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जैन परम्परा का श्रावकाचार : आधुनिक संदर्भ में!

July 20, 2017शोध आलेखjambudweep

जैन परम्परा का श्रावकाचार : आधुनिक संदर्भ में


जीव या आत्मा को जड़ या अचेतन से भिन्न एक स्वतंत्र पदार्थ स्वीकार करके उसके सर्वश्रेष्ठ स्वरूप की खोज के रूप में मुक्ति या मोक्ष की अवधारणा भारतीय िंचतन का अद्वितीय अवदान है। जैन परंपरा में मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति के लिए संन्यस्त एवं गृहस्थ की स्वतंत्र आचार संहिता का विधान व विकास हुआ है और आचार की परिपूर्णता के लिए वस्तु तत्त्व के प्रति सम्यग्दृष्टि और उसका परिज्ञान अपरिहार्य माना गया है। इन दोनों के बिना चारित्र का पालन भी सम्यक् नहीं हो सकता। यह चारित्र चाहे संन्यस्त श्रमण का हो अथवा गृहस्थ श्रावक का, दोनों के लिए सद्दृष्टि एवं शुद्ध ज्ञान अनिवार्य माने गये हैं। श्रमण या मुनि जहाँ मूलगुणों व उत्तरगुणों के आधार पर अपनी मोक्ष साधना के सोपान तय करता है, वहीं गृहस्थ श्रावक अहिंसादि बारहव्रतों, दर्शनादि ग्यारह प्रतिमाओं अथवा अष्टमूलगुणों या षडावश्यकों आदि के द्वारा अपनी मुनि या आर्यिका बनने की साधना पूर्ण करता है और अन्त में दोनों, सल्लेखना व्रत को धारण कर अपने शरीर का अन्त करते हैं। जैन परम्परा में चर्तुिवध संघ की स्थापना अिंहसा की प्रतिष्ठा एवं समभाव की साधना के लिए की गई है। जिस प्रकार वैदिक परंपरा में चातुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) व्यवस्था के द्वारा सामाजिक जीवन का विधान किया गया है, उसी प्रकार जैन परंपरा में चर्तुिवध संघ (मुनि आर्यिका अथवा साधु—साध्वी और श्रावक—श्राविका) व्यवस्था का प्रतिपादन है। इस समाज व्यवस्था का आधार भी पाश्विक वृत्तियों के नियंत्रण की दृष्टि से स्वतंत्र महत्त्व रखता है। इस प्रकार जैन परंपरा में चर्तुिवध संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ये चार ऐसे घटक तत्त्व हैं, जिनके ऊपर जिनधर्म या जैन परंपरा का महाप्रासाद आधारित है।
 
शास्त्रों में इन्हें श्रमण—श्रमणोपासक, अनगार—सागार, संन्यस्त—गृहस्थ, व्रती—अव्रती आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है। इन सभी नामों की अपनी स्वतंत्र महत्ता एवं उपयोगिता है। जिस प्रकार किसी मकान या महल के चार खम्भों में से किसी एक खम्भे के कमजोर या असंतुलित हो जाने पर संपूर्ण मकान या महल का संतुलन बिगड़ जाता है, उसी प्रकार यदि चर्तुिवध संघ में से कोई एक अंग अस्वस्थ होता है तो समस्त ढांचा प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अतएव जैनधर्म में प्रत्येक घटक का अपना स्वतंत्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज के भोगप्रधान, उत्सव एवं प्रदर्शन प्रिय भौतिकवादी युग में श्रावक—श्राविका के आचार की चर्चा समय की मांग है और समय की यह भी अपेक्षा है कि परंपरा प्राप्त शास्त्रों में र्विणत श्रावकाचार विषयक विधानों / निर्देशों की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करके उनकी उपयोगिता एवं महत्ता स्पष्ट की जाये। आचार या चारित्र का अर्थ है आचरण। गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जाने वाला आचरण या व्यवहार श्रावकाचार कहलाता है। इस प्रकार व्यक्ति का सोचना, बोलना और करना, उसका आचार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के द्वारा मन, वचन और शरीर का उचित—अनुचित, शुभ—अशुभ प्रयोग ही मनुष्य को स्वयं सुखी—दु:खी करता है और दूसरों को सुखी—दु:खी करता है। वस्तुत: विश्व में दो विचारधाराएँ प्राय: प्रारंभ से प्रचलित रही हैं और आज भी प्रचलित हैं। एक है भौतिक, भोगवादी या प्रवृत्तिपरक धारा और दूसरी धारा है त्यागपरक, आध्यात्मिक अथवा निवृत्तिपरक। पहली भौतिकधारा भोगप्रधान है, इसका लक्ष्य या प्रयोजन असीम और अनन्त भोग हैं। दर्शन की भाषा में इसे चार्वाकी धारा कहा जा सकता है। उसका उद्घोष है—खाओं, पीओ और मौज करो। इस धारा का आदर्श है—

