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पद्मनंदीपञ्चविंशतिका पद्यानुवाद

October 14, 2022Books FinalAlka Jain
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पद्मनंदीपञ्चविंशतिका पद्यानुवाद


मंगलाचरण

।।‘‘श्री ऋषभदेवाय नम:” ।।
।।”ॐ श्री महावीराय नम:’’।।
।।‘‘श्री ज्ञानमती मात्रे नम:’’।।
।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

मंगलाचरण

श्री नाभिराज सुत ऋषभ को कोटि कोटि प्रणाम।
पुन: ज्ञानमती मात का श्रद्धा से कर ध्यान।।
जिनने पढ़ इस ग्रंथ को किया आत्मकल्याण।
ऐसी माता मोहिनी को मेरा बारम्बार प्रणाम।।

(१) श्री आदिनाथ तीर्थंकर बन कर्मों को नष्ट किया ऐसे।
इक पल में पवन झकोरे से सब काष्ठ समूह जले जैसे।।
उनकी ध्यानाग्नि सूर्य से भी थी अधिक तेज वाली देखो।
जयवंत रहे श्री ऋषभेश्वर विस्तीर्ण कायधारी थे वो।।

(२) करने लायक कुछ कार्य नहीं इसलिए भुजाएं लटका दीं।
जाने को बची न कोई जगह इसलिए खड़े थे निश्चल ही।।
नहिं रहा देखने को कुछ भी इसलिए दृष्टि नासा पर की।
अत्यन्त निराकुल हुए प्रभो इसलिए उन्हें पूजें नित ही।।

(३) जो रागद्वेष अरु अस्त्र शस्त्र विरहित अर्हंत जिनेश्वर हैं।
जो इन सबसे हो सहित देव रहता भयभीत निरन्तर है।।
वह क्या रक्षा कर सकता है हम सबकी जो खुद डरा हुआ।
इसलिए वीतरागी प्रभु के चरणों की मैंने शरण लिया।।

(४) भगवन के चरण कमल जैसे धूली से रहित प्रभा वाले।
इंद्रों के मणिमय मुकुटों की आभा से लगते अति प्यारे।
ऐसे चरणों के वंदन से सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
हैं कमल अचेतन फिर भी प्रभु पदकमल तो पाप नशाते हैं।।

(५) तीनों लोकों के जो स्वामी श्री शांतिनाथ भगवान हुए।
उनके पद में मैं नमन करूँ मन का संताप दूर करिए।।
देवों के नीलमणि से युत मुकुटों की जो कांती रहती।
लगता प्रभु के पदकमलों पर भ्रमरों की ही पंक्ति चलती।।

(६) सब ज्ञाता दृष्टा त्रिभुवन के और क्रोध लोभ से रहित प्रभो।
सत् वचन बोलने वाले वे जिनदेव सदा जयवंत रहो।।
वे मोक्षगमन करने वाले प्राणी के लिए खिवैया हैं।
उत्कृष्ट धर्म को बतलाया जिससे तिरती हर नैया है।।

धर्मोपदेशामृत

(प्रथम अधिकार)

(७) अब आवो बताएँ तुम्हें जिनधर्म की व्याख्या।
सब जीवों पे दया करो उसके हैं भेद क्या।।
दो रूप धर्म मुनि और गृहस्थ के कहे।
फिर रत्नत्रय स्वरूप से त्रयभेद भी कहे।।
इस एकदेश धर्म को गृहस्थ पालते।
उत्कृष्ट रत्नत्रय जो धर्म साधु धारते।।
यहाँ और भी क्षमादि गुण से दश धरम कहे।
उसमें जो आत्मा की परिणति से सुख लहे।।

(८) सब ही व्रतों में मुख्य यह दया ही श्रेष्ठ है।
जैसे बिना जड़ के ठहर सकता न पेड़ है।।
जिसमें नहीं दया वो शून्य के समान है।
निर्दय हृदय को कुछ भी रहता न भान है।।

(९) चिरकाल भवभ्रमण में हम क्या क्या नहीं बने।
माता पिता भाई बहन हम सबके बन चुके।
पिछले भवों के रागद्वेष वश हो मारते।
जन्मान्तरों के बैर को गुरुजन धिक्कारते।।

(१०) यदि किसी दरिद्री से कहिए वह अपने प्राणदान दे दे।
बदले में जितनी चाहे वो मुझसे मेरी संपति ले ले।।
लेकिन जब इसको ठुकरा दे तो समझो तुम हे पुरुषोत्तम।
आहार अभय औषधि व शास्त्र ये चार दान सबसे उत्तम।।

(११) व्रत रहित अव्रती भी यदि हो इस दया भाव से भरा हुआ।
वह स्वर्ग मोक्ष का अधिकारी बन जाता है यह कहा गया।।
लेकिन जो दया रहित प्राणी कितना भी भीषण तप कर ले।
वह पापी ही समझा जाता सब दान पुण्य भी व्यर्थ रहें।।

(१२) जो रत्नत्रयधारी मुनि को भक्ती से उत्तम दान करे।
ऐसे गृहस्थ अरु मुनियों को खुद सुरगण सदा प्रणाम करें।।
क्योंकि मानुष तन द्वारा ही परमेष्ठि साधु बन सकते हैं।
इस तन से ही बस मोक्ष मिले वहाँ इंद्र नहीं जा सकते हैं।।

(१३) जिस घर में पूजा होती है अर्हंत सिद्ध आचार्यों की।
भक्ति से दान दिया जाता निग्र्र्रंथ तपस्वी गुरुओं को।।
करूणा से दान दिया जाता जो दुखी दरिद्र मनुष्य दिखें।
ऐसे गृहस्थ सम्यग्दृष्टि विद्वानों से भी पूज्य हुए।।

ग्यारह प्रतिमाओं के नाम

(१४) आचार्य पद्मनंदि जी ने ग्यारह प्रतिमा बतलाई हैं।
जो दर्शन, व्रत, सामायिक और चौथी प्रोषध कहलाई हैं।।
सचित्तत्याग, रात्रिभोजन सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा।
आरम्भ, परिग्रह व अनुमति त्याग, भिक्षापूर्वक भोजन लेना।।

(१५) श्री समन्तभद्र आदिक आचार्य ने और भी विस्तृत व्याख्या की।
अतएव उपासकाध्ययन ग्रंथ से पढ़ने की भी आज्ञा दी।।
गुरुओं ने सप्त व्यसन त्यागे बिन प्रतिमा लेना व्यर्थ कही।
जो व्यसन रहित सज्जन प्राणी उनको ही पूज्यता प्राप्त हुई।।

सप्तव्यसन के नाम

(१६) -दोहा- जुआँ खेलना, मांस, मद्य, वेश्यागमन, शिकार।
चोरी, पररमणी रमण ये सातों व्यसन निवार।।
इन सातों व्यसनों का क्रमश: आचार्य प्ररूपण करते हैं।
इनसे क्या हानि होती है उसका कुछ वर्णन करते हैं।।
गर उसको समझे प्राणी तो मानव जीवन सार्थक होगा।
आत्मा उत्थान करेगी और परभव में उत्तम फल होना।।

जुआँ का स्वरूप

(१७) इस जुआँ खेलने से जग में अपर्कीित फैलती है सच में।
क्योंकि चोरी वेश्यावृत्ति इन सबका मेल हुआ इसमें।।
जिस तरह राज्य में राजा के आधीन मंत्रिगण होते हैं।।
बस इसी तरह यह जुआँ व्यसन आपत्तीकारक होते हैं।।

(१८) आचार्यों ने सारे व्यसनों में जुआँ को सबसे मुख्य कहा।
क्योंकि इससे बनकर दरिद्र बनकर आगे प्राणी विपदा में घिरा।।
जब विपदा आती तब मानव क्रोधित हो लोभ में फसता है।
इसलिए त्याग कर दो भविजन इससे बस दुख ही मिलता है।

मांस भक्षण का विरोध

(१९) जो सज्जन पुरुषों के द्वारा आँखों से देखा जा न सके।
जो दीन प्राणियों का वध कर खाते उनको हम छू न सके।।
ऐसे सर्वथा अपावन मांसाहार का जो भक्षण करते।
ना जाने कितने पापों का संचय कर नरकगती लहते।।

(२०) यदि कोई अपना पिता पुत्र बाहर से लौट के ना आये।
तो नर हो या फिर नारी हो वह बिलख बिलख कर चिल्लाये।
फिर कैसे मूक प्राणियों का वह माँस बनाकर खाता है।
आती है दया और लज्जा कैसे कट कर चिल्लाता है।।

मदिरा का निषेध

(२१) यह मदिरा पीने वाला भी धन धर्म सभी को नष्ट करे।
नरकों में जाने का भी डर इनको न कभी भी त्रस्त करे।।
यदि समझाने से भी मानव मदिरा सेवन नहिं त्याग करे।
तो समझो वह व्यसनी कोई उत्कृष्ट न कोई कार्य करे।।

(२२) मदिरा पीने वाला मानव माता को भी स्त्री माने।
खोटी चेष्टाएँ कर करके कोई भी बात नहीं माने।।
उससे भी अधिक जब नशा चढ़े तब कुत्ते भी यदि मूत्र करें।
उसको भी मिष्ट मिष्ट कहकर वह पापी उसको गटक रहे।।

वेश्यागमन

(२३) जो मद्य माँस सेवन करती जिनका स्नेह दिखावा है।
विषयी पुरुषों को बहलाकर धन लेकर करे छलावा है।।
ऐसी वेश्याओं का सेवन करने से नरकद्वार खुलता।
धन और प्रतिष्ठा भी खोकर आगे कुछ हाथ नहीं लगता।।

(२४) जैसे धोबी सबके कपड़े इक शिला पे जाकर धोता है।
वैसे ही वेश्या के समीप सब तरह का प्राणी रमता है।।
जिस तरह माँस के एक पिण्ड पर कुत्ते लड़ते रहते हैं।
ऐसे वेश्यागामी पुरुषों को तत्सम उपमा देते हैं।।

शिकार का निषेध

(२५) जो सदा वनों में भ्रमण करें जिनका निज देह सिवा न कोई।
जो तृण खाकर जीवित रहते रक्षक भी जिनका नहिं कोई।।
ऐसे में जो मांसाहारी लोभी शिकार करते मृग का।
इहलोक व्याधियों से पीड़ित परलोक नरक में घर उनका।।

(२६) आचार्य पुन: समझाते हैं इक चींटी जब पीड़ा देती।
तो भी क्यों मानव दयाहीन पशु पक्षी पर कुदृष्टि रहती।।
जो भलीभाँति यह समझ रहे हैं इनको भी पीड़ा होती।
फिर भी ऐसे दुष्कर्म करें फिर इनकी कौन गती होगी।।

(२७) जिनको तुम आज मारते हो भव भव में आगे मारेगा।
जिसको तुम सब ठग रहे आज वह कल तुमसे बदला लेगा।
शास्त्रों का और विज्ञजन का यह ही तो कहना रहा सदा।
पर फिर भी इनमें लगे रहे कुछ भी ना ज्ञान हमें रहता।।

चोरी करने का दोष

(२८) छल कपट दगाबाजी से जो परद्रव्य हड़प कर लेते हैं।
वे प्राणहरण से भी ज्यादा उस प्राणी को दुख देते हैं।।
क्योंकि धन प्राणों से प्यारा होता है सूक्ति कही जाती।
इसलिए कहा है गुरुओं ने, परद्रव्य में प्रीति न की जाती।।

परस्त्री सेवन की हानि

(२९) परस्त्री का सेवन जो करे भय िंचता आकुलता रहती।
संतप्त सदा रहता प्राणी निंह बुद्धि ठिकाने पर रहती।।
क्षुध तृषा रोग से पीड़ित वह जब नरकगती में जाता है।
लोहे की बनी पुतली से आिंलगन करवाया जाता है।।

(३०) इतना ही नहीं स्वप्न में भी जो परस्त्री का ध्यान करे।
आचार्य उसे समझाते हैं ऐसा पौरुष भी व्यर्थ अरे।।
पर धन वनिता दिलवाने में जो बनते बड़े सहायक हैं।
ऐसे मित्रों से दूर रहें दुर्बुद्धी देते घातक है।।

सप्तव्यसन में जिनको हानि हुई

(३१) जो जुएं में सब कुछ हार गये वे हुए युधिष्ठिर राजा हैं।
अरु मांस का भक्षण करने में सब छूटा वे बक राजा हैं।।
मदिरा पीने से यदुवंशी राजा के पुत्र विनष्ट हुए।
वेश्यासेवन में चारुदत्त होकर दरिद्र अतिकष्ट सहें।।
ब्रह्मदत्त नाम के राजा भी करके शिकार पदभ्रष्ट हुए।
चोरी करने में सत्यघोष को गोबर भक्षण दण्ड मिले।।
परस्त्री सेवन से रावण ने दुख सहे अरु नरक गए।
इसलिए त्याग दो सप्त व्यसन आचार्य हमारे यही कहें।।

(३२) आचार्य और भी कहते हैं केवल ये व्यसन न दुखदायी।
इनसे अतिरिक्त अल्पबुद्धी मिथ्यादृष्टी जो हैं भाई।।
वे कई तरह के गलत मार्ग से जन धन की हानी करते।
इसलिए कुमार्ग छोड़ करके सत्पथ पर चलने को कहते।।

(३३) जिनकी बुद्धी अति निर्मल है जो आत्मा का हित चाह रहे।
वे कभी न झुकते व्यसनों में जो स्वर्ग मोक्ष सुख चाह रहे।।
सब व्रत के नाशक परमशत्रु ये व्यसन प्रथम तो मधुर लगें।
पर अंत में कटु फल मिलता है इसलिए स्वप्न में भी न गहें।।

(३४) हे भव्य जीव यदि सुख चाहो तो दुर्जन की संगति न करो।
क्योंकी जैसी संगति होती वैसी ही बुद्धि की प्राप्ति हो।।
यदि उत्तम पथ पर चलना है तो सत्पुरुषों के संग रहो।
इससे निंह बुद्धि भ्रमित होगी निंह दुर्गतियों में भ्रमण करो।।

(३५) जब दुष्ट पुरुष को काम पड़े तो मीठे वचन प्रयोग करें।
लेकिन गुरुवर समझाते हैं उससे न कभी संबंध रखें।।
जैसे सरसों जब खली रूप पर्याय में परिणत होती है।
तब उसका तेल अगर आँखों में लगे तो आँखें रोती हैं।।

(३६) जिस तरह ग्रीष्म ऋतु में मछली जल के अभाव में मर जाती।
कुछ एक अगर जीवित बचतीं तो बगुले से खाई जाती।।
बस इसी तरह इस कलियुग में सज्जन प्राणी कम ही होते।
यदि हो भी जाएं इक आधे तो दुष्ट नहीं जीने देते।।

(३७) आचार्य अंत में कहते हैं यदि रहे दरिद्री तो अच्छा।
नाना पीड़ाएं सह करके मर जाना भी तो है अच्छा।।
पर नहीं दुर्जनों के संग में व्यापार आदि संबंध करें।
क्योंकी वैसी ही बुद्धी से प्राणी कर्मों का बंध करे।।

मुनिधर्म का कथन

(३८) आचार पांच दशधर्म और बारह संयम तप भी बारह।
अरु अष्टमूलगुण उत्तरगुण चौरासी लख धारें मुनिवर।।
मिथ्यात्व मोह मद त्याग और शम दम से ध्यान प्रमाद रहित।।
वैराग्य और रत्नत्रय गुण धरते, मुनि अंत समाधि सहित।।

(३९) मुनि अपने चित्चैतन्यरूप से रंचमात्र भी डिगें नहीं।
यदि पर पदार्थ में बुद्धि लगे तो कर्मबंध हो निश्चय ही।।
शारीरिक सभी पदार्थों को तजना ही मुनि की क्रिया कही।
जब तक है आयू कर्म शेष तब तक मुनिव्रत ही धरो सही।।

(४०) जो यति पूजा की इच्छा से नहिं मूलगुणों को पाल रहे।
उनको आचार्य मूल छेदक प्रायश्चित दण्ड बताते हैं।।
जैसे अंगुलि का अग्रभाग शिरछेदक बाण न रोक सके।
वैसे ही मुनि के उत्तरगुण नहिं मूलगुणों के दोष ढके।।

(४१) यदि वस्त्र संयमी रखता है तो धोने की चिंता रहती।
जब फट जाए तब वस्त्र मांगने की है आकुलता रहती।।
यदि एक लंगोटी भी रख ले तो खो जाने से दुख होगा।
इसलिए मुनीव्रत ही धारो तब दिशारूप अंबर होगा।।

(४२) नहिं धन सम्पत्ती ये रखते जिससे बालों को कटा सकें।
कैंची आदिक नहिं अस्त्र रखें नहिं केशों की वे जटा रखें।।
जूँ आदिक जीवों की हिंसा से विरत अयाचक वृत्ति रखें।
वैराग्यवृद्धि के लिए मुनी हाथों से केश का लोंच करें।।

(४३) मुनिगण ममत्व से रहित सदा इसलिए प्रतिज्ञा करते हैं।
जब तक पैरों में शक्ति रहे तब तक ही भोजन लेते हैं।।
क्योंकी हाथों की अंजलि में आहार खड़े होकर लेते।
वरना समाधि को धारण कर वे धर्ममार्ग को हैं चुनते।।

(४४) केवल शरीर में यह मेरा ऐसी ममत्व बुद्धी से है।
संसार में परिभ्रमण होता फिर बाह्य वस्तु में क्या रमते।।
फिर कोइ कुल्हाड़ी से मारे अथवा चंदन का लेप करे।
दोनों में साम्यभाव रखते अपने से खुद को भिन्न रखें।।

(४५) तृण, रत्न, शत्रु हों मित्र बन्धु सबमें वे समता रखते हैं।
सुख-दुख स्तुति अरु निंदा में निंह किंचित् क्लेश वे धरते हैं।।
शमशान भूमि और राज्यों में जीवित अरु मरणावस्था में।
समभाव रखें जो इन सबमें वे भावमुनी ही होते हैं।।

वीतरागी इस प्रकार विचार करते हैं

(४६) जिस तरह हिरण अपने समूह से जुदा हुआ विचरण करता।
हर पल सचेष्ट रहकर पर से एकला ही आनन्दित होता।।
अपने कुटुम्बियों से हम भी कब होकर जुदा मोह त्यागें।
एकान्तवास में रह करके आत्मा का सुख हम भी भोगें।।

(४७) ना जाने कितनी बार बने सम्राट चक्रवर्ती राजा।
ना जाने कितनी बार बने, चींटी हाथी पशु योनी पा।।
संसार में सब कुछ चंचल है सुख दुख में हर्ष विषाद न कर।
जिससे भवभ्रमण छूट जावे संसार से तर जाता है नर।।

(४८) उपरोक्त भावना करने से होता है परमशुद्ध संवर।
जो भी प्राचीन कर्म आत्मा के गल जाते होता निर्जर।।
तब परमशांत मुद्राधारी मुनि के न नवीन कर्म बंधते।
इससे वे मुक्तिवल्लभा के अति निकट पहुँच कर दुख हरते।।

((४९) जिन मुनि के पास छिद्रविरहित है सम्यग्ज्ञानमयी नौका।
तपरूपी पवन पास जिनके आशीर्वाद हो गुरुओं का।
उन उद्यमि मुनि के लिए नहीं है दूर मोक्ष का मार्ग सुनो।
कर लेगा झट से पार उसे कितना ही बड़ा समन्दर हो।।

(५०) हे मुनिगण ! इस आनंदमयी शुद्धात्मा का अनुभवन करो।
मत लोक रिझाने में पड़ना कृष मोह करो, तन का न करो।।
जब तक तुम इन दो बातों का नहिं दोगे ध्यान व्यर्थ सारा।
जप तप उपवास नियम आदिक से नहीं किसी ने भव तारा।।

(५१) जो मुनिवर दुष्ट कषायों को नहिं छोड़े मन को शुद्ध करे।
वे क्या संसार त्याग सकते सब परिषह सहना व्यर्थ रहे।।
आचार्य प्ररूपण करते हैं उनके सब कार्य कपट वाले।
ऐसे ढोंगी मुनि होते हैं संसार भ्रमण करने वाले।।

(५२) धन को जिसने संचयन किया वह सभी पाप में रत रहता।
क्योंकी धन से आरंभ और उससे ही लोभ प्राप्त होता।।
प्राणी हिंसा से पाप कहा वह पाप आरम्भ का कारण है।
इसलिए द्रव्य जो ग्रहण करे सन्मार्ग नाश का कारण है।।

(५३) निग्र्रंथ मुनि शय्या के कारण घास आदि यदि स्वीकारें।
दुध्र्यान कहा आचार्यों ने लज्जाकर भी इसको मानें।।
फिर यदि निर्गं्रथ यती सोना आदिक वस्तू लेकर रखे।
तो इस कलियुग का दोष कहा वरना वे अविंâचन सदा रहें।।

(५४) क्रोधादि कषायों के द्वारा, प्राणी के कर्मबंध होते।
पर प्रतिक्षण बंध नहीं होता ये कभी कभी ही हैं होते।।
लेकिन परिग्रहधारी जीवों की किसी काल में सिद्धि न हो।
इसलिए भव्य जीवों सुन लो धन धान्य से प्रीति नहीं रखो।।

(५५) अभिलाषा अगर मोक्ष की भी की जाए दोषस्वरूप कहा।
फिर स्त्री पुत्र जनों की क्या जब तक शरीर से मोह रहा।।
इसलिए कहा है मुनियों को अपनी आत्मा में लीन रहो।
तब मोक्ष स्वयं पा जावोगे नहिं पर पदार्थ में प्रीति रखो।।

(५६) यदि परिग्रहधारी जीवों का भी मोक्षगमन माना जाए।
तो अग्नी को शीतल मानो इंद्रियसुख सुख माना जाए।।
विष भी अमृत कहलायेगा और तन को भी स्थिर मानो।
यदि इंद्रजाल रमणीय कहो नभ की बिजली स्थिर मानो।।

(५७) ऐसे यतिवर जयवंत रहें जो कामदेव के योद्धा को।
निज ध्यानाग्नि से भस्म करें भय से ही भाग रहा है जो।।
फिर लौट के ना वापस आए सारा प्रभाव ही खत्म हुआ।
ऐसे ध्यानी को नमन करूँ जिन मुनि आगे वह हार गया।।

(५८) जो रत्नत्रय रूपी संपति के धारी हैं मगर दिगम्बर हैं।
हैं परमशांत मुद्राधारी फिर भी वे युद्ध में तत्पर हैं।।
क्योंकी वे कामदेव रूपी बैरी को मार गिराते हैं।
उसकी स्त्री को विधवा कर त्रैलोक्यपूज्य बन जाते हैं।।

आचार्य परमेष्ठी की स्तुति

(५९) जो स्वयं पंच आचार पालते सौख्य वृक्ष का बीज कहा।
ऐसे आचार्य शिष्य को भी पालन करवाते सौख्यप्रदा।।
नहिं लेशमात्र भी परिग्रह है जो ऐसी मुक्ति स्वयं पाते।
रत्नत्रयधारी ऐसे गुरु पर को भी मुक्ती दिलवाते।।

(६०) इस जग में भ्रम के कारक जो ऐसे अनेक ही मार्ग कहे।
उनसे छुड़वाकर जो गुरुवर सच्चा सुखकारी मार्ग कहें।।
सत्पथ बतलाते ऐसे गुरु को शीश झुकाकर नमन करूँ।
मिथ्यामारग में नहिं जाऊँ ऐसा मैं सत् आचरण करूँ।।

उपाध्याय परमेष्ठी की स्तुति

(६१) यह मोहकर्म का परदा जो है लगा अनादी कालों से।
शिष्यों को संबोधन देते वे उपाध्याय निज वचनों से।।
स्याद्वाद से अविरोधी उनके उपदेश दृष्टि निर्मल करते।
ऐसे उवझाय१ मेरी रक्षा करिए बिन हेतु व्याधि हरते।।

साधु परमेष्ठी की स्तुति

(६२) जो साधु पांचवे परमेष्ठी गृहबंधन को ठुकराय दिया।
अपने शरीर से मोह छोड़ मोहान्धकार को नष्ट किया।।
निज सम्यग्ज्ञानमयी ज्योती की सूर्य प्रभा सम वृद्धि करें।
ऐसे वे साधू परमेष्ठी हम सबमें भी समृद्धि भरें।।

वीतरागता की महिमा

(६३) जैसे बिजली के गिरने से सब लोग भयातुर हो जाते।
लेकिन शांतात्मा मुनि देखो नहिं ध्यान से हैं डिगने पाते।।
जिसने सज्ज्ञानरूप दीपक से मोह महातम नाश किया।
वे सम्यग्दर्शन के धारी परिषह सह सब कुछ जीत लिया।।

ग्रीष्म ऋतु में पर्वत शिखर पर ध्यानी मुनीश्वरों की स्तुति

(६४) जिस ग्रीष्म ऋतू की तीक्ष्ण धूप और लू के प्रबल थपेड़ों में।
अत्यन्त ताप देने वाली भूमि रेता को जो ओढ़ें।।
जिस समय सूख जातीं नदियाँ ऐसे ऋतु में पर्वत तट पर।।
जो ध्यान अग्नि से भस्म करें ऐसे मुनि होवें क्षेमंकर।।

वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे ध्यानी मुनियों का तप

(६५)वर्षा ऋतु में तरु के नीचे जो ध्यान मुनीश्वर करते हैं।
वे मुनिगण रक्षा करें मेरी हम नमन चरण में करते हैं।।
जब महाभयंकर शब्द करें पृथ्वी भी नीचे धंस जाती।
बरसे ओले शोले पत्थर फिर भी कुछ विकृति नहिं आती।।

शीतकाल में मुनियों का तप

(६६) जिस शीतकाल में सर्दी से हैं कमलपत्र कुम्हला जाते।
अत्यन्त कष्ट देने वाली दीनों के रोम है हिल जाते।।
बंदर का मद भी गल जाता वृक्षों के पत्ते जल जाते।
ऐसे क्षण महा तपस्वी के तप से सब कर्म विनश जाते।।

और भी मुनिधर्म का स्वरूप

(६७) जो आत्मज्ञान से रहित मुनी इन तीनों ऋतु के दुख सहें।
आचार्य प्ररूपण करते हैं उनका सारा तप व्यर्थ रहे।।
जैसे कि धान कट जाने पर खेतों में बाड़ लगाये क्यों।
वैसे ही निज में ध्यान करे यह कहा गया है मुनियों को।।

(६८) यद्यपि कलियुग में तीन लोक से पूज्य केवली प्रभू नहीं।
फिर भी जग में प्रकाश करने वाली वाणी मौजूद सही।।
उस वाणी को गुरु बतलाते इसलिए सरस्वतिसुत मानो।
उनकी पूजन वंदन कर लो ये जिनवर की पूजन जानो।।

(६९) यह यतिवर ध्यानलीन होकर जहाँ चरण कमल रख देते हैं।
वह भूमी तीरथ बन जाती उसे इंद्र देवगण नमते हैं।।
उनके स्मरण मात्र से ही सब पाप शमन हो जाते हैं।
ऐसे यतियों को सदा ध्यान में रखकर शीश झुकाते हैं।।

(७०) रत्नत्रयधारी ये मुनिवर दुष्टों से अपमानित होकर।
समता को धारण करते हैं आत्मा की शुद्धी में रमकर।।
जो निंदा करने वाले हैं वे निज आत्मा का घात करें।
अरु कर्मों का बंधन करके जाकर नरको में वास करें।।

(७१) इस मानुष भव को पा करके भोगों को रोगतुल्य समझें।
ऐसे परिग्रह से रहित मुनी वन में जाकर तपरत रहते।।
उनके गुण को गाने वाला निंह वन में कोई होता है।
यदि कोई स्तुति कर सकता वो महापुरुष ही होता है।।

।।इति मुनिधर्म कथन।।

दशलक्षण धर्म का कथन

उत्तम क्षमा धर्म का स्वरूप

(८२) जो मूर्खजनों से किए हुए बंधन अरु हास्य क्रोध में भी।
निंह मन में जरा विकार करे समताधारी वह साधू ही।।
यह उत्तम क्षमा धार सकते जो मोक्षमार्ग में ले जाती।
बाकी हम सब गृहस्थजन से निंह एकदेश पाली जाती।।८२।।

(८३) यतिरूपी वृक्ष की शाखा है गुणरूपी पुष्प फलों शोभित।
उसमें यदि क्रोध मान आदिक अग्नी से मुनि हो जाए सहित।।
जैसे िंचगारी क्षण भर में उत्तम फलयुत तरु जला सके।
वैसे ही मुक्ति न मिल सकती इसलिए क्रोध ना कभी करें।।८३।।

(८४) रागद्वेषादि रहित होकर स्वेच्छा से निज में मगन रहे।
यह लोक भला या बुरा कहे उसकी न कोई परवाह करे।।
क्योंकि जो हमारे साथ द्वेष या प्रीतिपूर्ण व्यवहार करे।
उसका फल उसको ही मिलता यह पद्मनंदि आचार्य कहें।।८४।।

(८५) मेरे दोषों को सबसे कह करके यदि मूर्ख सुखी होता।
अथवा धन संपति लेकर के मेरा जीवन भी ले लेता।।
खुश रहे सभी कुछ लेकर भी अथवा मध्यस्थ रहे कोई।
मुझसे न किसी को दुख पहुँचे ऐसी बुद्धि होवे मेरी।।८५।।

(८६) मिथ्यादृष्टी दुर्जन जन से दी गयी वेदना से हे मन।
तुम दुख का अनुभव नहीं करो होता है कर्मों का बंधन।।
जिनधर्म का आश्रय तुझे मिला ये धर्म तुझे बतलाना है।
यह सारा लोक अज्ञानी जड़ तू इससे क्यों घबराता है।।८६।।

मार्दव धर्म का स्वरूप

(८७) जो श्रेष्ठ पुरुष कुल ज्ञान जाति बल आदि गर्व को त्याग करे।
वह सब धर्मों का अंगभूत मार्दव इस धर्म को पाल रहे।।
जो सम्यग्ज्ञानमयी दृष्टी से जग को इंद्रजाल समझे।
वे निश्चय ही मार्दव गुण को अपने अंदर धारण करते।।८७।।

(८८) अति सुंदर घर भी यदि अग्नी से चारों तरफ घिर गया हो।
तब उसके बचने की आशा वैâसे कर सके ज्ञानिजन जो।।
बस इसी तरह इस काया को वृद्धावस्था ने घेर लिया।
नहिं सदाकाल रहता कोई यह गर्व छोड़कर मान हिया।।८८।।

आर्जव धर्म का वर्णन

(८९) जो मन में वही वचन बोले इसको ही आर्जव धर्म कहा।
पर मीठी चिकनी बातों से ठगना ये बड़ा अधर्म कहा।।
ये आर्जव धर्म स्वर्गदाता अरु कपट नरक ले जाता है।
इसलिए सदा जो इसे तजे वह सरल भाव अपनाता है।।८९।।

(९०) मायाचारी से मुनियों के सद्गुण फीके पड़ जाते हैं।
और माया से उत्पन्न पाप दुर्गति में भ्रमण कराते हैं।।
क्रोधादि शत्रु जो छिप करके माया के ग्रह में बैठे हैं।
उनको निकाल करके मुनिवर निंह पास फटकने देते हैं।।९०।।

सत्य धर्म का वर्णन

(९१) उत्कृष्ट ज्ञान के धारी मुनि को सदा मौन रखना चहिए।
यदि बोले भी तो हित मित प्रिय और सत्य वचन होना चहिए।।
जो कड़वे वचन दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले हों।
आचार्य प्ररूपण करते हैं निंह सच्चे साधु बोलते वो।।९१।।

(९२) जो सत्य धर्म का पालक है सब व्रत उसमें गर्भित होते।
तीनो लोकों में पूज्यनीय माँ सरस्वती सिद्धी करते।।
इस व्रत का है महात्म्य इतना वसु का िंसहासन पृथ्वी में।
था समा गया मरकर राजा, अरु स्वर्ग गया नारद सच में।।९२।।

(९३) आचार्य और भी कहते हैं सतवादी परभव में जाकर।
इंद्रादि, चक्रवर्ती राजा का वैभव पाते हैं आकर।।
इस जीवन में ही कीर्ति बढ़े आदर सम्मान बहुत होता।।
उत्तम फल मिले कई उनको अरु मोक्ष प्राप्त भी कर लेता।।९३।।

शौच धर्म का वर्णन

(९४) परधन परस्त्री में जो जन निस्पृह वृत्ती से रहता है।
अरु किसी जीव का बध करने की नहीं भावना करता है।।
अत्यंत कठिन क्रोधादि लोभ मल का जो हरने वाला है।
वह प्राणी ही तब शौच धर्म को धारण करने वाला है।।९४।।

(९५) अति घृणित मद्य से भरा हुआ घट धोने से नहिं स्वच्छ हुआ।
नहिं तीर्थस्थानों के स्नान से कोई कभी पवित्र हुआ।।
जब अंतकरण मलीमस है तो बाह्य शुद्धि से क्या होगा।
इसलिए पवित्र करो मन को तब ही निज का दर्शन होगा।।९५।।

संयम धर्म का वर्णन

(९६)जो हृदय दया से ओत प्रोत पाँचों समिति पालन करते।
ऐसे साधू षट्काय जीव की भी हरदम रक्षा करते।।
पंचेन्द्रिय के जो विषय भोग उनसे भी सर्वथा विरत रहे।
ऐसे मुनिश्रेष्ठ धर्म संयम को पाले गणधर देव कहें।।९६।।

(९७) यह मनुष धर्म अति दुर्लभ है उसमें भी अच्छी जाति मिले।
यदि दैवयोग से मिल जावे उसमें अर्हंत वचन न मिले।।
सद्वचन श्रवण को मिल जावे तो जीवन अधिक नहीं मिलता।
सब कुछ मिलने के बाद रत्नत्रय धारण कर संयम धरता।।९७।।

तप धर्म का वर्णन

(९८) ज्ञानावरणादिक आठ कर्म क्षय करने को जो ज्ञान कहा।
उस सम्यग्ज्ञानमयी दृष्टी से तप करते दो रूप कहा।।
बाह्याभ्यंतर से दोनों के हैं बारह भेद कहे जाते।
संसार जलधि से तिरने में ये नौका सम माने जाते।।९८।।

(९९) यद्यपि कषाय रूपी चोरों को जीता जाना मुश्किल है।
लेकिन तपरूपी योद्धा के सम्मुख टिकना नहिं मुमकिन है।।
इसलिए योगिजन मोक्षनगर में बाधा रहित चले जाते।
आचार्य प्ररूपण करते हैं योगी से न कोई जीत पाते।।९९।।

(१००) मिथ्यात्व उदय से घोर दुख सहने पड़ते हैं नरकों में।

फिर हे प्राणी ! क्यों घबराता है तप के थोड़े कष्टों से।।
जैसे अथाह सागर आगे जल का कण छोटा होता है।
वैसे ही तप में दुख बहुत अल्प करके तो देखो होता है।।१००।।

त्याग धर्म का वर्णन

(१०१) जो मुनियों के श्रुतपाठन के हेतू पुस्तक का दान करे।
अरु संयम के साधन हेतू पिच्छी व कमण्डलु दान करे।।
उनके रहने के लिए श्रेष्ठ स्थान आदि भी दान करे।
तन से भी ममता तजकर ऐसे यति आकिंचन धर्म धरें।।१०१।।

आकिञ्चन्य धर्म का वर्णन

(१०२) अपने हित में जो लगे हुए गृहत्याग पुत्र स्त्री तजकर।
वे मोक्ष हेतु तप करते हैं सबसे सर्वथा मोह तजकर।।
ऐसे मुनि विरले होते हैं मिलते हैं बड़ी कठिनता से।
पर को शास्त्रादि दान करके तप में भी बनें सहायक वे।।१०२।।

(१०३) यदि कहो वीतरागी मुनि को सब त्याग दिया क्यों पुस्तक दें।
तन से क्यों मोह नहीं त्यागा आचार्यदेव तब कहते ये।।
जब तक है आयूकर्म शेष इस तन को नष्ट न कर सकते।
अपघातक दोष लगेगा तब, निंह तन से वे ममता रखते।।१०३।।

ब्रह्मचर्य धर्म का वर्णन

(१०४) जैसे कुम्हार का चाक तीक्ष्ण धारण से घट निर्माण करे।
वैसे ही भव के भ्रमने में स्त्री दुख का आधार रहे।।
इसलिए मुमुक्षूजन स्त्री में माता बहिन सुता देखें।
जो ब्रह्मचर्य के धारी हैं वह स्त्री सुख में नहीं रमे।।१०४।।

(१०५) जो रागी पुरुष स्त्रियों में प्रीति उपजाने वाले हैं।
उनको भी अच्छा कहा मगर जो नर विरक्त मन वाले हैं।।
ऐसे वैरागी साधक के चरणों में चक्रवर्ति नमते।
जो जगतपूज्य बनना चाहें वे नहीं स्त्रियों में रमते।।१०५।।

(१०६) वैराग्य त्याग रूपी अतिसुंदर काष्ठ लगे हों इधर उधर।
दशधर्म रूपी दण्डे लगकर वह सीढ़ी बनी बड़ी सुंदर।।
उस पर चढ़ने के योग्य मनुज दशधर्म पालने वाला हो।
तीनों लोकों में पूज्यनीय और वंदनीय बन जाता वो।।१०६।।

।।इति दशधर्म निरूपण।।

शुद्धात्मा की परिणति रूप धर्म का कथन

(१०७) जो निर्मल शील व गुणस्वरूप समता से युक्त अवस्था है।
अरु अनंत चतुष्टयमय अमृत सरिता के भीतर रहता है।।
उसको दुष्कर संसार दु:खरूपी अग्नी नहिं जला सके।
ऐसी शुद्धात्मा की परिणति रूपी आत्मा को नमन करें।।१०७।।

(१०८) कर्मादि वैरियों के नाशक तन का भी आश्रय नहीं रहा।
ऐसी शुद्धात्मा सूर्य चंद्र अग्नी से जिसका तेज बड़ा।।
उसके आगे सब पर पदार्थ क्षण भर में ऐसे अस्त हुए।
चैतन्य स्वरूपी तेज पुंज को नमस्कार कर धन्य हुए।।१०८।।

(१०९) नहिं जन्म मरण अरु जरा रोग कर्मों का भी संबंध नहीं।
है सदा प्रकाशित प्रभु आत्मा स्वात्मैक ज्ञान का धारी ही।।
जिनकी न किसी से उपमा हो सकती ऐसे उन सिद्धों की।
मैं शरण गहूँ रक्षा करिए जो अविनाशी पद धरते भी।।१०९।।

(११०) इस चिच्चैतन्य आत्मा का िंकचित वर्णन जो किया मैंने।
उसमें न कोई छल किया अत: अल्पज्ञानी मुझको समझे।।
क्योंकी सब कर्मों के राजा हैं मोहनीय अंतराय शत्रू।
दर्शन ज्ञानावरणी चारों ये मेरे संग में लगे प्रभू।।११०।।

(१११) विद्वान मानते अपने को शृंगारादिक के व्याख्याता।
प्रिय वचनों के आडम्बर से सन्मार्ग भुला दे जो वक्ता।।
इस दुनिया में हैं बहुत लोग ऐसे भाषण देने वाले।
पर सम्यग्ज्ञानप्रणेता जो वे दुर्लभ हैं देखे जाते।।१११।।

(११२) यह रागद्वेष माया आदिक सबके स्वभाव से होते हैं।
इसलिए काव्य यदि ऐसा हो जो मन के मल को धोते हैं।।
उस वीतरागता के वर्णन का काव्य सदा फल देता है।
शृंगार आदि रस काव्य सदा प्राणी को दुख ही देता है।।११२।।

(११३) मोहान्धकार से व्याप्त जगत में मोही अज्ञानी घूमें।
उनको न दिखाई कुछ पड़ता उस पर यदि दुर्जन कथा सुनें।।
आचार्य हमें समझाते हैं सत्पुरुषों की संगती करें।
आँखों में धूलि डालने वालों से सदैव ही दूर रहें।।११३।।

(११४) यह तन विष्टा मूत्रादिक नाना कीड़ों से युत भरा हुआ।
अरु प्रबल घृणाकारी अस्थी मज्जा रजवीर्य से पुष्ट हुआ।।
ऐसे ही मल से बना हुआ जो कवी कुमाता से जन्मा।
वह नारी को जब चंद्रमुखी कहते हैं तो आश्चर्य घना।।११४।।

(११५) स्त्री के केश जुओं के घर मुख हाड़ समूह चाम्र वेष्टित।
और मांसिंपड सम स्तन है, अरु उदर आदि विष्ठा पूरित।।
खम्भे की तरह पैर दोनों जिन स्थानों पर टिके हुए।
अत्यन्त घृणित इस काया में निंह विद्वतजन हैं राग करें।।११५।।

(११६) यह कामदेव रूपी धीवर उत्कृष्ट धर्म नदि से बाहर।
हैं जीवरूप मछली उसको पकड़े काटें में लटकाकर।।
भू पर भूंजे बस उसी तरह, नारी के जाल में फंस करके।
संभोगरूप भू पर भूंजें, ज्ञानीजन इससे दूर रहें।।११६।।

(११७) जितने दुनिया में दोष कहे वे सभी अहित ही करते हैं।
पर सबसे बड़ा अहितकारक नारी के रूप को कहते हैं।।
इनसे अति मोह उत्पन्न होकर नाना प्रकार दुख सहते हैं।
क्रोधादि कषाय बने दुर्जय भवदधि को निंह तर सकते हैं।।११७।।

(११८) जिस तरह कबूतर आदिक खग दाना देकर पकड़े जाते।
उस तरह विषय के जाल में भोले प्राणी हैं फांसे जाते।।
इसलिए इन्हें दुख का कारण लख विद्वतजन नहिं फंसते हैं।
कांक्षा न करें वे विषयों की अतएव सुखी वे रहते हैं।।११८।।

(११९) जैसे कोई बैरी जिस पर मंत्रादिक का उपयोग करे।
विपरीत बुद्धि हो जाती है नाना आपत्ति आदि भोगे।।
वैसे ही मोहरूप बैरी उसके प्रयोग से विषयों में।
होकर प्रवृत्त दुख सहें सभी सुख मानें चंचल भोगों में।।११९।।

(१२०) भवरूपी घने जंगलों में यह मोहरूप ठग बैठे हैं।
जो स्त्री क्रोध मान माया से सबको ठगते रहते हैं।।
इसलिए ज्ञानरूपी आत्मा का ही आश्रय लेना चहिए।
आचार्य प्ररूपण करते हैं बस निज में ही रमना चहिए।।१२०।।

(१२१) मैं ज्ञानी अरु मैं धनी बहुत इस तरह मूर्ख समझा करते।
और चंचल बिजली के समान पुत्रादिक को अपना कहते।।
जबकी कुछ भी निंह स्थिर है यह सभी लोग हैं देख रहे।
इसलिए मोह को वश में कर आचार्य हमें सम्बोध रहे।।१२१।।

(१२२) क्या करें कहाँ जाएं वैâसे लक्ष्मी को प्राप्त करें वैâसे।
इस उलझन में हरदम प्राणी किस नृप की सेवा टहल करे।।
सब जान बूझकर भी ये मन ना किसी तरह भी समझ सके।
इसलिए ग्रंथकर्ता कहते यह मोह बहुत ही भ्रमित करे।।१२२।।

(१२३) हे बुद्धिमान ! तुम मोह तजो धन सदन पुत्र मित्रादिक से।
जिससे निंह जन्म दुबारा हो मिट जाये भ्रमण चौरासी से।।
क्योंकि उत्तम कुल जैनधर्म की शरण बहुत ही दुर्लभ है।
फिर मिले ना मिले पता नहीं जो मिला आज मानुष तन है।।१२३।।

(१२४) यह वीतराग अर्हंत देव की वाणी ही सद्वाणी है।
जो रागद्वेष से रहित और सब ज्ञाता दृष्टा ज्ञानी है।।
इसलिए भव्यजन मुक्ती की प्राप्ति के हेतु इसे मानो।
क्यों इधर उधर तुम फिरते हो अज्ञानी वचन असत् मानो।।१२४।।

(१२५) जो मूर्ख लोग जिन वचनों में संदेह हमेशा करते हैं।
अपनी जड़बुद्धि से हरदम वे बस असत् कल्पना करते हैं।।
जैसे जन्मांध पुरुष पक्षी की गणना में यदि बहस करे।
तब नेत्र सहित मानव वैâसे उसकी बातों से सहज रहे।।१२५।।

(१२६) श्रुत के दो भेद कहे प्रभु ने जो अंग बाह्यश्रुत रूपी हैं।
उसमें बारह भेदों से युत अंगश्रुत पढ़ते वे ज्ञानी हैं।।
और बाह्यश्रुत के हैं अनंत भेद उसमें जो ज्ञानमयी आत्मा।
उसको ही ग्रहण योग्य कहते तद्भिन्न त्याज्य है परमात्मा।।१२६।।

(१२७) इस पंचमकाल में ज्ञान आयु आदिक सब क्षीण हुए जानो।
इसलिए नहीं सब पढ़ सकते जो रत अभ्यासमयी मानो ।।
अभ्यास सदा जो किया करे वह मोक्षमार्ग का अभिलाषी।
यह श्रुताभ्यास ही मुक्तीपथ देता जो होता हितकारी।।१२७।।

(१२८) जो सूक्ष्म अगोचर है पदार्थ उनमें भी संशय नहीं करे।
जो दिव्यध्वनि जिनवचनों की उसको अवश्य स्वीकार करें।।
इस युग में जितने प्राणी हैं उनको निंह ज्यादा ज्ञान मिला।
इसलिए हमें परमागम से जो मिला समझिए बहुत मिला।।१२८।।

(१२९) चैतन्य बिना सब ज्ञानवान है शून्य कहा है भव वन में।
आत्मा के होने से पदार्थ में ज्ञान भान होता सच में।।
इसलिए भव्यजीवों को ऐसी सारभूत इस आत्मा में।
रमना चहिए बस इसमें ही और ध्यान करें शुद्धात्मा में।।१२९।।

(१३०) अज्ञानी प्राणी कोटि वर्ष में जितना तप कर कर्म नशे।
इक क्षण में नष्ट करे ज्ञानी स्थिर होकर जब ध्यान करे।।
यह आत्मा है चैतन्यरूप जितना बन सके करो तप को।
जिससे भव में नहिं आना हो, आत्मा सिद्धालय स्थित हो।।१३०।।

(१३१) यदि कर्म उदयरूपी समुद्र में कोई व्यक्ति जब गिर जावे।
जब तक नहिं मिले ज्ञानरूपी नौका निंह पार उतर पावे।।
नाना प्रकार आपत्ति रूप बैठे हैं मगरमच्छ इसमें।
तब ज्ञानरूप नौका बनती जीवों को सहायक तिरने में।।१३१।।

(१३२) मोहरूपी सघन अंधेरे में है व्याप्त त्रिलोकमयी मकान।
उसमें प्रवेश करने वाला जिनवच रूपी दीपक महान।।
तब ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त होगा क्या छोड़े ग्रहण करें।
वरना अज्ञान अंधेरे में यह प्राणी कुछ ना ढूंढ सके।।१३२।।

(१३३) जब कर्मों का उपशम होने से क्षेत्र काल शुभ योग बने।
तब आत्मा में हो लीन मनुज अपने निज का िंचतवन करे।।
संसार दुखों से छुड़वाए उसको ही धर्म कहा मुनि ने।
इसके अतिरिक्त न कोई धर्म इससे तल्लीन रहे निज में।।१३३।।

आत्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन

(१३४) निंह शून्य न जड़ निंह पंचभूत से आत्मा की उत्पत्ती है।
निंह कर्ता, एक न क्षणिक लोकव्यापी नहिं नित्य से बनती है।।
अपने शरीर परिमाण तथा रत्नत्रण गुण से शोभित है।
अपने ही कर्मों का कर्त्ता भोक्ता उत्पाद ध्रौव्य व्यय है।।१३४।।

(१३५) जो आत्मा को नहिं पहचाने वह वैâसी और कहाँ रहती।
यह प्रश्न पूछने वाली ही आत्मा में है जाग्रत बुद्धी।।
क्योंकी जड़ वस्तू में कोई भी प्रश्न विकल्प नहीं होते।
आत्मा का असली रूप समझ निज से कर्मों को क्षय करते।।१३५।।

(१३६) यद्यपि आत्मा नहिं मूर्तिक है यह तन के अंदर रहता है।
प्रत्यक्ष नहीं दिखता फिर भी यह कर्ता और ये ज्ञाता है।।
इत्यादि विकल्पों से आत्मा का है अस्तित्व जगत भर में।
इसलिए इसे अनुभवन करो और मोह हटावो तुम मन से।।१३६।।

(१३७) यह व्यापक नहीं इसी हेतू तन के प्रमाण में रहता है।
इसका स्वभाव है ज्ञानरूप नहिं पंचतत्व से बनता है।।
सर्वथा नित्य अरु क्षणिक नहीं क्योंकि ना जन्म न मरण इसे।
यह एकरूप भी नहीं कही क्रोधादिक कई भाव इसमें।।१३७।।

(१३८) यह आत्मा शुभ और अशुभ कर्म से सुख दुख भोगा करता है।
ना कोई दूसरा है सुख दुख जो दे आगम यह कहता है।।
चिद्रूप आत्मा संसारी जीवन में कर्म सहित होता।
पर मोक्ष अवस्था में कर्मों से रहित त्रिलोकपती होता।।१३८।।

(१३९) आचार्य हमें समझाते हैं हे भव्य ! अगर तिरना चाहो।
तो एकचित्त होकर प्रमाण नय आदिक से इसको जानो।।
यह मोहरूप जो मगरमच्छ से सहित भवोदधि विकट बड़ा।
आत्मा के सिवा कोई वस्तु नहिं ग्राह्य यही मुनियों ने कहा।।१३९।।

(१४०) हे आत्मा ! जब तक मेरे संग कर्मों का बंधन लगा हुआ।
तब तक संसार रूप वैरी दुख देंगे यह ही कहा गया।।
यह रागद्वेष ही वैरी है यदि इनको तू तज सकता है।
तो मेरी आत्मा कर्मों के दुख से जल्दी छुट सकता है।।१४०।।

(१४१) इस लोक का ना तू लोक तेरा फिर क्यों प्रीति को धरता है।
यह सुख दुख अरु संतोष क्रोध तू व्यर्थ ही सबसे करता है।।
यह काया नश्वर इसीलिए अपने स्वरूप में रमण करो।
विषयों की आशा में रमकर मत दीन हीन सम भ्रमण करो।।१४१।।

(१४२) जहाँ प्रतिक्षण दुख ही दुख रहता ऐसी तिर्यंच नरकगति में।
निंह जाना पड़े मगर सुरगति में लक्ष्मी रहती चरणों में।।
उस देवगति से भी जब आयू पूर्ण होए तब दुख होता।
इसलिए हमेशा अविनाशी पद प्राप्ती में ही सुख मिलता।।१४२।।

(१४३) हे मन् ! तूने दुख बहुत सहे स्त्री आदिक से न ममता कर।
इन बाह्य पदार्थों में चेतन तू िंकचित भी अनुराग न कर।।
श्री परमगुरू से दुखों के नाशक ऐसा उपदेश सुनो।
जिससे मुक्ति की प्राप्ति हो और अंतरंग में प्रवेश करो।।१४३।।

(१४४) आचार्य और भी कहते हैं यदि आत्म रमण की इच्छा है।
तो हे भव्यों ! इंद्रिय सुख को कर त्याग धार लो दीक्षा है।।
कोलाहल में क्या रखा है सारे परिग्रह का त्याग करो।
और चंचल मन को स्थिर कर एकांतवास का स्वाद चखो।।१४४।।

(१३४)जीव और मन का परस्पर संवाद

(१४५) रे मन तू वैâसे रहता है वह बोला िंचतित रहता हूँ।
ये िंचता रागद्वेष वश से बस इसमें ही रत रहता हूँ।।
जो इष्ट अनिष्ट समागम से होता है वैâसे इन्हें तजूं।
तब जीव कहे रे मन सब तज नरकों के दुख मैं क्यों भोगूं।।१४५।।

(१४६) जिसके स्मरण मात्र से ही मोहांधकार भग जाता है।
अरु सम्यग्ज्ञान उदित होता आनंद हृदय में छाता है।।
कृतकृत्यपने की प्राप्ती से आत्मा की शक्ती पहचानो।
निज में ही आत्मा रहती है तुम व्यर्थ न भटको यह जानो।।१४६।।

(१४७) इस जग में जीव अजीव रूप नाना प्रकार के बंधन में।
हो वशीभूत इस मोहकर्म के राग द्वेष रखता मन में।।
इससे ही हम चिरकालों तक दुख भोग रहे हैं इस जग में।
सब जान बूझकर पर पदार्थ में बुद्धी रहती है सच में।।१४७।।

(१४८) मलमूत्रादिक के घर स्वरूप इस तन से सदा भिन्न हूँ मैं।
मन के विकल्प अरु शब्द आदि रस से भी सदा पृथक््â हूँ मैं।।
मैं शांत और आनंदरूप चैतन्यात्मा में स्थित हूँ।
आरंभ परिग्रह छोड़ के मैं संसार से भी भयभीत न हूँ।।१४८।।

इस विचार से संसार से भय का निवारण

(१४९)निंह तुम्हें प्रयोजन लोक और उसके आश्रय से जो पदार्थ।
निंह तुझे प्रयोजन द्रव्य और इंद्रिय संबंधी अशुभ भाव।।
सब पुद्गल की पर्याय कही तू तो चैतन्य स्वरूपी है।
फिर क्यों दृढ़ बंधन बांध रहा तू दर्शन ज्ञान स्वरूपी है।।१४९।।

(१५०) जिसके मन में ऐसे विचार उत्पन्न हो गये ज्ञानी है।
जो भोगों के सुख अशुभ मान आत्मा के सुख सुख माने हैं।।
लेकिन इसकी विपरीत अवस्था अज्ञानी की होती है।
जो भोगे गये भोग उनकी ही हरदम स्मृति रहती है।।१५०।।

(१५१) जिस तरह खाज के रोगी को अग्नि से सेक कर सुख मिलता।
लेकिन वह दुख ही देता है निंह रोग नष्ट उससे होता।।
बस उसी तरह से क्षुधा तृषा से पीड़ित प्राणी होता है।
खाने पीने में सुख माने पर क्षणभंगुर सुख होता है।।१५१।।

(१५२) जब यह आत्मा अपने स्वरूप को देख वही चेष्टा करता।
उसमें ही होकर लीन उसी में खुद को आनंदित करता।।
अपने ही हित में सुख माने अपना ही संबंधी होता।
ऐसी प्रवृत्ति ही आत्मा की इसके अतिरिक्त न कुछ होता।।१५२।।

(१५३) जिस तरह भ्रमर सब पुष्पों में इक कमलपुष्प को चुनता है।
वैसे ही योगीजन विकल्प तजकर निज में ही रमता है।।
क्योंकि मनरूपी भ्रमर एक क्षण में ना जाने कहाँ कहाँ।
उड़कर चल देता है उसको ज्ञानीजन वश में करें अहा।।१५३।।

(१५४) जो शुद्धात्मा में रम जाते उनको सारे रस विरस लगें।
स्त्री पुत्रादिक कथा दूर तन से भी प्रीति नहीं रहे।।
हो जाते वचन मौन उनके मन से रागादिक नष्ट हुए।
ऐसे भव्यों के लिए कहा शुद्धात्मा में ही मगन रहें।।१५४।।

(१५५) जो दर्शन ज्ञानमयी आत्मा निंह उससे भिन्न मेरा कुछ भी।
ऐसी हो गयी बुद्धि निर्मल पर से छूटी परिणति मन की।।
फिर ग्राम नगर वन एक सदृश सबमें सुख दुख का नहिं आना।
आत्मा में हो तल्लीन यही उत्कृष्ट कही है आराधना।।१५५।।

(१५६) आचार्य और भी कहते हैं यदि इंद्रिय का शुद्धात्मा से।
संबंध रहा तो व्यर्थ कहा तप करना बाह्य वस्तुओं से।।
हो गये जुदा या बंधे हुए शुद्धात्मा से या नहीं रहे।
तब भी तप करना व्यर्थ कहा जब तक अंतर में ममत्व रहे।।१५६।।

(१५७) यद्यपि नय शुद्ध है ग्रहण योग्य व्यवहार बिना कुछ ना होता।
इसलिए शुद्धनय की व्याख्या व्यवहार से ही करना होता।।
व्यवहार बिना निश्चयनय का निंह कोई प्रयोजन रह जाता।
इन दोनों को संग लेकर ही साधक मुक्ती का पथ पाता।।१५७।।

(१५८) व्यवहारनयापेक्षा आत्मा दर्शन अरु ज्ञान से भिन्न कहा।
अरु शुद्ध नयापेक्षा आत्मा निंह भिन्न सभी कुछ देख रहा।।
जो दर्शज्ञानमय आत्मा को गुण पर्यायों युत जान लिया।
उसने सब कुछ ही देख लिया अरु जान लिया अरु प्राप्त किया।।१५८।।

(१५९) ज्ञानीजन यह विचार करते रस गंधादिक पुद्गल विकार।
इससे मैं भिन्न न भीतर हूँ नहिं बाहर, हल्का वजनदार।।
निंह मोटा पतला और नहीं स्त्री नर और नपुंसक हूँ।
नहि शब्द वर्ण नहिं गणना हूँ मैं दर्शन ज्ञान स्वरूपी हूँ।।१५९।।

(१६०) मोहांधकार को तप द्वारा जब नाश करे केवलज्ञानी।
तब चिच्चैतन्य तेज को वे क्षण में जानें आनंदकारी।।।
वह तेज सूर्य और चंदा की आभा से अधिक प्रभाशाली।
ऐसा वह तेज त्रिलोकी में जयवंत रहे महिमाशाली।।१६०।।

(१६१) जिस तरह कर्म के वशीभूत नहिं साता और असाता है।
उनसे उत्पन्न विकल्प जाल नहिं होते वही विधाता हैं।।
वो मोक्षधाम में रहते हैं इंद्रादिक भी स्तुति करते।
उस पद को पाने हेतू हम भी उनकी शरण ग्रहण करते।।१६१।।

(१६२) जिनमें अज्ञानी सुख माने संताप मिटाती चंद्रकिरन।
कर्पूर मिला चंदन रस हो या स्त्री के हो कमल नयन।।
ज्ञानीजन ऐसे चंचल सुख को सदा सदा धिक्कार रहे।
बस गुरुओं के अमृतसम वचनों से ही शांती प्राप्त करें।।१६२।।

(१६३) जो योगीश्वर इस मोहरूप ठग से निज की रक्षा करते।
संसार रूप बड़वानल में जो इधर उधर घूमा करते।।
जैसे धनयुक्त पथिक कोई चोरों से निजधन रक्षा कर।
घर जाकर सुख अनुभवन करे वैसे ही करते योगी तब।।१६३।।

धर्म की महिमा तथा धर्म के उपदेश

(१६४) जो अब तक धर्म स्वरूप कहा वह धर्म बड़ा सुख देता है।
वह इंद्र तथा अहमिन्द्र और षट्खंड राज्य भी देता है।।
दुख का नाशक निर्वाणरूप प्रासाद की सीढ़ी है ये धरम।
इसका वर्णन केवली और गणधर ही कर सकते अपरम।।१६४।।

(१६५) हे भव्यजीव ! यदि जन्म जरा आदिक दुख से बचना चाहो।
संसार रूप जो महारोग उसको भी शमन करना चाहो।।
तो धर्म रसायन का आश्रय लेकर कषाय का त्याग करो।
मिथ्यात्व बड़ा दुखदायी है इसको न झांककर भी देखो।।१६५।।

(१६६) जैसे समुद्र में गिरा रत्न मिलना अत्यन्त कठिन होता।
दो काष्ठखंड जो अलग दिशा में बहकर गया नहीं मिलता।।
अंधे को निधि मिलना दुर्लभ वैसा ही दुर्लभ मनुष जनम।
यह दुर्लभ मनुष जनम पाकर भव्यों ! जिनधर्म करो धारण।।१६६।।

(१६७) अंधे के हाथ बटेर लगे वैसे ही मनुष जन्म मिलता।
पर इसको पाकर जो प्राणी खोटे गुरु देवों में रमता।।
उनके खोटे उपदेशों से जो विषय व्यसन में फंसा रहा।
उसका निगोद राशी से मानव तन पाना भी व्यर्थ रहा।।१६७।।

(१६८) हे भव्यजीव ! बहु पुण्य उदय से मनुज जन्म ये तुझे मिला।
इसको पाकर अतिशीघ्र कोई हितकारी कारज करो भला।।
क्योंकि तिर्यंचगती में कोई ज्ञान नहीं दिलवा सकता।
इसलिए न खोटी गती मिले कर ले जो धर्म तू कर सकता।।१६८।।

(१६९) आचार्य और भी कहते हैं जो उत्तमकुल है तुझे मिला।
नरतन पाकर बहुपुण्य उदय से जैनधर्म भी तुझे मिला।।
इतना सब कुछ पाकर भी यदि निंह धर्ममार्ग अपनाओगे।
तो आया हुआ रत्न हाथों में खोकर व्यर्थ गवांओगे।।१६९।।

(१७०) शुभ धर्म कार्य करने हेतू है उम्र बहुत ही पड़ी हुई।
शारीरिक शक्ती धन आदिक है भोग भोगने हेतु मिली।।
आगे भविष्य में वृद्धावस्था में आराधन कर लेंगे।
यह ही विचार करते मूरख इक दिन मृत्यू को वर लेंगे।।१७०।।

(१७१) जो ज्ञानी हैं वे श्वेत केश लखकर विरक्त हो जाते हैं।
अज्ञानीजन जब उम्र बढ़े तो तृष्णा और बढ़ाते हैं।।
उनको वैराग्यजनित गुरु के उपदेश तनिक नहिं भाते हैं।
इस तरह मूर्ख अज्ञानीजन अपना संसार बढ़ाते हैं।।१७१।।

(१७२) हे तृष्णे तू है प्रिया मेरी आजन्म साथ रहने वाली।
तू प्रौढ़ा है मेरी स्त्री फिर तू वैâसे सहने वाली।।
यह दुष्ट जरा ने केश मेरे पकड़े हैं फिर भी तू चुप है।
इससे मेरा संबंध छुड़ा क्योंकी ये तेरी सौतन है।।१७२।।

(१७३) इस जग में रंक धनी होता और धनी रंक हो जाता है।
क्षण भर का पता नहीं कुछ भी बलवान मृत्यु पा जाता है।।
इसलिए नहीं विद्वान पुरुष धन जीवन का मद करता है।
ज्यों कमलपत्र पर ओसिंबदु अस्थिर सब वस्तु समझता है।।१७३।।

(१७४) प्राणी के प्राण मित्र सुत सब पत्ते पर पड़े ओस सम हैं।
चंचल हैं तथा इंद्रियों के सुख भी होते विष सदृश हैं।।
अक्षय सुख एक धर्म ही है पर मोही समझ न पाते हैं।
वह मोहजनित दुख की दाता वस्तू में सुक्ख मनाते हैं।।१७४।।

(१७५) जब तक राजा जीवित रहता तब तक सेना में जोश रहे।
तब तक तलवार शत्रुओं से लड़ने में खूब स्वरोष रहे।।
जब तक बलवान भुजाएँ हों तब तक प्राणी में कोप रहे।
पर कालबली जब डस जाए तब नहीं किसी को होश रहे।।१७५।।

(१७६) जैसे मल्लाह के जाल में फंसकर भी मछली क्रीड़ा करती।
नहिं आगत दुख का भान उसे प्राणी की स्थिति भी वैसी।।
इस मृत्युरूप नाविक का जो भी बिछा हुआ है जाल प्रबल।
विषयों में फिर भी प्रीति करे नहिं नरकादिक गतियों का डर।।१७६।।

(१७७) यह मनुष क्षुधा को भोजन से और प्यास शीत जल पीकर के।
मंत्रों से भूत को शांत करे वैरीजन को दण्डादिक से।।
औषधि रोगादिक शांत करे पर मृत्यु का कोई उपाय नहीं।
उस पर यदि विजय प्राप्त करना, तो धर्म ही एक उपाय सही।।१७७।।

(१७८) जिस तरह हंस नामक पक्षी निर्मल जल में क्रीड़ा करते।
पंखों के बल पर इक सरवर से दूजे में रमते रहते।।
वैसे ही भव्य जीव रूपी ये हंस धर्म के पंखों से।
दुर्गति रूपी तालाबों को तज शोभित हों उत्तम पद में।।१७८।।

(१७९) यह मनुष धर्म के बल पर ही तीर्थंकर चक्रवर्ति बनते।
बलभद्र और इंद्रादिक बन उत्तम-उत्तम कीर्ती लभते।।
जो धर्मरहित वे निश्चय से नरकादिक दु:ख भोगते हैं।
यह सब कुछ जान समझकर भी क्यों धर्म न धारण करते हैं।।१७९।।

(१८०) जो सुन्दरता की खान कहा ऐसे स्वर्गों में भ्रमण करें।
जहाँ सुन्दर सुन्दर नंदनवन में देवांगना सह रमण करें।।
जिन इंद्रों की विमान पंक्ती में दिव्य पताकाएं शोभित।
ऐसे पद को पाने वाले होते हैं धर्मों से भूषित।।१८०।।

(१८१) षट्खंड और नवनिधियाँ भी मिलती हैं इसी धर्म से ही।
चौदह रत्नों के स्वामी बन मिले चौरासी लख हाथी भी।।
अठरह करोड़ घोड़े होते रथ बड़े मिले चौरासी लख।
छ्यानवे हजार स्त्रियों संग जीवन जीते हैं सुखपूर्वक।।१८१।।

(१८२) जो करे धर्म की रक्षा उन प्राणी की रक्षा धर्म करे।
इसके विनाश हो जाने पर धरती पर कुछ नहिं शेष रहे।।
योगीजन जिसका ध्यान करे मुक्ति पद को देने वाला।
यह धर्म सदा सच्चा साथी अनुपम सुख को देने वाला।।१८२।।

(१८३) नरकादि योनिरूपी जल में नाना दुख रूप तरंगे हैं।
उसमें शुभ अशुभ कर्मरूपी है मगर जिन्हें वह खाते हैं।।
जिसका निंह आदि अंत कोई ऐसे समुद्र में प्राणी को।
बस धर्मरूप नैया करती है पार अत: ध्यायें उनको।।१८३।।

(१८४) उत्तम कुल में हो जन्म तथा लावण्य, निरोग शरीर मिले।
आयू आदिक समस्त बातें इस धर्मकृपा से हमें मिलें।।
उत्तमलक्ष्मी और उत्तमसुख निर्मलगुण की प्राप्ती होती।
इसलिए धर्म का आराधन करते रहिए कह गए यती।।१८४।।

(१८५) भौंरा पुष्पित पुष्पों का आश्रय स्वयं प्राप्त कर लेता है।
वन में मृग को इच्छित जगहें नदि को समुद्रतल मिलता है।।
और हंस पक्षि को मानसरोवर स्वयं प्राप्त हो जाता है।
बस वैसे ही धर्मात्मा को यश संपति सब मिल जाता है।।१८५।।

(१८६) सौभाग्य कामिनी सुत सुख की यदि तुम अभिलाषा करते हो।
अथवा सुंदर घर लक्ष्मी को पाने की इच्छा रखते हो।।
सुन्दरता पाकर सब जग में प्रिय बनने की यदि इच्छा है।
तो सदा धर्म में स्थित हो तुम धारो गुरु की शिक्षा है।।१८६।।

