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पावन संस्मरण!

February 10, 2017साधू साध्वियांjambudweep

प्रथमाचार्य शान्तिसागर

गुरूणां गुरु आचार्यश्री शांतिसागर जी के पावन संस्मरण


द्वारा –गणिनीप्रमुख आर्यिका ज्ञानमती

सन् १९५४ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ‘‘नीरा’’ गांव में विराजमान थे। मैंने जाकर दर्शन किये। सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति पढ़कर विधिवत् वंदना की। आचार्यश्री ने आशीर्वाद दिया। क्षुल्लिका विशालमती ने रत्नत्रय कुशल पूछा। अनंतर महाराज तो आसन पर बैठे हुए थे। ब्र. जिनदास जी कोई शास्त्र पढ़कर सुना रहे थे। मैं बैठी थी कि मेरी आँखों में हर्ष के आँसू आ गये। महाराज जी ने मेरा परिचय पूछा। विशालमती जी ने सब बताया और उम्र भी बताई कि अभी यह १९-२० वर्ष की है। दो वर्ष हुए आचार्य देशभूषण जी से दीक्षा ली है। इसकी दीक्षा के समय सामाजिक विरोध तो बहुत ही हुआ था किन्तु इसकी दृढ़ता गजब की थी। आचार्यश्री प्रसन्न हुए पुन: स्वाध्याय के बाद उन्होंने बड़े ही प्रेम से मुझे कुछ शिक्षाएँ दीं। वे बोले- ‘‘अभी तुम्हारी उम्र बहुत ही छोटी है, तीस वर्ष तक किसी न किसी के साथ रहना, अकेली नहीं रहना। खूब धार्मिक अध्ययन करना, अनगारधर्मामृत, भगवती आराधना और समयसार अवश्य पढ़ना। मैंने भगवती आराधना ३६ बार पढ़ी है।’’ और भी बहुत कुछ शिक्षाएँ दीं। उस समय मुझे ऐसा लगा कि मानो मैंने संसार के अंत करने वाले महान् गुरु को ही पा लिया। उनकी शिक्षाएँ हमें अमृत से भी अधिक प्रिय लगीं। मैंने मन ही मन अपने भाग्य को सराहा और सोचने लगी कि- ‘‘यद्यपि दीक्षा लेने के बाद मुझे रेल-मोटर पर बैठना बहुत ही अखरा था पर आज वह सफल हो गया चूँकि मैं पद-विहार से तो आज आचार्यदेव के दर्शन नहीं कर सकती थी।’’ दूसरे दिन प्रात:काल आकर गुरुदेव की वंदना की। वहीं बैठी रही। एक ब्रह्मचारी पाठ सुना रहे थे, मैं भी सुनती रही, अनंतर स्वाध्याय सुनाया। आचार्यश्री बीच-बीच में चर्चा करते थे। कोई विशेष बात समझाते भी थे। इसके बाद आचार्यश्री का आहार देखा, अनंतर स्वयं आहार लिया पुन: दो बजे आचार्यश्री के निकट आकर बैठ गई। उस समय चार-पाँच प्रमुख श्रावक आचार्यश्री के पास कुछ विज्ञप्ति लेकर आये थे। वे लोग निवेदन कर रहे थे- ‘‘पूज्य गुरुदेव! मुनि जंबूसागर जी के बारे में क्या करना है? समाज चिंतित है। महाराज जी ने गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया-‘‘यदि वह मेरे पास आये तो कुछ समझाऊँ अथवा प्रायश्चित देकर सुधार भी करूँ।…..फिर भी दिगम्बर मुद्रा का अपमान या बहिष्कार, श्रावकों को कुछ भी करने का अधिकार नहीं है। आप लोगों को उन्हें समझाना चाहिए। नहीं मानते हैं तो उपेक्षा कर देनी चाहिए। बस इसके आगे उनकी निंदा अखबारों में निकालना गलत है। इससे मोक्ष-मार्ग में चलने वाले निर्दोष साधुओं की भी कीमत घटती है। इत्यादि।’’ आचार्य महाराज के इन शब्दों को सुनकर श्रावक हँसने लगे और अन्य भी कुछ शंका का समाधान प्राप्त कर ये लोग चले गये। मुझे जब वह दृश्य याद आता है तब मानो आचार्यश्री के वे शब्द मेरे कानों में गूंजने ही लगते हैं कि उपगूहन अंग का उपदेश उन्होंने कितने अच्छे ढंग से दिया था। आज के भी सुधारकवादियों को वे शब्द ध्यान देने योग्य हैं। बहुत से प्रमुख सुधारक श्रावक आज अपनी संतान को मद्य, मांस, मधु, वेश्यासेवन आदि से नहीं रोक पा रहे हैं किन्तु उन्हें सारे साधुओं के चरित्र की और धर्म की चिंता हो रही है। अखबारों में ९९ प्रतिशत गलत, मुनि-निंदा छाप-छापकर मोक्षमार्ग को सुधारने की डींग भर रहे हैं। भला ऐसे लोग मोक्ष-मार्ग को वैâसे चलायेंगे? आचार्यश्री ने किसी चर्चा के प्रसंग पर यह भी बताया कि-‘‘उत्तर प्रान्त के पंडितवर्ग शास्त्रों के बहुत से अंश को भट्टारक द्वारा प्रक्षिप्त कहकर निकाल देते हैं। सचमुच में उन्हें नरक निगोद का भय नहीं है।’’ आचार्यश्री का यह प्रथम दर्शन मुझे सन् १९५४ में दिसम्बर में प्राप्त हुआ था पुन: दूसरी बार सन् १९५५ में दर्शन प्राप्त किये, जब चारित्रचक्रवर्ती आचार्य देव बारामती में विराजमान थे। वहाँ से कुंथलगिरि विहार करने वाले थे। यह निर्णय हो चुका था कि- ‘आचार्य महाराज अब कुंथलगिरि में यम सल्लेखना लेने वाले हैं अत: यह उनका अंतिम विहार है।’ इस प्रसंग पर मैं भी क्षुल्लिका विशालमती माताजी के साथ यहाँ आ गई थी। क्षुल्लिका अजितमती अम्मा और क्षुल्लिका जिनमती अम्मा ये दोनों ही यहाँ थीं। आचार्य श्री का दर्शन कर मन गद्गद हो गया। आचार्य श्री मुझे उत्तर की अम्मा या अयोध्या की अम्मा कहकर सम्बोधते थे, उस समय उनके शब्द मुझे अमृत के समान मधुर और प्रिय लगते थे। सामने बैठे हुए भक्तगण चातक पक्षी के समान आचार्यश्री के मुखकमल की ओर एकटक निहारा करते थे। मध्य में कदाचित् आचार्यश्री के मुखारविंद से कुछ भी शब्द निकलते कि सुनकर सभी भावविभोर हो जाते थे। मेरे भाव आर्यिका दीक्षा लेने के हो रहे थे अत: मैंने क्षुल्लिका विशालमती जी से कई बार कहा था कि मुझे आचार्यश्री से आर्यिका दीक्षा दिला दो परन्तु वे कहती थीं-‘अम्मा! अभी कुछ दिन ठहरो, हम और आप दोनों एक साथ आर्यिका दीक्षा लेवेंगी।’ ‘एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने स्वप्न में निर्धूम अग्नि जलते हुए देखा था तथा सामायिक में मेरे भाव बहुत ही तीव्रता से आर्यिका दीक्षा के हो रहे थे।’ मैंने प्रात: विशालमती जी से अपने भाव भी सुनाये और पिछली रात्रि का स्वप्न भी सुनाया। तब उन्होंने कहा- ‘‘अम्मा! तुम्हें सच्चा वैराग्य है। अब मैं तुम्हें दीक्षा में बढ़ने से नहीं रोकुँगी। चलो बारामती में आचार्यश्री से प्रार्थना करना, वहीं पर तुम्हें दीक्षा दिला दूँगी।’’ अत: इस अवसर पर मैंने आचार्यश्री से प्रार्थना की और कहा-‘‘हे गुरुदेव! हमें संसार समुद्र से पार होने के लिए आर्यिका दीक्षा प्रदान कीजिये।’’ आचार्यश्री ने बहुत ही कोमल शब्दों में कहा-‘‘अब मैंने दीक्षा नहीं देने का नियम ले लिया है अत: तुम मेरे प्रथम शिष्य आचार्यकल्प वीरसागर मुनिराज के पास दीक्षा ले लो। मैं सूचना भिजवा दूँगा अथवा तुम्हें तुम्हारे शरीर, स्वास्थ्य और भाषा आदि के अनुवूâल उत्तरप्रान्त ठीक रहेगा। वहाँ वीरसागर जी महाराज हैं, उनके संघ में वयोवृद्ध आर्यिकायें भी हैं। तुम उसी संघ में जाकर दीक्षा लेओ तो अच्छा रहेगा क्योंकि इधर इस समय कोई आर्यिकायें नहीं हैं।’’ आचार्यश्री की मृदुमय वाणी सुनकर यद्यपि मेरे भाव अति उग्र थे कि ‘‘अभी-अभी दीक्षा ले लूँ।’’ फिर भी शांति रखनी पड़ी और यही सोचा कि इस वर्ष का चातुर्मास इसी प्रांत में करके आचार्यदेव की सल्लेखना देख लूँ पुन: चातुर्मास के बाद दीक्षा लूगी। एक दिन आचार्यदेव ने रेल-मोटर पर बैठने वाले क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं के प्रति अनादरभाव व्यक्त किये। तब विशालमती ने कहा- ‘‘महाराज जी! यह क्षुल्लिका वीरमती तो रेल-मोटर में कतई नहीं बैठना चाहती थी परन्तु इसके गुरु आचार्य देशभूषण जी २०-२५ मील पैदल चलते हैं। उन्होंने जबर्दस्ती इसे बैठने का आदेश दिया है।’’ उसी समय मैंने आचार्यश्री के सानिध्य में यह नियम कर लिया कि-‘‘इस चातुर्मास के बाद बाहुबली की यात्रा करके जिनसे दीक्षा लेनी है, उनके पास पहुँचने तक ही मैं रेल-मोटर में बैठूँगी। उन गुरु के पास पहुँचकर यावज्जीवन मैं रेल-मोटर में बैठने का त्याग करती हूँ।’’ मेरे इस त्याग से आचार्यदेव बहुत ही प्रसन्न हुए और मुझे बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया। वहाँ बारामती में विहार के समय जिनेंद्रदेव का रथ निकाला गया था। उस रथ को चमेली और जूही के फूलो से इतना सुन्दर सजाया गया था कि जो देखते ही बनता था। उस पर छोटी-छोटी दो कन्याएँ हाथ में चँवर लेकर खड़ी थीं। वे भी फूलो से ही सजी हुई थीं। भक्तों की भीड़ बेशुमार थी। आस-पास गाँव के सभी स्त्री-पुरुष आचार्यश्री के अंतिम विहार को देखने के लिए उपस्थित हो गये थे। सेठ चादूमल जी सर्राफ उस समय बारामती के प्रसिद्ध मुनि-भक्त व्यक्ति थे। आचार्यदेव ने मंगल आशीर्वाद देकर अपना अंतिम विहार कर दिया। वे भगवान् के रथ के साथ-साथ चल रहे थे। यह भव्य जुलूस सेठ चंदूलाल जी के बगीचे में पहुचा और वहाँ सभा के रूप में परिणत हो गया। भक्तों ने आचार्यश्री के चरणों की रज अपने-अपने मस्तक पर चढ़ाई और हर्ष-विषाद से मिश्रित भावों को लिए हुए वापस अपने-अपने स्थान चले गये। उस समय आचार्यश्री के मंगल विहार के समय प्राय: सभी की आँखें सजल थीं चूँकि लोगों को यह विदित था कि अब आचार्यश्री कुंथलगिरि पहुँचकर पुन: इस पर्याय में विहार नहीं करेंगे। हम दोनों क्षुल्लिकाओं ने सन् १९५५ का यह चातुर्मास म्हसवड़ गांव में कर लिया, वहाँ स्थापना के समय विशालमती जी ने सूचना कर दी थी कि-‘‘आचार्यश्री की सल्लेखना देखने के लिए हम दोनों कुंथलगिरि जावेंगी।’’ तीसरी बार आचार्यश्री के दर्शन- यहाँ कुंथलगिरि में क्षुल्लिका अजितमती अम्मा, जिनमती अम्मा थीं। हम दोनों म्हसवड़ से आकर यहाँ उन्हीं के कमरे में ठहर गयीं। वहाँ प्रतिदिन लगभग एक लाख स्त्री-पुरुष आते थे और प्राय: इतने ही दर्शन कर चले जाते थे। भीड़ का पार नहीं था। व्यवस्थापक लोग परेशान थे। वर्षा चालू थी। लोग छतरी खोलकर उसके नीचे भी खाना बनाकर खाते थे। हमने सल्लेखनारत आचार्यश्री के दर्शन किये। मन प्रसन्न था अत: इतनी भयंकर भीड़ और ठहरने की समुचित व्यवस्था न होते हुए भी वहाँ से जाने की इच्छा नहीं हुई। सल्लेखना होने तक वहीं ठहरने का निर्णय बना लिया। प्रतिदिन प्रात: और मध्यान्ह कुंथलगिरि के पर्वत पर चढ़ जाती थी, वहाँ पर आचार्यश्री के दर्शन कर किसी भी मंदिर में बैठकर धर्माराधना किया करती थी। वहाँ प्रात:काल पहले पंचामृत अभिषेक के लिए बोली होती थी। जो भक्त बोली लेते थे, वे सपत्नीक सपरिवार वहीं पर्वत पर मंदिर में विराजमान भगवान् देशभूषण जी और भगवान कुलभूषण