ईसवी सन् १९७२ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का विहार राजस्थान से राजधानी दिल्ली की ओर हुआ और पहाड़ी धीरज के उस प्रथम चातुर्मास के मध्य ‘‘दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ की स्थापना की गई। पुन: सन् १९७४ में चातुर्मास से पूर्व माताजी अपने संघ सहित दिल्ली से हस्तिनापुर पधारीं, तब यह तीर्थ उन्हें पसंद आया। यहीं पर संघस्थ ब्र. मोतीचंद जी एवं सहयोगी महानुभावों के सहयोग से एक छोटी सी भूमि का चयन किया गया और माताजी ने वहाँ सुमेरु पर्वत का शिलान्यास कराया। पुन: दिल्ली पहुँचकर मंगल चातुर्मास के अनन्तर दिसम्बर सन् १९७४ में माताजी ने अपने आर्यिका संघ सहित हस्तिनापुर में पुन: पदार्पण किया। पूज्य आचार्यश्री धर्मसागर महाराज भी अपने चतुर्विध संघ सहित हस्तिनापुर पधारे, जहाँ उनके संघस्थ मुनिराज श्री वृषभसागर महाराज ने विधिवत् सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण का सौभाग्य प्राप्त किया। इस प्रकार सन् १९७४ से देखते-देखते ही हस्तिनापुर तीर्थ की काया पलट होने लगी। क्षेत्र पर जहाँ एक २५० वर्ष पुराने मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं था, वहीं माताजी के पधारने के बाद अनेक जिनमंदिरों के मनोहारी दृश्य उपस्थित हो गये तथा नशिया मार्ग पर क्रय की गई भूमि जहाँ जम्बूद्वीप रचना बननी थी, उस घने जंगल जैसे स्थान पर छोटा सा १२²१२ फुट का कमरा बनाकर भगवान महावीर की अवगाहना प्रमाण ७ हाथ खड्गासन प्रतिमा विराजमान की गई, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा फरवरी सन् १९७५ में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज एवं श्री ज्ञानमती माताजी के संघ सानिध्य में सम्पन्न हुई। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शब्दों में-ये कल्पवृक्ष महावीर स्वामी हैं, इन्हीं प्रभु की कृपा प्रसाद से ही जंगल में मंगल होकर द्रुतगति से सम्पूर्ण रचना मूर्तरूप ले सकी है। छोटे कमरे से बड़े मंदिर रूप में परिवर्तित श्वेत ‘‘कमल मंदिर’’ आज प्रत्येक पर्यटक का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है।
सन् १९६७ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का ससंघ चातुर्मास सनावद (मध्यप्रदेश) में हुआ। उस समय वहाँ एक श्रावक मोतीचंद जैन सर्राफ के बारे में ज्ञात हुआ कि ये बालब्रह्मचारी हैं। माताजी ने उनकी धार्मिक और सामाजिक कार्यक्षमता देखकर उन्हें संघ में रहने की प्रेरणा प्रदान की। तदनुसार उनकी प्रबल प्रेरणा के आधार पर ब्रह्मचारी मोतीचंद जी संघ में रहकर प्रमुखरूप से जम्बूद्वीप की निर्माण योजना को मूर्तरूप प्रदान करने लगे पुन: हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद उन्होंने पूज्य माताजी के समक्ष अपनी दीक्षा का भाव प्रकट किया। मोतीचंद जी की इच्छानुसार पूज्य माताजी ने संघस्थ ब्र. रवीन्द्र जी को परम पूज्य आचार्यश्री विमलसागर महाराज को हस्तिनापुर पधारने का निवेदन करने भेजा और पुण्ययोग से आचार्यश्री ने ससंघ हस्तिनापुर पधारकर ८ मार्च १९८७, फाल्गुन शु. नवमी को भगवान नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के मध्य व्यापक समारोहपूर्वक क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर मोतीचंद जी को ‘‘क्षुल्लक मोतीसागर’’ बनाया। दीक्षा के समय केन्द्रीय रेलमंत्री श्री माधवराव सिंधिया ने पधारकर आपको अभिनंदन पत्र भेंट किया तथा पूज्य माताजी से आशीर्वाद लेकर उन्होंने अपने जीवन को धन्य माना। ज्ञातव्य है कि मोतीसागर महाराज का जन्म सन् १९४० में सनावद के श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद जैन की धर्मपत्नी श्रीमती रूपाबाई की कुक्षि से आश्विन कृ. चतुर्दशी को हुआ। सन् १९५८ में ब्रह्मचर्यव्रत लेने के बाद सन् १९६७ से माताजी के संघ में प्रवेश कर गुरु आज्ञा को अपने जीवन में प्राथमिकता देते हुए भावी पीढ़ी के लिए आपने समर्पण का अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया है। २ अगस्त १९८७ को श्रावण शु. सप्तमी के दिन पूज्य माताजी ने आपको जम्बूद्वीप धर्मपीठ के ‘‘पीठाधीश’’ पद पर अभिषिक्त किया। तब से लेकर आज तक मोतीसागर महाराज अपने पद के योग्य संयम का पालन करते हुए संस्थान के समस्त क्रियाकलापों में दिशानिर्देश प्रदान करते हैं।
