Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

पूजा के आधार पर-देव, शास्त्र और गुरु!

July 14, 2017शोध आलेखHarsh Jain

पूजा के आधार पर-देव, शास्त्र और गुरु

मानव जीवन का परमलक्ष्य मोक्षोपलब्धि है। मोक्ष जीवन के परम आनन्द की अवस्था का नाम है। मोक्षरूपी आनन्द की प्राप्ति के लिए पूजा, आराधना/उपासना या शक्ति एक साधन है। भगवान की भक्ति के द्वारा ही परम सुख की प्राप्ति होती है। दिगम्बर जैन परंपरा के आचार्य पद्मनन्दि जी ने सुखमय जीवन के लिए छह करणीय कत्र्तव्यों का निर्देश ‘पद्मनंदी पंचिंवशतिका’ ग्रंथ में दिया है—

देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:।

दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने—दिने।।

पद्मनन्दि पंचिंवशतिका, ४०३

गृहस्थ को अपने जीवन में देवपूजा, गुरु उपसना, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, तप और दान—इन छह कत्र्तव्यों का पालन प्रतिदिन करना चाहिए। इन छह कत्र्तव्यों में प्रथम देवपूजा को स्थान दिया जाता है क्योंकि देवपूजा के साथ बाकी के पाँच कर्तव्य भी कड़ी की भाँति जुड़े हुए हैं। ये देवपूजा आदि आराधना/भक्ति के ही अंग हैं। परमात्मा का पूजन, गुरु की उपासना, शास्त्र—अध्ययन, संयम तप और दान—इन छह कर्तव्यों के पालन से मानव का हृदय, वचन, और काय शुद्ध हो जाता है। इन तीन योगों की शुद्धि होने से संपूर्ण मानव जीवन पवित्र हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन पावन होने से क्रमश: पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय जीवन पवित्र हो जाता है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन शुद्ध, पवित्र होने से क्रमश: पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रीय जीवन पवित्र हो जाता है। राष्ट्र एवं राष्ट्रीय जीवन शुद्ध, पवित्र होने से राष्ट्र की मानसिकता/विचारधारा कल्याणकारी हो। लौकिक कल्याण होने पर परंपरा से आध्यात्मिक कल्याण भी संभव है। अत: आध्यात्मिक सुख—अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हेतु देवपूजा या भक्ति आवश्यक है। 

पूज्य पुरुषों के गुणों के प्रति

अनुराग रखना भक्ति कहलाती है या परमात्मा के प्रति अनुराग भाव रखना पूजा है। परमात्मा के गुणों की प्राप्ति के लिए उनके गुण एवं उनके प्रति श्रद्धापूर्वक आदर सत्कार करना पूजा कहलाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूपी रत्नत्रय—प्राप्ति के लिए रत्नत्रय प्रदाता देव, शास्त्र और गुरु की उपासना/आराधना करना पूजा कहलाती है। आचार्य पूज्यपादस्वामी ने अरिहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी तथा उनके प्रवचनों में विशुद्ध भावपूर्वक अनुराग को पूजा माना है।सर्वार्थसिद्धि अध्याय ६ सूत्र २४ परमात्मा की पूजा भावपूर्वक द्रव्य से की जाती है। इसलिए पूजन में द्रव्य और भाव—इन दो तत्त्वों का विशेष महत्त्व हैं मन से इष्ट देवों का अर्चन करना भावपूजा है। परम भक्ति के साथ जिनेन्द्र देव के अनन्त गुणों का कीर्तन करके जो त्रिकाल वंदना की जाती है वह भाव पूजा है।वसुनंदिर श्रावकाचार गाथा ४५६—४५८, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भग ३, पृ. ६५ देव, शास्त्र गुरु का मन, वचन और कायपूर्वक अष्ट द्रव्यों से पूजन करना द्रव्य पूजा है। शुद्ध भावों के साथ शब्दों के द्वारा जिनेन्द्र देव का गुण कीर्तन करते हुए अष्ट द्रव्यों का विनय के साथ समर्पण करना द्रव्य पूजा है।भगवती आराधना वि. ४६/१५९/२१, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग ३, पृ. ६४ भावपूजा के साथ ही द्रव्यपूजा करना सार्थक है। 