(१८७) इसके प्रभाव से निर्जल जगहों में भी बने सरोवर हैं।
निर्जन जंगल में क्षण भर में बन जाते विशाल घर हैं।।
अब कहे कहाँ तक पुण्य उदय से सब वांछित मिल जाते हैं।
सुन्दरियों के संग बिन मांगे रत्नादिक भी मिल जाते हैं।।१८७।।

(१८८) इस पुण्य उदय से दूर गयी वस्तू भी प्राप्त हुआ करती।
जब अशुभ कर्म का उदय हुआ तो आकर के वापस जाती।।
मन में विचार तब आते हैं उसने मेरे संग बुरा किया।
पर वह निमित्त केवल बनता अपने कर्मों से दुखी हुआ।।१८८।।

(१८९) इस पुण्य उदय से अंधा अरु रोगी भी रूपवान होता।
निर्बल भी पुण्य उदय से ही शेरों सा पराक्रमी होता।।
बदसूरत कामदेव सा बन घर बैठे ही लक्ष्मी मिलती।
सब पुण्य उदय से दुर्लभ भी वस्तुएँ सुलभता से मिलतीं।।१८९।।

(१९०) यद्यपि हाथी बलवान तथा बाँधते महावत ही उनको।
बोझा लादें अंकुश मारें और वही चलाते हैं उनको।।
बस इसी तरह उत्तम पुरुषों पर नीच कुचेष्टा करते हैं।
इसे दुष्टकर्म की चाल समझ ज्ञानीजन इससे बचते हैं।।१९०।।

(१९१) इस धर्म की इतनी महिमा है जो सर्प हार बन जाते हैं।
पैनी तलवार पुष्पमाला विष भी अमृत बन जाते हैं।।
बैरी भी प्रीति दिखाता है सुरगण अधीन हो जाते हैं।
यह है कितना महिमाशाली आकाश रतन बरसाते हैं।।१९१।।

(१९२) जो ग्रीष्मकाल में सूरज की ज्वालाओं से तप्तायमान।
कोमल शरीर के धारी को जब मिला हुआ पथ मरुस्थान।।
उसको यदि दैवयोग से मिल जाए हिमगिरि की फव्वारें।
बस उसी तरह का सुख समझो जब मिले धर्म की बौछारें।।१९२।।

(१९३) जैसे समुद्र में प्रलयकाल में उठता हुआ बवंडर हो।
उसमें भ्रमते जो मगरमच्छ आदिक जलजीव भयंकर हों।।
ऐसे समुद्र में गिरे हुए प्राणी को धर्म सहायक है।
नभ में विमान की रचनाकर अवलंब बने सुखदायक है।।१९३।।

(१९४) धर्मात्मा जन को इंद्र आदि अपने शिर पर धारण करते।
सुरनर किन्नरियाँ उनके गुण को भक्ति से गाया करते।।
धर्मात्मा पुरुषों की कीर्ती खुशबू की तरह पैâलती है।
इसलिए धर्म धारण करिए इससे लक्ष्मी भी मिलती है।।१९४।।

(१९५) लक्ष्मी को वश करने वाला अरु इच्छित फल देने वाला।
यह धर्म कल्पतरु सम यह सब िंचताओं को हरने वाला।।
यह पर्वत से उत्पन्न हुई नदियों की निर्मल धारा है।
इससे सब कार्य सिद्ध होते सुख मिलता अपरम्पारा है।१९५।।

(१९६) जो धर्म मार्ग पर गमन करे उसके सुख का तो कहना क्या।
जो केवल उसको सुन लेवे स्वामी त्रैलोक्य संपदा का।।
जैसे शीतल जल पीने से अथवा स्नान से सुख मिलता।
पर थके हुए प्राणी को शीतल सरवर का तट सुख देता।।१९६।।

(१९७) जिनके पद पंकज की रज से भव्यों को ज्ञान प्राप्त होता।
ऐसे श्री ‘‘वीरनंदि गुरु’’ को मैं श्रद्धा से वंदन करता।।
है यही याचना हे प्रभुवर ! मुझको भी मुक्ति प्रदान करो।
मेरे सब पाप शमन करके निज चरणों का आश्रय दे दो।।१९७।।

(१९८) परमानंद को देने वाला यह धर्म परम अमृत सम है।
संसार मार्ग से थके हुए प्राणी के लिए सुखासन है।।
यह पुण्यहीन को दुर्लभ है ऐसा ऋषियों ने कहा सदा।
‘‘श्री पद्मनंदि मुनि’’ के मुख से इतना धर्मामृत सार कहा।।१९८।।

द्वितीय अधिकार

दान का उपदेश

(१९९) श्री नाभिराय के पुत्र ऋषभ जग में सदैव जयवंत रहें।
कुरु गोत्र रूप गृह के प्रदीप श्रेयांस नृपति जयवंत रहें।।
इन दोनों से व्रत दान तीर्थ उत्पन्न हुआ इस वसुधा पर।
इसलिए इन्हें हम नमन करें ये धर्मतीर्थ के संचालक।।१।।

(२००) जिनका यश शरद काल के उज्जवल मेघ समान भ्रमण करता।
ऐसे राजा श्रेयांस हुए स्मरण जिन्हें जग है करता।।
तीनों लोकों के पूज्यनीक का जिनके घर आहार हुआ।
श्री आदिनाथ को दे आहार जिनका जग में यशगान हुआ।।२।।

(२०१) घर धन्य हुआ जग धन्य हुआ जब प्रभुवर ने पारणा करी।
राजा श्रेयांस भी धन्य हुए देवों ने रत्न की वर्षा की।।
इस रत्नवृष्टि से धरती ने ‘‘वसुमति’’ इस नाम को प्राप्त किया।
अक्षय हो गया वहाँ भोजन ‘‘अक्षय तृतिया’’ विख्यात हुआ।।३।।

(२०२) दुर्लभ मानव तन को पाकर जो लोभ कूप में गिरे हुए।
जो स्वप्न समान मिला यौवन उसमें ही निज को भूल गए।।
यह इंद्रजाल सम अस्थिर है ऐसा गुरुवर संबोध रहे।
अब आगे दया भावना से आचार्य हमें उपदेश रहे।।४।।

(२०३) जो स्त्री पुत्र धनादिक में अत्यन्त मोह से भरा हुआ।
एवं विशाल सागर रूपी गृह आश्रम में जो फंसा हुआ।।
उसके उद्धार हेतु गुरु ने नौका स्वरूप है कहा दान।
सात्विक भावों से दिया हुआ वह दान बना देता महान।।५।।

(२०४) यदि खेवटिया हो चतुर लहर से नाव पार कर देता है।
वैसे ही इस भवसागर में रहकर भी दान यदि देता है।।
तो वह मनुष्य घर में रहकर भी शुभगति का ही बंध करे।
इसलिए गृहस्थाश्रम में रह उत्कृष्ट दानविधि पूर्ण करें।।६।।

(२०५) नाना प्रकार के दुख सहकर जो धन को पैदा करते हैं।
सुत और प्राण से प्यारे धन का सदुपयोग जो करते हैं।।
वह दान किया धन ही वास्तव में अच्छी गति देने वाला।
वरना विपत्ति का कारण धन यह ही गुरुओं ने लिख डाला।।७।।

(२०६) भोगादिक में जो नष्ट हुई वह कभी न वापस आती है।
पर जो लक्ष्मी सन्तों को चउविध दानों में दी जाती है।।
वटवृक्ष सरीखी कोटि गुना होकर आगे फल देती है।
जो निरभिमान हो दान करें तो इंद्र संपदा देती है।।८।।

(२०७) जैसे जैसे मकान बनता कारीगर भी वैसे ऊपर जाता।
श्रावक मुनिगण को दे अहार, मुक्तीपथ ओर पहुंच जाता।।
सत्पात्र दान देकर खुद भी मुक्तीपथ को पा जाता है।
इसलिए दान देने वाला निज पर हितकारि कहाता है।।९।।

(२०८) जो मुनि को शांकपिण्ड का भी आहार भक्तिपूर्वक देते।
वे श्रावक पुण्य उपार्जन करके हैं अनंत सुख को लभते।।
जैसे किसान थोड़े बीजों को बोकर धान बहुत पाता।
वैसे ही थोड़ा दान दिया, भावों से बहुगुणा फल जाता।।१०।।

(२०९) मन वचन काय की शुद्धी से मुनिगण को देते जो अहार।
उससे न बड़ा है पुण्य कोई गर पात्रदान में रुचि महान।।
यह भवसमुद्र से तिरने में है कारणभूत न अन्य कोई।
इसकी अभिलाषा इंद्र करे पर दे सकते हैं श्रावक ही।।११।।

(२१०) रत्नत्रय मोक्ष का कारण है इसको मुनिगण पालन करते।
उनको जिससे शक्ती मिलती वह अन्न तो श्रावकजन देते।।
इसलिए गृहस्थाश्रम में गुरु ने व्रत से ज्यादा है पुण्य कहा।
आहारदान अति फलदायी सब आचार्यों ने यही कहा।।१२।।

(२११) नाना प्रकार आरंभों से जो पाप उपार्जित होता है।
वह व्रत करने से कम कटता पर दान बहुत फल देता है।।
इसलिए सदा प्रीतिपूर्वक उत्तम पात्रों में दान करें।
ऊँचे फल के जो अभिलाषी वे ऊँचे फल भी प्राप्त करें।।१३।।

(२१२) जैसे नदियाँ पर्वत से गिरने में कुछ छोटी हो जातीं।
जब सागर में जाकर मिलतीं तब लहरों से बढ़ती जाती।।
बस उसी तरह सम्यग्दृष्टि के पहले लक्ष्मी कम होती।
लेकिन मुनियों के दान पुण्य से चक्रवर्ति सम है बढ़ती।।१४।।

(२१३) परमात्म बोध घर में रहकर के कभी नहीं हो सकता है।
पर सम्यग्दृष्टी धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष वर सकता है।।
आहारौषधि अरु अभय शास्त्र जो चउविध दान दिया करते।
पुरुषार्थ सिद्धि के अभिलाषी सब पल भर में हैं पा लेते।।१५।।

(२१४) जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं ऐसे साधू के सुमिरन से।
सब पाप नष्ट हो जाते हैं फिर और अधिक अब क्या कहने।।
आहार औषध अरु वसतिदान से भव समुद्र तिर जाता है।
इससे न बड़ा उपकार कोई यह महादान कहलाता है।।१६।।

(२१५) जिस घर में मुनि के चरण पड़े वह घर पवित्र हो जाता है।
जिस मन में मुनि की जगह न हो वह श्रावक निंह कहलाता है।।
इसलिए गृहस्थों को घर में आहारदान देना चहिए।
उनके चरणोदक से घर को मन को पवित्र करना चहिए।।१७।।

(२१६) वह देव ही क्या जो स्त्री को लखकर विकार को प्राप्त हुआ।
वह धर्म ही क्या जिसमें न दया करुणा का भाव हो मिला हुआ।।
जिससे आत्मा का ज्ञान न हो वह गुरू नहीं हो सकता है।
जहाँ पात्रों को नहिं दान दिया वह व्यर्थ संपदा खोता है।।१८।।

(२१७) तीनों लोकों को वश करने का मंत्र स्वरूप दानव्रत है।
उससे उत्पन्न धर्म से ही उत्तम गुण सुख ऐश्वर्य रहे।।
जो उत्तम गुण के अभिलाषी मानव वे दान जरूर करें।
ऐसा गुरुजन का कहना है इससे ही मानव शीघ्र तिरे।।१९।।

(२१८) सत्पात्र दान से इक प्राणी संचय करता है पुण्य बहुत।
दूजा प्राणी जो भोगों में लक्ष्मी को करता व्यर्थ बहुत।।
क्योंकी आगामी कालों में उसका न कोई फल मिलता है।
पर पात्रदान करने वाला धन संपति का फल चखता है।।२०।।

(२१९) नहिं दान करे नहिं व्रत आदिक नहिं शास्त्रों का भी पठन करें।
ऐसे प्राणीगण जन्म मरण के दुक्ख भोग कर व्यर्थ करें।।
इसलिए कहा आचार्यों ने धन पात्रदान में सदा करें।
शक्ती अनुसार तपस्या कर शास्त्रों का पाठन सदा करें।।२१।।

(२२०) इस दुर्लभ नरभव को पाकर उत्तम तप करना श्रेष्ठ कहा।
बस इसी तरह धनवान व्यक्ति को पूजन दान विशेष कहा।।
क्योंकी जो दान व पूजन में निज संपत्ति का उपयोग करें।
वरना वह संपति वृथा कही केवल कर्मों को जोड़ रहे।।२२।।

(२२१) जो मिली हुई संपत्ती को, सत्पात्र आदि में दान करें।
वरना ये वैभव दुर्गति में ही ले जाने का काम करे।।
सत्पात्र दान से रहित व्यक्ति को भिक्षा लेना उत्तम है।
क्योंकी भिक्षुक संक्लेश रहित आरंभ परिग्रह भी कम है।।२३।।

(२२२) जिस घर में प्रभु के चरण कमल की पूजा नहीं करी जाती।
संयमी जनों को दान आदि भक्ती से कभी न दी जाती।।
ऐसा गृहस्थ जल में प्रवेश करने के लायक कहा गया।
आचार्य कहें उस मानव का सारा जीवन है व्यर्थ गया।।२४।।

(२२३) भवसागर में भ्रमते भ्रमते मुश्किल से नरभव प्राप्त हुआ।
इस नरतन को भी पा करके यदि तपश्चरण भी नहीं किया।।
तो गुरुवर हमसे कहते हैं अणुव्रत तो धारण करो सही।
उत्तम पात्रों में दान करो जिससे मिलता है मोक्ष नहीं।।२५।।

(२२४) यात्रा पर जाते समय व्यक्ति जो खाद्य वस्तु लेकर चलता।
वह सुखपूर्वक गंतव्य पूर्ण कर लेता कोई नहीं चिंता।।
वैसे ही जो परलोक गमन करने वाले प्राणीगण हैं।
उनको बस दान व्रतादिक से उत्पन्न पुण्य सुखकारण है।।२६।।

(२२५) इस कामभोग धन यश खातिर जो जो प्रयत्न हम करते हैं।
वे दैवयोग से हो सकते निष्फल पर यदि हम करते हैं।।
हर्षित मन से जो किया गया वह दान न निष्फल जाता है।
इसलिए दान हरदम करिए यह ही बस पुण्यप्रदाता है।।२७।।

(२२६) बैरी भी यदि निज घर आये भोजन सम्मान दिया जाता।
फिर उत्तम रत्नत्रयधारी को क्यों ना दान दिया जाता।।
इसलिए सभी सज्जन प्राणी मुनिगण को नवधा भक्ती से।
आहार हर्षपूर्वक देवे और पुण्य कमा लेवे सच में।।२८।।

(२२७) आचार्य प्ररूपण करते हैं बिन दान दिये जो दुख होता।
उतना दुख सज्जन पुरुषों को निंह पुत्र मरण से है होता।।
दुर्दैव योग से यदि कोई हो जाए कार्य जो इष्ट नहीं।
उतना नहिं होता दुख मगर अपने से होए अनिष्ट नहीं।।२९।।

(२२८) जो धनी पुरुष जिनमंदिर का निर्माण कार्य धारे चित में।
अथवा जो कारणभूत धर्म के अन्य कार्य करते मन से।।
उनसे भी दान विशेष कहा दृष्टांत है चंद्रकांत मणि का।
जब चंद्रकिरण स्पर्श करे तब ही उससे पानी गिरता।।३०।।

(२२९) जो धन होने पर भी श्रावक नहिं पात्रदान में रुचि रखते।
मायाचारी के वश होकर अपने को धर्मात्मा कहते।।
अगले भव में तिर्यंचगती पा करके बहुत दुख सहते।
इसलिए कपट से दूर रहो ऐसा आचार्यवर्य कहते।।३१।।

(२३०) अपनी शक्ती अनुसार दान जितना भी बने देना चाहिए।
वो एक ग्रास दो ग्रास तथा आधा चौथाई भी रहिए।।
क्योंकी आचार्य हमें कहते कब किसके पास पूर्णता से।
जितना धन उससे ज्यादा की नहिं इच्छा पूर्ण हुई उससे।।३२।।

(२३१) मिथ्यादृष्टी और पशुओं को भी उत्तम भोगभूमि मिलती।
मुनि के आहारदान अनुमोदन से भी है सुरगति मिलती।।
सम्यग्दृष्टी का पात्रदान क्रमश: मुक्तीपथ देता है।
इसलिए दान की महिमा से इस जग में सब कुछ मिलता है।।३३।।

(२३२) जिस नर के पास यथोचित धन फिर भी नहिं बुद्धी रुचि उसमें।
तो समझो छोड़ अमूल्य रत्न भटके वह मूर्ख धरातल में।।
ऐसे मनुष्य को मिली हुई संपति भी बिना प्रयोजन हो।
इसलिए प्रमाद को तज करके, बाकी संपत्ति दान में दो।।३४।।

(२३३) मणि के समान उत्तम नरभव में धन को पाकर दान करे।
ऐसी जिनवर की आज्ञा है उससे विपरीत न काम करे।।
वरना रत्नों से भरी हुई टूटी नैया कब पार करे।
गर समयचक्र में डूब गये तो दुर्लभ मणि ना प्राप्त करें।।३५।।

(२३४) जो इस भव में यश परभव में सुख की खातिर नहिं दान करे।
तो समझो उसको उस धन का वह मालिक निंह बस दास रहे।।
इच्छानुसार निज धन को व्यय दानादिक में करना चहिए।
वह ही अगले भव संग जाए उससे है भिन्न पर का कहिए।।३६।।

(२३५) जिनमंदिर बनवाने में जो धनराशी खर्च करी जाती।
प्रभु की पूजन आचार्यों के पूजन में जो खर्ची जाती।।
इसके अतिरिक्त संयमीजन अरु दुखित जनों को दान करें।
यह ही धन अपना कहलाता बाकी धन सब बेकार रहे।।३७।।

(२३६) जितना जल निकले कूप से वह उतना ही बढ़ता रहता है।
हे भव्यात्मन् ! बस उसी तरह यह धन भी दान से बढ़ता है।।
संयमी पात्र में देने से वह दान बहुत फल को देता।
पर कभी पुण्य क्षय होने से मिथ्यादानों से है घटता।।३८।।

(२३७) लौकिक विवाह आदिक कार्यों में किया गया जो लोभ कहा।
उसमें बस थोड़ा दोष ढूंढ कहते लोभी कंजूस महा।।
लेकिन जो अर्हत् पूजन में है किया लोभ वह ठीक नहीं।
इहभव परभव में सम्यग्दर्शन गुण का घातक बने वही।।३९।।

(२३८) मृत्यू पश्चात् न यश पैâले इस जग में ऐसे मानव का।
पैदा होना भी व्यर्थ कहा धन होते हुए दरिद्री सा।।
है निष्कलंक फिर भी उसका गुणगान न कोई गाता है।
इसलिए दान देना चहिए यह शास्त्र हमें बतलाता है।।४०।।

(२३९) कर्मानुसार इक कुत्ता भी जब अपनी भूख मिटा लेता।
कर्मानुसार इक राजा भी मनचाहा भोजन खा लेता।।
नरभव पाकर विवेकपूर्वक उत्तम पात्रों में दान करें।
नरभव पाना तब ही सार्थक ना इसका तू अभिमान करे।।४१।।

(२४०) परदेश में रहकर श्रमपूर्वक जो पैदा किया गया धन है।
वह पुत्रों से भी प्यारा है और प्राणों से प्यारा धन है।।
उस धन की सफलगती केवल आचार्य दान ही कहते हैं।
वरना विपत्ति ही विपति मिले सज्जनगण ऐसा कहते हैं।।४२।।

(२४१) मरणोपरांत यह धन वैभव थोड़ी भी दूर नहीं जाता।
शमशान भूमि से ही बंधू समूह वापस घर आ जाता।।
बस एक पुण्य ही मित्र तेरा जो सदा साथ में जायेगा।
इस दान से बढ़कर पुण्य नहीं यह मुक्ती भी दिलवायेगा।।४३।।

(२४२) सौभाग्य शूरता सुख विवेक विद्या शरीर धन उत्तम कुल।
ये सब कुछ पात्रदान से ही मिलता है देखा कितना कुछ।।
आचार्य हमें सम्बोध रहे हरदम प्रयत्न करते रहना।
बुद्धी अनुकूल रहे जिससे भव भव में पड़े नहीं भ्रमना।।४४।।

(२४३) पहले मकान बनवा लूं मैं फिर पुत्रों का विवाह कर दूं।
थोड़ा धन संचित कर रख लूं फिर बचे तभी दान में दूं।।
ऐसा विचार करते करते प्राणी का अंत समय आता।
इसलिए प्रथम कुछ दान करो जो साथ तुम्हारे है जाता।।४५।।

(२४४) लोभी मनुष्य धन होने पर भी निंह खुद भी उपभोग करे।
ऐसे मनुष्य का जीना क्या नहिं दान करे बस कोष भरे।।
आचार्य कृपण की िंनदा कर कौए को उत्तम कहते हैं।
जो सबको पास बुला करके संग मिलकर भोजन करते हैं।।४६।।

(२४५) उत्प्रेक्षा अलंकार से युत कुछ शब्दों में यूं कहते हैं।
धन ने सोचा उदार के घर रहने से भ्रमते रहते हैं।।
इसलिए कृपण के घर में सुख शांती से रहना अच्छा है।
निंह व्यर्थ घूमना पड़े हमें सोते रहने की इच्छा है।।४७।।

(२४६) अब पात्रों के भेदों का वर्णन गुरुवर हमें बताते हैं।
उत्तम है पात्र मुनी आदिक मध्यम श्रावक कहलाते हैं।।
सम्यग्दृष्टी व्रत रहित गृही है जघन्य पात्र की श्रेणी में।
अरु मिथ्यादृष्टि व्रती कुपात्र अव्रति अपात्र की श्रेणी में।।४८।।

(२४७) निर्मल भावों से दिया हुआ उत्तम पात्रों का दान सदा।
उत्तम फल देने वाला है मध्यम दानों का फल न वृथा।।
देता है क्रमश: स्वर्ग भोगभूमी उत्तम मध्यम आदिक।
फल दान का मिलता है अवश्य निंह कह सकते हैं और अधिक।।४९।।

(२४८) आहार औषध और अभय शास्त्र ये चार दान के भेद कहे।
इन चारों दानों से मिलता है महामोक्षफल शास्त्र कहें।।
पर इससे भिन्न गो कनक भूमि रथ स्त्री आदिक दान करे।
वह फल न कोई देने वाला ये व्यर्थ के ही सब काम कहें।।५०।।

(२४९) जो जिनमंदिर के लिए धरा धन दान स्वरूप दिए जाते।
उसके प्रभाव से बहुत काल जिनमत की ज्योति जला जाते।।
जिनमंदिर बनवाकर दाता ने जिनमत का उद्धार किया।
उस धन का सदुपयोग करके अपने कर्मों को काट लिया।।५१।।

(२५०) इससे विपरीत कृपण जन को दानादिक कार्य न रुचते हैं।
मिथ्यात्व हृदय में भरा हुआ बस दोष ढूंढते रहते हैं।।
जैसे उल्लू को दिनकर का प्रकाश अच्छा निंह लगता है।
वैसे ही लोभी को सुखप्रद यह दान न अच्छा लगता है।।५२।।

(२५१) जो निकट भव्य है जीव उसे दानोपदेश से खुशी मिले।
लेकिन अभव्य जीवों को यह उपदेश बहुत अप्रिय लगते।।
जैसे भ्रमरों की संगत से विकसित हो पुष्प चमेली का।
और चन्द्रकिरण से कमल खिले निंह खिले काष्ठ और पत्थर का।।५३।।

(२५२) दानोपदेश के प्रकरण को आचार्य विराम लगाते हैं।
रत्नत्रय से भूषित गुरूवर श्री वीरनंदि को ध्याते हैं।।
उनके प्रभाव से ‘‘पद्मनंदि’’ नामक मुनिवर ने रचना की।
बावन श्लोकों में रचकर दानी की उत्तम महिमा की।।५४।।

तृतीय अधिकार

अनित्यत्वाधिकार

(२५३) जिसके अंदर है दयाभाव वह नाश किसी का नहिं करता।
पर जिनप्रभु की वाणी ऐसी पल भर में मोह रिपू मरता।।
वह दयावान होकर के भी योगी का मोह नष्ट करती।
ऐसी वाणी के धारक प्रभु जयवंत रहें यह है विनती।।१।।

(२५४) यदि इक दिन खाया ना जाये अथवा रात्री में नींद न लें।
तो यह शरीर मुरझा जाता अग्नी से कमलपत्र जैसे।।
यह अस्त्र, रोग, जल, अग्नी से भी पल भर में नश जाता है।
इसलिए ममत्व तजो इससे यह कभी न साथ निभाता है।।२।।

(२५५) दुर्गंध अशुचि मल मूत्र आदि से तन की बनी दीवारें हैं।
ऊपर से चमड़ी ढ़की हुई क्षुध तृषा दुख भंडारे हैं।।
वृद्धावस्था रूपी अग्नी चउ तरफ से घेरे बैठी है।
ऐसी काया कुटि को पवित्र माने वह मूढ़मती ही है।।३।।

(२५६) यह तन जल का बुलबुला सदृश और इन्द्रजाल सम लक्ष्मी है।
स्त्री धन पुत्र मित्र आदिक मेघों के सदृश विनाशी हैं।।
मदमत्त विषय संबंधी सुख स्त्री के चंचल नेत्र सदृश।
इनके मिलने पर सुखी न हो नहिं मिलने पर तू शोक न कर।।४।।

(२५७) यद्यपि जग में दुख शोक आदि तन से संबंधित होते हैं।
यह दु:ख शोक की भूमी है विद्वतजन ऐसा कहते हैं।।
इसलिए आत्मिंचतवन करो जिससे निंह जन्म दुबारा हो।
इस जन्म मरण के रोगों से मिल जाए हमें छुटकारा हो।।५।।

(२५८) जो पूर्वजन्म में संचित है नहिं जिसका कोई निवारण है।
स्त्री सुतादि का मरण सदा, कर्मों के वश हो दुखप्रद है।।
उन्मत्त समान शोक करना क्योंकि उससे कुछ नहिं मिलता।
अरु व्यर्थ शोक करने से धर्म, अर्थ मूर्ख नर का नशता।।६।।

(२५९) जिस तरह सूर्य का उदय अस्त होने के लिए स्वभावी है।
वैसे ही यह शरीर निश्चय नश्वर है अवश्यंभावी है।।
इसलिए काल के आने पर जब प्रियजन कोई मरते हैं।
तो ज्ञानीजन निंह शोक करें ऐसा श्री गुरुवर कहते हैं।।७।।

(२६०) जिस तरह वृक्ष पर फूल पत्र फल आदि समय पर आते हैं।
कालानुसार वे नष्ट होय नहिं सदा एक से रहते हैं।।
वैसे ही बस कर्मानुसार सत्कुल में जन्म मरण होता।
लेकिन जो ज्ञानीजन होते उसमें नहिं सुखी दुखी होता।।८।।

(२६१) जिस दुख का कोई अंत नहीं ऐसे प्रियजन के मरने से।
जो शोक करे वह अंधकार में नृत्य कर रहा है जैसे।।
सब वस्तु जगत में नश्वर है, हे भव्य ! नहीं तुम शोक करो।
दुखसंतति को जड़ से काटे, ऐसे जिनधर्म की शरण गहो।।९।।

(२६२) जिसका जिस समय मरण होना है पूर्वजन्म में लिखा गया।
उस समय वही होगा ऐसा है भव्यजीव ! ये कहा गया।।
जिस तरह सर्प जिस मार्ग गया उसको पीटना अकारण है।
बस उसी तरह प्रियजन के दुख का धर्म ही एक निवारण है।।१०।।

(२६३) जो मूर्ख दुख की निवृत्ति हेतु व्यापार आदि को करते हैं।
निजकर्म के वश से सुख हो या दुख उनसे अच्छे रहते हैं।।
क्योंकी जो स्त्री पुत्र आदि के मरने पर अति शोक करें।
वे मूर्खशिरोमणि कहलाते वह पापबंध भी बहुत करें।।११।।

(२६४) जो इंद्रजाल सम जग अनित्य यह नहीं जानता नहिं सुनता।
अथवा प्रत्यक्ष न देख रहा निस्सार है कदली खम्भे सा।।
फिर अन्य लोक जो चले गए उनकी खातिर क्यों रोते हो।
रत्नत्रय का आराधन कर निज को क्यों पर में खोते हो।।१२।।

(२६५) जो पैदा हुआ मरण उसका इक दिन होना तो निश्चित है।
तीनों लोकों में कोई नहीं जो बचा सके यह प्रकृति है।।
एकांत और निर्जन वन में रोने से लाभ नहीं होगा।
आचार्य हमें संबोध रहे इस वृथा शोक से क्या होगा।।१३।।

(२६६) यह इष्ट वियोग अनिष्ट योग सब पाप उदय से होता है।
जो पूर्वजन्म में पाप किए उनके फल से सब मिलता है।।
तू शोक किसलिए करता है आगे पापों का नाश करो।
जिससे निंह होवे इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग का उदय न हो।।१४।।

(२६७) यदि नष्ट हुई वस्तू वापस आ जाए अथवा सुख देवे।
या कीर्ति बढ़ाए दुनिया में तो कहा शोक करते रहिए।।
वरना जैसा आचार्य कहें दुख से सुख धर्म नहीं मिलता।
इसलिए शोक को छोड़ दे जो विद्वान पुरुष वह ही बनता।।१५।।

(२६८) रात्री के समय एक तरु पर पक्षी आकर निवास करते।
होते ही पूर्व दिशाओं में सब जुदे-जुदे हो उड़ जाते।।
वैसे ही इक कुल में जन्में अपने अपने कर्मानुसार।
सब नाना कुल में जन्म धरे फिर क्यों रोए कर-कर विचार।।१६।।

(२६९) नाना प्रकार के दुखरूपी सर्पों व हस्तियों से जो व्याप्त।
अज्ञान तथा नरकादि गती से सहित जगत में फिरे त्रस्त।।
उसमें गुरुओं के वचन रूप दीपक प्रकाश सम होते हैं।
सच्चे मारग को देख चतुरजन मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।।१७।।

(२७०) पूर्वोपार्जित कर्मों द्वारा जो मरण समय है कहा गया।
उसके अनुसार मरण होता नहीं आगे पीछे कोई गया।।
आचार्य हमें समझाते हैं आत्मीय जनों के मरने पर।
अज्ञानी प्राणी शोक करे जिससे आते हैं दुख उन पर।।१८।।

(२७१) पक्षी और भौंरे एक वृक्ष से डाल पुष्प बदला करते।
वैसे ही प्राणी इक गति से दूजी गति में जाया करते।।
इसलिए प्राणियों की अनित्यता जान नहीं दुख शोक करें।
मतिमान वही कहलाते हैं जो दोनों में समभाव धरें।।१९।।

(२७२) भ्रमते अनंत कालों में यदि ये जीव मनुषगति पा जावे।
यदि खोटे कुल में जन्म हुआ तो भी यह जन्म वृथा जावे।।
कुल श्रेष्ठ मिला फिर भी कोई मर गया गर्भ में ही मानो।
इसलिए नरोत्तम कुल पाकर के धर्म की शक्ती पहचानो।।२०।।

(२७३) द्यपि द्रव्यार्थिनयापेक्षा यह लोक सदा है विद्यमान।
तो भी पर्यायार्थिक नय कहता मेघ सदृश यह नाशवान।।
हे बुद्धिमान ! तुम ये समझो प्रियजन के सुख में क्या रखा।
यदि प्रिय मनुष्य मर भी जाए तो दुख करने में क्या रखा।।२१।।

(२७४) लंघ जाते बड़े समुद्रों को पर्वत और देशों को प्राणी।
विस्तृत नदियाँ भी तिर जाते पर मृत्युकाल टलता नाहीं।।
इसलिए कौन ऐसा होगा जो धर्माराधन ना करके।
नित शोक करेगा नरकगती को पाने की इच्छा करके।।२२।।

(२७५) खोटी चेष्टाओं के द्वारा जो कर्म उदय से सब प्राणी।
इस जग में जन्म मरण करते ये तो परंपरा है अनादि।।
पर आचार्यों ने कहा बावलापन जो अधिक रुदन करते।
प्रियजन की मृत्यु पर शोक अधिक और जन्म हुए पर हैं हंसते।।२३।।

(२७६) लोभों का भ्रम व मूर्खता है दु:खों से व्याप्त इस दुनिया में।
आपत्ति आगमन शोक करें क्यों सुख की करें अपेक्षा वे।।
क्योंकी जैसे शमशान भूमि में रहकर कौन पुरुष होगा।
जहाँ भूत पिशाच चितायें ही होंगी डरने से क्या होगा।।२४।।

(२७७) जैसे चंद्रमा सदा नभ में भ्रमता रहता है वैसे ही।
यह प्राणी एक गती से दूजी गती घूमता कहें यही।।
हो उदय अस्त घटना बढ़ना राशी से राशि बदलता है।
इस काया की स्थिती यही निंह हर्ष शोक फिर करता है।।२५।।

(२७८) स्त्री पुत्रादिक सब पदार्थ बिजली के सदृश विनाशी हैं।
मत शोक करो तुम बुद्धिमान चंचल है आनी जानी है।।
जैसे अग्नी में उष्णपना सर्वदा रहेगा है स्वभाव।
वैसे ही सभी पदार्थों में उत्पाद ध्रौव्य व्यय तीन भाव।।२६।।

(२७९)प्रियजन की मृत्यु पर शोक अधिक करने से बंधते कर्म बहुत।
और कर्म असाता हो जाते तिर्यंच नरकगति में परिणत।।
इसलिए बने जैसे करके कर शांत हृदय दुख को तजिए।
वरना वटवृक्ष समान बड़ा दुखदायी बन जाता दुख ये।।२७।।

(२८०) प्रतिसमय आयु का क्षय होता यमराज का मुख इसको जानो।
इस मुख में हुए प्रविष्ट सभी खुद को भी जाना है मानो।।
फिर भी अज्ञानी शोक करे मरने पर अपने प्रियजन के।
आश्चर्य बहुत करते गुरुवर क्यूं समझ नहीं आता सबके।।२८।।

(२८१) यह प्राणी ना तो मरा कभी निंह उसके घर मर रहा कोई।
आगे ना कोई मरेगा यदि तो शोक करे तब उचित सही।।
पर जीव अनन्तों बार मरा मर रहा मरेगा नियति यही।
फिर दुख करना निंह उचित लगे आचार्यवर्य कह गये यही।।२९।।

(२८२) यह सूर्यदेव भी इक दिन में इक बार सुशोभित होता है।
वह भी संध्या में अस्त होए संदेश सभी को देता है।।
इस जग में सभी पदार्थों की नहिं रहती एक अवस्था है।
इसलिए हृदय में शोक न कर यह तो प्राचीन व्यवस्था है।।३०।।

(२८३) यह चंद्र सूर्य अरु पक्षि पवन आकाश में विचरण करते हैं।
पृथ्वी पर चलने वाले पशु िंसह व्याघ्र जमीं पर चलते हैं।।
जल में चलने वाले मछली और मगर आदि जल में चलते।
पर यम सब जगह चला जाता इस काल से ना कोई बचते।।३१।।

(२८४) तीनों लोकों में देव देवि विद्या मणि मंत्र तंत्र कोई।
आश्रितजन अथवा मित्र आदि राजादिक कुछ ना करे कोई।।
जो कर्म पूर्व में बंधे हुए उसका फल निश्चित मिलता है।
इसलिए शुभाशुभ कर्मों के फल से विद्वान न डरता है।।३२।।

(२८५) क्या कहें अधिक जो देव सभी अणिमादिक ऋद्धीधारी थे।
रावण ने उसका नाश किया जबकि वे शक्तीशाली थे।।
उस रावण को भी रामचन्द्र ने मानव होकर हरा दिया।
फिर रामचन्द्र भी कालबली के मुख में देखो समा गया।।३३।।

(२८६) इस शोक रूप दावानल से जगकानन१ व्याप्त हो रहा है।
इस वन में लोकरूप जो मृग वह मृगी के पीछे भगता है।।
यह कालरूप जो व्याघ्र खड़ा वह किसी को ना जीने देता।
वह युवा वृद्ध या बालक हो नहिं सदा काल जीवित रहता।।३४।।

(२८७) इस भवकानन में मनुषरूप जो वृक्ष काल की अग्नी में।
संपदा रूप जो लतायुक्त स्त्रीरूपी बेलें उसमें।।
आिंलगन करती रहे सदा पुत्रादि पल्लवों का धारी।
रति से उत्पन्न हुआ जो सुख उन फल से लदा हुआ भारी।।३५।।

(२८८) सब सुख की अभिलाषा करते पर सुख कर्मानुसार मिलता।
सबकी मृत्यू होना निश्चित फिर जीव मृत्यु से क्यों डरता।।
इस तरह मूढ़बुद्धी प्राणी भय कामयुक्त होकर जग में।
दुखरूप तरंगों से जो युत इस भव समुद्र में फिरते वे।।३६।।

(२८९) जैसे धीवर के बिछे जाल में मछली क्रीड़ा करती है।
पर मरण रूप आपत्ती पर निंह ध्यान तनिक वो देती है।।
बस वैसे ही सुखरूप नीर में कालरूप जो जाल पड़ा।
उस पर निंह ध्यान जरा देता बस जीवन व्यर्थ गवां देता।।३७।।

(२९०) इस जग से कितने चले गए और जाते हुए देखकर भी।
इस मोहकर्म के वश होकर आत्मा को माने निश्चल ही।।
वृद्धावस्था आने पर भी निंह लक्ष्य धर्म में रखता है।
प्रत्युत स्त्री पुत्रादिक में अधिकाधिक प्रीती करता है।।३८।।

(२९१) जो दुष्चेष्टा से किए कर्ममय कारीगर से बनी देह।
खोटी संधी खोटे बंधन से सहित नाशकर कही देह।।
नाना दोषों से सहित सप्तधातू से भी ये है संयुत।
फिर क्यों कर स्थिर मान रहा ये आधि व्याधि आदिक से युत।।३९।।

(२९२) जग में वांछित लक्ष्मी पा ली सागरों राज्यसुख भोग लिया।
अरु स्वर्गों में भी दुर्लभ जो रमणीय विषय सुख प्राप्त किया।।
पर जिस क्षण मृत्यु पास आए विषसंयुत भोजन के समान।
धिक्कार हो ऐसी लक्ष्मी को मुक्ती का आश्रय लो पुमान।।४०।।

(२९३) जब तक भूखा निर्दयी तथा सबका विनाश करने वाला।
यमराज सामने ना आये नहिं कोई काम आने वाला।।
तलवार वीरता और सुभट आदिक योद्धा रथहस्ति आदि।
सब चीज व्यर्थ हो जाती है बुधि पुरुष यत्न करिए नित ही।।४१।।

(२९४) राजा भी निर्धन हो जाते पूर्वोपार्जित निज कर्मों से।
सर्वथा व्याधि से रहित युवा क्षण भर लगता है नशने में।।
जब सारभूत इस जीवन की अरु धन की ये स्थ्िाति होती।
फिर अहंकार किस वस्तू का सब ही तो नाशवान होती।।४२।।

(२९५) जो स्त्री पुत्र संपदा में मानव अभिमान किया करते।
वे चंचल पवन झकोरे में दीपक सम खुद भ्रम में रहते।।
जैसे उन्मादीजन नभ को मुष्ठी से व्यर्थ प्रहार करे।
सूखी नदि को तिरना जैसे प्यासा मरीचिका को पीवे।।४३।।

(२९६) राजा रूपी मृग लक्ष्मी रूपी मृगी के लिए लड़ते हैं।
फिर भाई पुत्र आदिक कोई ईर्ष्या के वश नहिं दिखते हैं।।
तब बहुत बड़ी आपत्ति रूप धनुधारी यम की फिक्र नहीं।
विद्वान भी कुछ नहिं सोच सके तब होता है आश्चर्य सही।।४४।।

(२९७) जो मनुज मोह के वश होकर प्रियजन की मृत्यु से शोक करें।
निंह कोई गुण की प्राप्ती हो उल्टा निश्चय से दोष जने।।
दुख बढ़ता जाता है एवं चारों पुरुषार्थ नष्ट होते।
मतिविभ्रम हो रोगी होकर दुर्गति रथ से भव भ्रमण करें।।४५।।

(२९८) आपत्ति रूप जग में रहकर यदि कोई दुख मानता है।
फिर वो ऐसे शुभ कार्य करे जो मुक्तीपथ को जाता है।।
जैसे चौराहे पर मकान बनवा कर मालिक खेद करे।
जब पथिक उल्लंघन कर जाए तब बुरा मानना व्यर्थ रहे।।४६।।

(२९९) आचार्य मनुष्यों से कहते क्या वायुरोग हो गया तुम्हें।
अथवा गृह भूत पिशाच लगे उन्मत समान जो क्रिया करे।।
जब पता सभी को स्त्री धन जीवन विद्युत सम चंचल है।
फिर भी निज हित के कार्य न कर माने जग को वो निश्चल है।।४७।।

(३००) जो चला गया उसकी खातिर ऐसा तू शोक कदापि न कर।
गर अच्छा वैद्य बुला लेता अथवा औषधि होती हितकर।।
क्योंकी जैसे चमड़े के बंध वर्षा ऋतु में ढीले होते।
वैसे ही मृत्यु समीप अगर सारे प्रयत्न निष्फल होते।।४८।।

(३०१) जहाँ शरण नहीं ऐसे वन में बलवान व्याघ्र ने पकड़ा है।
तब दीन पशू मैं मैं करके मर जाता कर्म ने जकड़ा है।।
ऐसे कर्मों के व्याघ्रों से जकड़ा मनुष्य मैं मैं करता।
यह घर मेरा यह प्रिया मेरी यह मेरा मेरा कर मरता।।४९।।

(३०२) मृत्यू से नष्ट किए ऐसे आयू के दिन प्रतिक्षण घटते।
फिर भी अज्ञानी जीव सभी कुछ देख के भी निश्चल समझे।।
आचार्य हमें समझाते हैं यहाँ कोई पदार्थ न अविनाशी।
इस खण्ड खण्ड आयू को लख निंह मोह करो जग के वासी।।५०।।

(३०३) जब ब़ड़े बड़े ऋद्धीधारी चंद्रादि सूर्य इंद्रादिक भी।
मृत्यू को प्राप्त किया करते तब कीट सदृश जन अन्यों की।।
क्या बात कहें इसलिए पुत्र स्त्री धन का निंह मोह करो।
जिससे आना निंह पड़े यहाँ ऐसा कोई शुभ कार्य करो।।५१।।

(३०४) संयोग के साथ वियोग लगा और जन्म मरण का साथ यहाँ।
संपति के संग विपत्ति लगी सुख के संग दुख का साथ कहा।।
वैसे ही जग में बार-बार जीवों की अवस्थाएँ बदलें।
कभी नरकगती कभी स्वर्ग और मानव तिर्यंच भेष धर ले।।५२।।

(३०५) हमको कल्याण की प्राप्ती हो यह मानव यही विचार करे।
पर दैवयोग से जो होना होता है वह ही प्राप्त करे।।
इसलिए मोह के वश होकर खोटे विकल्प का त्याग करे।
अरु रागद्वेष रूपी विष को तज साम्यभाव को ग्रहण करे।।५३।।

(३०६) आचार्य और भी कहते हैं घर प्रियतम सुख जीवन आदिक।
वायू से कंपित ध्वज पट सम चंचल है अब क्या कहें अधिक।।
जो स्त्री धन और मित्र आदि में मोह व्याप्त है उसे तजो।
बस एक धर्म ही परम मित्र है उसको ही तुम सदा भजो।।५४।।

(३०७) पुत्रादि शोक रूपी अग्नी को शांत करे जिनकी वाणी।
यतियों में श्रेष्ठ ‘‘पद्मनंदि’’ नामक यति की शीतल वाणी।।
उनके मुखरूपी मेघों से सद्बोध रूप जो धान्य उगा।
ऐसे ‘‘अनित्य पञ्चाशत’’ का हम मनन करें दुख शोक भगा।।५५।।

।।इति अनित्यपञ्चाशत् अधिकार।।

चतुर्थ अधिकार।।

एकत्वाधिकार का वर्णन

(३०८) जो परमात्मा चैतन्यरूप आनंद स्वरूप कहा मुनि ने।
जो नित्य और शाश्वत आत्मा है रहित क्रुधादिक कर्मों से।।
ऐसा परमात्मा मुझे और सबको सुख शांति प्रदान करे।
एकत्व अधिकार के वर्णन करने की भी शक्ति प्रदान करे।।१।।

(३०९) जो पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश काल से भिन्न सदा।
ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म से भी जो रहे विरक्त सदा।।
जिसका देवेन्द्र और सब जन नित पूजन करते रहते हैं।
ऐसी चैतन्यरूप आत्मा का हम नित वंदन करते हैं।।२।।

(३१०) जिस आत्मा को अज्ञानीजन अनुभव भी नहिं कर सकते हैं।
उसको ज्ञानीजन ज्ञानचक्षु से नित अवलोकन करते हैं।।
जो सब पदार्थ में सारभूत ऐसी चैतन्य आत्मा को।
मैं नमस्कार नित करता हूँ साष्टांग नमा कर मस्तक को।।३।।

(३११) यद्यपि प्रत्येक प्राणियों के तन में यह आत्मा राज रही।
फिर भी अज्ञान अंधेरे में जिन-जिन की आत्मा ढ़की हुई।।
वे नहीं जानते हैं कुछ भी बस बाह्य पदार्थों में भ्रमते।
चैतन्य उसे ही मान रहे भ्रम में ही यहाँ वहाँ फिरते।।४।।

(३१२) कई एक मनुष्य अनेक शास्त्र पढ़कर भी समझ नहीं पाते।
अपनी आत्मा की शक्ती को िंकचित भी जान नहीं पाते।।
जैसे लकड़ी में अग्नि छुपी पर अज्ञानी नहिं जान सके।
वैसे ही तीव्रमोह वश से निज आत्मा नहिं पहचान सके।।५।।

(३१३) प्रबल मोहनी कर्म से अज्ञानी जो जीव।
नहीं मानते नहिं सुने करुणाकर कथनी।।६।।

(३१४) जन्मांध मनुज जब हाथी के इक भाग को ही स्पर्श करे।
उस रूप हस्ति को समझ उसे वह लंबा गोल ही समझ रहे।।
वैसे ही मंदबुद्धि प्राणी एकान्त स्वरूप वस्तु माने।
जबकी इक वस्तु के कई रूप अनेकांतवाद ऐसा माने।।७।।

(३१५) कई एक मनुज को कहीं से कोई थोड़ा सा भी ज्ञान मिले।
विद्वान मानकर अपने को सब जन को मूरख मान रहे।।
इस अहंकार के वश होकर विद्वानों की संगति न करे।
आचार्य हमें समझाते हैं इस मद से बड़ी विपत्ति मिले।।८।।

(३१६) संसार दुख में फंसे हुए प्राणीउद्धारक धर्म एक।
विपरीत रूप कर दिया गया स्वार्थी दुष्टों से है अनेक।।
जो भ्रमित करे लोगों को वह ही धर्म कुपथ पर ले जाता।
इसलिए परख कर ग्रहण करो जिनधर्म ही सच्चा सुखदाता।।९।।

(३१७) जो वीतराग सर्वज्ञ के मुख से कहा धर्म ही सच्चा है।
प्रामाण्य पुरुष के वचनों से ही गुण प्रमाणता प्रगटा है।।
इसलिए वीतरागी अथवा सर्वज्ञ प्रमाणिक कहे गए।
उनके द्वारा ही कहा गया यह धर्म प्रमाणिक भूत हुए।।१०।।

(३१८) सब बाह्य वस्तु का सब जीवों के संग संबंध सदा रहता।
पर बाह्य विषय से भिन्न रूप अंतरंग ज्ञान जिसको रहता।।
वह ज्ञानानंद स्वरूप चित्यचैतन्य ज्ञान अति दुर्लभ है।
इसलिए भव्यजीवों ! इसका ही अनुभव करो मिले फल है।।११।।

(३१९) जिन पंचलब्धि की सामग्री से पात्र विशेष है बन जाता।
वह भव्य जीव इन लब्धि से है रत्नत्रय धारण करता।।
ये करण क्षयोपशम अरु विशुद्धि प्रायोग्य देशना कहलाती।
यह पाँच लब्धियाँ रत्नत्रयधारी को मुक्ती दिलवातीं।।१२।।

(३२०) सम्यग्दर्शन अरु ज्ञान चरित्र तीनों मुक्ती के कारण हैं।
यह मोक्ष प्राप्त करवाता है मुक्ती ही सुख का कारण है।।
इसलिए इसी को पाने का हर क्षण प्रयत्न करना चहिए।
सच्चा सुख यदि पाना चाहो रत्नत्रय को धरना चहिए।।१३।।

सम्यग्दर्शन का स्वरूप

(३२१) आत्मा का तो निश्चय सम्यग्दर्शन है ज्ञानी आत्मा का।
तो सम्यग्ज्ञान कहाता है रत रहना सदा आत्मा का।।
निश्चल रीति से रहना ही सम्यग्चारित्र कहाता है।
तीनों मुक्ति के आश्रय है रत्नत्रय यही कहाता है।।१४।।

(३२२) अथवा विशुद्ध निश्चयनय से चैतन्य रूप जो आत्मा है।
वह एक अखंड पदार्थ रूप निंह भेदरूप परमात्मा है।।
रत्नत्रय आदिक भेदों का उसमें कोई अवकाश नहीं।
इसलिए आत्मा के संग में रत्नत्रय का कुछ काम नहीं।।१५।।

(३२३) यह आत्मा तो निश्चयनय से शुद्धात्मा जब तक नहीं बना।
तब तक प्रमाण नय अरु निक्षेप है भिन्न भिन्न सब रूप वहाँ।।
व्यवहार नयापेक्षा इसमें नय और प्रमाण निक्षेप दिखे।
निश्चयनय से यह एक नित्य चैतन्य रूप अनुभवन करे।।१६-१७।।

(३२४) जो जन्मरहित है परम शांत और एक समस्त कर्म विरहित।
अपने को अपने में जाने ठहरे अपने में स्थिरचित।।
बस वही मोक्ष जाने वाला और वही मोक्ष सुख प्राप्त करे।
वह ही अर्हत अरु जगन्नाथ उसको प्रभु ईश्वर आप्त कहें।।१८-१९।।

(३२५) यह आत्मस्वरूप तेज जो है वह केवलज्ञान व दर्शरूप।
और अनंतसुक्ख स्वरूप कहा जिसने भी जाना इसी रूप।।
उसने ही सब कुछ जान लिया और देख लिया जिसने ये तेज।
उसने ही सब कुछ देख लिया सुन लिया उसी को मिले देव।।२०।।

(३२६) जानने योग्य यह आत्मा ही सुनने के योग्य यही इक है।
और वही देखने योग्य कही उससे सब भिन्न वस्तुएँ हैं।।
नहिं ज्ञान योग्य नहिं श्रवण योग्य नहिं दृष्टिगम्य कोई वस्तू।
ऐसा आचार्य कहें सबसे निज में निज के रमने हेतू।।२१।।

(३२७) गुरू का उपदेश श्रवण करके जो भव्य कृतार्थ हो जाते हैं।
अरु शास्त्रों का अध्ययन किया वैराग्य प्राप्त कर जाते हैं।।
ऐसे योगीजन इन सबको पाकर अपने को धन्य कहें।
बस एक यही चैतन्यरूप बाकी सब बाह्य वस्तु समझे।।२२।।

(३२८) जिस प्राणी ने प्रसन्नचित से इस आत्मा की वार्ता सुन ली।
वह भव्य जीव निश्चय से ही बनता मुक्ती का पात्र वही।।
इसलिए मोक्ष अभिलाषी को आत्मानुभवन करना चाहिए।
फिर मोक्ष नियम से जाएगा नहिं ज्यादा दिन जग में रहिए।।२३।।

(३२९) जो शुद्धात्मा में लीन हुआ प्राणी परब्रह्मात्मा जाने।
वह पुरुष परम ब्रह्मा स्वरूप ही निश्चय से ऐसा माने।।
इसलिए कहा है भव्यों से परमात्मा का नित ध्यान करे।
तब शीघ्र मोक्ष मिल जाएगा जो गुरुओं पर श्रद्धान करे।।२४।।

(३३०) बाकी जो अन्य पदार्थों से संबंध आत्मा का होता।
आचार्य हमें समझाते हैं उससे ही कर्मबंध होता।।
लेकिन जब वह एकतारूप शान्ती में स्थिर रहता है।
तब परपदार्थ से मोह त्याग वह मुक्तिरमा को वरता है।।२५।।

(३३१) जिस तरह पवन के थमने से सागर में लहरें थम जाती।
बस उसी तरह यह आत्मा भी कर्मों से जब है छुट जाती।।
तब सभी विकल्प रहित होकर केवलज्ञानी बन जाती है।
वह ही तब शांत अवस्था की धारी आत्मा बन जाती है।।२६।।

(३३२) सम्यग्दृष्टी विचार करता संयोग से वस्तु जो मुझे मिली।
वह सब मुझसे है पृथक््â तथा मुझको जो ऐसी बुद्धि मिली।।
संयोग से पैदा हुई वस्तु के त्याग से मैं हूँ मुक्त सदा।
मेरी आत्मा में किसी तरह के कर्मों का संबंध न था।।२७।।

(३३३) शुभ अशुभ कर्मरूपी राक्षस मेरा बिगाड़ क्या कर लेंगे।
यदि रागद्वेष का ही संबंध मेरी आत्मा संग ना होंगे।।
जब त्याग रूप मंत्रों से कीलित मेरी यह आत्मा होगी।
तब कर्म निशाचर से लड़ने की मंत्रों की शक्ती होगी।।२८।।

(३३४) जो रागद्वेष के कारण मिलने पर भी उसका त्याग करें।
ऐसे सज्जनगण कहलाते पर बिन कारण जो राग करें।।
वे प्राणी सर्व अनिष्टों को खुद ही आमंत्रित करते हैं।
इसलिए राग और द्वेष तजो इससे बस दुख ही मिलते हैं।।२९।।

(३३५) मन वचन काय की चेष्टा से चेष्टानुसार ही कर्म बंधे।
कर्मानुसार ही वृद्धी को भी प्रतिदिन प्राप्त किया करते।।
इसलिए मोक्ष के अभिलाषी मन वचन काय से भिन्न एक।
आत्मा की ही कर उपासना चैतन्यरूप जो कही एक।।३०।।

(३३६) आत्मा का कर्मों से मिलाप इसको ही द्वैत कहा मुनि ने।
इस द्वैत से निश्चय से होता है यह द्वैताद्वैत से मुक्ति मिले।।
जिस तरह लोह से लोहपात्र सोने से स्वर्णपात्र बनते।
बस उसी तरह से कर्मों के अनुसार जगत में हैं भ्रमते।।३१।।

(३३७) निश्चयनय से एकत्व रूप जो है अद्वैत बस मोक्ष वही।
व्यवहार नयापेक्षा कर्मों कर किया हुआ जो द्वैत वही।।
संसार यही कहलाता है जब तक कर्मों का साथ रहे।
जब छुट जाता संग कर्मों का उसको ही मुनिजन मोक्ष कहें।।३२।।

(३३८) जो बंध मोक्ष अरु राग द्वेष कर्मों से विरहित बुद्धी है।
आत्मा को शुभ और अशुभ मान कर द्वैत सहित जो बुद्धी है।।
वह निजानंद शुद्धात्मा के अद्वैत स्वरूप की अपकारी।
इसलिए असिद्धी कहलाती जग में आत्मा को भटकाती।।३३।।

(३३९) कर्मों का उदय उदीरण और सत्ता में जो भी रहना है।
वह सब कर्मों की है रचना आत्मा को इनसे बचना है।।
यह सब आत्मा से भिन्न तथा उत्कृष्ट कर्म से विरहित है।
बस केवलज्ञानमयी आत्मा कर्मों के व्यूह से विरहित है।।३४।।

(३४०) काले पीले नीले रंग के नभ में बनते आकार कई।
हाथी घोड़े का रूप कभी बादल में बने विकार कई।।
आकाश अमूर्तिक होता है उन विकृति से नहिं कुछ होता।
बस उसी तरह से आत्मा का क्रोधादि विकार न कुछ करता।।३५।।

(३४१) निश्चयनय से इस आत्मा का कोई भी नाम नहीं होता।
इस तन के ये सब धर्म कहे नहिं आत्मा जन्म मरण करता।।३६।।

(३४२) ऐसा यदि कोई कहे हमसे यह आत्मा ज्ञान सहित होती।
यह भी कल्पना मात्र है बस ज्ञान, आत्मा भिन्न नहीं होती।।३७।।

(३४३) जो क्रिया व कारक संबंधों से रहित चेतनामय आत्मा।
उसकी जो उपासना करते वह भव्य मोक्ष पद है पाता।।३८।।

(३४४) वह आत्मा ही है परमज्ञान अरु दर्श और चारित्र वही।
तप वही किन्तु शुद्धात्मा से नहिं दर्श ज्ञान है भिन्न कोई।।३९।।

(३४५) चैतन्य आत्मा वही एक बस नमन योग्य कहलाती है।
मंगल स्वरूप है सर्व श्रेष्ठ भविजीवों की शरणार्थी है।।४०।।

(३४६) अप्रमत्त योगि की आत्मा का जो ध्यान वही आचार कहा।
आवश्यक क्रिया वही स्वाध्याय वही नहिं कुछ भी भिन्न वहाँ।।४१।।

(३४७) आत्मा में स्थित वही पुरुष शील और गुणों का धारी है।
उस ही के निर्मल धर्म कहा वह निश्चय से ब्रह्मचारी है।।४२।।

(३४८) जो सर्वशास्त्र रूपी समुद्र का तीन रत्न पाने हेतु।
अध्ययन करे वह आत्मा ही सबमें मानी रमणीय वस्तु।।
इसलिए भव्य जीवों को इस चैतन्यस्वरूपी आत्मा में।
स्थिर रहना चहिए जिससे हो जाये लीन परमात्मा में।।४३।।

(३४९) वह आत्मा ही है परमतत्व वह ही उत्कृष्ट स्थान कही।
वह ही आराधन योग्य भव्य जीवों का उत्तम तेज वही।।४४।।

(३५०) और वही आत्मा जन्मरूप तरु के छेदन में शस्त्र सदृश।
अरु वही सज्जनों को है मान्य योगिजन ध्यान करें सहर्ष।।४५।।

(३५१) चैतन्य स्वरूपी आत्मा ही मुक्ती का मार्ग कहा जग में।
अतएव मोक्ष के अभिलाषी आनंद मानते हैं उसमें।।
इस आत्मा के अतिरिक्त कहीं आनंद प्रतीत नहीं होता।
इसलिए इसी का ध्यान करो इससे ही मोक्षमार्ग मिलता।।४६।।

(३५२) संसार ताप से खिन्न जीव शांतात्मा में आराम लहे।
जिस तरह धूप से तप्त प्राणि को शीतल घर में शांति मिले।।४७।।

(३५३) यह आत्मा एक किला जैसा जहाँ कर्म शत्रु नहिं घुस सकते।
निजबल से कर्म शत्रुओं का अपमान भी वे ही कर सकते।।४८।।

(३५४) वह आत्मा ही महती विद्या स्फुरायमान है मंत्र वही।
वह ही है महाऔषधि जिससे हो जन्म जरादिक शीघ्र नष्ट।।४९।।

(३५५) जो शुद्धात्मा का ध्यान और अनुभवन मनन आदिक करते।
मुक्तीरूपी मनहर तरु पर सुखरूपी उत्तम फल मिलते।।५०।।

(३५६) त्रैलोक्य रूप घर का स्वामी उसको चैतन्य तेज समझो।
क्योंकी चैतन्य आत्मा बिन इस घर को भी तुम वन समझो।।
इसमें है शंका कोई नहीं यह तीन लोक का राजा है।
जो लीन रहे हरदम इसमें डर कर्मअरि भी भागा है।।५१।।

(३५७) जो शुद्ध निरंजन निराकार वह मैं ही एक आत्मा हूँ।
इसमें है संशय कोई नहीं पर इससे भिन्न शुद्धात्मा हूँ।।५२।।

(३५८) यदि करे मोक्ष की इच्छा भी उसका आचार्य निषेध करें।
क्योंकी इच्छाएँ मोहजनित इच्छा से सहित न मुक्ति वरे।।५३।।

(३५९) जब शुभ इच्छा भी वर्जित है फिर अन्य वस्तु का कहना क्या।
इसलिए मुमुक्षु शांत जन जो कोई भी इच्छा ना करना।।५४।।

(३६०) मैं एक तथा चैतन्यरूप उससे कुछ भी मैं भिन्न नहीं।
निश्चयनय से मेरी आत्मा का किसी से भी संबंध नहीं।।५५।।

(३६१) इन बाह्य शरीरादिक पदार्थ से मेरी आत्मा विरहित है।
अरु रागद्वेष रूपी मल से भी रहित आत्म में स्थित है।।५६।।

(३६२) आचार्य और भी कहते हैं चैतन्यामृत का पान करो।
भवभ्रमण में जो भी खेद हुआ हे भव्यपुरुष ! अब शांत करो।।५७।।

(३६३) आचार्य प्ररूपण करते हैं यह आत्मा है अत्यन्त सूक्ष्म।
स्थूल तथा यह एक भी है और स्वसंवेद्य अनेक रूप।।५८।।

(३६४) अवेद्य और अक्षर भी है उपमा से रहित अनक्षर है।
अवक्तव्य और अप्रमेय आकुलतारहित शून्य भी है।।५९।।

(३६५) चैतन्य स्वरूप तेजधारी मन वचन से कुछ नहिं कह सकते।
यह आत्मा दृष्टि अगोचर है इसका वर्णन नहिं कर सकते।।६०।।

(३६६) जैसे अम्बर में चित्रालेखन करना कितना दुर्लभ है।
वैसे ही अल्पज्ञानियों को परमात्मदर्श भी दुर्लभ है।।६१।।

(३६७) जो प्राणी उस शुद्धात्मा में स्थित रहता वह है महान।
पर केवल जो िंचतवन करे उसकी पूजा करता जहान।।६२।।

(३६८) सारे जग के ज्ञाता दृष्टा जो केवलज्ञान नेत्रधारी।
इसकी उपासना का उपाय करते हैं वे समताधारी।।६३।।

(३६९) ये स्वास्थ्य समाधी और साम्य चित का निरोध शुद्धोपयोग।
सब एक अर्थ कहने वाले पर शब्द भिन्न कहते हैं लोग।।६४।।

(३७०) जिसमें न कोई आकार वर्ण अक्षर और कोई विकल्प नहीं।
वह ही चैतन्य आत्मा है मुनिवर कहते हैं साम्य वही।।६५।।

(३७१) यह समता ही उत्कृष्ट कार्य और साम्य ही उत्तम तत्त्व कहा।
और साम्य ही मुक्ति हेतु सारे उपदेशों में उपदेश कहा।।६६।।

(३७२) इस साम्य से ही भवि जीवों को है सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता।
शुद्धात्म रूप ये मोक्षद्वार इससे अविनाशी सुख मिलता।।६७।।

(३७३) सब शास्त्रों में है सारभूत ये साम्य ही कहा गणधर ने।
यह साम्य है दावानल समान सब कर्म अरि के नाशन में।।६८।।

(३७४) सब दुखों का हर्त्ता ये साम्य योगीजन ध्यान करें इसका।
आत्मा के कर्मजनित रागादिक दोषों को भी ये नशता।।६९।।

(३७५) अणिमादि रूप जो कमलखंड उसकी न जरा भी इच्छा है।
और समतारूप सरोवर में रमते रहने की इच्छा है।।
जिनकी अत्यन्त पवित्र दृष्टि है मुक्तिहंसिनी के ऊपर।
ऐसी उस शुद्धात्मा को मैं नित नमन करूँ मस्तक धर कर।।७०।।

(३७६) मृत्यू का ताप दुक्ख देता ज्ञानी को है अमृत समान।
जिस तरह घड़े की पाक विधी पानी भरने के योग्य जान।।७१।।

(३७७) सत्कुल में जन्म बुद्धि लक्ष्मी और कृतज्ञता आदिक जो गुण।
वे सब विवेक बिन व्यर्थ कहे ये सारे बन जाते दुर्गुण।।७२।।

(३७८) जड़ चेतन दो हैं तत्त्व कहे जो ग्रहण योग्य सो ग्रहण करें।
उसको विवेक गुण कहते हैं जो त्याग योग्य तो त्याग करें।।७३।।

(३७९) इस जग में मूढ़ मनुष्यों को कुछ सुख कुछ दुख मालुम पड़ता।
पर अंतर यही विवेकी में उसको जग में दुख ही दिखता।।७४।।

(३८०) जो हैं विवेकिजन उन्हें सभी रागादि कर्म तजना चहिए।
और दर्शनज्ञान स्वरूप आत्म के तेज में ही रमना चहिए।।७५।।

(३८१) यह जो चैतन्य वही मैं हूँ वह ही सबको जाने देखे।
पर निश्चयनय से मैं मेरी आत्मा से पृथक् यही देखें।।७६।।

(३८२) एकत्वसप्तति रूप नदी ‘‘श्री पद्मनंदि’’ हिम से निकली।
जो भव्य जीव स्नान करें यह मोक्षरूप सागर में मिली।।
इनके समस्त मल क्षय होकर अत्यन्त शुद्ध हो जाते हैं।
जो सदा इसी का ध्यान करें वे मोक्षलक्ष्मी पाते हैं।।७७।।

(३८३) जो भवसमुद्र से तिरने में पुल के समान उपेदश किया।
इसका आश्रय ले भविजन ने उत्तम आत्मा का ध्यान किया।।
इस क्षोभरहित आत्मा में रागादिक मल नहिं रह सकते हैं।
निर्मल चित के धारी होकर ज्ञानी यह चिंतन करते हैं।।७८।।

(३८४) यह आत्मा भिन्न तदनुगामी जो कर्म भी भिन्न सभी हमसे।
कर्म आत्मा संग जो है विकार, वह भी हैं भिन्न सभी मुझसे।।
जो काल क्षेत्र आदिक पदार्थ और गुण पर्याय सहित पदार्थ।
सब मुझसे भिन्न-भिन्न हैं यह ज्ञानीजन करते हैं विचार।।७९।।

(३८५) जो भव्य जीव इस आत्मतत्व का बारंबार अभ्यास करें।
और कथन करें मंथन अनुभव कर नौलब्धी भंडार भरें।।
वे भव्य जीव अविनाशी अरु अनंतदर्शन के धारक हैं।
क्षायिक चारित्र ज्ञान क्षायिक केवल लब्धी आदिक भी हैं।।८०।।

।।इति एकत्वसप्तति अधिकार।।

‘‘यति भावना का कथन’’

।।पंचम अधिकार।।

(१) निज आत्मा का स्वरूप लखकर व्रत धारण कर वन में जाकर।
और मोहजनित कर्मों के सब संकल्प विकल्पों को तजकर।।
जो मुनिगण मनरूपी वायू से नहीं चलायमान होते।’
आत्मा में लीन वही मुनिगण पर्वत समान स्थिर रहते।।

(२) चित की वृत्ती का कर निरोध इंद्रिय वश करके धैर्य सहित।
स्वासोच्छवास को रोक तथा पर्यंकासन से हो स्थित।।
निर्जन वन की वंदराओं में मैं बैठ के आतम ध्यान करूँ।
मुनिगण ऐसा विचार करते मैं कब शिवपथ को प्राप्त करूँ।।

