्रश्नोपनिषद्, 2,11 इसके भाष्य में शंकराचार्य ने व्रात्य का अर्थ ‘स्वभावत एव शुद्ध इत्यभिप्राय: ‘ लिखकर स्वाभाविक शुद्ध किया है । वास्तव में व्रात्य श्रमण साधु थे जो यज्ञीय संस्कृत वालों के कोपभाजन रहे हैं । श्ल ऋग्वेद के अतिरिक्त यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद में भी ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है । यजुर्वेद के एक सूक्त में ऋषभ का उल्लेख करते हुए कहा गया है- ‘वेदाहमेत पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस: पुरस्तात् । तमेव विदित्वादुति मृत्युमेति ना; पन्या विद्यते5दनाय।। ‘ यजुर्वेद अध्याय 31, मन्त्र 8 मैंने उस महापुरूष को जान लिया है, जो सूर्य की भाँति तेजस्वी है और अज्ञानादि रूप अन्धकार से दूर है । उसे जानकर ही मृत्यु से पार हुआ जा सकता है । मुक्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है । मानतुंगाचार्य ने भी भक्तामरस्तोत्र में यही भाव प्रकट किया है-
 
‘त्वामामनन्ति मुनयः परमं मुमांस आदित्यवर्णममल तमस: पुरस्तात्।
त्यामेव सम्बगुपलम्ब जयन्ति मृत्यु नान्यः शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्या:।।’
 
भक्तामरस्तोत्र, पद्य 23 सामवेद में ऋषभदेव का उल्लेख द्रष्टव्य है- ‘
 
अप्पा यदि में पवमानरोदसी, इमा च विश्वा भुवनानि मन्मना। यूथेन निष्टा वृषभो विराजसि।।’
 
सामवेद, तृतीय अध्याय, खण्ड प्रथम, मन्त्र 11 अथर्ववेद में वृषभ को बल प्रदान करने वाले के रूप में स्तुति की गई है-

अहो मुच वृषभ यबियाना विराजन्तं प्रथममध्वरणाम्।

अपां नपातभाश्विना हुवे धिय इन्द्रियेण तं दलमोज:।।’

‘ अथर्ववेद, 1974272 ऋषभ सम्पूर्ण पापों से रहित और अहिंसक प्राणियों के प्रथम राजा हैं । मैं उनका उघहान करता हूँ । वे मुझे बुद्धि एवं इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें । ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋषभदेव ताण्ड्य ब्राह्मण उगैर शतपथ ब्राह्मण में ऋषभ का उल्लेख मिलता है- ऋषभो वा पशूनामधिपति । ताण्ड्य ब्राह्मण, 14/2/5 ऋषभो वा पशूनौ प्रजापति । शतपथ ब्राह्मण, 5/25/17 पशु का अर्थ वैदिक परम्परा में श्री, यश, शान्ति, धन एवं आत्मा किया गया है । ऋषभ भी पशुपति कहे गये हैं । इस आधार पर कुछ विद्वान् शिव एवं ऋषभदेव के ऐक्य की भी संभावना करते हैं । हिन्दू पुराणों में ऋषभदेव भागवतपुराण, मार्कण्डेयपुराण, कूर्मपुराण, अग्निपुराण, वाअराण, व्रह्माण्डपुराण, वाराहपुराण, लिश्पुराण, विष्णुपुराण, स्कन्धपुराण आदि में ऋषभदेव का विस्तार से वर्णन हुआ है । यद्यपि यह वर्णन अनेक बातों में जैन परम्परा से मेल नहीं खाता है, तथापि इससे ऋषभदेव की सार्वभौमिकता एवं महत्ता की असैयिछ रूप से सिद्धि होती है । श्रीमद् भागवतपुराण के प्रथम स्कन्ध के तृतीय अध्याय मैं अवतारों का कथन करते हुए कहा गया है कि राजा नाभि की पत्नी मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान् ने आठवीं अवतार ग्रहण किया । उन्हौंने परमहंसों के लिए वह मार्ग दिखाया जो सभी आश्रमवासियों के लिए वन्दनीय है । द्वामित्‌यागवत का पन्चम स्कन्ध तो पूरा का पूरा कृषभावतार पर ही आश्रित है । श्री कर्मानन्द स्वामी जी जो आर्यसमाजी रहें हैं, ने ‘ धर्म का आदिप्रवर्तक’ नामक पुस्तक में अनेक पुराणों से कषभदेव विषश्:त्ह प्रमुख अंशों को उद्‌धृत किया है, उन्हें यहाँ साभार दिया जा रहा है । इनके अनुशीलन से ऋषभदेव की ऐतिहासिकता तो सिद्ध होती ही है, उनकी आद्य धर्म प्रस्थापक के रूप में स्थिति का भी ज्ञान होता है । इससे यह भी पता चलता है कि ऋषयपुत्र भुरत के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ ।