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।

चार्वाकमत के रूप में प्रसिद्ध कथन।

प्राय: संपूर्ण विश्व इस विचारधारा से ग्रस्त है। दूसरी धारा त्यागमयी या निवृत्तिपरक है। इस धारा का उद्देश्य अनन्त एवं असीम भोगों को भोगना और भोगने की इच्छा नहीं, अपितु उन अनन्त एवं असीम भोगों को त्यागना और परिमाण में भोगना है। इस निवृत्तिपरक धारा का प्रतिनिधित्व निग्र्रंथ या जैन परम्परा करती है। निग्र्रंथ परंपरा में मान्य गृहस्थ श्रावक उक्त दोनों परंपराओं के बीच की स्थिति में होता है। यह श्रावक भोगों का पूर्णत: त्यागी न होकर उनकी मर्यादाएँ तय करता है, परिमाण निश्चित करता है। इन्हीं भावनाओं के अन्तर्गत उसके अहिसादि बारह व्रत, अष्टमूलगुण, षडावश्यक आदि आते हैं। श्रावक या श्राविका शब्द का सामान्य अर्थ है सुनने वाला या सुनने वाली। वह आचार्य आदि परमेष्ठी गुरुओं से र्धािमक उपदेश को सुनता या सुनती है। तीर्थंकर रूप परमगुरु की समवशरण सभा में भी यही गृहस्थ मनुष्य धर्मोपदेश का श्रोता होता है। इसीलिए श्रावक की परिभाषा करते हुए कहा गया है—शृणोति गुर्वादिभ्यों धर्ममिति श्रावक:।श्रावकाचार : दिशा और दृष्टि, अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ट्रस्ट, जयपुर सन् २००३, पृष्ठ २३ पर उद्धृत। इस प्रकार श्रावक शब्द का अर्थ सामान्य गृहस्थ से उत्कृष्ट और अर्थगंभीर वाला है। अन्यत्र भी श्रावक की यही परिभाषा की गई है—

शृणोति धर्मतत्त्वं य: परान् श्रावयति श्रुतम्।

श्रद्धावान् जैनधर्मे स: सत्क्रियश्रावको बुध:।।

संयमप्रकाश, श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, पृ. २४ पर उद्धृत।

अर्थात् जो व्यक्ति धर्मतत्त्व को सुनता है और सुने हुए धर्मतत्त्व को दूसरों को सुनाता है तथा जिनधर्म या जैनधर्म में आस्था रखने वाला हे, वह सद्क्रियाओं से युक्त समझदार श्रावक कहलाता है। श्रावं श्रावं करोतीति श्रावक:वही, पृष्ठ २४ पर उद्धृत। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो बार—बार सुनता है, वह भी श्रावक कहलाता है। जैन परंपरा में श्रावक—श्राविकाओं के आचार संबद्ध अनेक परंपराओं या पद्धतियों का विकास हुआ है। इस सब विषय को देखकर पता चलता है कि विवक्षा भेद से अथवा उस समय को सामाजिक परिस्थितियों के कारण जैन आचार्यों एवं लेखकों की विवेचन पद्धति में कुछ अन्तर पाया जाता है। अिंहसादि पाँच अणुव्रत, दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत और सामायिकादि चार शिक्षाव्रत, इन बारह व्रतों का आचरण और मरणान्त में सल्लेखना, यह एक पद्धति है।तत्त्वार्थसूत्र और उनके टीकाकार आदि। दूसरी पद्धति के अनुसार श्रावक के अष्ट मूलगुण हैं। इन आठ मूलगुणों के विषय में भी आचार्यों में मतभेद पाया जाता है। समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में गृहस्थ के आठ मूलगुण बताए हैं। इन आठ मूलगुणों के अन्तर्गत अहिसादि पांच अणुव्रतों का पालन एवं मद्य, मांस और मधु (शहद) इन तीन मकारों का त्याग आता है। वे कहते हैं—

मद्य—मांस मधुत्यागै: सहाणुव्रतपञ्चकम्।

अष्टौ मूलगुणानाहूग्र्रहिणां श्रमणोत्तमा:।।.