(३) धूली धूसरित वस्त्र विरहित पर्यंकासन से सहित शांत।
और वचन रहित आँखे मूंदे जब निज स्वरूप कर लिया प्राप्त।।
वन में भ्रम सहित मृगों का गण आश्चर्य सहित जब देखेगा।
उस समय पुण्यशाली मेरे समान कोई भी नहिं होगा।।

(४) हो किसी शून्य मठ में निवास और दिशारूप ही अम्बर हो।
संतोषमयी धन क्षमारूप स्त्री तपरूपी भोजन हो।।
मैत्री हो सभी प्राणियों में आतमस्वरूप का िंचतन हो।
ये सभी वस्तुएँ पास मेरे फिर पर से नहीं प्रयोजन हो।।

(५) जो उत्तमकुल में जन्म पाय सुन्दर निरोग तन प्राप्त करे।
शास्त्रों को पढ़ वैराग्य प्राप्त कर तप को जो निर्बाध करे।।
वह पुण्यवान बस इक जग में मदरहित ध्यान अमृत पीता।
तो मानो वह मनुष्य घर के ऊपर मणिमयी कलश रखता।।

(३९२) जो ग्रीष्म ऋतू में पर्वत पर योगीजन ध्यानलीन होते।
वर्षा में वृक्षों के नीचे शिशि ऋतु में गगन तले करते।।
ऐसे तप के धारी ध्यानी जिनकी आत्मा अत्यन्त शांत।
उन योगी का पथ मिले मुझे उनको मेरा शत शत प्रणाम।।

(३९३) इस भेद ज्ञान से जिस समाधि में मन की वृत्ति संकुचित है।
ऐसी अद्भुत उत्कृष्ट समाधि धन्य शमिक मुनि के होती हैं।।
मस्तक पर चाहे वङ्का गिरे तीनों लोकों के जलने पर।
जिन मुनि के मन न विकार कोई चाहे प्राणों के नशने पर।।

(३९४) जिसे कर्मों का संबंध नहीं और अहं शब्द आत्मावाचक।
इस आत्मतत्त्व को जिन मुनिवर ने जान लिया सुन लिया कथन।।
जिस मुनि को रहने सोने को निजतत्त्व ही श्रेष्ठ संपदा है।
सुख भी है वही वृत्ति वो ही निजतत्त्व वही प्रिय लगता है।।

(३९५) जो यतिभावन अष्टक सब पाप शत्रु को नष्ट करन वाला।
और राजश्री व स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी को देने वाला।।
जिसकी रचना चैतन्यरत्न ‘‘श्री पद्मनंदिमुनि’’ ने की है।
जो तीनों काल पढ़े उनको इच्छित अभीष्ट मिलता ही है।।

।।इति यतिभाव

श्रावकाचार

छठा अधिकार

(१) श्री आदिजिनेश्वर ऋषभनाथ और नृप श्रेयांस जग पूज्य हुए।
इनमें पहले आदीश्वर जी व्रततीर्थ प्रवत्र्तक प्रथम हुए।।
फिर उसी काल में नृप श्रेयांस ने दानतीर्थ की प्रवृति करी।
इन दोनों से ही भरतक्षेत्र में धर्मतीर्थ की प्रवृति हुई।।

(२) सम्यग्दर्शन और ज्ञान चरण इन तीनों का समुदाय धरम।
कहलाता है और निश्चित ही यह मोक्षमार्ग का है कारण।।

(३) जो प्राणी रत्नत्रयस्वरूप इस मोक्षमार्ग को नहिं धरते।
वह मुक्ती नहीं प्राप्त करते इस जग में ही भ्रमते रहते।।

(४) इस रत्नत्रय के एकदेश और सर्वदेश दो भेद कहे।
इकदेश धर्म श्रावक के हैं अरु सर्वदेश मुनि के रहते।।

(५) इस पंचमकाल में इन दोनों से धर्म मार्ग की प्रवृत्ति है।
इसलिए धर्म के कारण में श्रावक की पहले गिनती है।।

(६) इस पंचमकाल में श्रावकगण जिनमंदिर आदिक बनवाते।
मुनियों को दे आहारदान दोनों विध धर्म निकट जाते।।
इसलिए कहा आचार्यों ने है गृहीधर्म भी अति उत्तम।
क्योंकी मुनिधर्म ग्रहण करने में श्रावक ही बनते कारण।।

षट् आवश्यक कर्म

(७) जिनपूजा गुरु की उपासना स्वाध्याय और संयम तप है।
अरु दान मिलाकर श्रावक के षट्कार्य मुनीश्वर कहते हैं।।

सामायिक का लक्षण

(८) सब प्राणी में समता रखना संयम धारण के भाव रखे।
और आर्त रौद्र दुध्र्यानों का जो त्याग करे सामायिक है।।

(९) जिस प्राणी का चित व्यसनों में हो रहा मलिन निंह कर सकता।
सामायिक का जो आकांक्षी वह सप्त व्यसन को है तजता।।

सप्त व्यसनों के नाम

(१०) खेले जो जुआँ, अरु मांस, मद्य, वेश्यासेवन, चोरी, शिकार।
परस्त्री सेवन सप्त व्यसन ये महापाप इनको तू त्याग।।

(११) जो जीव धर्म का अभिलाषी उसके यदि सप्तव्यसन होवे।
तो उसमें धर्म धारने की योग्यता कभी भी नहिं होवे।।

(१२) जिस तरह व्यसन हैं सात नरक भी सात कहे आचार्यों ने।
अपनी वृद्धी के लिए करे आकर्षित वह ले जाने में।।

(१३) सप्तांग सैन्यबल से राजागण जैसे युद्ध जीतते हैं।
वैसे ही पापमयी राजा धर्मरूपी युद्ध जीतते हैं।।
ले सप्त व्यसन की सेना फिर वे करे चढ़ाई धर्मी पर।।
यदि उसके वश में हो जाए, भोगें दुख दुर्गति में जाकर।।

(१४) जो भव्य पुरुष जिन भगवन का भक्तीपूर्वक दर्शन करता।
उनकी पूजा स्तुति करता फिर सारा लोक उन्हें नमता।।

(१५) लेकिन जो प्राणी जिनवर की भक्ति पूजा स्तुति न करे।
उसका सारा जीवन निष्फल आचार्य उन्हें धिक्कार रहे।।

(१६) प्रात: उठकर जिन देव तथा गुरु का दर्शन करना चहिए।
भक्तीपूर्वक वंदना करे फिर धर्मश्रवण करना चहिए।

(१७) इसके पश्चात् अन्य गृह संबंधी कार्यों को पूर्ण करे।
क्योंकि धर्मार्थ काम अरु मोक्ष में धर्म ही पहला कर्म कहे।।

(१८) गुरुओं की कृपा दृष्टि से ही ये ज्ञानरूप दो नेत्र मिले।
जिससे सारे पदार्थ दिखते हस्तरेखा सम जब ज्ञान मिले।।

(१९) जो गुरुओं को गुरु नहिं माने नहिं सेवा अरु वंदना करे।
निज जीवन में कर प्राप्त दिवाकर अंधकार में सतत रहे।।

(२०) जो श्रावक निष्कलंक गुरुओं से लिखित शास्त्र को नहिं पढ़ते।
वे नेत्र सहित होने पर भी अंधे के ही समान दिखते।।

(२१) जिस नर ने गुरु के सन्निध रह नहिं शास्त्र सुना अरु नहिं धारा।
उनके नहिं कान और मन है ऐसा गुरुओं ने है माना।।

(२२) जीवों की रक्षा अरु मन एवं इंद्रिय पर संयम रखना।
यह एकदेशव्रत संयम है इसका मन से पालन करना।।
क्योंकी संयम को पाले बिन व्रत फलीभूत नहिं हो सकते।
इसलिए श्रावकों को इसका पालन कर स्वर्ग मोक्ष मिलते।।

(२३) श्रावकगण मद्य मांस मधु एवं पंच उदुम्बर त्याग करें।
सम्यग्दर्शनपूर्वक हो त्याग ये अष्टमूलगुण कहे गये।।

(२४) बारह व्रत कहे गृहस्थों के जो इनका पालन करते हैं।
वे पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं।।

(२५) अष्टमी चतुर्दशि पर्वों में जो यथाशक्ति उपवास करे।
रात्रि में भोजन नहिं करता और छना हुआ जल पान करे।।

(२६) सम्यग्दृष्टी श्रावक ऐसे धन का नर का आश्रय न करें।
एवं उस देश नहीं जाएं जहाँ सम्यग्दर्श मलिन होवे।।

(२७) भोगोपभोग परिमाण करे यह कहा हमारे मुनियों ने।
विद्वान लोग इस व्रत के बिन नहिं रहें एक क्षण जीवन में।।

(२८) हे भव्यजीव ! आलस्य रहित हो रत्नत्रय का आश्रय लो।
जिससे आगे जन्मान्तर में श्रद्धा की दिन-दिन वृद्धी हो।।

(२९) जो जैनधर्म के अनुयायी उनको स्व योग्यता के नुसार।
पाँचों परमेष्ठि और रत्नत्रयधारी की समयानुसार।।
श्रद्धा अरु विनय अवश्य करे जिससे बोधी की प्राप्ती हो।
गुरुओं की जो जन विनय करें उनकी भवभ्रमण समाप्ती हो।।

(३०) इस विनय से रत्नत्रय एवं तप आदिक की प्राप्ती होती।
गणधर आदिक जो महापुरुष कहते मुक्ती उसको वरती।।

(३१) श्रावकजन यथाशक्ति अपनी, सत्पात्र में दान अवश्य करें।
बिन दान गृहस्थपना निष्फल ऐसा सूरीगण हमें कहें।।

(३२) निग्र्रंथ साधुओं को जो जन चारों प्रकार आहार न दे।
उनके घर कारागृह सदृश केवल बंधन के लिए बने।।

(३३) जिससे यतिवर को सुख पहुँचे वह चार दान ये कहे गये।
औषध आहार अभय अरु शास्त्रदान से ख्याति बहुत होवे।।

(३४) धन आदिक से समर्थ होकर भी यति को दान नहीं देता।
वह मूढ़ पुरुष अगले भव में निज सुख को स्वयं नष्ट करता।।

(३५) जो गृह आश्रम है दान रहित वह पत्थर की नौका सम है।
क्योंकी पत्थर से बनी नाव डूबेगी ही कहता जन है।।

(३६) जो सज्जन में शक्त्यानुसार वात्सल्य भाव नहिं रखते हैं।
वह धर्म पराङ्मुख आत्मा को ही प्रबल पाप से ढ़कते हैं।।

(३७) करुणापूरित उपदेशों से भी जिनके मन में दया नहीं।
वे मनुज धर्म के पात्र कभी भी नहिं हो सकते कहा यही।।

(३८) यह धर्मरूप तरु की जड़ है सब व्रत में मुख्य कहा इसको।
यह दया सर्व संपति का घर और गुण की खान कहें इसको।।

(३९) जिस तरह पूâल के हारों को धागे से बाँधा जाता है।
वैसे ही प्राणी में समस्त गुण दया भाव से आता है।।

(४०) मुनियों और श्रावक के जितने व्रत प्रभु के द्वारा कहे गए।
वे सभी अिंहसा की प्रसिद्धि के लिए जिनेन्द्र प्रभू ने कहे।।

(४१) केवल प्राणी को पीड़ा देने से ही पाप नहीं होता।
बल्कि संकल्पसहित जो िंहसा से भी भाव मलिन होता।।
वह मर जावे तो अच्छा हो अथवा मैं उसको मारूंगा।
इत्यादि भाव से भी िंहसा का दोष लगे सो बंध होगा।

(४२) द्वादश अनुप्रेक्षा का िंचतन श्रावकजन को करना चहिए।
इससे सब कर्म नष्ट होते इसलिए मनन करना चहिए।।

बारह भावनाओं के नाम

(४३) अध्रुव अशरण संसार और एकत्व अन्यत्व भावना है।
अशुचित्व और आस्रव संवर निर्जरा लोक ये सब दश हैं।।

(४४) ग्यारहवीं कही बोधिदुर्लभ बारहवीं धर्म अनुप्रेक्षा।
जिनपुंगव द्वारा कही गयी इनसे रोके मन की इच्छा।।

अनित्य भावना

(४५) प्राणी के सभी शरीर और धन धान्य पदार्थ विनाशी हैं।
इसके नशने पर शोक न कर यह दुख से बंध स्वभावी हैं।।

अशरण भावना

(४६) जिस मृग के बच्चे का शरीर व्याघ्री ने कसकर पकड़ लिया।
निर्जन वन में इस बच्चे को नहिं कोई बचाने योग्य मिला।।
वैसे ही आपत्ती आने पर इंद्र नरेन्द्र न बचा सवें।
इसलिए धर्म के बिना नहीं कोई शरणा हम जिसे लहें।।

(४७) जो िंकचित सुख मालुम होता वह सुखाभास सुख के समान।
जो दुख है सत्य वही है बस, सच्चा सुख मुक्ती का निधान।।

एकत्व भावना

(४८) यदि निश्चय से देखा जाए संसार में जीव का कोई नहीं।
सब कर्म के फल को भोग रहे ना स्वजन कोई ना परजन ही।

अन्यत्व भावना

(४९) आत्मा शरीर की स्थिति तो है क्षीर नीर सम मिली हुई।
फिर भी हैं भिन्न परस्पर में स्त्री पुत्रादिक वैसे ही।।

अशुचित्व भावना

(५०) यह काया कृमि धातू मल आदिक अशुचि वस्तु से भरी हुई।
इसके संबंध से अन्य वस्तुएँ अपवित्रता को प्राप्त हुर्इं।।

आश्रव भावना

(५१) इस भव समुद्र में जीवरूप नौका छिद्रों से युक्त सही।
मिथ्यात्वादिक कषाय रूपी छिद्रों में कर्म जल आश्रव ही।।
अपने विनाश के लिए कर्म को ग्रहण करे वह आश्रव है।
इसके स्वरूप को जान इसे जो त्यागे वह श्रावक है।।

संवर भावना

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५२) कर्मों का आश्रव रुक जाना वह ही निश्चय से संवर है।
मन वचन काय की अशुभ वृत्ति को वश करना भी संवर है।।

निर्जरा भावना

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५३) पहले से संचित कर्मों का इकदेश रूप से नश जाना।
है वही निर्जरा कहलाती संसार भोग को भी तजना।।
वैराग्य बढ़ाने वाले तप अनशन अवमौर्यादिक ही है।
मुनिवर ये तप धारण करते जिनके न मोह मायादिक हैं।।

लोक अनुप्रेक्षा

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५४) यह सर्व लोक है विनाशीक अध्रुव है दुख करने वाला।
ऐसा विचार कर श्रावक को है कहा मुक्ति में रम जाना।।
।।बोधिदुर्लभ भावना।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५५) रत्नत्रय की जो प्राप्ती है वह बोधि भावना कहलाती।
यह बोधि प्राप्ति अति दुर्लभ है उससे भी कठिन रक्षा उसकी।

धर्म भावना

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५६) जिनधर्म को पाना बहुत कठिन जो ज्ञानानंद स्वरूप कहा।
मुक्ती पर्यंत साथ जाए ऐसी रीती से धरो सदा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५७) संसार रूप खारे समुद्र से यदि तिरने की इच्छा है।
तो धर्मपोत ही पार करे ऐसी गणधर की शिक्षा है।।
नाना प्रकार के दुखरूपी जो नक्र मकर से व्याप्त सदा।
ऐसे समुद्र को तिरने में आश्रय है धर्मजहाज सदा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५८) जो सज्जन जन अनुप्रेक्षाओं का बार बार िंचतवन करें।
वे पुण्य उपार्जन करते हैं और स्वर्ग मोक्ष में हेतु कहें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५९) जिसकी आदी में क्षमा धर्म दश भेद रूप वह होता है।
श्रावक को यथाशक्ति आगम अनुरूप पालना होता है।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६०) चैतन्य स्वरूप विशुद्धात्मा तो अंतस्तत्व कहाती है।
और सब प्राणी में दयाभाव से बाह्य तत्त्व बन जाती है।।
इन दोनों के सम्मेलन से ही मोक्षमार्ग की प्राप्ती हो।
दोनों तत्वों का भलीभाँति आश्रय ले मोक्ष अभिलाषी जो।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६१) कर्मों से कर्मों के कार्यों से जो होता सर्वथा भिन्न।
वह चिदानंद चैतन्य रूप अविनाशी और आनंद स्वरूप।।
इस नित्यानंदमयी पद को देने वाली इस आत्मा का।
ज्ञानीजन को िंचतवन सदा करना चहिए परमात्मा का।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६२) इस तरह ‘‘पद्मनंदी मुनि’’ ने श्रावकाचार की रचना की।
इसके अनुवूâल आचरण करने की जिसमें है प्रवृत्ति रही।।
और उन्हीं मनुष्यों को तब ही इस निर्मल धर्म की प्राप्ती हो।
इसलिए धर्म के अभिलाषी की सदा धर्म में प्रवृत्ति हो।।

।।इति उपासक संस्कार (श्रावकाचार) अधिकार।।

देशव्रतोद्योतन

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१) बाह्याभ्यंतर परिग्रह तज करके चार घातिया नाश किया।
अरु शुक्ल ध्यान से जिनप्रभु ने सर्वज्ञपने को प्राप्त किया।।
जिनधर्म निरूपण करने में उनके ही वचन सत्य माने।
संदेह करें वे हैं पापी अथवा अभव्य उनको जानें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(२) निज पाप कर्म से दुखित मनुष यदि सम्यग्दर्शन से युत है।
वह सम्यग्दृष्टी एक बहुत ही आदर पाने योग्य कहें।।
प्रत्युत मिथ्यामत में स्थित संप्रति में बहुत सुखी दिखता।
वह बहुत बड़ी मात्रा में हो फिर भी नहिं आदर योग्य कहा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(३) जिनप्रभु ने सम्यग्दर्शन को है मोक्ष वृक्ष का बीज कहा।
अरु मिथ्यादर्शन को प्रभु ने संसार वृक्ष का बीज कहा।।
क्योंकी नरकादि योनियों में भ्रम रहा अनादीकालों से।
इसलिए करो रक्षा इसकी जो मिला बहुत ही कालों में।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(४) इस जग में काल अनंत बीत जाये तब मनुज जन्म मिलता।
उस पर यदि सम्यग्दर्श मिले तो मुक्ति हेतु तप को करना।।
यदि िंनदा अथवा मोहकर्म का उदय अशक्तपना होवे।
तो भी श्रावक षट्कर्मों के जो योग्य व्रतादि अवश्य करे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५) जो सम्यग्दर्शन सहित भव्य हैं अष्ट मूलगुण के पालक।
और पाँच अणुव्रत गुणव्रत त्रय शिक्षाव्रत चारों के धारक।।
अरु सात शीलव्रत को पाले रात्रि में भोजन नहीं करे।
जल छना हुआ ही पीता हो और यथाशक्ति मौनादि धरे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६) जो व्रती जीव निजकार्य हेतु स्थावर जीव मारते हैं।
दो इंद्रिय आदिक त्रस जीवों की हरदम रक्षा करते हैं।।
अरु सत्य बोलना अचौर्यव्रत निज स्त्री का सेवन करते।
सामायिक प्रोषध दान और भोगोपभोग गुणव्रत धरते।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(७) यद्यपि धनवान श्रावकों के पुण्योपार्जन के हेतु बहुत।
जिनपूजा और प्रतिष्ठा आदिक करते हैं सत्कार्य बहुत।।
पर भवसिंधू से तरने को नौका सम जो मुनिश्रेष्ठ कहे।
उनको आहारदान आदिक देना सबसे ही श्रेष्ठ कहें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(८) सब जीवों की कामना यही हमको जग में सुख शांति मिले।
पर यह सुख मोक्षमार्ग में है जो रत्नत्रय धर के ही मिले।।
और रत्नत्रय की प्राप्ति सदा निर्गं्रथवेष में होती है।
साधूचर्या श्रावकगण के आहारदान से चलती है।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(९) इच्छानुसार भोजन विहार औषधि से तन निरोग रहता।
पर आज्ञा नहीं साधुओं को अतएव शरीर अशक्त रहता।।
पर धर्मात्मा उत्तम औषधि निर्मल जल से गुरुभक्ति करें।
ऐसे उत्तम श्रावकजन से इन साधुगणों की प्रवृति चले।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१०) जो धर्मी श्रावक शास्त्रों का व्याख्यान करें या पाठ करें।
पुस्तक छपवाकर साधुजनों को भक्तीपूर्वक दान करे।।
थोड़े ही भव में तीन लोक में लक्ष्मी को वरने वाले।
वैवल्यज्ञान की प्राप्ती हो जो शास्त्रदान देने वाले।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(११) सब जीवों की करुणापूर्वक जो भय से रक्षा की जाती।
वह अभयदान सब दानों में है श्रेष्ठ प्ररूपण की जाती।।
क्योंकी आहार औषधी से भी बीमारी का भय भगता।
इसलिए दान ये तीनों ही, इसमें ही है र्गिभत रहता।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१२) आहारदान के देने से इन्द्रादि सुखों की प्राप्ती हो।
औषधीदान से परभव में तन सुन्दर और निरोगी हो।।
अरु शास्त्रदान से विद्वत्ता मिलती अद्भुत विस्मयकारी।
अरु अभयदान दे सारे सुख अंतिम सुख मोक्ष मिले भारी।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१३) सैंकड़ों पाप कर्मों को कर नाना प्रकार दुख को सहकर।
वारिधि पर्वत और पृथ्वी पर भ्रम करके बहुत कष्ट सहकर।।
धन संचय करता पर वह धन स्त्री पुत्रादिक से प्यारा।
उस धन को व्यर्थ न खर्च करो है दान धर्म सबसे न्यारा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१४) यह दान ही है श्रावक का गुण दोनों लोकों में चमकाता।
बिन दान के दोनों लोकों में केवल विनाश ही करवाता।।
क्योंकी व्यापार आदि कार्यों में बहुत पाप हो जाते हैं।
उन पापकर्म का क्षालन ही सत्पात्र दान कर पाते हैं।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१५) जो धन उत्तम दानादिक के हेतू उपयोग किया जाता।
उसको ही उत्तम धन कहते परलोक में साथ सदा जाता।।
विद्वान लोग ये भी कहते ये दान अनंतगुणा फलता।
जो भोगविलासों में खर्चे वह सब बेकार चला जाता।।

(१६) पहले भी बड़े बड़े राजा पुत्रों को राज्यपाट देकर।
याचकजन को भी धन देकर सब जन को अभयदान देकर।।
उत्तम तप करके मोक्ष गये इसलिए दान पहला कारण।
इस हेतू धन को क्षणिक मान इससे ही करो भवदुख व

(१७) नरभव को पाकर जो नर मुक्ती हेतु नहीं उद्यम करते।
अत्यन्त मूढ़बुद्धी वाले घर में ही पड़े रहा करते।।
जिस घर में दान नहीं देते वह घर कारागृह सदृश कहा।
अपने सामथ्र्यनुसार दान भवजलधि पोत सम उसे कहा।।

(१८) जो नहीं देवदर्शन करते ना ही उनका स्मरण करें।
ना ही उनकी पूजन करते और ना उनका स्तवन करें।।
सामथ्र्यवान होकर भी जो नहिं साधूजन को दान ही दे।
पत्थर की नौका के समान भविंसधु में डूबेंगे ही वे।। ‘

(१९) िंचतामणी रत्न कामधेनू पारस पत्थर अरु कल्पवृक्ष।
ये परोपकार करने वाले हैं सुना है ना देखा प्रत्यक्ष।।
पर िंचतामणी समान मनोवांछित जो दान देने वाला।
दाता अवश्य देखे जाते इसलिए उसी में सब आता।।

(२०) जिस नगर देश में श्रावकजन रहते हैं जिनमंदिर होता।
अरु जहां जैनमंदिर होता यतिगण का भी निवास होता।।
यतियों में धर्मवृत्ति रहती संचयति पाप जिसे नशते।
पापों के नशने से श्रावक को स्वर्गमोक्ष के सुख मिलते।।

(२१) इस दु:खमा नामक काल में जब जिनधर्म क्षीण हो जाने से।
ध्यानी साधूगण विरले हैं मिथ्यांधकार पैâलाने से।।
जिनप्रतिमाएं जिनमंदिर को जो भक्ति सहित बनवाते थे।
अब विरले हैं वे भव्यपुरुष वंदन के योग्य कहाते वे।।

(२२) विम्बादल के सम छोटे से छोटा मंदिर जो बनवाये।
उसमें जौ के प्रमाण प्रतिमा भी पुण्य का फल वो पाये।।
जिसके वर्णन की बात ही क्या खुद सरस्वती नहिं कह सकती।
फिर जो ऊँचे शिखरों वाले मंदिर बनवाएं पुण्य मही।।

(२३) जहाँ जिनमंदिर के होने पर यात्रा से अरु अभिषेकों से।
अरु बड़े-बड़े उत्सव करके पूजा चरु और चांदने से।
ध्वज आरोहण कलशारोहण अरु घंटा वाद्य चमर दर्पण।
इनसे मंदिर की शोभा कर भविजन करते हैं पुण्यार्जन।।

(२४) जो षट् आवश्यकपूर्वक अणुव्रत धरने वाले श्रावक हैं।
वे स्वर्गों में चिरकाल रहें होते ऋद्धी के धारक हैं।।
फिर मृत्युलोक में आ करके मनुकुल में रत्नत्रय धरकर।
सिद्धालय में जा बसते हैं बाह्याभ्यंतर परिग्रह तजकर।।

(२५) चारों पुरुषार्थों में उत्तम सुख देता मोक्ष है अविनाशी।
उससे विपरीत अर्थ कामादिक तजो मोक्ष के अभिलाषी।।
लेकिन यदि धर्म से भी भोगादिक वस्तु प्राप्त ही होती है।
तो भी वह व्यर्थ कहा लेकिन इस धर्म से मुक्ति भी मिलती है।।

(२६) जो भव्य मोक्ष की प्राप्ति हेतु अणुव्रत महाव्रत धारण करते।

निश्चयनय से सुख की प्राप्ती के लिए मोक्ष को ही लभते।।
क्योंकी अणुव्रत व महाव्रत के आचरण सफल तब ही होते।
यदि मुक्तीसुख के लिए किया वरना जग में दुख ही देते।।

(२७) यह ‘‘देशव्रतोद्योतन’’ क्रम से इंद्र अरु अहमिन्द्र बना करके।
सबका कल्याण करे एवं अंतिम सुख का भंडार भरे।।
दुर्लभ मनुष्य भव पा करके जिस मोक्षमार्ग की प्राप्ती हो।
‘‘श्री पद्मनंदि गुरु’’ की रचना इस जग में सदा जयवंती हो।।

।।इति देशव्रतोद्योतन अधिकार।।

सप्तम अधिकार

देशव्रतोद्योतन

(४५३) बाह्याभ्यंतर परिग्रह तज करके चार घातिया नाश किया।
अरु शुक्ल ध्यान से जिनप्रभु ने सर्वज्ञपने को प्राप्त किया।।
जिनधर्म निरूपण करने में उनके ही वचन सत्य माने।
संदेह करें वे हैं पापी अथवा अभव्य उनको जानें।।१।।

(४५४) निज पाप कर्म से दुखित मनुष यदि सम्यग्दर्शन से युत है।
वह सम्यग्दृष्टी एक बहुत ही आदर पाने योग्य कहें।।
प्रत्युत मिथ्यामत में स्थित संप्रति में बहुत सुखी दिखता।
वह बहुत बड़ी मात्रा में हो फिर भी नहिं आदर योग्य कहा।।२।।

(४५५) जिनप्रभु ने सम्यग्दर्शन को है मोक्ष वृक्ष का बीज कहा।
अरु मिथ्यादर्शन को प्रभु ने संसार वृक्ष का बीज कहा।।
क्योंकी नरकादि योनियों में भ्रम रहा अनादीकालों से।
इसलिए करो रक्षा इसकी जो मिला बहुत ही कालों में।।३।।

(४५६) इस जग में काल अनंत बीत जाये तब मनुज जन्म मिलता।
उस पर यदि सम्यग्दर्श मिले तो मुक्ति हेतु तप को करना।।
यदि िंनदा अथवा मोहकर्म का उदय अशक्तपना होवे।
तो भी श्रावक षट्कर्मों के जो योग्य व्रतादि अवश्य करे।।४।।

(४५७) जो सम्यग्दर्शन सहित भव्य हैं अष्ट मूलगुण के पालक।
और पाँच अणुव्रत गुणव्रत त्रय शिक्षाव्रत चारों के धारक।।
अरु सात शीलव्रत को पाले रात्रि में भोजन नहीं करे।
जल छना हुआ ही पीता हो और यथाशक्ति मौनादि धरे।।५।।

(४५८) जो व्रती जीव निजकार्य हेतु स्थावर जीव मारते हैं।
दो इंद्रिय आदिक त्रस जीवों की हरदम रक्षा करते हैं।।
अरु सत्य बोलना अचौर्यव्रत निज स्त्री का सेवन करते।
सामायिक प्रोषध दान और भोगोपभोग गुणव्रत धरते।।६।।

(४५९) यद्यपि धनवान श्रावकों के पुण्योपार्जन के हेतु बहुत।
जिनपूजा और प्रतिष्ठा आदिक करते हैं सत्कार्य बहुत।।
पर भवसिंधू से तरने को नौका सम जो मुनिश्रेष्ठ कहे।
उनको आहारदान आदिक देना सबसे ही श्रेष्ठ कहें।।७।।

(४६०) सब जीवों की कामना यही हमको जग में सुख शांति मिले।
पर यह सुख मोक्षमार्ग में है जो रत्नत्रय धर के ही मिले।।
और रत्नत्रय की प्राप्ति सदा निर्गं्रथवेष में होती है।
साधूचर्या श्रावकगण के आहारदान से चलती है।।८।।

(४६१) इच्छानुसार भोजन विहार औषधि से तन निरोग रहता।
पर आज्ञा नहीं साधुओं को अतएव शरीर अशक्त रहता।।
पर धर्मात्मा उत्तम औषधि निर्मल जल से गुरुभक्ति करें।
ऐसे उत्तम श्रावकजन से इन साधुगणों की प्रवृति चले।।९।।

(४६२) जो धर्मी श्रावक शास्त्रों का व्याख्यान करें या पाठ करें।
पुस्तक छपवाकर साधुजनों को भक्तीपूर्वक दान करे।।
थोड़े ही भव में तीन लोक में लक्ष्मी को वरने वाले।
वैâवल्यज्ञान की प्राप्ती हो जो शास्त्रदान देने वाले।।१०।।

(४६३) सब जीवों की करुणापूर्वक जो भय से रक्षा की जाती।
वह अभयदान सब दानों में है श्रेष्ठ प्ररूपण की जाती।।
क्योंकी आहार औषधी से भी बीमारी का भय भगता।
इसलिए दान ये तीनों ही, इसमें ही है गर्भित रहता।।११।।

(४६४) आहारदान के देने से इन्द्रादि सुखों की प्राप्ती हो।
औषधीदान से परभव में तन सुन्दर और निरोगी हो।।
अरु शास्त्रदान से विद्वत्ता मिलती अद्भुत विस्मयकारी।
अरु अभयदान दे सारे सुख अंतिम सुख मोक्ष मिले भारी।।१२।।

(४६५) सैंकड़ों पाप कर्मों को कर नाना प्रकार दुख को सहकर।
वारिधि पर्वत और पृथ्वी पर भ्रम करके बहुत कष्ट सहकर।।
धन संचय करता पर वह धन स्त्री पुत्रादिक से प्यारा।
उस धन को व्यर्थ न खर्च करो है दान धर्म सबसे न्यारा।।१३।।

(४६६) यह दान ही है श्रावक का गुण दोनों लोकों में चमकाता।
बिन दान के दोनों लोकों में केवल विनाश ही करवाता।।
क्योंकी व्यापार आदि कार्यों में बहुत पाप हो जाते हैं।
उन पापकर्म का क्षालन ही सत्पात्र दान कर पाते हैं।।१४।।

(४६७) जो धन उत्तम दानादिक के हेतू उपयोग किया जाता।
उसको ही उत्तम धन कहते परलोक में साथ सदा जाता।।
विद्वान लोग ये भी कहते ये दान अनंतगुणा फलता।
जो भोगविलासों में खर्चे वह सब बेकार चला जाता।।१५।।

(४६८) पहले भी बड़े बड़े राजा पुत्रों को राज्यपाट देकर।
याचकजन को भी धन देकर सब जन को अभयदान देकर।।
उत्तम तप करके मोक्ष गये इसलिए दान पहला कारण।
इस हेतू धन को क्षणिक मान इससे ही करो भवदुख वारण।।१६।।

(४६९) नरभव को पाकर जो नर मुक्ती हेतु नहीं उद्यम करते।
अत्यन्त मूढ़बुद्धी वाले घर में ही पड़े रहा करते।।
जिस घर में दान नहीं देते वह घर कारागृह सदृश कहा।
अपने सामर्थ्यनुसार दान भवजलधि पोत सम उसे कहा।।१७।।

(४७०) जो नहीं देवदर्शन करते ना ही उनका स्मरण करें।
ना ही उनकी पूजन करते और ना उनका स्तवन करें।।
सामर्थ्यवान होकर भी जो नहिं साधूजन को दान ही दे।
पत्थर की नौका के समान भविंसधु में डूबेंगे ही वे।।१८।।

(४७१)िं चतामणी रत्न कामधेनू पारस पत्थर अरु कल्पवृक्ष।
ये परोपकार करने वाले हैं सुना है ना देखा प्रत्यक्ष।।
पर िंचतामणी समान मनोवांछित जो दान देने वाला।
दाता अवश्य देखे जाते इसलिए उसी में सब आता।।१९।।

(४७२) जिस नगर देश में श्रावकजन रहते हैं जिनमंदिर होता।
अरु जहां जैनमंदिर होता यतिगण का भी निवास होता।।
यतियों में धर्मवृत्ति रहती संचयति पाप जिसे नशते।
पापों के नशने से श्रावक को स्वर्गमोक्ष के सुख मिलते।।२०।।

(४७३) इस दु:खमा नामक काल में जब जिनधर्म क्षीण हो जाने से।
ध्यानी साधूगण विरले हैं मिथ्यांधकार पैâलाने से।।
जिनप्रतिमाएं जिनमंदिर को जो भक्ति सहित बनवाते थे।
अब विरले हैं वे भव्यपुरुष वंदन के योग्य कहाते वे।।२१।।

(४७४) विम्बादल के सम छोटे से छोटा मंदिर जो बनवाये।
उसमें जौ के प्रमाण प्रतिमा भी पुण्य का फल वो पाये।।
जिसके वर्णन की बात ही क्या खुद सरस्वती नहिं कह सकती।
फिर जो ऊँचे शिखरों वाले मंदिर बनवाएं पुण्य मही।।२२।।

(४७५) जहाँ जिनमंदिर के होने पर यात्रा से अरु अभिषेकों से।
अरु बड़े-बड़े उत्सव करके पूजा चरु और चांदने से।
ध्वज आरोहण कलशारोहण अरु घंटा वाद्य चमर दर्पण।
इनसे मंदिर की शोभा कर भविजन करते हैं पुण्यार्जन।।२३।।

(४७६) जो षट् आवश्यकपूर्वक अणुव्रत धरने वाले श्रावक हैं।
वे स्वर्गों में चिरकाल रहें होते ऋद्धी के धारक हैं।।
फिर मृत्युलोक में आ करके मनुकुल में रत्नत्रय धरकर।
सिद्धालय में जा बसते हैं बाह्याभ्यंतर परिग्रह तजकर।।२४।।

(४७७) चारों पुरुषार्थों में उत्तम सुख देता मोक्ष है अविनाशी।
उससे विपरीत अर्थ कामादिक तजो मोक्ष के अभिलाषी।।
लेकिन यदि धर्म से भी भोगादिक वस्तु प्राप्त ही होती है।
तो भी वह व्यर्थ कहा लेकिन इस धर्म से मुक्ति भी मिलती है।।२५।।

(४७८) जो भव्य मोक्ष की प्राप्ति हेतु अणुव्रत महाव्रत धारण करते।
निश्चयनय से सुख की प्राप्ती के लिए मोक्ष को ही लभते।।
क्योंकी अणुव्रत व महाव्रत के आचरण सफल तब ही होते।
यदि मुक्तीसुख के लिए किया वरना जग में दुख ही देते।।२६।।

(४७९) यह ‘‘देशव्रतोद्योतन’’ क्रम से इंद्र अरु अहमिन्द्र बना करके।
सबका कल्याण करे एवं अंतिम सुख का भंडार भरे।।
दुर्लभ मनुष्य भव पा करके जिस मोक्षमार्ग की प्राप्ती हो।
‘‘श्री पद्मनंदि गुरु’’ की रचना इस जग में सदा जयवंती हो।।२७।।

।।इति देशव्रतोद्योतन अधिकार।।

।।

सिद्ध परमेष्ठि का स्तवन

अष्टम अधिकार

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१) जो अवधिज्ञानि अत्यंत सूक्ष्म अणुसम पदार्थ भी देख सके।
उनको भी सिद्ध नहीं दिखते फिर हम वैâसे स्तवन करें।।
और जिनके ज्ञान की महिमा में त्रैलोक्य नक्षत्र समान दिखे।
ऐसे अप्रमेय तेजधारी की भक्तीवश स्तुती करें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(२) देवों के मुकुटों की मणियों से जिनके चरण कमल पूजित।
ऐसे तीर्थंकर भगवन भी जिस पद प्राप्ती में लगे सतत।।
जो लोकशिखर पर हैं राजित विस्तीर्ण ज्ञान निकलंक प्रभो।
ऐसे क्षायिक गुण के धारी सिद्धों को भक्ती से प्रणमो।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(२) धर्मास्तिकाय के कारणवश लोकाग्र भाग में स्थित हैं।
स्वाभाविक ज्ञान और दर्शन से जिनका रूप सुशोभित है।।
कृतकृत्य प्रभो जिनकी उपमा कोई भी धार नहीं सकता।
मंगलकारी अविनाशी ऐसे सिद्धों को मैं नमन करता।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(३) जिन सिद्धप्रभु ने कर्मशत्रु को जीत सिद्ध पद प्राप्त किया।
अरु जन्म मरण आदिक अठरह दोषों को जिनने नाश किया।।
जो अनन्तज्ञान से सहित हुए अचिन्त्य ऐश्वर्य के धारी हैं।
वे तीन जगत के शिखामणी श्री सिद्धप्रभू सुखकारी हैं।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(४) सिद्धों का ज्ञान प्रमाणरूप और आत्मा ज्ञेय प्रमाण कही।
इसलिए आत्मा व्यापक है अव्यापक भी आत्मा है कही।।
सिद्धों की आत्मा के प्रदेश अंतिम शरीर से कम रहते।
ऐसे दोनों धर्मोंकरयुत श्री सिद्ध प्रभू जयंवत रहें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५) पहले दोनों जब कर्म नशे तो दर्श ज्ञान गुण प्रगट हुआ।
मोहनी कर्म के क्षय होने से सुख अनंत भी प्राप्त हुआ।।
वीर्यान्तराय से अनंतवीर्य अरु नामकर्म से र्मूित नहीं।
आयु से जन्म मरण नशाते अरु गोत्र से कोई गोत्र नहीं।।
वेदनीय कर्म के नशने से सिद्धों के सुख दुख नहिं होते।
जब तक ये अष्टकर्म रहते तब तक वे सिद्ध नहीं बनते।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६) जिन कर्मों के कृपा प्रसाद से जीव बहुत दुख सहते हैं।
वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं नहिं सच्चा रूप देखते हैं।।
दुर्धर्ष ध्यान से कर्मों को जिन सिद्ध प्रभू ने नष्ट किया।
वे सिद्ध अनंत चतुष्टय के धारी शिवपथ को प्राप्त किया।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(७) इक इंद्रिय से दो इंद्रिय में है ज्ञान अधिक तो सुख ज्यादा।
कुछ एक दुखों की शांती से आगे आगे है सुख ज्यादा।।
फिर सिद्ध प्रभू जिनने समस्त कर्मों को निज से नष्ट किया।
वे सबसे अधिक सुखी ज्ञानी होंगे ही मुक्ती वरण किया।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(८) जब कोई व्यक्ती किसी व्यक्ति को नख से शिख तक कस डाले।
कुछ इक बंधन की यदि कोई भी रस्सी ढीली हो जाए।।
तब सुख माने प्राणी वैसे ही सिद्ध प्रभू बंधन विरहित।
क्यूं ना अनंत सुख भोगें वे बाह्याभ्यंतर जब कर्म रहित।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(९) आत्मा के इक प्रदेश में भी इतने परमाणू व्याप्त रहे।
सर्वज्ञ सिवा कोई नहिं गिन सकता उस सुख को रोक रहे।।
आत्मा में कर्म चिपटने से वह कुछ भी देख नहीं सकता।
जिनने कर्मों को उड़ा दिया उन सिद्धों को ही सुख मिलता।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१०) जिन संसारी के कर्मजनित क्षुध तृषा आदि व्याधी रहती।
उसकी शांती के लिए अन्न जल पर काया आश्रित रहती।।
पर सिद्धप्रभू के कर्म नहीं नहिं जल अन्नादिक ग्रहण करें।
सुखरूपी अमृत में निमग्न उनकी आत्मा तो तृप्त रहे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(११) जो निर्मल ज्ञान स्वरूप र्मूित सम सिद्ध ज्योति के पाने को।
योगीजन ध्यान लगाते जब उन सिद्धों सम बन जाते वो।।
जैसे स्पुâरित दीप बत्ती उस दीपपने को प्राप्त करे।
वैसे त्रिलोक के चूड़ामणि सुरनमित सिद्ध पद प्राप्त करें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१२) जो सिद्ध ज्योति सूक्षम भी है अरु वृहत् तथा है शून्य वही।
अरु शून्य नहीं है नश्वर भी अस्ती नास्ति और नित्य वही।।
यह एक अनेकरूप धर्म को लिए हुए स्याद्वादयुत है।
ऐसी यह ज्ञानस्वरूप अर्मूितक ज्योति किसी को मिलती है।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१३) स्यादवादमयी जल से पूरित महासागर में स्नान करके।
जिसकी बुद्धी है स्वच्छ हुई वह ही जाने गुण आत्मा के।।
वह बुद्धिमान उन सिद्ध के गुण साक्षात रीति से प्राप्त करे।
और तेरा मेरा भेद रहित आत्मा का सिद्ध स्वरूप गहे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१४) जैसे सोने से बना पात्र सोना स्वरूप ही है होता।
और लोह पात्र लोहास्वरूप शुद्धात्मरूप तत्सम होता।।
जो तत्वज्ञानि की दृष्टि वही अविनाशी पद दिलवाती है।
इससे जो भिन्न दृष्टि उनको तिर्यंचगती पहुँचाती है।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१५) जैसे सुनार दूसरी धातु में मिले स्वर्ण को जुदा करे।
वैसे ही जो विद्वान पुरुष श्रुतज्ञान चक्षु से जब देखे।।
षट्द्रव्यों में जो मिले द्रव्य उनसे आत्मा को जुदा करे।
शास्त्रों को बिना पढ़े देखे उत्कृष्ट रूप को नहीं लखे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१६) यह वस्तु त्यागने योग्य तथा यह ग्रहण योग्य है ज्ञान जिसे।
जो ग्राह्य रूप वो ग्रहण करे सिद्धावस्था हो प्राप्त उसे।।
लेकिन जो भिन्न हेय वस्तू को तजने में संदेह करे।
वे अज्ञानी उत्कृष्ट मोक्ष स्थान कभी ना प्राप्त करें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१७) जितना भी अंग उपांगयुत श्रुत सिद्धत्व प्राप्ति में है कारण।
पर अज्ञानी की अन्य अर्थ के हेतु कल्पना निष्कारण।।
निर्वाण मार्ग से भ्रष्ट उन्हें नहिं अंश मात्र भी ज्ञान कहा।
जो भी होते हैं विचारशील उसको होता श्रुतज्ञान महा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१८) जो सदाकाल हैं सुखी तथा आराधन का फल प्राप्त किया।
ऐसे सिद्धों के बारे में मुझ अज्ञानी ने गान किया।।
यह थोड़ी सी स्तुति मुझको मुक्तिपथ पर ले जाएगी।
जो सर्व शास्त्ररूपी संपति का धारी मुझे बनाएगी।।

(१९) यद्यपि जो सिद्धस्वरूप तेज सबका ज्ञाता अरु दृष्टा है।
और सबसे अंत में जो होता आत्मीक सुखों का भोक्ता है।।
उत्पाद ध्रौव्य व्यय युक्त तथा मोक्षाभिलाषियों के मन में।
वह एक रूप ही राजित है मुक्तात्मरूप आत्मधन में।।

(२०) जो नय निक्षेप प्रमाणों के व्यापार तथा कारक छोड़े।
सब संबंधों को एवं तू मैं आदि विकल्पों को छोड़े।।
सब कर्मों की उपाधियों से हो विरहित आत्मलीन होकर।
ऐसे वे सिद्ध सर्वगुण से वृद्धी को प्राप्त मुक्त होकर।।

(२१) जिनने अंतरंग दृष्टि से उन सिद्धात्म तेज को नहिं देखा।
उन मूर्खों को स्त्री सुवर्ण आदिक पदार्थ में सुख दिखा।।
जिन भविजीवों का दृश्य सिद्धरूपी रस में है भीग गया।
वे भव्यजीव तृणवत् समझें साम्राज्य व तन भव रोग कहा।।

(२२) जो मनुज प्रीतिपूर्वक सिद्धों के नाम का भी सुमिरन करते।
वे जग में वंदन योग्य गुणी और धन्य पुरुष समझे जाते।।
अथवा जो मनुज शुद्ध मन से पर्वत की गुफा में ध्यान करें।
नासाग्रदृष्टि रख करे ध्यान तब और भी धन्य कहायें वे।।

(२३) जो तर्वâ व्याकरण सहित सभी शास्त्रों को पढ़कर जान लिया।
सिद्धों का जो वास्तविक रूप विद्वानों ने पहचान लिया।।
क्योंकी जो बाण बेधने में है कुशल बाण कहलाता है।
वैसे ही सिद्धरूप को जो ना जाने मूढ़ कहाता है।।

(२४) आत्मा प्रबुद्ध जिनकी ऐसे जो भव्य उन्होंने जान लिया।
दैदीप्यमान ज्ञानधारी उत्कृष्ट सिद्ध को जान लिया।।
ऐसा हो ज्ञान हृदय में जब तब बाह्य शास्त्र से मतलब क्या।
जिनके हाथों में सूरज हो उसको दीपक का काम ही क्या।।

(२५) सिद्धों के आत्म प्रदेशों से सब कर्मबंध हैं छूट गए।
और जिनके आत्मप्रदेशों में है ज्ञान की किरणें पूâट गर्इं।।
जो सम्यग्दर्शन के धारी सर्वत्र तेज स्पुâरायमान। ‘
आकुलतारहित तथा निश्चल हे सिद्ध ! मोक्ष कर दो प्रदान।। ‘

(२६) जो अंतरात्मा बहिरात्मा के भेदज्ञान को देख सके।
आत्मा रूपी ऊँचा मकान िंचतवन रूप सीढ़ी चढ़ के।।
उसमें जो चिदानंद रूपी स्त्री के साथ निवास करे।
र्हिषत होकर निज आत्मा में आत्मा का ही आधार रहे।।

(२७) सिद्धों की गति वह ही सुगती उनका सुख ही है सच्चा सुख।
वे सिद्ध ही सम्यग्दर्शन हैं अरु सम्यग्ज्ञान रूप भी प्रिय।।
उनके अतिरिक्त नहीं कुछ प्रिय ऐसा मन में श्रद्धान करूँ।
सारे जग का भय छुट जाए वह सिद्ध अवस्था प्राप्त करूँ।।

(२८) ऐसे इन सिद्ध परमेष्ठी की स्तुति वचनों से शक्य नहीं।
फिर भी जो कुछ है लिखा गया नभ में आलेख्य कर रहा सही।।
जब उनके नाम स्मरण मात्र से हर्ष बहुत है हो जाता।
मैं ‘‘पद्मनंदि मुनि’’ भक्तीवश वाचाल क्यों नहीं हो जाता।।

।।इति सिद्धस्तुति रूप अधिकार।।

आलोचनाधिकार

नवमां अधिकार

(१) हे प्रभो अगर सज्जन के मन में आपका ही अवगाहन हो।
और आपका नाम स्मरण रूप महामंत्र ही मन में भावन हो।।
अरु आपके द्वारा प्रकट किए रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग।
इन यदि गमन की अभिलाषा तो रोक न सकता कोई काम।।

(२) हे भगवन् ! जग से मुक्ति हेतु सारे परिग्रह का त्याग किया।
और रागभाव को त्याग आपने समता को भी धार लिया।।
फिर अनंतज्ञान, सुख, वीर्य और दर्शन गुण तुममें प्रगट हुए।
इस क्रम से तुम ही शुद्ध तथा सज्जन की सेवा पात्र हुए।।

(३) हे तीन लोक के ईश ! अगर मैं आपकी सेवा में दृढ़ हूँ।
तो कोई भी बलवान जगत वैरी को जीत मैं सकता हूँ।।
क्योंकी जलवर्षण से उत्तम फव्वारा यंत्र सहित घर में।
सुख मिलता है तब तीक्ष्ण धूप ना त्रास दे सके जीवन में।।

(४) यह सार असार परीक्षा में हो एकचित्त जो बुद्धिमान।
त्रैलोक्य के सभी पदार्थों को बाधा विरहित करके विचार।।
उस व्यक्ति की दृष्टि में हे भगवन् ! बस सारभूत इक आप ही हैं।
तुमसे सब भिन्न असारभूत संतोष का आश्रय आप ही हैं।।

(५) जिन योगीश्वर ने अपनी योगदृष्टि से तुमको देख लिया।
क्योंकी तुमने ही अनंत दर्श सुख बल अतिशय कर प्राप्त किया।।
काया भी है दैदीप्यमान तुमको देखा सब देख लिया।
फिर कुछ भी रहा नहीं बाकी देखने योग्य कुछ रह न गया।।

(६) हे भगवन् ! तुम हो त्रिजगदपति स्वामी और आप जिनेश्वर हो।
तुम ही को केवल नमन करूँ और हर क्षण ध्यान हृदय में हो।।
सेवा स्तुति भी करता हूँ अब मुझको अपनी शरण में लो।
यदि जग में कुछ मिलता हो मुझे ना उससे कोई प्रयोजन हो।।

(७) मैंने भ्रम से जो भूत भविष्यत वर्तमान में पाप किये।
कृत कारित अनुमोदन द्वारा मन वचन काय से करवाये।।
उन पापों का अनुभव करके मैं अपनी िंनदा करता हूँ।
हे प्रभो ! मेरे वे पाप सभी मिथ्या हों याचना करता हूँ।।

(८) हे भगवन् ! तुम अनंत भेदयुत लोकालोक सकल जानो।
और मेरे सारे दोषों को भी तुम ही भलीभाँति जानो।।
फिर भी मैं अपने पापों का आलोचन तुमसे करता हूँ।
यह नहीं सुनाने के खातिर मनशुद्धी हेतू करता हूँ।।

(९) व्यवहार नयाश्रित मूल और उत्तरगुण को धरने वाला।
मुझ मुनि के जो भी दोष लगे आलोचन हेतू मैं आया।।
क्योंकी ज्ञानी को अपना मन त्रयशल्य रहित रखना चहिए।
हे प्रभो ! आपके सन्मुख सब निर्मल मन से कहना चहिए।।

(१०) हे भगवन् ! जग में जितने व्यक्त अरु अव्यक्त हैं विकल्प कहे।
और उन्हीं विकल्पों सहित जीव ने उतने ज्यादा दुक्ख सहे।।
पर जितने पाप नहीं उतने प्रायश्चित कहे जिनागम में।
इसलिए सभी दोषों की शुद्धी होती प्रभु तब आंगन में।।

(११) मन और इन्द्रियाँ जब तक बाह्य पदार्थों में हैं लगी हुई।
तब तक निंह कोई भी प्राणी निर्मल स्वरूप को देख सके।।
जो सर्व परिग्रह से विरहित और सब शास्त्रों का जो ज्ञाता।
वह ही निज में स्थिर रहकर प्रभु की समीपता को पाता।।

(१२) जिसने पूरब भव में कष्टों से संचित किया पुण्य भारी।
उसने तुमको पा लिया प्रभो हो उत्तम पद की उसे प्राप्ति।।
जिसको निश्चय से ब्रह्मा विष्णु महेश आदि भी पा न सवेंâ।
फिर हे जिनेन्द्र बतलाओ मुझे जिससे मन बाहर ना भटके।।

(१३) इस जग में दुक्ख बहुत ही है पर सुखप्रद मोक्ष एक ही है।
इसलिए उसी की प्राप्ति हेतु छोड़े धन धान्य परिग्रह हैं।।
हमने तपवन में व्रत धारण कर सारे संशय त्याग दिए।
फिर भी सिद्धी नहिं मिली मुझे क्यों मेरा मन भरमाय रहे।।

(१४) जब तक आत्मा में कर्मों का है आवागमन दुखी करता।
उन कर्मों से मन बाह्य वस्तु रमणीक मान रागी बनता।।
जब इंद्रिय रूपी गांव में है मन बसा हुआ जीवित रहता।
तब मुनियों का मन भी कब तक कल्याण मार्ग में थिर रहता।।

(१५) निर्मल अखंड बोधात्मरूप तुमको पाकर मन मर जाता।
हे नाथ ! मोहवश मेरा मन तुमसे अन्यत्र भ्रमण करता।।
क्या करूँ मृत्यु से सब डरते अतएव प्रार्थना करता हूँ।
इस अहितकारि मोहनीय कर्म से छुटकारा दो कहता हूँ।।

(१६) ज्ञानावरणादि सभी कर्मों में मोह बहुत बलशाली है।
इस मोह के वश से यह चंचल मन यहाँ वहाँ फिरता ही है।
और डरता है मरने से भी यह नहिं हो कोई न जिए मरे।
इस जग को दोनों दृष्टी से देखा है आप ही मोह हरें।।

(१७) वायू से व्याप्त समुद्र और उसकी जल लहरी के समान।
सब काल और सब क्षेत्रों में क्षणभंगुर और विनाशवान।।
ऐसा विचार कर हे जिनेन्द्र ! तुममें रहने की इच्छा है।
क्योंकी तुम ही हो र्नििवकार जग की स्थिति को परखा है।।

(१८) जिस समय अशुभ उपयोग उस समय पाप की उत्पत्ती होती।
और शुभ उपयोग जिस समय हो तब पुण्य की उत्पत्ती होती।।
है पाप पुण्य से सुख और दुख दोनों संसार के कारण हैं।
हे भगवन् ! मैं तुम सम पद का इच्छुक जो मोक्ष का कारण है।।

(१९) आतमस्वरूप जो तेज न भीतर और न बाहर स्थित है।
और नहीं दिशाओं में स्थित नहिं मोटा और महीन ही है।।
निंह पुल्लिंग स्त्रीिंलग नपुंसक िंलग और ना भारी है।
नहिं हल्का, नर्म स्पर्श, गंध, तन, गणना अरु वच धारी है।।
जो निर्मल सम्यग्ज्ञान और दर्शनस्वरूप मूर्ती जिसकी।
वैसी ही तेजस्वरूप मेरी आत्मा निंह भिन्न और कुछ भी।।

(२०) आत्मा की उन्नति के नाशक बिन कारण के जो वैरी हैं।
तुममें और मुझमें जो अंतर इन कर्मों के कारण ही है।।
ये कर्म आपके हैं समक्ष इनको भगवन् अब नष्ट करो।
है नीतिवान का धर्म यही हम सज्जन को निज सम ही करो।।

(२१) नाना आकार विकारों के जो मेघ व्योम में रहते हैं।
आकाश अर्मूितक है उसका कुछ नहिं बिगाड़ कर सकते हैं।।
बस उसी तरह मेरी आत्मा तन से है भिन्न व ज्ञानवान।
आधी व्याधि और जरा मरण उसका नहिं कर सकते विनाश।।

(२२) जैसे स्थल पर पड़ी हुई मछली जल बिना तड़पती है।
वैसे ही इस संसार रूप संताप से काया जलती है।।
करूणा रूपी जल के संग से जो शीतल चरण कमल प्रभु के।
जब तक मन उसमें लीन रहे तब तक ही सुखी वरना दुख में।।

(२३) इंद्रिय समूह से सहित मेरा मन बाह्य पदार्थों से बंधता।
उससे ही कर्मबंध होता वास्तव में सदा पृथक रहता।
जिस तरह आपकी आत्मा से ये कर्म सर्वथा जुदे रहे।
वैसे ही हे शुद्धात्मन ! मम स्थिती आपमें बनी रहे।।

(२४) नहिं लोक व आश्रय और द्रव्य से आत्मन तुझे प्रयोजन है।
इन्द्रिय, शरीर, अरु वचन, प्राण पुद्गल स्वरूप तू चेतन है।।
यदि अपना मन इसे आश्रय ले बंधन से बंध जाएगा।
ममता को त्याग निजातम ध्या शुद्धात्म रूप को पाएगा।।

(२५) धर्म और अधर्म आकाश काल चारों ही द्रव्य हैं हितकारी।
क्योंकी गति और स्थिती में अवकाश काल में सहकारी।।
पर गति आदिक नोकर्म सहित पुद्गल ही मेरा वैरी है।
इससे ही कर्मबंध होता निज ज्ञान से इनको भेदा है।।

(२६) जिन राग द्वेष परिणामों से ये पुद्गल द्रव्य परिणमन करें।
आकाश चतुष्टय र्मूित रहित में रागद्वेष नहिं परिणमते।।
उन कर्मों से संसार भ्रमण और दुख बहुत सहने पड़ते।
इन रागद्वेष का त्याग करो ये सबका बहुत अहित करते।।

(२७) हे मन् ! तुझसे जो बाह्य वस्तु स्त्री पुत्रादिक पर पदार्थ।
उसमें तू रागद्वेष मय हो करता विकल्प बहुविध प्रकार।।
क्यों दुख के लिए कर्म बाँधे आनंदामृत सागर में रह।
शुद्धात्मा में निवास करके बस उसमें ध्यान मगन तू रह।।

(२८) पूर्वोक्त बात को भलीभाँति मन में धरकर जब ये प्राणी।
अध्यात्म तुला पर चढ़ता है दूजे में कर्मरूप वैरी।।
प्राणी को दोषी बना रहे दोनों के मध्य आप ही हैं।
हे भगवन् ! न्याय करो मेरा चरणों की कृपा आपकी है।।

(२९) सविकल्प ध्यान संसार रूप वास्तविक रीति से कहा गया।
र्नििवकल्प ध्यान है मोक्षरूप संक्षेप में दोनों कहा गया।।
निश्चयनय का अवलम्बन कर जब नाम रहित हो जाता है।
व्यवहारनयों से उस ही का ब्रह्मादिक नाम कहाता है।।

(३०) बिन कर्म नशे नहिं मुक्ति मिले कर्मों का नाश तप से होता।
इस विषमकाल में हे भगवन् ! चारित्र नहीं मैं धर सकता।।
पूर्वोर्पािजत कुछ पुण्य उदय से दृढ़भक्ति तव चरण मेरी।
संसार रूप सागर तिरने में नाव आप ही हो मेरी।।

(३१) संसार भ्रमण करके मैंने इंद्रादिक पदवी प्राप्त करी।
नरकादि निगोद आदि योनि ना जाने कितनी बार धरी।।
जो है अपूर्व मुक्ती पदवी वह अब तक प्राप्त नहीं की है।
हे भगवन् ! इस पदवी को दो अब यही प्रार्थना मेरी है।।

(३३) श्री वीरनाथ भगवान ने जो चित में उपदेश जमाया है।
उसके आगे इस पृथ्वी का क्षणभंगुर राज्य न भाया है।। हे प्रभो !
उच्च पद प्राप्ति हेतु उपदेश आपका ही प्रिय है।
तीनों लोकों का राज्यपाट अब लगता मुझको अप्रिय है।।

(३३) जो प्राणी तीनों कालों में अर्हत सम्मुख यह पाठ करे।
आलोचना नामक इस कृति को जो ‘‘पद्मनंदि आचार्य’’ रचें।।
वह शीघ्र मोक्ष पद पाता है जिस पद को पाने की खातिर।
योगीजन बड़ा यत्न करते चिरकालों तक तप को कर कर।।

।।इति आलोचना अधिकार।।

दशवीं अधिकार

(१) यह आत्मतत्त्व है कठिन बड़ा साधारण जन की बात ही क्या।
खुद वृहस्पती वाणी भी वर्णन करने में असमर्थ तथा।।
विस्तृत इतनी आकाश सदृश नहिं हृदय में धारण कर सकते।
विरले ही प्राणी अति अद्भुत इस आत्मतत्त्व को पा सकते।।

(२) यह आत्मतत्त्व नित्य अरु अनित्य हल्का एवं भारी होता।
इकरूप अनेकरूपपन से सत् और असत् से गहन बड़ा।।
यह पूर्ण तथा यह शून्य भी है यह आत्मतत्व जयवंत रहे।
जो अखिल शास्त्र के ज्ञाता भी इस आत्मतत्त्व को पा न सवेंâ।।

(३) जो आत्मा अणिमा महिमादिक ऋद्धी की इच्छा नहिं करता।
मुक्ती में दृष्टि लगा करके समता में सदा लीन रहता।।
ऐसी आत्मा को नमस्कार आत्मा सम हंस दृष्टि रखता।
अति सुन्दर पंकजवन को तज निज हंसिनि में हो रुचि रखता।।

(४) सामान्यतया देखा जाए तो सबमें आत्मतेज रहता।
पर जो चैतन्य तेज सारे रागादि भाव नशकर होता।।
वह चौतरफा है प्रकाशरूप कल्याणप्रदायक होता है।
उस आत्मतेज को नमस्कार यह महामुनि को होता है।।

(५) जो आत्मतेज सारे पदार्थ को है प्रकाश देने वाला।
यह अंतरहित है तथा स्वयं को भी प्रकाश करने वाला।।
यदि मिल जाए समस्त वाणी तो भी वर्णन नहिं कर सकती।
चैतन्य तेज जयवंत रहे जो केवलज्ञानी को होती।।

(६) है सब प्रकार से र्नििवकल्प चैतन्य तेज जो होता है।
वह किसी तरह से भी मन से देखने योग्य निंह होता है।।
फिर कर्माश्रित है विकल्प रूप वो जड़ स्वरूप को क्या दिखता ।
इसलिए स्वानुभवगम्य तेज मन के गोचर भी नहिं रहता।।

(७) नहिं वचन और मन के गोचर तो इसका कुछ अस्तित्व नहीं।
ऐसी शंका के होने पर आचार्य हमें कह रहे यही।।
मन वचन अगोचर होकर भी यह तेज स्वानुभव गोचर है।
आकाश पुष्प सम नास्तित्व नहिं अस्तित्व कह रहे गुरुवर हैं।।

(८) परमात्मा में स्थित जो मन उस समय नाश मन का होता।
अतएव वो मन परमात्मा को तज इधर उधर भ्रमता रहता।।
क्योंकी मरने से डरते हैं इस भूतल पर सारे प्राणी।
फिर मन भी क्योंकर नहीं डरे मरने से क्योंकी अज्ञानी।।

(९) निश्चय से यदि देखा जाए चैतन्य तत्व आत्मा में है।
आत्मा से भिन्न जगह दूजी जो प्राणी उसे समझते हैं।।
वे मूढबुद्धि वैसे ही हैं जैसे मुट्ठी में रखी वस्तु।
जंगल में जा करके ढूंढें निज में रहता चैतन्य तत्व।।

(१०) इच्छित मारग को छोड़ अगर दूसरे मार्ग पर जाएगा।
तो वह मानव इच्छित स्थल पर पहुँच कभी ना पाएगा।।
जो आत्मा में आसक्त नहीं उत्कृष्ट ध्यान निंह कर सकते।
उत्कृष्ट ध्यान के प्रेमी ही आत्मा में स्थित रह सकते।।

(११) अत्यन्त गहन चैतन्य रूप आत्मा में लक्ष्य नहीं जिनका।
वे तपसी साधुरूप में जड़ नाटक का वेष लगे उनका।।
जैसे नाटक का पात्र कभी राजा और रंक रूप धरते।
वैसे ही अज्ञानी प्राणी साधू का वेष व्यर्थ धरते।।

(१२) चैतन्य तत्व को जान के भी अज्ञानीजन भवभ्रमण करें।
इसलिए ग्रंथकर्ता कहते इस अतिशय तेज को ग्रहण करें।।
जैसे अंधे मानव को हाथी के स्वरूप का पता नहीं।
वैसे ही अज्ञानी द्वारा चैतन्य रूप का पता नहीं।।

(१३) जो कर्मबंध से सहित हुई भी बंधन रहित आतमा है।
और रागद्वेष से मलिन हुई भी निर्मल स्वच्छ जो आत्मा है।।
निज देह सहित होने पर भी यह आत्मा है शरीर विरहित।
वह आत्मा एक अनेक धर्मयुत मानो ये विश्वास सहित।।

(१४) जो अनेकांत से नाश रहित होकर भी नाश सहित आत्मा।
परद्रव्य अपेक्षा शून्यरूप स्वद्रव्य अपेक्षा पूर्ण आत्मा।।
निश्चयनय से है एक तथा व्यवहार नयापेक्षा अनेक।
इस रीती से इस आत्मा में स्थित रहते हैं धर्म अनेक।।

(१५) र्मूिच्छत मनुष्य जिस तरह चेतना में आकर वस्तू ढूंंढे।
फिर शांत हृदय होकर स्वरूप में स्थित होकर के बैठे।।
वैसे ही काल अनादी से भूला जो चेतन आत्मा को।
उसका ही आश्रय कर क्रमश: धारण करता है समता को।।

(१६) जिस समय चित्त में इच्छाएँ जन्में उस क्षण ही त्याग करो।
क्योंकी इच्छा से रागद्वेष आदिक उपाधि आत्मा में हो।।
जब तक उपाधि है आत्मा को तब तक स्वरूप की प्राप्ति न हो।
इसलिए ज्ञान दर्शन से पूर्ण चैतन्य तत्व को प्राप्त करो।।

(१७) पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन के और स्वासोच्छ्वास संकुचन से।
आत्मा का जो निर्मल स्वरूप शोभित होता है खिल करके।।
ऐसा वह निश्चल आत्मतत्व भवरूपी वन को भस्म करे।
जैसे जंगल में लगी अगनि सारे ही वन को भस्म करे।।

(१८) मैं सभी कर्म से रहित मुक्त अथवा कर्मों से सहित हूँ मैं।
यह भी विकल्प है और संयमी इस विकल्प को तजते हैं।।
जब तक विकल्प से रहता है तब तक नहिं मुक्ति मिले उसको।
इसलिए मोक्ष अभिलाषी जन आश्रय लें र्नििवकल्प पद को।।

(१९) मैं एक तथा मैं द्वैतरूप दोनों संसार के कारण हैं।
क्योंकी ये कर्मजनित उपाधि से पैदा हुए अकारण हैं।।
इसलिए मोक्ष के अभिलाषी दोनों भावों का त्याग करें।
और र्नििवकल्प पदवी धरकर अपना भवभ्रमण समाप्त करें।।

