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जैन वाङ्गमय में संगीत!

July 20, 2017शोध आलेखjambudweep

जैन वाङ्गमय में संगीत


संगीत एक ऐसी कला है, जो साधना के बल पर प्राप्त की जाती है । वस्तुत: संगीत- भक्त के हृदय की भक्ति को प्रगट करने का एक सफल माध्यम है । संगीत एक ईश्वरीय नियामत है । स्वर-साधना से एक संगीतज्ञ प्रभु की उपासना करता हुआ एक आध्यात्मिक पुरुष के समान पवित्र मन और हृदय वाला बन जाता है । प्राचार्य निहालचंद जैन ने अपनी एक कृति में संगीत को अपने मौलिक रूप से परिभाषित किया है ।”सौ बोधकथाएं” – प्राचार्य निहालंचद जैन, पृष्ठ-४३ उन्होंने लिखा कि संत शब्द के बीच में यदि ‘ गी ‘ जुड़ जाय तो संगीत बन जाता है, .अर्थात् संत जो गाता है, वह संगीत है । संगीत का उपयोग प्रारंभ में भगवान की भक्ति के लिए ही होता था । बाद में विविध भावाभिव्यक्ति के लिए इसे उपयोग में लाया जाने लगा । भगवान के प्रति सर्वतोभावेन आत्म समर्पण होने के त्निए इसका उपयोग किया जाता रहा है । ‘ तित्नोयपण्णत्ति’ नामक ग्रंथ में मध्यलोक के स्वरूप में आठवाँ द्वीप ‘ नन्दीश्वर-द्वीप ‘ बताया है, जहां के अकृत्रिम चैत्यालयों में देवादेविया जाकर, अपनी भक्ति को संगीत के मास्यम से करने का उल्लेख प्राप्त होता है । वहाँ ‘ मनुष्य’ नहीं जा सकते केवल सम्यग्दृष्टी देव वहां की वंदना करके अतिशय पुण्य अर्जित करते हैं। 

जैन मंदिरों में संगीत

जिनालयों, चैत्यालयों, उपासना गर्हों में संगीत का उपयोग जिनेन्द्र देव की पूजन, अर्चन एवं स्तवन के लिए सदा से होता रहा है । बड़े-बड़े स्तुतिकारों ने अपने स्तवन या स्तोत्रों में जिनदर्शन के समय संगीत के प्रसंगों को उद्धृत किया है । जैसे-

दृष्टं जिनेन्द्र भवनं सुर-सिद्ध-यक्ष-

गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा ।

संगीत मिश्रित-नमस्कृत- धीर नादै

रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालमू । ।

दृष्टाष्टक स्तोत्र- ४ । ।

जिसका भावार्थ है कि मैंने (भक्तों ने) जिनेन्ददेव के मंदिर के दर्शन किये, जहां देव, सिद्ध-यक्ष, गन्धर्व, किन्नर अपने हाथों में वांसुरी या वीणा आदि वाद्य लिए हुए, मधुर संगीत के साथ भगवान् को नमस्कार, उनकी वन्दना कर रहे थे और उनकी संगीत ध्वनि दिग्दिगन्त में व्याप्त हो रही थी । इसी स्तोत्र में आगे यह भी बताया है कि संगीत के साथ भक्तिनृत्य की भी परम्परा है – देखें ।

दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विलसीद्वलोल,

मालाकुलातिललितालक विभ्रमानमू ।

माधुर्यवाद्यलय नृत्य विलासिनीनामू,

लीलाचलद् वलय नुपूर नाद रम्यमू । ।

दृष्टाष्टक- ५ । ।

मैंने (भक्त ने) जिनेन्द्र भगवान का मंदिर देखा, जहाँ मनोहर वाद्य बज रहे हैं, और वाद्यों की लय पर, बालों में मालायें धारण करने वाली स्त्रियाँ भक्तिपूर्वक नृत्य कर रही हैं । उनके नृत्य के कारण, उनके वलय और नूपुरों की मधुर ध्वनि से जिनालय झंकृत हो रहा है । महापुराण में आचार्य जिनसेनस्वामी लिखते हैं

जैनालयेषु संगीत पटहाम्भोद निस्स्वैन: ।

यत्र नृत्यन्त्य कालेऽपि शिखिन: प्रोन्मदिण्णव । । (४ ?७ ७)

