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जैन समाज दशा और दिशा!

July 7, 2017शोध आलेखjambudweep

जैन समाज दशा और दिशा


(२१वीं सदी के सन्दर्भ में)

प्रमुख रूप से भारतवर्ष में तथा विरल रूप में विश्व के अनेक देशों में जैन समाज निवास करता है। इस समाज की आस्था के प्रमुख केन्द्र जिन अर्थात् जितेन्द्रिय तीर्थंकर एवं सिद्ध भगवान् हैं। जिन को मानने वाले, जिन के समान बनने की चाह वाले और जिन के समान ही न्यूनाधिक आचरण करने वाले जैन कहलाते हैं। जैन समाज को विरासत में जो संस्कृति मिली है वह धर्ममूलक, चिन्तनपरक, अनेकान्तात्मक एवं सहअस्तित्व की संसूचक है। यहां ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है आत्मा भी स्वतंत्र है और किसी की दयादृष्टि पर निर्भर नहीं है। जो इस आत्मा का परिष्कार करता है वह आत्मा ही परमात्मा बन जाती है। यहां सदाचार और सद्भाव सहज है, स्वभावगम्य है। यहां सामाजिक नैतिकता की दीवार अभेद तो नहीं किन्तु इतनी मजबूत है कि इसका उल्लंघन जल्दी करने की कोई नहीं सोचता। धर्मग्रन्थों के वचन और तदनुसार साधु-संतों, विद्वानों के प्रवचन भी इस नैतिकता को बनाए और बचाए रखने में अपना सम्यक योगदान देते हैंं कहा जाता है कि पूर्व में जैन सत्यवादिता के लिए इतने प्रसिद्ध थे कि यदि कोर्ट में किसी पक्ष में जैन गवाही दे देते तो जज उस पक्ष के पक्ष में निर्णय सुना देते थे। वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में भी उन्हें न्यायप्रिय, सदाचारी एवं सादगी पसन्द व्यक्तियों के रूप में सम्मान प्राप्त था। जैन समाज जैन धर्म के सिद्धांतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य से अभिप्रेरित है। स्याद्वाद, अनेकान्त, सप्तभंगीवाद जैसे सिद्धान्त या शैलियां हमारी वैचारिक दृष्टि-सरणि को संतुलित बनाते हैं और मानसिक एवं वाचनिक अहिंसा को मजबूत करते हैं। हमारी धार्मिक श्रद्धा हृदय की गहन गहराईयों में प्रतिष्ठित है। इस श्रद्धा के मूल में हैं जिनेन्द्रदेव, जिनप्रणीत शास्त्र और जिनवरवेशी दिगम्बर गुरु। जो सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के संवाहक कहलाते हैं। जैन धर्म की विशेषता है कि – हमें अपने पूज्यों से चाहे वे अरहन्त भगवान् ही क्यों न हों प्रश्न पूछने, अन्वेषण करने, कल्पना करने, नए विचार, नयी टीका करने की छूट है। कहा जाता है अकेले श्रेणिक ने तीर्थंकर सर्वज्ञ महावीर से आत्माके विषय में ६०,००० प्रश्न पूछे और भगवान् ने उनके उत्तर भी दिए। इसलिए हमारे समाज में संतों, विद्वानों, समाज के अन्य बौद्धिकजनों को नए विचारों के उद्भावन की व्यवस्था है कि कितने ही मौलिक हों किन्तु उनका समावेश मूल सिद्धांतों में ही हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे नदियां कहीं से भी प्रवाहित हों अन्त में वे समुद्र में ही जाकर मिलती है। आधुनिक युग जिसे हम २१वीं सदी कहते हैं उसमें जैन धर्म नए युग का धर्म बनने की ओर अग्रसर है क्योंकि आज का समाज परीक्षण के बिना कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं। उसे जो भी चाहिए वह सारभूत, सर्वाधिक सार्थक और सत्य से संपृक्त होना चाहिए। जैन धर्म के लिए अंतर में विद्यमान आत्मसत्य ही परमसत्य है। यह किसी भी जीव को आलोकित कर सकता है। आत्मसाक्षात्कार आत्मा को स्वयं करना होता है। इसके जो कारण हैं वे हैं साधना, चित्त-शुद्धि और आत्मावलोकन। हमारा धर्म श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र प्रधान है। जैन समाज का मूल धार्मिक आधार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म एवं दर्शन है। यह धर्म एवं दर्शन सार्वभौमिक सह अस्तित्व पर विश्वास रखता है। यह लोक के भले के लिए है किसी तंत्र विशेष के लिए नहीं। वह ‘मत’ के आधार पर विभाजित या विलोपित नहीं किया जा सकता। यहां सत्य का आग्रह है किन्तु दुराग्रह नहीं। विजय अर्थात् जीतने के लिए आत्मा है किन्तु प्राणियों से शत्रुता नहीं। यदि शत्रु भी कोई हैं तो वे विभाव हैं, राग-द्वेष हैं। यह स्वयं को जीतने का दर्श हैं। यदि आप अपने कल्याण के पक्षधर हैं तो बने रहें; कहीं कोई आपत्ति नहीं, किन्तु ध्यान रहे दूसरों का अहित आपसे न हो। यह अन्त:बाह्य स्वरूप में एकत्व चाहता है। वरना स्थिति यह है कि-

