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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में न्याय दर्शन की शास्त्रीय समीक्षा!

July 11, 2017शोध आलेखHarsh Jain

तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में न्याय दर्शन की शास्त्रीय समीक्षा

वैदिक दर्शनों में न्याय एक महत्त्वपूर्ण दर्शन है। न्याय शब्द का प्रयोग अत्यन्त प्राचीन है। न्यायसूत्र नाम से सूचित होता है कि उस समय न्याय शब्द का प्रयोग न्यायविद्या या न्याय दर्शन के अर्थ में होने लगा था। वात्स्यायन ने न्याय का पारिभाषिक अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रमाणों से अर्थ की परीक्षा करना न्याय है।प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:। न्यायभाष्य, १.१.१ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में श्री विद्यानन्द आचार्य ने अपनी जैनागम् सम्मत मान्यताओं की स्थापना के लिए जिन दार्शनिकोें को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित किया है, उनमें नैयायिक भी हैं। 

१. मोक्ष प्राप्ति का उपाय :

न्याय दर्शन के आद्य चिन्तक महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र के प्रथम सूत्र में कहा है कि प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्त-अवयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्ड-हेत्वाभास-च्छल-जाति-निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधि गम:।’ न्यायसूत्र, १.१.१ तत्त्वज्ञान का अर्थ है सम्यग्ज्ञान। जैसा कि श्री केशव मिश्र ने कहा है – ‘प्रमाणादीनां तत्त्वज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्,तर्कभाषा, पृ. ५ (व्याख्याकार- डॉ. श्रीनिवास शास्त्री) इस तत्त्वज्ञान को नि:श्रेयस का साधन कहा गया है। यद्यपि जगत् में अनेक प्रकार के श्रेयस हैं किन्तु नि:श्रेयस से तात्पर्य मोक्ष है, क्योंकि पूर्णरूप से श्रेयस मोक्ष रूप ही है। न्याय दर्शन की मान्यता है कि तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है तथा मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से दु:खादि का आत्यान्तिक विनाश हो जाने से अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति हो जाती है। जैसा कि महर्षि गौतम ने कहा है – ‘दु;खजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानाम् उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायाद् अपवर्ग:।न्यायसूत्र, १.१.२ अभिप्राय यह है कि मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर मिथ्याज्ञान के कार्य दु:ख, जन्म, प्रवृत्ति और दोष स्वत: नष्ट हो जाते हैं। मिथ्याज्ञान कारण है और दु:खादि उसके कार्य हैं। दु:खादि का अत्यन्त नाश होना ही मोक्ष है। अत: केवल तत्त्वज्ञान से ही मोक्ष हो जाता है। अत: नैयायिकों का कहना है कि ‘रत्नत्रय ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है’ यह अवधारणा नहीं हो सकती है। फलत: धर्मोपदेश के लिए भी रत्नत्रय से मुक्ति के हेतुत्व की कल्पना करना व्यर्थ है।‘तत्र त्रयमेव मुक्तिहेतुरित्यवधारणं मा भूदिति केचित्।’ – तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग-१ पु. ३१० नैयायिकों के प्रति श्री विद्यानन्द आचार्य का कहना है कि आप जब मात्र ज्ञान से मोक्ष मानते हैं तो यह बतायें कि कर्म यथाकाल फल देकर नष्ट होते हैं या उपक्रम विशेष अर्थात् तप आदि से नष्ट होते हैं। यदि आप कहें कि कर्म यथाकाल फल देकर नष्ट होते हैं तो यह उचित नहीं है –

‘भोत्तुक: फलोपभोगो हि यथाकालं यदीष्यते । तदा कर्मक्षय: क्वात: कल्पकोटिशतैरपि ।।’

तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार १.१.५०, पृ. ३११

अर्थात् यदि भोक्ता के कर्म फल देकर यथाकाल नष्ट होते हैं तो करोड़ों कल्प कालों में भी कर्मों का क्षय होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जन्मान्तर में फल देने वाले का इस जन्म में क्षय मानने में विरोध आता है। यदि आप कहें कि तत्त्वज्ञानी के इसी जन्म में फल देने योग पुण्य-पाप रूप कर्म उत्पन्न होतें हैं तो इसमें प्रमाण का अभाव है। सविपाक निर्जरा तो यथाकाल ही फल देती है। इससे सिद्ध है कि उपक्रम विशेष अर्थात् तपश्चरण आदि के द्वारा ही संचित कर्म समय से पूर्व नष्ट हो सकते हैं। इसे ही जैन आगम में अविपाक निर्जरा कहा गया है। यह चारित्र रूप है। अत: ज्ञान के साथ चारित्र को होना चाहिए। ज्ञान और चारित्र सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्पने को प्राप्त नहीं हो पाते हैं। इसीलिए कहा गया है कि रत्नत्रय से मुक्ति होती है, केवल तत्त्वज्ञान से नहीं। उपसंहार के रूप में श्री विद्यानन्द आचार्य ने कहा है –