जी की ४-५ फुट ऊँची मनोज्ञ प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करते थे। आचार्यश्री वहीं वेदी मे बैठकर अभिषेक देखते थे। वहाँ पर एक दिगम्बर मुनि पिहितास्रव नाम के आये हुए थे। आठ-दस क्षुल्लक थे। शायद हम सब ग्यारह-बारह क्षुल्लिकाएँ थीं। कोल्हापुर के भट्टारक लक्ष्मीसेन जी आदि कई एक भट्टारक थे। सभी साधु-साध्वी मंदिर में ही बैठ जाते थे। अभिषेक के समय आचार्यश्री की भक्ति-भावना देखते ही बनती थी। उस समय वहाँ पर गन्ने के रस की जगह गुड़ का रस बनाया जाता था, जो कि बड़े घड़े भर रहता था। दूध भी घड़ों में भरा रहता था। एक वृद्धा चन्दन घिसने बैठ जाती थी। वह एक बड़े से चाँदी के कटोरे को गाढ़े-गाढ़े चंदन से घिसकर भर देती थी। काश्मीरी केशर के घिसे चंदन का रस इतना बढ़िया दिखता था कि जब वह भगवान् की प्रतिमाओं के सर्वांग में लेपन कर दिया जाता था, तब आचार्य महाराज बहुत ही प्रसन्न होकर गद्गद भावों से भगवान को निहारने लगते थे। उनके अभिषेक देखने का प्रेम आज भी हमें याद आ जाया करता है। इस वर्ष भाद्रपद दो थे। आचार्यदेव ने दिनाँक-२६-८-५५ को सल्लेखना ली थी पुन: प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् २०१२, बुधवार को प्रात: अपने प्रथम निग्र्रंथ शिष्य श्री वीरसागर मुनिराज को आचार्यपद देने की घोषणा की थी। आचार्यदेव उस समय बोले थे- ‘‘मेरे शिष्य वीरसागर मुनि इस समय मुझसे बहुत दूर जयपुर में हैं, यदि वह यहाँ होते तो मैं अपने हाथ से आचार्यपट्ट के संस्कार की क्रिया करता……।’’ इसके बाद पर्वत के नीचे पच्चीसों हजार की सभा में यह आचार्यपद वीरसागर जी को देने की आचार्यदेव की घोषणा सुनाई गई थी। उसी दिन आचार्यदेव ने स्वयं अपने सामने संघपति गेंंदनमल बम्बई वालों से आचार्यपट्ट की घोषणा का पत्र लिखवाया था, जिसे ब्र. सूरजमल जी आदि लेकर जयपुर खानिया पहुँचे थे। एक दिन आचार्यश्री ने पर्वत पर भी मात्र गरम जल लिया था। तब हम लोगों ने उनका यह अंतिम जल का आहार देखा था। उसके बाद आचार्यश्री ने जल का भी त्याग कर दिया था। १८ सितम्बर सन् १९५५, द्वितीय भादों सुदी द्वितीया रविवार को प्रात: ६ बजकर ५० मिनट पर आचार्यश्री ने ‘ॐ सिद्धाय नम:’ मंत्र का उच्चारण करते हुए इस नश्वर शरीर को छोड़ दिया। उसके पूर्व उन्होंने उस कुटी के अंदर ही भगवान की प्रतिमा का अभिषेक देखा था और प्रतिमाजी के चरण स्पर्श कर अपने मस्तक पर लगाये थे। ऐसे वीरमरण से मृत्यु को महोत्सव बनाने वाले बीसवीं शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती गुरूणांगुरु आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि वंदन है। यह सन् १९५५ का चातुर्मास म्हसवड़ (महा.) में पूर्ण कर मैं जयपुर में विराजमान आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के संघ में आ गई। सन् १९५६ में वैशाख कृ. द्वितीया के दिन आचार्यश्री के करकमलों से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर मैंने ‘ज्ञानमती’ नाम प्राप्त किया। ऐसे प्रथमाचार्य के प्रथम पट्टाधीश दीक्षागुरु आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के श्रीचरणों में भी मेरा कोटि-कोटि नमन है।

Tags: Muni, Shantisagar Ji First Aacharya
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