बड़ी भूल की चित्रों को व्यक्तित्व समझ बैठे। हम विज्ञापन को भ्रम से वस्तु तत्त्व समझ बैठे।। (श्री निवास शुक्ल)

मानव समाज को संस्कारित करने के तीन क्षेत्र हैं- १. आचार २. विचार ३. व्यवहार। इनके मर्यादित होने से आत्मविकास होता है। समाज चलता है। व्यक्ति का बचाव होता है। अत: हमें इन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। सद्विचार से सत्कर्म और सत्कर्म से सौभाग्य बनता है। आज भी जैन समाज इस पर विश्वास रखता है। २१वीं सदी में प्रवेश करते समय जैन समाज के सामने वे ही समस्यायें न्यूनाधिक रूप में सामने खड़ी थीं जिनसे २०वीं सदी के अंतिम पांच दशकों से वह साक्षात्कार करता रहा था। २१वीं सदी को प्रारंभ हुए लगभग ११ वर्ष हो चुके हैं। इन ११ वर्षों में यदि हमें अपने जैन समाज की दशा और दिशा का आकलन करना पड़े तो प्रतीत होगा कि हमारे समाज की जो दिशा है वह उतनी ठीक नहीं है जितनी होनी चाहिए और जब दिशा ही ठीक न हो तो दशा भी ठीक कैसे होगी? दूसरी ओर यह भी कह सकते हैं कि हमारी दशा ठीक है इसलिए हम दिशा की ओर से निश्चिन्त हैं और उसके बारे में विचार ही नहीं करते कि हम कहां जा रहे हैं? या हमें कहां जाना है? सबको साधनों की चिंता है, साध्य की नहीं। किसी ने ठीक ही कहा है – रेल, मोटर या कि पुष्पकयान, पहले सोच लो, जाना कहां है? मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्वापर विचार करे, भूत की ओर देखे, वर्तमान को देखे और भविष्य की ओर देखे क्योंकि बिना कारण के कार्य नहीं होते और बिना वर्तमान के कार्य के भविष्य भी नहीं बनता। मैंने जैन समाज की दशा और दिशा को जानने के लिए कुछ बिन्दु निर्धारित किये हैं और उन्हीं पर केन्द्रित होकर मैं कुछ विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

श्रुत की दशा और दिशा 

जैन समाज को धार्मिक एवं सामाजिक बनाने का श्रेय जैन श्रुत को जाता है। जिसका स्वाध्याय करके वे अपने जीवन को मर्यादित एवं पवित्र बनाते हैं। अत: श्रुत का संरक्षण एवं स्वाध्याय अवश्य होना चाहिए। बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे घरों में सबसे अधिक उपेक्षित शास्त्र हो गये हैं। मन्दिरों में भी उनका संरक्षण नहीं हो रहा है। कहीं संरक्षण है तो स्वाध्याय के लिए भी उनकी उपलब्धता नहीं है और स्वाध्याय के प्रति अरुचि तो सबकी ओर देखी जा सकती है। पाण्डुलिपियों के संरक्षण की दिशा में भारत सरकार की योजनाओं-राष्ट्रीय पाण्डुलिपि संरक्षण योजना आदि के अंतर्गत कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं ने अच्छा कार्य किया है। बीना(म.प्र.) अनेकान्त ज्ञान मन्दिर (श्रुतधाम) की स्थापना, नई दिल्ली मे खारवेल प्राकृत भवन कुन्दकुन्द भारती, वीर सेवा मन्दिर, सांगानेर में ऋषभदेव ग्रंथमाला आदि की स्थापना तथा वहां से होने वाले श्रुत कार्य प्रशंसनीय हैं। श्रुत संरक्षण की दिशा में अपेक्षित है कि (क) प्राचीन पाण्डुलिपियों के संरक्षण की उत्तम व्यवस्था हो (ख) संपूर्ण देश के किसी एक स्थान पर नेशलन लायब्रेरी कोलकाता जैसी कोई एक विशाल लायब्रेरी या संदर्भ ग्रंथालय की स्थापना हो जहां जैन धर्म संबन्धी प्रत्येक पुस्क उपलब्ध हो। (ग) शास्त्र प्रकाशन के लिए योग्य संपादकों की नियुक्ति तथा प्रकाशन की व्यवस्था हो (घ) शास्त्र स्वाध्याय के लिए वचनिका, गोष्ठी एवं अनिवार्य प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना हो। 

दिगम्बर जैन साधु : दशा और दिशा

दिगम्बर जैन समाज की आस्था के केन्द्र तो दिगम्बर जैन आचार्य, उपाध्याय, साधु (मुनि), आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक हैं ही किन्तु दिगम्बर मुनि से जैन समाज की पहचान होती है। अत: उनका संरक्षण होना आवश्यक है। एक नीतिकार ने श्री गुरु के लिए नमस्कार करते हुए लिखा है कि –

शंकया भक्षितं सर्वं, त्रैलोक्यं सचराचरम् । सा शंका भक्षिता येन, तस्मै श्री गुरवे नम: ।।