‘सम्यग्ज्ञानं विशिष्टं चेत्समाधि: सा विशिष्टता । तस्य कर्मफलध्वंसशक्तिर्नामान्तरं ननु ।।

मिथ्याभिमाननिर्मुक्तिज्र्ञानस्येष्टं हि दर्शनम् । ज्ञानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता ।।

शक्तित्रयात्मकादेव सम्यग्ज्ञानाददेहता । सिद्धा रत्नत्रयादेव तेषां नामान्तरोदितात् ।।’

वही, १.१.५३-५५, पृ. ३१३

यदि नैयायिक कहें कि सम्यग्ज्ञान विशिष्ट है और उस ज्ञान के कर्मध्वंस करने के सामथ्र्य की विशिष्टता समाधि है तो समाधि तो चारित्र का ही नामान्तर हुआ। ज्ञान के मिथ्याभिमान की निवृत् का नाम दर्शन है, पदार्थ की ज्ञप्ति ज्ञान है और कर्मनाश करने की शक्ति का नाम चारित्र है। इन तीन शक्ताात्मक ज्ञान र्अािात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रय से ही मुक्ति सिद्ध होती है। पदार्थ व्यवस्था की दृष्टि से जगत् षड् द्रव्यमय है। परन्तु मुक्ति के लिए जिनके तत्त्वज्ञान की आवश्यकता होती है, वे तत्त्व जैनागम में सात माने गये हैं- ‘जीवाजीवास्रव-बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।तत्त्वार्थसूत्र, १.४ अर्थात जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनके ज्ञान न होने पर षड् द्रव्यों का ज्ञान भी मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं हो पाता है। इन सात तत्त्वों में सभी पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है, किन्तु नैयायिकों द्वारा मान्य सोलह पदार्थों में सर्व तत्त्वों का संग्रहण नहीं हो पाता है। अत: सोलह पदार्थों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ही नहीं। प्रमाण का ग्रहण करने से अप्रमाण रूप अनध्यवसाय और विपर्यय का ग्रहण नहीं हो पाता है, जबकि नैयायिकों ने संशय को पृथक पदार्थ माना है। यदि संशय को अलग पदार्थ कहा है तो फिर अनध्यवसाय और विपर्यस को भी अलग कहना चाहिए था। इसी प्रकार स्मृति, तर्क आदि ज्ञानों का भी संग्रहण नहीं हो पाया है। अत: सोलह पदार्थों की मान्यता युक्तियुक्त नहीं है।तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग २, पृ. ६७-६८-६९ नैयायिकमान्य प्रमाण प्रमेय आदि सोलह पदार्थ वास्तव में मूल पदार्थ ही नहीं हैं, अपितु ये द्रव्य और पर्यायों के भेद-प्रभेद ही हैं। जैन सिद्धान्त में द्रव्य और पर्याय से अन्य तत्वों की व्यवस्था करने वाली दूसरी नीति नहीं है। 

२. ज्ञान की स्वपरप्रकाशकता :

तत्तवार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने ज्ञान के पांच भेद किये हैं – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परमार्थत: परोक्ष तथा अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष माना गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का साहचर्य है। जहाँ मतिज्ञान है वहाँ, श्रुतज्ञान है तथा जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ मतिज्ञान है। इन पाँच ज्ञानों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान सम्यक भी होते हैं और मिथ्या भी। अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है जबकि इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष होते हुए भी सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष माना गया है। नैयायिकों का कथन है कि एक ज्ञान अन्य ज्ञान से जानने योग्य है, क्योंकि स्व के द्वारा स्व का ज्ञान नहीं हो सकता है। ज्ञान प्रमेय है और जो प्रमेय होता है वह घटादि के समान अन्य ज्ञान के द्वारा ही जाना जाता है। श्री विद्यानन्द आचार्य नैयायिकों की इस मान्यता का खण्डन करते हुये कहते हैं कि यदि एक ज्ञान का दूसरे ज्ञान से संवेदन माना जायेगा तो दूसरे ज्ञान का संवेदन तीसरे ज्ञान से मानना पड़ेगा और इस प्रकार सभी संवेदन ज्ञानों की आकांक्षा बढ़ते जाने से अनवस्था दोष आ जायेगा जो मूल का ही विनाश करने वाला होता है। अत: ज्ञान को स्वपर प्रकाशक मानना ही समीचीन है। ज्ञान स्व और पर दोनों को जानता है।वही, भाग ३, पृ. ३३ 

३. प्रमाणसमीक्षा :

महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र में प्रमाण सामान्य का कोई लक्षण नहीं किया है। उन्होंने प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान चार भेद करके उनके पृथक-पृथक लक्षण किये हैं। भाष्यकार वात्स्यायन का कहना है कि उपलब्धि अर्थात् प्रमा के साधन को प्रमाण कहते हैं। यह बात निर्वचन की सामथ्र्य से समझ लेना चाहिए, क्योंकि जिसके द्वारा प्रमा की जाती है, वह प्रमाण है। भावार्थ यह है कि प्र + मा धातु के करण अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करने पर प्रमाण शब्द निष्पन्न होता है। फलितार्थ यही है कि प्रमा के कारण को प्रमाण कहते हैं।‘उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि समाख्यशनिर्वचनसामथ्र्यात् बोद्धव्यम् । प्रमीयतेभानेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्द:।’ न्यायभाष्य, १.१.३ श्री केशव मिश्र ने तर्कभाषा में ‘प्रमाकरणं प्रमाणम्’तर्कभाषा, पृ. ११-१२ कहकर वात्स्यायन का ही अनुसरण किया है। नैयायिक अपूर्व अर्थ के ग्राहक को प्रमाण मानते हैं। श्री आचार्य विद्यानन्द का कहना है कि जो स्व और पदार्थ का ज्ञान कराता है, वह प्रमाण है- ‘तत्स्वर्थाव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता।तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग ३ पृ. ६६ प्रमाण के इस लक्षण से सब प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं। अत: अपूर्व अर्थ का ग्राहकपन कहना व्यर्थ है। वे कहते हैं –

‘गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।।’

वही, भाग-३.७१, पृ. ६६

अर्थात् जो ज्ञान ग्रहण किये जा चुके अथवा ग्रहण नहीं किये गये किसी भी प्रकार के स्व एवं पर पदार्थ को निश्चय करता है, तो वह ज्ञान लोक में और शास्त्रों में भी प्रमाणपने को नहीं छोड़ता है, अर्थात् वह उभयत्र प्रमाण है। गृहीतग्राहिता किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है। 

४. प्रमाणों की संख्या :

नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द (आगम) ये चार प्रमाण मानते हैं।‘प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि।’ न्यायसूत्र १.१.३ वे कहते हैं कि प्रमाण चार ही हैं, न तो इससे कम हैं और न इससे अधिक। इस सन्दर्भ में श्री विद्यानन्द आचार्य का कहना है कि नैयायिकों का ऐसा कहना समीचीन नहीं है, क्योंकि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क भी विशिष्ट अर्थों के ज्ञान कराने में समर्थ है। अत: उनका प्रमाणपना भी सिद्ध है। नैयायिको के द्वारा मान्य उपमान में तो स्मृति का अन्तर्भाव हो नहीं सकता है, क्योंकि उपमान की सामग्री सादृश्य के आधार पर गृहीत होती है। कहा भी गया है- ‘अतिदेशवाक्यार्थस्मरणसहकृतं गोसादृश्यविशिष्टfपण्डज्ञानमुपमानम्।’तर्कभाषा, पृ. ११९ अर्थात् जैसी गाय वैसी ही नीलगाय इस प्रकार के अतिदेश वाक्य के स्मरण करने के साथ गौ की समानता से युक्त पिण्ड का ज्ञान ही उपमान प्रमाण है। ऐसे उपमान प्रमाण में स्मृति आदि का अन्तर्भाव होना सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा भी है- ‘न ह्युपमानेऽर्थाऽपत्त्यामभावे वा स्मृत्यादयोऽन्तर्भावयितुं शक्या: सादृश्यादिसामग्रयनपेक्षत्वात् उपमानार्थपत्तिरूपत्वेऽनवस्था प्रसंगात् ।’तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग ३ पृ. १०० जैन प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण मानते हैं तथा परोक्ष में अनुमान आदि सभी का अन्तर्भाव स्वीकार कर लेते हैं। 

५. प्रमाण्यवाद :

प्रमाण का भाव प्रमाणत्व, प्रमाणता या प्रामाण्य कहलाता है। प्रामाण्य का अर्थ है ज्ञान की यथार्थता या सम्यक्पना। न्याय दर्शन में ‘ज्ञानस्य यथार्थलक्षणं प्रमाण्यम्’तर्कभाषा, पृ. १५५ कहकर ज्ञान की यथार्थता को ही उसका प्रामाण्य माना है। प्रामाण्य और अप्रामाण्य विषयक वाद या विचार को प्रमाणशास्त्र में प्रामाण्यवाद कहा जाता है। ज्ञानों के प्रामाण्य पर विचार इस बात पर निर्भर करता है कि जिस कारण सामग्री से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी से ज्ञान का प्रामाण्य या अप्रामाण्य उत्पनन होता है या फिर प्रामाण्य या अप्रामाण्य की ग्राहक सामग्री पृथक है। यदि ज्ञानग्राहक सामग्री एवं प्रामाण्य/अप्रामाण्य की ग्राहक सामग्री एक ही प्रमाण है तो इसे स्वत: प्रामाण्य कहा जाता है तथा यदि ज्ञान की गा्रहक सामग्री जो प्रमाण है, प्रामाण्य/अप्रामाण्य की ग्राहक सामग्री उससे भिन्न प्रमाण है तो परत: प्रामाण्य माना जाता है। नैयायिकों के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों का ग्रहण परत: ही होता है। उनके अनुसार जिस कारण सामग्री के द्वारा ज्ञान का ग्रहण होता है, उससे भिन्न सामग्री के द्वारा ज्ञान के प्रामाण्य या अप्रामाण्य का ग्रहण होता है। जैन दार्शनिकों की मान्यता इस विषय में नैयायिकों से भिन्न है। जैन उत्पत्ति की दशा में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को स्वत: तथा ज्ञप्ति की दशा में दोनों को परत: मानते हैं।प्रमाणमीमांसा, १.१.८ अभिप्राय यह है कि परिचित नदी, सरोवर आदि के जल की गहराई का ज्ञान अपने आप हो जाता है अत: प्रामाण्य स्वत: होता है किन्तु देशान्तर में जल की गहराई के ज्ञान में परोपदेश आदि अन्य ज्ञापकों की आवश्यकता पड़ती है, अत: प्रामाण्य परत: होता है। अप्रामाण्य के विषय में भी ऐसी ही स्थिति रहती है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में निर्वहण करते हुए कहा गया है –

