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34. तीर्थों के विकास की आवश्यकता

September 19, 2017BooksHarsh Jain

तीर्थों के विकास की आवश्यकता


द्वारा- गणिनी ज्ञानमती माताजी

वैदिक संस्कृति में संगम को अर्थात् नदियों को तीर्थ मानकर उनमें स्नान करने को पाप प्रक्षालित करने का एक माध्यम माना गया है, पर जैन संस्कृति के अनुसार तीर्थंकर भगवंतों की कल्याणक भूमियों को तीर्थ मानकर उनकी वंदना-पूजा-अर्चना करने से निश्चित ही पापो का क्षालन हो जाता है। वर्तमान तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ तो अधिकांशतः नगरों में ही हैं, पर निर्वाणभूमियाँ पहाड़ों पर हैं। नदियों में स्नान करने के स्थान पर जिनेन्द्र भगवान की भक्तिरूपी गंगा में अवगाहन करने से समस्त पापकर्मों का धुलना हमारे महान आचार्यों ने वर्णित किया है। प्रयाग में सन् २००१ में विशाल महाकुंभ का आयोजन हुआ था, मैं उस समय प्रयाग में ही थी। वहाँ के विशिष्ट कार्यकर्ता विशेष निवेदन करके मुझे वहाँ ले गये। माघ वदी अमावस्या (२४ जनवरी) को उनका मुख्य स्नान था और माघ वदी चतुर्दशी (२३ जनवरी) को आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव का निर्वाणकल्याणक था, तब मैंने प्रेरणा दी कि भगवान ऋषभदेव के नाम से वहाँ पर पाण्डाल बने, पूजन विधान हो, भगवान का मस्तकाभिषेक हो, निर्वाणलाडू चढ़े, तो ही हमारे जाने की सार्थकता है। पुण्योदय से विशाल भीड़ के बीच सारे कार्यक्रम बहुत ही धर्मप्रभावनापूर्वक सम्पन्न हुए, निर्वाण कल्याणक के उपलक्ष्य में वहाँ उपस्थित संतों-महंतों एवं विश्व हिन्दू परिषद-बजरंग दल आदि के सैकड़ों कार्यकर्ताओं द्वारा १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाये गये। वि.हि.प. की नवम् संसद में लगातार २-३ दिन तक लगभग १०,००० संतों-महंतों और लाखों की भीड़ के मध्य उद्बोधन देने के लिए मुझसे प्रार्थना की गयी तब मैंने कहा कि इक्ष्वाकुवंशीय श्रीराम के पूर्वज आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव थे। भगवान ऋषभदेव के इक्ष्वाकु वंश में ही आगे सूर्यवंश में श्रीराम का अयोध्या में जन्म हुआ था, इसलिए अयोध्या की रक्षा मात्र राम जन्मभूमि की ही वरन् ऋषभ जन्मभूमि की भी रक्षा है। महानुभाव! बात ये है कि आपस में सामंजस्य बिठाकर कैसे हम अपने तीर्थों की रक्षा कर लें, यह हम सबको विचार करना है। कई लोग कह देते हैं-नये-नये मंदिर हर जगह बन रहे हैं, इनका कौन प्रक्षाल करेगा, कौन पूजन करेगा, कौन संभाल करेगा तो मैं कई बार कहा करती हूँ कि बालक जब गर्भ में आता है तो माँ के स्तन में दूध नहीं आता पर जब बालक जन्म ले लेता है तभी उसके पुण्य से माता के स्तन में दूध आता है। तो आप तीर्थों पर जितने मंदिर बनवाते जायेंगे, जितनी प्रतिमाएँ विराजमान करते जायेगे, उतने-उतने भक्त पैदा होते चले जायेंगे पूजा-प्रक्षाल-संभाल करने वाले। अयोध्या में १७,५०० मंदिर हैं राम के और आपके कितने हैं-केवल ५ टोंक हैं और २ मंदिर हैं, न जाने कितने दिगम्बर जैनियों को तो ये पता तक नहीं था कि अयोध्या में कोई भगवान ऋषभदेव जन्मभूमि या जैनमंदिर भी है। तो बताइये कैसे हम अपने शाश्वत तीर्थ को भूल रहे हैं ? हमारे दो ही शाश्वत तीर्थ हैं-अयोध्या और सम्मेदशिखर जी। सम्मेदशिखर जी में चोपड़ाकुण्ड पर जब दिगम्बर प्रतिमा को मैंने विराजमान देखा तो पहाड़ के ऊपर ऐसी दिगम्बर जिनप्रतिमाओं को देखकर मुझे जो आंतरिक खुशी हुई और ऐसा कार्य संभव करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए हृदय से जो लाखों-लाखों आशीर्वाद स्वतः निकल पड़े, उसको शब्दों में नहीं बताया जा सकता। आचार्य कहते हैं कि एक खंभे पर कभी जिनालय नहीं टिकता है, उसी प्रकार एक व्यक्ति से न तीर्थ बनते हैं, न समाज बन सकती है, न राष्ट्र बन सकता है और न राज्य की स्थापना हो सकती