अर्थात्( जैन मंदिर में संगीत के समय जो तबले बजते हैं, उनके शब्दों को मेघ का शब्द समझकर हुर्षोन्मुक्त हुए मयूर असमय में ही, ऋतु के बिना ही नृत्य करने लगते हैं ।

यत्स्वर्गावतरोत्सवे यदभवज्जन्माभिषेकोत्सवे,

यद् दीक्षाग्रहणोत्सवे, यदखिलज्ञान प्रकाशोत्सवे ।

यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपते: पूजाद् भुव तद्भवै,

संगीत स्तुति मंगलै: प्रसरतां मे सुप्रभातोत्सव: । ।

सुप्रभात स्तोत्र । ।

तीर्थकरों के स्वर्ग से अवतरण- उत्सव (गर्भकल्याणक) के समय, जन्माभिषेक उत्सव, दीक्षा ग्रहण पर, केवलज्ञान प्राप्ति उत्सव में एवं निर्वाणोत्सव में जिन संगीत युक्त स्तुतियों से अलौकिक पूजा की गयी थी, वे मेरे लिए प्रभात को उत्सव रूप करें। यद्यपि जिनेन्द्र प्रभु वीतरागी व ‘राग-द्वेष से पर हैं, फिर भी जन गणशुद्ध शुद्धराग व ‘शुद्ध संगीत मय. पवित्र भावना से गाता है वह परम्परा से मोक्षगामी होता है । देखें- सगीतोपनिषद् सारोद्धार- ३ २ में –

यो वीतरागस्य परात्मनोऽपि, गुणानुबद्ध गणराग शुद्धम् ।

पुण्यैक लोभात् परया च भक्त्या, गायेत संगीत स तु मुक्तिगामी ।।

इसी ग्रंथ में एक और प्रसंग आया हैसगीतोपनिषद- पद (४/१) जिसका सार-सारांश इस प्रकार है । तीर्थकर के समवशरण सभा में, स्पर्धा पूर्वक सम्मलित स्वर्ग की अप्सराओं ने तत, धन, सुबिर और आनद्ध (अर्थात् क्रमश: वीणा, काँस्य, वंशी और मुरज) इन चार वाद्यों के साथ किये गये नृत्य में उपस्थित जन समूह को प्रसन्न किया । किन्तु इस ललित नृत्य से भी अधिक सुखकर तीर्थकर की दिव्यध्वनि है, जिसे सुनकर सर्वोत्तम आनंद की प्राप्ति होती है । 

जैन संस्कृति और संगीत

जैन संस्कृति और वाङ्गमय में संगीत का महत्त्वपूण स्थान है । जैन संस्कृति के मूल स्तम्भ कैं मंदिर और चैत्य, जो संगीत के मूलाधार हैं । स्तुति स्तोत्र, पूजा-अर्चा, प्रतिष्ठा-कल्याणक, रथोत्सव, दशलाक्षणी पर्व आदि कोई भी महोत्सव हो, सगीत का आयोजन अनिवार्य रूप से होता है । जैन रास और जैन- नृत्य ‘संगीत के बिना चलते ही न थे । जैन पुरता साहित्य से स्पष्ट है कि तीर्थकरों के गर्भ, जन्मोत्सव- इन्द्र और देवियों के नृत्य, वादित्र और गायन से ही स्पन्न होते थे । संगीत के सैद्धान्तिक पक्ष पर जैनाचार्यो ने बहुत कुछ लिखा है । भगवज्जिसेनाचार्य, (९वी शती) के महापुराण और भूधरदास ( १ ७वीं शती) के पार्श्वपुराण में संगीत का अच्छा चित्रांकन है। आचार्य पार्श्वदेव का ‘ संगीत समयसार’ एक उच्चकोटि का गन्ध है ।
भरतेश वैभव (२/ ७ ७) मेँ, चक्रवर्ती भरत की राजसभा में संगीत विशारदों द्वारा जो -विविध-रागों में गायन प्रस्तुत किये गये, उनका वर्णन? आया है ।

भूपालयिद धन्वासियिंद सर्व । भूपालि गोडेयन मुदे ।

श्री पुरुनाथ पाडिदरेल्लर । पापलेपव नैदुवंते । ।

अर्थात् संगीत विशारदों ने भूपाली तथा धन्वासी राग मेँ, राज समूह अधियति भरत चक्रवर्ती के सन्मुख श्री वृषभदेव तीर्थकर की स्मृति करते हुए, इस प्रकार गायन किया कि जिसे सुनकर सब श्रोताओं के पाप नष्ट हो जाएँ ।
संगीतोपनिषद् सारोद्धार में बतलाया है कि तूर्य वाद्य और नाटक की उत्पत्ति, चक्रवर्ती भरत की नौ निधियों में से अन्तिम निधि शंख से हुई थी, और संगीत की निष्पत्ति ‘ हर’ से हुई । यन्हाँ ” हर’ का आशय ऋषभदेव से है जो ऋषभदेव के नामान्तर-सहसनाम मेँ आया है ।