अर्थात् तीनों लोकों के सभी चराचर को शंका ने भक्षित किया है। उस शंका को जिसने भक्षित किया है उन श्री गुरु के लिए नमस्कार हो। जहां २०वीं सदी के प्रारंभ में मुनि दर्शन दुर्लभ थे वहीं २१वीं सदी में वे सर्वजन सुलभ है। वर्तमान में लगभग १३०० साधु-साध्वियाँ हैं।इस स्थिति पर हम सरसरी तौर पर गर्व कर सकते हैं, किन्तु जब हम क्वान्टिटी के स्थान पर क्वालिटी पर ध्यान देते हैं और मूलाचार, भगवती आराधना या अनगारधर्मामृत को इस क्वॉलिटी की कसौटी मानकर देखते हैं तब हमें उतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी होनी चाहिए। जहाँ पहले साधु को रमता जोगी कहा जाता था वहीं आज ऐसे भी साधु हैं जिन्होंने २१वीं सदी में एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार ही नहीं किया। एक ही स्थान पर रहते हुए बार-बार चातुर्मास स्थापना प्रश्नचिह्न खड़ा कराती है। ५०से अधिक साधु ऐसे हैं जो अपनी ही प्रेरणा से बनाये हुए उच्चस्तरीय भवनों में रह रहे हैं। ए.सी., कूलर, हीटर, फ्रीज, टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, फोन आदि आधुनिकतम सुविधाओं से लैस हो रहे हैं। शस्त्रयुक्त सिपाहियों के राजकीय संरक्षण में रह और चल रहे हैं। अन्य भी अनेक आरोप, प्रत्यारोप उन पर लगते रहते है: यह स्थिति ठीक नहीं है। यदि यही स्थिति रही तो साधु का विहार वाला स्वरूप सामने ही नहीं आयेगा। इस दशा को सुधारने के लिए समाज को इस दिशा में बढ़ना होगा – (क) समाज साधु के लिए पीछी, कमण्डलु और शास्त्र के अतिरिक्त कुछ भी ना दे। उनके द्वारा याचना करने पर उन्हें बताये, समझाये कि वे वीतरागी हैं और अयाचक हैं तथा उन्हें याद दिलायें कि जब उन्होंने दीक्षा ली तब उन्होंने क्या-क्या ग्रहण करने का संकल्प लिया था। (ख) साधु के आवास, आहार एवं विहार की अनिवार्य व्यवस्था करें। आज समाज उदासीनता के कारण ही विहार में अकेले पड़ जाने के कारण जानबूझकर साधुओं/आर्यिकाओं को दुर्घटना का शिकार बनाया जा रहा है। समाज का कर्तव्य है कि वह साधु को अपने स्थान से दूसरे गांव तक स्वयं भेजने जाए। (ग) साधु वैयावृत्ति समाज को अवश्य करनी चाहिए। (घ) वृद्ध साधुओं के आवास, स्वास्थ्य, आहार की व्यवस्था एकाधिक तीर्थक्षेत्रों पर स्थायी रूप से होना चाहिए। 

जैन तीर्थ क्षेत्रों की दशा एवं दिशा

जैन समाज की प्रमुख देन मूर्तियाँ, तीर्थक्षेत्र एवं वास्तुकला प्रतिमान हैं, जिनका वह सदैव से संरक्षण करता आया है। आज नवीन तीर्थ बन रहे हैं किन्तु पुराने तीर्थों की उपेक्षा हो रही है। श्री सम्मेदशिखर जी में ही तलहटी में एक से अनेक मन्दिर, धर्मशालाएं बन रही हैं किन्तु पाश्र्वनाथ टोंक जर्जर हो रही है। यह कैसा तीर्थ संरक्षण है? इस स्थिति से उबरने के लिए जरूरी है कि – क. प्राचीन सिद्ध एवं अतिशय क्षेत्रों के जीर्णोद्वार एवं संरक्षण को प्राथमिकता देना चाहिए। ख. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी का नेतृत्व व्यापक सोच वाला एवं सर्वमान्य होना चाहिए। इसके लिए संयुक्त नेतृत्व भी विकसित किया जा सकता है। ग. तीर्थक्षेत्रों का विकास या संरक्षण वैयक्तिक मान्यताओं के आधार पर नहीं होना चाहिए। जन्मभूमियों एवं निर्वाणभूमियों की वास्तविकता का ध्यान रखना चाहिए। घ. विभिन्न तीर्थक्षेत्रों पर जैन समाज को स्थायी रूप से बसाने की योजना बनाना चाहिए तथा वहां कॉलेज, चिकित्सालय एवं अन्य औद्योगिक इकाईयां स्थापित कर जैनों की सेवा का अवसर देना चाहिए, ताकि वे तीर्थसंरक्षण मे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहभागी बन सकें। 

