Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

पुरषार्थ सिद्ध्युपाप में वर्णित निश्चय और व्यवहार नय!

May 9, 2020विशेष आलेखaadesh

पुरषार्थ सिद्ध्युपाप में वर्णित निश्चय और व्यवहार नय


डॅा॰ अशोककुमार जैन
जीवादि तत्व अनेकान्तात्मक हैँ इसलिए जिनेन्द्रदेव ने उनकी प्ररूपणा निश्चय ओर व्यवहारनयों के आश्रय से की है। गुरु भी शिष्यों के अज्ञान की निवृत्ति के लिए निश्चय और व्यवहारनयों का अवलम्बन कर वस्तु स्वरूप का विवेचन करते हैं जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है।मुख्योपाचाविवरण-निरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधा:-व्यवहारनिश्चयज्ञा: प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् अर्थात् निश्चय और व्यवहार के ज्ञाता गुरु मुख्य विवरण (द्रव्याश्रित या मूलाश्रित कथन) तथा उपचार विवरण (पर्यायाश्रित कथन) द्वारा शिष्यों के दुर्निवार अज्ञान को मिटाकर जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। तत्वार्थवार्तिककार ने लक्षण की परिभाषा देते हुए लिखा है। व्यतिकीर्ण-वस्तुव्यावृतिहेतुर्लक्षणम् अर्थात् परस्पर सम्मिलित वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु (चिंतन) को लक्षण कहते हैं ” नय की परिभाषा इस प्रकार है- प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नय: अर्थात् प्रमाण प्रकाशित अर्थ विशेष प्ररूप नय है। लघीयस्त्रय मॅ नयो ज्ञातुरभिप्राय: अर्थात् ज्ञाता का अभिप्राय नय है। अध्यात्मशास्त्र में नयों के निश्चय और व्यवहार-ये दो भेद प्रसिद्ध हैं। आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र ने परिभाषित करते हुए लिखा है। आत्माश्रितो निश्चय: पराश्रितो व्यवहार नय: अर्थात् आत्माश्रित कथन को निश्चय और पराश्रित कथन को व्यवहार कहते हैँ। आचार्य देवसेन ने अभेदानुपचारितया वस्तु निरचीयत इति निश्चय:’ अर्थात् अभेद और अनुपचारता से जो नय वस्तु का निश्चय करे वह निश्चयनय हैं। ” भेदोपचारितया वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहार:” अर्थात् जो नय भेद ओर उपचार से वस्तु का व्यवहार करता है वह व्यवहार नय है। अध्यात्म में निश्चय और व्यवहार की प्रक्रिया का विशेष महत्व है। इसका कारण है कि संसार कै सभी प्राणी स्वक्रीय वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ हो रहे हैं। जैसाकि पुरुषार्थ सिद्धयुषाय ग्रन्थ में लिखा है-
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।
भूतार्थबोधविमुख: प्राय: सर्वोऽ‌पि संसार: ।।
लोक में जो भूतार्थ है वह निश्चय है ओर जो अभूतार्थ है वह व्यवहार है ” प्राय: संसार के सभी प्राणी भूतार्थ के ज्ञान से विमुख हो रहे हैं ” समयसार में लिखा है-
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो।
भुयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।।
अभूतार्थ का नाम व्यवहार है और भूतार्थ का नाम निश्चय है । जिस जीव ने भूतार्थ का आश्रय कर लिया वह सम्यग्दृष्टि ( ज्ञानी ) कहलाता है। इसका स्पष्टीकरण जैनागम में इस प्रकार किया गया है कि एक तो वस्तु की अरवण्डरूपता निश्चय है और उसके जितने खण्ड हो सकते है वे सब व्यवहार रूप हैं ” दूसरे वस्तु की स्वाश्रयता निश्चय है और उसको जितनी भी पराश्रितता है वह व्यवहार है क्योंकि अखण्डरूपता त्रैकालिक या अनादि निधन होने के भूतार्थ की कोटि मैं समाविष्ट होती है तथा खण्डरूपता अस्थायी होने से अभूतार्थ की कोटि में समाविष्ट होती है। इसी प्रकार स्वाश्रयता वस्तु का निजरूप होने से भूतार्थ है और पराश्रयता वस्तु का निजरूप न होने व पर के सहयोग से होने से अभूतार्थ हैं। इस तरह आत्मा के स्वरूप के विषय में जो स्वभाव और विभाव के रूप प्रतिभासित होते हैं उनमें से स्वभाव का रूप भ्रूतार्थ है। उपर्युक्त गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने इस गाथा का अर्थ दो प्रकार से किया है एक तो यह है कि व्यवहार तो अभूतार्थ है और निश्चय नय भ्रूतार्थ है जो कि आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भी सम्मत है किन्तु इन्ही आचार्य के गाथा के ‘दु’ शब्द को लेकर दूसरे प्रकार से भी अर्थ किया है कि व्यवहारनय भूतार्थ व अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है, इसी प्रकार निश्चयनय भी शुद्ध निश्चयनय व अशुद्धनिश्चय के भेद से दो प्रकार का है। उसमें भूतार्थ को करने वाला सम्यग्दृष्टि होता है। यहां पर भूतार्थ का अर्थ सत्यार्थ व अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया है किन्तु यहाँ पर असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा विस्तार नहीं लेना चाहिए किन्तु “अ” का अर्थ ईषत लेकर व्यवहारनय अभूतार्थ अर्थात् तात्कालिक प्रयोजनवान है ऐसा लेना चाहिए। किंच भूत शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के विश्व लोचन कोष में जिस प्रकार सत्य बतलाया हैँ, उसी प्रकार उसका अर्थ ‘सम’ भी बतलाया है। अत: भूतार्थ का अर्थ जबकि सम होता है अर्थात् सामान्य धर्म को स्वीकार करने वाला है तो अभूतार्थ का अर्थ विषम अर्थात् विशेषता का कहने वाला अपने आप हो जाता है। जिससे व्यवहार नय अर्थात् परमार्थिक नय और निश्चय नय अर्थात् द्रव्यार्थिक नय सत् प्रकार का अर्थ अनायास ही निकल जाता है, जो कि इतर आचार्यो के द्वारा भी सर्वसम्मत है और ‘निश्चय नय को स्वीकार कर लेने पर ही सम्यग्दृष्टि’ होता है यह बात भी कुन्दकुन्दाचार्य की सर्वथा ठीक बैठती है, क्योंकि जब यह जीव जिस पर्याय में जाता है, उस पर्यायरूप ही अपने आपको (पशु होने पर पशु, मनुष्य होने होने पर मनुष्य इत्यादि) मानता रहता है किन्तु जब अपने आपको पशु या मनुष्य इत्यादि रूप न मानकर सदा शाश्वत रहने वाला ज्ञान का धारक आत्मा मानने लगता है तब ही सम्यग्दृष्टि होता है। समयसार में लिखा है –
ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि ख़लु एक्को “
ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कटठो”
व्यवहार नय कहता है कि जीव और देह एक ही हैं, और निश्चय नय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते । निश्चय नय तादात्म्य सम्बन्ध को लेकर वर्णन करता है। उसकी दृष्टि में संयोग सम्बन्ध गौण होता है। ज्ञानावरणादि कर्म और आत्मा का यदि कोई सम्बन्ध है तो वह संयोग सम्बन्ध है, इसलिए निश्चय नय की दृष्टि में कर्म नहीं हैं और उनका कर्त्ता नहीं है अपितु इस दृष्टि में तो आत्मा का स्वयं का परिणाम ही उनका कर्म है और आत्मा उनका कर्त्ता है, क्योंकि उसका उसी के साथ तादात्म्य है” निश्चय नय से सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने शुद्ध स्वरूप में सदा रहते हैं। जाना, आना, घटना, बढना, ठहरना, ठहराना, आदि क्रियायें उसमें नहीं होती हैं। व्यवहार नय से ही उन पदार्थों के क्रियासहितपन की प्रसिद्धि हो रही है। निश्चय नय तो वस्तु में शुद्ध निर्विकल्प अंशों को ग्रहण करता है। व्यवहार नय से आधार-आधेय व्यवस्था हो रही है। निश्चय नय के अनुसार कार्य-कारण भाव की घटना नहीं हो सकती है, न कोई किसी को बनाता है और न कोई किसी से बनता है, कोई किसी का बाध्य या बाधक नहीं है। प्रतिपाद्य-प्रतिपादन भाव, गुरु-शिष्य भाव, जन्य-जनक भाव ये सब भाव व्यवहार नय अनुसार है। जब तक साध्य और साधन में भेद दृष्टि है तब तक व्यवहार नय है और जब आत्मा को आत्मा से जानता है, देखता है, आचरता है, तब आत्मा ही सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र होने से अभेद रूप निश्चय नय है। पं० आशाधर जी ने व्यवहार और निश्चय का यही लक्षण दिया है-
कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसुद्धये।
साध्यन्तव्यवहारोऽसौ निश्चयस्तमभेददृक्।।
जिसके द्वारा निश्चय की सिद्धि के लिए कर्त्ता -कर्म-करण आदि कारक वस्तु जीवादि से भिन्न जाने जाते हैँ वह व्यवहार नय है और कर्त्ता आदि को जीव से अभिन्न देखने वाला निश्चय नय है। इससे स्पष्ट है कि निश्चय की सिद्धि ही व्यवहार का प्रयोजन है। उसके बिना व्यवहार भी व्यवहार कहे जाने का अपात्र है। ऐसा व्यवहार ही निश्चय का साधक होता है। निश्चय को जाने बिना किया गया व्यवहार निश्चय का साधक न होने से व्यवहार भी नहीं है। पण्डित आशधर जी ने एक दृष्टान्त दिया है जैसे नट रस्सी पर चलने के लिए बांस का सहारा लेता है और जब उसमें अभ्यासरत हो जाता है तो बांस का सहारा छोड़ देता है उसी प्रकार निश्चय की सिद्धि के लिए व्यवहार का अवलम्बन लेना होता है किन्तु उसकी सिद्धि होने पर व्यवहार स्वत: छूट जाता है। व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि संभव नहीं है किन्तु व्यवहार का लक्ष्य निश्चय होना चाहिए और वह सतत दृष्टि में रहना चाहिए। निश्चय रूप धर्म धर्म की आत्मा हैँ और व्यवहार रूप धर्म उसका शरीर है” जैसे आत्मा से रहित शरीर मुर्दा-शवमात्र होता है, वैसे ही निश्चय शून्य व्यवहार भी जीवन हीन होता है, उसमें धर्म सेवन का उद्देश्य सफल नहीं होता। धर्मं यथार्थ में वही कहलाता हैं जिसमे संवरपूर्वक निर्जरा होकर अंत में समस्त कर्म-बन्धन से छुटकारा होता है। निश्चय-व्यवहार में मैत्रीभाव- निश्चय नय से निरपेक्ष व्यवहार का विषय असत् है अत: निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का उपयोग करने पर स्वार्थ का विनाश ही होता है, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं-