धर्म के स्वामी ने सुखमय

जीवन के लिए शुद्ध भावों के साथ अष्ट—द्रव्य पूजा करना उपयोगी बताया है। त्रियोग पूर्वक अष्ट—द्रव्य से किस गुण या या गुणी की पूजन करना चाहिए ? या पूजन के लिए कौन योग्य व्यक्ति है ? या पूज्य कौन है ? पूजन का आधार / आश्रय कौन है ? अथवा श्रेष्ठ गुणों के धारी या स्वामी कौन हैं जिनकी हमें पूजा करनी चाहिए ?—इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक है—सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु। रत्नत्रय के स्वामी देव, शास्त्र गुरु ही पूज्य हैं, उनके अनन्त गुण ही हमारे पूजा के आधार हैं या आश्रय है। केवलज्ञान, केवल दर्शन, अक्षय सुख व शांति अक्षय आत्मबल—जैसे गुण एवं इन गुणों के स्वामी—केवली, अरिहंत, सर्वज्ञ, वीतराग देव ही पूज्य हैं। पूजा के आधार है। शुभ स्वरूप देव, शास्त्र गुरु की उपासना से पूजक की आत्मा पवित्र होती है और आत्महित का मार्ग प्रशस्त होता है। हमारा जीवन सुखमय हो, इसके लिए हम भगवान या इष्टदेव की आराधना करते हैं। हम जिस इष्टदेव, गुरु की उपासना एवं शास्त्र अध्ययन करना चाहते हैंं। उस इष्टदेव के पास कौन—कौन सी उपलब्धियाँ हैं, या कौन—कौन विशेषताएँ या गुण हैं या गुण के स्वामी हैं या उनका क्या स्वरूप है, या रूप है ? या उनकी क्या पहचान है ? या किस कारण हमारा जीवन मंगलमय हो सकता है ? या सच्चे देव शास्त्र, गुरु की क्या पहचान है ? इन सब बातों पर विचार आवश्यक है। उक्त शंका का समाधान हमारे जैनाचार्य करते हुए कहते हैं कि जो आत्मा वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है, वही परमात्मा हमारे लिए पूज्य है। जो यथार्थ आप्त द्वारा उपदिष्ट वाणी को शास्त्रों को लिपिबद्ध किया गया है वह शास्त्र पूज्य है। जो वीतराग के उपदेश को, सदाचार को स्वयं जीवन में जीता है और उसे ही भव्य जीवों के लिए भी उपदेश देता है वही सच्चा गुरु पथप्रदर्शक पूज्य है। 

पूज्य देव का स्वरूप

जो आत्मा या परमात्मा वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होता है, वही देवता पूजनीय है। आचार्य समन्दभद्र स्वामी में पूज्य देवता के स्वरूप का निरूपण करते हुए ‘रत्नकरण्डक श्रावकाचार’ ग्रंथ में लिखा है—

आप्तेनोत्सन्नदोषण, सर्वज्ञेनागमेशिना।

भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।।५।।

रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक ५, आचार्य समन्तभद्र स्वामी। नियमपूर्वक आप्त (देव) को दोष रहित—वीतराग, सर्वचराचर जगत् को जानने वाला सर्वज्ञ और वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक आगम का स्वामी—मोक्षमार्ग का प्रणेता—हितोपदेशी होना चाहिए; क्योंकि अन्य प्रकार से आप्तपना नहीं हो सकता अर्थात् जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी नहीं है, वह पुरुष कभी सच्चा या पूज्यदेव नहीं हो सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘बोधपाहुड’ में सच्चे देव के बारे में लिखा है—

सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेद णाणं च। सो देइ जस्स अत्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा।।२४।।

धम्मो दया विसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता। देवा ववगय मोहो उदययरो भव्व—जीवाणां।।२४।।

बोधपाहुड गाथा २४, २५—आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी जो धन, धर्म, भोग और मोक्ष का कारण—ज्ञान को देता है, वही देव है। संसार में यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु होती है वही वस्तु अन्य को देता है। देव के पास अर्थ, धर्म, काम और प्रव्रज्या—दीक्षा (ज्ञान) है। दया से विशुद्ध धर्म सर्व परिग्रह से रहित प्रव्रज्या और मोह से रहित देव, ये तीनों भव्य जीवों का कल्याण करने वाले हैं। आचार्य विद्यासागर ने पूजनीय देव की वंदना करते हुए लिखा है कि—

लोका—लोका—लोकित, करते पूर्ण ज्ञान से सहित रहें, विरागता से भारित रहे हैं दोष अठारह रहित रहें। जगहित के उपदेशक ये ही नियम रूप से आप्त रहें, यही आप्तता नहीं अन्यथा, जिन—पद में मम माथ रहे।रमण मंजूषा आचार्य विद्यासागर पद्यानुवाद छन्द संख्या ५

