Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

ध्यान साधना : एक अध्ययन!

March 26, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

ध्यान साधना : एक अध्ययन


समीक्षक—डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद’

(पूर्व अध्यक्ष-तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत महासंघ)’

ध्यान साधना वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का १९५ वाँ पुष्प है। जिसका प्रकाशन १७ जुलाई सन् २०००, वीरशासन जयंती के अवसर पर श्री दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा किया गया। संघस्थ ब्र. कु. सारिका जैन ने अपनी प्रस्तावना में सच ही लिखा है कि शारीरिक सौंदर्य के साथ आत्मिक सौन्दर्य को निखारने के लिए यह ध्यान परम औषधि है या इस संसार से पार होने के लिए सहकारी कारण है। यद्यपि ध्यान पर अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं, लेकिन आर्यिका चंदनामती जी ने अति सरल भाषा में उसे प्रस्तुत कर एक परम उपकारी काम किया है। जैन वाङ्गमय में आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्राचार्य आदि ने ध्यान पर अनेक ग्रंथों की रचना की है। लेकिन उन्हीं सब तथ्यों को आधार बनाकर इस लघु पुस्तिका के अंदर गागर में सागर भरने का प्रयत्न किया गया है। जैन दर्शन में आंतरिक तप के अन्तर्गत ध्यान की बड़ी महत्ता है। सच तो यह है कि तप का उत्कृष्ट स्वरूप ही ध्यान है, जो कर्मों की निर्जरा में सहयोगी होता है और वही मोक्ष के द्वार तक ले जाने वाला होता है। सामान्य रूप से ध्यान अर्थात् किसी भी कार्य को एकाग्रचित्त होकर अन्य सभी बाह्य पदार्थों से चित्त को मोड़ कर आत्मा के साथ जोड़ना ही ध्यान है। इनका उत्तम समय कम से कम ४८ मिनट माना गया है। आचार्यों ने ध्यान के चार प्रकार प्रस्तुत किये हैं। जिनमें आर्त और रौद्रध्यान कुध्यान हैं, जो नरकगति, पशुगति, नीचगति में ले जाने वाले हैं। जबकि उत्तम ध्यान में धर्मध्यान और शुक्लध्यान कहे गये हैं। ऐसा कहते हैं कि वर्तमान में शुक्लध्यान कठिन है। लेकिन धर्मध्यान आज सुलभ है। लोगों की ऐसी मान्यता है कि ध्यान आदि तो मुनियों का ही कार्य है, परन्तु ऐसा नहीं है। गृहस्थजन भी ध्यान कर सकते हैं। यद्यपि आचार्य शुभचन्द्राचार्य इसे नकारते हैं परन्तु यह सिद्ध है कि गृहस्थाश्रम में ध्यान का अभ्यास और भावना दृढ़बनाते हैं जिससे वैराग्य भावना प्रबल बनती है और वही आगे धर्मध्यान में लीन बनाती है। गृहस्थ के लिए िंपडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकार के धर्मध्यानों का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए यही उसके लिए शुभ है। ध्यान जैसा कि ऊपर कहा है कि चित्त की एकाग्रता का मार्ग है परन्तु उसके लिए अनिवार्य है कि कहाँ बैठकर ध्यान किया जाए। इसके लिए परम एकांत स्थान जैसे मंदिर का एकान्त स्थान, किसी पार्क में, नदी किनारे या श्मशान भूमि पर शुद्ध आसन पर बैठकर ध्यान किया जा सकता है। ध्यान करते समय मुख पूर्व दिशा की ओर हो, ताकि सूर्य की तेजस्वी किरणें मन और मस्तिष्क में ऊर्जा प्रदान करें और तेजस्विता के साथ स्वास्थ्य लाभ भी करावें। जिससे जीवन में नवसंचार होता है। आचार्यों ने मात्र बैठकर के ध्यान करने के साथ-साथ किस मुद्रा में बैठें इसका बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। सर्वश्रेष्ठ मुद्रा तीर्थंकर की पद्मासन मुद्रा जिसमें नासाग्र दृष्टि होती है और जहाँ पद्मासन की प्रधानता होती है। साधक को क्रमश: भगवान के समान बैठकर धीरे-धीरे कोमलता से आँखे बंद करके बाह्य जगत की दृष्टि को अन्तर्जगत में खोलना चाहिए। वैसे शक्ति के अनुसार पद्मासन न बनें तो अर्ध पद्मासन या सुखासन में बैठकर भी इसे किया जा सकता है। पर ध्यान रहे कि रीढ़ की हड्डी बराबर ९० अंश पर सीधी हो, ताकि ऊर्जा का स्रोत बहने लगे। ध्यान के प्रारम्भ में सर्वप्रथम अपनी सुषुम्ना नाड़ी और मस्तिष्क के ब्रह्म भाग को जागृत करने हेतु ॐ बीजाक्षर का ध्यान और उच्चारण करें। यह कम से कम ९ बार करें। वास्तव में नाभि स्थान से मस्तिष्क के सहस्रार कमल तक इसकी ध्वनि की अनुगूँज होती रहना चाहिए ताकि आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त हो। आर्यिका श्री ने यहाँ पर अनेक सूत्रों का उल्लेख किया है जिनका उच्चारण किया जा सकता है- (१) ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं (शक्तिरूप में मेरी आत्मा अनन्तज्ञानरूप है) (२) परमानन्दस्वरूपोऽहं (मेरी आत्मा में परम आनन्द का स्रोत प्रवाहित हो रहा है।) (३) चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहं (शुद्ध चैतन्य स्वभाव से युक्त मेरी आत्मा है) (४) चिन्मयज्योतिस्वरूपोऽहं (चैतन्य की परमज्योति से मैं समन्वित हूँ) (५) चििंच्चतामणिरूपोऽहं (चैतन्यरूप चिन्तामणिरत्न से युक्त मेरी आत्मा है) (६) शुद्धबुद्धस्वरूपोऽहं (शुद्धबुद्ध स्वभाव से मैं समन्वित हूँ) (७) नित्यनिरंजनरूपोऽहं (निश्चयनय से समस्त कर्मरूपी अंजनकालिमा से मैं रहित हूँ) इन उच्चारणों के साथ सर्वप्रथम पिण्डस्थ ध्यान के लिए तैयार हो जाएँ। पिण्डस्थ अर्थात् शरीर को स्थित कर आत्मा का िंचतन करना होता है। इसमें र्पािथवी, आग्नेयी, श्वसना, वारूणी और तत्वरूपवती ये पाँच धारणाएँ होती हैं। पार्थिवी धारणा चित्त की चंचलता को रोकती है। ऐसी कल्पना की जाती है कि मध्यलोक प्रमाण एक राजू विस्तृत बहुत बड़ा गोल क्षीर समुद्र है। जो दूध के सपेâद जल से लहरा रहा है। उसके बीचोंबीच एक लाख योजन विस्तार वाला खिला हुआ दिव्य कमल है। जिसमें १ हजार पत्ते हैं। सब पत्ते स्वर्ण के समान चमक रहे हैं। कमल के बीच र्किणका सुमेरु पर्वत के समान ऊँची खड़ी हुई है। वह पीले रंग की है और अपने पराग से दशों दिशाओं को पीतप्रभा से सुशोभित कर रही है। इसी र्किणका पर एक श्वेतवर्ण का उँâचा िंसहासन है। उसमें मैं भगवान आत्मा के रूप में विराजमान होकर ध्यान में तल्लीन हूँ। यह ध्यान ही आत्मा को प्रकाशित करता है, आध्यात्मिक ऊर्जा भरता है और मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। लगता है कि मेरी आत्मा राग-द्वेष से मुक्त और कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। ऐसा बार-बार विचार करना चाहिए। आर्यिकाश्री ने निम्न सूत्र को प्रस्तुत किया है—