जैन समाज की संख्यात्मक दशा एवं दिशा 

भारत सरकार द्वारा पूर्व में करायी गयी जनगणना के अनुसार जैन समाज की कुल जनसंख्या लगभग ४२ लाख आंकी गयी थी। जैन समाज इससे कुछ अधिक भी हो सकती है क्योंकि समाज की सभी उपजातियों के द्वारा अनिवार्य रूप से जैन न लिखे जाने और उपजाति सूचक उपनाम जोड़ने के कारण सही जनगणना नहीं हो पाती। हमारी समाज संख्या की दृष्टि से निरंतर घट रही है। इसके मूल में परिवार नियोजन की स्थिति और कन्याओं को जन्म न देने की प्रवृति (?) भी कारण हो सकते हैं। अत: हमें अपने जैन समाज की संख्यात्मक स्थिति सुधारने की जरूरत है। इस दिशा में निम्नलिखित उपाय करने चाहिए – (क) समाज अपनी स्थिति के अनुरूप बच्चों की संख्या तय करे। (ख) कन्याओं का जन्म ना हो; ऐसी भावना ना रखे (ग) दहेज प्रथा पर कानूनी रोक तो है ही किन्तु सामाजिक रोक भी हो। जो दहेज लेता हो उसे सामाजिक पदों से वंचित रखा जाए, उसके द्वारा दिया गया दान, भोज आदि स्वीकार न किया जाए। (घ) अभावग्रस्त कन्याओं एवं बालकों के समुचित संरक्षण, शिक्षा (छात्रवृत्ति) विवाह आदि की व्यवस्था समाज करे। 

उच्च शिक्षा की दशा और दिशा 

आज के युग की नई पीढ़ी की प्रमुख समस्या यह है कि उच्च शिक्षा कैसे मिले? कहां से मिले? जैन दर्शन कहता है कि आत्मा में अनन्त ज्ञान है, लेकिन ज्ञानवरण कर्म का जब तक आस्रव है तब तक संपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं किन्तु जो निरंतर श्रुत का अभ्यास करता है उसे उच्च शिक्षा या ज्ञान की प्राप्ति होती है। आज गुरुओं के प्रति सम्मान एवं सेवा का भाव नहीं है। जबकि शिक्षा के लिए यह जरूरी है। हमें अपने आचार्यों, उपाध्यायों (शिक्षको) का उचित सम्मान एवं सेवा करनी चाहिए। ज्ञान के प्रति विनय भी आवश्यक है। ज्ञान प्राप्ति के लिए सतत अभ्यास और सही शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति होना चाहिए। आजीविका नहीं। आजीविका के लिए ज्ञान सहकारी होता ही है। जैन समाज शैक्षणिक स्थिति में बेहतर है। यदि अभावग्रस्त विद्यार्थियों को क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर छात्रवृत्ति की व्यवस्था की जाये तो और भी बेहतर शैक्षणित स्थिति बन सकती है। प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी हेतु आचार्य विद्यासागर प्रशिक्षण संस्थान, जबलपुर की तर्ज पर दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, इन्दौर, मुम्बई, कोलकाता, बैंगलोर, पटना आदि स्थानों पर भी ऐसे ही प्रशिक्षण संस्थान खोले जाने चाहिए। साथ ही जैन उद्योगपतियों को चाहिए कि वे अपने यहां सेवाओं में जैनों को प्राथकमिकता दें तथा उन्हें योग्य सम्मान एवं वेतन भी दें। 

अर्थ की दशा और दिशा 

वर्तमान युग अर्थ प्रधान है। अत: सभी के मन में एक ही चाह है व्यक्तिगत या देश के स्तर पर अर्थ में वृद्धि कैसे हो? अर्थ पुरुषार्थ से प्राप्त होता है, किन्तु वह न्यायोपार्जित हों तो ही सुख देता है। जिस आर्थिक समृद्धि की हम बात करते हैं वह बढ़ी है। आंकड़े भी यही बताते हैं। किन्तु अर्थ का मतलब ही तो सुख नहीं है। सुख में अर्थ भी कारण है किन्तु यदि अर्थ से सुख न मिले तो वह व्यर्थ है। आज स्थिति यह है कि लोग ‘‘अदत्तादानं स्तेयम् ’’ अर्थात् बिना दिये हुए पदार्थ का ग्रहण करना स्तेय (चोरी) है और इससे कोई बचना नहीं चाहता। जैन समाज की पूर्व में औद्यागिक/आर्थिक स्थिति अच्छी थी। आज वह मात्र आत्मसंतोष के लायक है। संसार के सर्वाधिक धनी ५०-१०० व्यक्तियों में हमारा कोई स्थान नहीं। भारत के अरबपतियों में घोषित २० में हमारा स्थान २०वाँ है। हो सकता है आंकड़े इधर-उधर हों किन्तु स्थिति तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर नहीं है। भले ही हम कुल आयकर का २४प्रतिशत जमा करते हों। हमें अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए यह कार्य करना चाहिए – क. जैन अहिंसा बैंक की स्थापना करना चाहिए तथा प्रत्येक राज्य में जहां जैन रहते हों उसकी शाखायें खोलना चाहिए। ख. उक्त बैंक में ही अनिवार्य रूप से जैन मंदिरों, समितियों, ट्रस्टों का धन जमा करवाना चाहिए। ग. शेयर प्रणाली के आधार पर बड़ी औद्योगिक इकाईयां स्थापित करना चाहिए। घ. हमें नि:संकोच होकर लघु कुटीर उद्योग समाज में चलाना चाहिए। ड. हमें तीर्थंकर आदिनाथ द्वारा प्रतिपादित असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन सभी छह कर्मों को अपनाना चाहिए। 

वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की दशा और दिशा 

आज व्यक्ति अनेक वैयक्तिक समस्याओं से घिरा हुआ है। इन वैयक्तिक समस्याओं का एक बहुत बड़ा कारण आज पारिवारिक सम्बन्धों में आया बिखराव है। युवा अपने माता-पिता से अलग रहना चाहते हैं। पति-पत्नी में रोज घमासान मचा रहता है। बच्चे स्कूली बोर्डिंग में पड़े रहते हैं। सबका एक दूसरे के प्रति अविश्चास चरम पर है। सहअस्तित्व की भावना नहीं है। कर्म पर, भाग्य पर विश्वास नहीं है। आदर और स्नेह के भाव तिरोहित हैं। ऐसे में अशान्ति, कुंठा, तनाव तो जन्मेंगे ही। हम अपने लिए ही सर्वोपरि और सब कुछ मान लें तो अशांति तो होगी ही। हमारे लिए धर्म-कर्म और अन्योन्याश्रित संबन्धों को मान्यता देना आवश्यक है। हमें पारिवारिक एवं सामाजिक जन बनकर अपनी वैयक्तिक समस्याओं का हल खोजना चाहिए। अकेलेपन का सुख मात्र साधु बनने में है। संसारी तो संसारीजनों में ही सुखी रह सकता है।हमें अपनी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए सामाजिक संसद या सामाजिक पंचायत बनाकर उनके निर्णयों को स्वीकार करना चाहिए। 

पारिवारिक सम्बन्धों की दशा और दिशा 

जैन समाज की पारिवारिक स्थिति अत्यन्त मजबूत रही है और है भी, किन्तु इसको बनाये रखने की जिम्मेदारी भी हमारी है। आज सामाजिक जनों के सामने दो प्रश्न है कि १. वह व्यक्तिगत जीवन जीये, या २. परस्पर/समष्टिगतजीवन। हम परस्परोपग्रह युक्त जीवन के पक्षपाती हैं। तत्त्वार्थसूत्र में सूत्र आया है – ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ अर्थात् जीव परस्पर उपकार करते हैं। आज सामंजस्य, सहअस्तित्व और सद्भावना की कमी ने व्यापार, शिक्षा, धर्म और संस्कृति के अनेक क्षेत्रों को प्रदूषित किया है। आधुनिक परिवारों का टूटना, बिखरना, पति-पत्नी में संबन्ध विच्छेद, माता-पिता को अकेला छोड़ना या वृद्धाश्रमों में भेजा जाना, पिता-पुत्र का अलगाव आदि का समाधान मात्र ‘‘परस्परोपग्रह’’ में ही संभव है। आज स्थिति इतनी विषम है कि हर कोई अकेलेपन से ग्रस्त है और भावना भाता है कि – कोई तो आता, दो बात करता, कोई तो कहता हैलो । घर न बुलाता, पर यह तो कहता, कुछ दूर संग साथ चलो ।। (फिल्मी गीत) हिन्दी कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी ठीक कहते हैं –

औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ । अपने सुख को विस्तृत करलो, सबको सुखी बनाओ ।।

हम मेरी भावना में पढ़ते है कि – मैत्री भाव जगत् में मेरा, सब जीवों सेनित्य रहे। तो क्या यह हमारा कत्र्तव्य नहीं है कि अपने परिवार की एकता बनाये रखें। इस हेतु हमें बुजुर्गों के सम्मान की भावना बनानी होगी। आज जैन समाज मे विभिन्न उपजातियों में बंटवारा होने के कारण विवाह की समस्या उत्पन्न हो गयी है। उपजातियां अपना मोह छोड़ नहीं पाती और अपनी घटती संख्या से भी अंजान बनी हुई हैं। ऐसे में उनके सामने वर-वधू के चुनाव की समस्या है। दूसरी ओर शिक्षा और सर्विस की अनिवार्यता ने लड़कियों के सामने अन्य जाति के लड़कों से जो उसी के अनुरूप शिक्षित और सर्विसरत हैं; उनसे विवाह का रास्ता खोल दिया है। समाज की परवाह किसे है? अत: हमें उपजातियों की दीवारें तोड़कर बृहत् जैन समाज की स्थापना करना चाहिए तथा जैन वैवाहिक संस्था/संस्कार को मजबूत करना चाहिए। 