‘तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चित: स्वत एव न:। अनभ्यासे तु परत इत्याहु: केचिद्ञ्जसा ।।

तच्च स्याद्ववादिनामेव स्थार्थनिश्चयात् स्थितम् । न तु स्वनिश्चयोन्मुक्तनि:शेषज्ञानवादिनाम् ।।’

तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग-३.१२६-१२७ पृ. ७८

अर्थात् अभ्यास दशा में स्वत: प्रमाण का निश्चय हो जाता है, किन्तु अनभ्यास दशा में अन्य कारणों से प्रमाणपना जाना जाता है। यह स्वीकार करना भी स्याद्वादियों के सिद्धान्त के अनुसार ही घटित होता है। क्योंकि उन्होंने स्व और अर्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान में प्रमाणपना व्यवस्थित किया है। अपना निश्चय न करने वाले अस्वसंवेदियों के ऐसी व्यवस्था बनना सम्भव नहीं है। 

६. संयोग और समवाय सम्बन्ध :

न्याय दर्शन में कहा गया है कि न्यूनातिन्यून दो पदार्थों में सम्बन्ध होता है। सम्बन्ध दोनों सम्बन्धियों से भिन्न होता है, वह दोनों के आश्रित रहता है तथा एक होता है। श्री केशव मिश्र का कथन है – ‘सम्बन्धो हि सम्बन्धिभ्यां भिन्नो भवत्युभयसम्बन्ध्या श्रितश्चैकश्च।’तर्कभाषा पृ. १४६ (अभावप्रमाणनिरसनप्रकरण) सम्बन्ध के दो भेद हैं- संयोग और समवाय। दो अयुतसिद्ध वस्तुओं का सम्बन्ध समवाय कहलाता है और अन्य पदार्थों का सम्बन्ध संयोग कहलाता है। अयुतसिद्ध को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि जिन दो पदार्थों में से एक अविनाश की अवस्था में दूसरे पर आश्रित रहता है उसे अयुतसिद्ध कहते हैं। अवयव-अवयवी, गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान्, जाति-व्यक्ति, विशेष-नित्य द्रव्य अयुतसिद्ध के उदाहरण हैं। नैयायिकों के अनुसार विनाश से तात्पर्य विनाश के कारणो की सामग्री का उपस्थिति हो जाना है।द्र. वही, पृ. २६-२९ नैयायिक गुण और गुणी में तादात्म्य न मानकर समवाय सम्बन्ध मानते हैं। उनका कहना है कि गुण और गुणी की समान काल में उत्पत्ति नहीं होती है। पहले द्रव्य निर्गुण ही उत्पन्न होता है, बाद में उसमें समवाय सम्बन्ध से रहने वाले गुण उत्पन्न हो जाते हैं। कहा गया है – ‘न गुणगुणिनो: समकालीनं जन्म किन्तु द्रव्यं निर्गुणमेव प्रथमपुत्पद्यते पश्चात् तत्समवेता गुणा उत्पद्यन्ते।’वही, पृ. ३५ यद्यपि वे ‘गुणाश्रयो द्रव्यम’ कहकर द्रव्य का लक्षण गुणाश्रय करते हैं किन्तु यह बड़ी समस्या है कि एक क्षण जब द्रव्य में गुण रहता ही नहीं है तो उस समय वह द्रव्य कैसे कहा जा सकेगा? श्री विद्यानन्द आचार्य का कथन है कि जब शक्ति और शक्तिवान् को आप अलग-अलग मानते हो तो शक्ति न रहने की अवस्था में शक्तिमान् की सत्ता ही कैसे सम्भव है। अर्थ ग्रहण करने की शक्ति यदि आत्मा से सर्वथा पृथक है तो उस शक्ति को आत्मा की कैसे कहा जा सकता है ? यदि कहा जाये कि सम्बन्ध से आत्मा की कहलाती है तो प्रश्न उपस्थित होगा कि उनका सम्बन्ध कौनसा है ? संयोग सम्बन्ध तो आप मानोगे नहीं, समवाय ही मानना पड़ेगा। समवाय भी जब पदार्थ से पृथक है तो फिर उनके सम्बन्ध बनाने के लिए सम्बन्धान्तर मानना होगा और इस प्रकार तो अनवस्था दोष उपस्थित हो जायेगा। यदि आप अनवस्था दोष से बचना चाहते हैं तो आपको शक्ति और शक्तिमान् में एकत्व मानना ही पड़ेगा।,ref>तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार भाग – १, १.१.१३-१५ पृ. २८३-२८४ वस्तुत: नैयायिकों का समवाय सम्बन्ध भी संयोग जैसा ही प्रतीत होता है। नैयायिक ज्ञान के समवाय सम्बन्ध से ईश्वर को चेतन मानते हैं। श्री विद्यानन्द आचार्य का कहना है कि –