‘‘ज्ञानपुंजस्वरूपोऽहं, नित्यानंदस्वरूपोऽहं, सहजानंदस्वरूपोऽहं, परमसमाधिस्वरूपोऽहं, परमस्वास्थ्यस्वरूपोऽहं।’’

 आग्नेय धारणा में साधक चिन्तन करता है कि मेरे नाभि स्थान में १६ दलों वाला खिला हुआ सपेâद कमल है। उस कमल की र्किणका पर ‘‘र्हं’’ बीजाक्षर पीली केसर से लिखा हुआ है और दिशा क्रम से प्रत्येक पत्ते पर केसर से ही अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः, इन सोलह स्वरों को लिख लें और इनका ध्यान करें। वास्तव में बंदररूपी चित्त को स्थिर करने के लिए यह ध्यान बहुत आवश्यक है। इसी प्रकार एक ऐसा नीचे को लटका हुआ मटमैले रंग का अष्टदल कमल है जिसमें क्रमशः अष्टकर्मों का नाम काले रंग से लिखा हुआ है। कुछ ही क्षणों में अनुभव करेंगे कि र्हं से धुँआ निकल रहा है। चारों ओर चिनगारियाँ निकलने लगी हैं, आठ कर्मों वाले कमल को जलाती हैं और ऊपर पहुँच कर त्रिकोणाकार में अग्निमंडल बन जाता है। यह अग्नि का जलना वास्तव में औदारिक शरीर का भस्म होना है और आत्मा का उज्ज्वल होना है। कुछ समय बाद ऐसा लगेगा कि त्रिकोणाकार की तीनों लकीरों में ‘‘रं रं रं’’ ऐसे अग्नि बीजाक्षर लिखे हुए हैं और तीनों कोणों पर स्वस्तिक बने हुए हैं। एक बात ध्यान रखना है कि जलती हुई अग्नि को देखकर चित्त घबड़ा न जाये क्योंकि वह तो अशुभ कर्मों को जलाने वाली है। एक ही ध्यान रखना चाहिए कि मैं स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है। श्वसना (वायवी) धारणा में-यहाँ साधक अनुभव करता है कि प्रलयकारी तेज हवायें चल रही हैं जो सुमेरु पर्वत को भी हिला सकती है, परन्तु साधक को िंचता नहीं करना है क्योंकि वह इतना दृढ़ हो जाता है कि वह वायु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, हाँ! यदि आत्मा पर कोई अस्वच्छता रह गई हो तो उसे साधक इस मंत्र के द्वारा दूर करता है—‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनप्रभंजनाय कर्मभस्मविधूननं कुरु कुरु स्वाहा’’ इससे उसे शांति और स्वस्थता प्राप्त होती है और वह पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करते हुए संसार के भ्रमण से मुक्त होने के लिए मानों गीत ही गाने लगता है। वारुणी धारणा के अन्तर्गत वह अनुभव करता है कि बिजली चमक रही है, मूसलाधार बरसात हो रही है, आकाशमंडल में चारों ओर ‘‘पं पं पं’’ बीजाक्षर लिखे हुए हैं और ये बूँदें मेरी आत्मा का प्रक्षालन कर रही है। उसकी आत्मा स्फटिकमणि के समान शुद्ध हो रही है और वह ‘‘ॐ ह्रीं शुद्धात्मने नमः, ॐ ह्रीं विश्वरूपात्मने नमः एवं ॐ ह्रीं परमात्मने नमः’’ का अवलंबन लेता है। 

तत्त्वरूपवती धारणा 

उपरोक्त धारणाओं के पश्चात् वह शरीर में शांति का अनुभव करता है और वह सोचता है कि उसकी आत्मा सप्तधातु रहित पूर्ण चन्द्रमा के समान सर्वज्ञ की तरह बन गई है। मैं अतिशय से युक्त पंचकल्याणकों की महिमा से समन्वित होकर देव-दानव-धरणेन्द्र आदि से पूजित हो गया हूँ। मैं अष्टकर्मों से रहित निरंजन स्वरूप हूँ। इन धारणाओं से उसके अंदर के सारे दुध्र्यान नष्ट हो जाते हैं एवं उसे भूत-पिशाच-ग्रह-राक्षस-सर्प-िंसह-मंत्र-तंत्र कोई भी डिगा नहीं सकता। आर्यिका जी ने अपनी काव्य प्रतिभा के साथ हर धारणा में कविता के अंश प्रस्तुत किये हैं, जो जिस तिस धारणा को मजबूत बनाते हैं। पिण्डस्थ ध्यान के पश्चात् पदस्थ ध्यान में मंत्रों के अक्षरों का आधार लेकर शुद्ध मन से शुद्ध वस्त्र धारण कर पद्मासन आदि में बैठकर समस्त परिग्रहों का त्याग करके आत्मा में लीन होने के गीत गाने लगता है और पुनः अपने स्वरूप आदि का निरन्तर िंचतन करता है क्योंकि उसका उद्देश्य मात्र और मात्र अंतर्यात्रा ही होता है। उसका सारा ध्यान ॐ पर ही केन्द्रित हो जाता है क्योंकि यह ॐ प्रणव मंत्र है जो पंचपरमेष्ठी का प्रतीक है। हमें इस ॐ के द्वारा अरिहंत, अशरीरी-सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि इनके लक्षणों का निरन्तर िंचतन करना होगा और स्थिर रहकर यह महसूस करना होगा कि मैं स्वस्थ हूँ, रोगमुक्त हूँ और आँखों को बंद करते हुए इस श्लोक का उच्चारण करें—

अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्। आचार्याः पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।