रत्नकरण्डश्रावकाचार, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् सन् १९९४, श्लोक ६६

आर्चा जयसेन ने अष्टमूलगुणों में पाँच अणुव्रतों के साथ मद्य एवं मांस को स्वीकार करते हुए मधु के स्थान पर द्यूत (जुआ) के त्याग का उपदेश दिया है। कुछ आचार्यों ने (शिवकोटि, जयसेन, अमृतचन्द्र, सोमदेव, रइधू आदि ने) पाँच उदम्बर (बड़, पीपल, गूलर, कठूमर, ऊमर) फलों के त्याग के साथ मद्य, मांस एवं मधु के त्याग को श्रावक के अष्ट मूलगुण बताया है। पं. आशाधार ने तो मद्य, मांस, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पाँच उदम्बर एवं बहुजीवी फल त्याग, नियमित देवदर्शन, जीवदया एवं जलगालन, ये आठ मूलगुण गिनाए हैं।श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि,पृ. ८—९।, पण्डितप्रवर आशाधर ने श्रावक या श्राविका धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि दोष रहित सम्यक्त्व, अतिचार (दोष) रहित अहिसादि पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों (दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत) और चार शिक्षाव्रतों (सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाणव्रत) तथा मरते समय विधिपूर्वक सल्लेखना व्रत ग्रहण, यह सब सागार या श्रावक धर्म कहलाता है—

सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते।

सल्लेखना च विधिना पूर्णसागारधर्मोयम्।।

सागारधर्मामृत, श्रावकाचार: दिशा और दृष्टि, पृ. १५१ पर उद्धृत।

श्रद्धा, विवेक और शुद्ध आचरण पूर्वक उपर्युक्त व्रतों (नियमों) का पालन करना तथा अहिंसादि महाव्रतों आदि को धारण करने की भावना (वह घड़ी कब पाऊँ मुनिव्रत धर वन को जाऊँ) भाते रहना और उसके अनुसार प्रयत्नशील रहना, श्रावकाचार है। इस प्रकार श्रावकाचार मुनि योग्य महाव्रतों को धारण करने का आधार है। यहाँ पर अनर्थदण्डव्रत नामक गुणव्रत एवं अतिथिसंविभाग नामक शिक्षाव्रत के विशेष संदर्भ में श्रावकाचार की चर्चा की जा रही है। 

अनर्थदण्डविरति

श्रावक के बारह व्रतों के अन्तर्गत तीन गुणव्रत हैं। ये गुणव्रत इसलिए कहलाते हैं कि इनके द्वारा पाँच अणुव्रतों में गुणात्मक वृद्धि होती है। इन तीन में भी अनर्थदण्ड एक ऐसा पापात्मक प्रबल कारण है, जिसके त्याग को शास्त्रकारों ने बारह व्रतों का मूल तक कह दिया है। बात यह है कि हमारे दैनन्दिन कार्यों में अधिकतम प्रवृत्तियाँ निष्प्रयोजनीय होती हैं। यदि श्रावक या श्राविका एक मात्र इसी व्रत का दोष रहित पालन करे तो बहुत से पापास्रवों से बचा जा सकता है। दिशाओं की मर्यादा पूर्वक, बिना प्रयोजन पापबन्ध के कारणभूत कार्यों से विरक्त होना अनर्थदण्डविरति कहलाता है।रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ७४ अनर्थदण्ड पापास्रव का एक ऐसा कारण है, जिससे व्यक्ति बिना किसी मतलब के पाप कार्य करता है, इससे अपना प्रयोजन तो सिद्ध होता नहीं है, केवल पाप का बन्ध होता है। अनर्थदण्डविरति में निष्प्रयोजनभूत पाप कार्यों का त्याग किया जाता है।
 
अनर्थदण्ड पाँच कारणों से होता है,  इसलिए अनर्थदण्ड के पाँच प्रकार माने गये हैं—(१) पापोपदेश, (२) हिसादान, (३) अपध्यान, (४) दु:श्रुति और (५) प्रमादचर्या।वही, श्लोक ७५ आचार्य अमृतचन्द में द्यूतक्रीड़ा (जुआ) को छठा अनर्थदण्ड घोषित किया है।पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अनेकान्तविद्वत् परिषद् पद्य १४१—१४७। 