मार्कडेयपुराण

अग्नीधसूनोर्नाभेस्तु ऋषभो5भूत् सुतो द्विज:।

ए कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताद् दर:।।

हँ सोपुभित्रिव्यर्षभ: पुत्र महाप्राव्राज्यमास्थित:।

तपस्तेपे महाभाग: पुलहाश्रमसंशय:।।  

हिमाइर्व दक्षिण वषं भरताय पिता ददौ।

५-७५ तस्मालु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मन:।।

अध्याय 4०, श्लोक -39-41 कूर्मपुराण

हिमाइव तु यद्‌वर्ष नाभरासीद् महात्मन:।

तस्यर्षभोदुभवसुत्रो मरुदेम्मा महायुति:।।

कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।

सो5भिषिव्यर्षम: पुत्र भरत पृथिवीपति:।।

अध्याय 41, श्लोक 37-38 अग्निपुराण’

जरामृत्युभयं नास्ति धर्माधमी : युगार्दिकम्।

इन् नाधम मध्यमं तुल्या हिमादेशालु नापित:।।

ऋषभो मरुदेव्यां च ऋषभाद्‌मरतो5भवत्।

ऋषभोदालश्रीपुत्रे शात्यग्रामे हरि गत:।।

भरताद भारतं वर्ष भरतासुपतिस्त्रभूत्।

अध्याय 1०, श्लोक 1 ०- 12 वायुपुराण

नाभिस्वजनयसुत्रं मरुदेव्या महायुति:।

ऋषभ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजन्  कचभार भरतो जझे वीर:

पुत्रशताग्रज: सोषभइषिव्याथ भरतं पुत्र प्रावाव्यमास्थित:।।

हिमाह दक्षिण वर्ष भरताय न्यवेदयत् । तस्माद् भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।।

पूर्वार्द्ध अध्याय 33, श्लोक 4०-42 बगण्डपुराण

नाभिरत्वजनयसुत्रं मरुदेव्या महायुतिम्।।

ऋषभ पार्थिवं श्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्।

कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।।

सोउभिषिव्यर्षभ: पुत्र महाप्राव्राव्यमास्थित:।

हिमाहूवं दक्षिण वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।।

पूर्वार्द्ध, अनुषश्:पाद, अध्याय 14, श्लोक 59-61 वाराहपुराण

नाभिर्मरुदेव्यां त्र्र पुत्रमजनयत् ऋषभनामान तस्य भरत:

पुत्रश्च हुद्ब तावदग्रज: तस्य भरतस्य पिता ऋषभ:

हिमाद्रेर्दक्षिण वर्ष महद् भारतं नाम शशास ।

लिश्पुराण

नाभेर्निसर्ग वक्ष्यामि हिमाकेऽस्मिन्निबोधत।

नाभिस्त्रजनयगुत्रं मरुदेव्यां महामति:।।

ऋषभ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूजितम् ।

कचभार भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशताग्रज:।।

सो5भिषिव्याथ ऋषभो भरत पुत्रवत्सल: ।

ज्ञानं वैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रियमहोरगान्।।

सर्वात्मनात्मन्यास्थाप्य परम।।

नग्नो जटो निराहारीष्चीरी ध्यान्तगतो हि स:।।

निराशत्यक्तसंदेह: शैवमाप परं पदम् ।

हिमादेर्दाक्षिण वर्ष भरताय न्यवेदयत्।।

तलाल भारतं वषं तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः ।

अध्याय 47, श्लोक 19-24 विष्णुपुराण

न ते स्वस्ति युगान्वस्या क्षेत्रेष्यष्टसु सर्वदा।

हिमाहवं तु वै वर्ष नाभेरासीन्महात्मन:।।

तस्वर्थभो5भवसुत्रों मरुदेव्यां महायुति:।

ऋषभाद् भरतो जज्ञे ज्येष्ठ: पुत्रशतस्य स:।।

द्वितीयांश, अध्याय ‘ 1, श्लोक 2 7- 28 क्कथपुराण

नाभे: पुत्रश्च ऋषभ: कचभार भरतो5भवत्।

तस्य नामना स्विदं वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते । ।

माहेश्वर खण्डान्तर्गत कौमारखण्ड अध्याय 37, श्लोक 57 अन्य साहित्य में ऋषभदेव महाभारत में शिव के नामों का कथन करते हुए ऋषभ को शिव कहा गया ‘ऋषभ त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कल: शिव: । हे ऋषभ! तुम पवित्र योगियों में निष्कलंक शिव हो । भर्तृहरि ने शृंगारशतक, नीतिशतक एवं वैराग्यशतक नामक तीन शतक लिखे हैं । वे जैनेतर सन्यासी थे तथा उनके भाई शुभचन्द्र जैन साधु थे । भर्तृहरि ने अन्त मैं लिखित वैराग्यशतक में भावना भाते हुए शिव शम्भु से पाणिपात्र, दिगम्बर साधु बनने की कामना की है-