 आर्यिकाजी ने ध्यान के इस प्रयोग के पश्चात् उसकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला है। यहाँ पर मेरुदण्ड अर्थात् रीढ़की हड्डी का जैसा कि पहले उल्लेख किया है उसकी महत्ता को समझाया है। इससे प्राणधारा संतुलित होती है, दीर्घ श्वास से एकाग्रता आती है, तनाव की कमी होती है और वह मंगल भावना से मैत्री का विकास करता है। साधक ‘ह्रीं’ बीजाक्षर से २४ तीर्थंकरों के रंग का, वर्ण का ध्यान करता है। इसी शृंखला में उन्होंने ध्यान के प्रारम्भ में शुद्ध मन के साथ शुद्ध वस्त्र, आसन और स्थान का वर्णन करते हुए यही गुनगुनाया है।

‘‘चलो मन को अंतर की यात्रा करायें, भटकते विचारों को मन से हटायें’’

साधक निरन्तर स्वयं को सुख, गुण, धृति, र्कीित, श्री से सम्पन्न मानता है। ध्यान के प्रथम चरण में ‘ह्रीं’ पद लिखें। उसका दो मिनट तक अनुभव करें। द्वितीय चरण में ‘ह्रीं’ के पाँच रंगों का चिंतन करें। सर्वप्रथम लाल वर्ण को, पुनः पीत वर्ण का अनुभव करें। इसके उपरांत हरा, पीला, काला, इसके बाद लाइन लालवर्ण की देखें जिसके अंदर मूँगे के समान लाल-लाल रंग भरा हुआ देखें और अब श्वेत चन्द्रमा के समान गोल नीली बिन्दु देखें जिसमें नीलमणि के समान नीला रंग भरा हुआ है। इन सब रंगों पर यथाशक्ति एक-एक दो-दो मिनट पूरा ध्यान करें। तृतीय चरण में २४ तीर्थंकरों के रंगों का ध्यान करें जिसका वर्णन लेखिका ने प्रत्येक तीर्थंकर के रंग के साथ किया है और साधक अब उस स्थिति में पहुँच गया है कि वह श्वासोच्छ्वास के साथ यही कहता —

शिवं शुद्ध बुद्धं, परं विश्वनाथम्। न देवो न बन्धु: न कर्ता न कर्म।।

न अंगं न संगं न इच्छा न कायं। चिदानंद रूपं नमो वीतरागम्।।

इन पदस्थ ध्यानों से हृदय, ललाट, नाभि, मस्तक, कंठ आदि स्थानों का परिमार्जन होता है। इसके उपरान्त साधक को पंचपरमेष्ठी का जाप एवं मुनियों को प्रतिक्रमणादि करते हुए महामंत्र का ९ बार जाप्य २७ श्वासोच्छवास में एवं १०८ बार मंत्र जाप्य करके ३०० उच्छ्वास में जाप्य करना चाहिए और फिर सदैव यह शांतिमंत्र जपना चाहिए—

ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथाय जगत्शांतिकराय सर्वोपद्रव शांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:।

वह अपने लिए ही नहीं पूरे विश्व के कल्याण की शुभ भावना भाता है। रूपस्थ ध्यान में वह अरिहंत के स्वरूप का विचार करता हुआ अनुभव करता है कि वह अरिहंत के समवसरण में बैठा हुआ है और यही उसका रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत – इसके अन्तर्गत सिद्धों के गुणों का चिंतवन करना, सिद्धों के अर्मूितक चैतन्य स्वरूप निरंजनात्मा का ध्यान करते हुए स्वयं को सिद्ध मानकर उसी में लीन हो जाना चाहिए। लेखिका ने ध्यानसूत्र के-श्री माघनंदी आचार्य द्वारा रचित चिंतन के १०१ मंत्र प्रस्तुत किए हैं। यद्यपि यह पुस्तिका अति लघु स्वरूप में है। उसमें गृहस्थ कैसे ध्यान करें इसे विशेष रूप से समझाया गया है। अंततोगत्वा हम साधारण जनों के लिए यदि ध्यान में बैठने का अभ्यास करना है तो यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी है। मैं पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती माताजी को शत-शत वंदन करते हुए ऐसी पुस्तकों द्वारा जैन दर्शन के गूढ़तम रहस्यों को सरल ढंग से प्रस्तुत करने के लिए उनका उपकार मानता हूूँ।

 

Tags: Dhyan, Vishesh Aalekh
Previous post सृजन समीक्षा बिन्दु- ‘‘श्री रत्नत्रय पूजा विधान’’ Next post समयसार का पद्यानुवाद : एक अद्भुत काव्य प्रतिभा

Related Articles

प्रतिक्रमण आत्म दर्शन है

July 22, 2017jambudweep

आदिपुराण में जीवन- मूल्य

July 20, 2017jambudweep

ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की शैली

July 9, 2017jambudweep
Privacy Policy