१. पापोपदेश अनर्थदण्ड

बिना प्रयोजन दूसरों को पाप का उपदेश अर्थात् परामर्शादि देना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार बिना कारण किसी पुरुष को आजीविका के साधन विद्या, वाणिज्य (व्यापार), लेखन—कला, खेती, नौकरी और शिल्प आदि अनेक प्रकार के कार्यों एवं उपायों का उपदेश देना, यह सब अनर्थदण्ड (बेकार की हिसा) के अन्तर्गत आता है। वे कहते हैं—

विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्।

पापोपदेशदान कदाचिदपि नैव वक्तव्यम्।।

वही, पद्य १४२

अत: गृहस्थ श्रावकों को इस तरह के उपदेश—सलाह आदि का त्याग कर देना चाहिए। कुछ शास्त्रकारों का तो यह भी कहना है कि हिसा, झूठ, खेती—व्यापार एवं स्त्री—पुरुष समागम आदि से संबद्ध समस्त उपदेश आदि वचन व्यापार पापोपदेश के अन्तर्गत हैं—

जो उवएसो दिज्जदि किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु।

पुरसित्थीसंजोए अणत्थदण्डो हवे विदिओ।।

र्काितकेयानुप्रेक्षा, राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, सन् २००५ पद्य ३४५ एवं टीका।

एक समय था जब व्यापार—उद्योग आदि का निर्णय करते समय यह विशेष ध्यान रखा जाता था कि अमुक व्यापार या उद्योगादि मेंहिंसा तो नहीं होगी परन्तु आज कितने लोग हैं जो इन सब बातों पर विचार करके व्यापारादि कार्य करते हैं। 

२. हिंसादान अनर्थदण्ड

बिना प्रयोजनहिंसाजनक उपकरणों का दान, जिनसेहिंसा हो सकती हो,हिंसादान अनर्थदण्ड कहा जाता है। अस्त्र, शस्त्र, कीटनाशक, विषैली गैस, फरसा, तलवार, धनुष, कुदाल, हल, करवाल, सांकल, काटा, विष, रस्सी, चाबुक, दण्ड, अग्नि आदिहिंसा के उपकरणों का दानहिंसादान कहलाता है।रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ७७ स्वामी र्काितकेय ने तो बिल्ली, कुत्ता आदि िंहसक जानवरों को पालने में हिंसादान नामक अनर्थदण्ड बताया है।र्काितकेयानुप्रेक्षा, पद्य ३४७ एवं टीका। आजकल यह देखने में आता है कि तथाकथित आधुनिकता अथवा बच्चों के कहने पर या स्वयं ही अपनी इच्छा से कुछ घरों में कुत्ते–बिल्लियाँ आदि पाले जाते हैं। उन्हें इस विषय में अवश्य विचार करना चाहिए। 

३. अपध्यान अनर्थदण्ड

अपने व दूसरों के बारें में बुरा सोचना—विचारना अपध्यान कहलाता है। दूसरों की हार, जीत, मारना, बांधना, अंग छेदना, धन का चुराना आदि कार्य कैसे किये जायें, यह एवं इसी प्रकार का अशुभ चिंतन करना, अपध्यान की श्रेणी में आता है। इन सब का फल पाप बंध ही होता है। इस तरह के कार्यों में कितने गृहस्थ श्रावक अपने समय व शक्ति का अपव्यय करते हैं, इस पर सबको विचार करने की जरूरत है। 

४. दु:श्रुति अनर्थदण्ड

दु:श्रुति को अशुभश्रुति भी कहते हैं।हिंसा, राग—द्वेष, मिथ्यात्व, परिग्रह, आरंभ, दु:साहस, कामवासना, गर्व आदि को बढ़ाने वाली दूषित कथाओं को पढ़ना, सुनना , उनकी शिक्षा देना आदि कार्य दु:श्रुति के अन्तर्गत आता है। गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग कथा, परदोषों की चर्चा सुनना भी दु:श्रुति कही जाती है। आजकल दूरदर्शन (टी. वी.) के विभिन्न चैनल्स पर जो फिल्म, धारावाहिक और अन्यान्य कार्यक्रम दिखाये जाते हैं वे सभी इस दु:श्रुति के अन्तर्गत आते हैं। कारण यह है इन कार्यक्रमों को देख सुनकर हृदय राग—द्वेषादि से कलुषित हो जाता है, इसलिए इन्हें सुनने के कारण इन्हें दु:श्रुति या अशुभश्रुति कहते हैं। यद्यपि इन कार्यक्रमों में कुछ एक कार्यक्रम ऐसे भी होते हैं जो घर परिवार व समाज के लिए उपयोगी व शिक्षा प्रदान करते हैं, परन्तु ऐसे कार्यक्रमों की संख्या नगण्य होती है। अत: इस संबंध में भी गृहस्थ को चितन करना चाहिए। 