‘ज्ञानाश्रयतवतो वेधा नित्यं ज्ञो यदि कथ्यते । तदेव किं कृतं तस्य ततो भेदेपि तत्त्वत: ।।’

वही भाग १.६९, पृ. ९४

अर्थात् यदि नैयायिकों के अनुसार सृष्टि की रचना करने वाला ईश्वर अनादिकाल से ज्ञान का आश्रय होने से नित्य ज्ञाता कहा जाता है तो वास्तव में उस ज्ञान से सर्वथा भिन्न होने पर भी उस ईश्वर के नित्य ज्ञातापना कैसे सिद्ध हो सकता है ? यदि ज्ञान से ईश्वर का भिन्न प्रकार का सम्बन्ध मानोगे तो समवाय भी अनेक प्रकार का सिद्ध होता है।वही भाग १, पृ. ९६ ऐसा मानना आपको भी स्वीकार नहीं होगा। 

७. सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय-मन सापेक्ष :

सर्वज्ञ इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना एक समय में सर्व पदार्थों को जानता है- जैन इस प्रकार अनुमान प्रमाण से सिद्ध करते हैं। नैयायिकों की शंका है कि यदि एक समय में अनेक पदार्थों को जानने के कारण यदि सर्वज्ञ के ज्ञान को इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना कहा जायेगा तो एक समय में पूड़ी-कचौड़ी आदि के भक्षण समय होने वाला रूप रस आदि पांचों का ज्ञान भी इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से रहित ही सिद्ध होगा। ऐसा कहना प्रतीति विरुद्ध है। अत: सर्वज्ञ का ज्ञान भी इन्द्रिय-मन सापेक्ष मानना चाहिए। श्री आचार्य विद्यानन्द जी का कहना है कि रूप, रस आदि पांचों को एक साथ विषय करने वाला हेतु पक्ष में रहता ही नहीं है। अत: आपके कथन में असिद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि जैन दर्शन में एकान्तत: पूड़ी आदि के भक्षण करते समय रूप आदि पांचों का ज्ञान एक ही समय में सिद्ध नहीं है। जैन एक आत्मा में उपयोगात्मक ज्ञान क्रमश: ही स्वीकार करते हैं। अर्थात् उपयोग में एक समय में एक ही ज्ञान रहता है तथा इन्द्रियाँ भी एक समय में एक ही विषय को ग्रहण करती हैं। पांचों इन्द्रियाँ एक साथ विषयों में प्रवृत्ति नहीं कर सकती हैं। परन्तु उपयोग रहित रूपादि पांचों ज्ञान अनेक व्यक्तियों में एक साथ रह सकते हैं – इसमें अनेकान्त है। उपयोग रहित ज्ञानों का शक्ति रूप से युगपत् हो जाना बाधित नहीं है।वही भाग १, पृ. ५९ सर्वज्ञ का ज्ञान वैसा नहीं है। वह सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट सभी पदार्थों की सभी पर्यायों को एक साथ जानता है। अत: वह इन्द्रिय-मन सापेक्ष नहीं है, जबकि हमारा सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष लौकिक पदार्थ की एक पर्याय को ही एक बार में विषय बनाता है, अत: वह इन्द्रिय-मन सापेक्ष है।द्र. लघीयस्त्रय, श्लोक-४ की स्ववृत्ति (तत्र सांव्यावाहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम्) 

८. चक्षु का अप्राप्यकारित्व :