व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात्”

केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद् भ्रश्यति स्वार्थात्।।

व्यंजन ककार आदि अक्षरों को भी कहते हैं और दाल-शाक वगैरह को भी कहते हैँ। जैसे स्वर रहित व्यंजन का उच्चारण करने चाला अपनी बात दूसरे को नहीं समझा सकता, अत: स्वार्थ से भ्रष्ट होता है या जैसै घी, चावल आदि के बिना केवल दाल-शाक खाने वाला स्वस्थ नहीं रह सकता अत: वह स्वार्थ-पुष्टि के भ्रष्ट होता है। वैसे ही निश्चय नय से विमुख बहिर्दृष्टि वाले मनुष्यों के सम्पर्क से होने वाले अज्ञानवश अधिकतर अभूतार्थ व्यवहार को ही भावना करने वाला अपने मोक्ष सुखदायी स्वार्थ से भ्रष्ट होता है। कभी भी मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे निश्चय से शून्य व्यवहार व्यर्थ है, वैसे ही व्यवहार के बिना निश्चय भी सिद्ध नहीं होता, यह व्यतिरेक के द्वारा कहते है-
व्यवहारपराचीनो निश्चयं यशि्चकीर्षति,
बीजादिना विना मूढ: स सस्यानि सिसृक्षति।।
जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को करना चाहता है, वह मूढ़ बीज, खेत, पानी आदि कै बिना ही वृक्ष आदि फलों को उत्पन्न करना चाहता है। समयसार में लिखा है-
व्यवहारस्स दरीसणमुवएसो वणि्णदो जिणवरेहिं।
जीवा एवे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा।।
अर्थात् ये सब रागादि अध्यवसानमयी भाव जीव है, ऐसा जिनवर भगवान् ने जो आदेश दिया है, वह व्यवहार नय का मत है। इस गाथा की टीका में आचार्य जिनसेन ने लिखा है- यह व्यवहार नय का दर्शन है, मत है, स्वरूप है जो कि जिनेन्द्र भगवान ने बतलाया है कि वे सब अध्यवसायादि भाव परिणाम भी जीव है। स्पष्टीकरण यह है कि यद्यपि व्यवहारनय बहिर्द्रव्य का आलम्बन लेने से अभूतार्थ है किन्तु रागादि बहिर्द्रव्य से आलम्बन से रहित विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव के आलम्बन सहित ऐसे परमार्थ का प्रतिपादक होने से इसका भी कथन करना आवश्यक है, क्योंकि यदि व्यवहारनय को सर्वथा भुला दिया जाये तो फिर शुद्ध निश्चय से तो त्रस और स्थावर जीव है ही नहीं, अत: फिर लोग नि:शङ्क होकर उनर्क मर्दन में प्रवृत्ति करने लगेंगे। ऐसी दशा में पुण्य रूप कर्म का अभाव हो जायेगा, एक दूषण तो यह आयेगा तथा शुद्धनिश्चयनय से तो जीव राग, द्वेष, मोह से रहित पहले से ही है अत: मुक्त ही है, ऐसा मानकर फिर मोक्ष के लिए भी अनुष्ठान कोई क्यों करेगा, अत: मोक्ष का अभाव हो जायेगा, यह दूसरा दूषण आयेगा। इसलिए व्यवहारनय का व्याख्यान परम आवश्यक है, निरर्थक नहीं है। पं० जयचन्द जी का भावार्थ है – परमार्धनय तो जीव को शरीर और राग, द्वेष, मोह से भिन्न कहता है। यदि इसी का एकान्त किया जाये, तब शरीर तथा राग, द्वेष, मोह पुद्गलमय ठहरे और तब पुद्गल के घात से हिन्सा नहीं हो सकती ओर राग, द्वेष, मोह से बंध नहीं हो सकता। इस प्रकार परमार्थ से संसार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा। ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है। अवस्तु का ज्ञान और आचरण मिथ्या अवस्तु रूप ही है इसलिए व्यवहार का उपदेश न्याय प्राप्त है। इस प्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध भेदकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। व्यवहार नय पर्यायार्थिक है, अतएव जीव के साथ पुद्गल का संयोग होने से जीव की औपाधिक अवस्था हो रही है उसका वर्णन करता है, इसलिए वर्णादिक से गुणस्थान पर्यन्त भावों को जीव के रहता है किन्तु निश्चयनय तो मूल द्रव्य को लक्ष्य में लेकर स्वभाव का ही कथन करने वाला है इसलिए निश्चयनय की दृष्टि में ये जीव में नहीं है, क्योंकि सिद्ध अवस्था में ये नहीं होते । पह सब विवक्षा भेद से है। स्याद्वाद में इसका कोई विरोध नहीं है। निश्चयनय अभिन्न तादात्म्य सम्बन्ध या उपादान-उपेय भाव को ही ग्रहण करता है। उसकी दृष्टि संयोग-सम्बन्ध पर नहीं जाती जबकि व्यवहार नय संयोग सम्बन्ध और निमित्त-नैमित्तिक भावों को बतलाने वाला है। इसलिए आचार्य महाराज कहते हैँ कि आत्मा निश्चयनय से तो अपने भावों का ही कर्त्ता- भोक्ता है किन्तु व्यवहारनय से वह द्रव्य कर्मों का करने वाला तथा भोगने वाला भी है। यह व्यवहार नय समाधि अवस्था से च्युत अज्ञान दशा में स्वीकार किया जाता है किन्तु समाधि दशा मेँ निश्चय नय का अवलंबन रहता है। सिद्धान्त में तथा अध्यात्म में प्रवेश के लिए नय ज्ञान बहुत आवश्यक है क्योकि दोनों नय दो आँखें हैं और दोनों आँखों से देखने पर ही सर्वावलोकन होता है। एक आँख से देखने पर केवल एक अंश का ही अवलोकन होता है। आचार्य कुंन्दकुन्द ने लिखा है-
दोण्हवि णयाण भणियं जाणदि णवरिं तु समय पडिबद्धो।
ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।।
जो पुरुष सहज परमानंद स्वरूप समयसार का अनुभव करने वाला है वह दोनों नयो के कथन को जानता अवश्य है किन्तु वह किसी भी एक नय के पक्ष को स्वीकार नही करता, दोनो नयो के पक्षपात से दूर रहता है। बद्धादि विकल्परूप व्यवहारनय का पक्ष है और अबद्धादि-विकल्प रूप निश्चय नय का पक्ष है, किन्तु पारिणामिक परभभाव का ग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय के द्वारा देखने पर जीव बद्धाबद्धादिरूप विकल्प से सर्वथा दूर है, ऐसा कथन करते हैँ-
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एक दु जादा णअपवखं।
पक्खतिक्कतो पुण भणदि जो सो समयसारो।
जीव से कर्म बद्ध हैँ, लगे हुए हैं, यह भी और जीव में कर्म चिपके हुए नहीं हैं, ऐसा भी एक नय का पक्ष है किन्तु समयसार रूप जो आत्मा है, वह इन दोनों पक्षोंं से दूरवर्ती हैँ। नय जितने भी होते हैं, वे सब श्रुतज्ञान के विकल्परूप होते हैं, यह सिद्धान्त की बात है और श्रुतज्ञान क्षयोपशमिक है, वह क्षयोपशाम ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने के कारण यद्यपि व्यवहार नय के द्वारा छद्मस्थ जीव की अपेक्षा से जीव का स्वरूप होता है तथापि केवल ज्ञान की अपेक्षा से वह शुद्धजीव का स्वरूप नहीं है तब फिर जीवन स्वरूप क्या है? इस प्रश्न के होने पर आचार्य उत्तर देते हुए कहते है -नय ने पक्षपात से रहित- जो स्वसन्वेदन- ज्ञानी जीव है उसके विचारानुसार जीव का स्वरूप बद्धाबद्ध या मूढामूढ़ आदि नय के विकल्पों रहित चिदानंद स्वरूप होता है जैसा कि आत्मख्यातिकार ने लिखा है।