५. प्रमादचर्या :

 बिना प्रयोजन वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना या खोदना, पानी का सींचना, अग्नि आरंभ, वायु आरंभ आदि पाप कार्य प्रमादाचरित या प्रमादचर्या कहलाते हैं।वही, श्लोक ८० 

अतिथिसंविभाग व्रत—

चार शिक्षाव्रतों में अतिथिसंविभाग एक ऐसा व्रत है, जिसका संबंध स्व—पर से अधिक होता है। भोजन करने के पहले साधु—संतों के लिए द्वार पर प्रेक्षण (देखा) किया जाता है। गृहस्थ श्रावक अतिथिसंविभाग व्रत के पालन हेतु व्रती आदि को भक्तिपूर्वक आहारादि कराता है। अतिथिसंविभाग का सरल सा अर्थ है—उचित मात्रा में अन्य लोगों को लाभ। इस तरह महाव्रती, व्रती अथवा अव्रती श्रावक, इन तीन प्रकार के पात्रों को स्वयं के लिए बनाए अथवा अपने परिवार के लिए तैयार किये गये पवित्र भोजनादि में से विभाग करके विधि पूर्वक दान देना, अतिथिसंविभाग कहलाता है।सर्वार्थसिद्धि ७.२१.७०३ मुनि या महाव्रती की रत्नत्रय साधना चलती रहे, इसके लिए उसका शरीर से स्वस्थ रहना परमावश्यक है। कहा भी गया है—शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्। शरीर की स्थिति बनाए रखने के लिए मूलभूत आवश्यकता भोजन है। अत: गृहस्थ श्रावक का परम कर्तव्य है कि महाव्रती आदि को भक्तिपूर्वक शुद्ध आहार दान दे। प्रश्न यह उठता है कि आज गृहस्थ के घर में इतना पवित्र, शुद्ध एवं सात्त्विक भोजन तैयार होता है ? जो किसी व्रती या महाव्रती को परोसा जा सके। आज तो संकट यह होता है कि चौका कौन लगाये ? और संयोग से महाव्रतियों का संघ आ जाये तो स्थिति और विषम हो जाती है। इसका कारण शायद यही है कि बहुराष्ट्र्रीय कम्पनियों ने गृहस्थों की रसोई में धावा बोल रखा है। डिब्बा बन्द संस्कृति हमारे घरों में प्रवेश कर गई हैं। माताएँ बहिनें इतनी सुखशील होती जा रही हैं या कहें कि तथाकथित आधुनिकता के कारण उन्हें घर के कार्य करते हुए अच्छा नहीं लगता या शर्म आती है। बाजार सामग्रियों से पटे पड़े हैं। बाजार जाओ और अपने—अपने पसंद का सामान बंद पैकिटों में घर ले आओ न समय की मर्यादा है, और न भक्ष्य—अभक्ष्य का विचार और न किसी अन्य बात की चिता। प्रीजर्वेटिब्स (रसायन विशेष) ने वस्तुओं की उम्र कई गुना बढ़ा दी है। यही रसायन जब वस्तुओं के माध्यम से हमारे शरीर में जाता है तो अनेक प्रकार के रोग भी पैदा करता है। वस्तुत: आज के समय में गृहस्थ की दोहरी भूमिका है। एक ओर वह महाव्रतियों का संरक्षक या पोषणकर्ता है दूसरी ओर वह स्वयं साधक है और मुनि संस्था का नियंत्रक पर्यवेक्षक भी। लेकिन शायद वह अपनी इस दोहरी भूमिका को निभा नहीं पा रहा है।
 
