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‘‘णमोकार मंत्र एवं चत्तारिमंगल’’

July 19, 2023स्वाध्याय करेंAlka Jain

विषय-‘‘णमोकार मंत्र एवं चत्तारिमंगल’’

 चन्दनामती-पूज्य माताजी! जिस णमोकार महामंत्र को सभी जैन लोग उच्चारण करते हैं उसके बारे में मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी-पूछो, क्या पूछना है?
चन्दनामती-णमोकार मंत्र के प्रथम पद में कोई तो ‘णमो अरिहंताणं’’ पढ़ते हैं तथा कुछ लोगों को ‘‘णमो अरहंताणं’’ भी पढ़ते देखा है। इस विषय में आगम का क्या प्रमाण है?
श्री ज्ञानमती माताजी-आगम-सूत्र ग्रंथ धवला की प्रथम पुस्तक में इस विषय का अच्छा खुलासा है। उसी के आधार से मैं तुम्हें बताती हूँ।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
धवला के मूल मंगलाचरण में यही मंत्र आया है जिसमें। ‘‘अरिहंताणं’’ पाठ ही लिया है। आगे टीकाकार श्री वीरसेनस्वामी ने और टिप्पणकार ने ‘अरहंताणं’ पद को भी शुद्ध माना है। इसी का स्पष्टीकरण-‘‘अरिहननादरिहंता’’।
१. केवलज्ञानादि संपूर्ण आत्मगुणों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ होने से मोह प्रधान अरि-शत्रु है और उस शत्रु के नाश करने से ‘अरिहंत’ यह संज्ञा प्राप्त होती है।
२. ‘‘रजो हननाद्वा अरिहन्ता’’ अथवा रज अर्थात् आवरण-कर्मों के नाश करने से अरिहंत हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि की तरह बाह्य और अंतरंग स्वरूप समस्त त्रिकाल गोचर अनंत अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय स्वरूप वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबंधक होने से रज कहलाते हैं, उनका नाश करने वाले अरिहंत हैं।
३. ‘‘रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता’’ अथवा रहस्य के अभाव से भी अरिहंत होते हैं। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है और अन्तराय कर्म के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान नि:शक्त हो जाते हैं। ऐसे अन्तराय कर्म के नाश से अरिहंत होते हैं।
४. ‘‘अतिशयपूजा र्हत्वाद्वार्हन्त:’’ अथवा सातिशयपूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पाँचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजाएं देव, असुर और मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक अर्थात् महान हैं, इसलिए इन अतिशयों के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। यहाँ अर्हं धातु पूजा अर्थ में है उससे ‘अरहन्त’ बना है। इस प्रकार आगम के आधार से तो णमो अरिहंताणं और णमो अरहंताणं दोनों ही पद ठीक हैं इनके उच्चारण में कोई दोष नहीं है। फिर भी मूलपाठ अरिहंताणं है अत: हम लोग अरिहंताणं ही पढ़ते हैं। चन्दनामतीइसका समाधान तो हो गया। एक दूसरा प्रश्न भी आज हम सबके सामने है कि जो चत्तारिमंगल का पाठ पढ़ा जाता है उसमें बहुत सारे लोग तो विभक्तियाँ लगाकर पढ़ते हैं। जैसे-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, अरिहंता लोगुत्तमा या अरिहंते सरणं पव्वज्जामि इत्यादि। आप तो बिना विभक्ति का पाठ पढ़ती हैं तथा हम लोगों को भी बिना विभक्ति वाला पाठ ही पढ़ने को कहती हैं, किन्तु इसमें आगम प्रमाण क्या है? कृपया बताने का कष्ट करें।
श्री ज्ञानमती माताजी –इस विषय में आगम प्रमाण जो मेरे देखने में आया वह क्रियाकलाप नामक ग्रंथ है। जिसे पण्डित श्री पन्नालाल जी सोनी ब्यावर वालों ने संपादित करके छपवाया था। उस क्रियाकलाप की उन्हें कई हस्तलिखित प्राचीन प्रतियाँ भी उपलब्ध हुई थीं। उन प्रतियों के आधार पर पण्डित जी ने क्रियाकलाप ग्रंथ के पृ. ८९ पर पाक्षिक प्रतिक्रमण का दंडक दिया है। जिसमें बिना विभक्ति वाला पाठ ही छपा है, जो कि बहुत प्राचीन माना जाता है। इसी क्रियाकलाप में सामायिक दण्डक की टीका में श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने बिना विभक्ति का ही पाठ लिया है। जैसे-अरिहंतमंगलं, सिद्धमंगलं, अरिहंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।’ इससे यह स्पष्ट होता है कि ग्रंथ के टीकाकार को भी बिना विभक्ति वाला प्राचीन पाठ ही ठीक लगा था। इसी प्रकार ज्ञानार्णव, प्रतिष्ठातिलक, प्रतिष्ठासारोद्धार आदि ग्रंथों में भी बिना विभक्ति के ही पाठ देखे जाते हैं।