खानपान की दशा और दिशा 

जैसा हम चाहते हैं कि हमारा शरीर नीरोगी रहे किन्तु भोजन करते समय यह विचार किया कि जो हम खा रहे हैं उसका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा? याद रहे जिह्वा का चटोरापन इंसान की सेहत का सबसे बड़ा दुश्मन है। कहतें हैं हर रोग का रास्ता पेट से होकर जाता है और हम है कि पेट को फुलाने में ही सेहत की सुरक्षा मान रहे हैं। जो मिलता है उसे खा लेते हैं। हम ये विचार ही नहीं करते कि इसका शरीर एवं मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अत: स्वस्थ शरीर के लिए खान-पान का विवेक एवं संयम आवश्यक है। स्वस्थ तन के लिए स्वस्थ मन होना आवश्यक है। मन चंचल है, अशान्त है लेकिन उसे सद्विचार देकर शान्त किया जा सकता है। मन के लिए सक्रिय बनाने रखना आवश्यक है दिल की तरह। लेकिन जिस तरह दिल के लिए सरलता से रक्त प्रवाह जारी रहना आवश्यक है उसी तरह मन के लिए सद्विचार आवश्यक है। आज लोग उच्च-निम्न रक्तचाप, मधुमेह, अनिद्रा, भूख न लगना आदि बीमारियों के कारण तनावग्रस्त हैं। इसका भी कारण दिनचर्या की अनियमितता है। पहले दिन जगने के लिए होता था और रात सोने कि लिए। अब दिन-रात का फर्वâ ही जैसे मिट गया है। बाह्य आपाधापी ही जैसे जीवन है और इसके मूल में है अधिक धन, अधिक भोग और अधिक यश की कामना। इनकी सीमा तय किए बिना सुख नहीं मिल सकता। हमें खानपान की स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय करने होंगे – ”(क) खान पान की अहिंसक वस्तुओं का निर्माण एवं वितरण (विक्रय) (ख) अहिंसक उत्पादों का प्रचार प्रसार एवं (ग) अहिंसक खेती। 

जीव दया दशा और दिशा

आज स्थिति यह है कि मांसाहार ने करुणा को, लोभ ने ईमान को, व्यभिचार ने सम्बन्ध को, खुलेपन ने लज्जा को, स्वार्र्थ ने साधुता को और व्यापार ने शुचिता या शुभता को खा लिया है। इससे बचाव जरूरी है। इस पर भी तुर्रा यह है कि हम अकेले क्या कर सकते है? कुलेन हाईटावर ने कहा है कि ‘‘हम हवा को निर्देशित नहीं कर सकते किन्तु नाव की पाल को तो समायोजित कर सकते हैंं ‘‘हम मनुष्य हैं अहिंसक और जैन है तो हमारा आचरण भी वैसा ही होना चाहिए। यदि विपरीत स्थिति हुई तो हमें कहेंगे –

औरों में और मुझमें, कुछ तो फर्क होना चाहिए । अफसोस तो ये है कि मैं भी औरों जैसा निकला ।।

आज यदि दूध एवं घी तथा गोबर की खाद आदि समस्याओें का समाधान अपेक्षित है। यह तभी सम्भव है जबकि बूचड़खाने बंद हो। इस देश से बूचड़खाने कभी बंदन हीं हो सकते, मांस का व्यापार भी बंद नहीं हो सकता। इस कारण दुग्ध के अभाव की समस्या भी बनी रहेगी। ऐसे में जैन समाज का यह कत्र्तव्य बनता है कि वह पशुपालन को अपने जीवन का अंग बनाये और ऐसी पारमार्थिक गौशालायें स्थापित करें जिनमें दूध नहीं दे रही गाय अथव अन्य जानवर रखे जा सके|

दान : दशा एवं दिशा 

 नीतिकार एवं विज्ञजन कहते हैं ‘‘अर्थमनर्थ भावय नित्यं’’ अर्थात् अर्थ की अनर्थता का विचार नित्य करना चाहिए। आज जिसके पास अथाह सम्पत्ति है। वे उससे व्यथित हैं। यही कारण है कि वे अब अर्थ के पारमार्थिक उपयोग की बात कर रहे हैं। आचार्य श्री उमास्वामी ने सातावेदनीय के आस्रव के कारणों में दान को माना है। अपनी वस्तु का पर के अनुग्रह के लिए त्याग करना दान है। आज स्थिति दान के लिए अनुकूल बनती जा रही है। क्योंकि लोगों के पास आय के साधन बढ़े हैं, आय बढ़ी है और यह आय भी इतनी कि दोंनों हाथों से लुटाकर खर्च करने पर भी कम नहीं हो रही है। दूसरी और इसके दुष्परिणाम यह आ रहे हैं कि यह बढ़ा हुआ धन व्यसन, भोग-विलास और हिंसा का साधन बन रहा है, जिससे आये दिन परिवार, समाज एवं राष्ट्र में खतरे बढ़ रहे हैं। वैयक्तिक सुख ही सब कुछ हो गया है। सामाजिक मान-मर्यादा के लिए स्थान ही नहीं हैं। जेसिकालाल हत्याकाण्ड, मट्टू हत्याकाण्ड आदि ऐसी ही घिनौनी तस्वीरें प्रस्तुत करते हैं। एक धनपति ने तो इतना तक कहा है कि यदि आप अपने बच्चों को हिंसक, आलसी और निकम्मा नहीं बनाना चाहते हैं, उनके चरित्र की रक्षा करना चाहते हैं तो उन्हें अपनी पूरी संपदा मत सौंपिए बल्कि अपनी सम्पत्ति का बहुभाग परमार्थ में लगायें। अपने बच्चों को खुद खाने-कमाने के अवसर दीजिए। हमारे देश में दान की परंपरा और संस्कार दोनों हैं। जैनों के लिए यह एक आवश्यक कत्र्तव्य है। सबको ज्ञात है कि जब महाराणा प्रताप संकट में थे और घास की रोटी खा रहे थे तब भामाशाह (जैन) ने उन्हें प्रभूत मात्रा में धनदान देकर देश रक्षा के लिए कार्य किया था। पूर्व में और भी हमारे समाज के दानवीरों ने धनदान द्वारा धर्म, शिक्षा, चिकित्सा के अनेक संस्थान स्थापित किए और धर्मशालाएं, कुएं, तालाब, बावडियाँ, सड़के आदि बनवायीं ताकि आमजन सुखी रह सकें। अभी हाल में ही ‘फेस बुक’ के संस्थापक २६ वर्षीय मार्क जुकरबर्ग ने अपने एक बयान में लिखा है कि ‘दान और समाज सेवा की शुरूआत लोग अपने करियर में काफी देर से करते हैं लेकिन, अगर आपके पास देने के लिए कुछ है और इतना कुछ करने की चुनौती समाने हैं तो अभी से शुरुआत करने में क्या हर्ज है?’’ लोगों को खुलकर सबके सामने दान करना चाहिए क्योंकि लोगों को जब ये पता चलता है कि और लोग दान दे रहे हैं तो वे भी दान करने के लिए प्रेरित होते हैं। धन के विषय में कहा है कि –