१८ मई १९५८, ज्येष्ठ कृ. अमावस को जन्म लेकर पूर्व जन्मों के पुण्य, माँ से जन्मघूंटी के रूप में प्राप्त धार्मिक संस्कार एवं सन् १९६९ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के मिले अल्प समय वाले सानिध्य ने मुझे भी इस कठोर त्याग पथ पर चलने हेतु प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप सन् १९७१ में अजमेर (राज.) में भादों शु. दशमी (सुगंध दशमी) के दिन मैंने पूज्य माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर गुरुमुख से धार्मिक अध्ययन प्रारंभ कर दिया। १३ वर्ष की लघु उम्र में मुझे अधिक तो कुछ ज्ञात नहीं था, किन्तु विवाह बंधन में न बंध कर गुरुचरणों में जीवन समर्पित कर देना ही मैंने ब्रह्मचर्य व्रत का अभिप्राय समझा था, उसी के फलस्वरूप धीरे-धीरे दो प्रतिमा, सात प्रतिमा आदि व्रतों को लेकर मेरे १८ वर्ष पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं अपनी जन्मदात्री माँ पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की छत्रछाया में ज्ञानार्जन, वैयावृत्ति, संघ व्यवस्था, धर्मप्रभावना एवं त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकलापों में व्यतीत हुए। पुन: १३ अगस्त १९८९, श्रावण शु. एकादशी के दिन हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने मुझे आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ‘‘चंदनामती’’ बनाया। नारी जीवन के उत्कृष्ट त्याग को धारण करने के पश्चात् मानो नया जीवन ही प्राप्त हुआ हो, इसीलिए लगभग १६ हजार किमी. की पदयात्रा करके अनेक तीर्थों के दर्शन एवं उनके जीर्णोद्धार विकास में अपने समय का सदुपयोग करके परम प्रसन्नता का अनुभव होता है। सन् १९७४ से प्रारंभ हुए जम्बूद्वीप रचना निर्माण आदि को मैंने स्वयं अपने चर्मचक्षुओं से प्रतिपल देखा है और संस्थान के द्वारा संपादित होने वाले सभी कार्यों में अपने पद के योग्य यथाशक्ति योगदान करके अपने जीवन को धन्य माना है। भविष्य में भी इसी प्रकार रत्नत्रय की साधना करते हुए दीक्षित जीवन के चरमलक्ष्य रूप बोधि समािध की प्राप्ति हो, यही भगवान शांतिनाथ के श्रीचरणों में प्रार्थना है।
३० मई २००३ का वह दिन सचमुच राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के लिए बड़ा पुण्यमयी रहा, जब उन्होंने बिहार प्रांत की अपनी यात्रा में भगवान महावीर के कल्याणक तीर्थों के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य किया। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ उस समय पावापुरी सिद्धक्षेत्र पर विराजमान थीं। राष्ट्रपति जी ने पावापुरी जलमंदिर के दर्शन करके पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया और बेहद प्रसन्नता के साथ अपने वक्तव्य में उन दुर्लभ क्षणों एवं तीर्थ के प्रति श्रद्धा व्यक्त की। पूज्य माताजी ने उनके शाकाहारी होने हेतु विशेष प्रसन्नता प्रगट कर अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में देश के सर्वोच्च नेता को देश की शांति और सुरक्षा हेतु खुले दिल से आशीर्वाद प्रदान किया। इसी प्रकार समय-समय पर पूज्य माताजी से केन्द्रीय एवं प्रादेशिक राजनेताओं में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि ने हस्तिनापुर, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि स्थानों पर पधारकर आशीर्वाद प्राप्त किया है। अपनी उदार भावनाओं के कारण माताजी समय-समय पर दिगम्बर-श्वेताम्बर साधु-साध्वियों के साथ ही अन्य धर्म के साधु-संतों से भी भारतीय संस्कृति के संरक्षण एवं शाकाहार-सदाचार के प्रचार-प्रसार हेतु विचारों का आदान-प्रदान करने में सदैव अग्रसर रहती हैं। पावापुरी सिद्धक्षेत्र पर पूज्य माताजी के सानिध्य में भगवान महावीर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं नवनिर्मित मानस्तंभ में वेदी प्रतिष्ठापूर्वक भगवान विराजमान हुए तथा जनकल्याण हेतु नेत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन भी सानंद सम्पन्न हुआ।