(२०) जो शुद्धभाव से परमात्मा का ध्यान करे शुभ पद मिलता।
और भाव अशुद्ध धरे जो जन सुर नरकादिक पद वो लभता।।
जैसे सुवर्ण से स्वर्णपात्र लोहे से लोहपात्र बनता।
वैसे ही संसारीजन को शुभ अशुभ भाव का फल मिलता।।

(२१) जो दिव्यज्ञानमय चक्षु से कर्मों को सर्वथा भिन्न समझे।
परमार्थ तत्त्व के ज्ञाता जो योगी दुख को दुख ना समझे।।
सुख दुख को कर्मजनित माने आत्मा में सुख दुख नहिं होता।
यह मात्र कल्पना है जग की वह सच्चा वैरागी होता।।

(२२) जिस तरह सूर्य आवरण रहित पथ में ही गमन किया करता।
उसकी जो किरणप्रभा जग में कोई भी रोक नहीं सकता।।
बस उसी तरह जिस योगी का मन निरालंब पथ गमन करे।
उसको ज्ञानावरणादि रूप नहिं अंधकार भी रोक सके।।

(२३) नाना प्रकार के मेघों से नभ में नहिं कोई विकार बने।
आकाश अर्मूितक है इससे मेघों के सभी विकार कहे।।
बस उसी तरह रुग जरा आदि तन के ही सभी विकार रहे।
आत्मा के कोई विकार नहीं क्योंकी शरीर से भिन्न कहें।।

(२४) जैसे मकान में लगी हुई अग्नी से घर ही जलता है।
पर उसके भीतर रहा हुआ आकाश द्रव्य नहिं जलता है।।
वैसे ही तन की व्याधी से आत्मा का नाश नहीं होता।
बस नशता है शरीर केवल आत्मा सदैव स्थित रहता।।

(२५) जो अखिल उपाधी से विरहित बोधी स्वरूप जो कोई वस्तु।
वह ही मेरी और उससे भिन्न है नहीं मेरी थोड़ी भी वस्तु।।
इस तरह योग का निश्चय ही मुक्ती का कारण कहा गया।
पर इससे भिन्न योग कोई भी मोक्ष हेतु नहिं कहा गया।।

(२६) इस ध्यान योग से ही मनुष्य बंधन को प्राप्त किया करता।
अरु इसी योग से ही मनुष्य मुक्ती को प्राप्त किया करता।।
इस तरह ध्यान का मार्ग विषय पर जो मुमुक्षु अभिलाषी है।
वह गुरुओं की वाणी सुनकर ही ध्यान करे उसमें हित है।।

(२७) जो शुद्ध बोधमय वस्तू है रमणीय है थल वह ही मेरा।
पर जो इसके अतिरिक्त रमे वह केवल कहा प्रमाद तेरा।।
क्योंकी जो मोहकर्म के वश उसको परवस्तू प्रिय लगती।
रमणीय वस्तु है ज्ञानरूप वह ही प्राणी का हित करती।।

(२८) हे भव्यजीव ! यदि तुम अपने पापों का नाश चाहते हो।
तो अद्भुत आत्मज्ञानरूपी तीरथ में तुम स्नान करो।।
जो अंतरंग मल अन्य कोटि तीर्थों में नष्ट नहीं होता।
वह ज्ञानतीर्थ में एक बार ही करने से निश्चित होता।।

(२९) जैसे समुद्र तट पर रहने वालों को रत्न मिला करते।
वैसे ही योगी आत्मा के िंचतन से रत्न प्राप्त करते।।
सम्यग्दर्शन अरु ज्ञान चरण ये तीनों रत्न कहे जग में।
इन तीनों रत्नों से साधू नहिं पाते हैं दुर्गति सच में।।

(३०) जो परमात्मा में निश्चय एवं ज्ञान तथा स्थिती कही।
उसको ही रत्नत्रय कहते निश्चय से आत्मस्वरूप यही।।
केवलज्ञानी भगवान स्वयं अपने स्वरूप को जान रहे।
केवलदर्शन से देख रहे इस हेतु उन्हें हम मान रहे।।

(३१) जिस तरह धनुष के बाणों से वैरी को नष्ट किया जाता।
और कर्मशत्रु को नशने में जो बाण प्रयुक्त किया जाता।
रत्नत्रय रूपी बाण कहे अरु बुद्धी रूपी धनुष कहा।
और शास्त्ररूप प्रत्यंचा से जीते चेतन संग्राम महा।।

(३२) निश्चयनय से मुनि की प्रवृत्ति मन वचन काय से रहित कही।
लेकिन जब वे प्रमाद धरते मन वचन काय से सहित वही।।
क्योंकी प्रमाद के द्वारा ही कर्मों का बंधन होता है।
इसलिए प्रमाद तजो भविजन गुरुओं का कहना होता है।।

(३३) जिन योगी को चर अचर जगत परमाणु सदृश मालुम पड़ता।
ऐसा वह योगी ज्ञानरूप सागर में है समाधि धरता।।
जैसे चंद्रमा उदित होने से सागर वृद्धी प्राप्त करे।
वैसे ही श्रेष्ठ समाधी से योगी का ज्ञान प्रकाश करे।।

(३४) जैसे सूखे तृण के समूह को अग्नि शीघ्र ही भस्म करे।
वैसे ही योगी के मन में जब भेदज्ञान की अग्नि जले।।
उस पर जब परम समाधि रूप वायू से ज्ञान उदय होवे।
तब आत्मा से इक पल में ही सारे ही कर्म जुदे होवें।।

(३५) जिस तरह वनों के कल्पवृक्ष हाथी के द्वारा नष्ट न हों।
उस दुष्ट ज्ञानरूपी अग्नी से योग कल्पतरु भस्म न हो।।
तब यह समाधि उत्तम फल को देने वाली अवश्य होगी।
मन को वश कर आचरण करे अन्यथा मुक्तिफल नहिं देगी।।

(३६) आचार्य प्ररूपण करते हैं विद्वतजन शास्त्र पढ़ें इससे।
जिससे परमात्मज्ञान उनको मिल जावे पर अभिन्न उससे।।
जिस समय चित्त में नहिं होता परमात्मज्ञान से भेद प्राप्त।
तब तक ज्ञानी की बुद्धि रूप नदि दौड़ दौड़ करे शास्त्र प्राप्त।।

(३७) चैतन्य रूप जिस दीपक का स्पर्श पवन ने नहीं किया।
और जिसमें सम्यग्ज्ञान रूप जलता है दैदीप्यमान दीया।।
ऐसा चैतन्यमयी दीपक मोहान्धकार को नाश करे।
फिर वह दीपक सारे जग को भी क्यों ना प्रकाशवान करे।।

(३८) जो बाह्य शास्त्र रूपी वन में विचरण करने वाली बुद्धी।
खोटे विकल्प धारण करने वाली वह बुद्धी है कुबुद्धि।।
जैसे घर से बाहर स्त्री परिभ्रमण से दूषित हो जाती।
इसलिए बुद्धि भ्रमने नहिं दें तब वही सुबुद्धी हो जाती।।

(३९) जो भव्य हेय अरु उपादेय वस्तू का हर क्षण ध्यान करे।
इन दोनों में क्या त्याग योग्य क्या ग्रहण योग्य सुविचार करे।।
उसकी बुद्धी उत्तम गुरु के उपदेश से स्थिर पद पाती।
जो अविनाशी चैतन्यरूप वह मोक्ष परम पद दिलवाती।।

(४०) जब तक यह जीव मोहनिद्रा में मग्न नहीं कुछ दिखता है।
अपने से भिन्न पुत्र स्त्री आदिक को अपना कहता है।।
पर वही जीव जब जाग रहा तब सब क्षणभंगुर लगता है।
गुरु के वचनों को धर करके परवस्तू भिन्न समझता है।।

(४१) आचार्यवर्य अब कहते हैं अब और अधिक कहने से क्या।
हे बुद्धिमान ! गर योग प्राप्त करने की तुमको अभिलाषा।।
तो कर्मों से उत्पन्न सभी नाना उपाधि का त्याग करो।
और साम्यभाव का अवलम्बन लेकर भवभ्रमण समाप्त करो।।

(४२) परमात्म नाम के कथन मात्र से चिरसंचित सब पाप नशें।
फिर उनकी सिद्धी करने से दुर्लभ सारे ही काम बनें।।
इस आत्मा में जो विद्यमान रत्नत्रयरूपी रत्न कहे।
उनसे बन जाता जगतपती ऐसा हमको गुरुजन कहते।।

(४३) जिस योगी का मन चित्स्वरूप मुक्ती के पद में लगा हुआ।
वह योगी नायक योगीश्वर इत्यादि नामयुत कहा गया।।
संसार सुखों से जो विरक्त वह ही है बस सच्चा योगी।
जग के सब जीवों को अपने सम देख रहा वह ही योगी।।

(४४) यह लोक सभी जीवों से घृत के घट समान है भरा हुआ।
उन जीवों को अपने समान जो माने वह ही साधु हुआ।।
पर जो अपने से तुच्छ जीव की रक्षा नहीं किया करता।
उसके नहिं कार्य सिद्ध होते जो स्वपर में भेद किया करता।।

(४५) अपने द्वारा उत्पन्न किए जो विविध रूप के कर्म कहे।
उनसे यह लोक बहुत भावोंयुत इसका यही स्वभाव रहे।।
जिस योगी को यह भलीभाँति आत्मा का ज्ञान हुआ जानो।
जड़वत संसार देख मन में नहिं क्षोभ जरा भी तुम मानो।।

(४६) यह लोक मोहरूपी प्रगाढ़ निद्रा में सोया पड़ा हुआ।
जो काल अनादी बीत गये नहिं ज्ञान उसे है तनिक हुआ।।
इसलिए हमें आचार्य कहें जो हुआ सो हुआ अब जागो।
शास्त्रों का कर स्वाध्याय आत्मसुख को भविजन अब पहिचानो।।

(४७) जिस तरह चन्द्रमा की किरणों से नभ रमणीय दिखा करता।
वैसे ही ‘‘पद्मनंदि मुनि’’ के वचनों में दिखती सुन्दरता।।
उनके यह रम्यवचन जग में चिरकाल तलक जयवंत रहें।
मुखरूपी चंदा से वचनों की किरणें सब नभ में पैâलें।।

(४८) जिनने सब परिग्रह त्याग दिए और जिनके निकट शांति धन है।
त्रयगुप्ती से जो शोभित है शुद्धात्म प्राप्ति आतम में है।।
नहि अंशमात्र भी इच्छा है वह है निर्मल बुद्धी का धारी।
उसे मुक्ति शीघ्र ही मिल जाती यदि विघ्न न हरे मोह बैरी।।

(४९) यह आत्मतत्त्व सब तरह की अभिलाषा भय भ्रम दुख दूर करे।
अत्यन्त अद्भुत चैतन्य तत्व परमेश्वर द्वारा कहे गये।।
यदि मेरे मन में स्थित है तो तीनों जग के कोई देव।
जिससे मुझको भय होवे वह कोई सर्प हो नर हो या कुदेव।।

(५०) ‘‘सद्बोधचंद्रोदय अधीकार’’ है श्रेष्ठ ज्ञानरूपी चंदा।
योगी के तत्वज्ञान से जब आत्मा में रहे नहिं कुछ तृष्णा।।
सागर की लहरें जब बढ़तीं उदयाचल में उगता चंदा।
तृष्णा मन कमल संकुचित कर वैâरवकुल करे विकास उनका।।

।।इति सद्बोध चंद्रोदय अधिकार।।

ग्यारहवाँ अधिकार

(१) जैसे हीरे के मध्य भाग में जल प्रवेश नहिं कर सकता।
बाहरी भाग में रह जाता चेतन का भी स्वरूप वैसा।।
जैसे कवियों की वाणी भी बाहरी भाग में रह जाती।
चैतन्य तेज अति दुर्लभ है उसमें प्रवेश निंह कर पाती।।

(२) चैतन्य तेज का सब प्राणी मन से चिंतवन न कर सकते।
जो तन से है सर्वथा भिन्न वचनों से भी नहिं कह सकते।।
है मात्र स्वानुभवगम्य तेज हम सबकी रक्षा सदा करे।
इसको योगी ही पा सकते हम सबसे यह है बहुत परे।।

(३) धन धान्य शरीरादिक पदार्थ में जब तक मोह लगा रहता।
तब तक प्राणी चैतन्य तेज का अनुभव कभी न कर सकता।।
लेकिन जिस समय शरीरादिक से मोह ममत्व छूट जाता।
उत्कृष्ट तेज का अनुभव कर सुखसागर में गोता खाता।।

(४) जिस अंधकार को सूर्य चंद्र आदिक भी नष्ट न कर सकते।
ऐसे मोहान्धकार को झट गुरुओं के वचन नष्ट करते।।
इस लोक में ऐसे उत्तम गुरु को नमस्कार मैं करता हूँ।
गुरुओं के जगद्गुरू को मैं अपने मस्तक पर धरता हूँं।।

(५) जो जीवों को है जरा मरण का दुख होता वह दुख ही है।
पर विषयों में जो सुख माने वह भी सचमुच में दुख ही है।
क्योंकी सच्चा सुख मोक्ष में है वह मोक्ष बहुत दुख से मिलता।
सुखिया जीवन से मोक्ष न हो तप करने से ही सुख मिलता।।

(६) चिरकाल से जिनको सुना और जाना जिनको अनुभवन किया।
ऐसी समस्त विकथा आदिक सब सुलभ रीति से प्राप्त किया।।
पर मुक्ति के हेतू शुद्ध आत्मज्योती का मिलना दुर्लभ है।
क्योंकी न इसे जाना समझा इसलिए प्रयत्न करो सब है।।

(७) आत्मा तो है अत्यन्त गहन उसका वर्णन नहिं कर सकते।
क्योंकी जिसका है ज्ञान नहीं उसको कैसे हम कह सकते।।
फिर अनुभव भी कैसे होगा जिसका वर्णन और ज्ञान नहीं।
इसलिए आत्मा का बोध और वर्णन अनुभव सब दुर्लभ ही।।

(८) आत्मा है एक अखण्ड वस्तु इसके नहिं कोई भेद कहे।
अज्ञानीजन को समझाने में नय व्यवहार प्रयोग करें।।
निश्चयनय कर्मों को नशता इसलिए मुक्ति में कारण है।
उस निश्चयनय को कहने में मुक्ती की इच्छा कारण है।।

(९) जो वस्तू जैसी है वैसी उसको ना माने अभूतार्थ।
व्यवहार नयाश्रित जीव कभी नहिं कर सकते हैं मोक्ष प्राप्त।।
निश्चयनय से जो भी पदार्थ जैसा है वैसा ही माने।
सत्यार्थभूत निश्चयनय से मुनि मोक्ष परम पदवी पावें।।

(१०) निश्चयनय से जो तत्व कहे वचनों से न उनको कह सकते।
व्यवहारनयापेक्षा वचनों से उनका वर्णन कर सकते।।
गुणपर्यायादिक विवरण से उनकी पर्यायें बहुत कहीं।
जिस तरह वृक्ष है एक मगर उसकी शाखाएं बहुत कहांr।।

(११) व्यवहार से ही निश्चयनय है इसलिए उसे भी पूज्य कहा।
क्योंकी कुछ भी समझाने में होता व्यवहार प्रयुक्त वहाँ।।
नहिं जनम से होते हैं कोई, सब बुद्धिमान जग में प्राणी।
उपदेशादिक बल के द्वारा समझाता है उसको ज्ञानी।।

(१२) आत्मा में निश्चय बोध और स्थितीरूप रत्नत्रय है।
संसार नाश में हेतु कहे निंह इससे पृथक और कुछ है।।
जिन भव्य जीव की बुद्धी इस भूतार्थ मार्ग में स्थित है।
उन भवि जीवों की आत्मा ही रत्नत्रय स्वरूप में चित है।।

(१३) परमात्मा के आराधक को रत्नत्रय प्राप्त स्वत: होते।
ये आत्मा के ही अखंड रूप आत्मा से भिन्न नहीं होते।।
इस रत्नत्रय की प्राप्ती से कृतकृत्य सभी हो जाते हैं।
करने को रहा न कुछ बाकी तब वे ही आप्त कहाते हैं।।

(१४) जैसे अग्नी में उष्णपना आत्मा में ज्ञान स्वभावी है।
ऐसी जो दृढ़प्रतीति रखते वे ही तो सम्यग्दृष्टी हैं।।
और आत्मा का जो ज्ञान वही तो सम्यग्ज्ञान कहाता है।
इन दोनों की जो आत्मा में स्थिति चारित्र कहाता है।।

(१५) जैसे कोई अभ्यास करे बाणों से लगा निशाने को।
पर सफल तभी समझा जाता वह बाण छेद दे बैरी को।।
बस उसी तरह शुद्धात्म रूप संग्राम में सफल वही होता।
जो दर्शन आदिक बाणों से कर्मारी को परास्त करता।।

(१६) पंचेन्द्रिय हिंसा का त्यागी वन में रह रहा अकेला हो।
तरु के समान स्थिर रहकर उपसर्ग सहे अलबेला हो।।
पर जब तक सम्यग्ज्ञान नहीं वह सिद्ध नहीं बन सकता है।
इसलिए सिद्धपद के इच्छुक को केवलज्ञान भी तजता है।।

(१७) जो पुरुष शुद्ध निश्चयनय में अवलम्बन करने वाला है।
वह जल में पड़े कमल दल सम जल से अस्पृष्ट निराला है।।
जो आत्मा को अस्पृष्ट अबद्ध कर्मों से भिन्न देखता है।
अविशेषी आत्मा है ऐसा निश्चय से सही देखता है।।
।।दृष्टांत समयसार कलश का।।

स्वपर भेद विज्ञान से सिद्ध हुए जो जीव।
स्वपर भेद विज्ञान बिन बंधे हुए कुछ जीव।।१।।

(१८) जैसे सुवर्ण से स्वर्णपात्र लोहे से लोहपात्र बनता।
पर दोनों में जो कारण है बस उसी प्रकार कार्य होता।।
बस इसी तरह शुद्धात्मा का जो ध्यान शुद्ध आत्मा लभता।
और अशुभ ध्यान से मनुजों को आत्मा अशुद्ध ही है मिलता।।

(१९) जब तक नहिं सूर्य उदित होता रात्री का अंधकार रहता।
बस उसी तरह इस आत्मा को तब तक संसार भ्रमण रहता।।
जब तक रत्नत्रय प्राप्ति न हो संसार भ्रमण नहिं रुकता है।
जिस समय शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ती हो अजन्मा बनता है।।

(२०) इस आत्मभूमि में कर्म बीज से चित्त तरू में फल लगते।
संसार रूप फल से जो जन छुटने की इच्छा हैं रखते।।
इसलिए मुमुक्षू को चहिए इस भेदज्ञान की अग्नि से।
उस चित्त तरू को भस्म करे आचार्य कहें सब भविजन से।।

(२१) जिस तरह फिटकरी के द्वारा गंदा जल साफ किया जाता।
वैसे ही भेदज्ञान से इस आत्मा से कर्म नशा जाता।।
यद्यपि ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा को मलिन कर रहे हैं।
जिनको है स्व-पर भेदज्ञान वे इनसे बिल्कुल भी नहिं डरते हैं।।

(२२) इस जग में सबसे ज्यादा प्रिय अपना ही सुत समझा जाता।
फिर जब वे ही दुख देते हैं तो वैरी से कैसा है नाता।।
बस उसी तरह जग में सबसे ज्यादा प्रिय है अपना शरीर।
जब वह ही दुख देने वाला तो बाह्य वस्तु से क्यों अधीर।।

(२३) व्याधी शरीर को नशती है आत्मा को नष्ट नहीं करती।
आकाश द्रव्य निंह जलता है बाहर की कुटिया है जलती।।
इसलिए रोग के आने पर ज्ञानी ना कभी विषाद करें।
आत्मा तो अर्मूितक है उसका रोगादिक नहीं बिगाड़ करें।।

(२४) मैं निर्मल ज्ञानस्वरूपी हूँ बस क्षुधा तृषा आदिक दुख है।
निश्चयनय से न शरीर मेरा ये सब शरीर के ही दुख हैं।।
यदि कर्म असाता के कारण जो दुख शरीर में होते हैं।
उन सब बाधा से रहित हूँ मैं सब तन के आश्रित होते हैं।।

(२५) आत्मा स्वभाव से नहिं क्रोधी नहिं मानी आदिक होता है।
कर्मों के बंधन से आत्मा क्रोधी मानी हो जाता है।
जैसे सफेद स्फटिक मणी के निकट रखा हो लाल पुष्प।
तो लाल रंग की दिखती है वरना स्वभाव से श्वेत शुद्ध।।

(२६) जिस तरह मलिन मुख के संयोग से दर्पण नहीं मलिन होता।
वैसे ही कर्मों के विकल्प से आत्मा नहीं विकल होता।।
वह दर्पण के समान सुन्दर और स्वच्छ बना ही रहता है।
मेरी आत्मा है शुद्ध रूप कोई विकार नहिं रहता है।।

(२७) स्त्री पुत्रादिक बाह्य वस्तु ये सब तो मुझसे भिन्न सही।
क्योंकि जब मेरी प्रिय वस्तू मेरा तन वचन विकल्प नहीं।।
कर्मों के द्वारा करी गई सारी उपाधियों से विरहित।
कुछ भी निंह मेरा है जग में मैं हूँ विशुद्ध अरु कर्म रहित।।

(२८) कर्मों से जनित सुक्ख दुख में मोही अति हर्ष विषाद करे।
जो ज्ञानी पुरुष कर्म अरु उनके कार्य को अपना नहिं माने।।
ये कर्म और उनसे सुख दुख जड़ वस्तु सभी कहलाती है।
मैं चेतन हूँ सर्वथा भिन्न मुझसे सब वस्तु कहाती है।।

(२९) जब तक कर्मों के सुख दुख को अपना मानेगा ये प्राणी।
तब तक वह सुखी नहीं होगा जग में भटकेगा वो प्राणी।।
लेकिन कर्मों के कार्यों को जो अपना नहीं मानते हैं।
तब वही मुमुक्षू जन सब जग में परम सुखी हो जाते हैं।।

(३०) कर्मों के द्वारा राग द्वेष सुख दुख आदिक जो कार्य कहे।
कर्मों के द्वारा कत्र्ता है आत्मा से कत्र्ता नहीं कहे।।
मेरी आत्मा अत्यन्त शुद्ध और निर्मल ज्ञान का धारी है।
अरु सभी उपाधी से विरहित कर्मों की कही उपाधी हैं।।

(३१) जो मनुज धतूरा खा लेता उसको पत्थर सोना दिखता
वैसे ही जो मनुष्य मोही हित अहित का ज्ञान नहीं रहता।।
उसको धन धान्य पुत्र स्त्री सब जड़ पदार्थ अपने दिखते।
निश्चय से बाह्य विकृती है आत्मा का नहिं संबंध इनसे।।

(३२) निश्चयनय से मैं एक तथा सब चिंताओं से रहित हूँ मैं।
ऐसा मुमुक्षु चिंतन करते चिंता के दुख से रहित हूँ मैं।।
चिंता से कर्म बंध होते कर्मों से जन्म मरण होता।
ये चिंता दूजी वस्तु की है पर की चिंता से दुख होता।।

(३३) जैसी जैसी चिंता होती सब कर्मबंध करने वाली।
मुझको चिंता से मतलब क्या मैं मुक्तिमार्ग का अभिलाषी।।
मैं तो हूँ सदा एक मुझको नहिं पर से कोई प्रयोजन है।
दोनों ही चिंता से होता प्राणी को सदा भव भ्रमण है।।

(३४) यदि मन परद्रव्य नहीं होता तो कर्म विकार नहीं करते।
पर मन तो है सर्वथा भिन्न ज्ञानादिक गुण विनष्ट करते।।
उन दोनों को कैसे अपना मानूँ मैं तो विकार विरहित।
मैं निर्मलज्ञान का धारी हूँ मेरी आत्मा सब कर्म रहित।।

(३५) सब चिंता है त्यागने योग्य जब ऐसी बुद्धी होती है।
उस बुद्धि से हो तत्व प्रगट चैतन्य की वृद्धी होती है।।
जैसे चंद्रमा उदित होने से सागर वृद्धि को प्राप्त करे।
वैसे ही तत्त्वज्ञान से ही आत्मा वृद्धी को प्राप्त करे।।

(३६) जो आत्मा कर्म विकारों से र्नििलप्त वही चैतन्य हूँ मैं।
उसके नहिं जन्म मरण होते इसलिए सदा निश्चित हूँ मैं।।

(३७) रे आत्मा यदि तू बंधा हुआ तो इसमें कृपा कर्म की है।
यदि मन को तू वश में कर ले संदेह नहीं छूटा ही है।।

(३८) जग का दुख बड़ा क्षुधा दुख है हे पथिक ग्रहण कर अमृत फल।
जिससे यह भूख शांत होती रे मन तू व्यर्थ विषाद न कर।।
मानवरूपी तरु के नीचे जो विषयभोग सुख की छाया।
तू क्यों संतुष्ट हुआ बैठा जग दुखों का घर कहलाया।।

(३९) सब दोषरहित मुनियों का चित र्नििवकल्प मार्ग में गमन करे।
उस समय सभी अज्ञानादिक अंधियारा मन का दूर करें।
जैसे सूरज जब गमन करे बादल समूह नहिं ढके उसे।
तब अंधकार नश जाता है राहू भी जब नहिं ग्रसे उसे।।

(४०) इस कर्म मोम को तनरूपी मूसा के भीतर भर देवें।
नीचे से सम्यग्ज्ञान रूप अग्नी से उसे तपा देवे।।
तब कर्म सभी जल जायेंगे बस आत्मा ही रह जायेगा।
उस आत्मा को ध्याके योगी सिद्धात्मा पद को पायेगा।।

(४१) मैं ही चैतन्य स्वरूप तथा मेरे चित्रूप का आश्रय मैं।
निंह उनसे भिन्न स्वरूप मेरा और निंह आश्रय हैं मेरे वे।।
क्योंकी वे जड़ हैं उसमें मेरी प्रीति कभी नहिं हो सकती।
चैतन्य में की हुई प्रीति ही मुझको सच्चा सुख दे सकती।।

(४२) जिस समय आत्मा में स्व पर का भेदज्ञान हो जाता है।
जो त्याग योग्य है त्याग करे तब आत्मरूप को पाता है।।
उस क्षण स्वाभाविक ज्ञानरूप में ही चैतन्य ठहर जाता।
और स्वयंबुद्ध होकर आत्मा सिद्धालय में जाकर बसता।।
।।इसी श्लोक का समयसार के श्लोक द्वारा वर्णन।।

(४३) चेतन आत्मा और जड़ शरीर उनके विभाग को करने से।
आत्मा का ज्ञान स्वभाव तथा रागादिभाव होते तन के।।
इसको जो भलीभाँति जाने उनके ही भेदज्ञान होता।
और वही भव्य आत्मा को लख पर से संबंध रहित होता।।

(४४) पर तत्त्व हेय है अरु चैतन्यस्वरूप स्वतत्त्व है उपादेय।
इस स्व पर विवेक भावना से जो रहित कहा है वही ज्ञेय।।
क्योंकी जिस समय शुद्ध निश्चय नय का आश्रयण किया जाता।
उस ही निकलंक अवस्था में कोई विकल्प नहिं रह जाता।।

(४५) यद्यपि शास्त्रों में परम शुद्ध आत्मा का वर्णन किया गया।
और उस परमात्म तत्व को भी मन से भी स्वीकृत किया गया।।
फिर भी मन होता सवीकल्प निंह भलीभाँति कुछ जान सके।
आत्मा होती है र्नििवकल्प इसलिए नहीं पहचान सके।।

(४६) मैं हूँ बस एक अकेला ऐसी बुद्धी ही अद्वैत कही।
कर्मों से सहित हूँ जो बुद्धी वह बुद्धि कही है द्वैत बुद्धि।।
इन दोनों में अद्वैत बुद्धि मुक्ती का कारण कही गयी।
और द्वैत बुद्धि भव की कारण आचार्यों द्वारा कही गयी।।

(४७) मैं बंधा हुआ हूँ तथा मुक्त ऐसा निश्चय से द्वैत कहा।
ऐसा जो जीव मुक्त होना चाहे निंह करे विकल्प कहा।।
जिस समय द्वैत अद्वैत भाव का पूर्ण त्याग हो जाता है।
उस समय मुक्ति मिल जाती है और सिद्ध अवस्था पाता है।।

(४८) जो भूत भविष्यत के विकल्प से भाया हुआ रहित चित है।
उन भावों से चैतन्यात्मा का चित परमानंदाकर है।।

(४८) जो जीव आत्मा को कर्मों से बंधा हुआ है देख रहा।
वह बंधा हुआ ही रहता है अरु जो जन मुक्त हैं देख रहा।।
वह मुक्त आत्मा होती है जैसे जब पथिक गमन करता।
जिस पुर को वो जाना चाहे वह ही गंतव्य उसे मिलता।।

(४९) हे मन ! तू भीतर अरु बाहर मत गमन करो ऐसा कहते।
समातरूपी जो अमृत है आनंद बड़ा है पीने में।।
जिस तरह बने बस उसी तरह सारे विकल्प को तू तज दे।
जिससे सारे विकार भागे मन को तू नहीं भटकने दे।।

(५०) इस शास्त्र भूमि में बुद्धि नदी दौड़ती हुई वापस आती।
उस समय बुद्धि नदि झट अपने चैतन्यरूप को पा जाती।।
शास्त्रों में बुद्धि लगी जब तक आत्मा को प्राप्त नहीं करती।
जब शास्त्र से व्यावृत हो जाती चैतन्य स्वरूप प्राप्त करती।।

(५१) जो आत्मा तीनों कालों में अरु तीन जगत में व्याप रहा।
एवं जो वाणी आत्मा के वर्णन में है असमर्थ सदा।।
चैतन्य तेज को नमन मेरा जिससे मैं भी उसको पाऊँ।
इसको अपने में अनुभव कर निज आत्मा में ही रम जाऊँ।।

(५२) चैतन्य रूप को नमन करो जिसकी प्राप्ती के होने पर।
मन के सारे विकल्प नशते ध्यानरूपी अग्नि से जलने पर।।
जैसे वनाग्नि से वृक्ष सभी जल जाते हैं वैसे आत्मा।
सारे कर्मों के नशने से बन जाती है वह परमात्मा।।

(५३) चैतन्य रूप आत्मा कर्मों से बंधा हुआ और रहित भी है।
यह नय विचार की विधी कही निश्चय से नय से रहित भी है।।
उस समयसार शुद्धात्मा की प्राप्ती तब ही हो सकती है।
जब पक्षपात से रहित शुद्ध आत्मा दोनों नय तजती है।।
।।नाटक समयसार में भी कहा है।।

(५४) व्यवहार से आत्मा बंधा हुआ निश्चयनय से मुक्तात्मा है।
इस तरह द्विविध जो पक्षपात इनसे विरहित जो आत्मा है।।
वह तत्त्वों का सच्चा ज्ञाता और नय के पक्षों से विरहित।
उसका चैतन्य ही निश्चय से चैतन्य कहा है विकल्प रहित।।

(५५) परमार्थ परम आत्मा की सेवा कर परिपूर्ण ज्ञान मिलता।
वह केवलज्ञान कहा जाता उत्कृष्ट अवस्था दिलवाता।।
इससे उत्कृष्ट न वस्तु कही वह समयसार कहलाता।
आत्मा का सार समझने से परमात्म तत्त्व मिल जाता है।

(५६) ना तो मुझमें द्रव्र्यािथक अरु पर्यार्यािथक नय का विकल्प।
और नहिं प्रत्यक्ष परोक्ष रूप है प्रमाण अरु नय का विकल्प।।
नाम स्थापना द्रव्य भाव निक्षेप भी नहीं हैं मुझमें।
मैं परमशांत उत्कृष्ट और अनुभवगोचर चैतन्य हूँ मैं।।
।।समयसार में भी कहा है।।

(५७) चैतन्य तेज के अनुभव से नय भी न उदय को प्राप्त करे।
दोनों प्रमाण हैं अस्त हुए निक्षेप न जाने कहाँ चले।।
अब और अधिक क्या कहे द्वैत भी नहीं दिखाई पड़ता है।
सब विषयों को कसने वाला चैतन्य दिखाई पड़ता है।।

(५८) जिस आत्मतत्त्व के तेज से ही सारी वस्तू जानी जाती।
और आत्मतेज के दर्शन से सारी वस्तू देखी जाती।।
क्योंकी जो ज्ञेय पदार्थ कहे उनमें दर्शन और ज्ञान कहा।
वे आत्मरूप ही है आत्मा से भिन्न न कोई स्वरूप कहा।।

(५९) अत्यन्त मनोहर किसी वस्तु में प्रीति अधिक हो जाती है।
जब तक मनुष्य परमात्मा को नहिं देखे तब तक रहती है।।
लेकिन जिस क्षण में आत्मा का चैतन्यरूप दर्शन होता।
उस ही क्षण बाह्य पदार्थों से प्रीति का समापन हो जाता।।

(६०) यद्यपि कर्मों का सभी प्राणियों से संबंध समान कहा।
फिर भी ज्ञानी की आत्मा में रहते न रहे संबंध कहा।।
जैसे नदि का प्रवाह सब प्राणी हेतु इक सम भय वाला।
फिर भी जो चतुर तैरने में उनको नहिं भय करने वाला।।

(६१) कोई मनुष्य रोहण पर्वत पर रत्न ढूंढने को जाए।
और मिलने पर यह ग्रहण योग्य अथवा छोड़े विचार आए।।
वैसे ही जिसे वास्तविक तत्व की प्राप्ति भाग्यवश हो जाए।
तब छोड़े या फिर ग्रहण करे ऐसे विचार मन में लाए।।

(६२) ज्ञानावरणादिक कर्मों से संयुक्त मेरी आत्मा तो भी।
गुरुवर की कृपादृष्टि से मैं बंधन से रहित जुदा हूँ भी।।
यद्यपि मैं बहुत दरिद्री हूँ गुरु के प्रसाद से लक्ष्मिवान।
तप से मैं दुखी तथा फिर भी गुरुचरण कृपा से सौख्यवान।।

(६३) जो कुछ मैं कार्य कर रहा हूँ वह सब कर्मों की लीला है।
नहिं ज्ञान से कोई कार्य करूँ जैसे नट द्वारा खेला है।
नट द्वारा खींचा हुआ सूत्र पुतली को नाच नचाता है।
वैसे आत्मा कर्मों के संग प्राणी को नाच नचाता है।।

(६४) श्री ‘‘पद्मनंदि आचार्य’’ कहें मैंने बस भक्ती प्रगट करी।
वस्तू के गुण ने मुझको आश्रित कर शब्दों की रचना की।।
कई एक शब्द मिलकर ‘‘निश्चय पञ्चाशत’’ रचना पूर्ण हुई।
नहिं इसमें मेरा कोई स्वार्थ गुरुओं की भक्ती कारण ही।।

(६५) सब इच्छाओं से रहित एक चैतन्यरूप मन में यदि है।
तो राजलक्ष्मि तृण के समान आगे क्या कहे लाभ नहिं है।।
इंद्रादि संपदाएं भी मेरे लिए काम की चीज नहीं।
बस इक चैतन्य आत्मा ही सबसे उत्तम है चीज कही।।

।।इति अनित्य पञ्चाशत अधिकार।।

 

बारहवाँ अधिकार

ब्रह्मचर्यरक्षावर्ती

(६५८) जिन राजाओं की भौं टेढ़ी होने से शत्रू वश होते।
उन राजाओं को कामदेव भी अपने वश में कर लेते।।
उन कामदेव रूपी योद्धा को बिना शस्त्र के जो जीते।
ऐसे शांतात्मा मुनियों को मेरा शत बार नमन होवे।।१।।

(६५९) जो निज शरीर से निरासक्त मुनि की जो ज्ञानरूप आत्मा।
वह अंतरंग ब्रह्मचर्य कहा जो मुनि के मन की तन्मयता।।
वृद्धा स्त्री को माता सम माने और उम्र समान बहिन।
जो छोटी हो पुत्री सदृश ऐसे होते ब्रह्मचारीगण।।२।।

(६६०) यदि रात्री में सपने में भी मुनि के कोई अतिचार लगे।
तो रात्री का विभाग करके शास्त्रानुसार प्रायश्चित्त ले।।
यदि जागी हुई अवस्था में रागादि व खोटे आश्रय से।
कर्मों के वश अतिचार लगे तो भारी संशोधन करते।।३।।

(६६१) भोजन कर ब्रह्मचर्य विनशे नहिं भोजन से यह व्रत पलता।
ऐसी नहिं बात जिनागम में, दृढ़ मन से संयम है पलता।।
बलवान सिंह मांसादिक खा रति वर्ष में एक बार करता।
कापोत पक्षि पत्थर खाता पर रति दिन रात किया करता।।४।।

(६६२) ज्ञानी मुनिगण जो यथाशक्ति पालते मूल उत्तर गुण हैं।
वह बाह्यरूप मन का संयम और उससे जनित आनंद गुण हैं।।
उस आनंद से चैतन्य तथा मन के समरसी भाव से जो।
मन का जो संयम होता है अंतरमन का संयम है वो।।५।।

(६६३) जिस तरह मनुष मदिरा पीकर चित में भ्रांती को धरता है।
वैसे ही स्त्री भी मनुष्य का चित्त भ्रांत कर देती है।।
अतएव स्त्रियों की संगति से व्रत की संभावना नहीं।
जो तपोभूमि को प्राप्त हुए उनको स्त्री का त्याग सही।।६।।

(६६४) स्त्री मुक्ती का द्वार रोकने हेतु अर्गला कही गयी।
संसार वृक्ष को िंसचित करने में नाली सम कही गयी।।
यह नरमृग के बंधन हेतू है मोह व्याध का जाल कहा।
जग में क्या-क्या नहिं कर सकती सज्जन मुनि का मन नष्ट किया।।७।।

(६६५) जब तक यति प्रीती से सुन्दर स्त्री को नहीं देखता है।
तब तक उसकी यशवृद्धि तथा गुण निष्कलंक भी रहता है।।
तब तक ही उसका मन पवित्र और निर्मल तप भी रहता है।
उसकी ही धर्मकथा शोभित दर्शन के योग्य यति रहता है।।८।।

(६६६) जिस स्त्री का स्मरण मात्र आत्मा का तेज नाश करता।
और सभी व्रतों का नाश करे मुक्ती का मारग च्युत करता।।
उसका सानिध्य विलोचन वचनालाप और स्पर्श आदि।
नाना संक्लेशों को करके क्या-क्या अनर्थ करता है यती।।९।।

(६६७) यदि मुनि वेश्यालोलुपी बने तो धनाभाव से नहिं मिलती।
जो स्त्री पहले त्याग चुके यति बनने से वह नहिं मिलती।।
और अगर पराई स्त्री में रति करे दण्ड नृप से मिलता।
इसलिए नारि का त्याग करो दोनों जन्मों में दुख मिलता।।१०।।

(६६८) स्त्री से ही घर बनता है स्त्री से सहित गृहस्थ कहा।
जो स्त्री त्यागी यती बना वह ब्रह्मचर्य पालन करता।।
यदि ब्रह्मचर्य में कहीं दोष आ जाए तो ना यती रहे।
इसलिए अगर नहिं पाल सके तो श्रावक ही बस बने रहें।।११।।

(६६९) यदि रूप से गर्वित सुन्दरियों को दो दिन भोजन नहीं मिले।
तो उनका अति सुन्दर शरीर मुर्दे समान दिखलाई पड़े।।
इसलिए मुने ! उनके कुंकुम काजल की रचना मत देखो।
लावण्य रूप का अति चंचल स्त्री से कभी न मोह करो।।१२।।

(६७०) जब तक शरीर जीवित रहता तब तक ही लगे मनोहर है।
जब मृत बन जाता है शरीर तब लगता बड़ा भयंकर है।।
‘केले के तंभ, कमल तंतू, चन्द्रमा, कमल बेकार रहे।
ऐसी स्त्री को मरण बाद क्षण भर भी नहिं स्वीकार करे।।१३।।

(६७१) यद्यपि स्त्री का तन उत्तम यौवन लावण्य सहित होता।
उस पर आभूषण से शोभित वह मूढ़ पुरुष को ही रुचता।।
सज्जन को नहीं हर्ष होता वैसे ही राजहंस होते।
जो कौए है शमशान भूमि में मुर्दे खाकर खुश होते।।१४।।

(६७२) यदि कोई चीज पवित्र और सुन्दर होती तो राग करो।
स्त्री के बाल जुआं का घर मुख और कपाल चाम्र का हो।।
दो नेत्र छिद्र स्तन मांसिंपड हड्डी से बनी भुजाएँ हैं।
मलमूत्र पिटारा जघन पेट इनमें वैâसे सुख पाएं हैं।।१५।।

(६७३) जो कार्य अकार्य विचारशून्य मन जिसका उसे कहें क्या हम।
स्त्री के मुख की लार पिये रागी का होता अंधापन।।
मुख और कपाल चाम्र वेष्टित कवि उपमा देते चंदा की।
उन कवियों को है कुकवि कहा नहिं होतीं योग्य प्रशंसा की।।१६।।

(६७४) रागांध व्यक्ति कामी होकर क्या-क्या अनुचित नहिं कार्य करे।
ऐसे में कविगण और अधिक शृंगार आदि रस पाठ करे।।
क्योंकी उनको नहिं रंचमात्र परमार्थ तत्व का ज्ञान सही।
इसलिए काव्य रचना उनकी मानव मन को भ्रमता सच ही।।१७।।

(६७५) धन स्त्री का परिग्रह जिनके व्यापार आदि में भी रत है।
ऐसा गृहस्थ भी यदि परधन परस्त्री से विरक्त भी है।।
तो भी वह देव कहा जाता फिर मुनियों का तो कहना क्या।
नहिं स्त्री और नहीं है धन रत्नत्रयधारी देव महा।।१८।।

(६७६) कामिनी आदि के बिना दुक्ख यह समझ उन्हें स्वीकार करे।
पर स्त्री आदिक का जो सुख वह पराधीन दुख मान रहे।।
इसलिए अंत में विरस तथा थोड़ा जो विषयजन्य सुख है।
उसको तज तत्वज्ञानियों का उपमा से रहित आत्मसुख है।।१९।।

(६७७) यद्यपि संसार में वे मनुष्य भी धन्य और पुण्यात्मा हैं।
जो यौवन से शोभित स्त्री के दिल में रहने वाला है।।
पर उनसे भी है धन्य यती स्त्री को पास न आने दे।
तन से आत्मा को पृथक््â समझ मन में विकार नहिं आने दे।।२०।।

(६७८) जिस नरभव में हैं दुख बहुत आयू भी थोड़ी कही गयी।
और ज्ञान भी होता थोड़ा है अरु अंत समय का पता नहीं।।
बुद्धी भी भ्रष्ट बुढ़ापे में पर तप प्राप्ती नरभव से है।
इसलिए करो निर्मल तप को मिलता साक्षात मोक्षसुख है।।२१।।

(६७९) जिस तरह नेत्र रोगी उत्तम वैद्यों से बनी सलाई का।
सेवन करते हैं वैसे ही अधिकार कहा है भलाई का।।
‘‘श्री पद्मनंदि मुनि’’ वैद्य हुए बाइस श्लोक वचन जल से।
इस कामरोग को शमन करें ब्रह्मचर्य सदा धारें मन में।।२२।।

।।इति ब्रह्मचर्य रक्षावर्ति अधिकार।।

तेरहवाँ अधिकार

ऋषभ जिनेन्द्र स्तोत्र

(६८०) श्री नाभिराय सुत तीनों लोकों के घर के दीपक समान।
और धर्मतीर्थ की प्रवृति करी ऐसे श्री ऋषभदेव भगवान।।
जयवंत रहें इस लोक में वे निर्मल गुण रत्न खजाने हैं।
ऐसे हे नाथ ! कृपा करिए चरणों में नमन तुम्हारे हैं।।१।।

(६८१) र असुरों के मुकुटों की मणियों की किरणों से जो चित्रित।
ऐसा िंसहासन है जिनका, ऐसे उन नाथ की जो स्तुति।।
करते हैं तथा देखते हैं जप ध्यान आपका करते हैं।
वे धन्यवाद के पात्र कहे विरले ही जग में होते हैं।।२।।

श्लोक का तात्पर्य

(६८२) जो नर अर्हंत देव आदिक की पुष्प से पूजा करता है।
परभव में मंद हास्य से युत देवांगना से पूजित होता है।।
जो एक बार दर्शन करता तीनों जग में पूजा जाता।
और ध्यान करे जो एक बार सब कर्मों से वह छुट जाता।।३।।

(६८३) इन चर्मचक्षुओं से प्रभुवर जो दर्श आपका होता है।
उसकी सीमा है थोड़ी सी पर हर्ष बहुत ही होता है।।
फिर ज्ञाननेत्र से हे जिनेन्द्र ! जब सर्व रूप दिख जाता है।
उस हर्ष की सीमा है अपार त्रय जग में नहीं समाता है।।४।।

(६८४) हे जिनवर ! तुमने सभी वस्तु विस्तार सहित है जान लिया।
उस अनंत ज्ञान का है जिसने भी सचमुच ही गुणगान किया।।
वह ऐसा मालुम पड़ता है कूप स्थित मेढ़क सागर का।
गुणगान कर रहा अरु समझे बस कुएं को ही सागर जैसा।।५।।

(६८५) हे प्रभो ! आपके गुण कीर्तन में ही तो इतनी शक्ती है।
जिससे हम जैसे मानव से आदेश मांगती लक्ष्मी है।।
फिर जो मनुष्य साक्षात् आपको प्राप्त करे फिर कहना क्या।
उसको मिलती अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी विस्मय क्या।।६।।

(६८६) हे जिनवर ! ऐसा लगता है जब आप स्वर्ग तजकर आये।
सर्वार्थसिद्धि की शोभा भी बिन प्रभो आपके नश जाये।।
और इस पृथ्वीतल की आज्ञा तेरे आने से बढ़ जाती।
ये महिमा केवल तेरी है यह धरा स्वर्ग सी बन जाती।।७।।

(६८७) इस पृथ्वी का वसुमती नाम बस पड़ा आपके ही कारण।
क्योंकी महाराज नाभिगृह में इंद्रों ने बरषाया था धन।।
पन्द्रह महिनों तक रत्नों की वर्षा से प्रजा धनाढ़य हुई।
तुम सा सुत पाकर ये पृथ्वी वसुमति से जगविख्यात हुई।।८।।

(६८८) शचि ने जिस पद में नमन किया उन माँ का पद सबसे ऊँचा।
जिस गर्भ में वास किया तुमने मरुदेवी का आंगन सींचा।।
जितनी भी पुत्रवती जग में पर मरुदेवी सी कोई नहीं।
अब और अधिक क्या कहें प्रभो! सबका गौरव बस तुमसे ही।।९।।

(६८९)जिस समय इंद्र ने गोदी में लेकर देखा प्रभु के मुख को।
नेत्रों को पलक रहित करके बस रहा देखता श्रीमुख को।।
इससे भी तृप्ती नहीं हुई तब नेत्र हजार बनाये थे।
ले जाकर के सुमेरु गिरि पर अपने में ही इठलाए थे।।१०।।

(६९०) जिस समय आपका मेरू पर इन्द्रादि करें जन्माभिषेक।
तीर्थत्वपने को प्राप्त किया उस मेरू का वह जलाभिषेक।
और इसीलिए सूरज चंदा उसकी प्रदक्षिणा करते हैं।
हे प्रभो ! आपके ही कारण जग के सब तीरथ बनते हैं।।११।।

(६९१) जो मेरुशिखर से जल उछला उससे जो ताड़ित हुए देव।
उस ताड़न से जो देवों की थी दशा हुई लगता था देख।।
मानो चउतरफ हो गया है आकाश व्याप्त इस पृथ्वी पर।
ऐसा श्री पद्मनंदि मुनिवर लिख रहे ऋषभ की स्तुति कर।।१२।।

(६९२) हे नाथ ! आपके जन्म स्नान के समय भुजाएं पैâलाकर।
जो इंद्रों ने था नृत्य किया उससे ही मेघ हैं क्षणभंगुर।।
इस क्षणभंगुरता का कारण जो मेघ भग्न उस समय हुए।
वह आज भी दिखते हैं नभ में नहिं स्थिर जग में कभी हुए।।१३।।

(६९३) जिन प्रजागणों की आजीविका दश कल्पवृक्ष से होती थी।
उनको श्री आदिनाथ प्रभु ने शिक्षा देकर पूरी की थी।।
इसलिए आप ही कल्पवृक्ष इस कर्मभूमि की रचना के।
बस एक आप ही सृष्टा हो इस भौतिक जग संरचना के।।१४।।

(६९४) यह पृथ्वी हुई सनाथ आपको पा करके हे ऋषभदेव।
जैसे नवीन मेघों से हो वे श्वासों में रोमांच सदैव।।
जिस समय आप पृथ्वीतल पर अवतरित हुए थे हे जिनेन्द्र।
रोमांच हुआ था हृदयों में नर हो नारायण या सुरेन्द्र।।१५।।

(६९५) हे वीतराग ! जिस तरह मेघ में बिजली लख नश जाती है।
बस उसी तरह से नीलांजना भी नृत्य दिखा नश जाती है।।
दूसरी नृत्य करने वाली वैसी ही नर्तकी आई थी।
पर प्रभो आपने जान लिया नश्वर लीला दर्शाई थी।।१६।।

(६९६) जिस दिन तुमको वैराग्य हुआ पृथ्वी को तृणसम त्याग दिया।
तब से नदियों की कलकल ध्वनि जैसे पृथ्वी ने विलाप किया।।
क्योंकी हो नाथ सभी के तुम इसलिए वियोग न सहन करे।
तुमसे त्यागे जाने पर यह वसुधा भी तुम बिन दुखित रहे।।१७।।

(६९७) हे भगवन ! जब कायोत्सर्ग मुद्रा धरकर वन में थे खड़े।
ऐसा मालुम होता था तब धर्मध्वज के स्तंभ खड़े।।
जिस तरह मूल खंभे पर ही घर का आधार टिका होता।
बस उसी तरह से आप ही के द्वारा यह धर्म टिका रहता।।१८।।

(६९८) हे जिन! भौरों के समूह सम मस्तक पर केशों का समूह।
वह ऐसा मालुम पड़ता है ध्यानाग्नि से जलकर तन समूह।।
उसका जो काला धुआँ उठा वह केश समान धुएं छल्ले।
यह कवि का अलंकार उपमा वरना हम वैâसे कुछ कह लें।।१९।।

(६९९) जब तक इस आत्मा में अखंड नहिं केवलज्ञान प्रगट होता।
तब तक यह आत्मा लोक अलोक वस्तू को नहीं जान सकता।।
निर्मल समाधि से जब चारों घातिया कर्म नश जाते हैं।
तब सम्यग्ज्ञान प्रगट होता अरिहंत अवस्था पाते हैं।।२०।।

(७००) जिस समय आपने जड़ से इन घातिया कर्म थे नष्ट किये।
उस समय चार जो शेष रहे वह मृत सम डरकर भाग गये।।
अब हमको भी जाना होगा यह सोच अशक्त समान हुए।
हे प्रभो ! आपके तप से ही नहिं कर्म आपके दास हुए।।२१।।

(७०१) जो समवसरण था रचा इन्द्र ने नाना मणि से शोभ रहे।
उस समवसरण में हे प्रभुवर ! जितने भी मुनिगण राज रहे।।
उन मुनियों के ऊपर सबसे बीचोंबिच शोभित होते हैं।
और बढ़ जाती उसकी शोभा जब आप विराजित होते हैं।।२२।।

(७०२) जिस तरह पुष्प में कमल पुष्प सूरज की किरणों को पाकर।
महिमा को प्राप्त हुआ करता वैसे ही तुमको भी पाकर।।
हे प्रभो ! बहुत सुन्दर होती है समवसरण की रचना भी।
पर आपके चरणों को पाकर बढ़ जाती उसकी महिमा भी।।२३।।

(७०३) प्रभो ! आप निर्दोष तथा सब कर्मकलंक रहित होते।
जड़ता से रहित हुए फिर भी चंदा सम तुमको सब कहते।।
जिस तरह चन्द्रमा पर्वत के शिखरों पर शोभित होता है।
वह पृथ्वी भी शोभित होती जहाँ अचल िंसहासन होता है।।२४।।

(७०४) जिन भव्य जीव के हृदयों में है ज्ञानज्योति स्फुरायमान।
जो भविजन चरणों में करते निज माथ झुका करके प्रणाम।।
वे भी केवल उपदेश श्रवण करके हो जाते रहित शोक।
फिर क्यों नहिं हो जड़ वृक्ष आपके सन्निध रह करके अशोक।।२५।।

(७०५) हे प्रभो ! आपके तीन छत्र निर्मल मुक्ताफल सम लगते।
जिस समय देखते हैं इनको आनंदाश्रू झर-झर बहते।।
इतना आनंदित होते हैं नयनों में नहीं समाते हैं।
आँखों से अमृतबिन्दू की वर्षा करने लग जाते हैं।।२६।।

(७०६) हे भगवन् ! जिन चमरों को लख ये नयन कमल हर्षित होते।
जिनको इंद्रादिक ढोर रहे वे इतने स्वच्छ धवल होते।।
जैसे लगता है शरद ऋतू के चंदा की किरणें पैâलीं।
उन किरणों से ही बने हुए चंवरों की शोभा है होती।।२७।।

(७०७) जिन कामदेव के पंचबाण तेरे आगे सब विफल हुए।
वह कामदेव सब देवों को अपने बाणों से वश में किए।।
इसलिए आपके ऊपर वह पुष्पों के बाण को फेंक रहा।
पुष्पों की वर्षा मत समझो वह अपने घुटने टेक रहा।।२८।।

(७०८)हे भगवन् ! जो दुंदुभि बजती तीनों लोकों में कहती है।
हे भविजीवों ! परमात्मा है तो आदिनाथ भगवन ही है।।
निंह इससे भिन्न दूसरे मत और देव के मिथ्या वचन सुनो।
यदि सुनना है तो आदीश्वर भगवन के सम्यक वचन सुनो।।२९।।

(७०९) हे प्रभो ! सूर्य की प्रभा मनुष्यों को संताप दिया करती।
और चंद्रकिरण की शीतलता जड़ता को है प्रदान करती।।
पर हे प्रभुवर निंह तुम जैसा इस जग में कोई प्रभाशाली।
जो ताप और जड़ता दोनों को होती है हरने वाली।।३०।।

(७१०) हे प्रभो! आपकी दिव्यध्वनी रूपी वाणी ऐसी होती।
मंदराचल से मंथन करके गंभीर समुन्दर सी होती।।
हे नाथ! आपकी वाणी ही शुभ अरु उत्तम कहलाती है।
बाकी वाणी विष के सदृश संसार को और बढ़ाती है।।३१।।

(७११) हे प्रभो ! आपकी वाणी को यदि अज्ञानी भी सुन लेते।
तो मोक्षरूप उत्तम फल को निश्चित ही प्राप्त वे कर लेते।।
जिस तरह नदी वृक्षों में अपने जल से फल को देती है।
उस तरह आपकी वाणी भी नदियों के जल सम होती है।।३२।।

(७१२) हे प्रभो ! आपके वचनों में श्रद्धान जो प्राणी रखता है।
वह पल भर में संसार रूप सागर को भी तर सकता है।।
जिस तरह निकट जिनके जहाज वह ही सागर को पार करे।
वरना सागर हो या भव का सागर न कभी भी पार करे।।३३।।

(७१३) हे जिनवर ! वचन आपके ही अनेकांत रूप को कहते हैं।
तुमसे अतिरिक्त सभी मत में एकांतवादि ही रहते हैं।।
हे प्रभुवर ! तव सर्वज्ञपना जन जन का हृदय प्रकाश करे।।
और वही यथार्थज्ञान होता ऐसा हमको आचार्य कहें।।३४।।

(७१४) हे भगवन् ! जो मति श्रुत ज्ञानी हैं तुच्छ बुद्धि के होकर भी।
तुम वचनों में विवाद करते वह वाद विवाद निरर्थक ही।।
जैसे कोई अंधा प्राणी क्या पक्षि की गणना कर सकता।
वैसे ही केवलज्ञानी से प्रतिवाद न कोई कर सकता।।३५।।

(७१५) हे प्रभो ! आपके नय परवादी के नयरूप वैरियों को।
तीनों लोकों के मध्य अगर विजयी होते आश्चर्य हो क्यों।।
क्योंकी आपस में भिन्न विरोधीगण जिनमें नहिं एका है।
उसको योद्धा परास्त करते जिसके समूह में एका है।।३६।।

(७१६) इस जग में कौन पुरुष समर्थ जो आपका वर्णन कर सकता।
जो उत्तमज्ञान के धारी हैं वो वृहस्पती ही हो सकता।।
गुणगान आपका करने में उस जैसा कोई कवी नहीं।
हम जैसे साधारण जन की जिह्वा तो प्रभो असमर्थ सही।।३७।।

(७१७) हे प्रभो ! आपसे उपदेशित जो मार्ग स्वच्छ और चोर रहित।
क्योंकी सबसे बलवान मोहरूपी चोरों से सभी व्यथित।।
उनसे बचने का मार्ग तीन रत्नत्रय के जो धारी हैं।
वे बिना रुकावट के जाते जो मोक्षमार्ग सुखकारी है।।३८।।

(७१८) हे कृपानिधान ! जिस समय तुमने मोक्ष खजाना खोल दिया।
तब ऐसा कौन मनुज होगा जो राज्यादिक नहिं छोड़ दिया।।
उसको तब राज्यादिक वैभव सब जीर्ण शीर्ण तृण सम लगते।
जो मोक्ष खजाने के इच्छुक उनको नहिं कुछ रुचिकर लगते।।३९।।

(७१९) हे जिनवर ! जो जन प्रबल मोह रूपी सर्पों से डसे गये।
अर्थात् जो अतिमोही जन हैं किस तरह ज्ञान वह प्राप्त करें।।
जिनको नहिं ज्ञान हिताहित का उस पर यदि पँâसे कुदेवों में।
तो नहीं कभी भी हो सकता चैतन्यज्ञान उनको सच में।।४०।।

(७२०) भवसागर में गिर रहे जीव को इक धर्ममात्र ही साधन है।
और इससे भिन्न जो अन्य धर्म प्राणी को दुख के कारण हैं।।
जिस तरह भील का धनुष मनुष्यों का घातक कारण बनता।
वैसे ही धर्म का असल रूप भवतारण का कारण बनता।।४१।।

(७२१) हे प्रभो ! आपके नख व केश सर्वथा प्रमाण में रहते हैं।
वे नहिं घटते नहिं बढ़ते हैं जबकी वे अचेतन रहते हैं।।
फिर आपकी महिमा जो जाने खुद की महिमा वैâसे गावे।
नहिं आपके सम्मुख बोल सके वाचाल अधिक वो कहलावे।।४२।।

(७२२) हे प्रभो ! आपकी काया जो अत्यन्त स्वच्छ सोने जैसी।
उस पर जीवों के नीलनयन की छाया पड़ती है ऐसी।।
जैसे नेत्रों के प्रतीबिम्ब नहिं होकर नीलकमल वे हों।
उससे पूजित तव चरण कमल ऐसी कवि की कल्पना है वो।।४३।।

(७२३) इंद्रों से पूजित जो नख है उनकी जो प्रभारूप सरवर।
उनके मधि में जो स्थित है उन चरण कमल में क्षुधित भ्रमर।।
आ करके बारम्बार गिरे जैसे वे नमन ही करते हैं।
वैसे इंद्रों के श्याम नेत्र भंवरे समान ही लगते हैं।।४४।।

(७२४) हे प्रभो ! देव से रचित स्वर्ण कमलों पर जब तुम चलते हो।
वह गमन सर्वथा युक्त कहा उपदेश के हेतु निकलते हो।।
जैसे हैं स्वर्ण कमल उत्तम वैसे ही चरण कमल श्रीयुत।
प्रभुवर के घातिया कर्मों के नशने से देव करें प्रस्तुत।।४५।।

(७२५) हे भगवन् ! हे जिनेन्द्र ! जिनके यशगान से कर्ण सुखी होते।
स्वर्गों में इंद्र देवता भी तेरा गुणगान किया करते।।
तब ऐसा मालुम पड़ता है उसको सुनने के लिए गये।
भूमंडल को तजकर चंदा पर मृग जाकर के लीन हुए।।४६।।

(७२६) हे भगवन् ! तव पद कमलों में जो लक्ष्मी शोभित होती है।
यह बात सर्वथा झूठी है लक्ष्मी कमलों पर रहती है।।
जो चरण कमल में शिर धरते उनको ही लक्ष्मी मिलती है।।
क्योंकी प्रभु के नख की किरणें वह ही तो लक्ष्मी होती है।।४७।।

(७२७) चन्द्रमा सर्वथा पृथ्वी को आनंद को ही देने वाला।
पर जो प्राणी है रोगग्रस्त उनको न चन्द्रमा१ सुख वाला।।
सो जैसे चंदा से विद्वेष में उनका रोग ही कारण है।
वह मूर्ख ही हैं जो द्वेष करें उसका नहिं कोई निवारण है।।४८।।

(७२८) यदि वन में अग्नी लग जावे और नदी का जल उपलब्ध न हो।
तो जैसे कुछ भी जलने से नहिं बचता भस्म सभी कुछ हो।।
वैसे ही आपके चरणों की स्तुति रूपी यदि नदी न हो।
तो मरण रूप वन अग्नी से जग से उद्धार किसी का न हो।।४९।।

(७२९) जिस समय भव्यजन तव सम्मुख दोनों हाथों को मुकुलित कर।
मस्तक पर अपने धरते हैं तब स्वर्ग मोक्ष मिलता सुखकर।।
इसलिए भव्यजन हाथों को मस्तक पर रख कर नमन करें।
तुम सा ही प्रभुवर बन जाऊँ ऐसा मन में चिंतवन करें।।५०।।

(७३०) जो भव्य नवाकर मस्तक को तव चरणों में प्रणमन करते।
उनकी आत्मा से मोहरूप धूली के कण झर-झर झरते।।
जब तक जीवों को रंचमात्र हेयोपादेय का ज्ञान नहीं।
तब तक स्त्री पुत्रादिक में मोही रहता विक्षिप्त सा ही।।५२।।

(७३१) यह ब्रह्मा विष्णु आदि संज्ञा हे प्रभो ! आपकी कही गयी।
पर अन्य चतुर्मुख के ब्रह्मा विष्णू आदिक भगवान नहीं।।
क्योंकी खद्योत प्रकाश कहीं चंदा सम शीतल होता है।
ऐसा माने जो वह मानव अपनी मूरखता कहता है।।५२।।

आदिनाथ स्तोत्र में यही कहाँ है

(७३२) हे प्रभो ! आपका ज्ञान सर्व व्यापक है अत: विभू तुम हो।
निंह िंचतन कोई कर सकता अतएव अिंचन्त्य आप ही हो।।
युग की आदी में हुए आप ब्रह्मा ईश्वर हो अंत रहित।
हो कामदेव योगीश्वर अरु ध्यानी निर्मल हो ज्ञान सहित।।५३।।

(७३३) हे आदीश्वर भगवान ! आप ही बुद्ध आप ही शंकर हो।
तीनों लोकों में पूज्य तथा हे प्रभो ! आप क्षेमंकर हो।।
शिवमार्ग विधाता आप अत: हे धीर ! आप ब्रह्मा भी हो।
सब पुरुषों में उत्तम पुरुषोत्तम अत: आप विष्णू भी हो।।५४।।

(७३४) हे प्रभो ! आप ही मोक्षमार्ग के नेता तथा प्राणियों के।
सब जन के शरण आप ही हो निष्कारण वैद्य व्याधियों के।
ये तीन व्याधियाँ जन्म जरा एवं मृत्यू की कही गयीं।
इनका करके विनाश प्रभुवर बन गये वैद्य त्रिभुवन के ही।।५५।।

(७३५) हे जिनवर ! बड़े कष्ट से ही योगीजन तुमको पाते हैं।
पाकर इतना कृतकृत्य हुए कोई न काम रह जाते हैं।।
इसलिए आपसे भिन्न नहीं मुक्ती का दूजा कारण है।
संसार में होते कई देव नहिं होते मुक्ति के कारण हैं।।५६।।

(७३६) हे प्रभो ! आप हैं सूक्ष्म बहुत निंह कोई आपको देख सके।
जबकी वह परमाणू तक के अति सूक्ष्म पदार्थ भी देख सके।।
ऐसे ही आप गुरू इतने कि ज्ञानस्वरूप आपमें यह।
सारे पदार्थ ही समा गये इसलिए ज्ञान में झलक रहें।।५७।।

(७३७) सब वस्तुसमूह में जो मनुष्य हेयोपादेय का ज्ञाता है।
उसकी दृष्टी में सारभूत केवल इक आप विधाता हैं।।
जितने भी भिन्न हैं परपदार्थ वह सब असार सूखे तृण सम।
इसलिए जिन्हें हो गया ज्ञान वह मोक्षमार्ग में है सक्षम।।५८।।

(७३८) जिस नभ के गर्भ में तीन भुवन परमाणु के सदृश दिखते हैं।
वह नभ भी आपके ज्ञान में प्रभु परमाणु सदृश ही लखते हैं।।
आकाश अनंत प्रदेशी है उससे भी बड़ा है ज्ञान तेरा।
यह महिमा आपकी है भगवन् ! नहिं अन्य कोई ऐसा चेहरा।। ५९।।

(७३९) भुवनत्रय में नहिं सरस्वती सदृश स्तुति करने वाली।
निंह अंत गुणों का है जिनके उनके गुणगान न कर पाती।।
फिर हम जैसे अज्ञानीजन वैâसे स्तुति कर सकते हैं।
यदि कर भी लें तो उस गाथा का अंत नहीं कर सकते हैं।।६०।।

(७४०) जैसे पक्षी नभ में उड़ते-उड़ते जिस जहाँ तलक जावे।
फिर भी आकाश अनंत तथा उसको वह पार न कर पावे।।
वैसे ही आपके गुण समूह भी हैं अनंत कोई अंत नहीं।
स्तुति करने में कवि की जिह्वा होती है असमर्थ सही।।६१।।

(७४१) हे प्रभो ! आपके गुणस्तोत्र करने में इंद्र भी नहिं समर्थ।
और महादेव अरु शेषनाग भी स्तुतिगान में हैं अशक्त।।
फिर मैं हूँ बुद्धिहीन प्राणी स्तवन्ा गान क्या कर सकता।
जो साहस किया है लिखने का बस क्षमायाचना कर सकता।।६२।।

(७४२) हे जिनवर ! आप भव्य रूपी कमलों को आनंदित करते।
निर्दोष सूर्य सम, तेजोनिधि मोहांधकार को शम करते।।
‘‘श्री पद्मनंदि मुनिवर’’ भी हैं हम सब भव्यों को सुख देते।
मेरे ऊपर भी कृपा करो तव चरण कमल दुख को हरते।।६३।।

।।इति ऋषभस्तोत्र।।

चौदहवाँ अधिकार

श्री मज्जिनेन्द्र स्तोत्र

(७४३) जैसे उत्तम पदार्थ लखकर मन आनंदित हो जाता है।
हे प्रभो! आप उत्तम पदार्थ बिन दर्श न तृप्ती पाता है।।
इसलिए आपके दर्शन से ही नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१।।

(७४४) जिस तरह अंधेरे में मानव को रूप न कोई दिखता है।
वैसे ही मोह अंधेरा भी आत्मा पर जब तक रहता है।।
हे प्रभो ! आपके दर्शन से इस तरह नष्ट हो जाता है।
सूरज की आभा सम आत्मा वास्तविक रूप दर्शाता है।।२।।