शिव: शिवपदाध्यासात् दुरितारि हरो हर: ।

शंकर कृतशं लोके शंभवस्त्व भवन्मुखे । ।सहस्रनाम । ।

 

आचार्य जिनसेन स्वामी ने आदिपुराण में लिखा है कि ऋषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसैन को गीत, वाद्य तथा गान्धर्व विद्या की शिक्षा दी,जिस शास्त्र के सौ अध्याय से ऊपर हैं ।

विभुर्वृषभसेनाय गीतवाद्यार्थ संग्रहम् ।

गन्धर्व शास्त्र माचख्यौ, यत्राध्याया पर: शतमू । ।

(आदिपुराण – १ ६/१ २०) 

संगीत के सन्दर्भ में यह सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है : –

श्रोत्रनेत्र महोत्सवाय’ ‘ अर्थात् संगीत. श्रोत (कर्ण) एवं नेत्र (आखों) के लिए उत्सवकारक है ।
श्री वृषभदेव पुराण में – नीलांजना के नृत्य का प्रसंग – कविताबद्ध किया है, जो महाराजा वृषभदेव की राजसभा में सम्पन्न हुआ था । पंचकल्याणक महोत्सव के अन्तर्गत दीक्षा दिवस के दिन महाराजा वृषभदेव की राजसभा लगती है और सौधर्म इन्द्र की ‘आज्ञा से महाराज वृषभदेव को वैराग्य उत्पन्न करवाने का निमित्त भूत, इन्द्र, सुरनर्तकी नीलांजना का मनमोहक नृत्य करवाते हैं- जो प्राणार्पण नृत्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें नीलांजना नृत्य करते हुए आकस्मिक रूप से मरण को प्राप्त हो जाती है, जिसे देखकर वृषभदेव को वैराग्य उत्पन्न होता है । इस प्राणार्पण नृत्य का पद निम्नानुसार हैअहिंसा वाणी – वर्ष ७, पृष्ठ-१४२- १९५७ (प्रकाशन वर्ष)

नीलयशा नाम एक, देवी मर्घवा पाठाय, आयु जाकी अंतर महूरत प्रमानिये ।

गावत सुकंठ गीत, नाचत संगीत ताल, बाजत मृदंग वीन, बांसुरी बखानिये ।

नटति नटति आयु पूरी खिर गई देह, देखि जिननाथ जग नाशवान जानिये ।

राजकाज त्याग कीजे, आत्मीक रस पीजे दीजे दुख लीजे सुख, मोह कर्म भानिये । ।

श्री वृषभदेवपुराण 9 
 
भागवत पुराण में भी एक ऐसा प्रसंग (क६ा३_ ४) वर्णित हैसंगीत सम्मेलन पत्रिका, १९६९, प्रकाशक-श्रमण जैन भजन प्रचारक संघ, देहली,, संपादक- डॉ. प्रेमसागर जैन
 
”इति नानायोगचर्याचरणो भगवान कैवल्यपतिऋषभ: ”
 
अर्थात् भगवान ये वृषभदेव ने अपने पुत्रों और प्रजा को षट्कमों (असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प) केँ अलावा चौसठ विद्याओं का उपदेश दिया । संगीत विद्या उन ६ ५’ विद्याओं में समाहित है ।
इस प्रकार संगीत – स्व-पर सुखदायक होती है । रेडियो थैरेपी की भांति संगीत की सूक्ष्म तले रोग निदान में भी सहायक बनतीं हैं ‘और मरीज पर सीधा प्रभाव डालती है ।
संगीत की साधना – आत्माभिमुख बनाकर अन्तस को निर्मल करती है । यह केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं है बल्कि ईश्वर उपासना में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है । 
-सिद्धाथ र्जैन,एम: म्यूज
केन्द्रीय विद्यालय कै. १ कलपक्कम, जिला- काँचीपुरम तमिलनाडू- ६०३१०२
अनेकान्त जनवरी मार्च २०१३ पेज न ६५ से ६८ तक
Tags: Anekant Patrika
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