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दु:खहरण विनती!

March 16, 2014जिनेन्द्र भक्तिjambudweep

दु:खहरण विनती


श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दु:खहरन तुम्हारा बाना है।

मत मेरी बार अबार करो, मोहि देहु विमल कल्याना।।टेक।।

त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो, तुम सों कछु बात न छाना है।

मेरे उर आरत जो वरतैं, निहचै सब सो तुम जाना है।।

अवलोक विथा मत मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है।

जो राजविलोचन सोचविमोचन, मैं तुमसों हित ठाना है।।१।।

सब ग्रंथनि में निरग्रंथनिने, निरधार यही गणधार कही।

जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक ज्ञानमही।।

यह बात हमारे कान परी, अब आन तुमारी सरन गही।

क्यों मेरी बार विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही।।२।।

काहूको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्ग-विमाना है।

काहूको नाग नरेशपती, काहूको ऋद्धि निधाना है।।

अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है।

इन्साफ करो मत देर करो, सुखवृन्द भरो भगवाना है।।३।।

खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों आन पुकारा हे।

तुम ही समरत्थ न न्याय करो, तब बंदेका क्या चारा है।।

खल घालक पालक बालकका, नृपनीति यही जगसारा है।

तुम नीतिनिपुण त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है।।४।।

जबसे तुमसे पहिचान भई, तबसे तुमहीको माना है।

तुमरे ही शासन का स्वामी, हमको शरना सरधाना है।।

जिनको तुमरी शरनागत है, तिनसौं जमराज डराना है।

यह सुजस तुम्हारे साँचेका, सब गावत वेद पुराना है।।५।।

जिसने तुमसे दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दु:ख हाना है।

अघ छोटा मोटा नाशि तुरत, सुख दिया तिन्हें मनमाना है।।

पावकसों शीतल नीर किया, औ चीर बढ़ा असमाना है।

भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुबेर समाना है।।६।।

चिंतामणि पारस कल्पतरु, सुखदायक ये सरधाना है।

तव दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना है।।

तुम भक्तनको सुरइंद्रपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है।

क्या बात कहों विस्तार बड़ी, वे पावैं मुक्ति ठिकाना है।।७।।

गति चार चुरासी लाखविषैं, चिन्मूरत मेरा भटका है।

हो दीनबंधु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है।।

जब जोग मिला शिवसाधन का, तब विघन कर्म ने हटका है।

तुम विघन हमारे दूर करो सुख देहु निराकुल घटका है।।८।।

गज-ग्राह-ग्रसित उद्धार किया, ज्यों अंजन तस्कर तारा है।

ज्यों सागर गोपदरूप किया, मैना का संकट टारा है।।

ज्यों सूलीतें सिंहासन औ, बेड़ी को काट बिडारा है।

त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकूँ आस तुम्हारा है।।९।।

ज्यों फाटक टेकत पांय खुला, औ सांप सुमन कर डारा है।

ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, बालक का जहर उतारा है।।

ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लक्ष्मीसुख विस्तारा है।

त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकूँ आस तुम्हारा है।।१०।।

यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है।

चिनमूरति आप अनंतगुनी, नित शुद्धदशा शिवथाना है।।

तद्यपि भक्तनकी भीर हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है।

यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का, क्या पावै पार सयाना है।।११।।

दु:खखंडन श्रीसुखमंडनका, तुमरा प्रन परम प्रमाना है।

वरदान दया जस कीरत का, तिहुँलोकधुजा फहराना है।।

कमलाधरजी! कमलाकरजी! करिये कमला अमलाना है।

अब मेरि विथा अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है।।१२।।

हो दीनानाथ अनाथहितू, जन दीन अनाथ पुकारी है।

उदयागत कर्मविपाक हलाहल, मोह विथा विस्तारी है।।

ज्यों आप और भवि जीवनकी, ततकाल विथा निरवारी है।

त्यों ‘वृंदावन’ यह अर्ज करै, प्रभु आज हमारी बारी है।।१३।।

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