(७४५) जैसा आनन्द मोक्ष पाकर मिलता है वैसा दर्शन से।
हे जिनवर ! सुख मिलता मुझको दोनों सुख लगते इक जैसे।।
परमानंद से है भरा हुआ मेरा मन तुम्हें देख करके।
मानों मुझको ही मोक्ष मिला ऐसा सुख मिलता आ करके।।३।।

(७४६) हे जिनवर ! तव मुख अवलोकन से प्रबल पाप नश जाते हैं।
जैसे सूर्योदय के प्रकाश से अंधकार भग जाते हैं।।
जिस तरह अंधेरे में वस्तु का सत्स्वरूप कुछ ज्ञात न हो।
वैसे ही मोह अंधंरे से वास्तविक रूप कुछ भान न हो।।४।।

(७४७) हे प्रभो ! आपके दर्शन से होता अपूर्व पुण्यानुबंध।
इस लोक में तीर्थंकर चक्री आदिक पदवी का करे बंध।।
आगे परलोक गमन करके अणिमा महिमा आदिक ऋद्धी।
मिल जाती है अहमिन्द्र आदि पदवी की भी होती सिद्धी।।५।।

(७४८) जिस पुण्य लाभ से अविनाशी अक्षय सुख प्राप्त हुआ करता।
फिर प्रभो ! आपके दर्शन से ही सब कुछ यहाँ मिला करता।।
ऐसा जिनदर्शन का शुभ फल श्री पद्मनंदिमुनि कहते हैं।
आगे क्रमश: भवदधि तरकर निर्वाण प्राप्त भी करते हैं।।६।।

(७४९) यद्यपि जग में इंद्रादिक पद भी पाना बहुत पुण्यफल है।
लेकिन तेरे दर्शन करके निंह चाहूँ वह भी प्रतिफल है।।
दर्शन के फल के आगे यह सारे फल तृणवत कहे गये।
यह सारे फल क्षणभंगुर हैं जो श्रेष्ठ मोक्षफल वही मिले।।७।।

(७५०) जो प्राणी ऐसी परमशांत अविकारी मूरत को लखकर।
आनंदित नहीं हुआ करता वह जग में काटेगा चक्कर।।
लेकिन जो प्रभु मुख देख-देख आनन्दविभोर हुआ करता।
उसको इस जग के जन्म मरण से छुटकारा जल्दी मिलता।।८।।

(७५१) मेरा मन व्याकुल हो करके जो इधर उधर भटका करता।
उसमें मेरे ही पूर्व कर्म का बस निमित्त बनता रहता।।
हे प्रभो ! आपके दर्शन भी नहीं मिलते बड़ी सुगमता से।
कितने जन्मों के पुण्यों से मिलते दर्शन दुर्लभता से।।९।।

(७५२) इतनी शक्ति तव दर्शन में जो विनय भाव से देख भी ले।
उनके जन्मों-जन्मांतर के दुख नश जाते हैं पल भर में।।
यह तो नहिं बात बड़ी कोई दुख नशकर सुख मिल जाता है।
वह भी तत्काल टिकट सेवा सम फल फौरन मिल जाता है।।१०।।

(७५३) मेरा यह सारा दिन उत्तम एवं हो गया सफल जिनवर।
क्योंकि मेरा पट्टबंधन भी तव दर्शन से ही है सुखकर।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।११।।

(७५४) हे प्रभो ! आपका जिनमंदिर मेरी अनमोल धरोहर है।
क्योंकि इसमें श्री लक्ष्मी जी बसती है अत: मेरा घर है।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१२।।

(७५५) भक्ति के जल से िंसचित जो ये तन रूपी जो मेरा क्षेत्र।
अति रोमांचित हो जाता है पुण्यांकुर से उत्पन्न खेत।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१३।।

(७५६) सिद्धांत रूप अमृत सागर सम हैं गंभीर प्रभु तेरे वचन।
और जिसने उसको जान लिया ऐसे ज्ञानी का तुममें मन।।
इसके अतिरिक्त कुदेवों में जो रागी द्वेषी होते हैं।
उनको निंह मान सकेगा वो, वे कलुषित मन के होते हैं।।१४।।

(७५७) मिथ्यात्व रूप मल से मानव का मन यदि नहीं कलंकित है।
तो प्रभो ! आपके दर्शन से अति दुर्लभ मोक्ष सुलभ ही है।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१५।।

(७५८) इन चर्म नेत्र से देख तुम्हें जो पुण्यकर्म का बंध करे।
उस पुण्यकर्म का कहना क्या वो दिव्य नेत्र से दर्श करे।।
हे प्रभो ! उन्हें केवलदर्शन अरु केवलज्ञान मिला करता।
और चार घातिया नश करके वह नर अचिन्त्य फल पा लेता।।१६।।

(७५९) हे जिनवर ! तुम्हें देखकर भी जो खुद को निंह कृतार्थ समझे।
वह भव समुद्र में मज्जन अरु उन्मज्जन कर भवभ्रमण करे।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१७।।

(७६०) हे प्रभो ! वास्तविक दृष्टी से जो तुम्हें देख आनन्द मिले।
वह यद्यपि मन में स्थित है पर वचन अगोचर कह न सके।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१८।।

(७६१) हे प्रभो ! आपकी कृपादृष्टि से दर्शविशुद्धी मिली मुझे।
इसलिए बाह्य वस्तुएँ सभी निंह मेरी, इतनी बुद्धि मुझे।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।१९।।

(७६२) हे प्रभो ! तुम्हारे दर्शन कर, यह दृष्टि सुखी निर्मल होती।
फिर सूर्यदेव के दर्शन की इच्छा मुझमें क्यों कर होती।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२०।।

(७६३) हे जिनवर ! आप समस्त दोष से रहित वीर और बुद्धिपुरुष।
फिर दोष सहित जड़ चंदा से क्यों प्रीत करें हम सदृश मनुष।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२१।।

(७६४) हे प्रभो ! आप ही िंचतामणि हो कामधेनु और कल्पतरू।
जुगनू की आभा सम निष्टप्रभ सब तुम आगे लगे प्रभू।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२२।।

(७६५) हे जिनवर ! मेरे मन में जो संचार हुआ आनन्द रस का।
उससे जो आनंदाश्रु बहे वह नहीं समाया अंतर का।।
हे प्रभो ! जिस तरह शशिधर में किरणों की माला गमन करे।
वैसे ही तेरे दर्शन ही सब जन का सदा कल्याण करें।।२३।।

(७६६) हे प्रभो ! आपके दर्शन से दश दिशा पुष्प बिन फल देती।
रत्नों से शून्य हुआ नभ भी रत्नों की वृष्टी है करती।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२४।।

(७६७) जिस तरह चन्द्रमा की किरणें रात्री में कमल खिला देतीं।
वैसे ही तव दर्शन की महिमा सब भय दूर भगा देती।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२५।।

(७६८) जिस तरह पूर्णिमा का चंदा सागर को उल्लसित कर देता।
हे प्रभो ! आपके दर्शन से मेरा मन भी पुलकित होता।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२६।।

(७६९) हे प्रभो ! आपके दर्शन से मेरा मन इतना सुखी हुआ।
जैसे लगता है बड़े दिनो में मनरथ मेरा सफल हुआ।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२७।।

(७७०) हे प्रभो ! आपके दर्शन से बन गया मित्र यह जन्म मेरा।
जिस जन्म में दर्श मिला मुझको वह ही हितकारक जन्म मेरा।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२८।।

(७७१) हे भगवन् ! जो प्रगाढ़ भक्ती से सहित भव्यजन हैं जग में।
उनको केवल दर्शन से ही सब मिले सिद्धियाँ क्षण भर में।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।२९।।

(७७२) हे प्रभो ! शुभ गती की सिद्धी में एकमात्र संसाधन हो।
जिनके है प्राण कंठगत भी उनमें भी धैर्यप्रदायक हो।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।३०।।

(७७३) हे प्रभो ! आपके दर्शन से ऐसी न कोई भी वस्तु हुई।
जो प्राप्त हुई ना हो मुझको फिर ज्ञानीजन को ईप्सित ही।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।३१।।

(७७४) हे प्रभो ! आपकी यह स्तुति श्री ‘‘पद्मनंदि गुरुवर’’ ने कही।
इसको जो तीनों काल पढ़े उसका भवजाल कटेगा ही।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।३२।।

(७७५) हे प्रभो ! सभी जन के मन को आनंदित करने वाला जो।
‘‘दर्शनस्तोत्र’’ सदा भू पर जयवंत तथा वृद्धिंगत हो।।
हे प्रभो! आपके दर्शन से ये नेत्र सफल हो जाते हैं।
मेरा मन अरु मेरा शरीर अमृत से सींचे जाते हैं।।३३।।

।।इति दर्शनस्तोत्र।।

सरस्वती स्तोत्र

(७७६) सब देव झुकाकर मस्तक को जिनको हैं नमस्कार करते।
ऐसी हे माता सरस्वती ! तव चरण युगल मन में धरते।।
सब लोक में हो जयवंत तथा सब जन की जड़ता हरती हो।
है कमल धूलि और जड़तायुत पर आप धूलि से विरहित हो।।१।।

(७७७) हे सरस्वती माँ ! तेरा जो है तेज रात्रि दिन से विरहित।
और नहीं अपेक्षा भीतर या बाहर की सभी को ताप रहित।।
जड़ता को नहीं प्रदान करे सब वस्तु प्रकाशित करता है।
ऐसी माँ सरस्वती के तेजपुंज को जग नित नमता है।।२।।

(७७८) हे सरस्वती माँ ! कृपा तेरी जो मुझको ये चातुर्य मिला।
उससे मैं स्तुति करके माँ कवि बनने का सौभाग्य मिला।।
जैसे गंगाजल से पूरित अंजुलि में जल को ले करके।
उसको ही अर्घ चढ़ाते हैं तेरा तुझको अर्पण करके।।३।।

(७७९) यद्यपि श्रुतकेवलि भी तेरी शोभा का गान नहिं कर सकते।
तब मुझ जैसे अज्ञानीजन वैâसे तव स्तुति कर सकते।।
लेकिन हे सरस्वती माता ! हम जैसे मानव साहस कर।
‘‘जय हो’’ इन दो शब्दों से ही स्तुति कर लेते भक्ती भर।।४।।

(७८०) त्रैलोक्य रूप घर में स्थित जो सम्यग्ज्ञानमयी दीपक।
हे सरस्वती माँ ! वह ही तुम हो तेरी कृपादृष्टि जिस पर।।
वह सम्यग्दृष्टी जीव तीन लोकों में जो रहने वाले।
उन जीव अजीव पदार्थों को अच्छी प्रकार देखे भाले।।५।।

(७८१) जो मार्ग आपका हे माता ! नभ के समान अति निर्मल है।
ऐसा है कौन बिबुुध प्राणी जो मार्गगमन से वंचित है।।
फिर भी क्यों ऐसा लगता है उस मार्ग से कोई गया नहीं।
हे सरस्वती माँ ! मार्ग आपका गहन है गंदा हुआ नहीं।।६।।

(७८२) हे सरस्वती माँ ! सब जन को आश्चर्यचकित करने वाली।
कविता लेखन का गुण भी जो मानव को मिलता गुणशाली।।
उसमें भी कृपा आपकी ही लेकिन वह पद भी मिलता है।
जिसको हर ऋषि मुनि तप करके पाने की इच्छा रखता है।।७।।

(७८३) जिसमें नहिं कला आपकी है वह चाहे जितना पढ़ लेवे।
नहिं हो सकता है शास्त्रज्ञान पर जिस पर दृष्टी रख देवें।।
वह बिना पढ़े ही सब गुण में पारंगत होता जाता है।
हे माता ! बिना कृपा तेरी विद्वान न पूजा जाता है।।८।।

(७८४) इस जग में जो केवली हुए वे भी जो सब कुछ जान रहे।
और सभी वस्तुओं को देखें उसमें भी कारण आप रहें।।
हे माता ! जब तीनों जग के स्वामी के ज्ञान की कारण हो।
तब हम जैसे अज्ञानी के सब दुख की तुम्हीं निवारण हो।।९।।

(७८५) चिरकाल से इस संसाररूप सागर में भ्रमण करे प्राणी।
सैकड़ों क्लेश से इस मानुष का जन्म धारता ये प्राणी।
इस मानुष तन से ही चारों पुरुषार्थ किए जा सकते हैं।
फिर भी हे जिनवाणी माता ! तुम बिन सब व्यर्थ बताते हैं।।१०।।

(७८६) हे माता ! बिना अनुग्रह के शास्त्रों का यदि अध्ययन करे।
तो भी वास्तविक तत्व का निंह हो सकता ज्ञान बिना तेरे।।
बिन तत्वज्ञान के प्राणी में हित अहित विवेक न होता है।
इसलिए आपकी कृपा बिना नरजन्म भी निष्फल होता है।।११।।

(७८७) हे माता! बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी तेरा आश्रय लेते हैं।
उससे ही वह सर्वोत्कृष्ट मुक्ती को भी पा लेते हैं।।
जैसे जिस घर में अंधकार हो दीपक का आश्रय लेते।
तब ही इच्छित वस्तू दिखती और प्राप्त उसे हैं कर लेते।।१२।।

(७८८) तुममें अनेक पद हैं फिर भी तू इक ही पद१ को देती है।
तू चौतरफा है श्वेत शुक्ल फिर भी सुवर्ण तन धरती है।।
हे माता ! तू आश्चर्यजनक चेष्टा को धारण करती है।
तू स्वर्ण विग्रहा श्रेष्ठ वर्ण रूपी तन धारण करती है।।१३।।

(७८९) हे सरस्वती माँ ! जिस क्षण तू अर्हत के मुख से प्रगट हुई।
उस समय तेरी ध्वनि सागर सम गंभीर धीर सी प्रगट हुई।।
सब भाषा में परिणत होती जिससे सब प्राणी समझ सके।
किसके मन में आश्चर्य नहीं होगा ऐसी वाणी सुनके।।१४।।

(७९०) हे सरस्वती माँ ! तेरे बिन नर नेत्र सहित भी अंधा है।
परमार्थ ज्ञान नहिं हो जिसको विद्वतजन कहते अंधा हैं।।
हे माता ! तुम प्रसाद से ही निश्चयनय का दर्शन होता।
जिसको हो जाए मोक्षरूप दर्शन नर जन्म सफल होता।।१५।।

(७९१) मानव का जीवन वाणी से ही सार्थक समझा जाता है।
एवं वक्ता कवित्व का गुण वाणी को सफल बनाता है।।
ये दोनों गुण इस दुनिया में अतिदुर्लभ माने जाते हैं।
गर कृपा आपकी हो जिस पर उसको ये गुण मिल जाते हैं।।१६।।

(७९२) जिन कानों का संस्कार किया वे ही अच्छे माने जाते।
और वही कान हितकारक है अरु अविनाशी माने जाते।।
हे सरस्वति ! तव वाणी ही प्राणीगण को विवेक देती।
और उससे भिन्न राग आदिक के गान मूढ़ता ही देती।।१७।।

(७९३) यह सरस्वती तालू व कण्ठ से पैदा हुई सभी कहते।
तो भी इसकी स्थिति आदि और अंतरहित प्रभुवर कहते।।
इस तरह अनेक धर्म से युत एकांत विधी का नाश किया।
द्रव्य श्रुत से है तालू व कंठ भावों से ज्ञानमयी किरिया।।१८।।

(७९४) हे सरस्वती माँ ! कामधेनु िंचतामणि कल्पवृक्ष सब ही।
इक ही भव में प्राणीजन को इच्छित फल देते हैं सच ही।।
लेकिन यदि आप मनुष्यों पर संतुष्ट हो गयी हो माता।
तो उसको इहभव परभव में देती हो इष्टफल हे माता।।१९।।

(७९५) यद्यपि जग में सूरज चंदा दीपक अंधियारा नष्ट करे।
पर अंदर का जो अंधकार उसको निंह कोई विनष्ट करे।।
वह अंधकार हे सरस्वती माँ ! आप नष्ट कर सकती हो।
इसलिए सभी के मन में तुम ज्योति बन करके जलती हो।।२०।।

(७९६) तू जिनवर रूपी स्वच्छ सरोवर को इकमात्र कमलिनी है।
और ग्यारह अंग पूर्व चौदह रूपी कमलों से शोभित है।।
अरु गणधर रूपी हंसों से जिनकी सेवा की जाती है।
ऐसी हे सरस्वती माता ! हम पर भी दया लुटाती है।।२१।।

(७९७) यद्यपि जग में सुन्दरता अरु राजा बनना अति दुर्लभ है।
पर हे माता ! तेरे प्रभाव से ये सब प्राप्ति सुलभ ही है।।
क्योंकी सबसे है कठिन यहाँ परमात्म तत्त्व की प्राप्ति कही।
जब वह पद भी मिल जाता है तो तुच्छ वस्तु की क्या गिनती।।२२।।

(७९८) जो भव्य जीव तव चरण कमल की भक्ती से सेवा करता।
उसके सम्यक्त्व ज्ञानरूपी तीसरा नेत्र प्रगटित होता।
उस ज्ञान नेत्र से सब पदार्थ केवलज्ञानी को दिखते हैं।
मानो श्रुतज्ञानी से ईर्ष्या करके तव आश्रित रहते हैं।।२३।।

(७९९) जो भवि जीवों को तरे उसी का तीर्थ नाम है कहा गया।
तू सम्यग्ज्ञानमयी जल से है भरी भगीरथ कहा गया।।
सब लोगों की शुद्धि होती तुझमें ही गोता खा करके।
जैसे समुद्र वृद्धिंगत हो चंदा की किरणों से मिलके।।२४।।

(८००) तेरे द्वारा संस्कारित होकर मतिज्ञान सतज्ञान बने।
बाकी के बचे हुए सब श्रुत मनपर्यय में सहकारि बने।।
जितने भी दूर मेरु आदिक दर्शन में चक्षू बन जाती।
संसार वृक्ष को नशने में हे माँ ! कुठार तू बन जाती।।२५।।

(८०१) शास्त्रानुसार जो भी प्राणी सारे वर्णों को पढ़ता है।
ऐसी कोई भी लक्ष्मी नहिं जो प्राप्त नहीं कर सकता है।।
निंह कोई उत्तम गुण अथवा उत्तम पद जो ना मिले उसे।
ऐसा गुरु ने उपदेश कहा हे देवि ! कृपा होवे जिस पे।।२६।।

(८०२) जो संचित किया पापरूपी पर्वत अनेक जन्मों का हो।
उसका भी भेदन हो जाता यदि शास्त्र विवेकपने का हो।।
हे माता ! श्रेष्ठ अर्थ एवं वाक्यों से पूर्ण जो शास्त्र कहे।
उन शास्त्ररूप मेघों से ही सब संचित पाप समूह बहे।।२७।।

(८०३) हे सरस्वती माँ ! इस जग में है सूर्य चन्द्र के तेज बहुत।
पर जो सर्वोत्कृष्ट तेरी वाणी के तेज से है संयुत।।
वह नहीं किसी भी अंधकार से नष्ट कभी हो सकता है।
वह स्वत: प्रकाशित है इससे जयवंत सदा ही रहता है।।२८।।

(८०४) हे माता ! तेरे ही प्रसाद से प्राणी कविता कर लेता।
पर मेरे सदृश वङ्कामूर्ख वैâसे यह चेष्टा कर सकता।।
अतएव प्रसन्नमना हो माँ कुछ मुझको ज्ञान प्रदान करो।
यदि पुत्र निर्गुणी भी होवे तब भी माता नहिं निष्ठुर हो।।२९।।

(८०५) जो मानव ‘‘पद्मनंदि मुनिवर’’ द्वारा विरचित कृति को पढ़ता।
वह कविता आदिक उत्तम गुण को पाकर भव सागर तिरता।।
क्रमश: संसार रूप सागर तरकर मुक्ती को पाता है।
‘‘श्रुतदेव’’ की स्तुति करके फिर वो अव्याबाध सुख पाता है।।३०।।

(८०६) हे देवी! तव गुण गाने में विद्वान वृहस्पति आदिक भी।
हो जाते मंदबुद्धि जब वे फिर हम जैसे अज्ञानी की।।
क्या बात कहें जो थोड़ी सी स्तुति की वाकचपलता है।
अत्यन्त भक्ति ही कारण है बस क्षमा की आवश्यकता है।।३१।।

।।इति ‘‘सरस्वति स्तवन’’ नामक अधिकार।।

सोलहवाँ अधिकार

चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तोत्र

(८०७) आदिनाथ जी
जो जग प्रमाद के वश होकर अज्ञान कूप में पड़ा हुआ।
उस जग को प्रभु आदीश्वर ने निज वचनों से संबोध दिया।।
ऐसे परमात्म स्वरूप वचन सुनकर जिनका उद्धार हुआ।
उन आदिनाथ तीर्थंकर की सेवा से जग कल्याण हुआ।।१।।

(८०८) अजितनाथ जी
सब जीवों का जग ही वैरी दूजा ना कोई वैरी है।
और रत्नत्रय ही मित्र एक निंह दूजी कोई सहेली है।।
जिस जग वैरी को अजितनाथ ने रत्नत्रय से जीत लिया।
वे उत्तम सुख के दाता हों ऐसी मैंने प्रार्थना किया।।२।।

(८०९) संभवनाथ जी
जो बार बार जग के दुखों से दुक्खित सभी प्राणियों को।
जग के दुखों के नाश हेतु जो मोक्षमार्ग दिखलाते वो।।
शरणागत प्राणी की भगवन दुखों से रक्षा करते हैं।
ऐसे श्री संभवनाथ प्रभू को शीश झुकाकर नमते हैं।।३।।

(८१०) अभिनंदननाथ जी
हो तीनों लोकों में पूजित इसलिए नहीं हो तुम महान।
जो नहीं किसी में मिल सकते ऐसे निज गुण से हो महान।।
जिस ज्ञान के आगे सकल विश्व की सभी वस्तुएँ हेय लगें।
ऐसे श्री अभिनंदन जिन के चरणों में हम शत नमन करें।।४।।

(८११) सुमतिनाथ जी
जिसमें प्रमाण नय आदिक का भलीभाँति सम्मिश्रण है।
ऐसे तत्वों का प्रतिपादन तव नामरूप ही सार्थक है।।
क्योंकी हे सुमतिनाथ भगवन ! सबको अच्छी मति देते हो।
इसलिए नमन हम करते हैं अति निर्मल तत्त्व प्रकाशक हो।।५।।

(८१२) पद्मप्रभु जी
आकाश में चंदा जिस प्रकार शोभित होता नक्षत्रों से।
आनंदामृत की वर्षा होती रहती तत्सम जीवों में।।
श्री पद्मप्रभु जी समवसरण बीच ऐसे शोभित होते हैं।
अपने प्रकाश से हम सबकी वे रक्षा करते रहते हैं।।६।।

(८१३) सुपार्श्वनाथ जी
जो कामदेव नर इंद्र आदि को भी सुख देने वाला है।
शस्त्रों का धारी धीरमना और मीन की ध्वजा वाला है।।
ऐसे श्री कामदेव को जिन सुपार्श्व भगवन ने पल भर में।
बिन अस्त्र शस्त्र के जीत लिया उनको है नमन चरणद्वय में।।७।।

(८१४) चंद्रप्रभु जी
जो वाणीमय अमृत की किरणों से यद्यपि चंद्रमा है।
फिर भी कलंककर से विरहित और दोष रहित परमात्मा हैं।।
ऐसे ‘‘चंद्रप्रभु तीर्थंकर’’ सब पाप का क्षय करने वाले।
जयंवत सदा इस जग में हों हम सबके दुख हरने वाले।।८।।

(८१५) पुष्पदंत जी
जैसे कोई ठग जीवों को मोहित करके ठग लेता है।
वैसे ही मोह बड़ा भारी ठग सब जीवों को ठगता है।।
इसलिए प्राणियों में कुछ भी नहिं बुद्धि हिताहित की रहती।
‘‘श्री पुष्पदंत तीर्थंकर’’ को ध्या मोहधूलि पल में नशती।।९।।

(८१६) शीतलनाथ जी
जो वचन सज्जनों को चंदा चंदन सी शीतलता देते।
श्री शीतलनाथ प्रभू जग के सारे तापों को हैं हरते।।
ऐसे शीतल जिन नमस्कार के योग्य जगत में हुए अहो।
हम शीश नवाकर नमते हैं हमको भी शीतलता देवो।।१०।।

(८१७) श्रेयांसनाथ जी
तीनों लोकों के जीवों को कल्याण प्राप्ति इनसे होती।
इसलिए प्रभो श्री श्रेयनाथ इस नाम से जगप्रसिद्धि इनकी।।
जिन भव्यों की श्रेयांसनाथ भगवन में सच्ची भक्ती है।
उनको इन प्रभु की कृपादृष्टि से होय मनोरथ सिद्धि है।।११।।

(८१८) वासुपूज्यनाथ जी
हे वासुपूज्य भगवन ! जो जन तव चरण युगल में नमता है।
वह भव्य अपूर्व पुण्य फल की जग में प्राप्ती कर सकता है।।
उस पुण्य के फल से इस जग में ना कोई ऐसी लक्ष्मी है।
जो दौड़ के आगे ना आए ऐसी न कोई सुख संपति है।।१२।।

(८१९) विमलनाथ जी
इस जग में कौन पुरुष होगा जिनने निंह विमल को नमन किया।
सब मल से रहित यथार्थ नामधारी का गुण स्तवन किया।।
ऐसे श्री ‘‘विमलनाथ भगवन’’ को हम भी नमस्कार करते।
जिनके श्रीनाम स्मरण मात्र से सारे कल्मष हैं धुलते।।१३।।

(८२०) अनंतनाथ जी
जो हैं अनंतज्ञानादि रूप उनको मैं हृदय में धरता हूँ।
जो गुण उनमें है विद्यमान उन गुण की इच्छा करता हूँ।।
जैसे प्यासा निज तृषा हेतु उत्तम जल भरे सरोवर की।
इच्छा करता है वैसे ही श्री ‘‘अनंतनाथ’’ फल देवें भी।।१४।।

(८२१) धर्मनाथ जी
श्री धर्मनाथ तीर्थंकर को मुक्ती के हेतु नमन करता।
जो धर्मतीर्थ के प्रविधायक भवि जीवों को आश्रयदाता।।
अति दुर्लभ है सर्वोत्कृष्ट ऐसी कल्याण परम्परा को।
भव्यों को प्राप्त कराते हैं बन जाते धर्मधुरंधर वो।।१५।।

(८२२) शांतिनाथ जी
जो शांतिनाथ निज आत्मा की शांतीकर्ता निज कर्मों से।
क्षय करके जग में शांत किया हम सबको शांतिप्रदायक वे।।
दोनों प्रकार की लक्ष्मी के स्वामी सोलहवें तीर्थंकर।
हे कामदेव चक्रीपद के धारी हमको हों क्षेमंकर।।१६।।

(८२३) कुंथुनाथ जी
बाह्याभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रह तजने के कारण।
दोनों विशुद्धि को प्राप्त हुए तीर्थंकर कुंथुनाथ भगवन।।
जीवों पर दयाविशुद्धिकरी चैतन्य विशुद्धी अंदर है।
ऐसे श्री कुंथुनाथ जिनवर हम सबके लिए शांतिकर हैं।।१७।।

(८२४) अरहनाथ जी
दीपक की प्रभा जगदगृह के पापांधकार को नष्ट करे।
वैसे ही प्रभु के नख की कांती सब पापों को नष्ट करें।।
देवों के मुकुट की रत्नकांति से भी ज्यादा है प्रभायुक्त।
श्री अरहनाथ के चरणयुगल जयवंत रहें जो पापमुक्त।।१८।।

(८२५) मल्लिनाथ जी
श्री मल्लिनाथ भगवान स्वयं हैं उदासीन फिर भी देखो।
उनके स्नेही सुख पाते दुख पाते शत्रूगण हैं जो।।
सारे जग को आश्चर्यचकित करने वाले हे मल्लि प्रभू।
इस लोक में तुम जयवंत रहो हम सबके केवल तुम्हीं विभू।।१९।।

(८२६) मुनिसुव्रतनाथ जी
तृण के समान सम्पदा छोड़ मुनिव्रत को तुमने धार लिया।
सुव्रत को धारण करने से मुनिसुव्रत जी यह नाम किया।।
जो कर्मनाश कर अविनाशी मुक्तीपद को है प्राप्त किया।
मुझ पर भी हो जाओ प्रसन्न ऐसी मैंने प्रार्थना किया।।२०।।

(८२७) नमिनाथ जी
इंद्रिय से जनित सुख पराधीन अतिदुर्बल अरु अति चंचल है।
ऐसा सुख केवल दुख ही है आत्मिक सुख केवल निश्चल है।।
स्वाधीन और स्थिर भी है दुर्बलतारहित परमसुख है।
ऐसे आत्मिक सुख में रहने वाले श्री नमिजिन प्रभुवर हैं।।२१।।

(८२८) नेमिनाथ जी
जिस तरह चक्र की धारा छेदन करने में रहती पैनी।
वैसे ही कर्म नाशने में नहिं आप समान अरिष्ट नेमि।।
भव्यों के अशुभ कर्मनाशक गिरनार से मोक्ष पधारे हो।
हे अरिष्टनेमि भगवान सदा इस लोक में भी जयवंत रहो।।२२।।

(८२९) पार्श्वनाथ जी
जिस समय ध्यान में लीन प्रभो तब कमठ जा रहा था नभ से।
उसका विमान रुक गया तभी और वैर याद आया मन में।।
उस कमठासुर का वध करने को फणपति पद्मा संग आया।
उपसर्ग निवारण किया तुरत जय पार्श्वनाथ जग ने गाया।।२३।।

(८३०) श्री महावीर जी
तीनों लोकों के ईश्वर होकर भी तुम नि:स्पृह रहते हो।
अपनी काया से मोह नहीं इच्छा से रहित अत: जिन हो।।
अंतिम तीर्थंकर वर्द्धमान हम सब तुमको वंदन करते।
मुझ ‘‘पद्मनंदि’’ को मुक्ती दो हम भी तव चरणकमल नमते।।२४।।

।।इति श्री चतुर्विंशति स्तोत्र।।

सत्रहवाँ अधिकार

सुप्रभाताष्टक स्तोत्र

(८३१) जिस उषाकाल में रात्री का सर्वथा अंत हो जाता है।
और नेत्र युगल खुल जाने से निद्रा का नाश हो जाता है।।
वैसे ही द्वय१ आवरणों के सर्वथा नाश हो जाने पर।
अरु अंतराय का क्षय होकर मोहनीय कर्म नश जाने पर।।
जो सम्यग्दर्शन ज्ञान प्रकट होने पर जो हो सुप्रभात।
जिन मुनियों ने वह प्राप्त किया उनको है मेरा नमस्कार।।१।।

(८३२) तीनों लोकों के अधिपति जिन के सुप्रभात को नमन करूँ।
जो सुप्रभात सब जीवों को सुख का दाता मल रहित प्रभू।।
और ज्ञानप्रभा से भासित सब ही लोकालोक प्रकाश भरे।
जो सुप्रभात इक बार उदित हो जाने से नवज्योति भरे।।
सब प्राणीगण को लगता है यह मेरा जीवन धन्य हुआ।
जिनवर की उस शुभ बेला को कर नमन हृदय प्रसन्न हुआ।।२।।

(८३३) जिस प्रभाकाल में मानव अपनी धर्म क्रियाओं में लगते।
जो सुप्रभात उपमा विरहित सबका संताप दूर करते।।
जिस सुप्रभात के होने पर भय से एकांतमत्तवादी।
रूपी उल्लू नश जाते हैं और होती जिनभक्ती आदी।
उस स्तुति का जो कोलाहल जैसे प्रात: पक्षी चहके।
ऐसा सुप्रभात ताप हरके चंदन की खुशबू सम महके।।३।।

(८३४) जिन प्रभु के सुप्रभात का जो आंनदरहित गायन करते।
इसको सुरेन्द्र और सुंदरियाँ बंदीजन प्रात: हैं पढ़ते।।
राजा के सम्मुख अद्वितीय इस सुप्रभात का पाठ करे।
सुन गान नागकन्याओं का विद्याधर आदिक ठाठ करें।
तीनों लोकों को सुख प्रदान करने वाला यह सुप्रभात।
हम लोगों को भी सुख देवे हम वंदन करते जोड़ हाथ।।४।।

(८३५) जिन सुप्रभात की आभा से जग के सब पाप चोर भगते।
मन रूप चन्द्रमा मलिन तथा फीके होकर के हैं छुपते।।
अरु अनीति रूपी अंधकार छटने से दिशाएँ स्वच्छ हुईं।
फिर जिनवर का जो सुप्रभात उसकी उत्कृष्ट ज्योति प्रगटी।
जो सदाकाल रहने वाला सब भवि जीवों से वंदनीय।
इस लोक में भी जयवंत रहे सबके जीवन में दर्शनीय।।५।।

(८३६) अर्हंत देव का सुप्रभात प्रात: की बेला है लगती।
सबके दोषों को नश करके लोगों की दृष्टि स्वच्छ करती।।
जिन पुरुषों की विषयों में अति आसक्ति उन्हें बुद्धि देती।
स्त्रीविषयक जो राग और प्रीति के भाव को है नशती।
इसलिए गुरूजन कहते हैं इसकी महिमा अपूर्व होती।
प्रात: की बेला की उपमा इस पर नहिं पूर्ण घटित होती।।६।।

(८३७) यह सुप्रभात जहाँ सूर्य प्रभा भी नहीं उजाला कर सकती।
वहिं पर यह सुप्रभात भव्यों के मन का अंधकार हरती।।
यह सुप्रभात भूमंंडल में दिन पर दिन विकसित होता है।
और सूर्य रात्रि के उल्लू आदिक जीवों के सुख नशता है।
लेकिन जिनवर का सुप्रभात निंह कष्ट किसी को देता है।
यह समीचीन उपमा विरहित कल्याण सभी का करता है।।७।।

(८३८) जैसे प्रात: की सूर्य किरण कमलों को विकसित हैं करती।
वैसे ही केवलज्ञान रश्मियाँ भवि को आनंदित करती।।
जिस सुप्रभात में दुष्कर्मोदय रूपी निद्रा भग जाती।
और मोहनींद से जग करके प्रबुद्ध अवस्था है पाती।।
इसलिए कहें आचार्यप्रवर जो सुप्रभात अष्टक पढ़ते।
वह सभी अशुभ कर्मों को तज सुख तथा धर्मवृद्धी करते।।८।।

।।इति सुप्रभाताष्टक स्तोत्र।।

अट्ठारहवाँ अधिकार

श्री शांतिनाथ स्तोत्र

(८३९) जिनके सिर पर इंद्रों द्वारा त्रय छत्र सुशोभित होते हैं।
त्रैलोक्यपति हैं शांतिनाथ इस बात को सूचित करते हैं।।
जिनने निज केवलज्ञान की उज्जवल कांति से सूर्य प्रभा को भी।
लज्जित कर दिया तथा कर्मों से रहित करे हम सबको भी।।
ऐसे श्री शांतिनाथ भगवन हम सबकी भी रक्षा करिए।
मैं शीश झुका वंदन करती मेरे सब दोष क्षमा करिए।।१।।

(८४०) देवों द्वारा ताड़ित दुंदुभि जग को मानो यह बता रही।
यदि सब पदार्थ के ज्ञाता दृष्टा हैं तो शांतिनाथ जी ही।।
तीनों लोकों के अधिपति हैं इनके ही वचन सर्वसम्मत।
निंह अन्य कोई देवाधिपती श्री शांतिनाथ सब कर्म रहित।।
ऐसे श्री शांतिनाथ भगवन हम सबकी भी रक्षा करिए।
मैं शीश झुका वंदन करती मेरे सब दोष क्षमा करिए।।२।।

(८४१) जिस समय प्रभू को देवांगना आ करके नमस्कार करतीं।
उनके रत्नों के आभूषण की किरण से जो आभा निकली।।
उससे झिलमिल नभ में मानो ही इंद्रधनुष बन जाता है।
श्री शांतिनाथ का िंसहासन उस सम ही प्रभा दिखाता है।।
ऐसे श्री शांतिनाथ भगवन हम सबकी भी रक्षा करिए।
मैं शीश झुका वंदन करती मेरे सब दोष क्षमा करिए।।३।।

(८४२) जब पुष्पवृष्टि होती प्रभु पर तब ऐसा मालुम पड़ता है।
उसकी सुगन्धि से जो भौंरे गुंजार रहे यूं लगता है।।
देवेन्द्र नरेन्द्र आदि आकर भगवन की स्तुति करते हैं।
उनकी स्तुति की ईर्षावश वह पुष्प ही स्तुति करते हैं।।
ऐसे श्री शांतिनाथ भगवन हम सबकी भी रक्षा करिए।
मैं शीश झुका वंदन करती मेरे सब दोष क्षमा करिए।।४।।

(८४३) प्रभु के भामंडल के आगे चंदा सूरज ऐसे लगते।
क्या ये दो जुगनू हैं अथवा अग्नी के फुिंलगे ही दिखते।।
अथवा ये श्वेतमेघ के दो टुकड़े हैं ऐसा लगता था।
वह शांतिनाथ का भामंडल देवों को ऐसा लगता था।।
ऐसे श्री शांतिनाथ भगवन हम सबकी भी रक्षा करिए।
सब कर्मों से हैं मुक्त आप हमको भी कर्ममुक्त करिए।।५।।

(८४४) श्री शांतिप्रभु का तरु अशोक उन पर फूलों के जो गुच्छे।
उन पर बैठे जो भ्रमर लगें यशगान कर रहें प्रभु का वे।।
वायू से कंपित लता वृक्ष की ऐसी लगती थी मानो।
हाथों को हिलाकर नृत्य करे कवि की ही कल्पना ये जानो।।
ऐसे श्री शांतिनाथ प्रभुवर हम सबकी भी रक्षा करिए।
सब कर्मों से हैं मुक्त आप हमको भी कर्ममुक्त करिए।।६।।

(८४५) सारे जग को पवित्र करने वाली वरदायी वागीश्वरि माता!।
जिसके मुख से हैं प्रगट हुई ऐसे हे शांती के दाता।।
वे शांतिनाथ भगवन जिनकी अर्थीजन सेवा करते हैं।।
जो अतिशीतल हैं अरु जिनकी सुरगण भी स्तुति करते हैं।।
सब कर्म रहित हे शांतिनाथ ! हम सबकी भी रक्षा करिए।
मैं शीश झुकाकर नमती हूँ मेरे सब दोष क्षमा करिए।।७।।

(८४६) सब आभूषण से सहित देव जिन प्रभु पर चमर ढोरते हैं।
चंदा की किरणों के समान वे निर्मल रूप को धरते हैं।।
पर तीन लोक के नाथ शांतिप्रभु की न कोई भी इच्छा है।
वे सब प्रकार के दोष रहित हम सबकी करते रक्षा हैं।।
ऐसे प्रभुवर श्री शांतिनाथ को हृदय कमल में ध्याती हूँ।
उनके चरणों में वंदन कर नितप्रति मैं शीश झुकाती हूँ।।८।।

(८४७) सब शास्त्रज्ञान से है जिनकी बुद्धी अत्यन्त विशाल रूप।
ऐसे देवेन्द्र हरी आदिक भी पार न पावें गुणसमुद्र।।
उन केवलज्ञान स्वरूपी श्री शांतिप्रभु की जो स्तुति की।
मैं ‘‘पद्मनंदि’’ भक्तीवश हो मन शांति हेतु ये रची कृति।।
ऐसे भगवन श्री शांतिनाथ ! हम सबकी भी रक्षा करिए।
सब कर्मों से हैं मुक्त आप हमको भी कर्ममुक्त करिए।।९।।

।।इति शांत्यष्टक स्तोत्र।।

उन्नीसवाँ अधिकार

जिन पूजाष्टक

(८४८) जीवों के आश्रित जन्म जरा और मरण रूप त्रय अग्नी है।
संताप बहुत देने वाली अग्नी जैसे दुख देती है।।
उन तीन अग्नि के शांति हेतु त्रयधारा क्षेपण करता हूँ।
जिन प्रभु के चरणों के आगे जलधारा अर्पण करता हूँ।।

जलम्।।१।।

(८४९) जैसे भगवन के वचन सभी संसार ताप को हरते हैं।
उतना यह शीतल चंदन भी नहिं ताप जगत का हरते हैं।।
इसलिए प्रभू मेरे द्वारा यह केशर मिश्रित चंदन जो।
चरणों में अर्पित करता हूँ जिससे फल मिले अिंकचन जो।।

चंदनं।।२।।

(८५०) जो इंद्रिय रूपी धूर्तों के वश में है नहीं वही तुम हो।
इसलिए तुम्हें आश्रित करके जो दी अक्षत की राशि प्रभो।।
क्योंकी वीरों के शिर पर बंधा पट्ट जैसे शोभा पाता।
डरपोक के शिर पर बंधा पट्ट वैसी शोभा नहिं है पाता।।

अक्षतं।।३।।

(८५१) प्रभु कामदेव से रहित अत: तुम ही अपुष्पशर कहलाते।
बाकी जो अन्य देव जग के वे सभी पुष्पशर कहलाते।।
इसलिए जिनेन्द्र प्रभू के ही चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ।
उनके ही पुष्प मनोहर हैं इसलिए उन्हीं को ध्याता हूँ।।

पुष्पं।।४।।

(८५२) जिन देव इंद्रियों के बल को सर्वथा नष्ट करने वाले।
और यह नैवेद्य इंद्रियों के बल को पुष्टित करने वाले।।
खाने के योग्य मगर प्रभुवर के सम्मुख चढ़ा हुआ नैवेद्य।
शोभा को प्राप्त किया करता नेत्रों को भाता है नैवेद्य।।

नैवेद्यं।५।।

(८५३) चंचल है अग्निशिखा जिसमें वह आरति ऐसी लगती है।
जिनवर के स्वच्छ शरीर में वो प्रतिबिम्बित होती रहती है।।
मानो प्रचंड ध्यानाग्नि सभी अवशेष कर्म को ढूंढ रही।
उन कर्मों को भी भस्म करूं जो है अघातिया कर्म अरी।।

दीपम्।।६।।

(८५४) जो धूप का धुँआ पैâल रहा वह ऐसा मालुम पड़ता है।
मानो वह दिशारूप स्त्री के मुख पर रचना करता है।।
कस्तूरी के रस की रचना पत्ते सी रचना होती है।
दोनों का रंग एक जैसा हिलमिल कर नृत्य कर रही हैं।।

धूपम्।।७।।

(८५५) यद्यपि सबसे ऊँचा एवं अमृत सम मोक्षमयी फल है।
फिर भी प्रभु की पूजा खातिर मैं लाया कई सरस फल है।।
यद्यपि जिनवर की भक्ती ही सब फल को देने वाली है।
फिर भी हम मोह के वश होकर उत्तम फल लेकर आये हैं।।

फलम्।।८।।

(८५६) जो तीनों लोकों में सबको शांती को देने वाले हैं।
और निर्मल केवलज्ञान रूप नेत्रों को धरने वाले हैं।।
शास्त्रानुसार पूजन करके मेरा मन अति आनंदित है।
स्तोत्र पाठ आदिक करके अर्पण करता पुष्पाञ्जलि है।।

पुष्पांजलि:।।९।।

(८५७) श्री ‘‘पद्मनंदिमुनि’’ ने भगवन गुणगान जो तेरा गाया है।
उससे निंह तुम्हें प्रयोजन कुछ कृतकृत्यपने को पाया है।।
फिर भी हम सब अपने स्वारथ की सिद्धि हेतु पूजा करते।
जैसे किसान खेती को अपने लिए न भूप हेतु करते।।१०।।

।।इति पूजाष्टक।।

बीसवाँ अधिकार

करुणाष्टक

(८५८) हे त्रिभुवनगुरु कर्मारिजयी! परमानंद मुक्ती के दाता।
मुझ िंककर पर करुणा करिए निज सम कर लो जग के त्राता।।१।।

(८५९) हे घातिकर्मनाशक अर्हन्! जग के बहु दुख से खिन्न हूँ मैं।
मुझ दीन पे ऐसी दया करो नहिं जन्म मरण अब पाऊँ मैं।।२।।

(८६०) हे प्रभो! भयंकर जगत कूप से मेरा अब उद्धार करो।
मैं पुन: पुन: याचना करूँ मेरा भवसागर पार करो।।३।।

(८६१) तुम ही स्वामी करुणाकर हो भवि जीवों के शरणागत हो।
मैं रो-रोकर विनती करता मेरा अभिमान नष्ट कर दो।।४।।

(८६२) जो गाँवपती भी होता है वो भी दुनिया का दुख हरता।
फिर हे जिनेन्द्र ! खलकर्मों के दु:ख क्यों नहिं तू मेरे हरता।।५।।

(८६३) हे प्रभो ! सभी में मूलभूत बस एक वचन ये कहना है।
मैं बहुत दुखी हूँ इस जग में अब और यहाँ नहिं रहना है।।६।।

(८६४) हे प्रभो ! जगतरूपी आतप से मैं संतप्त दुखी तब तक।
जब तक न मिले करुणारूपी शीतल जल से ये चरण कमल।।७।।

(८६५) इस जग के एक शरण हे प्रभु ! बस यही प्रार्थना करते हैं।
‘‘श्री पद्मनंदि’’ ने गुण गाए निंह और किसी में ऐसे हैं।।८।।

।।इति करुणाष्टक।।

इक्कीसवाँ अधिकार

क्रियाकांड चूलिका

(८६६) जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण अरु समता शील क्षमागुण है।
हे भगवन् ! ये गुण तव आश्रित निंह कोई आपमें अवगुण है।।
उन अवगुण को अभिमान यही सारा जग मुझको ग्रहण करे।
केवल बस एक जिनेश्वर हैं सर्वथा जो मुझसे अलग रहें।।१।।

(८६७) तुम में हैं गुण अनंत एवं तुम तीन भुवन के स्वामी हो।
फिर भी जो कविता करे और निज को माने बहुज्ञानी हो।।
वह बुद्धिमान बुद्धी भ्रम से अम्बर का अंत पाने हेतू।
सैकड़ों वृक्ष की चोटी पर चढ़ जाये न उसको मिलता तू।।२।।

(८६८) तेरे चरणों की बड़े-बड़े पंडित आकर पूजन करते।
तुम सब विद्याओं के स्वामी फिर भी जो तव स्तुति करते।।
यद्यपि नहिं कोई समर्थ प्रभो ! केवल भक्ती ही कारण है।
इसलिए वे पूजन करते हैं हो जाएं दुख निवारण हैं।।३।।

(८६९) जो भक्त आपका मन वच से स्मरण और स्तुति करता।
उसको जग की सब सिद्धि प्राप्त हो जाती नहिं कोई िंचता।।
वह स्तुति उत्तम है अथवा मध्यम जघन्य वैâसी भी है।
भक्तों को उत्तम फल देती नहिं इसमें कुछ संशय ही है।।४।।

(८७०) हे जिनवर ! इस भव में अथवा परभव में आप मुझे मिलिए।
तेरे चरणों की सदाकाल सेवा मैं करूं यह फल चहिए।।
इसके न अधिक कुछ इच्छा है नहिं और कामना है मेरी।
इतनी ही याचना करता हूँ और यही भावना है मेरी।।५।।

(८७१) जब आगम से हो तत्त्वज्ञान निश्चय से मोक्ष की प्राप्ती हो।
लेकिन इस पंचमकाल में नहिं होता है तत्त्वज्ञान ही वो।।
असमर्थ और दुर्गंधयुक्त इस काय से निंह चारित पलता।
इसलिए विनयपूर्वक मेरी भक्ती तुममें ही हो कहता।।६।।

(८७२) वृद्धावस्था सब काया की कांती को नष्ट किया करती।
एवं इंद्रियाँ बहुत समयों में होकर शिथिल न कुछ करतीं।।
जग में दुख होता है होवे सब कुछ विनष्ट भी यदि होवे।
यह सब कुछ हो पर भक्ति मेरी, हे प्रभू कभी भी न कम होवे।।७।।

(८७३) हे प्रभो ! जगत में रत्नत्रय रूपी जो त्रयी है मिली मुझे।
उससे सब पाप नष्ट होवें बस यही याचना है तुमसे।।
पर इससे भिन्न कोई वस्तू मैं नहीं मांगता हूँ तुमसे।
क्योंकि जग में नहिं कोई वस्तु जो पहले नहीं मिली मुझसे।।८।।

(८७४) हे श्री जिनेन्द्र ! तव चरण कमल यदि मुझको प्राप्त हो गये हैं।
जो सुक्ख अतीन्द्रिय देते हैं तो प्रभु हम धन्य हो गये हैं।।
सब आकुलता से रहित शांत आपत्तिरहित पुण्यात्मा हूूँ।
मैं ज्ञानी हूँ ऐसा अपने को अब से सदा मानता हूँ।।९।।

(८७५) सम्यक्त्व आदि रत्नत्रय में तप में एवं दश धर्मों में।
अरु मूल तथा उत्तरगुण में और तीन प्रकार गुप्तियों में।।
जो कुछ अभिमान तथा प्रमाद से मैंने दोष लगाया हो।
वह सब प्रभु ! कृपादृष्टि करके मेरे सब दोष क्षमा कर दो।।१०।।

(८७६) मन वचन काय से हे जिनवर! जो जीवों को पीड़ा दी है।
अथवा प्रमाद अभिमान में आकर दूजे से दिलवाई है।।
वा जीवों को पीड़ा देने वालों को अच्छा बोला हो।
इन सब द्वारा जो किए पाप वह पाप मेरे सब मिथ्या हों।।११।।

(८७७) खोटे पदार्थ की िंचता से एवं खोटे परिणामों से।
संवर कर रहित शरीर से अरु बोले गये खोटे वचनों से।।
जो मैंने नाना कर्मों का संचयन किया हे प्रभो! उन्हें।
तब चरण कमल की स्मृति ही वे सारे पाप नष्ट कर दें।।
प्रभु चरण कमल की स्मृति जब है मोक्ष संपदा दिलवाती।
तब पाप कर्म क्षय करने में क्यों नहीं शक्ति उसमें आती।।१२।।

(८७८) सर्वज्ञदेव की जो वाणी स्याद्वादमयी कांती से युत।
जिसकी मनुष्य सुर नागदेव स्तुति करते हैं परिकरयुत।।
जो तीनों लोकों कालों में सब तत्त्वों को बतलाती है।
ऐसी वह दीपशिखा समान वाणी उत्कृष्ट कहाती है।।१३।।

(८७९) हे माता सरस्वती ! मुझसे जो मन वच काय विकलता से।
जिनपति अरु श्रुत की स्तुति में जो मुझसे हुई हीनता है।।
उसको हे माता क्षमा करो क्योंकी अनेक भव की जड़ता।
उनके कारण जो कर्म लगे नहिं आने देते चातुरता।।१४।।

(८८०) जो कल्पवृक्ष की शाखा के है अग्रभाग में लगा हुआ।
पल्लव जैसे अभीष्ट फल को है देने वाला कहा गया।
वैसे ही ‘‘क्रियाकाण्ड’’ रूपी जो कल्पवृक्ष की शाखा पर।
है लगा हुआ फल भव्यों को देने वाला है इस भू पर।।१५।।

(८८१) जो भव्य जीव इस क्रियाकाण्ड संबंधि चूलिका तीन समय।
पढ़ते हैं आगे भी पढ़ लें सब कार्य पूर्ण होंगे असमय।।
जो मन वच काया के विकल्प से है अपूर्ण जो क्रिया कही।
भव्यों की पूर्ण तुरत होगी ऐसे जिनवर के वचन सही।।१६।।

(८८२) हे तीन भुवन के चूड़ामणि ! जग के भय से भयभीत हुआ।
मैं शरण आपकी आया हूँ इस हेतु आपको नमन किया।।
जग की पीड़ा के नाश हेतु जो तत्व कहे विद्वानों ने।
उनको अंतर में धार लिया तुम ही जग के नशने वाले।।१७।।

(८८३) हे अर्हन् ! जैसे सूर्यकिरण कमलों को आनंदित करती।
वैसे ही तव वचनामृत की किरणें मुझमें प्रकाश भरतीं।
इसलिए सूर्य सम आप प्रभो ! जो कुछ तेरी स्तुती करी।
वह सब मेरी वाचालता उसमें बस भक्ती कारण ही।।१८।।

।।इति क्रियाकाण्ड चूलिका।।

बाइसवाँ अधिकार

एकत्व भावना

(८८४) जो परम तेज स्वानुभवगम्य जो आत्म रूप के ज्ञाता हैं।
इसलिए आत्मा का स्वरूप ज्ञानी को सुन्दर लगता है।।
है वचन अगोचर तेज कहा और मन से भी वो अगोचर है।
उस परम तेज चैतन्यरूप का अब हम वर्णन करते हैं।।१।।

(८८५) जो भव्य जीव एकत्व रूप से आत्म तत्त्व का है ज्ञाता।
वह नहीं किसी को भी पूजे खुद ही सबसे पूजा जाता।।२।।

(८८६) जिस तरह धीर धी पुरुष नहीं सागर के जल से भय खाता।
वैसे ही योगी बहुत तरह के कर्मों से नहिं भय खाता।।३।।

(८८७) चैतन्यैकत्व का ज्ञान बड़ा दुर्लभ है मोक्ष का दाता है।
इसलिए जिसे चैतन्यज्ञान हो जाए उसी को ध्याता है।।४।।

(८८८) सब काम भोग की बंध कथा सबने ही सुनी और जानी।
एकत्वविभक्त आत्मा की है कथा जो दुर्लभ नहिं जानी।।५।।

(८८९) साक्षात सुक्ख तो मोक्ष में है उसका अभिलाषी ही पाता।
इस जग में जो सुख दिखता है वह सुख है नहीं दु:खदाता।।६।।

(८९०) इस जग संबंधी कोई वस्तु निश्चय से नहीं हमें प्रिय है।
पर श्री गुरु के उपदेश से जाना हुआ मोक्षपद ही प्रिय है।।७।।

(८९१) मोहोदय विष से व्याप्त स्वर्ग का सुख भी चंचल नश्वर है।
फिर और सुखों का क्या कहना जग के सुख सभी विनश्वर हैं।।८।।

(८९२) जो श्रेष्ठ बुद्धि का धारक मुनि आत्मा में स्थित रहता है।
वह परभव में है गया हुआ वैसा ही विचरण करता है।।९।।

(८९३) जिस उत्तम मुनि ने वीतराग पथ पर ही गमन किया हो वे।
नहिं विघ्न कोई भी मिलता है उनको मुक्ती के मारग में।।१०।।

(८९४) इस तरह एकचित हो करके जो सदा भावना करता है।
वह मुनि ही मोक्षरूप लक्ष्मी को शीघ्र वरण कर लेता है।।११।।

(८९५) नरभव का फल यदि धर्म कहा तो धर्म मेरे ही अंदर है।
फिर आपत्ती के आने पर निंह मुझे मरण से भी डर है।।१२।।

।।इति एकत्व भावना।।

तेईसवाँ अधिकार

परमार्थ विशन्ति

(८९६) इस जग में काल अनंत भ्रमण कर मोह द्वेष रति के आश्रित।
जो हैं विकार उनको सबने देखा और सुना व अनुभवगत।।
पर भगवन आत्मा के अद्वैत को देखा सुना नहीं जाना।
इसलिए एक उत्कृष्ट तत्व जयवंत रहे ये है माना।।१।।

(८९७) जो अंतर बाह्य विकल्परहित शुद्धैक चिदानन्द आत्मा है।
परमात्म प्रीति करने वाली कृतकृत्य रूप परमात्मा है।।
उसको नहिं जरा आदि ज्वालायें भस्म कभी कर सकती हैं।
क्योंकी आनन्त्यचतुष्टय रूपी नदि में स्थित रहती हैं।।
जैसे पानी में आग कभी भी नहीं लगा सकता कोई।
ऐसी आत्मा को नमन करूं नहिं भस्म जिसे कर सके कोई।।२।।

(८९८) एकत्व स्थिती में बुद्धि के जाने से जो होता है।
उस आत्मज्ञान के होने से आनंद बहुत ही होता है।।
जब वही बुद्धि कुछ समयों तक सब शील गुणों के संग रहे।
तो निश्चय ही परमात्मा के आनंद को ही वह वरण करे।।३।।

(८९९) मेरे आश्रित जो मित्र कहे उनसे निंह कोई कार्य मुझे।
फिर प्रेम दूसरों से भी क्यों जब निज तन से नहिं राग मुझे।।
सब स्त्री पुत्र मित्र जग के संयोग से उनके कष्ट हुआ।
इसलिए अकेला उदासीन एकान्तवास ही सुखद हुआ।।४।।

(९००) जो जान देखकर भी सब कुछ चैतन्य रूप नहिं तजता है।
वह मैं हूँ अन्य पदार्थ कोई जग से न कोई भी ममता है।।
यह क्रोधादिक व शरीर आदि कर्मों से जनित सभी कुछ है।
इसलिए सैकड़ों शास्त्रों को सुनकर भी मन ये अस्थिर है।।५।।

(९०१) इस दुषमकाल में हीन संहनन से परिषह नहिं सह सकता।
और प्राय: करके तीव्र तपों को यह शरीर नहिं कर सकता।।
एवं निंह होते हैं अतिशय दुष्कर्म बराबर दुख देते।
इसलिए सभी पदार्थ पर हैं यह ही ज्ञानी विचार करते।।६।।

(९०२) यद्यपि आत्मा के संग कर्म है नीर क्षीर के सदृश मिले।
फिर भी यह आत्मा ज्ञान दर्श और परमानंद स्वरूप खिले।।
स्फटिकमणी के पास कोई काली वस्तू ज्यों रखी जाये।
तो भी वो कालिमा भिन्न रहे निंह मणि काली होने पाये।।७।।
(इसी का आशय-समयसार में भी कहा है)

(९०३) इस मानव के वर्णादि तथा रति मोह आदि जो भाव कहे।
वे सब हैं भिन्न अत: जो नर अंतस के तत्त्व को देख रहे।।
उनके ये भाव नहीं होते उनको बस एक तेज दिखता।
वह परमतेजधारी आत्मा इस जग में सदा सुखी रहता।।८।।

(९०४) यति का संबंध अगर पर से हो तो यतिपना नहीं रहता।
फिर श्रीमंतों के साथ अगर संबंध हुआ बहु दुख देता।।
जैसे मदिरा पीने वाला उन्मत्त हुआ सा राजा भी।
यदि यति संबंध रखे उससे तो घोर कष्ट को पाता ही।।९।।

(९०५) यदि नित्यानंदप्रदायक श्रीगुरु के हैं वचन मेरे मन में।
तब मुनिजन प्रीति करें न मुझे अथवा गृहस्थ नहिं भोजन दे।।
धन भी निंह मेरे पास रहे मेरा शरीर भी रोगी हो।
और नग्न देखकर हँसे सभी पर मुझको खेद कभी ना हो।।१०।।

(९०६) जो भवरूपी वन तरह-तरह के दुखरूपी गज अजगर से।
है व्याप्त तथा िंहसा असत्य चोरी रूपी दुख वृक्षों से।।
भीलों के दुर्गति रूपी खोटे मार्ग से हमें निकाले जो।
ऐसे सद्पथदाता गुरु के वचनों से पाये मुक्तीपथ को।।११।।

(९०७) जीवों में जो सुख-दुख होते वे सब कर्मों के कार्य कहे।
ये कर्म ही है जो आत्मा से हैं भिन्न योगिजन जान रहे।।
इस तरह भेदविज्ञानी जो योगी निंह तनिक विकल्प करे।
मैं सुखी तथा मैं दुखी नहीं ऐसे भावों से विरत रहे।।१२।।

(९०८) जब तक हम सब व्यवहार मार्ग में स्थित हैं ये मान रहे।
देवों को उनकी प्रतिमा को गुरु को मुनिगण को मान रहे।।
पर निश्चय से एकत्व रूप चैतन्य तत्व इक आत्मा है।
उत्कृष्ट तत्त्व है नहिं इससे कोई भिन्न अत: परमात्मा है।।१३।।

(९०९) चाहे वर्षा सुख नष्ट करे और बर्फ भी तन को पीड़ा दे।
आताप सूर्य का तप्त करे और दंशमशक भी दुख देवें।।
अरु जो भी बचे हुए परिषह उनसे भी भले मरण होवे।
निंह कोई भय इन सबसे हो बुद्धी मेरी निश्चल होवे।।१४।।

(९१०) जिस तरह किसी वैरी द्वारा हो नष्ट गाँव को देखके भी।
राजा निंह िंचता करता है त्यों शक्तिमान है आत्मा भी।।
इन्द्रिय रूपी किसान द्वारा रूपादि कृषी की जो जमीन।
यह सब कुछ नष्ट हुआ करता निश्चय से यही करता यकीन।।१५।।

(९११) कर्मों के क्षय से उपशम से अथवा गुरु के उपदेशों से।
जो आत्मा का एकत्व रूप है बोधिज्ञान का निलय कहे।।
सब परिग्रह से है रहित तथा जिसका मन आत्म साधना में।
ऐसा वह जल में भिन्न कमल सदृश रहता है इस जग में।।१६।।

(९१२) गुरु के चरणद्वय से प्रदत्त मुक्तीपदवी की प्राप्ति हेतु।
निर्ग्रंथपने का जो सुख है वह इंद्रियसुख में नहीं होय।।
क्योंकी जब तक अत्यंत मिष्ट शर्करा प्राप्त नहिं होती है।
तब तक ही खल अति मिष्ट लगे पश्चात् न मीठी लगती है।।
अति निर्मल ध्यान के आश्रय से वृद्धिंगत जो निर्ग्रंथ सुक्ख।
स्मरण करेगा क्यों फिर खोटे ध्यान से प्राप्त जो इंद्रिय सुख।।
ऐसा धीमान कौन होगा जो शीत बावड़ी पा करके।
अग्नी से घिरे हुए घर से बाहर हो पुन: प्रवेश करे।।१७।।

(९१३) उत्पन्न मोह से मोक्ष की भी अभिलाषा यदि की जाती है।
वह भी मुक्ती की क्षयकारक इच्छा निषिद्ध कहलाती है।।
इसलिए शुद्ध निश्चयनय का आश्रय जो मुनिगण करते हैं।
वह तत्त्वज्ञान में दत्तचित्त परिग्रह निंह िंकचित धरते हैं।।१८।।

(९१४) आनंद रूप शुद्धात्मा का िंचतन होने पर जो रस है।
वह विरस रूप लगने लगते गोष्ठी की कथा के जो रस हैं।।
सब विषय नष्ट हो जाते हैं तन से भी प्रीति नहीं करती।
सब दोष नष्ट मन के होते वाणी भी मौन रूप धरती।।१९।।

(९१५) निश्चयनय से तो तत्त्व१ वच्ान से कहे नहीं जा सकते हैं।
लेकिन व्यवहार मार्ग से शिष्यों को समझाए जाते हैं।।
फिर भी उस तत्त्व के व्याख्या की नहिं मुझमें कोई प्रौढ़ता है।
इसलिए मौन धारण कर लूं निंह और अधिक अब क्षमता है।।२०।।

।।इति परमार्थविंशति अधिकार।।

चौबीसवाँ अधिकार

शरीराष्टक

(९१६) दुर्गंध और अपवित्र धातु रूपी भीतों से बना हुआ।
यह तन रूपी झोपड़ा है जो वह चर्म धातु से ढ़का हुआ।।
अरु इसमें क्षुधा आदि दुखमय चूहों ने छिद्र बना रखे।
अत्यन्त क्लिष्ट मल मूत्रादिक से भरा हुआ क्यूं शुचि समझे।।
इसके चउ तरफ जरा रूपी अग्नी जल रही मगर फिर भी।
बस मूर्ख जीव स्थिर समझे और माने इसमें शुचिता भी।।१।।

(९१७) दुर्गंधमयी कृमि कीट जाल से व्याप्त सदा नव रस बहता।
उत्तम जल से स्नान करे फिर भी रोगों का घर रहता।।
जिसकी औषधि है अन्न तथा पट्टी वस्त्रादिक होती है।
नाडीव्रण की संज्ञा ऐसे मानव के तन की होती है।।
तब भी आश्चर्य बड़ा होता ऐसे शरीर से राग करे।
जिसमें है घाव समान रक्त और पीव आदि चउ ओर बहे।।२।।

(९१८) होता है सभी मनुष्यों का तन सदा अशुचि ऐसा जानो।
स्नान और चंदन लेपन कर इसको क्यों पवित्र मानो।।
इसलिए कभी विद्वान पुरुष इनसे नहिं तन को शुद्ध करें।
तन का वास्तविक रूप लखकर तप द्वारा उसे विशुद्ध करें।।३।।

(९१९) यह तन कड़वी तूमड़ी सदृश उपभोग योग्य नहिं रहता है।
यदि इस काया में मोह और कूजन्म छिद्र ना रहता है।।
तपधर्म धूप से शुष्क हुआ अभिमान नहीं अंतर में हो।
तब यह भव नदी पार करने में प्राणी बनता सक्षम हो।।
इसलिए तो ऐसी काया में चंदन का लेपन व्यर्थ कहा।
तप सहित तथा अभिमान रहित प्राणी को मुक्ती मिले अहा।।४।।

(९२०) तत्त्वों को दर्शाने वाले गुरु वचन अगर मेरे मन में।
तो यह शरीर चाहे जैसा भी रहे नहीं िंचता मन में।।
उनके अनुभव से बहुत जल्द अविनाशी मुक्तिरमा वरती।
जो देती है आनंद बहुत और बहुत असाधारण होती।।५।।

(९२१) ऐसा श्रीमान् कौन होगा जो तन की खातिर पाप करे।
और अंत समय में लट आदिक कीड़ों से व्याप्त तन प्राप्त करे।।
अग्नी से भस्मस्वरूप तथा नहिं नित्य कभी भी रहता ये।
मछली के खाने से विष्ठा में परिणत हो जाता तन ये।।
विष आदि रसायन खाकर भी यह देह नष्ट हो जाती है।
इस तरह अनेकों पापों से आगे दुर्गति मिल जाती है।।६।।

(९२२) जिस तरह लोह के आश्रय से अग्नी घन से पीटी जावे।
वैसे ही संसारी प्राणी तन के निमित्त से दुख पावे।।
इसलिए मुमुक्षूजन कोई युक्ती से तन का त्याग करे।
जिससे इस आत्मा को जग में तन धर कर भ्रमण नहीं होवे।।७।।

(९२३) यह मानव तन की रक्षा अरु पोषण में सदा लगा रहता।
पर वृद्धावस्था इस शरीर को जर्जर सदा किया करता।।
आपस में ईर्ष्या है जिसके इस जन्म मरण के मध्यकाल।
वह कालसेविका वृद्धावस्था कब तक इसको रखें संभाल।।८।।

।।इति शरीराष्टक।।

पच्चीसवाँ अधिकार

स्नानाष्टक

(९२४) जिसके संबंध मात्र से ही उत्तम पुष्पों की माला भी।
स्पर्श योग्य नहिं रहती है जिसमें मलमूत्र भरा है ही।।
वीभत्स अती दुर्गंधयुक्त रस आदिक से जो बना हुआ।
आत्मा को मलिन करे ये तन फिर वैâसे जल से शुद्ध हुआ।।
सारे जग के जितने पदार्थ अपवित्र इसी में भरे हुए।
फिर वैâसे इस स्नान आदि से मानव के तन शुद्ध हुए।।१।।

(९२५) आत्मा स्वभाव से अति पवित्र इससे स्नान को व्यर्थ कहा।
और तन सदैव अपवित्र अत: मन का स्नान भी व्यर्थ कहा।।
जब दोनों ही स्नान व्यर्थ कहते हैं श्री आचार्यप्रवर।
पृथ्वीकायिक औ जलकायिक जीवों के घात से पाप प्रचुर।।२।।

(९२६) पूर्वोपार्जित जो कोटि पाप उससे संबंधित है मिथ्यात्व।
उस ही मिथ्यात्व को जो विवेक से तजता है वह है स्नान।।
पर उससे भिन्न जलादिक से स्नान पाप करने वाला।
जीवों का केवल घात करे ना हो पवित्र नहिं धर्म पला।।३।।

(९२७) हे भव्य ! सदा स्नान करो परमात्मा नामक तीरथ में।
जिसमें है सम्यग्ज्ञान रूप जल और तरंगें शुभ निकलें।।
आनंददायि शीतलतायुत और पाप नाश करने वालीं।
गंगा प्रयाग की नदियों से शुद्धता नहीं मिलने वाली।।४।।

(९२८) अपने पापों की कृपा से नहिं निश्चय रूपी तालाब दिखा।
निंह समतारूपी नदी दिखी और ज्ञान का सागर नहीं दिखा।।
इसलिए मूर्खजन तीर्थ समझ गंगा नदि में स्नान करें।
पर नहीं वास्तविक तीरथ में जाकर पापों का नाश करें।।५।।

(९२९) निंह कोई तीर्थ निंह कोई जल त्रिभुवन में जो तन शुद्ध करे।
क्योंकी अपवित्र शरीर सदा आधी-व्याधी से व्याप्त रहे।।
और सदा ताप करने वाला निंह नाम श्रवण कर सकते हैं।
ऐसे खराब तन को कोई भी शुद्ध नहीं कर सकते हैं।।६।।

(९३०) इस जग में जितने तीरथ हैं और उनमें जितनी नदियाँ हैं।
उन सबके भी स्नानों से नहिं शुद्ध हुई ये काया है।।
कर्पूर विलेपन से भी यह निंह हो सुगन्ध दुर्गंध रहे।
चाहे जितनी रक्षा करिए यह सदा नष्ट हो करके रहे।।
अरु यह शरीर नाना प्रकार के दुख को देने वाला है।
इस तन से अधिक न कोई अशुभ हर क्षण दुख देने वाला है।।७।।

(९३१) जो प्रबल दर्शनावरण मोह रूपी विषधर से डसे गये।
मिथ्यात्व रूप विष के संबंध से जो प्राणी अति दुखी भये।।
अतएव दृष्टि हो गयी मंद वे सब अमृत का पान करें।
जो ‘‘पद्मनंदि’’ के मुखरूपी चंदा से निकला ज्ञान रहे।।
यह ‘‘स्नानाष्टक’’ रूपी अमृत पीकर सदा सुखी रहिए।
मिथ्यात्व त्याग कर मोहरूप सर्पों से सदा बचे रहिए।।८।।

।।इति स्नानाष्टक।।

छब्बीसवाँ अधिकार

ब्रह्मचर्याष्टक

(९३२) जिस मैथुन के करने से ही संसार की ही वृद्धी होती।
एवं समस्त जीवों को जो अत्यन्त दुखी करती रहती।।
जिसे सज्जन पुरुषों ने अपनी पत्नी संग उचित नहीं माना।
फिर दूजी स्त्री के संग में मैथुन बिल्कुल अनुचित माना।।१।।

(९३३) जो मैथुन में अति रत रहते साक्षात पशू कहलाते हैं।
इस मैथुन को पशुकर्म कहा विद्वतजन यही बताते हैं।।
गुण दोष विचारे बिना हर समय इसमें जो प्रवृत्त रहता।
उसको अगले भव में पशुगति मिलती ऐसा साधू कहता।।

(९३४) सज्जन पुरुषों को यदि अपनी स्त्री संग मैथुन शुभ होता।
फिर पर्व दिनों में वह मैथुन सोचो वैâसे वर्जित होता।।
जिस समय अष्टमी और चतुर्दशि में व्रत धारण करते हैं।
उस समय परायी स्त्री क्या निज स्त्री संग निंह रहते हैं।।३।।

(९३५) जब काम की उत्पत्ती होती तब दो तन का मिलाप होता।
और दो अपवित्र शरीरों का आपस में संघर्षण होता।।
उस परिघट्टन से अति अशुद्ध फल की प्राप्ती हो इसीलिए।
थोड़े से सुख की प्राप्ति हेतु आदर के योग्य ना इसीलिए।।४।।

(९३६) जब तब आत्मा में मोहनीय कर्मों की प्रबलता रहती है।
चैतन्य का बैरी मोह उसी से काम में प्रीती होती है।।
उसके वश में होकर दोनों अपवित्र रती में रत होते।
इसलिए काम में प्रीती का हरदम निषेध करते रहते।।५।।

(९३७) यह संयम रूपी वृक्ष काटने में कुठार की धारा है।
मैथुन में जब तक हो प्रवृत्ति तब तक संयम भी हारा है।।
इसलिए आत्महित की इच्छा करने वाले जो भी जन हैं।
इसका सर्वथा त्याग कर दें तब उनके पलता संयम है।।६।।

(९३८) जैसे मदिरा पीने वाले पुरुषों के विकृत भाव रहें।
वैसे ही जो पापी जन हैं हरदम मैथुन के भाव रहें।।
लेकिन यह मैथुन कर्म सभी जीवों का सदा अहित करता।
आत्मा का सुख जो चाह रहा वह इसमें नहीं प्रवृति करता।।७।।

(९३९) रे मन तू सदा चपलता तज रति को तजने की कोशिश कर।
क्योंकी ये विषय सौख्य विष सम इसमें नहिं सुख विचार तू कर।।
आचार्य हमें समझाते हैं सुख मान जो इसमें तत्पर है।
इसमें निंह कुशल किसी की है यह विषय भोग सब दु:खकर हैं।।८।।

(९४०) जो जन मुमुक्षु हैं एवं जो जन मुक्ति प्राप्ति के इच्छुक हैं।
उनके ही लिए स्त्रियों की संगति निषेध यह अष्टक है।।
पर जो मनुष्यगण रागमयी सरिता में डूबे रहते हैं।
मुझे मुनी जानकर क्षमा करें इसे अच्छा नहीं समझते हैं।।९।।

।।इति ब्रह्मचर्याष्टक।।

।।इति श्री पद्मनंदि आचार्य विरचित पद्मनंदिपंचविंशतिका समाप्त।।

उपसंहार

तर्ज—माँ बतलाओ आदिनाथ क्यों पूजे जाते हैं……….