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर अपनी स्थापना के समय से ही शोध और अनुसंधान की गतिविधियों में संलग्न रहा है। जैन आगमों में उपलब्ध विवेचनों के आधार पर विश्वप्रसिद्ध जम्बूद्वीप रचना के निर्माण एवं २५० से अधिक सिद्धान्त, भूगोल, खगोल, व्याकरण, गणित, उपन्यास, कथा, नाटक, बालोपयोगी आदि पुस्तकों के लाखों की संख्या में प्रकाशन के साथ ही यह संस्थान विशाल विद्वत् शिक्षण/प्रशिक्षण शिविरों, सेमिनारों, संगोष्ठियों, सम्मेलनों का आयोजन करता रहा है। मेरठ विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित होने वाले इन सम्मेलनों की अकादमिक जगत में भूरि-भूरि प्रशंसा रही है। सम्प्रति शोध गतिविधियों को अधिक समन्वित स्वरूप प्रदान किये जाने हेतु अक्टूबर १९९८ में आगत शताधिक विद्वानों के अनुरोध पर संस्थान के अन्तर्गत ‘गणिनी ज्ञानमती प्राकृत शोधपीठ’ की स्थापना का निर्णय लिया गया। शोधपीठ का शुभारंभ ‘ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ के मध्य ४ अक्टूबर १९९८ को गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के ६५वें जन्मदिवस के पुनीत अवसर पर किया गया। शोधपीठ के निदेशक के रूप में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति प्रो. आर.आर. नांदगांवकर को एवं निदेशक मंडल में प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल, कुलपति-चौधरी चरण सिंह वि.वि., मेरठ तथा डॉ. अनुपम जैन, इंदौर को मनोनीत किया गया। इस शोधपीठ का निदेशक कार्यालय इंदौर में डॉ. अनुपम जैन द्वारा संचालित किया जा रहा है जिसमें शोधार्थी जैनधर्म विषयक शोध करके जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हस्तिनापुर में लगभग ३५ एकड़ विस्तृत जम्बूद्वीप परिसर में जम्बूद्वीप नामक जैन भूगोल की रचना के साथ-साथ अनेकों जिनमंदिर जहाँ जैनधर्म की कीर्तिपताका को फहरा रहे हैं, वहीं आधुनिक सुविधा सम्पन्न २०० फ्लैट्स, विशाल राजा श्रेयांस भोजनालय, कई सुंदर कोठियां, पानी की बड़ी टंकी, बिजली की सुविधा हेतु जनरेटर आदि सभी कुछ उपलब्धियाँ आने वाले यात्रियों को तीर्थ का आनंद लेने हेतु प्रेरणा प्रदान करती हैं। इसके साथ यहाँ शैक्षणिक गतिविधियाँ संचालित करने हेतु जम्बूद्वीप पुस्तकालय (लगभग १५ हजार ग्रंथों के संग्र्रह वाला), वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका आदि माध्यम हैं। जनसामान्य के लिए णमोकार महामंत्र बैंक हैं जिसमें लोग करोड़ों मंत्र लिखकर अपनी धार्मिक जमा पूँजी बनाते हैं और संस्था द्वारा प्रतिवर्ष सम्मान प्राप्त करते हैं। बच्चों के लिए झूला, झांकी, नाव, हंसी के गोलगप्पे आदि अनेक मनोरंजन के साधन हैं।
प्रत्येक संस्था की सक्रिय भूमिका के पीछे किसी न किसी सक्रिय कर्मठ व्यक्ति का हाथ अवश्य होता है। इसी बात के साक्षी हैं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन। कौन जानता है कि जिस दो वर्ष के भाई बालक रवीन्द्र को अपनी धोती पकड़कर अंगूठा चूसते सोते हुए छोड़कर सन् १९५२ में घर से निकली मैना जीजी ज्ञानमती माताजी बनने हेतु निकल पड़ी थीं, वही भाई आगे चलकर उनके ज्ञानामृत को स्वयं पीते हुए पूरे देश को उसका स्वाद चखाएगा। किन्तु होनहार को कौन टाल सकता है, सन् १९५० में श्रुतपंचमी के पवित्र दिन जन्में रवीन्द्र कुमार अपने पिता छोटेलाल जी एवं माता मोहिनी की नवमीं सन्तान एवं ४ पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र हैं। गांव की प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा प्राप्त कर लखनऊ विश्वविद्यालय से निकले इस प्रथम श्रेणी के स्नातक ने जब १८ वर्ष की अल्प वय में अपनी बहन पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शन कर उनसे जीवन निर्माण हेतु त्यागमयी प्रेरणा प्राप्त की, तब शास्त्री परीक्षा का कोर्स पढ़ते हुए आखिर सन् १९७२ में वे आजन्म ब्रह्मचारी बन ही गये। उसके बाद तो सारा जीवन धर्मग्रंथ के, स्वाध्याय, अध्ययन के साथ-साथ जनकल्याण और धर्मप्रभावना के लिए समर्पित हो गया। वर्तमान में ‘‘भाई जी’’ के नाम से प्रसिद्ध हंसमुख प्रकृति एवं कर्मठ व्यक्तित्व के धनी रवीन्द्र जी विद्वत्समाज द्वारा प्रदत्त अपनी कर्मयोगी उपाधि को पूर्णरूपेण चरितार्थ कर रहे हैं। हस्तिनापुर के विस्तृत कार्यकलापों के साथ-साथ अन्य अनेक संस्थाओं के प्रति सक्रिय मनोयोग तथा पूज्य माताजी द्वारा निर्देशित प्रत्येक निर्माण, धर्मप्रभावना, सम्मेलन आदि बड़े-बड़े समारोह आयोजित करने मे सिद्धहस्त भाई जी का टीमवर्क वास्तव में प्रेरणास्पद होता है। इनके साथ कार्य करने वाले सभी कार्यकर्ता जहाँ कर्म खर्च में ज्यादा कार्य करने की बात सीखते हैं वहीं सभी को संतुष्ट रखने की भी इनमें अपूर्व कला देखकर बड़े खुश होते हैं, यही कारण है कि बड़े-बड़े तीर्थ निर्माण एवं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय महोत्सव आशातीत सफलता के साथ निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार भाई जी सदैव पूज्य माताजी की भावनाओं को साकार करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते रहें, यही जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है।
जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का सर्वोदयी व्यक्तित्व शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है- २२ अक्टूबर सन् १९३४ को शरदपूर्णिमा के दिन टिकैतनगर (बाराबंकी-उ.प्र.) में श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी की कुक्षि से प्रथम संतान के रूप में जन्मी कन्या ने वास्तव में युग का इतिहास बदलकर २०वीं – २१वीं सदी में अपने ऐतिहासिक कार्यकलापों द्वारा नया कीर्तिमान स्थापित किया है। आपने सन् १९५२ में अपनी जन्मतिथि शरदपूर्णिमा के ही दिन पूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज से सप्तम प्रतिमारूप आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर गृहत्याग किया। सन् १९५३ में चैत्र कृ. एकम को उनसे क्षुल्लिका दीक्षा लेकर वीरमती नाम पाया पुन: बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के दर्शन करके उनकी प्रेरणा से उनके प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के करकमलों द्वारा सन् १९५६ में वैशाख कृ. द्वितीया को माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर अपने ‘‘ज्ञानमती’’ नाम को पूर्णरूपेण सार्थक किया। इस युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका के रूप में प्रख्यात ज्ञानमती माताजी ने अनेक मुनि – आर्यिकाओं को क्लिष्ट ग्रंथों का अध्ययन कराकर त्याग-ज्ञान की ऊँचाईयों को प्राप्त कराया, अपनी लेखनी से विपुल साहित्य की रचना कर कुन्दकुन्द आदि आचार्य एवं ब्राह्मी-सुंदरी, सुलोचना जैसी आर्यिका का स्मरण कराया, अनेक तीर्थों के उद्धार एवं विकास की प्रेरणा देकर स्वामी अकलंक देव, आचार्य समंतभद्र का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा संस्थाओं के प्रति निस्पृह भाव अपनाकर आचार्य श्री शांतिसागर – वीरसागर महाराज का त्यागमयी आदर्श प्रस्तुत किया है। इनकी अतिनिकटता में रहकर चर्या देखने वाले भक्त ही इनकी वास्तविक निस्पृहता का अनुमान लगा सकते हैं। ५३ वर्ष की अखण्ड तपस्या एवं सतत ज्ञानाराधना में लीन पूज्य गणिनीप्रमुख, युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के श्रीचरणों में शत-शत नमन करते हुए उनके दीर्घ एवं परम स्वस्थ जीवन की मंगल कामना करती हूँ।