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गयतो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुड्.तके तस्य तृतीयागतिर्भवति ।।

अर्थात् धन की तीन गतियाँ होती हैं- दान, भोग और नाश। जो धन न देता है, न भोगता है उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होता है। अत: धन आया है तो उससे अपने प्रयोजन सिद्ध करो और उसका पुण्यमय नियोजन करो। पुण्यमय नियोजन का तात्पर्य दान से है। बिना दान के धन की सद्गति नहीं होती, धनवान की भी नहीं। आज इस मर्म को जैन समाज के बड़े-बड़े उद्योगपतियों को समझाना चाहिए और ‘‘चैरिटी’’ (पारिमार्थिक कार्यों) के लिए दान देना चाहिए। यह एक शुभ सामाजिक लक्षण होगा। आज दान के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा हो रही है। बोली के नाम पर धार्मिक क्षेत्र में छल हो रहा है जिससे दानदाता/दान आदि के अपेक्षित परिणाम नहीं निकल रहे हैं। अत: हमें आचार्य श्री उमास्वामी की भावनानुसार- विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष:’’ को ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ याद रखें कि दे वहाँ जहाँ जरूरत हो। हमारे यहाँ देना भी सिखाया और लेना भी। गृहस्थ हो तो देना सीखों। देना स्वच्छाा है। साधु हो तो लेना सीखो। लेना बंधनकारी है। आत्मसम्मान पूर्वक लो और दो। छीना झपटी चोरी है। हमें बोलियों का विकल्प ढूँढ़ना होगा ताकि धन का साम्राज्य स्थापित न हो सके। 

जैन धार्मिक संस्थाओं, संगठनों एवं नेतृत्व की दशा एवं दिशा

जैन समाज की विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं हैं जिनमें भारतवर्षीय दि. जैन महासभा, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासमिति, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर परिषद्, दक्षिण भारत जैन सभा, भारतीय जैन मिलन, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, भारतीय जैन महासंघ, श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि परिषद् तथा अनेक जातीय, उपजातीय संगठन हैं। सबके अपने-अपने नेता हैं, पदाधिकारी हैं किन्तु कोई एक प्रभावी नेतृत्व न होने या संयुक्त प्रभावी नेतृत्व न होने के कारण हमारी आवाज औरों तक तो क्या अपनों तक भी नहीं पहुंच पाती हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि गिरनार संकट में है, ऋषभदेव केसरिया जी संकट में है और हमारी सामाजिक एवं धार्मिक अस्मिता संकट में है। यहां तक कि पिछले दिनों जैन साधुओं के लिए अनिवार्य पीछी तक पर रोक की स्थिति बन गयी थी। ऐसे में जरूरी है कि प्रभावी नेतृत्व बने और जैन समाज हित में कार्य करे। बार-बार नेतृत्व का बदलना भी उचित नहीं और निकम्मा सुदीर्घ नेतृत्व भी उचित नहीं। यहाँ ध्यान रखें कि –

हम इस पर लड़ रहे हैं सरदान कौन होगा । पहले यह तो सोचो कि कबीला बचे कैसे?