पद्मनंदि पंचिंवशतिका को लाई माँ घर में।
सुन सुन करके लिखने का था भाव जगा उर में।।

ज्ञानमती माताजी को पढ़कर वैराग्य हुआ।
छोटी वय में दीक्षा धरकर सब कुछ त्याग दिया।।

मेरे नाना जी ने माँ को जब यह ग्रंथ दिया होगा।
सपने में भी उनने ऐसा ना सोचा होगा।।

इसको पढ़कर मेरी पुत्री जनेगी रत्नों को।
‘‘ज्ञानमती’’ सा रत्न दिया है माँ ने जो जग को।।

मात मोहनी को भी इनने ऐसा ज्ञान दिया।
पाल पोसकर तुमने सबको इतना बड़ा किया।।

अब छोड़ो इस घर की बच्चों की ममता माया।
पति का साथ निभाया अब है कुछ दिन की काया।।

इससे तप कर अपना जीवन सफल करो माता।
जिससे जन्म सफल होगा और मिलेगी सुख साता।।

पिता की मृत्युपरांत नगर अजमेर में जब आई।
ज्ञानमती माताजी ने तब दीक्षा दिलवाई।।

इनके पथ पर चलने को थी दो बहनें आईं।
और रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी जो हैं मेरे भाई।।

मात अभयमति और चंदना को सब जग जाने।
इनके त्याग ज्ञान की महिमा से परिचित सारे।।

बड़े बड़े कार्यों को माँ तुमने अंजाम दिया।
जिससे ‘‘दिव्यशक्ति’’ हो ऐसा जग ने नाम दिया।।

तीर्थ ‘‘हस्तिनापुर’’ से लेकर मांगीतुंगी तक।
जो जो रचनाएँ बनवाई नहीं कहीं अब तक।।

मात मोहिनी और पिताश्री छोटेलाल हुए।
तेरह पुत्र पुत्रियों का परिवार बड़ा है ये।।

‘‘मैना’’ सबसे बड़ी और सबसे छोटी हूँ मैं।
सबका लाड़ प्यार है पाया किया पुण्य मैंने।।

मुझको भी इनकी शिष्या बनने का पुण्य मिला।
सबसे छोटी बहन बनी यह भी शुभ योग मिला।।

सन् सत्तर में शास्त्री की शिक्षा दी थी माँ ने।
उस ही शिक्षण का ऋण लौटाया है माँ मैंने।।

नहीं काव्य व्याकरण ज्ञान है अब मुझको माता।
त्रुटी कहीं रह गई अगर हो क्षमा करो माता।।

छोटी मात चंदनाजी से मिली प्रेरणा थी।
‘‘त्रिशला’’ लिखती रहो हमेशा यह ही शिक्षा दी।।

छब्बिस अधिकारों में सारा जग का सार लिखा।
ऐसा ग्रंथ पढ़ा जब मैंने सब कुछ यहीं मिला।।

‘‘पद्मनंदि’’ आचार्य के द्वारा लिखित ग्रंथ है ये।
उसको ही पद्मानुवाद में जो कर पायी मैं।।

कर्मों के शायद मेरे क्षय हुआ बहुत होगा।
पूर्वोपार्जित पुण्य मेरा ही साथ दिया होगा।।

वरना मैं अज्ञानी वैâसे इतना लिख पाती।
जो जो भूल हुई हो मुझसे क्षमा की हूँ प्रार्थी।।

 

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पद्मनंदीपञ्चविंशतिका पद्यानुवाद


मंगलाचरण

।।‘‘श्री ऋषभदेवाय नम:” ।।
।।”ॐ श्री महावीराय नम:’’।।
।।‘‘श्री ज्ञानमती मात्रे नम:’’।।
।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

मंगलाचरण

श्री नाभिराज सुत ऋषभ को कोटि कोटि प्रणाम।
पुन: ज्ञानमती मात का श्रद्धा से कर ध्यान।।
जिनने पढ़ इस ग्रंथ को किया आत्मकल्याण।
ऐसी माता मोहिनी को मेरा बारम्बार प्रणाम।।

(१) श्री आदिनाथ तीर्थंकर बन कर्मों को नष्ट किया ऐसे।
इक पल में पवन झकोरे से सब काष्ठ समूह जले जैसे।।
उनकी ध्यानाग्नि सूर्य से भी थी अधिक तेज वाली देखो।
जयवंत रहे श्री ऋषभेश्वर विस्तीर्ण कायधारी थे वो।।

(२) करने लायक कुछ कार्य नहीं इसलिए भुजाएं लटका दीं।
जाने को बची न कोई जगह इसलिए खड़े थे निश्चल ही।।
नहिं रहा देखने को कुछ भी इसलिए दृष्टि नासा पर की।
अत्यन्त निराकुल हुए प्रभो इसलिए उन्हें पूजें नित ही।।

(३) जो रागद्वेष अरु अस्त्र शस्त्र विरहित अर्हंत जिनेश्वर हैं।
जो इन सबसे हो सहित देव रहता भयभीत निरन्तर है।।
वह क्या रक्षा कर सकता है हम सबकी जो खुद डरा हुआ।
इसलिए वीतरागी प्रभु के चरणों की मैंने शरण लिया।।

(४) भगवन के चरण कमल जैसे धूली से रहित प्रभा वाले।
इंद्रों के मणिमय मुकुटों की आभा से लगते अति प्यारे।
ऐसे चरणों के वंदन से सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
हैं कमल अचेतन फिर भी प्रभु पदकमल तो पाप नशाते हैं।।

(५) तीनों लोकों के जो स्वामी श्री शांतिनाथ भगवान हुए।
उनके पद में मैं नमन करूँ मन का संताप दूर करिए।।
देवों के नीलमणि से युत मुकुटों की जो कांती रहती।
लगता प्रभु के पदकमलों पर भ्रमरों की ही पंक्ति चलती।।

(६) सब ज्ञाता दृष्टा त्रिभुवन के और क्रोध लोभ से रहित प्रभो।
सत् वचन बोलने वाले वे जिनदेव सदा जयवंत रहो।।
वे मोक्षगमन करने वाले प्राणी के लिए खिवैया हैं।
उत्कृष्ट धर्म को बतलाया जिससे तिरती हर नैया है।।

धर्मोपदेशामृत

(प्रथम अधिकार)

(७) अब आवो बताएँ तुम्हें जिनधर्म की व्याख्या।
सब जीवों पे दया करो उसके हैं भेद क्या।।
दो रूप धर्म मुनि और गृहस्थ के कहे।
फिर रत्नत्रय स्वरूप से त्रयभेद भी कहे।।
इस एकदेश धर्म को गृहस्थ पालते।
उत्कृष्ट रत्नत्रय जो धर्म साधु धारते।।
यहाँ और भी क्षमादि गुण से दश धरम कहे।
उसमें जो आत्मा की परिणति से सुख लहे।।

(८) सब ही व्रतों में मुख्य यह दया ही श्रेष्ठ है।
जैसे बिना जड़ के ठहर सकता न पेड़ है।।
जिसमें नहीं दया वो शून्य के समान है।
निर्दय हृदय को कुछ भी रहता न भान है।।

(९) चिरकाल भवभ्रमण में हम क्या क्या नहीं बने।
माता पिता भाई बहन हम सबके बन चुके।
पिछले भवों के रागद्वेष वश हो मारते।
जन्मान्तरों के बैर को गुरुजन धिक्कारते।।

(१०) यदि किसी दरिद्री से कहिए वह अपने प्राणदान दे दे।
बदले में जितनी चाहे वो मुझसे मेरी संपति ले ले।।
लेकिन जब इसको ठुकरा दे तो समझो तुम हे पुरुषोत्तम।
आहार अभय औषधि व शास्त्र ये चार दान सबसे उत्तम।।

(११) व्रत रहित अव्रती भी यदि हो इस दया भाव से भरा हुआ।
वह स्वर्ग मोक्ष का अधिकारी बन जाता है यह कहा गया।।
लेकिन जो दया रहित प्राणी कितना भी भीषण तप कर ले।
वह पापी ही समझा जाता सब दान पुण्य भी व्यर्थ रहें।।

(१२) जो रत्नत्रयधारी मुनि को भक्ती से उत्तम दान करे।
ऐसे गृहस्थ अरु मुनियों को खुद सुरगण सदा प्रणाम करें।।
क्योंकि मानुष तन द्वारा ही परमेष्ठि साधु बन सकते हैं।
इस तन से ही बस मोक्ष मिले वहाँ इंद्र नहीं जा सकते हैं।।

(१३) जिस घर में पूजा होती है अर्हंत सिद्ध आचार्यों की।
भक्ति से दान दिया जाता निग्र्र्रंथ तपस्वी गुरुओं को।।
करूणा से दान दिया जाता जो दुखी दरिद्र मनुष्य दिखें।
ऐसे गृहस्थ सम्यग्दृष्टि विद्वानों से भी पूज्य हुए।।

ग्यारह प्रतिमाओं के नाम

(१४) आचार्य पद्मनंदि जी ने ग्यारह प्रतिमा बतलाई हैं।
जो दर्शन, व्रत, सामायिक और चौथी प्रोषध कहलाई हैं।।
सचित्तत्याग, रात्रिभोजन सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा।
आरम्भ, परिग्रह व अनुमति त्याग, भिक्षापूर्वक भोजन लेना।।

(१५) श्री समन्तभद्र आदिक आचार्य ने और भी विस्तृत व्याख्या की।
अतएव उपासकाध्ययन ग्रंथ से पढ़ने की भी आज्ञा दी।।
गुरुओं ने सप्त व्यसन त्यागे बिन प्रतिमा लेना व्यर्थ कही।
जो व्यसन रहित सज्जन प्राणी उनको ही पूज्यता प्राप्त हुई।।

सप्तव्यसन के नाम

(१६) -दोहा- जुआँ खेलना, मांस, मद्य, वेश्यागमन, शिकार।
चोरी, पररमणी रमण ये सातों व्यसन निवार।।
इन सातों व्यसनों का क्रमश: आचार्य प्ररूपण करते हैं।
इनसे क्या हानि होती है उसका कुछ वर्णन करते हैं।।
गर उसको समझे प्राणी तो मानव जीवन सार्थक होगा।
आत्मा उत्थान करेगी और परभव में उत्तम फल होना।।

जुआँ का स्वरूप

(१७) इस जुआँ खेलने से जग में अपर्कीित फैलती है सच में।
क्योंकि चोरी वेश्यावृत्ति इन सबका मेल हुआ इसमें।।
जिस तरह राज्य में राजा के आधीन मंत्रिगण होते हैं।।
बस इसी तरह यह जुआँ व्यसन आपत्तीकारक होते हैं।।

(१८) आचार्यों ने सारे व्यसनों में जुआँ को सबसे मुख्य कहा।
क्योंकि इससे बनकर दरिद्र बनकर आगे प्राणी विपदा में घिरा।।
जब विपदा आती तब मानव क्रोधित हो लोभ में फसता है।
इसलिए त्याग कर दो भविजन इससे बस दुख ही मिलता है।

मांस भक्षण का विरोध

(१९) जो सज्जन पुरुषों के द्वारा आँखों से देखा जा न सके।
जो दीन प्राणियों का वध कर खाते उनको हम छू न सके।।
ऐसे सर्वथा अपावन मांसाहार का जो भक्षण करते।
ना जाने कितने पापों का संचय कर नरकगती लहते।।

(२०) यदि कोई अपना पिता पुत्र बाहर से लौट के ना आये।
तो नर हो या फिर नारी हो वह बिलख बिलख कर चिल्लाये।
फिर कैसे मूक प्राणियों का वह माँस बनाकर खाता है।
आती है दया और लज्जा कैसे कट कर चिल्लाता है।।

मदिरा का निषेध

(२१) यह मदिरा पीने वाला भी धन धर्म सभी को नष्ट करे।
नरकों में जाने का भी डर इनको न कभी भी त्रस्त करे।।
यदि समझाने से भी मानव मदिरा सेवन नहिं त्याग करे।
तो समझो वह व्यसनी कोई उत्कृष्ट न कोई कार्य करे।।

(२२) मदिरा पीने वाला मानव माता को भी स्त्री माने।
खोटी चेष्टाएँ कर करके कोई भी बात नहीं माने।।
उससे भी अधिक जब नशा चढ़े तब कुत्ते भी यदि मूत्र करें।
उसको भी मिष्ट मिष्ट कहकर वह पापी उसको गटक रहे।।

वेश्यागमन

(२३) जो मद्य माँस सेवन करती जिनका स्नेह दिखावा है।
विषयी पुरुषों को बहलाकर धन लेकर करे छलावा है।।
ऐसी वेश्याओं का सेवन करने से नरकद्वार खुलता।
धन और प्रतिष्ठा भी खोकर आगे कुछ हाथ नहीं लगता।।

(२४) जैसे धोबी सबके कपड़े इक शिला पे जाकर धोता है।
वैसे ही वेश्या के समीप सब तरह का प्राणी रमता है।।
जिस तरह माँस के एक पिण्ड पर कुत्ते लड़ते रहते हैं।
ऐसे वेश्यागामी पुरुषों को तत्सम उपमा देते हैं।।

शिकार का निषेध

(२५) जो सदा वनों में भ्रमण करें जिनका निज देह सिवा न कोई।
जो तृण खाकर जीवित रहते रक्षक भी जिनका नहिं कोई।।
ऐसे में जो मांसाहारी लोभी शिकार करते मृग का।
इहलोक व्याधियों से पीड़ित परलोक नरक में घर उनका।।

(२६) आचार्य पुन: समझाते हैं इक चींटी जब पीड़ा देती।
तो भी क्यों मानव दयाहीन पशु पक्षी पर कुदृष्टि रहती।।
जो भलीभाँति यह समझ रहे हैं इनको भी पीड़ा होती।
फिर भी ऐसे दुष्कर्म करें फिर इनकी कौन गती होगी।।

(२७) जिनको तुम आज मारते हो भव भव में आगे मारेगा।
जिसको तुम सब ठग रहे आज वह कल तुमसे बदला लेगा।
शास्त्रों का और विज्ञजन का यह ही तो कहना रहा सदा।
पर फिर भी इनमें लगे रहे कुछ भी ना ज्ञान हमें रहता।।

चोरी करने का दोष

(२८) छल कपट दगाबाजी से जो परद्रव्य हड़प कर लेते हैं।
वे प्राणहरण से भी ज्यादा उस प्राणी को दुख देते हैं।।
क्योंकि धन प्राणों से प्यारा होता है सूक्ति कही जाती।
इसलिए कहा है गुरुओं ने, परद्रव्य में प्रीति न की जाती।।

परस्त्री सेवन की हानि

(२९) परस्त्री का सेवन जो करे भय िंचता आकुलता रहती।
संतप्त सदा रहता प्राणी निंह बुद्धि ठिकाने पर रहती।।
क्षुध तृषा रोग से पीड़ित वह जब नरकगती में जाता है।
लोहे की बनी पुतली से आिंलगन करवाया जाता है।।

(३०) इतना ही नहीं स्वप्न में भी जो परस्त्री का ध्यान करे।
आचार्य उसे समझाते हैं ऐसा पौरुष भी व्यर्थ अरे।।
पर धन वनिता दिलवाने में जो बनते बड़े सहायक हैं।
ऐसे मित्रों से दूर रहें दुर्बुद्धी देते घातक है।।

सप्तव्यसन में जिनको हानि हुई

(३१) जो जुएं में सब कुछ हार गये वे हुए युधिष्ठिर राजा हैं।
अरु मांस का भक्षण करने में सब छूटा वे बक राजा हैं।।
मदिरा पीने से यदुवंशी राजा के पुत्र विनष्ट हुए।
वेश्यासेवन में चारुदत्त होकर दरिद्र अतिकष्ट सहें।।
ब्रह्मदत्त नाम के राजा भी करके शिकार पदभ्रष्ट हुए।
चोरी करने में सत्यघोष को गोबर भक्षण दण्ड मिले।।
परस्त्री सेवन से रावण ने दुख सहे अरु नरक गए।
इसलिए त्याग दो सप्त व्यसन आचार्य हमारे यही कहें।।

(३२) आचार्य और भी कहते हैं केवल ये व्यसन न दुखदायी।
इनसे अतिरिक्त अल्पबुद्धी मिथ्यादृष्टी जो हैं भाई।।
वे कई तरह के गलत मार्ग से जन धन की हानी करते।
इसलिए कुमार्ग छोड़ करके सत्पथ पर चलने को कहते।।

(३३) जिनकी बुद्धी अति निर्मल है जो आत्मा का हित चाह रहे।
वे कभी न झुकते व्यसनों में जो स्वर्ग मोक्ष सुख चाह रहे।।
सब व्रत के नाशक परमशत्रु ये व्यसन प्रथम तो मधुर लगें।
पर अंत में कटु फल मिलता है इसलिए स्वप्न में भी न गहें।।

(३४) हे भव्य जीव यदि सुख चाहो तो दुर्जन की संगति न करो।
क्योंकी जैसी संगति होती वैसी ही बुद्धि की प्राप्ति हो।।
यदि उत्तम पथ पर चलना है तो सत्पुरुषों के संग रहो।
इससे निंह बुद्धि भ्रमित होगी निंह दुर्गतियों में भ्रमण करो।।

(३५) जब दुष्ट पुरुष को काम पड़े तो मीठे वचन प्रयोग करें।
लेकिन गुरुवर समझाते हैं उससे न कभी संबंध रखें।।
जैसे सरसों जब खली रूप पर्याय में परिणत होती है।
तब उसका तेल अगर आँखों में लगे तो आँखें रोती हैं।।

(३६) जिस तरह ग्रीष्म ऋतु में मछली जल के अभाव में मर जाती।
कुछ एक अगर जीवित बचतीं तो बगुले से खाई जाती।।
बस इसी तरह इस कलियुग में सज्जन प्राणी कम ही होते।
यदि हो भी जाएं इक आधे तो दुष्ट नहीं जीने देते।।

(३७) आचार्य अंत में कहते हैं यदि रहे दरिद्री तो अच्छा।
नाना पीड़ाएं सह करके मर जाना भी तो है अच्छा।।
पर नहीं दुर्जनों के संग में व्यापार आदि संबंध करें।
क्योंकी वैसी ही बुद्धी से प्राणी कर्मों का बंध करे।।

मुनिधर्म का कथन

(३८) आचार पांच दशधर्म और बारह संयम तप भी बारह।
अरु अष्टमूलगुण उत्तरगुण चौरासी लख धारें मुनिवर।।
मिथ्यात्व मोह मद त्याग और शम दम से ध्यान प्रमाद रहित।।
वैराग्य और रत्नत्रय गुण धरते, मुनि अंत समाधि सहित।।

(३९) मुनि अपने चित्चैतन्यरूप से रंचमात्र भी डिगें नहीं।
यदि पर पदार्थ में बुद्धि लगे तो कर्मबंध हो निश्चय ही।।
शारीरिक सभी पदार्थों को तजना ही मुनि की क्रिया कही।
जब तक है आयू कर्म शेष तब तक मुनिव्रत ही धरो सही।।

(४०) जो यति पूजा की इच्छा से नहिं मूलगुणों को पाल रहे।
उनको आचार्य मूल छेदक प्रायश्चित दण्ड बताते हैं।।
जैसे अंगुलि का अग्रभाग शिरछेदक बाण न रोक सके।
वैसे ही मुनि के उत्तरगुण नहिं मूलगुणों के दोष ढके।।

(४१) यदि वस्त्र संयमी रखता है तो धोने की चिंता रहती।
जब फट जाए तब वस्त्र मांगने की है आकुलता रहती।।
यदि एक लंगोटी भी रख ले तो खो जाने से दुख होगा।
इसलिए मुनीव्रत ही धारो तब दिशारूप अंबर होगा।।

(४२) नहिं धन सम्पत्ती ये रखते जिससे बालों को कटा सकें।
कैंची आदिक नहिं अस्त्र रखें नहिं केशों की वे जटा रखें।।
जूँ आदिक जीवों की हिंसा से विरत अयाचक वृत्ति रखें।
वैराग्यवृद्धि के लिए मुनी हाथों से केश का लोंच करें।।

(४३) मुनिगण ममत्व से रहित सदा इसलिए प्रतिज्ञा करते हैं।
जब तक पैरों में शक्ति रहे तब तक ही भोजन लेते हैं।।
क्योंकी हाथों की अंजलि में आहार खड़े होकर लेते।
वरना समाधि को धारण कर वे धर्ममार्ग को हैं चुनते।।

(४४) केवल शरीर में यह मेरा ऐसी ममत्व बुद्धी से है।
संसार में परिभ्रमण होता फिर बाह्य वस्तु में क्या रमते।।
फिर कोइ कुल्हाड़ी से मारे अथवा चंदन का लेप करे।
दोनों में साम्यभाव रखते अपने से खुद को भिन्न रखें।।

(४५) तृण, रत्न, शत्रु हों मित्र बन्धु सबमें वे समता रखते हैं।
सुख-दुख स्तुति अरु निंदा में निंह किंचित् क्लेश वे धरते हैं।।
शमशान भूमि और राज्यों में जीवित अरु मरणावस्था में।
समभाव रखें जो इन सबमें वे भावमुनी ही होते हैं।।

वीतरागी इस प्रकार विचार करते हैं

(४६) जिस तरह हिरण अपने समूह से जुदा हुआ विचरण करता।
हर पल सचेष्ट रहकर पर से एकला ही आनन्दित होता।।
अपने कुटुम्बियों से हम भी कब होकर जुदा मोह त्यागें।
एकान्तवास में रह करके आत्मा का सुख हम भी भोगें।।

(४७) ना जाने कितनी बार बने सम्राट चक्रवर्ती राजा।
ना जाने कितनी बार बने, चींटी हाथी पशु योनी पा।।
संसार में सब कुछ चंचल है सुख दुख में हर्ष विषाद न कर।
जिससे भवभ्रमण छूट जावे संसार से तर जाता है नर।।

(४८) उपरोक्त भावना करने से होता है परमशुद्ध संवर।
जो भी प्राचीन कर्म आत्मा के गल जाते होता निर्जर।।
तब परमशांत मुद्राधारी मुनि के न नवीन कर्म बंधते।
इससे वे मुक्तिवल्लभा के अति निकट पहुँच कर दुख हरते।।

((४९) जिन मुनि के पास छिद्रविरहित है सम्यग्ज्ञानमयी नौका।
तपरूपी पवन पास जिनके आशीर्वाद हो गुरुओं का।
उन उद्यमि मुनि के लिए नहीं है दूर मोक्ष का मार्ग सुनो।
कर लेगा झट से पार उसे कितना ही बड़ा समन्दर हो।।

(५०) हे मुनिगण ! इस आनंदमयी शुद्धात्मा का अनुभवन करो।
मत लोक रिझाने में पड़ना कृष मोह करो, तन का न करो।।
जब तक तुम इन दो बातों का नहिं दोगे ध्यान व्यर्थ सारा।
जप तप उपवास नियम आदिक से नहीं किसी ने भव तारा।।

(५१) जो मुनिवर दुष्ट कषायों को नहिं छोड़े मन को शुद्ध करे।
वे क्या संसार त्याग सकते सब परिषह सहना व्यर्थ रहे।।
आचार्य प्ररूपण करते हैं उनके सब कार्य कपट वाले।
ऐसे ढोंगी मुनि होते हैं संसार भ्रमण करने वाले।।

(५२) धन को जिसने संचयन किया वह सभी पाप में रत रहता।
क्योंकी धन से आरंभ और उससे ही लोभ प्राप्त होता।।
प्राणी हिंसा से पाप कहा वह पाप आरम्भ का कारण है।
इसलिए द्रव्य जो ग्रहण करे सन्मार्ग नाश का कारण है।।

(५३) निग्र्रंथ मुनि शय्या के कारण घास आदि यदि स्वीकारें।
दुध्र्यान कहा आचार्यों ने लज्जाकर भी इसको मानें।।
फिर यदि निर्गं्रथ यती सोना आदिक वस्तू लेकर रखे।
तो इस कलियुग का दोष कहा वरना वे अविंâचन सदा रहें।।

(५४) क्रोधादि कषायों के द्वारा, प्राणी के कर्मबंध होते।
पर प्रतिक्षण बंध नहीं होता ये कभी कभी ही हैं होते।।
लेकिन परिग्रहधारी जीवों की किसी काल में सिद्धि न हो।
इसलिए भव्य जीवों सुन लो धन धान्य से प्रीति नहीं रखो।।

(५५) अभिलाषा अगर मोक्ष की भी की जाए दोषस्वरूप कहा।
फिर स्त्री पुत्र जनों की क्या जब तक शरीर से मोह रहा।।
इसलिए कहा है मुनियों को अपनी आत्मा में लीन रहो।
तब मोक्ष स्वयं पा जावोगे नहिं पर पदार्थ में प्रीति रखो।।

(५६) यदि परिग्रहधारी जीवों का भी मोक्षगमन माना जाए।
तो अग्नी को शीतल मानो इंद्रियसुख सुख माना जाए।।
विष भी अमृत कहलायेगा और तन को भी स्थिर मानो।
यदि इंद्रजाल रमणीय कहो नभ की बिजली स्थिर मानो।।

(५७) ऐसे यतिवर जयवंत रहें जो कामदेव के योद्धा को।
निज ध्यानाग्नि से भस्म करें भय से ही भाग रहा है जो।।
फिर लौट के ना वापस आए सारा प्रभाव ही खत्म हुआ।
ऐसे ध्यानी को नमन करूँ जिन मुनि आगे वह हार गया।।

(५८) जो रत्नत्रय रूपी संपति के धारी हैं मगर दिगम्बर हैं।
हैं परमशांत मुद्राधारी फिर भी वे युद्ध में तत्पर हैं।।
क्योंकी वे कामदेव रूपी बैरी को मार गिराते हैं।
उसकी स्त्री को विधवा कर त्रैलोक्यपूज्य बन जाते हैं।।

आचार्य परमेष्ठी की स्तुति

(५९) जो स्वयं पंच आचार पालते सौख्य वृक्ष का बीज कहा।
ऐसे आचार्य शिष्य को भी पालन करवाते सौख्यप्रदा।।
नहिं लेशमात्र भी परिग्रह है जो ऐसी मुक्ति स्वयं पाते।
रत्नत्रयधारी ऐसे गुरु पर को भी मुक्ती दिलवाते।।

(६०) इस जग में भ्रम के कारक जो ऐसे अनेक ही मार्ग कहे।
उनसे छुड़वाकर जो गुरुवर सच्चा सुखकारी मार्ग कहें।।
सत्पथ बतलाते ऐसे गुरु को शीश झुकाकर नमन करूँ।
मिथ्यामारग में नहिं जाऊँ ऐसा मैं सत् आचरण करूँ।।

उपाध्याय परमेष्ठी की स्तुति

(६१) यह मोहकर्म का परदा जो है लगा अनादी कालों से।
शिष्यों को संबोधन देते वे उपाध्याय निज वचनों से।।
स्याद्वाद से अविरोधी उनके उपदेश दृष्टि निर्मल करते।
ऐसे उवझाय१ मेरी रक्षा करिए बिन हेतु व्याधि हरते।।

साधु परमेष्ठी की स्तुति

(६२) जो साधु पांचवे परमेष्ठी गृहबंधन को ठुकराय दिया।
अपने शरीर से मोह छोड़ मोहान्धकार को नष्ट किया।।
निज सम्यग्ज्ञानमयी ज्योती की सूर्य प्रभा सम वृद्धि करें।
ऐसे वे साधू परमेष्ठी हम सबमें भी समृद्धि भरें।।

वीतरागता की महिमा

(६३) जैसे बिजली के गिरने से सब लोग भयातुर हो जाते।
लेकिन शांतात्मा मुनि देखो नहिं ध्यान से हैं डिगने पाते।।
जिसने सज्ज्ञानरूप दीपक से मोह महातम नाश किया।
वे सम्यग्दर्शन के धारी परिषह सह सब कुछ जीत लिया।।

ग्रीष्म ऋतु में पर्वत शिखर पर ध्यानी मुनीश्वरों की स्तुति

(६४) जिस ग्रीष्म ऋतू की तीक्ष्ण धूप और लू के प्रबल थपेड़ों में।
अत्यन्त ताप देने वाली भूमि रेता को जो ओढ़ें।।
जिस समय सूख जातीं नदियाँ ऐसे ऋतु में पर्वत तट पर।।
जो ध्यान अग्नि से भस्म करें ऐसे मुनि होवें क्षेमंकर।।

वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे ध्यानी मुनियों का तप

(६५)वर्षा ऋतु में तरु के नीचे जो ध्यान मुनीश्वर करते हैं।
वे मुनिगण रक्षा करें मेरी हम नमन चरण में करते हैं।।
जब महाभयंकर शब्द करें पृथ्वी भी नीचे धंस जाती।
बरसे ओले शोले पत्थर फिर भी कुछ विकृति नहिं आती।।

शीतकाल में मुनियों का तप

(६६) जिस शीतकाल में सर्दी से हैं कमलपत्र कुम्हला जाते।
अत्यन्त कष्ट देने वाली दीनों के रोम है हिल जाते।।
बंदर का मद भी गल जाता वृक्षों के पत्ते जल जाते।
ऐसे क्षण महा तपस्वी के तप से सब कर्म विनश जाते।।

और भी मुनिधर्म का स्वरूप

(६७) जो आत्मज्ञान से रहित मुनी इन तीनों ऋतु के दुख सहें।
आचार्य प्ररूपण करते हैं उनका सारा तप व्यर्थ रहे।।
जैसे कि धान कट जाने पर खेतों में बाड़ लगाये क्यों।
वैसे ही निज में ध्यान करे यह कहा गया है मुनियों को।।

(६८) यद्यपि कलियुग में तीन लोक से पूज्य केवली प्रभू नहीं।
फिर भी जग में प्रकाश करने वाली वाणी मौजूद सही।।
उस वाणी को गुरु बतलाते इसलिए सरस्वतिसुत मानो।
उनकी पूजन वंदन कर लो ये जिनवर की पूजन जानो।।

(६९) यह यतिवर ध्यानलीन होकर जहाँ चरण कमल रख देते हैं।
वह भूमी तीरथ बन जाती उसे इंद्र देवगण नमते हैं।।
उनके स्मरण मात्र से ही सब पाप शमन हो जाते हैं।
ऐसे यतियों को सदा ध्यान में रखकर शीश झुकाते हैं।।

(७०) रत्नत्रयधारी ये मुनिवर दुष्टों से अपमानित होकर।
समता को धारण करते हैं आत्मा की शुद्धी में रमकर।।
जो निंदा करने वाले हैं वे निज आत्मा का घात करें।
अरु कर्मों का बंधन करके जाकर नरको में वास करें।।

(७१) इस मानुष भव को पा करके भोगों को रोगतुल्य समझें।
ऐसे परिग्रह से रहित मुनी वन में जाकर तपरत रहते।।
उनके गुण को गाने वाला निंह वन में कोई होता है।
यदि कोई स्तुति कर सकता वो महापुरुष ही होता है।।

।।इति मुनिधर्म कथन।।

दशलक्षण धर्म का कथन

उत्तम क्षमा धर्म का स्वरूप

(८२) जो मूर्खजनों से किए हुए बंधन अरु हास्य क्रोध में भी।
निंह मन में जरा विकार करे समताधारी वह साधू ही।।
यह उत्तम क्षमा धार सकते जो मोक्षमार्ग में ले जाती।
बाकी हम सब गृहस्थजन से निंह एकदेश पाली जाती।।८२।।

(८३) यतिरूपी वृक्ष की शाखा है गुणरूपी पुष्प फलों शोभित।
उसमें यदि क्रोध मान आदिक अग्नी से मुनि हो जाए सहित।।
जैसे िंचगारी क्षण भर में उत्तम फलयुत तरु जला सके।
वैसे ही मुक्ति न मिल सकती इसलिए क्रोध ना कभी करें।।८३।।

(८४) रागद्वेषादि रहित होकर स्वेच्छा से निज में मगन रहे।
यह लोक भला या बुरा कहे उसकी न कोई परवाह करे।।
क्योंकि जो हमारे साथ द्वेष या प्रीतिपूर्ण व्यवहार करे।
उसका फल उसको ही मिलता यह पद्मनंदि आचार्य कहें।।८४।।

(८५) मेरे दोषों को सबसे कह करके यदि मूर्ख सुखी होता।
अथवा धन संपति लेकर के मेरा जीवन भी ले लेता।।
खुश रहे सभी कुछ लेकर भी अथवा मध्यस्थ रहे कोई।
मुझसे न किसी को दुख पहुँचे ऐसी बुद्धि होवे मेरी।।८५।।

(८६) मिथ्यादृष्टी दुर्जन जन से दी गयी वेदना से हे मन।
तुम दुख का अनुभव नहीं करो होता है कर्मों का बंधन।।
जिनधर्म का आश्रय तुझे मिला ये धर्म तुझे बतलाना है।
यह सारा लोक अज्ञानी जड़ तू इससे क्यों घबराता है।।८६।।

मार्दव धर्म का स्वरूप

(८७) जो श्रेष्ठ पुरुष कुल ज्ञान जाति बल आदि गर्व को त्याग करे।
वह सब धर्मों का अंगभूत मार्दव इस धर्म को पाल रहे।।
जो सम्यग्ज्ञानमयी दृष्टी से जग को इंद्रजाल समझे।
वे निश्चय ही मार्दव गुण को अपने अंदर धारण करते।।८७।।

(८८) अति सुंदर घर भी यदि अग्नी से चारों तरफ घिर गया हो।
तब उसके बचने की आशा वैâसे कर सके ज्ञानिजन जो।।
बस इसी तरह इस काया को वृद्धावस्था ने घेर लिया।
नहिं सदाकाल रहता कोई यह गर्व छोड़कर मान हिया।।८८।।

आर्जव धर्म का वर्णन

(८९) जो मन में वही वचन बोले इसको ही आर्जव धर्म कहा।
पर मीठी चिकनी बातों से ठगना ये बड़ा अधर्म कहा।।
ये आर्जव धर्म स्वर्गदाता अरु कपट नरक ले जाता है।
इसलिए सदा जो इसे तजे वह सरल भाव अपनाता है।।८९।।

(९०) मायाचारी से मुनियों के सद्गुण फीके पड़ जाते हैं।
और माया से उत्पन्न पाप दुर्गति में भ्रमण कराते हैं।।
क्रोधादि शत्रु जो छिप करके माया के ग्रह में बैठे हैं।
उनको निकाल करके मुनिवर निंह पास फटकने देते हैं।।९०।।

सत्य धर्म का वर्णन

(९१) उत्कृष्ट ज्ञान के धारी मुनि को सदा मौन रखना चहिए।
यदि बोले भी तो हित मित प्रिय और सत्य वचन होना चहिए।।
जो कड़वे वचन दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले हों।
आचार्य प्ररूपण करते हैं निंह सच्चे साधु बोलते वो।।९१।।

(९२) जो सत्य धर्म का पालक है सब व्रत उसमें गर्भित होते।
तीनो लोकों में पूज्यनीय माँ सरस्वती सिद्धी करते।।
इस व्रत का है महात्म्य इतना वसु का िंसहासन पृथ्वी में।
था समा गया मरकर राजा, अरु स्वर्ग गया नारद सच में।।९२।।

(९३) आचार्य और भी कहते हैं सतवादी परभव में जाकर।
इंद्रादि, चक्रवर्ती राजा का वैभव पाते हैं आकर।।
इस जीवन में ही कीर्ति बढ़े आदर सम्मान बहुत होता।।
उत्तम फल मिले कई उनको अरु मोक्ष प्राप्त भी कर लेता।।९३।।

शौच धर्म का वर्णन

(९४) परधन परस्त्री में जो जन निस्पृह वृत्ती से रहता है।
अरु किसी जीव का बध करने की नहीं भावना करता है।।
अत्यंत कठिन क्रोधादि लोभ मल का जो हरने वाला है।
वह प्राणी ही तब शौच धर्म को धारण करने वाला है।।९४।।

(९५) अति घृणित मद्य से भरा हुआ घट धोने से नहिं स्वच्छ हुआ।
नहिं तीर्थस्थानों के स्नान से कोई कभी पवित्र हुआ।।
जब अंतकरण मलीमस है तो बाह्य शुद्धि से क्या होगा।
इसलिए पवित्र करो मन को तब ही निज का दर्शन होगा।।९५।।

संयम धर्म का वर्णन

(९६)जो हृदय दया से ओत प्रोत पाँचों समिति पालन करते।
ऐसे साधू षट्काय जीव की भी हरदम रक्षा करते।।
पंचेन्द्रिय के जो विषय भोग उनसे भी सर्वथा विरत रहे।
ऐसे मुनिश्रेष्ठ धर्म संयम को पाले गणधर देव कहें।।९६।।

(९७) यह मनुष धर्म अति दुर्लभ है उसमें भी अच्छी जाति मिले।
यदि दैवयोग से मिल जावे उसमें अर्हंत वचन न मिले।।
सद्वचन श्रवण को मिल जावे तो जीवन अधिक नहीं मिलता।
सब कुछ मिलने के बाद रत्नत्रय धारण कर संयम धरता।।९७।।

तप धर्म का वर्णन

(९८) ज्ञानावरणादिक आठ कर्म क्षय करने को जो ज्ञान कहा।
उस सम्यग्ज्ञानमयी दृष्टी से तप करते दो रूप कहा।।
बाह्याभ्यंतर से दोनों के हैं बारह भेद कहे जाते।
संसार जलधि से तिरने में ये नौका सम माने जाते।।९८।।

(९९) यद्यपि कषाय रूपी चोरों को जीता जाना मुश्किल है।
लेकिन तपरूपी योद्धा के सम्मुख टिकना नहिं मुमकिन है।।
इसलिए योगिजन मोक्षनगर में बाधा रहित चले जाते।
आचार्य प्ररूपण करते हैं योगी से न कोई जीत पाते।।९९।।

(१००) मिथ्यात्व उदय से घोर दुख सहने पड़ते हैं नरकों में।

फिर हे प्राणी ! क्यों घबराता है तप के थोड़े कष्टों से।।
जैसे अथाह सागर आगे जल का कण छोटा होता है।
वैसे ही तप में दुख बहुत अल्प करके तो देखो होता है।।१००।।

त्याग धर्म का वर्णन

(१०१) जो मुनियों के श्रुतपाठन के हेतू पुस्तक का दान करे।
अरु संयम के साधन हेतू पिच्छी व कमण्डलु दान करे।।
उनके रहने के लिए श्रेष्ठ स्थान आदि भी दान करे।
तन से भी ममता तजकर ऐसे यति आकिंचन धर्म धरें।।१०१।।

आकिञ्चन्य धर्म का वर्णन

(१०२) अपने हित में जो लगे हुए गृहत्याग पुत्र स्त्री तजकर।
वे मोक्ष हेतु तप करते हैं सबसे सर्वथा मोह तजकर।।
ऐसे मुनि विरले होते हैं मिलते हैं बड़ी कठिनता से।
पर को शास्त्रादि दान करके तप में भी बनें सहायक वे।।१०२।।

(१०३) यदि कहो वीतरागी मुनि को सब त्याग दिया क्यों पुस्तक दें।
तन से क्यों मोह नहीं त्यागा आचार्यदेव तब कहते ये।।
जब तक है आयूकर्म शेष इस तन को नष्ट न कर सकते।
अपघातक दोष लगेगा तब, निंह तन से वे ममता रखते।।१०३।।

ब्रह्मचर्य धर्म का वर्णन

(१०४) जैसे कुम्हार का चाक तीक्ष्ण धारण से घट निर्माण करे।
वैसे ही भव के भ्रमने में स्त्री दुख का आधार रहे।।
इसलिए मुमुक्षूजन स्त्री में माता बहिन सुता देखें।
जो ब्रह्मचर्य के धारी हैं वह स्त्री सुख में नहीं रमे।।१०४।।

(१०५) जो रागी पुरुष स्त्रियों में प्रीति उपजाने वाले हैं।
उनको भी अच्छा कहा मगर जो नर विरक्त मन वाले हैं।।
ऐसे वैरागी साधक के चरणों में चक्रवर्ति नमते।
जो जगतपूज्य बनना चाहें वे नहीं स्त्रियों में रमते।।१०५।।

(१०६) वैराग्य त्याग रूपी अतिसुंदर काष्ठ लगे हों इधर उधर।
दशधर्म रूपी दण्डे लगकर वह सीढ़ी बनी बड़ी सुंदर।।
उस पर चढ़ने के योग्य मनुज दशधर्म पालने वाला हो।
तीनों लोकों में पूज्यनीय और वंदनीय बन जाता वो।।१०६।।

।।इति दशधर्म निरूपण।।

शुद्धात्मा की परिणति रूप धर्म का कथन

(१०७) जो निर्मल शील व गुणस्वरूप समता से युक्त अवस्था है।
अरु अनंत चतुष्टयमय अमृत सरिता के भीतर रहता है।।
उसको दुष्कर संसार दु:खरूपी अग्नी नहिं जला सके।
ऐसी शुद्धात्मा की परिणति रूपी आत्मा को नमन करें।।१०७।।

(१०८) कर्मादि वैरियों के नाशक तन का भी आश्रय नहीं रहा।
ऐसी शुद्धात्मा सूर्य चंद्र अग्नी से जिसका तेज बड़ा।।
उसके आगे सब पर पदार्थ क्षण भर में ऐसे अस्त हुए।
चैतन्य स्वरूपी तेज पुंज को नमस्कार कर धन्य हुए।।१०८।।

(१०९) नहिं जन्म मरण अरु जरा रोग कर्मों का भी संबंध नहीं।
है सदा प्रकाशित प्रभु आत्मा स्वात्मैक ज्ञान का धारी ही।।
जिनकी न किसी से उपमा हो सकती ऐसे उन सिद्धों की।
मैं शरण गहूँ रक्षा करिए जो अविनाशी पद धरते भी।।१०९।।

(११०) इस चिच्चैतन्य आत्मा का िंकचित वर्णन जो किया मैंने।
उसमें न कोई छल किया अत: अल्पज्ञानी मुझको समझे।।
क्योंकी सब कर्मों के राजा हैं मोहनीय अंतराय शत्रू।
दर्शन ज्ञानावरणी चारों ये मेरे संग में लगे प्रभू।।११०।।

(१११) विद्वान मानते अपने को शृंगारादिक के व्याख्याता।
प्रिय वचनों के आडम्बर से सन्मार्ग भुला दे जो वक्ता।।
इस दुनिया में हैं बहुत लोग ऐसे भाषण देने वाले।
पर सम्यग्ज्ञानप्रणेता जो वे दुर्लभ हैं देखे जाते।।१११।।

(११२) यह रागद्वेष माया आदिक सबके स्वभाव से होते हैं।
इसलिए काव्य यदि ऐसा हो जो मन के मल को धोते हैं।।
उस वीतरागता के वर्णन का काव्य सदा फल देता है।
शृंगार आदि रस काव्य सदा प्राणी को दुख ही देता है।।११२।।

(११३) मोहान्धकार से व्याप्त जगत में मोही अज्ञानी घूमें।
उनको न दिखाई कुछ पड़ता उस पर यदि दुर्जन कथा सुनें।।
आचार्य हमें समझाते हैं सत्पुरुषों की संगती करें।
आँखों में धूलि डालने वालों से सदैव ही दूर रहें।।११३।।

(११४) यह तन विष्टा मूत्रादिक नाना कीड़ों से युत भरा हुआ।
अरु प्रबल घृणाकारी अस्थी मज्जा रजवीर्य से पुष्ट हुआ।।
ऐसे ही मल से बना हुआ जो कवी कुमाता से जन्मा।
वह नारी को जब चंद्रमुखी कहते हैं तो आश्चर्य घना।।११४।।

(११५) स्त्री के केश जुओं के घर मुख हाड़ समूह चाम्र वेष्टित।
और मांसिंपड सम स्तन है, अरु उदर आदि विष्ठा पूरित।।
खम्भे की तरह पैर दोनों जिन स्थानों पर टिके हुए।
अत्यन्त घृणित इस काया में निंह विद्वतजन हैं राग करें।।११५।।

(११६) यह कामदेव रूपी धीवर उत्कृष्ट धर्म नदि से बाहर।
हैं जीवरूप मछली उसको पकड़े काटें में लटकाकर।।
भू पर भूंजे बस उसी तरह, नारी के जाल में फंस करके।
संभोगरूप भू पर भूंजें, ज्ञानीजन इससे दूर रहें।।११६।।

(११७) जितने दुनिया में दोष कहे वे सभी अहित ही करते हैं।
पर सबसे बड़ा अहितकारक नारी के रूप को कहते हैं।।
इनसे अति मोह उत्पन्न होकर नाना प्रकार दुख सहते हैं।
क्रोधादि कषाय बने दुर्जय भवदधि को निंह तर सकते हैं।।११७।।

(११८) जिस तरह कबूतर आदिक खग दाना देकर पकड़े जाते।
उस तरह विषय के जाल में भोले प्राणी हैं फांसे जाते।।
इसलिए इन्हें दुख का कारण लख विद्वतजन नहिं फंसते हैं।
कांक्षा न करें वे विषयों की अतएव सुखी वे रहते हैं।।११८।।

(११९) जैसे कोई बैरी जिस पर मंत्रादिक का उपयोग करे।
विपरीत बुद्धि हो जाती है नाना आपत्ति आदि भोगे।।
वैसे ही मोहरूप बैरी उसके प्रयोग से विषयों में।
होकर प्रवृत्त दुख सहें सभी सुख मानें चंचल भोगों में।।११९।।

(१२०) भवरूपी घने जंगलों में यह मोहरूप ठग बैठे हैं।
जो स्त्री क्रोध मान माया से सबको ठगते रहते हैं।।
इसलिए ज्ञानरूपी आत्मा का ही आश्रय लेना चहिए।
आचार्य प्ररूपण करते हैं बस निज में ही रमना चहिए।।१२०।।

(१२१) मैं ज्ञानी अरु मैं धनी बहुत इस तरह मूर्ख समझा करते।
और चंचल बिजली के समान पुत्रादिक को अपना कहते।।
जबकी कुछ भी निंह स्थिर है यह सभी लोग हैं देख रहे।
इसलिए मोह को वश में कर आचार्य हमें सम्बोध रहे।।१२१।।

(१२२) क्या करें कहाँ जाएं वैâसे लक्ष्मी को प्राप्त करें वैâसे।
इस उलझन में हरदम प्राणी किस नृप की सेवा टहल करे।।
सब जान बूझकर भी ये मन ना किसी तरह भी समझ सके।
इसलिए ग्रंथकर्ता कहते यह मोह बहुत ही भ्रमित करे।।१२२।।

(१२३) हे बुद्धिमान ! तुम मोह तजो धन सदन पुत्र मित्रादिक से।
जिससे निंह जन्म दुबारा हो मिट जाये भ्रमण चौरासी से।।
क्योंकि उत्तम कुल जैनधर्म की शरण बहुत ही दुर्लभ है।
फिर मिले ना मिले पता नहीं जो मिला आज मानुष तन है।।१२३।।

(१२४) यह वीतराग अर्हंत देव की वाणी ही सद्वाणी है।
जो रागद्वेष से रहित और सब ज्ञाता दृष्टा ज्ञानी है।।
इसलिए भव्यजन मुक्ती की प्राप्ति के हेतु इसे मानो।
क्यों इधर उधर तुम फिरते हो अज्ञानी वचन असत् मानो।।१२४।।

(१२५) जो मूर्ख लोग जिन वचनों में संदेह हमेशा करते हैं।
अपनी जड़बुद्धि से हरदम वे बस असत् कल्पना करते हैं।।
जैसे जन्मांध पुरुष पक्षी की गणना में यदि बहस करे।
तब नेत्र सहित मानव वैâसे उसकी बातों से सहज रहे।।१२५।।

(१२६) श्रुत के दो भेद कहे प्रभु ने जो अंग बाह्यश्रुत रूपी हैं।
उसमें बारह भेदों से युत अंगश्रुत पढ़ते वे ज्ञानी हैं।।
और बाह्यश्रुत के हैं अनंत भेद उसमें जो ज्ञानमयी आत्मा।
उसको ही ग्रहण योग्य कहते तद्भिन्न त्याज्य है परमात्मा।।१२६।।

(१२७) इस पंचमकाल में ज्ञान आयु आदिक सब क्षीण हुए जानो।
इसलिए नहीं सब पढ़ सकते जो रत अभ्यासमयी मानो ।।
अभ्यास सदा जो किया करे वह मोक्षमार्ग का अभिलाषी।
यह श्रुताभ्यास ही मुक्तीपथ देता जो होता हितकारी।।१२७।।

(१२८) जो सूक्ष्म अगोचर है पदार्थ उनमें भी संशय नहीं करे।
जो दिव्यध्वनि जिनवचनों की उसको अवश्य स्वीकार करें।।
इस युग में जितने प्राणी हैं उनको निंह ज्यादा ज्ञान मिला।
इसलिए हमें परमागम से जो मिला समझिए बहुत मिला।।१२८।।

(१२९) चैतन्य बिना सब ज्ञानवान है शून्य कहा है भव वन में।
आत्मा के होने से पदार्थ में ज्ञान भान होता सच में।।
इसलिए भव्यजीवों को ऐसी सारभूत इस आत्मा में।
रमना चहिए बस इसमें ही और ध्यान करें शुद्धात्मा में।।१२९।।

(१३०) अज्ञानी प्राणी कोटि वर्ष में जितना तप कर कर्म नशे।
इक क्षण में नष्ट करे ज्ञानी स्थिर होकर जब ध्यान करे।।
यह आत्मा है चैतन्यरूप जितना बन सके करो तप को।
जिससे भव में नहिं आना हो, आत्मा सिद्धालय स्थित हो।।१३०।।

(१३१) यदि कर्म उदयरूपी समुद्र में कोई व्यक्ति जब गिर जावे।
जब तक नहिं मिले ज्ञानरूपी नौका निंह पार उतर पावे।।
नाना प्रकार आपत्ति रूप बैठे हैं मगरमच्छ इसमें।
तब ज्ञानरूप नौका बनती जीवों को सहायक तिरने में।।१३१।।

(१३२) मोहरूपी सघन अंधेरे में है व्याप्त त्रिलोकमयी मकान।
उसमें प्रवेश करने वाला जिनवच रूपी दीपक महान।।
तब ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त होगा क्या छोड़े ग्रहण करें।
वरना अज्ञान अंधेरे में यह प्राणी कुछ ना ढूंढ सके।।१३२।।

(१३३) जब कर्मों का उपशम होने से क्षेत्र काल शुभ योग बने।
तब आत्मा में हो लीन मनुज अपने निज का िंचतवन करे।।
संसार दुखों से छुड़वाए उसको ही धर्म कहा मुनि ने।
इसके अतिरिक्त न कोई धर्म इससे तल्लीन रहे निज में।।१३३।।

आत्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन

(१३४) निंह शून्य न जड़ निंह पंचभूत से आत्मा की उत्पत्ती है।
निंह कर्ता, एक न क्षणिक लोकव्यापी नहिं नित्य से बनती है।।
अपने शरीर परिमाण तथा रत्नत्रण गुण से शोभित है।
अपने ही कर्मों का कर्त्ता भोक्ता उत्पाद ध्रौव्य व्यय है।।१३४।।

(१३५) जो आत्मा को नहिं पहचाने वह वैâसी और कहाँ रहती।
यह प्रश्न पूछने वाली ही आत्मा में है जाग्रत बुद्धी।।
क्योंकी जड़ वस्तू में कोई भी प्रश्न विकल्प नहीं होते।
आत्मा का असली रूप समझ निज से कर्मों को क्षय करते।।१३५।।

(१३६) यद्यपि आत्मा नहिं मूर्तिक है यह तन के अंदर रहता है।
प्रत्यक्ष नहीं दिखता फिर भी यह कर्ता और ये ज्ञाता है।।
इत्यादि विकल्पों से आत्मा का है अस्तित्व जगत भर में।
इसलिए इसे अनुभवन करो और मोह हटावो तुम मन से।।१३६।।

(१३७) यह व्यापक नहीं इसी हेतू तन के प्रमाण में रहता है।
इसका स्वभाव है ज्ञानरूप नहिं पंचतत्व से बनता है।।
सर्वथा नित्य अरु क्षणिक नहीं क्योंकि ना जन्म न मरण इसे।
यह एकरूप भी नहीं कही क्रोधादिक कई भाव इसमें।।१३७।।

(१३८) यह आत्मा शुभ और अशुभ कर्म से सुख दुख भोगा करता है।
ना कोई दूसरा है सुख दुख जो दे आगम यह कहता है।।
चिद्रूप आत्मा संसारी जीवन में कर्म सहित होता।
पर मोक्ष अवस्था में कर्मों से रहित त्रिलोकपती होता।।१३८।।

(१३९) आचार्य हमें समझाते हैं हे भव्य ! अगर तिरना चाहो।
तो एकचित्त होकर प्रमाण नय आदिक से इसको जानो।।
यह मोहरूप जो मगरमच्छ से सहित भवोदधि विकट बड़ा।
आत्मा के सिवा कोई वस्तु नहिं ग्राह्य यही मुनियों ने कहा।।१३९।।

(१४०) हे आत्मा ! जब तक मेरे संग कर्मों का बंधन लगा हुआ।
तब तक संसार रूप वैरी दुख देंगे यह ही कहा गया।।
यह रागद्वेष ही वैरी है यदि इनको तू तज सकता है।
तो मेरी आत्मा कर्मों के दुख से जल्दी छुट सकता है।।१४०।।

(१४१) इस लोक का ना तू लोक तेरा फिर क्यों प्रीति को धरता है।
यह सुख दुख अरु संतोष क्रोध तू व्यर्थ ही सबसे करता है।।
यह काया नश्वर इसीलिए अपने स्वरूप में रमण करो।
विषयों की आशा में रमकर मत दीन हीन सम भ्रमण करो।।१४१।।

(१४२) जहाँ प्रतिक्षण दुख ही दुख रहता ऐसी तिर्यंच नरकगति में।
निंह जाना पड़े मगर सुरगति में लक्ष्मी रहती चरणों में।।
उस देवगति से भी जब आयू पूर्ण होए तब दुख होता।
इसलिए हमेशा अविनाशी पद प्राप्ती में ही सुख मिलता।।१४२।।

(१४३) हे मन् ! तूने दुख बहुत सहे स्त्री आदिक से न ममता कर।
इन बाह्य पदार्थों में चेतन तू िंकचित भी अनुराग न कर।।
श्री परमगुरू से दुखों के नाशक ऐसा उपदेश सुनो।
जिससे मुक्ति की प्राप्ति हो और अंतरंग में प्रवेश करो।।१४३।।

(१४४) आचार्य और भी कहते हैं यदि आत्म रमण की इच्छा है।
तो हे भव्यों ! इंद्रिय सुख को कर त्याग धार लो दीक्षा है।।
कोलाहल में क्या रखा है सारे परिग्रह का त्याग करो।
और चंचल मन को स्थिर कर एकांतवास का स्वाद चखो।।१४४।।

(१३४)जीव और मन का परस्पर संवाद

(१४५) रे मन तू वैâसे रहता है वह बोला िंचतित रहता हूँ।
ये िंचता रागद्वेष वश से बस इसमें ही रत रहता हूँ।।
जो इष्ट अनिष्ट समागम से होता है वैâसे इन्हें तजूं।
तब जीव कहे रे मन सब तज नरकों के दुख मैं क्यों भोगूं।।१४५।।

(१४६) जिसके स्मरण मात्र से ही मोहांधकार भग जाता है।
अरु सम्यग्ज्ञान उदित होता आनंद हृदय में छाता है।।
कृतकृत्यपने की प्राप्ती से आत्मा की शक्ती पहचानो।
निज में ही आत्मा रहती है तुम व्यर्थ न भटको यह जानो।।१४६।।

(१४७) इस जग में जीव अजीव रूप नाना प्रकार के बंधन में।
हो वशीभूत इस मोहकर्म के राग द्वेष रखता मन में।।
इससे ही हम चिरकालों तक दुख भोग रहे हैं इस जग में।
सब जान बूझकर पर पदार्थ में बुद्धी रहती है सच में।।१४७।।

(१४८) मलमूत्रादिक के घर स्वरूप इस तन से सदा भिन्न हूँ मैं।
मन के विकल्प अरु शब्द आदि रस से भी सदा पृथक््â हूँ मैं।।
मैं शांत और आनंदरूप चैतन्यात्मा में स्थित हूँ।
आरंभ परिग्रह छोड़ के मैं संसार से भी भयभीत न हूँ।।१४८।।

इस विचार से संसार से भय का निवारण

(१४९)निंह तुम्हें प्रयोजन लोक और उसके आश्रय से जो पदार्थ।
निंह तुझे प्रयोजन द्रव्य और इंद्रिय संबंधी अशुभ भाव।।
सब पुद्गल की पर्याय कही तू तो चैतन्य स्वरूपी है।
फिर क्यों दृढ़ बंधन बांध रहा तू दर्शन ज्ञान स्वरूपी है।।१४९।।

(१५०) जिसके मन में ऐसे विचार उत्पन्न हो गये ज्ञानी है।
जो भोगों के सुख अशुभ मान आत्मा के सुख सुख माने हैं।।
लेकिन इसकी विपरीत अवस्था अज्ञानी की होती है।
जो भोगे गये भोग उनकी ही हरदम स्मृति रहती है।।१५०।।

(१५१) जिस तरह खाज के रोगी को अग्नि से सेक कर सुख मिलता।
लेकिन वह दुख ही देता है निंह रोग नष्ट उससे होता।।
बस उसी तरह से क्षुधा तृषा से पीड़ित प्राणी होता है।
खाने पीने में सुख माने पर क्षणभंगुर सुख होता है।।१५१।।

(१५२) जब यह आत्मा अपने स्वरूप को देख वही चेष्टा करता।
उसमें ही होकर लीन उसी में खुद को आनंदित करता।।
अपने ही हित में सुख माने अपना ही संबंधी होता।
ऐसी प्रवृत्ति ही आत्मा की इसके अतिरिक्त न कुछ होता।।१५२।।

(१५३) जिस तरह भ्रमर सब पुष्पों में इक कमलपुष्प को चुनता है।
वैसे ही योगीजन विकल्प तजकर निज में ही रमता है।।
क्योंकि मनरूपी भ्रमर एक क्षण में ना जाने कहाँ कहाँ।
उड़कर चल देता है उसको ज्ञानीजन वश में करें अहा।।१५३।।

(१५४) जो शुद्धात्मा में रम जाते उनको सारे रस विरस लगें।
स्त्री पुत्रादिक कथा दूर तन से भी प्रीति नहीं रहे।।
हो जाते वचन मौन उनके मन से रागादिक नष्ट हुए।
ऐसे भव्यों के लिए कहा शुद्धात्मा में ही मगन रहें।।१५४।।

(१५५) जो दर्शन ज्ञानमयी आत्मा निंह उससे भिन्न मेरा कुछ भी।
ऐसी हो गयी बुद्धि निर्मल पर से छूटी परिणति मन की।।
फिर ग्राम नगर वन एक सदृश सबमें सुख दुख का नहिं आना।
आत्मा में हो तल्लीन यही उत्कृष्ट कही है आराधना।।१५५।।

(१५६) आचार्य और भी कहते हैं यदि इंद्रिय का शुद्धात्मा से।
संबंध रहा तो व्यर्थ कहा तप करना बाह्य वस्तुओं से।।
हो गये जुदा या बंधे हुए शुद्धात्मा से या नहीं रहे।
तब भी तप करना व्यर्थ कहा जब तक अंतर में ममत्व रहे।।१५६।।

(१५७) यद्यपि नय शुद्ध है ग्रहण योग्य व्यवहार बिना कुछ ना होता।
इसलिए शुद्धनय की व्याख्या व्यवहार से ही करना होता।।
व्यवहार बिना निश्चयनय का निंह कोई प्रयोजन रह जाता।
इन दोनों को संग लेकर ही साधक मुक्ती का पथ पाता।।१५७।।

(१५८) व्यवहारनयापेक्षा आत्मा दर्शन अरु ज्ञान से भिन्न कहा।
अरु शुद्ध नयापेक्षा आत्मा निंह भिन्न सभी कुछ देख रहा।।
जो दर्शज्ञानमय आत्मा को गुण पर्यायों युत जान लिया।
उसने सब कुछ ही देख लिया अरु जान लिया अरु प्राप्त किया।।१५८।।

(१५९) ज्ञानीजन यह विचार करते रस गंधादिक पुद्गल विकार।
इससे मैं भिन्न न भीतर हूँ नहिं बाहर, हल्का वजनदार।।
निंह मोटा पतला और नहीं स्त्री नर और नपुंसक हूँ।
नहि शब्द वर्ण नहिं गणना हूँ मैं दर्शन ज्ञान स्वरूपी हूँ।।१५९।।

(१६०) मोहांधकार को तप द्वारा जब नाश करे केवलज्ञानी।
तब चिच्चैतन्य तेज को वे क्षण में जानें आनंदकारी।।।
वह तेज सूर्य और चंदा की आभा से अधिक प्रभाशाली।
ऐसा वह तेज त्रिलोकी में जयवंत रहे महिमाशाली।।१६०।।