है, सब मिलकर ही ये कार्य कर सकते हैं क्योंकि किसी में कोई कमी होती है, किसी में कोई कमी होती है। इसलिए कमियों पर दृष्टिपात न करके जिसमें जो गुण हैं और जो कार्य कर रहे हैं, उनको प्रमुखता देनी है, उनको सहयोग करना है। एक घर में दस बालक होेते हैं, आपस में लड़ाई-झगड़ा भी होता है पर किसी बालक को घर से बाहर नहीं निकाल दिया जाता, इसी प्रकार सभी संंस्थाओं के बीच सामंजस्य बिठाकर तीर्थों का विकास करना होगा। तीर्थंकर भगवंतों की जन्मभूमियाँ जैन संस्कृति का उद्गम स्थल हैं भगवान शीतलनाथ की जन्मभूमि में विवाद है, कोई कहता है भद्दिलपुर है, कोई कहता है भद्रकाली है, कोई कोलवा पहाड़ को मानता है तो कोई विदिशा को। भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के बारे में तो इसलिए सोचना नहीं पड़ा क्योंकि इसे तो सदियों से जनता जन्मभूमि के रूप में पूजती ही आ रही थी। प्रश्न तो वैशाली का है जिसे मात्र १९५६ से बसाकर जन्मभूमि के रूप में थोपने का प्रयास किया जा रहा है। मैं तो मात्र भगवान महावीर की वास्तविक जन्मभूमि को बचाने एवं उसका विकास करने के लिए कुण्डलपुर (नालंदा) आई हूँ, न कि किसी नई जन्मभूमि को बनाने के लिए क्योंकि प्राचीनता का संरक्षण करना ही अपना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। जिन तीर्थंकर भगवंतों के अतिशय क्षेत्रों में जाकर एक-दो नहीं हजारों-लाखों दीपक आप लोग जलाते हैं, उन भगवंतों की जन्मभूमियोें के क्या हाल हैं? क्या आपने कभी सोचा है? वहाँ एक भी दीपक जलाने वाला कोई है या नहीं क्या इस पर कभी आपका विचार गया है? भगवान महावीर का महावीर जी अर्थात् चांदनपुर, चन्दाप्रभु भगवान का तिजारा, पद्मप्रभु भगवान की पद्मपुरी आज जगमगा रहे हैं और इन्हीं तीर्थंकरों की जन्मभूमियाँ वीरान पड़ी हैं, शाम को घी का एक दीपक जलाकर आरती करने वाला भी कहीं है तो कहीं नहीं है। ऐसी वीरानियत छाई है-चन्द्रपुरी-भगवान चन्द्रप्रभ की जन्मभूमि, कौशाम्बी-भगवान पद्मप्रभ की जन्मभूमि और कुण्डलपुर-भगवान महावीर की जन्मभूमि में। आप अतिशय क्षेत्रों के पीछे यदि भाग रहे हैं तो आपको यह भी सोचना है कि इन तीर्थकरों ने जन्म कहाँ लिया और उन जन्मभूमियों की दशा क्या है? तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास में भी आपको लगना ही होगा। खैर! सम्मेदशिखर में इतना निर्माण, इतना विकास देखकर मुझे बहुत ही खुशी हुई है और चोपड़ाकुण्ड पर दिगम्बर प्रतिमाओं को विराजमान देखकर तो जो अप्रतिम खुशी हुई है, वह वर्णनातीत है। इस क्षेत्र के सभी कार्यकर्ता दीर्घायु हों, स्वस्थ रहें एवं दत्तचित्त होकर तन-मन-धन से क्षेत्र के विकास में लगे रहें। चोपड़ाकुण्ड में मात्र मुझे ही नहीं कितने-कितने यात्रियों को पहाड़ की वंदना का लाभ प्राप्त हो रहा है। ऐसे तीर्थराज की वंदना का लाभ पुनः-पुनः हम सबको प्राप्त हो, यही मंगल भावना है। आप लोगों को अपने-अपने नगर में प्रतिवर्ष ऋषभजयंती और ऋषभदेव निर्वाण महोत्सव भी अवश्य मनाना है, क्योंकि अपनी संस्कृति की प्राचीनता का दिग्दर्शन कराने हेतु यह बहुत ही आवश्यक है, साथ ही भगवान पार्श्वनाथ के जन्म व निर्वाण कल्याणक भी आपको अवश्य मनाने चाहिए। तीर्थंकर परम्परा की शाश्वत धारा का जनसाधारण को दिग्दर्शन करना धर्मप्रभावना का ही उत्तम प्रकार है। सम्मेदशिखर जी तीर्थराज के विकास में एवं तीर्थ क्षेत्र कमेटी के लिए मुख्यरूप से पूज्य आचार्य श्री आर्यनंदी जी महाराज का जो योगदान रहा है, वह अविस्मरणीय है। वास्तव में साधुजनों की प्रेरणा से ही श्रावकों को सम्यक् दिशानिर्देश प्राप्त होता है और ऐसे-ऐसे निर्माणकार्य हो जाते हैं, जो आने वाले अनेकानेक वर्षों तक भव्यजीवों को धर्मपालन के लिए अवसर प्रदान करते हुए अमर हो जाते हैं।

Tags: Gyanamrat Part-3
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