स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ पदार्थों से सम्बद्ध होकर उन्हें जानती हैं। कर्णेन्द्रिय शब्द से स्पृष्ट होने पर उसे सुनती है। इस प्रकार ये चारों इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं, जबकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं। ये दोनों पदार्थ को प्राप्त किये बिना ही उसका ज्ञान कर लेते हैं। जैनदर्शन की ऐसी मान्यता है। नैयायिकों का कहना है कि चक्षु का भी पदार्थ से सन्निकर्ष होता है, अत: चक्षु भी प्राप्यकारी है। वे कहते हैं कि चक्षु की किरणें निकलकर पदार्थ से सम्बन्ध करके ही उसे जानती हैं। चक्षु केवल रूप को ही अपना विषय बनाती है, अत: वह दीपक की तरह तैजस पदार्थ है। मन व्यापक आत्मा से सम्बद्ध होकर जगत् के पदार्थों को संयुक्तसंयोग रूप से जानता है और सुखादि को संयुक्तसमवाय रूप से जानता है। इस प्रकार चक्षु और मन दोनों प्राप्यकारी हैं।द्र.-तत्तवार्थवार्तिका पृ. ६८ जैन दर्शन के अनुसार चक्षु इन्द्रिय का पदार्थ के साथ सन्निकर्ष सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि चक्षु स्वयं के काजल को नहीं देख पाती है। यह आवश्यक नहीं है कि कारण पदार्थ से संयुक्त होकर ही अपना काम करे। चुम्बक दूर से ही लोहे को खींच लेता है। चक्षु काँच, स्फटिक आदि से व्यवहित पदार्थों को भी देख लेती है, जबकि स्पर्शनादि प्राप्यकारी इन्द्रियाँ उनके स्पर्श आदि को नहीं जान सकती हैं। श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं –
‘अप्राप्तकारिणी चक्षुर्मनसी कुरुत: पुन: । व्यक्तामर्थपरिच्छित्तिमप्राप्तेरविशेषत: ।।
यथायस्कान्तपाषाण: शल्याकृतिं स्वशक्तित: । करोत्यप्राप्तकारीति व्यक्तिमेव शरीरत: ।’
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार भाग ३, ६-७ पृ. ३३१
अर्थात् चक्षु और मन ये दो इन्द्रियाँ व्यक्त पदार्थ ज्ञान करती हैं, क्योंकि दोनों की अप्राप्यकारिता में कोई अन्तर नहीं है। जैसे दूर से लोहे को खींचने वाला चुम्बक अपनी शक्ति से ही बाणादि को खींच लेता है, उसी प्रकार चक्षु और मन की भी दशा है।
‘तत्राप्राप्तिपरिच्छेदि चक्षु: स्पृष्टानवग्रहात् । अन्यथा तदसंभूतेघ्राणादेरिव सर्वथा ।।’ वही, भाग ३.११ पृ. ३३३
अर्थात् चक्षु इन्द्रिय स्पर्श करके अवग्रह नहीं कर सकती। जो इन्द्रियाँ स्पर्श करके अवग्रह करती हैं, वे इन्द्रियाँ प्राप्त करके ही अर्थ का ज्ञान कराती हैं। परन्तु चक्षु छुए बिना ही पदार्थ का अवग्रह करा देती है। अत: चक्षु अप्राप्यकारी है।
‘काचाद्यन्तरितार्थानां ग्रहणं चक्षुष: स्थितम् । अप्राप्यकारितालिंगं परपक्षस्य बाधकम् ।।’ वही, भाग ३.६७ पृ. ३५२
अर्थात् काच, स्फटिक आदि से युक्त पदार्थों का चक्षु से ग्रहण सिद्ध है। यही चक्षु की अप्राप्यकारिता का ज्ञापक है और पर पक्ष का बाधक है। उक्त प्रकार से चक्षु की अप्राप्यकारिका को सिद्ध किया गया है। 

९. हेत्वाभास :