(१६१) जिस तरह कर्म के वशीभूत नहिं साता और असाता है।
उनसे उत्पन्न विकल्प जाल नहिं होते वही विधाता हैं।।
वो मोक्षधाम में रहते हैं इंद्रादिक भी स्तुति करते।
उस पद को पाने हेतू हम भी उनकी शरण ग्रहण करते।।१६१।।

(१६२) जिनमें अज्ञानी सुख माने संताप मिटाती चंद्रकिरन।
कर्पूर मिला चंदन रस हो या स्त्री के हो कमल नयन।।
ज्ञानीजन ऐसे चंचल सुख को सदा सदा धिक्कार रहे।
बस गुरुओं के अमृतसम वचनों से ही शांती प्राप्त करें।।१६२।।

(१६३) जो योगीश्वर इस मोहरूप ठग से निज की रक्षा करते।
संसार रूप बड़वानल में जो इधर उधर घूमा करते।।
जैसे धनयुक्त पथिक कोई चोरों से निजधन रक्षा कर।
घर जाकर सुख अनुभवन करे वैसे ही करते योगी तब।।१६३।।

धर्म की महिमा तथा धर्म के उपदेश

(१६४) जो अब तक धर्म स्वरूप कहा वह धर्म बड़ा सुख देता है।
वह इंद्र तथा अहमिन्द्र और षट्खंड राज्य भी देता है।।
दुख का नाशक निर्वाणरूप प्रासाद की सीढ़ी है ये धरम।
इसका वर्णन केवली और गणधर ही कर सकते अपरम।।१६४।।

(१६५) हे भव्यजीव ! यदि जन्म जरा आदिक दुख से बचना चाहो।
संसार रूप जो महारोग उसको भी शमन करना चाहो।।
तो धर्म रसायन का आश्रय लेकर कषाय का त्याग करो।
मिथ्यात्व बड़ा दुखदायी है इसको न झांककर भी देखो।।१६५।।

(१६६) जैसे समुद्र में गिरा रत्न मिलना अत्यन्त कठिन होता।
दो काष्ठखंड जो अलग दिशा में बहकर गया नहीं मिलता।।
अंधे को निधि मिलना दुर्लभ वैसा ही दुर्लभ मनुष जनम।
यह दुर्लभ मनुष जनम पाकर भव्यों ! जिनधर्म करो धारण।।१६६।।

(१६७) अंधे के हाथ बटेर लगे वैसे ही मनुष जन्म मिलता।
पर इसको पाकर जो प्राणी खोटे गुरु देवों में रमता।।
उनके खोटे उपदेशों से जो विषय व्यसन में फंसा रहा।
उसका निगोद राशी से मानव तन पाना भी व्यर्थ रहा।।१६७।।

(१६८) हे भव्यजीव ! बहु पुण्य उदय से मनुज जन्म ये तुझे मिला।
इसको पाकर अतिशीघ्र कोई हितकारी कारज करो भला।।
क्योंकि तिर्यंचगती में कोई ज्ञान नहीं दिलवा सकता।
इसलिए न खोटी गती मिले कर ले जो धर्म तू कर सकता।।१६८।।

(१६९) आचार्य और भी कहते हैं जो उत्तमकुल है तुझे मिला।
नरतन पाकर बहुपुण्य उदय से जैनधर्म भी तुझे मिला।।
इतना सब कुछ पाकर भी यदि निंह धर्ममार्ग अपनाओगे।
तो आया हुआ रत्न हाथों में खोकर व्यर्थ गवांओगे।।१६९।।

(१७०) शुभ धर्म कार्य करने हेतू है उम्र बहुत ही पड़ी हुई।
शारीरिक शक्ती धन आदिक है भोग भोगने हेतु मिली।।
आगे भविष्य में वृद्धावस्था में आराधन कर लेंगे।
यह ही विचार करते मूरख इक दिन मृत्यू को वर लेंगे।।१७०।।

(१७१) जो ज्ञानी हैं वे श्वेत केश लखकर विरक्त हो जाते हैं।
अज्ञानीजन जब उम्र बढ़े तो तृष्णा और बढ़ाते हैं।।
उनको वैराग्यजनित गुरु के उपदेश तनिक नहिं भाते हैं।
इस तरह मूर्ख अज्ञानीजन अपना संसार बढ़ाते हैं।।१७१।।

(१७२) हे तृष्णे तू है प्रिया मेरी आजन्म साथ रहने वाली।
तू प्रौढ़ा है मेरी स्त्री फिर तू वैâसे सहने वाली।।
यह दुष्ट जरा ने केश मेरे पकड़े हैं फिर भी तू चुप है।
इससे मेरा संबंध छुड़ा क्योंकी ये तेरी सौतन है।।१७२।।

(१७३) इस जग में रंक धनी होता और धनी रंक हो जाता है।
क्षण भर का पता नहीं कुछ भी बलवान मृत्यु पा जाता है।।
इसलिए नहीं विद्वान पुरुष धन जीवन का मद करता है।
ज्यों कमलपत्र पर ओसिंबदु अस्थिर सब वस्तु समझता है।।१७३।।

(१७४) प्राणी के प्राण मित्र सुत सब पत्ते पर पड़े ओस सम हैं।
चंचल हैं तथा इंद्रियों के सुख भी होते विष सदृश हैं।।
अक्षय सुख एक धर्म ही है पर मोही समझ न पाते हैं।
वह मोहजनित दुख की दाता वस्तू में सुक्ख मनाते हैं।।१७४।।

(१७५) जब तक राजा जीवित रहता तब तक सेना में जोश रहे।
तब तक तलवार शत्रुओं से लड़ने में खूब स्वरोष रहे।।
जब तक बलवान भुजाएँ हों तब तक प्राणी में कोप रहे।
पर कालबली जब डस जाए तब नहीं किसी को होश रहे।।१७५।।

(१७६) जैसे मल्लाह के जाल में फंसकर भी मछली क्रीड़ा करती।
नहिं आगत दुख का भान उसे प्राणी की स्थिति भी वैसी।।
इस मृत्युरूप नाविक का जो भी बिछा हुआ है जाल प्रबल।
विषयों में फिर भी प्रीति करे नहिं नरकादिक गतियों का डर।।१७६।।

(१७७) यह मनुष क्षुधा को भोजन से और प्यास शीत जल पीकर के।
मंत्रों से भूत को शांत करे वैरीजन को दण्डादिक से।।
औषधि रोगादिक शांत करे पर मृत्यु का कोई उपाय नहीं।
उस पर यदि विजय प्राप्त करना, तो धर्म ही एक उपाय सही।।१७७।।

(१७८) जिस तरह हंस नामक पक्षी निर्मल जल में क्रीड़ा करते।
पंखों के बल पर इक सरवर से दूजे में रमते रहते।।
वैसे ही भव्य जीव रूपी ये हंस धर्म के पंखों से।
दुर्गति रूपी तालाबों को तज शोभित हों उत्तम पद में।।१७८।।

(१७९) यह मनुष धर्म के बल पर ही तीर्थंकर चक्रवर्ति बनते।
बलभद्र और इंद्रादिक बन उत्तम-उत्तम कीर्ती लभते।।
जो धर्मरहित वे निश्चय से नरकादिक दु:ख भोगते हैं।
यह सब कुछ जान समझकर भी क्यों धर्म न धारण करते हैं।।१७९।।

(१८०) जो सुन्दरता की खान कहा ऐसे स्वर्गों में भ्रमण करें।
जहाँ सुन्दर सुन्दर नंदनवन में देवांगना सह रमण करें।।
जिन इंद्रों की विमान पंक्ती में दिव्य पताकाएं शोभित।
ऐसे पद को पाने वाले होते हैं धर्मों से भूषित।।१८०।।

(१८१) षट्खंड और नवनिधियाँ भी मिलती हैं इसी धर्म से ही।
चौदह रत्नों के स्वामी बन मिले चौरासी लख हाथी भी।।
अठरह करोड़ घोड़े होते रथ बड़े मिले चौरासी लख।
छ्यानवे हजार स्त्रियों संग जीवन जीते हैं सुखपूर्वक।।१८१।।

(१८२) जो करे धर्म की रक्षा उन प्राणी की रक्षा धर्म करे।
इसके विनाश हो जाने पर धरती पर कुछ नहिं शेष रहे।।
योगीजन जिसका ध्यान करे मुक्ति पद को देने वाला।
यह धर्म सदा सच्चा साथी अनुपम सुख को देने वाला।।१८२।।

(१८३) नरकादि योनिरूपी जल में नाना दुख रूप तरंगे हैं।
उसमें शुभ अशुभ कर्मरूपी है मगर जिन्हें वह खाते हैं।।
जिसका निंह आदि अंत कोई ऐसे समुद्र में प्राणी को।
बस धर्मरूप नैया करती है पार अत: ध्यायें उनको।।१८३।।

(१८४) उत्तम कुल में हो जन्म तथा लावण्य, निरोग शरीर मिले।
आयू आदिक समस्त बातें इस धर्मकृपा से हमें मिलें।।
उत्तमलक्ष्मी और उत्तमसुख निर्मलगुण की प्राप्ती होती।
इसलिए धर्म का आराधन करते रहिए कह गए यती।।१८४।।

(१८५) भौंरा पुष्पित पुष्पों का आश्रय स्वयं प्राप्त कर लेता है।
वन में मृग को इच्छित जगहें नदि को समुद्रतल मिलता है।।
और हंस पक्षि को मानसरोवर स्वयं प्राप्त हो जाता है।
बस वैसे ही धर्मात्मा को यश संपति सब मिल जाता है।।१८५।।

(१८६) सौभाग्य कामिनी सुत सुख की यदि तुम अभिलाषा करते हो।
अथवा सुंदर घर लक्ष्मी को पाने की इच्छा रखते हो।।
सुन्दरता पाकर सब जग में प्रिय बनने की यदि इच्छा है।
तो सदा धर्म में स्थित हो तुम धारो गुरु की शिक्षा है।।१८६।।

(१८७) इसके प्रभाव से निर्जल जगहों में भी बने सरोवर हैं।
निर्जन जंगल में क्षण भर में बन जाते विशाल घर हैं।।
अब कहे कहाँ तक पुण्य उदय से सब वांछित मिल जाते हैं।
सुन्दरियों के संग बिन मांगे रत्नादिक भी मिल जाते हैं।।१८७।।

(१८८) इस पुण्य उदय से दूर गयी वस्तू भी प्राप्त हुआ करती।
जब अशुभ कर्म का उदय हुआ तो आकर के वापस जाती।।
मन में विचार तब आते हैं उसने मेरे संग बुरा किया।
पर वह निमित्त केवल बनता अपने कर्मों से दुखी हुआ।।१८८।।

(१८९) इस पुण्य उदय से अंधा अरु रोगी भी रूपवान होता।
निर्बल भी पुण्य उदय से ही शेरों सा पराक्रमी होता।।
बदसूरत कामदेव सा बन घर बैठे ही लक्ष्मी मिलती।
सब पुण्य उदय से दुर्लभ भी वस्तुएँ सुलभता से मिलतीं।।१८९।।

(१९०) यद्यपि हाथी बलवान तथा बाँधते महावत ही उनको।
बोझा लादें अंकुश मारें और वही चलाते हैं उनको।।
बस इसी तरह उत्तम पुरुषों पर नीच कुचेष्टा करते हैं।
इसे दुष्टकर्म की चाल समझ ज्ञानीजन इससे बचते हैं।।१९०।।

(१९१) इस धर्म की इतनी महिमा है जो सर्प हार बन जाते हैं।
पैनी तलवार पुष्पमाला विष भी अमृत बन जाते हैं।।
बैरी भी प्रीति दिखाता है सुरगण अधीन हो जाते हैं।
यह है कितना महिमाशाली आकाश रतन बरसाते हैं।।१९१।।

(१९२) जो ग्रीष्मकाल में सूरज की ज्वालाओं से तप्तायमान।
कोमल शरीर के धारी को जब मिला हुआ पथ मरुस्थान।।
उसको यदि दैवयोग से मिल जाए हिमगिरि की फव्वारें।
बस उसी तरह का सुख समझो जब मिले धर्म की बौछारें।।१९२।।

(१९३) जैसे समुद्र में प्रलयकाल में उठता हुआ बवंडर हो।
उसमें भ्रमते जो मगरमच्छ आदिक जलजीव भयंकर हों।।
ऐसे समुद्र में गिरे हुए प्राणी को धर्म सहायक है।
नभ में विमान की रचनाकर अवलंब बने सुखदायक है।।१९३।।

(१९४) धर्मात्मा जन को इंद्र आदि अपने शिर पर धारण करते।
सुरनर किन्नरियाँ उनके गुण को भक्ति से गाया करते।।
धर्मात्मा पुरुषों की कीर्ती खुशबू की तरह पैâलती है।
इसलिए धर्म धारण करिए इससे लक्ष्मी भी मिलती है।।१९४।।

(१९५) लक्ष्मी को वश करने वाला अरु इच्छित फल देने वाला।
यह धर्म कल्पतरु सम यह सब िंचताओं को हरने वाला।।
यह पर्वत से उत्पन्न हुई नदियों की निर्मल धारा है।
इससे सब कार्य सिद्ध होते सुख मिलता अपरम्पारा है।१९५।।

(१९६) जो धर्म मार्ग पर गमन करे उसके सुख का तो कहना क्या।
जो केवल उसको सुन लेवे स्वामी त्रैलोक्य संपदा का।।
जैसे शीतल जल पीने से अथवा स्नान से सुख मिलता।
पर थके हुए प्राणी को शीतल सरवर का तट सुख देता।।१९६।।

(१९७) जिनके पद पंकज की रज से भव्यों को ज्ञान प्राप्त होता।
ऐसे श्री ‘‘वीरनंदि गुरु’’ को मैं श्रद्धा से वंदन करता।।
है यही याचना हे प्रभुवर ! मुझको भी मुक्ति प्रदान करो।
मेरे सब पाप शमन करके निज चरणों का आश्रय दे दो।।१९७।।

(१९८) परमानंद को देने वाला यह धर्म परम अमृत सम है।
संसार मार्ग से थके हुए प्राणी के लिए सुखासन है।।
यह पुण्यहीन को दुर्लभ है ऐसा ऋषियों ने कहा सदा।
‘‘श्री पद्मनंदि मुनि’’ के मुख से इतना धर्मामृत सार कहा।।१९८।।

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द्वितीय अधिकार

दान का उपदेश

(१९९) श्री नाभिराय के पुत्र ऋषभ जग में सदैव जयवंत रहें।
कुरु गोत्र रूप गृह के प्रदीप श्रेयांस नृपति जयवंत रहें।।
इन दोनों से व्रत दान तीर्थ उत्पन्न हुआ इस वसुधा पर।
इसलिए इन्हें हम नमन करें ये धर्मतीर्थ के संचालक।।१।।

(२००) जिनका यश शरद काल के उज्जवल मेघ समान भ्रमण करता।
ऐसे राजा श्रेयांस हुए स्मरण जिन्हें जग है करता।।
तीनों लोकों के पूज्यनीक का जिनके घर आहार हुआ।
श्री आदिनाथ को दे आहार जिनका जग में यशगान हुआ।।२।।

(२०१) घर धन्य हुआ जग धन्य हुआ जब प्रभुवर ने पारणा करी।
राजा श्रेयांस भी धन्य हुए देवों ने रत्न की वर्षा की।।
इस रत्नवृष्टि से धरती ने ‘‘वसुमति’’ इस नाम को प्राप्त किया।
अक्षय हो गया वहाँ भोजन ‘‘अक्षय तृतिया’’ विख्यात हुआ।।३।।

(२०२) दुर्लभ मानव तन को पाकर जो लोभ कूप में गिरे हुए।
जो स्वप्न समान मिला यौवन उसमें ही निज को भूल गए।।
यह इंद्रजाल सम अस्थिर है ऐसा गुरुवर संबोध रहे।
अब आगे दया भावना से आचार्य हमें उपदेश रहे।।४।।

(२०३) जो स्त्री पुत्र धनादिक में अत्यन्त मोह से भरा हुआ।
एवं विशाल सागर रूपी गृह आश्रम में जो फंसा हुआ।।
उसके उद्धार हेतु गुरु ने नौका स्वरूप है कहा दान।
सात्विक भावों से दिया हुआ वह दान बना देता महान।।५।।

(२०४) यदि खेवटिया हो चतुर लहर से नाव पार कर देता है।
वैसे ही इस भवसागर में रहकर भी दान यदि देता है।।
तो वह मनुष्य घर में रहकर भी शुभगति का ही बंध करे।
इसलिए गृहस्थाश्रम में रह उत्कृष्ट दानविधि पूर्ण करें।।६।।

(२०५) नाना प्रकार के दुख सहकर जो धन को पैदा करते हैं।
सुत और प्राण से प्यारे धन का सदुपयोग जो करते हैं।।
वह दान किया धन ही वास्तव में अच्छी गति देने वाला।
वरना विपत्ति का कारण धन यह ही गुरुओं ने लिख डाला।।७।।

(२०६) भोगादिक में जो नष्ट हुई वह कभी न वापस आती है।
पर जो लक्ष्मी सन्तों को चउविध दानों में दी जाती है।।
वटवृक्ष सरीखी कोटि गुना होकर आगे फल देती है।
जो निरभिमान हो दान करें तो इंद्र संपदा देती है।।८।।

(२०७) जैसे जैसे मकान बनता कारीगर भी वैसे ऊपर जाता।
श्रावक मुनिगण को दे अहार, मुक्तीपथ ओर पहुंच जाता।।
सत्पात्र दान देकर खुद भी मुक्तीपथ को पा जाता है।
इसलिए दान देने वाला निज पर हितकारि कहाता है।।९।।

(२०८) जो मुनि को शांकपिण्ड का भी आहार भक्तिपूर्वक देते।
वे श्रावक पुण्य उपार्जन करके हैं अनंत सुख को लभते।।
जैसे किसान थोड़े बीजों को बोकर धान बहुत पाता।
वैसे ही थोड़ा दान दिया, भावों से बहुगुणा फल जाता।।१०।।

(२०९) मन वचन काय की शुद्धी से मुनिगण को देते जो अहार।
उससे न बड़ा है पुण्य कोई गर पात्रदान में रुचि महान।।
यह भवसमुद्र से तिरने में है कारणभूत न अन्य कोई।
इसकी अभिलाषा इंद्र करे पर दे सकते हैं श्रावक ही।।११।।

(२१०) रत्नत्रय मोक्ष का कारण है इसको मुनिगण पालन करते।
उनको जिससे शक्ती मिलती वह अन्न तो श्रावकजन देते।।
इसलिए गृहस्थाश्रम में गुरु ने व्रत से ज्यादा है पुण्य कहा।
आहारदान अति फलदायी सब आचार्यों ने यही कहा।।१२।।

(२११) नाना प्रकार आरंभों से जो पाप उपार्जित होता है।
वह व्रत करने से कम कटता पर दान बहुत फल देता है।।
इसलिए सदा प्रीतिपूर्वक उत्तम पात्रों में दान करें।
ऊँचे फल के जो अभिलाषी वे ऊँचे फल भी प्राप्त करें।।१३।।

(२१२) जैसे नदियाँ पर्वत से गिरने में कुछ छोटी हो जातीं।
जब सागर में जाकर मिलतीं तब लहरों से बढ़ती जाती।।
बस उसी तरह सम्यग्दृष्टि के पहले लक्ष्मी कम होती।
लेकिन मुनियों के दान पुण्य से चक्रवर्ति सम है बढ़ती।।१४।।

(२१३) परमात्म बोध घर में रहकर के कभी नहीं हो सकता है।
पर सम्यग्दृष्टी धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष वर सकता है।।
आहारौषधि अरु अभय शास्त्र जो चउविध दान दिया करते।
पुरुषार्थ सिद्धि के अभिलाषी सब पल भर में हैं पा लेते।।१५।।

(२१४) जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं ऐसे साधू के सुमिरन से।
सब पाप नष्ट हो जाते हैं फिर और अधिक अब क्या कहने।।
आहार औषध अरु वसतिदान से भव समुद्र तिर जाता है।
इससे न बड़ा उपकार कोई यह महादान कहलाता है।।१६।।

(२१५) जिस घर में मुनि के चरण पड़े वह घर पवित्र हो जाता है।
जिस मन में मुनि की जगह न हो वह श्रावक निंह कहलाता है।।
इसलिए गृहस्थों को घर में आहारदान देना चहिए।
उनके चरणोदक से घर को मन को पवित्र करना चहिए।।१७।।

(२१६) वह देव ही क्या जो स्त्री को लखकर विकार को प्राप्त हुआ।
वह धर्म ही क्या जिसमें न दया करुणा का भाव हो मिला हुआ।।
जिससे आत्मा का ज्ञान न हो वह गुरू नहीं हो सकता है।
जहाँ पात्रों को नहिं दान दिया वह व्यर्थ संपदा खोता है।।१८।।

(२१७) तीनों लोकों को वश करने का मंत्र स्वरूप दानव्रत है।
उससे उत्पन्न धर्म से ही उत्तम गुण सुख ऐश्वर्य रहे।।
जो उत्तम गुण के अभिलाषी मानव वे दान जरूर करें।
ऐसा गुरुजन का कहना है इससे ही मानव शीघ्र तिरे।।१९।।

(२१८) सत्पात्र दान से इक प्राणी संचय करता है पुण्य बहुत।
दूजा प्राणी जो भोगों में लक्ष्मी को करता व्यर्थ बहुत।।
क्योंकी आगामी कालों में उसका न कोई फल मिलता है।
पर पात्रदान करने वाला धन संपति का फल चखता है।।२०।।

(२१९) नहिं दान करे नहिं व्रत आदिक नहिं शास्त्रों का भी पठन करें।
ऐसे प्राणीगण जन्म मरण के दुक्ख भोग कर व्यर्थ करें।।
इसलिए कहा आचार्यों ने धन पात्रदान में सदा करें।
शक्ती अनुसार तपस्या कर शास्त्रों का पाठन सदा करें।।२१।।

(२२०) इस दुर्लभ नरभव को पाकर उत्तम तप करना श्रेष्ठ कहा।
बस इसी तरह धनवान व्यक्ति को पूजन दान विशेष कहा।।
क्योंकी जो दान व पूजन में निज संपत्ति का उपयोग करें।
वरना वह संपति वृथा कही केवल कर्मों को जोड़ रहे।।२२।।

(२२१) जो मिली हुई संपत्ती को, सत्पात्र आदि में दान करें।
वरना ये वैभव दुर्गति में ही ले जाने का काम करे।।
सत्पात्र दान से रहित व्यक्ति को भिक्षा लेना उत्तम है।
क्योंकी भिक्षुक संक्लेश रहित आरंभ परिग्रह भी कम है।।२३।।

(२२२) जिस घर में प्रभु के चरण कमल की पूजा नहीं करी जाती।
संयमी जनों को दान आदि भक्ती से कभी न दी जाती।।
ऐसा गृहस्थ जल में प्रवेश करने के लायक कहा गया।
आचार्य कहें उस मानव का सारा जीवन है व्यर्थ गया।।२४।।

(२२३) भवसागर में भ्रमते भ्रमते मुश्किल से नरभव प्राप्त हुआ।
इस नरतन को भी पा करके यदि तपश्चरण भी नहीं किया।।
तो गुरुवर हमसे कहते हैं अणुव्रत तो धारण करो सही।
उत्तम पात्रों में दान करो जिससे मिलता है मोक्ष नहीं।।२५।।

(२२४) यात्रा पर जाते समय व्यक्ति जो खाद्य वस्तु लेकर चलता।
वह सुखपूर्वक गंतव्य पूर्ण कर लेता कोई नहीं चिंता।।
वैसे ही जो परलोक गमन करने वाले प्राणीगण हैं।
उनको बस दान व्रतादिक से उत्पन्न पुण्य सुखकारण है।।२६।।

(२२५) इस कामभोग धन यश खातिर जो जो प्रयत्न हम करते हैं।
वे दैवयोग से हो सकते निष्फल पर यदि हम करते हैं।।
हर्षित मन से जो किया गया वह दान न निष्फल जाता है।
इसलिए दान हरदम करिए यह ही बस पुण्यप्रदाता है।।२७।।

(२२६) बैरी भी यदि निज घर आये भोजन सम्मान दिया जाता।
फिर उत्तम रत्नत्रयधारी को क्यों ना दान दिया जाता।।
इसलिए सभी सज्जन प्राणी मुनिगण को नवधा भक्ती से।
आहार हर्षपूर्वक देवे और पुण्य कमा लेवे सच में।।२८।।

(२२७) आचार्य प्ररूपण करते हैं बिन दान दिये जो दुख होता।
उतना दुख सज्जन पुरुषों को निंह पुत्र मरण से है होता।।
दुर्दैव योग से यदि कोई हो जाए कार्य जो इष्ट नहीं।
उतना नहिं होता दुख मगर अपने से होए अनिष्ट नहीं।।२९।।

(२२८) जो धनी पुरुष जिनमंदिर का निर्माण कार्य धारे चित में।
अथवा जो कारणभूत धर्म के अन्य कार्य करते मन से।।
उनसे भी दान विशेष कहा दृष्टांत है चंद्रकांत मणि का।
जब चंद्रकिरण स्पर्श करे तब ही उससे पानी गिरता।।३०।।

(२२९) जो धन होने पर भी श्रावक नहिं पात्रदान में रुचि रखते।
मायाचारी के वश होकर अपने को धर्मात्मा कहते।।
अगले भव में तिर्यंचगती पा करके बहुत दुख सहते।
इसलिए कपट से दूर रहो ऐसा आचार्यवर्य कहते।।३१।।

(२३०) अपनी शक्ती अनुसार दान जितना भी बने देना चाहिए।
वो एक ग्रास दो ग्रास तथा आधा चौथाई भी रहिए।।
क्योंकी आचार्य हमें कहते कब किसके पास पूर्णता से।
जितना धन उससे ज्यादा की नहिं इच्छा पूर्ण हुई उससे।।३२।।

(२३१) मिथ्यादृष्टी और पशुओं को भी उत्तम भोगभूमि मिलती।
मुनि के आहारदान अनुमोदन से भी है सुरगति मिलती।।
सम्यग्दृष्टी का पात्रदान क्रमश: मुक्तीपथ देता है।
इसलिए दान की महिमा से इस जग में सब कुछ मिलता है।।३३।।

(२३२) जिस नर के पास यथोचित धन फिर भी नहिं बुद्धी रुचि उसमें।
तो समझो छोड़ अमूल्य रत्न भटके वह मूर्ख धरातल में।।
ऐसे मनुष्य को मिली हुई संपति भी बिना प्रयोजन हो।
इसलिए प्रमाद को तज करके, बाकी संपत्ति दान में दो।।३४।।

(२३३) मणि के समान उत्तम नरभव में धन को पाकर दान करे।
ऐसी जिनवर की आज्ञा है उससे विपरीत न काम करे।।
वरना रत्नों से भरी हुई टूटी नैया कब पार करे।
गर समयचक्र में डूब गये तो दुर्लभ मणि ना प्राप्त करें।।३५।।

(२३४) जो इस भव में यश परभव में सुख की खातिर नहिं दान करे।
तो समझो उसको उस धन का वह मालिक निंह बस दास रहे।।
इच्छानुसार निज धन को व्यय दानादिक में करना चहिए।
वह ही अगले भव संग जाए उससे है भिन्न पर का कहिए।।३६।।

(२३५) जिनमंदिर बनवाने में जो धनराशी खर्च करी जाती।
प्रभु की पूजन आचार्यों के पूजन में जो खर्ची जाती।।
इसके अतिरिक्त संयमीजन अरु दुखित जनों को दान करें।
यह ही धन अपना कहलाता बाकी धन सब बेकार रहे।।३७।।

(२३६) जितना जल निकले कूप से वह उतना ही बढ़ता रहता है।
हे भव्यात्मन् ! बस उसी तरह यह धन भी दान से बढ़ता है।।
संयमी पात्र में देने से वह दान बहुत फल को देता।
पर कभी पुण्य क्षय होने से मिथ्यादानों से है घटता।।३८।।

(२३७) लौकिक विवाह आदिक कार्यों में किया गया जो लोभ कहा।
उसमें बस थोड़ा दोष ढूंढ कहते लोभी कंजूस महा।।
लेकिन जो अर्हत् पूजन में है किया लोभ वह ठीक नहीं।
इहभव परभव में सम्यग्दर्शन गुण का घातक बने वही।।३९।।

(२३८) मृत्यू पश्चात् न यश पैâले इस जग में ऐसे मानव का।
पैदा होना भी व्यर्थ कहा धन होते हुए दरिद्री सा।।
है निष्कलंक फिर भी उसका गुणगान न कोई गाता है।
इसलिए दान देना चहिए यह शास्त्र हमें बतलाता है।।४०।।

(२३९) कर्मानुसार इक कुत्ता भी जब अपनी भूख मिटा लेता।
कर्मानुसार इक राजा भी मनचाहा भोजन खा लेता।।
नरभव पाकर विवेकपूर्वक उत्तम पात्रों में दान करें।
नरभव पाना तब ही सार्थक ना इसका तू अभिमान करे।।४१।।

(२४०) परदेश में रहकर श्रमपूर्वक जो पैदा किया गया धन है।
वह पुत्रों से भी प्यारा है और प्राणों से प्यारा धन है।।
उस धन की सफलगती केवल आचार्य दान ही कहते हैं।
वरना विपत्ति ही विपति मिले सज्जनगण ऐसा कहते हैं।।४२।।

(२४१) मरणोपरांत यह धन वैभव थोड़ी भी दूर नहीं जाता।
शमशान भूमि से ही बंधू समूह वापस घर आ जाता।।
बस एक पुण्य ही मित्र तेरा जो सदा साथ में जायेगा।
इस दान से बढ़कर पुण्य नहीं यह मुक्ती भी दिलवायेगा।।४३।।

(२४२) सौभाग्य शूरता सुख विवेक विद्या शरीर धन उत्तम कुल।
ये सब कुछ पात्रदान से ही मिलता है देखा कितना कुछ।।
आचार्य हमें सम्बोध रहे हरदम प्रयत्न करते रहना।
बुद्धी अनुकूल रहे जिससे भव भव में पड़े नहीं भ्रमना।।४४।।

(२४३) पहले मकान बनवा लूं मैं फिर पुत्रों का विवाह कर दूं।
थोड़ा धन संचित कर रख लूं फिर बचे तभी दान में दूं।।
ऐसा विचार करते करते प्राणी का अंत समय आता।
इसलिए प्रथम कुछ दान करो जो साथ तुम्हारे है जाता।।४५।।

(२४४) लोभी मनुष्य धन होने पर भी निंह खुद भी उपभोग करे।
ऐसे मनुष्य का जीना क्या नहिं दान करे बस कोष भरे।।
आचार्य कृपण की िंनदा कर कौए को उत्तम कहते हैं।
जो सबको पास बुला करके संग मिलकर भोजन करते हैं।।४६।।

(२४५) उत्प्रेक्षा अलंकार से युत कुछ शब्दों में यूं कहते हैं।
धन ने सोचा उदार के घर रहने से भ्रमते रहते हैं।।
इसलिए कृपण के घर में सुख शांती से रहना अच्छा है।
निंह व्यर्थ घूमना पड़े हमें सोते रहने की इच्छा है।।४७।।

(२४६) अब पात्रों के भेदों का वर्णन गुरुवर हमें बताते हैं।
उत्तम है पात्र मुनी आदिक मध्यम श्रावक कहलाते हैं।।
सम्यग्दृष्टी व्रत रहित गृही है जघन्य पात्र की श्रेणी में।
अरु मिथ्यादृष्टि व्रती कुपात्र अव्रति अपात्र की श्रेणी में।।४८।।

(२४७) निर्मल भावों से दिया हुआ उत्तम पात्रों का दान सदा।
उत्तम फल देने वाला है मध्यम दानों का फल न वृथा।।
देता है क्रमश: स्वर्ग भोगभूमी उत्तम मध्यम आदिक।
फल दान का मिलता है अवश्य निंह कह सकते हैं और अधिक।।४९।।

(२४८) आहार औषध और अभय शास्त्र ये चार दान के भेद कहे।
इन चारों दानों से मिलता है महामोक्षफल शास्त्र कहें।।
पर इससे भिन्न गो कनक भूमि रथ स्त्री आदिक दान करे।
वह फल न कोई देने वाला ये व्यर्थ के ही सब काम कहें।।५०।।

(२४९) जो जिनमंदिर के लिए धरा धन दान स्वरूप दिए जाते।
उसके प्रभाव से बहुत काल जिनमत की ज्योति जला जाते।।
जिनमंदिर बनवाकर दाता ने जिनमत का उद्धार किया।
उस धन का सदुपयोग करके अपने कर्मों को काट लिया।।५१।।

(२५०) इससे विपरीत कृपण जन को दानादिक कार्य न रुचते हैं।
मिथ्यात्व हृदय में भरा हुआ बस दोष ढूंढते रहते हैं।।
जैसे उल्लू को दिनकर का प्रकाश अच्छा निंह लगता है।
वैसे ही लोभी को सुखप्रद यह दान न अच्छा लगता है।।५२।।

(२५१) जो निकट भव्य है जीव उसे दानोपदेश से खुशी मिले।
लेकिन अभव्य जीवों को यह उपदेश बहुत अप्रिय लगते।।
जैसे भ्रमरों की संगत से विकसित हो पुष्प चमेली का।
और चन्द्रकिरण से कमल खिले निंह खिले काष्ठ और पत्थर का।।५३।।

(२५२) दानोपदेश के प्रकरण को आचार्य विराम लगाते हैं।
रत्नत्रय से भूषित गुरूवर श्री वीरनंदि को ध्याते हैं।।
उनके प्रभाव से ‘‘पद्मनंदि’’ नामक मुनिवर ने रचना की।
बावन श्लोकों में रचकर दानी की उत्तम महिमा की।।५४।।

तृतीय अधिकार

अनित्यत्वाधिकार

(२५३) जिसके अंदर है दयाभाव वह नाश किसी का नहिं करता।
पर जिनप्रभु की वाणी ऐसी पल भर में मोह रिपू मरता।।
वह दयावान होकर के भी योगी का मोह नष्ट करती।
ऐसी वाणी के धारक प्रभु जयवंत रहें यह है विनती।।१।।

(२५४) यदि इक दिन खाया ना जाये अथवा रात्री में नींद न लें।
तो यह शरीर मुरझा जाता अग्नी से कमलपत्र जैसे।।
यह अस्त्र, रोग, जल, अग्नी से भी पल भर में नश जाता है।
इसलिए ममत्व तजो इससे यह कभी न साथ निभाता है।।२।।

(२५५) दुर्गंध अशुचि मल मूत्र आदि से तन की बनी दीवारें हैं।
ऊपर से चमड़ी ढ़की हुई क्षुध तृषा दुख भंडारे हैं।।
वृद्धावस्था रूपी अग्नी चउ तरफ से घेरे बैठी है।
ऐसी काया कुटि को पवित्र माने वह मूढ़मती ही है।।३।।

(२५६) यह तन जल का बुलबुला सदृश और इन्द्रजाल सम लक्ष्मी है।
स्त्री धन पुत्र मित्र आदिक मेघों के सदृश विनाशी हैं।।
मदमत्त विषय संबंधी सुख स्त्री के चंचल नेत्र सदृश।
इनके मिलने पर सुखी न हो नहिं मिलने पर तू शोक न कर।।४।।

(२५७) यद्यपि जग में दुख शोक आदि तन से संबंधित होते हैं।
यह दु:ख शोक की भूमी है विद्वतजन ऐसा कहते हैं।।
इसलिए आत्मिंचतवन करो जिससे निंह जन्म दुबारा हो।
इस जन्म मरण के रोगों से मिल जाए हमें छुटकारा हो।।५।।

(२५८) जो पूर्वजन्म में संचित है नहिं जिसका कोई निवारण है।
स्त्री सुतादि का मरण सदा, कर्मों के वश हो दुखप्रद है।।
उन्मत्त समान शोक करना क्योंकि उससे कुछ नहिं मिलता।
अरु व्यर्थ शोक करने से धर्म, अर्थ मूर्ख नर का नशता।।६।।

(२५९) जिस तरह सूर्य का उदय अस्त होने के लिए स्वभावी है।
वैसे ही यह शरीर निश्चय नश्वर है अवश्यंभावी है।।
इसलिए काल के आने पर जब प्रियजन कोई मरते हैं।
तो ज्ञानीजन निंह शोक करें ऐसा श्री गुरुवर कहते हैं।।७।।

(२६०) जिस तरह वृक्ष पर फूल पत्र फल आदि समय पर आते हैं।
कालानुसार वे नष्ट होय नहिं सदा एक से रहते हैं।।
वैसे ही बस कर्मानुसार सत्कुल में जन्म मरण होता।
लेकिन जो ज्ञानीजन होते उसमें नहिं सुखी दुखी होता।।८।।

(२६१) जिस दुख का कोई अंत नहीं ऐसे प्रियजन के मरने से।
जो शोक करे वह अंधकार में नृत्य कर रहा है जैसे।।
सब वस्तु जगत में नश्वर है, हे भव्य ! नहीं तुम शोक करो।
दुखसंतति को जड़ से काटे, ऐसे जिनधर्म की शरण गहो।।९।।

(२६२) जिसका जिस समय मरण होना है पूर्वजन्म में लिखा गया।
उस समय वही होगा ऐसा है भव्यजीव ! ये कहा गया।।
जिस तरह सर्प जिस मार्ग गया उसको पीटना अकारण है।
बस उसी तरह प्रियजन के दुख का धर्म ही एक निवारण है।।१०।।

(२६३) जो मूर्ख दुख की निवृत्ति हेतु व्यापार आदि को करते हैं।
निजकर्म के वश से सुख हो या दुख उनसे अच्छे रहते हैं।।
क्योंकी जो स्त्री पुत्र आदि के मरने पर अति शोक करें।
वे मूर्खशिरोमणि कहलाते वह पापबंध भी बहुत करें।।११।।

(२६४) जो इंद्रजाल सम जग अनित्य यह नहीं जानता नहिं सुनता।
अथवा प्रत्यक्ष न देख रहा निस्सार है कदली खम्भे सा।।
फिर अन्य लोक जो चले गए उनकी खातिर क्यों रोते हो।
रत्नत्रय का आराधन कर निज को क्यों पर में खोते हो।।१२।।

(२६५) जो पैदा हुआ मरण उसका इक दिन होना तो निश्चित है।
तीनों लोकों में कोई नहीं जो बचा सके यह प्रकृति है।।
एकांत और निर्जन वन में रोने से लाभ नहीं होगा।
आचार्य हमें संबोध रहे इस वृथा शोक से क्या होगा।।१३।।

(२६६) यह इष्ट वियोग अनिष्ट योग सब पाप उदय से होता है।
जो पूर्वजन्म में पाप किए उनके फल से सब मिलता है।।
तू शोक किसलिए करता है आगे पापों का नाश करो।
जिससे निंह होवे इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग का उदय न हो।।१४।।

(२६७) यदि नष्ट हुई वस्तू वापस आ जाए अथवा सुख देवे।
या कीर्ति बढ़ाए दुनिया में तो कहा शोक करते रहिए।।
वरना जैसा आचार्य कहें दुख से सुख धर्म नहीं मिलता।
इसलिए शोक को छोड़ दे जो विद्वान पुरुष वह ही बनता।।१५।।

(२६८) रात्री के समय एक तरु पर पक्षी आकर निवास करते।
होते ही पूर्व दिशाओं में सब जुदे-जुदे हो उड़ जाते।।
वैसे ही इक कुल में जन्में अपने अपने कर्मानुसार।
सब नाना कुल में जन्म धरे फिर क्यों रोए कर-कर विचार।।१६।।

(२६९) नाना प्रकार के दुखरूपी सर्पों व हस्तियों से जो व्याप्त।
अज्ञान तथा नरकादि गती से सहित जगत में फिरे त्रस्त।।
उसमें गुरुओं के वचन रूप दीपक प्रकाश सम होते हैं।
सच्चे मारग को देख चतुरजन मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।।१७।।

(२७०) पूर्वोपार्जित कर्मों द्वारा जो मरण समय है कहा गया।
उसके अनुसार मरण होता नहीं आगे पीछे कोई गया।।
आचार्य हमें समझाते हैं आत्मीय जनों के मरने पर।
अज्ञानी प्राणी शोक करे जिससे आते हैं दुख उन पर।।१८।।

(२७१) पक्षी और भौंरे एक वृक्ष से डाल पुष्प बदला करते।
वैसे ही प्राणी इक गति से दूजी गति में जाया करते।।
इसलिए प्राणियों की अनित्यता जान नहीं दुख शोक करें।
मतिमान वही कहलाते हैं जो दोनों में समभाव धरें।।१९।।

(२७२) भ्रमते अनंत कालों में यदि ये जीव मनुषगति पा जावे।
यदि खोटे कुल में जन्म हुआ तो भी यह जन्म वृथा जावे।।
कुल श्रेष्ठ मिला फिर भी कोई मर गया गर्भ में ही मानो।
इसलिए नरोत्तम कुल पाकर के धर्म की शक्ती पहचानो।।२०।।

(२७३) द्यपि द्रव्यार्थिनयापेक्षा यह लोक सदा है विद्यमान।
तो भी पर्यायार्थिक नय कहता मेघ सदृश यह नाशवान।।
हे बुद्धिमान ! तुम ये समझो प्रियजन के सुख में क्या रखा।
यदि प्रिय मनुष्य मर भी जाए तो दुख करने में क्या रखा।।२१।।

(२७४) लंघ जाते बड़े समुद्रों को पर्वत और देशों को प्राणी।
विस्तृत नदियाँ भी तिर जाते पर मृत्युकाल टलता नाहीं।।
इसलिए कौन ऐसा होगा जो धर्माराधन ना करके।
नित शोक करेगा नरकगती को पाने की इच्छा करके।।२२।।

(२७५) खोटी चेष्टाओं के द्वारा जो कर्म उदय से सब प्राणी।
इस जग में जन्म मरण करते ये तो परंपरा है अनादि।।
पर आचार्यों ने कहा बावलापन जो अधिक रुदन करते।
प्रियजन की मृत्यु पर शोक अधिक और जन्म हुए पर हैं हंसते।।२३।।

(२७६) लोभों का भ्रम व मूर्खता है दु:खों से व्याप्त इस दुनिया में।
आपत्ति आगमन शोक करें क्यों सुख की करें अपेक्षा वे।।
क्योंकी जैसे शमशान भूमि में रहकर कौन पुरुष होगा।
जहाँ भूत पिशाच चितायें ही होंगी डरने से क्या होगा।।२४।।

(२७७) जैसे चंद्रमा सदा नभ में भ्रमता रहता है वैसे ही।
यह प्राणी एक गती से दूजी गती घूमता कहें यही।।
हो उदय अस्त घटना बढ़ना राशी से राशि बदलता है।
इस काया की स्थिती यही निंह हर्ष शोक फिर करता है।।२५।।

(२७८) स्त्री पुत्रादिक सब पदार्थ बिजली के सदृश विनाशी हैं।
मत शोक करो तुम बुद्धिमान चंचल है आनी जानी है।।
जैसे अग्नी में उष्णपना सर्वदा रहेगा है स्वभाव।
वैसे ही सभी पदार्थों में उत्पाद ध्रौव्य व्यय तीन भाव।।२६।।

(२७९)प्रियजन की मृत्यु पर शोक अधिक करने से बंधते कर्म बहुत।
और कर्म असाता हो जाते तिर्यंच नरकगति में परिणत।।
इसलिए बने जैसे करके कर शांत हृदय दुख को तजिए।
वरना वटवृक्ष समान बड़ा दुखदायी बन जाता दुख ये।।२७।।

(२८०) प्रतिसमय आयु का क्षय होता यमराज का मुख इसको जानो।
इस मुख में हुए प्रविष्ट सभी खुद को भी जाना है मानो।।
फिर भी अज्ञानी शोक करे मरने पर अपने प्रियजन के।
आश्चर्य बहुत करते गुरुवर क्यूं समझ नहीं आता सबके।।२८।।

(२८१) यह प्राणी ना तो मरा कभी निंह उसके घर मर रहा कोई।
आगे ना कोई मरेगा यदि तो शोक करे तब उचित सही।।
पर जीव अनन्तों बार मरा मर रहा मरेगा नियति यही।
फिर दुख करना निंह उचित लगे आचार्यवर्य कह गये यही।।२९।।

(२८२) यह सूर्यदेव भी इक दिन में इक बार सुशोभित होता है।
वह भी संध्या में अस्त होए संदेश सभी को देता है।।
इस जग में सभी पदार्थों की नहिं रहती एक अवस्था है।
इसलिए हृदय में शोक न कर यह तो प्राचीन व्यवस्था है।।३०।।

(२८३) यह चंद्र सूर्य अरु पक्षि पवन आकाश में विचरण करते हैं।
पृथ्वी पर चलने वाले पशु िंसह व्याघ्र जमीं पर चलते हैं।।
जल में चलने वाले मछली और मगर आदि जल में चलते।
पर यम सब जगह चला जाता इस काल से ना कोई बचते।।३१।।

(२८४) तीनों लोकों में देव देवि विद्या मणि मंत्र तंत्र कोई।
आश्रितजन अथवा मित्र आदि राजादिक कुछ ना करे कोई।।
जो कर्म पूर्व में बंधे हुए उसका फल निश्चित मिलता है।
इसलिए शुभाशुभ कर्मों के फल से विद्वान न डरता है।।३२।।

(२८५) क्या कहें अधिक जो देव सभी अणिमादिक ऋद्धीधारी थे।
रावण ने उसका नाश किया जबकि वे शक्तीशाली थे।।
उस रावण को भी रामचन्द्र ने मानव होकर हरा दिया।
फिर रामचन्द्र भी कालबली के मुख में देखो समा गया।।३३।।

(२८६) इस शोक रूप दावानल से जगकानन१ व्याप्त हो रहा है।
इस वन में लोकरूप जो मृग वह मृगी के पीछे भगता है।।
यह कालरूप जो व्याघ्र खड़ा वह किसी को ना जीने देता।
वह युवा वृद्ध या बालक हो नहिं सदा काल जीवित रहता।।३४।।

(२८७) इस भवकानन में मनुषरूप जो वृक्ष काल की अग्नी में।
संपदा रूप जो लतायुक्त स्त्रीरूपी बेलें उसमें।।
आिंलगन करती रहे सदा पुत्रादि पल्लवों का धारी।
रति से उत्पन्न हुआ जो सुख उन फल से लदा हुआ भारी।।३५।।

(२८८) सब सुख की अभिलाषा करते पर सुख कर्मानुसार मिलता।
सबकी मृत्यू होना निश्चित फिर जीव मृत्यु से क्यों डरता।।
इस तरह मूढ़बुद्धी प्राणी भय कामयुक्त होकर जग में।
दुखरूप तरंगों से जो युत इस भव समुद्र में फिरते वे।।३६।।

(२८९) जैसे धीवर के बिछे जाल में मछली क्रीड़ा करती है।
पर मरण रूप आपत्ती पर निंह ध्यान तनिक वो देती है।।
बस वैसे ही सुखरूप नीर में कालरूप जो जाल पड़ा।
उस पर निंह ध्यान जरा देता बस जीवन व्यर्थ गवां देता।।३७।।

(२९०) इस जग से कितने चले गए और जाते हुए देखकर भी।
इस मोहकर्म के वश होकर आत्मा को माने निश्चल ही।।
वृद्धावस्था आने पर भी निंह लक्ष्य धर्म में रखता है।
प्रत्युत स्त्री पुत्रादिक में अधिकाधिक प्रीती करता है।।३८।।

(२९१) जो दुष्चेष्टा से किए कर्ममय कारीगर से बनी देह।
खोटी संधी खोटे बंधन से सहित नाशकर कही देह।।
नाना दोषों से सहित सप्तधातू से भी ये है संयुत।
फिर क्यों कर स्थिर मान रहा ये आधि व्याधि आदिक से युत।।३९।।

(२९२) जग में वांछित लक्ष्मी पा ली सागरों राज्यसुख भोग लिया।
अरु स्वर्गों में भी दुर्लभ जो रमणीय विषय सुख प्राप्त किया।।
पर जिस क्षण मृत्यु पास आए विषसंयुत भोजन के समान।
धिक्कार हो ऐसी लक्ष्मी को मुक्ती का आश्रय लो पुमान।।४०।।

(२९३) जब तक भूखा निर्दयी तथा सबका विनाश करने वाला।
यमराज सामने ना आये नहिं कोई काम आने वाला।।
तलवार वीरता और सुभट आदिक योद्धा रथहस्ति आदि।
सब चीज व्यर्थ हो जाती है बुधि पुरुष यत्न करिए नित ही।।४१।।

(२९४) राजा भी निर्धन हो जाते पूर्वोपार्जित निज कर्मों से।
सर्वथा व्याधि से रहित युवा क्षण भर लगता है नशने में।।
जब सारभूत इस जीवन की अरु धन की ये स्थ्िाति होती।
फिर अहंकार किस वस्तू का सब ही तो नाशवान होती।।४२।।

(२९५) जो स्त्री पुत्र संपदा में मानव अभिमान किया करते।
वे चंचल पवन झकोरे में दीपक सम खुद भ्रम में रहते।।
जैसे उन्मादीजन नभ को मुष्ठी से व्यर्थ प्रहार करे।
सूखी नदि को तिरना जैसे प्यासा मरीचिका को पीवे।।४३।।

(२९६) राजा रूपी मृग लक्ष्मी रूपी मृगी के लिए लड़ते हैं।
फिर भाई पुत्र आदिक कोई ईर्ष्या के वश नहिं दिखते हैं।।
तब बहुत बड़ी आपत्ति रूप धनुधारी यम की फिक्र नहीं।
विद्वान भी कुछ नहिं सोच सके तब होता है आश्चर्य सही।।४४।।

(२९७) जो मनुज मोह के वश होकर प्रियजन की मृत्यु से शोक करें।
निंह कोई गुण की प्राप्ती हो उल्टा निश्चय से दोष जने।।
दुख बढ़ता जाता है एवं चारों पुरुषार्थ नष्ट होते।
मतिविभ्रम हो रोगी होकर दुर्गति रथ से भव भ्रमण करें।।४५।।

(२९८) आपत्ति रूप जग में रहकर यदि कोई दुख मानता है।
फिर वो ऐसे शुभ कार्य करे जो मुक्तीपथ को जाता है।।
जैसे चौराहे पर मकान बनवा कर मालिक खेद करे।
जब पथिक उल्लंघन कर जाए तब बुरा मानना व्यर्थ रहे।।४६।।

(२९९) आचार्य मनुष्यों से कहते क्या वायुरोग हो गया तुम्हें।
अथवा गृह भूत पिशाच लगे उन्मत समान जो क्रिया करे।।
जब पता सभी को स्त्री धन जीवन विद्युत सम चंचल है।
फिर भी निज हित के कार्य न कर माने जग को वो निश्चल है।।४७।।

(३००) जो चला गया उसकी खातिर ऐसा तू शोक कदापि न कर।
गर अच्छा वैद्य बुला लेता अथवा औषधि होती हितकर।।
क्योंकी जैसे चमड़े के बंध वर्षा ऋतु में ढीले होते।
वैसे ही मृत्यु समीप अगर सारे प्रयत्न निष्फल होते।।४८।।

(३०१) जहाँ शरण नहीं ऐसे वन में बलवान व्याघ्र ने पकड़ा है।
तब दीन पशू मैं मैं करके मर जाता कर्म ने जकड़ा है।।
ऐसे कर्मों के व्याघ्रों से जकड़ा मनुष्य मैं मैं करता।
यह घर मेरा यह प्रिया मेरी यह मेरा मेरा कर मरता।।४९।।

(३०२) मृत्यू से नष्ट किए ऐसे आयू के दिन प्रतिक्षण घटते।
फिर भी अज्ञानी जीव सभी कुछ देख के भी निश्चल समझे।।
आचार्य हमें समझाते हैं यहाँ कोई पदार्थ न अविनाशी।
इस खण्ड खण्ड आयू को लख निंह मोह करो जग के वासी।।५०।।

(३०३) जब ब़ड़े बड़े ऋद्धीधारी चंद्रादि सूर्य इंद्रादिक भी।
मृत्यू को प्राप्त किया करते तब कीट सदृश जन अन्यों की।।
क्या बात कहें इसलिए पुत्र स्त्री धन का निंह मोह करो।
जिससे आना निंह पड़े यहाँ ऐसा कोई शुभ कार्य करो।।५१।।

(३०४) संयोग के साथ वियोग लगा और जन्म मरण का साथ यहाँ।
संपति के संग विपत्ति लगी सुख के संग दुख का साथ कहा।।
वैसे ही जग में बार-बार जीवों की अवस्थाएँ बदलें।
कभी नरकगती कभी स्वर्ग और मानव तिर्यंच भेष धर ले।।५२।।

(३०५) हमको कल्याण की प्राप्ती हो यह मानव यही विचार करे।
पर दैवयोग से जो होना होता है वह ही प्राप्त करे।।
इसलिए मोह के वश होकर खोटे विकल्प का त्याग करे।
अरु रागद्वेष रूपी विष को तज साम्यभाव को ग्रहण करे।।५३।।

(३०६) आचार्य और भी कहते हैं घर प्रियतम सुख जीवन आदिक।
वायू से कंपित ध्वज पट सम चंचल है अब क्या कहें अधिक।।
जो स्त्री धन और मित्र आदि में मोह व्याप्त है उसे तजो।
बस एक धर्म ही परम मित्र है उसको ही तुम सदा भजो।।५४।।

(३०७) पुत्रादि शोक रूपी अग्नी को शांत करे जिनकी वाणी।
यतियों में श्रेष्ठ ‘‘पद्मनंदि’’ नामक यति की शीतल वाणी।।
उनके मुखरूपी मेघों से सद्बोध रूप जो धान्य उगा।
ऐसे ‘‘अनित्य पञ्चाशत’’ का हम मनन करें दुख शोक भगा।।५५।।

।।इति अनित्यपञ्चाशत् अधिकार।।

चतुर्थ अधिकार।।

एकत्वाधिकार का वर्णन

(३०८) जो परमात्मा चैतन्यरूप आनंद स्वरूप कहा मुनि ने।
जो नित्य और शाश्वत आत्मा है रहित क्रुधादिक कर्मों से।।
ऐसा परमात्मा मुझे और सबको सुख शांति प्रदान करे।
एकत्व अधिकार के वर्णन करने की भी शक्ति प्रदान करे।।१।।

(३०९) जो पुद्गल धर्म अधर्म और आकाश काल से भिन्न सदा।
ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म से भी जो रहे विरक्त सदा।।
जिसका देवेन्द्र और सब जन नित पूजन करते रहते हैं।
ऐसी चैतन्यरूप आत्मा का हम नित वंदन करते हैं।।२।।

(३१०) जिस आत्मा को अज्ञानीजन अनुभव भी नहिं कर सकते हैं।
उसको ज्ञानीजन ज्ञानचक्षु से नित अवलोकन करते हैं।।
जो सब पदार्थ में सारभूत ऐसी चैतन्य आत्मा को।
मैं नमस्कार नित करता हूँ साष्टांग नमा कर मस्तक को।।३।।

(३११) यद्यपि प्रत्येक प्राणियों के तन में यह आत्मा राज रही।
फिर भी अज्ञान अंधेरे में जिन-जिन की आत्मा ढ़की हुई।।
वे नहीं जानते हैं कुछ भी बस बाह्य पदार्थों में भ्रमते।
चैतन्य उसे ही मान रहे भ्रम में ही यहाँ वहाँ फिरते।।४।।

(३१२) कई एक मनुष्य अनेक शास्त्र पढ़कर भी समझ नहीं पाते।
अपनी आत्मा की शक्ती को िंकचित भी जान नहीं पाते।।
जैसे लकड़ी में अग्नि छुपी पर अज्ञानी नहिं जान सके।
वैसे ही तीव्रमोह वश से निज आत्मा नहिं पहचान सके।।५।।

(३१३) प्रबल मोहनी कर्म से अज्ञानी जो जीव।
नहीं मानते नहिं सुने करुणाकर कथनी।।६।।

(३१४) जन्मांध मनुज जब हाथी के इक भाग को ही स्पर्श करे।
उस रूप हस्ति को समझ उसे वह लंबा गोल ही समझ रहे।।
वैसे ही मंदबुद्धि प्राणी एकान्त स्वरूप वस्तु माने।
जबकी इक वस्तु के कई रूप अनेकांतवाद ऐसा माने।।७।।

(३१५) कई एक मनुज को कहीं से कोई थोड़ा सा भी ज्ञान मिले।
विद्वान मानकर अपने को सब जन को मूरख मान रहे।।
इस अहंकार के वश होकर विद्वानों की संगति न करे।
आचार्य हमें समझाते हैं इस मद से बड़ी विपत्ति मिले।।८।।

(३१६) संसार दुख में फंसे हुए प्राणीउद्धारक धर्म एक।
विपरीत रूप कर दिया गया स्वार्थी दुष्टों से है अनेक।।
जो भ्रमित करे लोगों को वह ही धर्म कुपथ पर ले जाता।
इसलिए परख कर ग्रहण करो जिनधर्म ही सच्चा सुखदाता।।९।।

(३१७) जो वीतराग सर्वज्ञ के मुख से कहा धर्म ही सच्चा है।
प्रामाण्य पुरुष के वचनों से ही गुण प्रमाणता प्रगटा है।।
इसलिए वीतरागी अथवा सर्वज्ञ प्रमाणिक कहे गए।
उनके द्वारा ही कहा गया यह धर्म प्रमाणिक भूत हुए।।१०।।

(३१८) सब बाह्य वस्तु का सब जीवों के संग संबंध सदा रहता।
पर बाह्य विषय से भिन्न रूप अंतरंग ज्ञान जिसको रहता।।
वह ज्ञानानंद स्वरूप चित्यचैतन्य ज्ञान अति दुर्लभ है।
इसलिए भव्यजीवों ! इसका ही अनुभव करो मिले फल है।।११।।

(३१९) जिन पंचलब्धि की सामग्री से पात्र विशेष है बन जाता।
वह भव्य जीव इन लब्धि से है रत्नत्रय धारण करता।।
ये करण क्षयोपशम अरु विशुद्धि प्रायोग्य देशना कहलाती।
यह पाँच लब्धियाँ रत्नत्रयधारी को मुक्ती दिलवातीं।।१२।।

(३२०) सम्यग्दर्शन अरु ज्ञान चरित्र तीनों मुक्ती के कारण हैं।
यह मोक्ष प्राप्त करवाता है मुक्ती ही सुख का कारण है।।
इसलिए इसी को पाने का हर क्षण प्रयत्न करना चहिए।
सच्चा सुख यदि पाना चाहो रत्नत्रय को धरना चहिए।।१३।।

सम्यग्दर्शन का स्वरूप

(३२१) आत्मा का तो निश्चय सम्यग्दर्शन है ज्ञानी आत्मा का।
तो सम्यग्ज्ञान कहाता है रत रहना सदा आत्मा का।।
निश्चल रीति से रहना ही सम्यग्चारित्र कहाता है।
तीनों मुक्ति के आश्रय है रत्नत्रय यही कहाता है।।१४।।

(३२२) अथवा विशुद्ध निश्चयनय से चैतन्य रूप जो आत्मा है।
वह एक अखंड पदार्थ रूप निंह भेदरूप परमात्मा है।।
रत्नत्रय आदिक भेदों का उसमें कोई अवकाश नहीं।
इसलिए आत्मा के संग में रत्नत्रय का कुछ काम नहीं।।१५।।

(३२३) यह आत्मा तो निश्चयनय से शुद्धात्मा जब तक नहीं बना।
तब तक प्रमाण नय अरु निक्षेप है भिन्न भिन्न सब रूप वहाँ।।
व्यवहार नयापेक्षा इसमें नय और प्रमाण निक्षेप दिखे।
निश्चयनय से यह एक नित्य चैतन्य रूप अनुभवन करे।।१६-१७।।

(३२४) जो जन्मरहित है परम शांत और एक समस्त कर्म विरहित।
अपने को अपने में जाने ठहरे अपने में स्थिरचित।।
बस वही मोक्ष जाने वाला और वही मोक्ष सुख प्राप्त करे।
वह ही अर्हत अरु जगन्नाथ उसको प्रभु ईश्वर आप्त कहें।।१८-१९।।

(३२५) यह आत्मस्वरूप तेज जो है वह केवलज्ञान व दर्शरूप।
और अनंतसुक्ख स्वरूप कहा जिसने भी जाना इसी रूप।।
उसने ही सब कुछ जान लिया और देख लिया जिसने ये तेज।
उसने ही सब कुछ देख लिया सुन लिया उसी को मिले देव।।२०।।

(३२६) जानने योग्य यह आत्मा ही सुनने के योग्य यही इक है।
और वही देखने योग्य कही उससे सब भिन्न वस्तुएँ हैं।।
नहिं ज्ञान योग्य नहिं श्रवण योग्य नहिं दृष्टिगम्य कोई वस्तू।
ऐसा आचार्य कहें सबसे निज में निज के रमने हेतू।।२१।।

(३२७) गुरू का उपदेश श्रवण करके जो भव्य कृतार्थ हो जाते हैं।
अरु शास्त्रों का अध्ययन किया वैराग्य प्राप्त कर जाते हैं।।
ऐसे योगीजन इन सबको पाकर अपने को धन्य कहें।
बस एक यही चैतन्यरूप बाकी सब बाह्य वस्तु समझे।।२२।।

(३२८) जिस प्राणी ने प्रसन्नचित से इस आत्मा की वार्ता सुन ली।
वह भव्य जीव निश्चय से ही बनता मुक्ती का पात्र वही।।
इसलिए मोक्ष अभिलाषी को आत्मानुभवन करना चाहिए।
फिर मोक्ष नियम से जाएगा नहिं ज्यादा दिन जग में रहिए।।२३।।

(३२९) जो शुद्धात्मा में लीन हुआ प्राणी परब्रह्मात्मा जाने।
वह पुरुष परम ब्रह्मा स्वरूप ही निश्चय से ऐसा माने।।
इसलिए कहा है भव्यों से परमात्मा का नित ध्यान करे।
तब शीघ्र मोक्ष मिल जाएगा जो गुरुओं पर श्रद्धान करे।।२४।।

(३३०) बाकी जो अन्य पदार्थों से संबंध आत्मा का होता।
आचार्य हमें समझाते हैं उससे ही कर्मबंध होता।।
लेकिन जब वह एकतारूप शान्ती में स्थिर रहता है।
तब परपदार्थ से मोह त्याग वह मुक्तिरमा को वरता है।।२५।।

(३३१) जिस तरह पवन के थमने से सागर में लहरें थम जाती।
बस उसी तरह यह आत्मा भी कर्मों से जब है छुट जाती।।
तब सभी विकल्प रहित होकर केवलज्ञानी बन जाती है।
वह ही तब शांत अवस्था की धारी आत्मा बन जाती है।।२६।।

(३३२) सम्यग्दृष्टी विचार करता संयोग से वस्तु जो मुझे मिली।
वह सब मुझसे है पृथक््â तथा मुझको जो ऐसी बुद्धि मिली।।
संयोग से पैदा हुई वस्तु के त्याग से मैं हूँ मुक्त सदा।
मेरी आत्मा में किसी तरह के कर्मों का संबंध न था।।२७।।

(३३३) शुभ अशुभ कर्मरूपी राक्षस मेरा बिगाड़ क्या कर लेंगे।
यदि रागद्वेष का ही संबंध मेरी आत्मा संग ना होंगे।।
जब त्याग रूप मंत्रों से कीलित मेरी यह आत्मा होगी।
तब कर्म निशाचर से लड़ने की मंत्रों की शक्ती होगी।।२८।।

(३३४) जो रागद्वेष के कारण मिलने पर भी उसका त्याग करें।
ऐसे सज्जनगण कहलाते पर बिन कारण जो राग करें।।
वे प्राणी सर्व अनिष्टों को खुद ही आमंत्रित करते हैं।
इसलिए राग और द्वेष तजो इससे बस दुख ही मिलते हैं।।२९।।

(३३५) मन वचन काय की चेष्टा से चेष्टानुसार ही कर्म बंधे।
कर्मानुसार ही वृद्धी को भी प्रतिदिन प्राप्त किया करते।।
इसलिए मोक्ष के अभिलाषी मन वचन काय से भिन्न एक।
आत्मा की ही कर उपासना चैतन्यरूप जो कही एक।।३०।।

(३३६) आत्मा का कर्मों से मिलाप इसको ही द्वैत कहा मुनि ने।
इस द्वैत से निश्चय से होता है यह द्वैताद्वैत से मुक्ति मिले।।
जिस तरह लोह से लोहपात्र सोने से स्वर्णपात्र बनते।
बस उसी तरह से कर्मों के अनुसार जगत में हैं भ्रमते।।३१।।

(३३७) निश्चयनय से एकत्व रूप जो है अद्वैत बस मोक्ष वही।
व्यवहार नयापेक्षा कर्मों कर किया हुआ जो द्वैत वही।।
संसार यही कहलाता है जब तक कर्मों का साथ रहे।
जब छुट जाता संग कर्मों का उसको ही मुनिजन मोक्ष कहें।।३२।।

(३३८) जो बंध मोक्ष अरु राग द्वेष कर्मों से विरहित बुद्धी है।
आत्मा को शुभ और अशुभ मान कर द्वैत सहित जो बुद्धी है।।
वह निजानंद शुद्धात्मा के अद्वैत स्वरूप की अपकारी।
इसलिए असिद्धी कहलाती जग में आत्मा को भटकाती।।३३।।

(३३९) कर्मों का उदय उदीरण और सत्ता में जो भी रहना है।
वह सब कर्मों की है रचना आत्मा को इनसे बचना है।।
यह सब आत्मा से भिन्न तथा उत्कृष्ट कर्म से विरहित है।
बस केवलज्ञानमयी आत्मा कर्मों के व्यूह से विरहित है।।३४।।

(३४०) काले पीले नीले रंग के नभ में बनते आकार कई।
हाथी घोड़े का रूप कभी बादल में बने विकार कई।।
आकाश अमूर्तिक होता है उन विकृति से नहिं कुछ होता।
बस उसी तरह से आत्मा का क्रोधादि विकार न कुछ करता।।३५।।

(३४१) निश्चयनय से इस आत्मा का कोई भी नाम नहीं होता।
इस तन के ये सब धर्म कहे नहिं आत्मा जन्म मरण करता।।३६।।

(३४२) ऐसा यदि कोई कहे हमसे यह आत्मा ज्ञान सहित होती।
यह भी कल्पना मात्र है बस ज्ञान, आत्मा भिन्न नहीं होती।।३७।।

(३४३) जो क्रिया व कारक संबंधों से रहित चेतनामय आत्मा।
उसकी जो उपासना करते वह भव्य मोक्ष पद है पाता।।३८।।

(३४४) वह आत्मा ही है परमज्ञान अरु दर्श और चारित्र वही।
तप वही किन्तु शुद्धात्मा से नहिं दर्श ज्ञान है भिन्न कोई।।३९।।

(३४५) चैतन्य आत्मा वही एक बस नमन योग्य कहलाती है।
मंगल स्वरूप है सर्व श्रेष्ठ भविजीवों की शरणार्थी है।।४०।।

(३४६) अप्रमत्त योगि की आत्मा का जो ध्यान वही आचार कहा।
आवश्यक क्रिया वही स्वाध्याय वही नहिं कुछ भी भिन्न वहाँ।।४१।।

(३४७) आत्मा में स्थित वही पुरुष शील और गुणों का धारी है।
उस ही के निर्मल धर्म कहा वह निश्चय से ब्रह्मचारी है।।४२।।