इसीलिए प्राय: यह एक आलोचना का विषय बना रहता है कि श्रमण संघ परिग्रही होता जा रहा है। यह बात किसी हद तक सही भी है। परन्तु हमें यह भी विचार करना है कि इस सबमें गृहस्थों की क्या भूमिका है ? इस विषय में एक—दो प्रसंग ध्यान देने योग्य हैं— एक बार कुछ लोगों ने आचार्य शान्तिसागर के पास जाकर शिकायत करते हुए कहा कि महाराज ! कुछ साधुओं में आचार के प्रति शिथिलता देखी जाती है, परिग्रह का साथ देखा जाता है, इससे जैन परंपरा के साधुओं, विशेषकर दिगम्बर साधुओं की छवि खराब होती है। इससे बचने का उपाय बताइये। तब आचार्य श्री ने कहा था—साधु—साध्वियों को परिग्रह देता कौन है ? उन्हें शिथिल बनाता कौन है ? आप गृहस्थ ही न। इसलिए पहले गृहस्थ को सुधारना आवश्यक है। श्रावक अपने श्रावक धर्म अर्थात् कत्र्तव्य को समझे/जाने। श्रावकों में शिक्षा व स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ने से ही वे अपने साधु—संतों के धर्म (कत्र्तव्य) को अच्छी तरह समझ सकेगे।।श्रावकाचार : दिशा और दृष्टि, पृष्ठ १६५ पर उद्धृत। आचार्य धर्मसागर महाराज ने भी किसी प्रसंग में कहा था कि जब मुनि या आर्यिका दीक्षा होती है तो दीक्षित व्यक्ति के पास पीछी कमण्डलु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। श्रावकों के पुन: संपर्क में आकर कुछ मुनि परिग्रह संबंधी दोष से युक्त हो जाते हैं। इससे समाज में उनकी आलोचना होती है। अत: समाज के लोगों को चाहिए कि वे साधक को परिग्रही न बनाएँ। वस्तुत: मुनि—आर्यिका और श्रावक—श्राविका, परस्पर में एक दूसरे के पूरक हैं, शोभा के कारण हैं। जिस प्रकार कमल से जल की शोभा होती है और जल से ही कमल अलंकृत होता है, लेकिन सरोवर या तालाब में जब जल और कमल, दोनों हों तो वह सुशोभित होता है और कंगन की शोभा उसमें मणि—मोतियों के लगे होने पर होती है और मणि मोती भी कंगन आदि में जड़े होने पर शोभा पाते हैं। परन्तु हाथ की शोभा तो मणि—मोती जड़े कंगन से ही होती है। जैसा कि किसी ने कहा है—

पयसा कमलं कमलेन पय: पयसा कमलेन विभाति सर:।

मणिना वलयं वलयेन मणि: मणिना वलयेन विभाति कर:।।

सुभाषित (अज्ञात)

उसी प्रकार श्रावक—श्राविकाओं से मुनि—आर्यिकाओं,साधु—साध्वियों की शोभा है, अस्तित्व है और मुनि—आर्यिकाओं अथवा साधु—साध्वियों से श्रावक—श्राविकाओं की शोभा है तथा मुनि आर्यिकाओं और श्रावक—श्राविकाओं से समाज, संघ व राष्ट्र की शोभा है, वशर्ते कि दोनों अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करें और अपने—अपने कत्र्तव्यों को समझें। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैनसंघ एवं संस्कृति में श्रावक की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जैन साहित्य में निर्देषित श्रावक की आचार संहिता आज के अर्थप्रधान भौतिकवादी युग में और अधिक प्रासंगिक हो गयी है। श्रावकाचार विषयक व्रतों/नियमों का पालन करने से व्यक्ति स्वयं सुख, शांति एवं संतोष का अनुभव तो करता ही है, उसके साथ रहने वाले और संपर्क में आने वाले जन भी उससे प्रभावित होते हैं तथा सुख, संतोष एवं शांति का अनुभव करते हैं। श्रावकाचार के पालन से व्यक्ति घर, समाज एवं देश का सभ्य, सुशील एवं अनुकरणीय नागरिक बन जाता है और अन्त में अपने व्यक्तिगत, सामाजिक, र्धािमक कत्र्तव्यों का आचरण करते हुए आत्म कल्याण कर सकता है। परन्तु आजकल जिस तरह परंपरागत मूल्य एवं मर्यादाएँ निरंतर टूट रहीं हैं, उससे लगता है कि यदि यही क्रम रहा तो जिनधर्म एवं संस्कृति का ह्रास व लोप भी हो सकता है, अत: सभी को सतर्क जागृत एवं संभलने की जरूरत है।  १६. सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् २००३, ७.२१.७०३ एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ७८। १७. रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ७९
डॉ. कमलेश कुमार जैन
उपाचार्य—राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) जयपुर परिसर, जयपुर (राजस्थान)
अनेकांत जनवरी—मार्च २०११ पे. नं. २९ से ३६
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