असद् हेतु को हेत्वाभास कहते हैं। वस्तुत: वह हेतु नहीं होता है, हाँ, हेतु के समान प्रतीत अवश्य होता है। नैयायिकों के अनुसार हेत्वाभास के पांच भेद हैं – १ असिद्ध २. विरुद्ध ३. अनैकान्तिक ४. प्रकरणसम और ५. कालात्यापदिष्टा इनमें असिद्ध के तीन भेद है आश्रयासिद्ध, स्वरूपासिद्ध और ख्याप्यत्वासिद्ध।द्र. तर्कभाषा, हेत्वाभास प्रकरण पृ. १०९-११८ कहीं-कहीं इसका तीसरा भेद अनुपसंहारी भी किया गया है। सपक्ष एवं विपक्ष दोनों में नही रहने वाले हेतु को असाधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। केवलान्वयी दृष्टान्त वाले हेतु को अनुपसंहारी हेत्वाभास कहा जाता है। जैन दार्शनिकों को असाधारण हेत्वाभास स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि साध्य के अभाव में निश्चित रूप से अनुपद्यमान और केवल पक्ष में रहने वाले हेतु में सपक्ष तो होता ही नहीं है अत: उसमें न रहने वाले असंदिग्ध हेतु को हेत्वाभास कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि ऐसे हेतु में किसी प्रकार का संशय तो है ही नहीं।तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार भाग १ पृ. ५१ अत: असाधारण नामक अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं माना जा सकता है। विपक्ष में हेतु का नहीं रहना तो अच्छा है किन्तु यदि हेतु सपक्ष में नहीं रहता हो तो कोई हानि नहीं है। अन्वय दृष्टान्त के बिना भी सद्हेतु होते हैं। यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती नव्य नैयायिकों ने असाधारण अनैकान्तिक हेत्वाभास नही माना है। सम्पूर्ण वस्तुओं को परिणामीपन को साध्य करने पर दिये गये प्रमेयत्व, सत्त्व आदि हेतु भी कोई अनुपसंहारी हेत्वाभास नहीं कहे जा सकते हैं। क्योंकि साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध हो जाना ही सद्हेतु का प्राण है।वही भाग ४, पृ. ८४ अत: नैयायिकों द्वारा किया गया अनैकान्तिक हेत्वाभास का स्वरूपवर्णन ठीक नहीं है। नैयायिक उपाधि के सद्भाव में व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास मानते हैं। इसी आधार पर वे ‘क्रन्त्वन्तर्वर्तिनी हिंसा अधर्मसाध्नम्, हिंसात्वात् क्रतुबाह्यहिंसावत्’तर्कभाषा, पृ. ११३-११४, यज्ञ में होने वाली हिंसा अधर्म का साधन है, यज्ञबाह्य हिंसा के समानद्ध कथन को ठीक नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि हिंसा के साथ अधर्मसाधनता में वेदनिषिद्ध होना आवश्यक है। चूूंकि यज्ञीय हिंसा वेद विहित है, इसीलिए वह अधर्म का साधन नहीं है। श्री आचार्य विद्यानन्द जी का कहना है कि नैयायिकों का उक्त कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी प्रमाण से हिंसा के धर्मसाधनत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। हिंसा का कार्य चाहे यज्ञ में हो या यज्ञबाह्य वह पापमय ही है और दोषयुक्त है। फलत: नैयायिकों द्वारा उपाधि सद्भाव वाला व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास मानना अतार्किक तथा प्रत्यक्षबाधित है। जैनाचार्यों द्वारा यज्ञीय हिंसा के निषध में हिंसाहेतुत्व असिद्ध नहीं है। फलत: यज्ञीन पशुवध स्वर्ग का साधन नहीं हो सकता।तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, पृ. ६४-६६ (भाग १) 

१०. शब्दनित्यवादनिरसन :

नैयायिकों का कथन है कि शब्द आकाश का गुण है। वह गुणी आकाश के साथ समवाय सम्बन्ध से रहता है, क्योंकि गुण और गुणी में समवाय सम्बन्ध होता है।‘…शब्दस्य चाकाशगुणत्वात् गुणगुणिनोश्च समवायात्’ -तर्कभाषा पृ. १७ नैयायिक शब्द को नित्य मानते हैं। उनका कहना है कि शब्द वक्ता के व्यापार सें उत्पन्न नहीं है, अपितु पूर्व में ही स्वत: विद्यमान शब्द वक्ता के द्वारा व्यक्त किये जाते हैं। शब्द में वक्ता के तालु, कण्ठ आदि के व्यापार की अपेक्षा नहीं है। शब्द की नित्यता का निरसन करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य का कहना है कि वक्ता के व्यापार से रहित शब्द की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है। क्योंकि शब्द को सर्वथा अपरिणामी कूटस्थ नित्य मानने में शब्द की अभिव्यक्ति में विरोध आता है। कूटस्थ अपरिणामी का परिणमन नहीं हो सकता है। यदि अभिव्यक्ति का अर्थ शब्द से अभिन्न संस्कार प्रणेता के व्यापार से उत्पन्न होना है तो शब्द कूटस्थ नित्य कैसे हो सकता है ? यदि संस्कार रूप शब्दों की अभिव्यक्ति शब्द से भिन्न है जैसे वक्ता के व्यापार से अभिव्यक्त सस्कार के पूर्व शब्द के श्रवणगोचर नहीं होते थे, वैसे सर्वकाल में उन शब्दों के श्रवणगोचर न होने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। यदि आप कहो कि वक्ता के व्यापार से होने वाले संस्कार शब्द से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं तो फिर आगम भी पद, वाक्य आदि की अपेक्षा कथंचित् पुरुषकृत सिद्ध हो जायेगा और इससे तो जैन सिद्धान्त की ही सिद्धि होगी। वास्तव में पुरुष के कण्ठ, तालु आदि से उच्चारण के पूर्व शब्द के सद्भाव में प्रमाण का अभाव है। अत: शब्द को वूâटस्थ नित्य मानना युक्तिसंगत नहीं है। नैयायिकों का यह कहना भी ठीक नही है कि नित्य द्रव्य और अमूर्तिक होने से शब्द सर्वगत है, क्योंकि जीव द्रव्य के साथ इस हेतु में व्यभिचार दोष आता है। अमूर्तिक और नित्य द्रव्य होने पर भी जीव सर्वगत नहीं है। आत्मा का व्यापकत्व प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से बाधित है। श्री आचार्य विद्यानन्द जी कहते हैं कि शब्द परिणामी, पौद्गलिक और क्रियावान् है। शब्द परिणामी है, क्योंकि परिणामी होने के बिना शब्द में वस्तुपना सिद्ध नहीं हो सकता है। चूंकि शब्द छाया, आतप आदि की तरह पुदगल की पर्याय है, अत: वह पौद्गलिक है। पर्यायात्मक होने से शब्द एकान्तत: द्रव्य नहीं है, किन्तु बाणादि के समान क्रियावान् होने से कथंचित् द्रव्य भी है, क्योंकि शब्द उच्चारण करने के बाद बाण के समान देशान्तर में गमन भी करता है।द्रष्टव्य-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिालंकार भाग १, पृ. २०-२९ शब्द कथंचित् पुदगल द्रव्य है, कथंचित् पुद्गल की पर्याय है। जो अल्पदेश में रहने वाले गुण कर्म आदि विशेष वाला होकर इन्द्रियों का विषय बनता है, वह मूर्त द्रव्य की पर्याय होता है। अत: नैयायिक मान्य शब्द को आकाश का अमूत्र्त गुण एवं नित्य मानना युक्तियुक्त नहीं है। 