(३४८) जो सर्वशास्त्र रूपी समुद्र का तीन रत्न पाने हेतु।
अध्ययन करे वह आत्मा ही सबमें मानी रमणीय वस्तु।।
इसलिए भव्य जीवों को इस चैतन्यस्वरूपी आत्मा में।
स्थिर रहना चहिए जिससे हो जाये लीन परमात्मा में।।४३।।

(३४९) वह आत्मा ही है परमतत्व वह ही उत्कृष्ट स्थान कही।
वह ही आराधन योग्य भव्य जीवों का उत्तम तेज वही।।४४।।

(३५०) और वही आत्मा जन्मरूप तरु के छेदन में शस्त्र सदृश।
अरु वही सज्जनों को है मान्य योगिजन ध्यान करें सहर्ष।।४५।।

(३५१) चैतन्य स्वरूपी आत्मा ही मुक्ती का मार्ग कहा जग में।
अतएव मोक्ष के अभिलाषी आनंद मानते हैं उसमें।।
इस आत्मा के अतिरिक्त कहीं आनंद प्रतीत नहीं होता।
इसलिए इसी का ध्यान करो इससे ही मोक्षमार्ग मिलता।।४६।।

(३५२) संसार ताप से खिन्न जीव शांतात्मा में आराम लहे।
जिस तरह धूप से तप्त प्राणि को शीतल घर में शांति मिले।।४७।।

(३५३) यह आत्मा एक किला जैसा जहाँ कर्म शत्रु नहिं घुस सकते।
निजबल से कर्म शत्रुओं का अपमान भी वे ही कर सकते।।४८।।

(३५४) वह आत्मा ही महती विद्या स्फुरायमान है मंत्र वही।
वह ही है महाऔषधि जिससे हो जन्म जरादिक शीघ्र नष्ट।।४९।।

(३५५) जो शुद्धात्मा का ध्यान और अनुभवन मनन आदिक करते।
मुक्तीरूपी मनहर तरु पर सुखरूपी उत्तम फल मिलते।।५०।।

(३५६) त्रैलोक्य रूप घर का स्वामी उसको चैतन्य तेज समझो।
क्योंकी चैतन्य आत्मा बिन इस घर को भी तुम वन समझो।।
इसमें है शंका कोई नहीं यह तीन लोक का राजा है।
जो लीन रहे हरदम इसमें डर कर्मअरि भी भागा है।।५१।।

(३५७) जो शुद्ध निरंजन निराकार वह मैं ही एक आत्मा हूँ।
इसमें है संशय कोई नहीं पर इससे भिन्न शुद्धात्मा हूँ।।५२।।

(३५८) यदि करे मोक्ष की इच्छा भी उसका आचार्य निषेध करें।
क्योंकी इच्छाएँ मोहजनित इच्छा से सहित न मुक्ति वरे।।५३।।

(३५९) जब शुभ इच्छा भी वर्जित है फिर अन्य वस्तु का कहना क्या।
इसलिए मुमुक्षु शांत जन जो कोई भी इच्छा ना करना।।५४।।

(३६०) मैं एक तथा चैतन्यरूप उससे कुछ भी मैं भिन्न नहीं।
निश्चयनय से मेरी आत्मा का किसी से भी संबंध नहीं।।५५।।

(३६१) इन बाह्य शरीरादिक पदार्थ से मेरी आत्मा विरहित है।
अरु रागद्वेष रूपी मल से भी रहित आत्म में स्थित है।।५६।।

(३६२) आचार्य और भी कहते हैं चैतन्यामृत का पान करो।
भवभ्रमण में जो भी खेद हुआ हे भव्यपुरुष ! अब शांत करो।।५७।।

(३६३) आचार्य प्ररूपण करते हैं यह आत्मा है अत्यन्त सूक्ष्म।
स्थूल तथा यह एक भी है और स्वसंवेद्य अनेक रूप।।५८।।

(३६४) अवेद्य और अक्षर भी है उपमा से रहित अनक्षर है।
अवक्तव्य और अप्रमेय आकुलतारहित शून्य भी है।।५९।।

(३६५) चैतन्य स्वरूप तेजधारी मन वचन से कुछ नहिं कह सकते।
यह आत्मा दृष्टि अगोचर है इसका वर्णन नहिं कर सकते।।६०।।

(३६६) जैसे अम्बर में चित्रालेखन करना कितना दुर्लभ है।
वैसे ही अल्पज्ञानियों को परमात्मदर्श भी दुर्लभ है।।६१।।

(३६७) जो प्राणी उस शुद्धात्मा में स्थित रहता वह है महान।
पर केवल जो िंचतवन करे उसकी पूजा करता जहान।।६२।।

(३६८) सारे जग के ज्ञाता दृष्टा जो केवलज्ञान नेत्रधारी।
इसकी उपासना का उपाय करते हैं वे समताधारी।।६३।।

(३६९) ये स्वास्थ्य समाधी और साम्य चित का निरोध शुद्धोपयोग।
सब एक अर्थ कहने वाले पर शब्द भिन्न कहते हैं लोग।।६४।।

(३७०) जिसमें न कोई आकार वर्ण अक्षर और कोई विकल्प नहीं।
वह ही चैतन्य आत्मा है मुनिवर कहते हैं साम्य वही।।६५।।

(३७१) यह समता ही उत्कृष्ट कार्य और साम्य ही उत्तम तत्त्व कहा।
और साम्य ही मुक्ति हेतु सारे उपदेशों में उपदेश कहा।।६६।।

(३७२) इस साम्य से ही भवि जीवों को है सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता।
शुद्धात्म रूप ये मोक्षद्वार इससे अविनाशी सुख मिलता।।६७।।

(३७३) सब शास्त्रों में है सारभूत ये साम्य ही कहा गणधर ने।
यह साम्य है दावानल समान सब कर्म अरि के नाशन में।।६८।।

(३७४) सब दुखों का हर्त्ता ये साम्य योगीजन ध्यान करें इसका।
आत्मा के कर्मजनित रागादिक दोषों को भी ये नशता।।६९।।

(३७५) अणिमादि रूप जो कमलखंड उसकी न जरा भी इच्छा है।
और समतारूप सरोवर में रमते रहने की इच्छा है।।
जिनकी अत्यन्त पवित्र दृष्टि है मुक्तिहंसिनी के ऊपर।
ऐसी उस शुद्धात्मा को मैं नित नमन करूँ मस्तक धर कर।।७०।।

(३७६) मृत्यू का ताप दुक्ख देता ज्ञानी को है अमृत समान।
जिस तरह घड़े की पाक विधी पानी भरने के योग्य जान।।७१।।

(३७७) सत्कुल में जन्म बुद्धि लक्ष्मी और कृतज्ञता आदिक जो गुण।
वे सब विवेक बिन व्यर्थ कहे ये सारे बन जाते दुर्गुण।।७२।।

(३७८) जड़ चेतन दो हैं तत्त्व कहे जो ग्रहण योग्य सो ग्रहण करें।
उसको विवेक गुण कहते हैं जो त्याग योग्य तो त्याग करें।।७३।।

(३७९) इस जग में मूढ़ मनुष्यों को कुछ सुख कुछ दुख मालुम पड़ता।
पर अंतर यही विवेकी में उसको जग में दुख ही दिखता।।७४।।

(३८०) जो हैं विवेकिजन उन्हें सभी रागादि कर्म तजना चहिए।
और दर्शनज्ञान स्वरूप आत्म के तेज में ही रमना चहिए।।७५।।

(३८१) यह जो चैतन्य वही मैं हूँ वह ही सबको जाने देखे।
पर निश्चयनय से मैं मेरी आत्मा से पृथक् यही देखें।।७६।।

(३८२) एकत्वसप्तति रूप नदी ‘‘श्री पद्मनंदि’’ हिम से निकली।
जो भव्य जीव स्नान करें यह मोक्षरूप सागर में मिली।।
इनके समस्त मल क्षय होकर अत्यन्त शुद्ध हो जाते हैं।
जो सदा इसी का ध्यान करें वे मोक्षलक्ष्मी पाते हैं।।७७।।

(३८३) जो भवसमुद्र से तिरने में पुल के समान उपेदश किया।
इसका आश्रय ले भविजन ने उत्तम आत्मा का ध्यान किया।।
इस क्षोभरहित आत्मा में रागादिक मल नहिं रह सकते हैं।
निर्मल चित के धारी होकर ज्ञानी यह चिंतन करते हैं।।७८।।

(३८४) यह आत्मा भिन्न तदनुगामी जो कर्म भी भिन्न सभी हमसे।
कर्म आत्मा संग जो है विकार, वह भी हैं भिन्न सभी मुझसे।।
जो काल क्षेत्र आदिक पदार्थ और गुण पर्याय सहित पदार्थ।
सब मुझसे भिन्न-भिन्न हैं यह ज्ञानीजन करते हैं विचार।।७९।।

(३८५) जो भव्य जीव इस आत्मतत्व का बारंबार अभ्यास करें।
और कथन करें मंथन अनुभव कर नौलब्धी भंडार भरें।।
वे भव्य जीव अविनाशी अरु अनंतदर्शन के धारक हैं।
क्षायिक चारित्र ज्ञान क्षायिक केवल लब्धी आदिक भी हैं।।८०।।

।।इति एकत्वसप्तति अधिकार।।

+ 3

‘‘यति भावना का कथन’’

।।पंचम अधिकार।।

(१) निज आत्मा का स्वरूप लखकर व्रत धारण कर वन में जाकर।
और मोहजनित कर्मों के सब संकल्प विकल्पों को तजकर।।
जो मुनिगण मनरूपी वायू से नहीं चलायमान होते।’
आत्मा में लीन वही मुनिगण पर्वत समान स्थिर रहते।।

(२) चित की वृत्ती का कर निरोध इंद्रिय वश करके धैर्य सहित।
स्वासोच्छवास को रोक तथा पर्यंकासन से हो स्थित।।
निर्जन वन की वंदराओं में मैं बैठ के आतम ध्यान करूँ।
मुनिगण ऐसा विचार करते मैं कब शिवपथ को प्राप्त करूँ।।

(३) धूली धूसरित वस्त्र विरहित पर्यंकासन से सहित शांत।
और वचन रहित आँखे मूंदे जब निज स्वरूप कर लिया प्राप्त।।
वन में भ्रम सहित मृगों का गण आश्चर्य सहित जब देखेगा।
उस समय पुण्यशाली मेरे समान कोई भी नहिं होगा।।

(४) हो किसी शून्य मठ में निवास और दिशारूप ही अम्बर हो।
संतोषमयी धन क्षमारूप स्त्री तपरूपी भोजन हो।।
मैत्री हो सभी प्राणियों में आतमस्वरूप का िंचतन हो।
ये सभी वस्तुएँ पास मेरे फिर पर से नहीं प्रयोजन हो।।

(५) जो उत्तमकुल में जन्म पाय सुन्दर निरोग तन प्राप्त करे।
शास्त्रों को पढ़ वैराग्य प्राप्त कर तप को जो निर्बाध करे।।
वह पुण्यवान बस इक जग में मदरहित ध्यान अमृत पीता।
तो मानो वह मनुष्य घर के ऊपर मणिमयी कलश रखता।।

(३९२) जो ग्रीष्म ऋतू में पर्वत पर योगीजन ध्यानलीन होते।
वर्षा में वृक्षों के नीचे शिशि ऋतु में गगन तले करते।।
ऐसे तप के धारी ध्यानी जिनकी आत्मा अत्यन्त शांत।
उन योगी का पथ मिले मुझे उनको मेरा शत शत प्रणाम।।

(३९३) इस भेद ज्ञान से जिस समाधि में मन की वृत्ति संकुचित है।
ऐसी अद्भुत उत्कृष्ट समाधि धन्य शमिक मुनि के होती हैं।।
मस्तक पर चाहे वङ्का गिरे तीनों लोकों के जलने पर।
जिन मुनि के मन न विकार कोई चाहे प्राणों के नशने पर।।

(३९४) जिसे कर्मों का संबंध नहीं और अहं शब्द आत्मावाचक।
इस आत्मतत्त्व को जिन मुनिवर ने जान लिया सुन लिया कथन।।
जिस मुनि को रहने सोने को निजतत्त्व ही श्रेष्ठ संपदा है।
सुख भी है वही वृत्ति वो ही निजतत्त्व वही प्रिय लगता है।।

(३९५) जो यतिभावन अष्टक सब पाप शत्रु को नष्ट करन वाला।
और राजश्री व स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी को देने वाला।।
जिसकी रचना चैतन्यरत्न ‘‘श्री पद्मनंदिमुनि’’ ने की है।
जो तीनों काल पढ़े उनको इच्छित अभीष्ट मिलता ही है।।

।।इति यतिभाव

श्रावकाचार

छठा अधिकार

(१) श्री आदिजिनेश्वर ऋषभनाथ और नृप श्रेयांस जग पूज्य हुए।
इनमें पहले आदीश्वर जी व्रततीर्थ प्रवत्र्तक प्रथम हुए।।
फिर उसी काल में नृप श्रेयांस ने दानतीर्थ की प्रवृति करी।
इन दोनों से ही भरतक्षेत्र में धर्मतीर्थ की प्रवृति हुई।।

(२) सम्यग्दर्शन और ज्ञान चरण इन तीनों का समुदाय धरम।
कहलाता है और निश्चित ही यह मोक्षमार्ग का है कारण।।

(३) जो प्राणी रत्नत्रयस्वरूप इस मोक्षमार्ग को नहिं धरते।
वह मुक्ती नहीं प्राप्त करते इस जग में ही भ्रमते रहते।।

(४) इस रत्नत्रय के एकदेश और सर्वदेश दो भेद कहे।
इकदेश धर्म श्रावक के हैं अरु सर्वदेश मुनि के रहते।।

(५) इस पंचमकाल में इन दोनों से धर्म मार्ग की प्रवृत्ति है।
इसलिए धर्म के कारण में श्रावक की पहले गिनती है।।

(६) इस पंचमकाल में श्रावकगण जिनमंदिर आदिक बनवाते।
मुनियों को दे आहारदान दोनों विध धर्म निकट जाते।।
इसलिए कहा आचार्यों ने है गृहीधर्म भी अति उत्तम।
क्योंकी मुनिधर्म ग्रहण करने में श्रावक ही बनते कारण।।

षट् आवश्यक कर्म

(७) जिनपूजा गुरु की उपासना स्वाध्याय और संयम तप है।
अरु दान मिलाकर श्रावक के षट्कार्य मुनीश्वर कहते हैं।।

सामायिक का लक्षण

(८) सब प्राणी में समता रखना संयम धारण के भाव रखे।
और आर्त रौद्र दुध्र्यानों का जो त्याग करे सामायिक है।।

(९) जिस प्राणी का चित व्यसनों में हो रहा मलिन निंह कर सकता।
सामायिक का जो आकांक्षी वह सप्त व्यसन को है तजता।।

सप्त व्यसनों के नाम

(१०) खेले जो जुआँ, अरु मांस, मद्य, वेश्यासेवन, चोरी, शिकार।
परस्त्री सेवन सप्त व्यसन ये महापाप इनको तू त्याग।।

(११) जो जीव धर्म का अभिलाषी उसके यदि सप्तव्यसन होवे।
तो उसमें धर्म धारने की योग्यता कभी भी नहिं होवे।।

(१२) जिस तरह व्यसन हैं सात नरक भी सात कहे आचार्यों ने।
अपनी वृद्धी के लिए करे आकर्षित वह ले जाने में।।

(१३) सप्तांग सैन्यबल से राजागण जैसे युद्ध जीतते हैं।
वैसे ही पापमयी राजा धर्मरूपी युद्ध जीतते हैं।।
ले सप्त व्यसन की सेना फिर वे करे चढ़ाई धर्मी पर।।
यदि उसके वश में हो जाए, भोगें दुख दुर्गति में जाकर।।

(१४) जो भव्य पुरुष जिन भगवन का भक्तीपूर्वक दर्शन करता।
उनकी पूजा स्तुति करता फिर सारा लोक उन्हें नमता।।

(१५) लेकिन जो प्राणी जिनवर की भक्ति पूजा स्तुति न करे।
उसका सारा जीवन निष्फल आचार्य उन्हें धिक्कार रहे।।

(१६) प्रात: उठकर जिन देव तथा गुरु का दर्शन करना चहिए।
भक्तीपूर्वक वंदना करे फिर धर्मश्रवण करना चहिए।

(१७) इसके पश्चात् अन्य गृह संबंधी कार्यों को पूर्ण करे।
क्योंकि धर्मार्थ काम अरु मोक्ष में धर्म ही पहला कर्म कहे।।

(१८) गुरुओं की कृपा दृष्टि से ही ये ज्ञानरूप दो नेत्र मिले।
जिससे सारे पदार्थ दिखते हस्तरेखा सम जब ज्ञान मिले।।

(१९) जो गुरुओं को गुरु नहिं माने नहिं सेवा अरु वंदना करे।
निज जीवन में कर प्राप्त दिवाकर अंधकार में सतत रहे।।

(२०) जो श्रावक निष्कलंक गुरुओं से लिखित शास्त्र को नहिं पढ़ते।
वे नेत्र सहित होने पर भी अंधे के ही समान दिखते।।

(२१) जिस नर ने गुरु के सन्निध रह नहिं शास्त्र सुना अरु नहिं धारा।
उनके नहिं कान और मन है ऐसा गुरुओं ने है माना।।

(२२) जीवों की रक्षा अरु मन एवं इंद्रिय पर संयम रखना।
यह एकदेशव्रत संयम है इसका मन से पालन करना।।
क्योंकी संयम को पाले बिन व्रत फलीभूत नहिं हो सकते।
इसलिए श्रावकों को इसका पालन कर स्वर्ग मोक्ष मिलते।।

(२३) श्रावकगण मद्य मांस मधु एवं पंच उदुम्बर त्याग करें।
सम्यग्दर्शनपूर्वक हो त्याग ये अष्टमूलगुण कहे गये।।

(२४) बारह व्रत कहे गृहस्थों के जो इनका पालन करते हैं।
वे पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं।।

(२५) अष्टमी चतुर्दशि पर्वों में जो यथाशक्ति उपवास करे।
रात्रि में भोजन नहिं करता और छना हुआ जल पान करे।।

(२६) सम्यग्दृष्टी श्रावक ऐसे धन का नर का आश्रय न करें।
एवं उस देश नहीं जाएं जहाँ सम्यग्दर्श मलिन होवे।।

(२७) भोगोपभोग परिमाण करे यह कहा हमारे मुनियों ने।
विद्वान लोग इस व्रत के बिन नहिं रहें एक क्षण जीवन में।।

(२८) हे भव्यजीव ! आलस्य रहित हो रत्नत्रय का आश्रय लो।
जिससे आगे जन्मान्तर में श्रद्धा की दिन-दिन वृद्धी हो।।

(२९) जो जैनधर्म के अनुयायी उनको स्व योग्यता के नुसार।
पाँचों परमेष्ठि और रत्नत्रयधारी की समयानुसार।।
श्रद्धा अरु विनय अवश्य करे जिससे बोधी की प्राप्ती हो।
गुरुओं की जो जन विनय करें उनकी भवभ्रमण समाप्ती हो।।

(३०) इस विनय से रत्नत्रय एवं तप आदिक की प्राप्ती होती।
गणधर आदिक जो महापुरुष कहते मुक्ती उसको वरती।।

(३१) श्रावकजन यथाशक्ति अपनी, सत्पात्र में दान अवश्य करें।
बिन दान गृहस्थपना निष्फल ऐसा सूरीगण हमें कहें।।

(३२) निग्र्रंथ साधुओं को जो जन चारों प्रकार आहार न दे।
उनके घर कारागृह सदृश केवल बंधन के लिए बने।।

(३३) जिससे यतिवर को सुख पहुँचे वह चार दान ये कहे गये।
औषध आहार अभय अरु शास्त्रदान से ख्याति बहुत होवे।।

(३४) धन आदिक से समर्थ होकर भी यति को दान नहीं देता।
वह मूढ़ पुरुष अगले भव में निज सुख को स्वयं नष्ट करता।।

(३५) जो गृह आश्रम है दान रहित वह पत्थर की नौका सम है।
क्योंकी पत्थर से बनी नाव डूबेगी ही कहता जन है।।

(३६) जो सज्जन में शक्त्यानुसार वात्सल्य भाव नहिं रखते हैं।
वह धर्म पराङ्मुख आत्मा को ही प्रबल पाप से ढ़कते हैं।।

(३७) करुणापूरित उपदेशों से भी जिनके मन में दया नहीं।
वे मनुज धर्म के पात्र कभी भी नहिं हो सकते कहा यही।।

(३८) यह धर्मरूप तरु की जड़ है सब व्रत में मुख्य कहा इसको।
यह दया सर्व संपति का घर और गुण की खान कहें इसको।।

(३९) जिस तरह पूâल के हारों को धागे से बाँधा जाता है।
वैसे ही प्राणी में समस्त गुण दया भाव से आता है।।

(४०) मुनियों और श्रावक के जितने व्रत प्रभु के द्वारा कहे गए।
वे सभी अिंहसा की प्रसिद्धि के लिए जिनेन्द्र प्रभू ने कहे।।

(४१) केवल प्राणी को पीड़ा देने से ही पाप नहीं होता।
बल्कि संकल्पसहित जो िंहसा से भी भाव मलिन होता।।
वह मर जावे तो अच्छा हो अथवा मैं उसको मारूंगा।
इत्यादि भाव से भी िंहसा का दोष लगे सो बंध होगा।

(४२) द्वादश अनुप्रेक्षा का िंचतन श्रावकजन को करना चहिए।
इससे सब कर्म नष्ट होते इसलिए मनन करना चहिए।।

बारह भावनाओं के नाम

(४३) अध्रुव अशरण संसार और एकत्व अन्यत्व भावना है।
अशुचित्व और आस्रव संवर निर्जरा लोक ये सब दश हैं।।

(४४) ग्यारहवीं कही बोधिदुर्लभ बारहवीं धर्म अनुप्रेक्षा।
जिनपुंगव द्वारा कही गयी इनसे रोके मन की इच्छा।।

अनित्य भावना

(४५) प्राणी के सभी शरीर और धन धान्य पदार्थ विनाशी हैं।
इसके नशने पर शोक न कर यह दुख से बंध स्वभावी हैं।।

अशरण भावना

(४६) जिस मृग के बच्चे का शरीर व्याघ्री ने कसकर पकड़ लिया।
निर्जन वन में इस बच्चे को नहिं कोई बचाने योग्य मिला।।
वैसे ही आपत्ती आने पर इंद्र नरेन्द्र न बचा सवें।
इसलिए धर्म के बिना नहीं कोई शरणा हम जिसे लहें।।

(४७) जो िंकचित सुख मालुम होता वह सुखाभास सुख के समान।
जो दुख है सत्य वही है बस, सच्चा सुख मुक्ती का निधान।।

एकत्व भावना

(४८) यदि निश्चय से देखा जाए संसार में जीव का कोई नहीं।
सब कर्म के फल को भोग रहे ना स्वजन कोई ना परजन ही।

अन्यत्व भावना

(४९) आत्मा शरीर की स्थिति तो है क्षीर नीर सम मिली हुई।
फिर भी हैं भिन्न परस्पर में स्त्री पुत्रादिक वैसे ही।।

अशुचित्व भावना

(५०) यह काया कृमि धातू मल आदिक अशुचि वस्तु से भरी हुई।
इसके संबंध से अन्य वस्तुएँ अपवित्रता को प्राप्त हुर्इं।।

आश्रव भावना

(५१) इस भव समुद्र में जीवरूप नौका छिद्रों से युक्त सही।
मिथ्यात्वादिक कषाय रूपी छिद्रों में कर्म जल आश्रव ही।।
अपने विनाश के लिए कर्म को ग्रहण करे वह आश्रव है।
इसके स्वरूप को जान इसे जो त्यागे वह श्रावक है।।

संवर भावना

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५२) कर्मों का आश्रव रुक जाना वह ही निश्चय से संवर है।
मन वचन काय की अशुभ वृत्ति को वश करना भी संवर है।।

निर्जरा भावना

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५३) पहले से संचित कर्मों का इकदेश रूप से नश जाना।
है वही निर्जरा कहलाती संसार भोग को भी तजना।।
वैराग्य बढ़ाने वाले तप अनशन अवमौर्यादिक ही है।
मुनिवर ये तप धारण करते जिनके न मोह मायादिक हैं।।

लोक अनुप्रेक्षा

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५४) यह सर्व लोक है विनाशीक अध्रुव है दुख करने वाला।
ऐसा विचार कर श्रावक को है कहा मुक्ति में रम जाना।।
।।बोधिदुर्लभ भावना।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५५) रत्नत्रय की जो प्राप्ती है वह बोधि भावना कहलाती।
यह बोधि प्राप्ति अति दुर्लभ है उससे भी कठिन रक्षा उसकी।

धर्म भावना

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५६) जिनधर्म को पाना बहुत कठिन जो ज्ञानानंद स्वरूप कहा।
मुक्ती पर्यंत साथ जाए ऐसी रीती से धरो सदा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५७) संसार रूप खारे समुद्र से यदि तिरने की इच्छा है।
तो धर्मपोत ही पार करे ऐसी गणधर की शिक्षा है।।
नाना प्रकार के दुखरूपी जो नक्र मकर से व्याप्त सदा।
ऐसे समुद्र को तिरने में आश्रय है धर्मजहाज सदा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५८) जो सज्जन जन अनुप्रेक्षाओं का बार बार िंचतवन करें।
वे पुण्य उपार्जन करते हैं और स्वर्ग मोक्ष में हेतु कहें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५९) जिसकी आदी में क्षमा धर्म दश भेद रूप वह होता है।
श्रावक को यथाशक्ति आगम अनुरूप पालना होता है।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६०) चैतन्य स्वरूप विशुद्धात्मा तो अंतस्तत्व कहाती है।
और सब प्राणी में दयाभाव से बाह्य तत्त्व बन जाती है।।
इन दोनों के सम्मेलन से ही मोक्षमार्ग की प्राप्ती हो।
दोनों तत्वों का भलीभाँति आश्रय ले मोक्ष अभिलाषी जो।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६१) कर्मों से कर्मों के कार्यों से जो होता सर्वथा भिन्न।
वह चिदानंद चैतन्य रूप अविनाशी और आनंद स्वरूप।।
इस नित्यानंदमयी पद को देने वाली इस आत्मा का।
ज्ञानीजन को िंचतवन सदा करना चहिए परमात्मा का।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६२) इस तरह ‘‘पद्मनंदी मुनि’’ ने श्रावकाचार की रचना की।
इसके अनुवूâल आचरण करने की जिसमें है प्रवृत्ति रही।।
और उन्हीं मनुष्यों को तब ही इस निर्मल धर्म की प्राप्ती हो।
इसलिए धर्म के अभिलाषी की सदा धर्म में प्रवृत्ति हो।।

।।इति उपासक संस्कार (श्रावकाचार) अधिकार।।

देशव्रतोद्योतन

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१) बाह्याभ्यंतर परिग्रह तज करके चार घातिया नाश किया।
अरु शुक्ल ध्यान से जिनप्रभु ने सर्वज्ञपने को प्राप्त किया।।
जिनधर्म निरूपण करने में उनके ही वचन सत्य माने।
संदेह करें वे हैं पापी अथवा अभव्य उनको जानें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(२) निज पाप कर्म से दुखित मनुष यदि सम्यग्दर्शन से युत है।
वह सम्यग्दृष्टी एक बहुत ही आदर पाने योग्य कहें।।
प्रत्युत मिथ्यामत में स्थित संप्रति में बहुत सुखी दिखता।
वह बहुत बड़ी मात्रा में हो फिर भी नहिं आदर योग्य कहा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(३) जिनप्रभु ने सम्यग्दर्शन को है मोक्ष वृक्ष का बीज कहा।
अरु मिथ्यादर्शन को प्रभु ने संसार वृक्ष का बीज कहा।।
क्योंकी नरकादि योनियों में भ्रम रहा अनादीकालों से।
इसलिए करो रक्षा इसकी जो मिला बहुत ही कालों में।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(४) इस जग में काल अनंत बीत जाये तब मनुज जन्म मिलता।
उस पर यदि सम्यग्दर्श मिले तो मुक्ति हेतु तप को करना।।
यदि िंनदा अथवा मोहकर्म का उदय अशक्तपना होवे।
तो भी श्रावक षट्कर्मों के जो योग्य व्रतादि अवश्य करे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५) जो सम्यग्दर्शन सहित भव्य हैं अष्ट मूलगुण के पालक।
और पाँच अणुव्रत गुणव्रत त्रय शिक्षाव्रत चारों के धारक।।
अरु सात शीलव्रत को पाले रात्रि में भोजन नहीं करे।
जल छना हुआ ही पीता हो और यथाशक्ति मौनादि धरे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६) जो व्रती जीव निजकार्य हेतु स्थावर जीव मारते हैं।
दो इंद्रिय आदिक त्रस जीवों की हरदम रक्षा करते हैं।।
अरु सत्य बोलना अचौर्यव्रत निज स्त्री का सेवन करते।
सामायिक प्रोषध दान और भोगोपभोग गुणव्रत धरते।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(७) यद्यपि धनवान श्रावकों के पुण्योपार्जन के हेतु बहुत।
जिनपूजा और प्रतिष्ठा आदिक करते हैं सत्कार्य बहुत।।
पर भवसिंधू से तरने को नौका सम जो मुनिश्रेष्ठ कहे।
उनको आहारदान आदिक देना सबसे ही श्रेष्ठ कहें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(८) सब जीवों की कामना यही हमको जग में सुख शांति मिले।
पर यह सुख मोक्षमार्ग में है जो रत्नत्रय धर के ही मिले।।
और रत्नत्रय की प्राप्ति सदा निर्गं्रथवेष में होती है।
साधूचर्या श्रावकगण के आहारदान से चलती है।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(९) इच्छानुसार भोजन विहार औषधि से तन निरोग रहता।
पर आज्ञा नहीं साधुओं को अतएव शरीर अशक्त रहता।।
पर धर्मात्मा उत्तम औषधि निर्मल जल से गुरुभक्ति करें।
ऐसे उत्तम श्रावकजन से इन साधुगणों की प्रवृति चले।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१०) जो धर्मी श्रावक शास्त्रों का व्याख्यान करें या पाठ करें।
पुस्तक छपवाकर साधुजनों को भक्तीपूर्वक दान करे।।
थोड़े ही भव में तीन लोक में लक्ष्मी को वरने वाले।
वैवल्यज्ञान की प्राप्ती हो जो शास्त्रदान देने वाले।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(११) सब जीवों की करुणापूर्वक जो भय से रक्षा की जाती।
वह अभयदान सब दानों में है श्रेष्ठ प्ररूपण की जाती।।
क्योंकी आहार औषधी से भी बीमारी का भय भगता।
इसलिए दान ये तीनों ही, इसमें ही है र्गिभत रहता।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१२) आहारदान के देने से इन्द्रादि सुखों की प्राप्ती हो।
औषधीदान से परभव में तन सुन्दर और निरोगी हो।।
अरु शास्त्रदान से विद्वत्ता मिलती अद्भुत विस्मयकारी।
अरु अभयदान दे सारे सुख अंतिम सुख मोक्ष मिले भारी।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१३) सैंकड़ों पाप कर्मों को कर नाना प्रकार दुख को सहकर।
वारिधि पर्वत और पृथ्वी पर भ्रम करके बहुत कष्ट सहकर।।
धन संचय करता पर वह धन स्त्री पुत्रादिक से प्यारा।
उस धन को व्यर्थ न खर्च करो है दान धर्म सबसे न्यारा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१४) यह दान ही है श्रावक का गुण दोनों लोकों में चमकाता।
बिन दान के दोनों लोकों में केवल विनाश ही करवाता।।
क्योंकी व्यापार आदि कार्यों में बहुत पाप हो जाते हैं।
उन पापकर्म का क्षालन ही सत्पात्र दान कर पाते हैं।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१५) जो धन उत्तम दानादिक के हेतू उपयोग किया जाता।
उसको ही उत्तम धन कहते परलोक में साथ सदा जाता।।
विद्वान लोग ये भी कहते ये दान अनंतगुणा फलता।
जो भोगविलासों में खर्चे वह सब बेकार चला जाता।।

(१६) पहले भी बड़े बड़े राजा पुत्रों को राज्यपाट देकर।
याचकजन को भी धन देकर सब जन को अभयदान देकर।।
उत्तम तप करके मोक्ष गये इसलिए दान पहला कारण।
इस हेतू धन को क्षणिक मान इससे ही करो भवदुख व

(१७) नरभव को पाकर जो नर मुक्ती हेतु नहीं उद्यम करते।
अत्यन्त मूढ़बुद्धी वाले घर में ही पड़े रहा करते।।
जिस घर में दान नहीं देते वह घर कारागृह सदृश कहा।
अपने सामथ्र्यनुसार दान भवजलधि पोत सम उसे कहा।।

(१८) जो नहीं देवदर्शन करते ना ही उनका स्मरण करें।
ना ही उनकी पूजन करते और ना उनका स्तवन करें।।
सामथ्र्यवान होकर भी जो नहिं साधूजन को दान ही दे।
पत्थर की नौका के समान भविंसधु में डूबेंगे ही वे।। ‘

(१९) िंचतामणी रत्न कामधेनू पारस पत्थर अरु कल्पवृक्ष।
ये परोपकार करने वाले हैं सुना है ना देखा प्रत्यक्ष।।
पर िंचतामणी समान मनोवांछित जो दान देने वाला।
दाता अवश्य देखे जाते इसलिए उसी में सब आता।।

(२०) जिस नगर देश में श्रावकजन रहते हैं जिनमंदिर होता।
अरु जहां जैनमंदिर होता यतिगण का भी निवास होता।।
यतियों में धर्मवृत्ति रहती संचयति पाप जिसे नशते।
पापों के नशने से श्रावक को स्वर्गमोक्ष के सुख मिलते।।

(२१) इस दु:खमा नामक काल में जब जिनधर्म क्षीण हो जाने से।
ध्यानी साधूगण विरले हैं मिथ्यांधकार पैâलाने से।।
जिनप्रतिमाएं जिनमंदिर को जो भक्ति सहित बनवाते थे।
अब विरले हैं वे भव्यपुरुष वंदन के योग्य कहाते वे।।

(२२) विम्बादल के सम छोटे से छोटा मंदिर जो बनवाये।
उसमें जौ के प्रमाण प्रतिमा भी पुण्य का फल वो पाये।।
जिसके वर्णन की बात ही क्या खुद सरस्वती नहिं कह सकती।
फिर जो ऊँचे शिखरों वाले मंदिर बनवाएं पुण्य मही।।

(२३) जहाँ जिनमंदिर के होने पर यात्रा से अरु अभिषेकों से।
अरु बड़े-बड़े उत्सव करके पूजा चरु और चांदने से।
ध्वज आरोहण कलशारोहण अरु घंटा वाद्य चमर दर्पण।
इनसे मंदिर की शोभा कर भविजन करते हैं पुण्यार्जन।।

(२४) जो षट् आवश्यकपूर्वक अणुव्रत धरने वाले श्रावक हैं।
वे स्वर्गों में चिरकाल रहें होते ऋद्धी के धारक हैं।।
फिर मृत्युलोक में आ करके मनुकुल में रत्नत्रय धरकर।
सिद्धालय में जा बसते हैं बाह्याभ्यंतर परिग्रह तजकर।।

(२५) चारों पुरुषार्थों में उत्तम सुख देता मोक्ष है अविनाशी।
उससे विपरीत अर्थ कामादिक तजो मोक्ष के अभिलाषी।।
लेकिन यदि धर्म से भी भोगादिक वस्तु प्राप्त ही होती है।
तो भी वह व्यर्थ कहा लेकिन इस धर्म से मुक्ति भी मिलती है।।

(२६) जो भव्य मोक्ष की प्राप्ति हेतु अणुव्रत महाव्रत धारण करते।

निश्चयनय से सुख की प्राप्ती के लिए मोक्ष को ही लभते।।
क्योंकी अणुव्रत व महाव्रत के आचरण सफल तब ही होते।
यदि मुक्तीसुख के लिए किया वरना जग में दुख ही देते।।

(२७) यह ‘‘देशव्रतोद्योतन’’ क्रम से इंद्र अरु अहमिन्द्र बना करके।
सबका कल्याण करे एवं अंतिम सुख का भंडार भरे।।
दुर्लभ मनुष्य भव पा करके जिस मोक्षमार्ग की प्राप्ती हो।
‘‘श्री पद्मनंदि गुरु’’ की रचना इस जग में सदा जयवंती हो।।

।।इति देशव्रतोद्योतन अधिकार।।

सप्तम अधिकार

देशव्रतोद्योतन

(४५३) बाह्याभ्यंतर परिग्रह तज करके चार घातिया नाश किया।
अरु शुक्ल ध्यान से जिनप्रभु ने सर्वज्ञपने को प्राप्त किया।।
जिनधर्म निरूपण करने में उनके ही वचन सत्य माने।
संदेह करें वे हैं पापी अथवा अभव्य उनको जानें।।१।।

(४५४) निज पाप कर्म से दुखित मनुष यदि सम्यग्दर्शन से युत है।
वह सम्यग्दृष्टी एक बहुत ही आदर पाने योग्य कहें।।
प्रत्युत मिथ्यामत में स्थित संप्रति में बहुत सुखी दिखता।
वह बहुत बड़ी मात्रा में हो फिर भी नहिं आदर योग्य कहा।।२।।

(४५५) जिनप्रभु ने सम्यग्दर्शन को है मोक्ष वृक्ष का बीज कहा।
अरु मिथ्यादर्शन को प्रभु ने संसार वृक्ष का बीज कहा।।
क्योंकी नरकादि योनियों में भ्रम रहा अनादीकालों से।
इसलिए करो रक्षा इसकी जो मिला बहुत ही कालों में।।३।।

(४५६) इस जग में काल अनंत बीत जाये तब मनुज जन्म मिलता।
उस पर यदि सम्यग्दर्श मिले तो मुक्ति हेतु तप को करना।।
यदि िंनदा अथवा मोहकर्म का उदय अशक्तपना होवे।
तो भी श्रावक षट्कर्मों के जो योग्य व्रतादि अवश्य करे।।४।।

(४५७) जो सम्यग्दर्शन सहित भव्य हैं अष्ट मूलगुण के पालक।
और पाँच अणुव्रत गुणव्रत त्रय शिक्षाव्रत चारों के धारक।।
अरु सात शीलव्रत को पाले रात्रि में भोजन नहीं करे।
जल छना हुआ ही पीता हो और यथाशक्ति मौनादि धरे।।५।।

(४५८) जो व्रती जीव निजकार्य हेतु स्थावर जीव मारते हैं।
दो इंद्रिय आदिक त्रस जीवों की हरदम रक्षा करते हैं।।
अरु सत्य बोलना अचौर्यव्रत निज स्त्री का सेवन करते।
सामायिक प्रोषध दान और भोगोपभोग गुणव्रत धरते।।६।।

(४५९) यद्यपि धनवान श्रावकों के पुण्योपार्जन के हेतु बहुत।
जिनपूजा और प्रतिष्ठा आदिक करते हैं सत्कार्य बहुत।।
पर भवसिंधू से तरने को नौका सम जो मुनिश्रेष्ठ कहे।
उनको आहारदान आदिक देना सबसे ही श्रेष्ठ कहें।।७।।

(४६०) सब जीवों की कामना यही हमको जग में सुख शांति मिले।
पर यह सुख मोक्षमार्ग में है जो रत्नत्रय धर के ही मिले।।
और रत्नत्रय की प्राप्ति सदा निर्गं्रथवेष में होती है।
साधूचर्या श्रावकगण के आहारदान से चलती है।।८।।

(४६१) इच्छानुसार भोजन विहार औषधि से तन निरोग रहता।
पर आज्ञा नहीं साधुओं को अतएव शरीर अशक्त रहता।।
पर धर्मात्मा उत्तम औषधि निर्मल जल से गुरुभक्ति करें।
ऐसे उत्तम श्रावकजन से इन साधुगणों की प्रवृति चले।।९।।

(४६२) जो धर्मी श्रावक शास्त्रों का व्याख्यान करें या पाठ करें।
पुस्तक छपवाकर साधुजनों को भक्तीपूर्वक दान करे।।
थोड़े ही भव में तीन लोक में लक्ष्मी को वरने वाले।
वैâवल्यज्ञान की प्राप्ती हो जो शास्त्रदान देने वाले।।१०।।

(४६३) सब जीवों की करुणापूर्वक जो भय से रक्षा की जाती।
वह अभयदान सब दानों में है श्रेष्ठ प्ररूपण की जाती।।
क्योंकी आहार औषधी से भी बीमारी का भय भगता।
इसलिए दान ये तीनों ही, इसमें ही है गर्भित रहता।।११।।

(४६४) आहारदान के देने से इन्द्रादि सुखों की प्राप्ती हो।
औषधीदान से परभव में तन सुन्दर और निरोगी हो।।
अरु शास्त्रदान से विद्वत्ता मिलती अद्भुत विस्मयकारी।
अरु अभयदान दे सारे सुख अंतिम सुख मोक्ष मिले भारी।।१२।।

(४६५) सैंकड़ों पाप कर्मों को कर नाना प्रकार दुख को सहकर।
वारिधि पर्वत और पृथ्वी पर भ्रम करके बहुत कष्ट सहकर।।
धन संचय करता पर वह धन स्त्री पुत्रादिक से प्यारा।
उस धन को व्यर्थ न खर्च करो है दान धर्म सबसे न्यारा।।१३।।

(४६६) यह दान ही है श्रावक का गुण दोनों लोकों में चमकाता।
बिन दान के दोनों लोकों में केवल विनाश ही करवाता।।
क्योंकी व्यापार आदि कार्यों में बहुत पाप हो जाते हैं।
उन पापकर्म का क्षालन ही सत्पात्र दान कर पाते हैं।।१४।।

(४६७) जो धन उत्तम दानादिक के हेतू उपयोग किया जाता।
उसको ही उत्तम धन कहते परलोक में साथ सदा जाता।।
विद्वान लोग ये भी कहते ये दान अनंतगुणा फलता।
जो भोगविलासों में खर्चे वह सब बेकार चला जाता।।१५।।

(४६८) पहले भी बड़े बड़े राजा पुत्रों को राज्यपाट देकर।
याचकजन को भी धन देकर सब जन को अभयदान देकर।।
उत्तम तप करके मोक्ष गये इसलिए दान पहला कारण।
इस हेतू धन को क्षणिक मान इससे ही करो भवदुख वारण।।१६।।

(४६९) नरभव को पाकर जो नर मुक्ती हेतु नहीं उद्यम करते।
अत्यन्त मूढ़बुद्धी वाले घर में ही पड़े रहा करते।।
जिस घर में दान नहीं देते वह घर कारागृह सदृश कहा।
अपने सामर्थ्यनुसार दान भवजलधि पोत सम उसे कहा।।१७।।

(४७०) जो नहीं देवदर्शन करते ना ही उनका स्मरण करें।
ना ही उनकी पूजन करते और ना उनका स्तवन करें।।
सामर्थ्यवान होकर भी जो नहिं साधूजन को दान ही दे।
पत्थर की नौका के समान भविंसधु में डूबेंगे ही वे।।१८।।

(४७१)िं चतामणी रत्न कामधेनू पारस पत्थर अरु कल्पवृक्ष।
ये परोपकार करने वाले हैं सुना है ना देखा प्रत्यक्ष।।
पर िंचतामणी समान मनोवांछित जो दान देने वाला।
दाता अवश्य देखे जाते इसलिए उसी में सब आता।।१९।।

(४७२) जिस नगर देश में श्रावकजन रहते हैं जिनमंदिर होता।
अरु जहां जैनमंदिर होता यतिगण का भी निवास होता।।
यतियों में धर्मवृत्ति रहती संचयति पाप जिसे नशते।
पापों के नशने से श्रावक को स्वर्गमोक्ष के सुख मिलते।।२०।।

(४७३) इस दु:खमा नामक काल में जब जिनधर्म क्षीण हो जाने से।
ध्यानी साधूगण विरले हैं मिथ्यांधकार पैâलाने से।।
जिनप्रतिमाएं जिनमंदिर को जो भक्ति सहित बनवाते थे।
अब विरले हैं वे भव्यपुरुष वंदन के योग्य कहाते वे।।२१।।

(४७४) विम्बादल के सम छोटे से छोटा मंदिर जो बनवाये।
उसमें जौ के प्रमाण प्रतिमा भी पुण्य का फल वो पाये।।
जिसके वर्णन की बात ही क्या खुद सरस्वती नहिं कह सकती।
फिर जो ऊँचे शिखरों वाले मंदिर बनवाएं पुण्य मही।।२२।।

(४७५) जहाँ जिनमंदिर के होने पर यात्रा से अरु अभिषेकों से।
अरु बड़े-बड़े उत्सव करके पूजा चरु और चांदने से।
ध्वज आरोहण कलशारोहण अरु घंटा वाद्य चमर दर्पण।
इनसे मंदिर की शोभा कर भविजन करते हैं पुण्यार्जन।।२३।।

(४७६) जो षट् आवश्यकपूर्वक अणुव्रत धरने वाले श्रावक हैं।
वे स्वर्गों में चिरकाल रहें होते ऋद्धी के धारक हैं।।
फिर मृत्युलोक में आ करके मनुकुल में रत्नत्रय धरकर।
सिद्धालय में जा बसते हैं बाह्याभ्यंतर परिग्रह तजकर।।२४।।

(४७७) चारों पुरुषार्थों में उत्तम सुख देता मोक्ष है अविनाशी।
उससे विपरीत अर्थ कामादिक तजो मोक्ष के अभिलाषी।।
लेकिन यदि धर्म से भी भोगादिक वस्तु प्राप्त ही होती है।
तो भी वह व्यर्थ कहा लेकिन इस धर्म से मुक्ति भी मिलती है।।२५।।

(४७८) जो भव्य मोक्ष की प्राप्ति हेतु अणुव्रत महाव्रत धारण करते।
निश्चयनय से सुख की प्राप्ती के लिए मोक्ष को ही लभते।।
क्योंकी अणुव्रत व महाव्रत के आचरण सफल तब ही होते।
यदि मुक्तीसुख के लिए किया वरना जग में दुख ही देते।।२६।।

(४७९) यह ‘‘देशव्रतोद्योतन’’ क्रम से इंद्र अरु अहमिन्द्र बना करके।
सबका कल्याण करे एवं अंतिम सुख का भंडार भरे।।
दुर्लभ मनुष्य भव पा करके जिस मोक्षमार्ग की प्राप्ती हो।
‘‘श्री पद्मनंदि गुरु’’ की रचना इस जग में सदा जयवंती हो।।२७।।

।।इति देशव्रतोद्योतन अधिकार।।

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।।

सिद्ध परमेष्ठि का स्तवन

अष्टम अधिकार

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१) जो अवधिज्ञानि अत्यंत सूक्ष्म अणुसम पदार्थ भी देख सके।
उनको भी सिद्ध नहीं दिखते फिर हम वैâसे स्तवन करें।।
और जिनके ज्ञान की महिमा में त्रैलोक्य नक्षत्र समान दिखे।
ऐसे अप्रमेय तेजधारी की भक्तीवश स्तुती करें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(२) देवों के मुकुटों की मणियों से जिनके चरण कमल पूजित।
ऐसे तीर्थंकर भगवन भी जिस पद प्राप्ती में लगे सतत।।
जो लोकशिखर पर हैं राजित विस्तीर्ण ज्ञान निकलंक प्रभो।
ऐसे क्षायिक गुण के धारी सिद्धों को भक्ती से प्रणमो।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(२) धर्मास्तिकाय के कारणवश लोकाग्र भाग में स्थित हैं।
स्वाभाविक ज्ञान और दर्शन से जिनका रूप सुशोभित है।।
कृतकृत्य प्रभो जिनकी उपमा कोई भी धार नहीं सकता।
मंगलकारी अविनाशी ऐसे सिद्धों को मैं नमन करता।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(३) जिन सिद्धप्रभु ने कर्मशत्रु को जीत सिद्ध पद प्राप्त किया।
अरु जन्म मरण आदिक अठरह दोषों को जिनने नाश किया।।
जो अनन्तज्ञान से सहित हुए अचिन्त्य ऐश्वर्य के धारी हैं।
वे तीन जगत के शिखामणी श्री सिद्धप्रभू सुखकारी हैं।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(४) सिद्धों का ज्ञान प्रमाणरूप और आत्मा ज्ञेय प्रमाण कही।
इसलिए आत्मा व्यापक है अव्यापक भी आत्मा है कही।।
सिद्धों की आत्मा के प्रदेश अंतिम शरीर से कम रहते।
ऐसे दोनों धर्मोंकरयुत श्री सिद्ध प्रभू जयंवत रहें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(५) पहले दोनों जब कर्म नशे तो दर्श ज्ञान गुण प्रगट हुआ।
मोहनी कर्म के क्षय होने से सुख अनंत भी प्राप्त हुआ।।
वीर्यान्तराय से अनंतवीर्य अरु नामकर्म से र्मूित नहीं।
आयु से जन्म मरण नशाते अरु गोत्र से कोई गोत्र नहीं।।
वेदनीय कर्म के नशने से सिद्धों के सुख दुख नहिं होते।
जब तक ये अष्टकर्म रहते तब तक वे सिद्ध नहीं बनते।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(६) जिन कर्मों के कृपा प्रसाद से जीव बहुत दुख सहते हैं।
वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं नहिं सच्चा रूप देखते हैं।।
दुर्धर्ष ध्यान से कर्मों को जिन सिद्ध प्रभू ने नष्ट किया।
वे सिद्ध अनंत चतुष्टय के धारी शिवपथ को प्राप्त किया।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(७) इक इंद्रिय से दो इंद्रिय में है ज्ञान अधिक तो सुख ज्यादा।
कुछ एक दुखों की शांती से आगे आगे है सुख ज्यादा।।
फिर सिद्ध प्रभू जिनने समस्त कर्मों को निज से नष्ट किया।
वे सबसे अधिक सुखी ज्ञानी होंगे ही मुक्ती वरण किया।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(८) जब कोई व्यक्ती किसी व्यक्ति को नख से शिख तक कस डाले।
कुछ इक बंधन की यदि कोई भी रस्सी ढीली हो जाए।।
तब सुख माने प्राणी वैसे ही सिद्ध प्रभू बंधन विरहित।
क्यूं ना अनंत सुख भोगें वे बाह्याभ्यंतर जब कर्म रहित।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(९) आत्मा के इक प्रदेश में भी इतने परमाणू व्याप्त रहे।
सर्वज्ञ सिवा कोई नहिं गिन सकता उस सुख को रोक रहे।।
आत्मा में कर्म चिपटने से वह कुछ भी देख नहीं सकता।
जिनने कर्मों को उड़ा दिया उन सिद्धों को ही सुख मिलता।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१०) जिन संसारी के कर्मजनित क्षुध तृषा आदि व्याधी रहती।
उसकी शांती के लिए अन्न जल पर काया आश्रित रहती।।
पर सिद्धप्रभू के कर्म नहीं नहिं जल अन्नादिक ग्रहण करें।
सुखरूपी अमृत में निमग्न उनकी आत्मा तो तृप्त रहे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(११) जो निर्मल ज्ञान स्वरूप र्मूित सम सिद्ध ज्योति के पाने को।
योगीजन ध्यान लगाते जब उन सिद्धों सम बन जाते वो।।
जैसे स्पुâरित दीप बत्ती उस दीपपने को प्राप्त करे।
वैसे त्रिलोक के चूड़ामणि सुरनमित सिद्ध पद प्राप्त करें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१२) जो सिद्ध ज्योति सूक्षम भी है अरु वृहत् तथा है शून्य वही।
अरु शून्य नहीं है नश्वर भी अस्ती नास्ति और नित्य वही।।
यह एक अनेकरूप धर्म को लिए हुए स्याद्वादयुत है।
ऐसी यह ज्ञानस्वरूप अर्मूितक ज्योति किसी को मिलती है।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१३) स्यादवादमयी जल से पूरित महासागर में स्नान करके।
जिसकी बुद्धी है स्वच्छ हुई वह ही जाने गुण आत्मा के।।
वह बुद्धिमान उन सिद्ध के गुण साक्षात रीति से प्राप्त करे।
और तेरा मेरा भेद रहित आत्मा का सिद्ध स्वरूप गहे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१४) जैसे सोने से बना पात्र सोना स्वरूप ही है होता।
और लोह पात्र लोहास्वरूप शुद्धात्मरूप तत्सम होता।।
जो तत्वज्ञानि की दृष्टि वही अविनाशी पद दिलवाती है।
इससे जो भिन्न दृष्टि उनको तिर्यंचगती पहुँचाती है।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१५) जैसे सुनार दूसरी धातु में मिले स्वर्ण को जुदा करे।
वैसे ही जो विद्वान पुरुष श्रुतज्ञान चक्षु से जब देखे।।
षट्द्रव्यों में जो मिले द्रव्य उनसे आत्मा को जुदा करे।
शास्त्रों को बिना पढ़े देखे उत्कृष्ट रूप को नहीं लखे।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१६) यह वस्तु त्यागने योग्य तथा यह ग्रहण योग्य है ज्ञान जिसे।
जो ग्राह्य रूप वो ग्रहण करे सिद्धावस्था हो प्राप्त उसे।।
लेकिन जो भिन्न हेय वस्तू को तजने में संदेह करे।
वे अज्ञानी उत्कृष्ट मोक्ष स्थान कभी ना प्राप्त करें।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१७) जितना भी अंग उपांगयुत श्रुत सिद्धत्व प्राप्ति में है कारण।
पर अज्ञानी की अन्य अर्थ के हेतु कल्पना निष्कारण।।
निर्वाण मार्ग से भ्रष्ट उन्हें नहिं अंश मात्र भी ज्ञान कहा।
जो भी होते हैं विचारशील उसको होता श्रुतज्ञान महा।।

।।‘‘श्री रत्नमती मात्रे नम:’’।।

(१८) जो सदाकाल हैं सुखी तथा आराधन का फल प्राप्त किया।
ऐसे सिद्धों के बारे में मुझ अज्ञानी ने गान किया।।
यह थोड़ी सी स्तुति मुझको मुक्तिपथ पर ले जाएगी।
जो सर्व शास्त्ररूपी संपति का धारी मुझे बनाएगी।।

(१९) यद्यपि जो सिद्धस्वरूप तेज सबका ज्ञाता अरु दृष्टा है।
और सबसे अंत में जो होता आत्मीक सुखों का भोक्ता है।।
उत्पाद ध्रौव्य व्यय युक्त तथा मोक्षाभिलाषियों के मन में।
वह एक रूप ही राजित है मुक्तात्मरूप आत्मधन में।।

(२०) जो नय निक्षेप प्रमाणों के व्यापार तथा कारक छोड़े।
सब संबंधों को एवं तू मैं आदि विकल्पों को छोड़े।।
सब कर्मों की उपाधियों से हो विरहित आत्मलीन होकर।
ऐसे वे सिद्ध सर्वगुण से वृद्धी को प्राप्त मुक्त होकर।।

(२१) जिनने अंतरंग दृष्टि से उन सिद्धात्म तेज को नहिं देखा।
उन मूर्खों को स्त्री सुवर्ण आदिक पदार्थ में सुख दिखा।।
जिन भविजीवों का दृश्य सिद्धरूपी रस में है भीग गया।
वे भव्यजीव तृणवत् समझें साम्राज्य व तन भव रोग कहा।।

(२२) जो मनुज प्रीतिपूर्वक सिद्धों के नाम का भी सुमिरन करते।
वे जग में वंदन योग्य गुणी और धन्य पुरुष समझे जाते।।
अथवा जो मनुज शुद्ध मन से पर्वत की गुफा में ध्यान करें।
नासाग्रदृष्टि रख करे ध्यान तब और भी धन्य कहायें वे।।

(२३) जो तर्वâ व्याकरण सहित सभी शास्त्रों को पढ़कर जान लिया।
सिद्धों का जो वास्तविक रूप विद्वानों ने पहचान लिया।।
क्योंकी जो बाण बेधने में है कुशल बाण कहलाता है।
वैसे ही सिद्धरूप को जो ना जाने मूढ़ कहाता है।।

(२४) आत्मा प्रबुद्ध जिनकी ऐसे जो भव्य उन्होंने जान लिया।
दैदीप्यमान ज्ञानधारी उत्कृष्ट सिद्ध को जान लिया।।
ऐसा हो ज्ञान हृदय में जब तब बाह्य शास्त्र से मतलब क्या।
जिनके हाथों में सूरज हो उसको दीपक का काम ही क्या।।

(२५) सिद्धों के आत्म प्रदेशों से सब कर्मबंध हैं छूट गए।
और जिनके आत्मप्रदेशों में है ज्ञान की किरणें पूâट गर्इं।।
जो सम्यग्दर्शन के धारी सर्वत्र तेज स्पुâरायमान। ‘
आकुलतारहित तथा निश्चल हे सिद्ध ! मोक्ष कर दो प्रदान।। ‘

(२६) जो अंतरात्मा बहिरात्मा के भेदज्ञान को देख सके।
आत्मा रूपी ऊँचा मकान िंचतवन रूप सीढ़ी चढ़ के।।
उसमें जो चिदानंद रूपी स्त्री के साथ निवास करे।
र्हिषत होकर निज आत्मा में आत्मा का ही आधार रहे।।

(२७) सिद्धों की गति वह ही सुगती उनका सुख ही है सच्चा सुख।
वे सिद्ध ही सम्यग्दर्शन हैं अरु सम्यग्ज्ञान रूप भी प्रिय।।
उनके अतिरिक्त नहीं कुछ प्रिय ऐसा मन में श्रद्धान करूँ।
सारे जग का भय छुट जाए वह सिद्ध अवस्था प्राप्त करूँ।।

(२८) ऐसे इन सिद्ध परमेष्ठी की स्तुति वचनों से शक्य नहीं।
फिर भी जो कुछ है लिखा गया नभ में आलेख्य कर रहा सही।।
जब उनके नाम स्मरण मात्र से हर्ष बहुत है हो जाता।
मैं ‘‘पद्मनंदि मुनि’’ भक्तीवश वाचाल क्यों नहीं हो जाता।।

।।इति सिद्धस्तुति रूप अधिकार।।

आलोचनाधिकार

नवमां अधिकार

(१) हे प्रभो अगर सज्जन के मन में आपका ही अवगाहन हो।
और आपका नाम स्मरण रूप महामंत्र ही मन में भावन हो।।
अरु आपके द्वारा प्रकट किए रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग।
इन यदि गमन की अभिलाषा तो रोक न सकता कोई काम।।

(२) हे भगवन् ! जग से मुक्ति हेतु सारे परिग्रह का त्याग किया।
और रागभाव को त्याग आपने समता को भी धार लिया।।
फिर अनंतज्ञान, सुख, वीर्य और दर्शन गुण तुममें प्रगट हुए।
इस क्रम से तुम ही शुद्ध तथा सज्जन की सेवा पात्र हुए।।

(३) हे तीन लोक के ईश ! अगर मैं आपकी सेवा में दृढ़ हूँ।
तो कोई भी बलवान जगत वैरी को जीत मैं सकता हूँ।।
क्योंकी जलवर्षण से उत्तम फव्वारा यंत्र सहित घर में।
सुख मिलता है तब तीक्ष्ण धूप ना त्रास दे सके जीवन में।।

(४) यह सार असार परीक्षा में हो एकचित्त जो बुद्धिमान।
त्रैलोक्य के सभी पदार्थों को बाधा विरहित करके विचार।।
उस व्यक्ति की दृष्टि में हे भगवन् ! बस सारभूत इक आप ही हैं।
तुमसे सब भिन्न असारभूत संतोष का आश्रय आप ही हैं।।

(५) जिन योगीश्वर ने अपनी योगदृष्टि से तुमको देख लिया।
क्योंकी तुमने ही अनंत दर्श सुख बल अतिशय कर प्राप्त किया।।
काया भी है दैदीप्यमान तुमको देखा सब देख लिया।
फिर कुछ भी रहा नहीं बाकी देखने योग्य कुछ रह न गया।।

(६) हे भगवन् ! तुम हो त्रिजगदपति स्वामी और आप जिनेश्वर हो।
तुम ही को केवल नमन करूँ और हर क्षण ध्यान हृदय में हो।।
सेवा स्तुति भी करता हूँ अब मुझको अपनी शरण में लो।
यदि जग में कुछ मिलता हो मुझे ना उससे कोई प्रयोजन हो।।

(७) मैंने भ्रम से जो भूत भविष्यत वर्तमान में पाप किये।
कृत कारित अनुमोदन द्वारा मन वचन काय से करवाये।।
उन पापों का अनुभव करके मैं अपनी िंनदा करता हूँ।
हे प्रभो ! मेरे वे पाप सभी मिथ्या हों याचना करता हूँ।।

(८) हे भगवन् ! तुम अनंत भेदयुत लोकालोक सकल जानो।
और मेरे सारे दोषों को भी तुम ही भलीभाँति जानो।।
फिर भी मैं अपने पापों का आलोचन तुमसे करता हूँ।
यह नहीं सुनाने के खातिर मनशुद्धी हेतू करता हूँ।।

(९) व्यवहार नयाश्रित मूल और उत्तरगुण को धरने वाला।
मुझ मुनि के जो भी दोष लगे आलोचन हेतू मैं आया।।
क्योंकी ज्ञानी को अपना मन त्रयशल्य रहित रखना चहिए।
हे प्रभो ! आपके सन्मुख सब निर्मल मन से कहना चहिए।।

(१०) हे भगवन् ! जग में जितने व्यक्त अरु अव्यक्त हैं विकल्प कहे।
और उन्हीं विकल्पों सहित जीव ने उतने ज्यादा दुक्ख सहे।।
पर जितने पाप नहीं उतने प्रायश्चित कहे जिनागम में।
इसलिए सभी दोषों की शुद्धी होती प्रभु तब आंगन में।।

(११) मन और इन्द्रियाँ जब तक बाह्य पदार्थों में हैं लगी हुई।
तब तक निंह कोई भी प्राणी निर्मल स्वरूप को देख सके।।
जो सर्व परिग्रह से विरहित और सब शास्त्रों का जो ज्ञाता।
वह ही निज में स्थिर रहकर प्रभु की समीपता को पाता।।

(१२) जिसने पूरब भव में कष्टों से संचित किया पुण्य भारी।
उसने तुमको पा लिया प्रभो हो उत्तम पद की उसे प्राप्ति।।
जिसको निश्चय से ब्रह्मा विष्णु महेश आदि भी पा न सवेंâ।
फिर हे जिनेन्द्र बतलाओ मुझे जिससे मन बाहर ना भटके।।

(१३) इस जग में दुक्ख बहुत ही है पर सुखप्रद मोक्ष एक ही है।
इसलिए उसी की प्राप्ति हेतु छोड़े धन धान्य परिग्रह हैं।।
हमने तपवन में व्रत धारण कर सारे संशय त्याग दिए।
फिर भी सिद्धी नहिं मिली मुझे क्यों मेरा मन भरमाय रहे।।

(१४) जब तक आत्मा में कर्मों का है आवागमन दुखी करता।
उन कर्मों से मन बाह्य वस्तु रमणीक मान रागी बनता।।
जब इंद्रिय रूपी गांव में है मन बसा हुआ जीवित रहता।
तब मुनियों का मन भी कब तक कल्याण मार्ग में थिर रहता।।

(१५) निर्मल अखंड बोधात्मरूप तुमको पाकर मन मर जाता।
हे नाथ ! मोहवश मेरा मन तुमसे अन्यत्र भ्रमण करता।।
क्या करूँ मृत्यु से सब डरते अतएव प्रार्थना करता हूँ।
इस अहितकारि मोहनीय कर्म से छुटकारा दो कहता हूँ।।

(१६) ज्ञानावरणादि सभी कर्मों में मोह बहुत बलशाली है।
इस मोह के वश से यह चंचल मन यहाँ वहाँ फिरता ही है।
और डरता है मरने से भी यह नहिं हो कोई न जिए मरे।
इस जग को दोनों दृष्टी से देखा है आप ही मोह हरें।।

(१७) वायू से व्याप्त समुद्र और उसकी जल लहरी के समान।
सब काल और सब क्षेत्रों में क्षणभंगुर और विनाशवान।।
ऐसा विचार कर हे जिनेन्द्र ! तुममें रहने की इच्छा है।
क्योंकी तुम ही हो र्नििवकार जग की स्थिति को परखा है।।

(१८) जिस समय अशुभ उपयोग उस समय पाप की उत्पत्ती होती।
और शुभ उपयोग जिस समय हो तब पुण्य की उत्पत्ती होती।।
है पाप पुण्य से सुख और दुख दोनों संसार के कारण हैं।
हे भगवन् ! मैं तुम सम पद का इच्छुक जो मोक्ष का कारण है।।

(१९) आतमस्वरूप जो तेज न भीतर और न बाहर स्थित है।
और नहीं दिशाओं में स्थित नहिं मोटा और महीन ही है।।
निंह पुल्लिंग स्त्रीिंलग नपुंसक िंलग और ना भारी है।
नहिं हल्का, नर्म स्पर्श, गंध, तन, गणना अरु वच धारी है।।
जो निर्मल सम्यग्ज्ञान और दर्शनस्वरूप मूर्ती जिसकी।
वैसी ही तेजस्वरूप मेरी आत्मा निंह भिन्न और कुछ भी।।

(२०) आत्मा की उन्नति के नाशक बिन कारण के जो वैरी हैं।
तुममें और मुझमें जो अंतर इन कर्मों के कारण ही है।।
ये कर्म आपके हैं समक्ष इनको भगवन् अब नष्ट करो।
है नीतिवान का धर्म यही हम सज्जन को निज सम ही करो।।

(२१) नाना आकार विकारों के जो मेघ व्योम में रहते हैं।
आकाश अर्मूितक है उसका कुछ नहिं बिगाड़ कर सकते हैं।।
बस उसी तरह मेरी आत्मा तन से है भिन्न व ज्ञानवान।
आधी व्याधि और जरा मरण उसका नहिं कर सकते विनाश।।

(२२) जैसे स्थल पर पड़ी हुई मछली जल बिना तड़पती है।
वैसे ही इस संसार रूप संताप से काया जलती है।।
करूणा रूपी जल के संग से जो शीतल चरण कमल प्रभु के।
जब तक मन उसमें लीन रहे तब तक ही सुखी वरना दुख में।।

(२३) इंद्रिय समूह से सहित मेरा मन बाह्य पदार्थों से बंधता।
उससे ही कर्मबंध होता वास्तव में सदा पृथक रहता।
जिस तरह आपकी आत्मा से ये कर्म सर्वथा जुदे रहे।
वैसे ही हे शुद्धात्मन ! मम स्थिती आपमें बनी रहे।।

(२४) नहिं लोक व आश्रय और द्रव्य से आत्मन तुझे प्रयोजन है।
इन्द्रिय, शरीर, अरु वचन, प्राण पुद्गल स्वरूप तू चेतन है।।
यदि अपना मन इसे आश्रय ले बंधन से बंध जाएगा।
ममता को त्याग निजातम ध्या शुद्धात्म रूप को पाएगा।।

(२५) धर्म और अधर्म आकाश काल चारों ही द्रव्य हैं हितकारी।
क्योंकी गति और स्थिती में अवकाश काल में सहकारी।।
पर गति आदिक नोकर्म सहित पुद्गल ही मेरा वैरी है।
इससे ही कर्मबंध होता निज ज्ञान से इनको भेदा है।।

(२६) जिन राग द्वेष परिणामों से ये पुद्गल द्रव्य परिणमन करें।