हमें ऐसा नेतृत्व चाहिए – A Leader is one who knows the way, goes the way and shows the way. अर्थात् एक नेता- जो खुद रास्ता जानता हो, स्वयम् उस रास्ते पर चलता हो, तथा समाज को रास्ता बताता भी हो। वह जब भी कुछ करे तो अपने आप से पूछे कि इसमें मेरे लिये क्या है और उसके लिए क्या है? जो स्वपरहितैषी होता है वही सच्चा नेता होता है और स्वयं रास्ता खोज सके या बना सके-

कमी नहीं है मंजिलों की, राहों की भरमार है । मंजिल वो ही पाता है, जो चलने को तैयार है ।।

धार्मिक अपव्यय दशा और दिशा 

जैन समाज के अब प्राय: सभी आयोजन इतने मंहगे होते जा रहे हैं कि वे अपव्यय की श्रेणी में आ गये हैं। पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें, मंहगे पोस्टर, टी.वी. पर कार्यक्रमों का प्रसारण, अवतरण (जन्म) महोत्सव, विधान, सांस्कृतिक कार्यक्रम, धार्मिक स्थलों का पर्यटकीय उपयोग आदि ऐसे अनेक कार्य हैं जिनमें समाज के धन का अत्यन्त दुरुपयोग हो रहा है। यदि एक वर्ष के लिए मात्र मर्यादित कार्यक्रम हो जायें तो समाज के एक लाख बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। यदि एक वर्ष लिए अत्यंत व्ययसाध्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें रोक दी जायें तो उन पर होने वाले व्यय से ५० तीर्थों का जीर्णोद्धार हो सकता है। यदि एक वर्ष के मंहगे ग्लेज्ड पोस्टरों पर प्रतिबंध लगा दिया जाये तो संपूर्ण जैन समाज बच्चों को माध्यमिक शिक्षा तक कापी किताबें उपलब्ध करवायी जा सकती हैं। क्या कोई इस पर विचार करेगा? 

जैन समाज की अन्य समस्या और समाधान : दशा एवं दिशा

१. तन के कारण- तन संबन्धी समस्याओं के समाधान के लिए वह भोग पर अंकुश लगाये, योग साधना करे, जीवन में ब्रह्मचर्य को स्थान दे और निज द्रव्य से स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना करें।
२. मन के कारण – मन संबन्धी समस्याओं के समाधान के लिए वह समाज में मित्रवत् रहे और संवाद कायम करेंं
३. धन के कारण – धन संबन्धी समस्याओं के समाधान के लिए वह संतोष वृत्ति को अपनाये और न्यायोपार्जन पर बल दे। यदि वह नौकरी करता है तो नियोक्ता के साथ ईमानदारी से कार्य करे और यदि व्यापारी हो तो सुनिश्चित लाभ के साथ एक भाव का व्यापार करे। इस संदर्भ में पं. बंशीधर जी व्याकरणाचार्य ही हमारे अनुकरणीय हो सकते हैं जिन्होनें बीना (म.प्र.) में एक ही भाव से वस्त्र का व्यवसाय किया।
४. परिवार के कारण – परिवार संबन्धी समस्यओं के समाधान के लिए जरूरी है कि वह संयुक्त परिवार को अपनाये किन्तु एकल परिवार के रूप में ही रहना पड़े तो परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य प्रगाढ़ पारस्परिक सहयोग की उदात्त भावना रखे।
५. यश के कारण – यश संबन्धी समस्याओं के समाधान के लिए जरूरी है कि हम कार्य करते समय सम्मान की इच्छा न रखें और यदि सम्मान मिले तो उसे सिर झुकाकर विनम्र भाव से स्वीकार करें।
६. लोभ के कारण – लोभ (पद, प्रतिष्ठा, जमीन आदि) संबन्धी समस्याओं के समाधान के लिए जरूरी है कि जब पद के योग्य निर्वाह की क्षमता हो तो ही पद ग्रहण करें। प्रतिष्ठा के लिए कार्य नहीं अपितु प्रतिष्ठापूर्ण कार्य के लिए अपना जीवन व्यतीत करें। जमीन को आवश्यकता से अधिक न रखें। ७. सुरक्षा को लेकर चिंता के कारण- सुरक्षा संबन्धी समस्याओं के समाधान के लिए जरूरी है कि हम धर्म और सत्कर्म पर विश्वास रखें। समाज के हित के लिए कार्य करते हुए समाज में ही रहें और निरंतर स्वपरहित का चिंतन करें। जो दूसरों की चिंता करता है उसकी सुरक्षा स्वयमेव हो जाती है। हमारे यहां तो धर्मो रक्षति रक्षित: कहा गया है। और भी जो समस्ययों आती हैं उनका समाधान भी सही चिन्तन और सही दिशा में कार्य करने से संभव होगा। किसी कवि ने ठीक ही कहा है –

देख यूँ वक्त की दहलीज से टकराके न गिर । रास्ते बन्द नहीं, सोचने वालों के लिए ।।

आज समाज को आवश्यकता है कि –
१. वह अपने मानस को मतांधता से मुक्त करे।
२. शास्त्र की कसौटी पर अपनी विवेक बुद्धि को कसे।
३. आत्मपरीक्षण करना सीखे।
४. अर्थ का अनर्थ न करें।
५. फिजूलखर्ची से बचे।
६. संस्कार एवं शिक्षा को प्राथमिकता दे।
७. अपने जैनत्व को बचाये रखे और शान से कहे – जैनं जयतु शासनम् ।
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन महामंत्री- अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद्, एल- ६५,
न्यू इन्दिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.) अनेकान्त जनवरी – मार्च २०१२
 
Tags: Anekant Patrika
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