११. आत्मस्वरूपविचार :

न्याय दर्शन के अनुसार बारह प्रमेयों में आत्मा प्रथम प्रमेय है। आत्मा का विवेचन करते हुये कहा गया है-
‘तत्रात्मत्वसामान्यवानात्मा। स च देहेन्द्रियादिव्यतिरिक्त: प्रतिशरीरं भिन्नो विभुर्नित्यश्च। तर्कभाषा पृ. १७४
अर्थात् आत्मत्व जाति जिसमें रहती है, वह आत्मा है। वह देह एवं इन्द्रियों से भिन्न है, प्रत्येक शरीर में पृथक-पृथक है, विभु तथा नित्य है। आत्मा को नैयायिक चैतन्य के संबन्ध से चेतन मानते हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि चैतन्य गुण के संबन्ध से आत्मा को चेतन स्वीकारेंगे तो अचेतन आत्मा में उपदेश, श्रवण की योग्यता की संगति कैसे बैठेगी तथा जब चैतन्य के संयोग से शरीर चेतन नहीं होता है तो परमार्थत: आत्मा कैसे चेतन कहलायेगी ?तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार भाग १ पृ. ३७ वास्तव में जैन दर्शन के अनुसार चैतन्य और आत्मा में तादात्म्य है, उनमें संयोग या समवाय सम्बन्ध नहीं है। श्री विद्यानन्द आचार्य का कथन है कि आत्मा सर्वथा नित्य नहीं है, अपितु परिणामी है। विभु भी नहीं है वह स्वदेहपरिणाम वाला है। वह प्रदीप प्रभा के समान संकोच-विस्तार वाला है। छोटे शरीर में छोटा तथा बड़े शरीर में बड़ा हो जाता है। 

१२. मोक्षस्वरूपमीमांसा :

दु;ख की अत्यन्त निवृत् का नाम मोक्ष है। महर्षि गौतम ने कहा है – ‘तदत्यन्तविमोक्षोपवर्ग:।न्यायसूत्र १.१.२२ नैयायिकों के अनुसार मात्र मिथ्याज्ञान संसार का कारण है। अत: वे तत्त्वज्ञान या सम्यग्ज्ञान को मुक्ति का कारण मानते हैं। उनका कहना है कि तत्त्वज्ञान के द्वारा बुद्धि आदि विशेष गुणों का क्षय हो जाने से आकाश के समान आत्मा की अचेतन अवस्था रह जाती है, यही मुक्ति है। जैन दर्शन में केवल तत्त्वज्ञान (सम्यग्ज्ञान) को मुक्ति का कारण स्वीकार न करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की एकता को मुक्ति का साधन माना गया है। मोक्ष के स्वरूप का कथन करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य ने कहा है –
‘नि:शेषकर्मनिर्मोक्ष: स्वात्मलाभोभिधीयते । मोक्षो जीवस्य नाभावो न गुणाभावमात्रकम् ।।
तत्त्वार्थवार्तिकालंकार भाग १ पृ. २७७
अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों का नाश और स्वात्मलाभ मोक्ष कहलाता है। जीव का अभाव तथा जीव के विशिष्ट गुणों का नाश मोक्ष नहीं है। ध्यातव्य है कि बुद्धि, सुख-दु;ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म-अधर्म और संस्कार इन विशेष गुणों के अभाव तथा सत्त्व, रजस् एवं तमस् गुणत्रय के अभाव रूप मोक्ष मानना समीचीन नहीं है। वस्तुत: स्वरूप के लाभ से मोक्ष की उपपत्ति होती है, न कि स्वरूप के नाश से। मोक्ष होने पर आत्मा में अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि आत्मस्वरूप की स्थिति रहती है, उनका कभी भी नाश नहीं होता है। उपर्युक्त विवेचन तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय पर प्रणीत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के आधार पर किया गया है, जिसमें सयुक्तिक नैयायिक मत की कतिपय मान्यताओं का निरसन है।
डॉ० जयकुमार जैन संस्कृत विभागाध्यक्ष,
एस.डी. काूलेज, मुजपफरनगर (उ.प्र.) अनेकान्त जन०-मार्च २०१२ 
Tags: Anekant Patrika
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