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जैन रसोई पद्धति की वैज्ञानिकता

July 6, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

जैन रसोई पद्धति की वैज्ञानिकता


जैन रसोई के मुख्य किरदार है — श्रावक एवं श्राविका।

जिनका मुख्य दायित्व अपने परिवार के अलावा श्रमण अर्थात साधुओं व त्यागियों के लिये उचित आहार उपलब्ध कराना है। जैनाचार में आहार पर गहराई से विचार हुआ। श्रावक के लिये व साधुओं के लिये कौन सा आहार उपयुक्त है इसकी विवेचना प्रत्येक ग्रंथ में हुई है। जैन चिंतन में भोजनशाला को एक प्रयोगशाला के रूप में वर्णित किया है। जिसके उपकरण व कर्मी सभी नियमों से बंधे है जिनका लक्ष्य ऐसे भोजन का निर्माण करना है जो स्वास्थयवर्धक हो, शुद्ध हो, शाकाहारी हो व मन व मस्तिष्क को चैतन्य रखने में सक्षम हो। वर्तमान युग में अनेक खाद्य सामग्री बाजार में उपलब्ध है। नये स्वादों ने चटोरों की भीड़ खड़ी कर दी है। अभक्ष्य वस्तुओं की एक लंबी लिस्ट हमारे सामने है। प्रत्येक रसोईघर बाजारवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले होटल बन गये हैं। फलत: परिवारों में बढ़ रहा है— बीमार एवं अद्र्धजीव समूह का प्रतिशत। मेडिकल साइंस ने फास्ट फूड, प्रिजर्वफूड, रात्रिभोजन, मांसाहार आदि के दुष्परिणामों को स्वीकार किया है। कई बीमारियों का कारण खाद्य आदतें हैं शोध व अनुसंधानों से सत्य साबित किया है। जबकि हमारे श्रमण चिंतकों ने जीवन की प्रयोगशाला में पहले ही समझ लिया था । इसलिये जैनागम में रसोई के लिये चार प्रमुख शर्तें निर्धारित हैं—
१. द्रव्य शुद्धि — खाना तैयार करने वाली सामग्री की शुद्धि , अन्न की शुद्धि, जल की शुद्धि, वनस्पति की शुद्धि ।
२. क्षेत्र शुद्धि — खाना बनाने के स्थान का शुद्धिकरण ।
३. काल शुद्धि — भोजन बनाने वाली सामग्री की समय मर्यादा एवं रात्रि में भोजन तैयार न करना काल शुद्धि कहलाता है।
४. मन शुद्धि — प्रसन्नता पूर्वक भोजन तैयार करना व खिलाना ये चारों प्रकार की शुद्धियां बनाने का उद्देश्य है, शुद्धता, प्रासुकता संतुलन व निरामीष भोजन। आज समय की कसौटी पर यह सिद्ध हो गया है कि रात्रि में भोजन न देने वाली माँ बड़ी भारी वैज्ञानिक होती है। छना पानी पीने वाला जैन समाज एक्वागार्ड के सिद्धांत से ५००० वर्ष पूर्व भी परिचित था। जैन रसोई के भेद विज्ञान को समझने के लिये हम प्रवेश करते हैं हमारे चौके में जिसकी डायरेक्टर है जैन विदुषी गृहणी। हमारी दैनिक क्रिया आरम्भ होती है पानी छानने की क्रिया से। । बासी पानी को एक मटके से दूसरे मटके में छानना, उसके बाद गलने को एक पात्र में धोना तथा जीवाणी को उचित स्थान पर पहुँचाना कितना सुक्ष्म विवेक है यह अहिंसा का जो शायद ही अन्य समाज में होता होगा। पानी छानकर पीना न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से स्वास्थ्य दृष्टि के अनुरूप है। वाशिंगटन के वल्र्ड वाच संस्थान ने साफ पानी को लंबी उम्र का कारण माना है। डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने एक बूंद जल में ३६४५० बैक्टीरिया को साबित किया है अत: पानी छानना जो कि जैन जीवनाचार का एक अंग है वही वैज्ञानिक भी है। जैन चौके की लगाम सूरज के हाथ में है। सूरज की पहली किरण जैन किचन पर दस्तक देती है। अंतिम किरण उसकी चटखनी लगा देती है। आज वैज्ञानिक व हमारा आयुर्वेद भी स्वीकार करता है रात्रि भोजन अहितकर है। सूरज की रोशनी में अनेक जीवाणु निकाल नहीं पाते किन्तु रात में वे सक्रिय हो जाते हैं जो भोजन के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वैज्ञानिक तर्व है कि जीवाणुओं की ऐसी प्रकृति है कि एक निश्चित तापमान पर तेजी से बढ़ते हैं। इसलिये किसी खाद्य सामग्री का कब तक उपयोग करना यह मर्यादित करना नितांत आवश्यक है। जैनागम में उदम्बर फल व जमीकंद को खाने योग्य नहीं माना गया है। आलू, प्याज में अधिक रूचि रखने वाली हमारी युवा पीढ़ी को यह जानकारी होनी चाहिए कि यदि हम जड़, तना तथा किसी कंद को भोज्य पदार्थ के रूप में लेते हैं तो उस जाति के सम्पूर्ण पौधे का नाश होता है। यही नहीं सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रचुर मात्रा में सूक्ष्मजीव उत्पत्ति इस भूमिगत वनस्पति में हो जाती है, इसका सेवन सूक्ष्म जीवों का घात है। जैन चौके में जीवाणुओं की उत्पत्ति, नियंत्रण के उपाय विज्ञान सम्मत है। वर्तमान में जहाँ हम कीटनाशी दवाईयों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जो कि स्वास्थ्य व पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है। हमारे बुजुर्ग खाद्य पदार्थ के संरक्षण के लिये जिन चीजों का इस्तेमाल करते थे यथा अनाज की सुरक्षा के लिए नीम की पत्ती, अरंडी का तेल, गुजरे जमानों की बात हो गई है जहाँ इन करिश्माई उत्पादों को हम भूलते जा रहे हैं वहाँ पाश्चात्य देशों में इनका भरपूर उपयोग प्रारंभ हो गया है। जैन भोजन पद्धति जीवन को तामसिकता से दूर रखकर शारीरिक व मानसिक रूप से संतुलित रखकर निर्बाधगति से जीवन को अपनी चरमावस्था तक पहुँचाता है। हमारे रसोईघर की वैज्ञानिकता तभी कारगर रह सकती है, जब भोजन ग्रहण करने वाले सभी सदस्यों की अवस्था इस पद्धति पर हो। सारे परिवार का सोच इसके साथ जुड़े तभी अपेक्षित सफलता मिलेगी। सुखद स्वस्थ जीवन शैली के लिये जैन भोजन विज्ञान आवश्यक है।
रेखा पतंगया
Tags: Shravak Sanskaar
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