चन्दनामती-माताजी! पहले एक बार आपने मुझसे ब्रह्मचारिणी अवस्था में चत्तारिमंगल विषयक कुछ पत्राचार भी कराए थे। उसमें विद्वानों के क्या अभिमत आए थे?
श्री ज्ञानमती माताजी-हाँ, सन् १९८३ में तुम्हारे द्वारा किए गए पत्राचार के उत्तर में भी विद्वानों के उत्तर आए थे जिन्हें मैंने ‘मेरी स्मृतियाँ’ में दिया भी है। पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने लिखा था कि ‘‘श्वेताम्बरों के यहाँ विभक्ति सहित पाठ प्रचलित है। उसमें व्याकरण की दृष्टि से कोई अशुद्धि नहीं है अत उसे दिगम्बर जैनियों ने भी अपना लिया है। ब्र. सूरजमल जी प्रतिष्ठाचार्य एवं पं. शिखरचंद प्रतिष्ठाचार्य ने भी बिना विभक्ति वाले प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी है। स्व. पं. मोतीलाल जी कोठारी फल्टण वालों से एक बार दरियागंज- दिल्ली में मेरी चर्चा हुई थी, उन्होंने प्राचीन विभक्ति रहित पाठ को प्रामाणिक कहा था। पं. सुमेरचंद दिवाकर-सिवनी वालों से भी दिल्ली में इस विषय पर वार्ता हुई थी तब उन्होंने भी प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी थी।
चन्दनामती-यदि व्याकरण से विभक्ति सहित पाठ शुद्ध है तो उसे पढ़ने में क्या बाधा है?
श्री ज्ञानमती माताजी-बात यह है कि मंत्रशास्त्र का व्याकरण अलग ही होता है, आज उसको जानने वाले विद्वान् नहीं हैं। अत: मेरी मान्यता तो यही है कि प्राचीन पाठ में अपनी बुद्धि से परिवर्तन, परिवद्र्धन नहीं करना चाहिए। सन् १९५८ में ब्यावर चातुर्मास में मैंने पं. पन्नालाल जी सोनी से इस विषय में चर्चा की थी, तब उन्होंने कहा था कि- हमारे यहाँ सरस्वती भवन में बहुत प्राचीन यंत्रों में भी बिना विभक्ति वाला प्राचीन पाठ ही है, हस्तलिखित प्रतियों में भी वही पाठ मिलता है। विभक्ति सहित चत्तारिमंगल का पाठ शास्त्रों में देखने को नहीं आया है अत: प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिए। आजकल के विद्वानों द्वारा संशोधित पाठ नहीं अपनाना चाहिए। उन्होंने भी इस बात पर जोर दिया था कि मंत्रों का व्याकरण अलग ही होता है, आज हम लोगों को उसका ज्ञान नहीं है अत: मूलमंत्रों में अपने मन से विभक्तियाँ नहीं लगानी चाहिए। एक पत्र सन् १९८३ में क्षुल्लक श्री सिद्धसागर जी का मौजमाबाद से प्राप्त हुआ था। उससे मुझे बहुत संतोष हुआ था। उन्होंने लिखा था- ‘‘अ आ इ उ ए तथा ओ कोे व्याकरण सूत्र के अनुसार समान भी माना जाता है। ‘एदे छ च समाणा’ इस प्राकृत सूत्र के अनुसार अरहंता मंगलं के स्थान पर अरहंत मंगलं, सिद्धा मंगलं के स्थान पर सिद्ध मंगलं तथा साहू मंगलं के स्थान में साहूमंगलं और केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं है। ‘आ’ तथा ‘अ’ को समान मानकर अरहंत के ‘आ’ के स्थान में ‘अ’ पाठ रखा गया है यह व्याकरण से शुद्ध है। इसी प्रकार ‘अरहंत लोगुत्तमा’ इत्यादि पाठ भी शुद्ध है। ‘अरहंते सरणं पव्वज्जामि’ के स्थान पर ‘अरहंत सरणं पव्वज्जामि’ पाठ शुद्ध है क्योंकि ‘एदे छ च समाणा’ इस व्याकरण सूत्र के अनुसार ‘ए’ तथा ‘अ’ को समान मानकर ‘ए’ के स्थान में ‘अ’ पाठ शुद्ध है। इसलिए जो चत्तारिमंगल पाठ विभक्ति रहित है, प्राचीन काल से चला आ रहा है वह शुद्ध है। शास्त्रों और यंत्रों में भी विभक्ति रहित ही जो पाठ देखे जाते हैं, वे शुद्ध हैं और लाघवयुक्त हैं।
चन्दनामती-इससे निष्कर्ष क्या निकालें?
श्री ज्ञानमती माताजी-निष्कर्ष तो यही निकलता है कि प्राचीन पाठ ही पढना चाहिए। क्योंकि खोज करने से यही प्रतीत होता है कि समस्त पूर्वाचार्यों की प्राचीन पद्धति के अनुसार बिना विभक्ति वाला पाठ ही पढ़ते और लिखते आए हैं। अत: हम लोगों को इस विषय में अपनी बुद्धि न लगाकर प्राचीन पाठ का ही अनुरण करना चाहिए।
चन्दनामती-आपके श्रीचरणों में बारम्बार वंदामि। णमोकार मंत्र और चत्तारिमंगल पर आपके द्वारा जो समुचित समाधान प्राप्त हुआ है, उससे समस्त जनमानस को अवश्य ही मार्गदर्शन प्राप्त होगा।
Tags: shanka samadhan
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