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं।
विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षाद मृतं पिबन्ति ।।
एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोद्वार् विति पक्षपातो।
यस्तत्त्ववेदीच्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव 
जो लोग नय के पक्षपात को छोड़कर सदा अपने आपके स्वरूप में तल्लीन रहते हैँ एवं सभी प्रकार के विकल्प जाल से रहित शान्त-चित्त वाले होते हैं, वे लोग ही साक्षात् अमृत का, समयसार का पान करते हैं। जीव व्यवहारनय की अपेक्षा से बद्ध होता है और निश्चयनय की अपेक्षा से वह बद्ध नही होता अत: वह इन दोनों नयों के विचार में अपना-अपना पक्षपात है। इसलिए पक्षपात से रहित तत्त्वविवेकी पुरुष के ज्ञान में तो चेतन, चेतन ही है। आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बुद्धिनिश्चय और व्यवहार इन दोनों नय को लेकर चलती है, किन्तु तत्त्व को जान लेने के बाद स्वस्थ हो जाने पर ऊहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा हेय और उपादेय-तत्त्व का निर्णय कर लेने पर हेय का त्याग करके उपादेय-तत्व में लगे रहना साधु-सन्तों को अभीष्ट है। आचार्य अमृचन्द्र ने लिखा है-
व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुद्धतत्त्वेन भवति मध्यस्थ:।
प्राप्नोति देशनाया: स एव फलम विकलं शिष्य:।।
अर्थात् व्यवहार और निश्चय को समझकर जो दोनों में मध्यस्थ हो जाता है अर्थात् किसी एक नय का पक्षपात नहीं करता, वही शिष्य उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है। इस प्रकार हमें आगम और अध्यात्म विषयक यथार्थ दृष्टि से वस्तु स्वरूप को हृदयंगम करना चाहिए। सन्दर्भ :- 1. उभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तन पंचास्तिकाय/तत्वदीपिका, गाथा 159 2. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय , शलोक 4 3. तत्तवार्थवार्तिक , 1/33 4. लघीयस्त्रय कारिका, 5. आलाप पद्धति, 204 6. वही, 205 7. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक 5 8. समयसार , गाथा 8 9. पं बंशीधर व्याकरणाचार्य,’जैन शासन में निश्चय और व्यवहार’,प्रस्तावना, पृ. 33 10. आचार्य कुन्दकुन्द समयसार, 32 11. समयसार की आचार्य ज्ञानसागर कृत हिन्दी टीका, पृ. 295 12. अनगारधर्मामृत, 1/102 13. अनगारधर्मामृत, 1/99 14. वही, 1/100 15. गाथा, 46 16. समयसार-हिन्दी टीका आचार्य ज्ञानसागर, पृ०5 17. वही, पृ० 59 18. समयसार, गाथा 150 19. वही, गाथा 149 20. समयसार कलश, 69 21. वही, 70 22. पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, शलोक 8
रीडर-जैन-बौद्धदर्शन विभाग संस्कृत-विद्या धर्म विज्ञान संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-5
Tags: Anekant Patrika
Previous post जैन दर्शन में अवस्थान चन्द्र—सूर्यादि ग्रहों का! Next post भक्ति का उत्कृष्ट संस्कृत काव्य -भक्तामर स्तोत्र!

Related Articles

वीर सेवा मंदिर!

July 13, 2017Harsh Jain

जिनेन्द्र का लघुनन्दन-श्रावक!

July 20, 2017aadesh

कैवल्य वृक्षों का ओषधीय महत्व!

July 7, 2017Harsh Jain
Privacy Policy