‘एकाकी निषहः शान्त: पाणिपात्रों दिगम्बर:

कदा शम्मो! भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षम:।।’

वैराग्यशतक, पद्य 89 यहाँ शम्भो! संबोधन ऋषभदेव के लिए ही प्रतीत होता? है -४: अथवा शिव एवं ऋषभ की एकता का परिचायक है । आर्यमंजुश्रीमूलकल्प नामक बौद्ध ग्रंथ में भारत के आदिकालीन राजाओं का वर्णन करते हुए नाभिपुत्र ऋषभ और उनके पुत्र भरत का उल्लेख किया गया है-

प्रजाएतेः सुतो नाभि: नाभिनो ऋषभपुत्रो वे सिद्धकर्म इददत:।।

तस्यापि मणिकरोयक्ष: सिद्धो हैमवते गिरी।

ऋषभस्य भरत: पुत्र: सो5पि जपेत्।।

‘ 6 सुप्रसिद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति ने अपने ग्रन्थ न्यायविन्दु में सर्वज्ञ के उदाहरण में भगवान् ऋषभदेव और महावीर का उल्लेख किया है । उन्हें दिगम्बरों का अनुशास्ता कहा गया है

‘सर्वज्ञ: आप्तो वा सुज्जयोतिज्ञानादिकमुपदिष्टवान् टूटे-? यथा वृषभवर्धमानादिरिति ।’

‘ऋषभो वर्धमानश्च तावादी यस्य स ऋषभवर्धमानादि: दिगम्बराणा शास्ता सर्वज्ञ आप्तश्च।।

‘ 17 उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनेतर संस्कृत साहित्य में ऋषभदेव का प्रचुर उल्लेख हुआ है । ऐसा कहा जाता है कि

अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्कलं भवेत्।

श्री आदिनाथस्य देवस्य स्परणेनापि तद्‌भवेत्।।

सन्दर्भ :

1. आदिपुराण, 14,16०-162 1. 1 ‘तस्य ह वा इत्थं वर्ध्यणा वरीयसा चीजसा बलेन श्रिया यशसा वीर्यशोभाभ्यां च पिता ऋषभ इतीदं नाम चकार औ- श्रीमद्‌भागवत पुराण वही, 147163 हरिवंशपुराण, 87211 वही, ८२५०….. आवश्यकफूइर्ण पृष्ठ 152 हरिवंशपुराण 87206-209 ऋग्वेद मण्डल 3, सूक्त 38 मन्त्र 5 (परोपकारिणी सभा अजमेर विस. 2०10 पृष्ठ 213) 22 अनेकान्त 62-1 8. वही, 475873 पृष्ठ 277 9. आदिपुराण, 2572०4 1०. ककर्दवे वृषभो युक्त आसीदवादचीस्सारथिरस्व केशी । दुधर्युक्तस्य द्रवत: सहानस कच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्‌गलार्नाम् ।  र ऋग्वेद, १०१०२६ पृष्ठ 736 11 पद्‌मपुराण 3288 12. हरिवंशपुराण, 972०4 -३ न कु 13. ऋग्वेद, 1०7121 ?ँ खुँ 14. मनुस्मृति 1०722-23 15. महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 14, श्लोक 18 16. आर्यमंजुश्रीमूलकल्प, पृष्ठ 39०-391 17. न्यायबिन्दु, अध्याय तृतीय 18. यह श्लोक कहीं महाभारत के नाम से, कहीं मनुस्मृति के नाम से उद्‌धृत मिलता है, किन्तु महाभारत एवं मनुस्मृति के किसी भी उपलब्ध संस्करण में यह श्लोक प्राप्त नहीं है । रू– -हू -यु ह टू— दून्क्कु १_@६ एक टू रु -के-, उपाचार्य एवं अध्यक्ष-संस्कृत विभाग ऊ- हू दूच्च एस. डी. कालेज, मुजफरनगर (उप्र.) 1. पाठकों से अनुरोध है कि आपको अनेकान्त पत्रिका में छपे लेख कैसे लगे अपने सुझाव और टिप्पणी से अवगत करावे ताकि हम उसे पाठकीय प्रतिक्रिया के अन्तर्गत प्रकाशित कर ?? सके । –हैं-

2. पाठकों से यह भी निवेदन है कि अपना पूरा पता फोन 7 मोबाइल नं. एवं ईमेल आदि भेजे ताकि हम आपको वीर सेवा मन्दिर के द्वारा संचालित गतिविधियों एवं अनेकान्त पत्रिका ईमेल से भेज सके ।

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