शिरोमणि ज्ञानमती माताजी ने महामंत्र—णमोकार पूजन में पूज्य देव के स्वरूप का वर्णन किया है—

छयालिस सुगुण को धरैं अरिहंत जिनेशा, सर्व दोष अठारह से रहित त्रिजग हमेशा।

ये घातिया को घात के परमात्मा हुए। सर्वज्ञ, वीतराग और निर्दोष गुरु हुए।।

णमोकार मंत्र पूजन र्आियका ज्ञानमती माताजी

स्वामी र्काितकेय के अनुसार ‘‘जो त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों से संयुक्त समस्त लोकालोक को प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञदेव ही आराधना के योग्य है’’ जो परमसुख (मोक्ष) में क्रीड़ा करते हैं, या कर्मों को जीतने की इच्छा करते हैं, जो करोड़ों सूर्यों के भी अधिक तेल से दैदीप्यमान है जो धर्मयुक्त व्यवहार का विधाता है, जो लोक–अलोक को जानता है, जो अपने आत्मस्वरूप का स्तवन करता है, ऐसे विशेषणों (गुणों) से युक्त आचार्य, उपाध्याय, और साधु ही सच्चे देव हो सकते हैं।’’ रागादि का सद्भाव रूप दोष, प्रसिद्ध ज्ञानावरणादि कर्म—इन दोनों का जिसमें सर्वथा अभाव पाया जाता है वह देव ही पूज्य है। ऐसे सच्चे देव केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनंतवीर्य (शक्ति) के स्वामी होने से पूज्य हैं। 

आचार्य समन्तभद्र के अनुसार पूज्यदेव के स्वरूप का विश्लेषण—

आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी ने ‘रत्नकरण्डक श्रावकाचार’ ग्रंथ में पूज्य देव के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा है कि जो वीतरागी सर्वज्ञ और हितोपदेशी है, वही सच्चा देव आप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस परिभाषा में पूज्य देव के लिए प्रथम विशेषण है—वीतरागता, जिसका अर्थ है—जिसने आत्मबल से १८ दोषों को जीत लिया है, अपने वश में कर लिया है वही वीतरागी है। वे दोष हैं—जन्म, जरा, तृषा, क्षुधा, आश्चर्य, अरति, दु:ख, रोग, शोक, मद, मोह, भय, निद्रा, चिन्ता, स्वेदमल, राग, द्वेष, मरण। इन दोषों का नाम निम्नलिखित श्लोक में दिखाया गया है—

क्षुत्पिपासा—जरातंक—जन्मान्तमक—भयस्मय:।

न रागद्वेष मोहाश्च, यस्याप्त: स: प्रकीत्र्यते।।६।।

र. क. कारिका—६

जिस आत्मा ने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय कर्म—दोष का नाश कर क्रमश: केवलज्ञान, केवलदर्शन, अक्षय—अनंत—सुख और अक्षय अनन्तशक्ति—बल के स्वामी हो गये हैं। वे ही सर्वज्ञ कहलाने योग्य हैं। ऐसे सर्वज्ञदेव को आप्त, परमेष्ठी, परमज्योति, केवलज्ञानी, विरागी, वीतरागी, विमल, कृतकृत्य आदि मध्य, अन्त में रहित, सर्वहित कत्र्ता, शास्त्र—हितोपदेशक, अर्हंत, जिन, जिनेन्द्र, जीवन्मुक्त, सकल परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है। सच्चे देव की तीसरी पहचान यह है कि—वह हितोपदेशी होता है। वह हितोपदेशी जीवन्मुक्त परमात्मा होता है, केवलज्ञान यानी संपूर्ण ज्ञान का धारी—स्वामी होता है, कर्मरूपी मल/दोष से रहित होता है, कृतकृत्य या सिद्ध साध्य प्राप्त होता है, अनंत चतुष्टय का भण्डार होता है, विश्व के प्राणियों का कल्याण करने वाला होता है। रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग का भव्य जीवों के लिए बिना किसी इच्छा से कल्याण का उपदेश देने वाले परमात्मा हितोपदेशी कहलाते हैं। ऐसे हितोपदेशी भगवान रागद्वेष आदि के बिना अपना प्रयोजन न होने पर भी समीचीन—भव्यजीवों को हित का उपदेश देते हैं क्योंकि बजाने वाले—शिल्पि के हाथ के स्पर्श से ध्वनि—शब्द करता हुआ मृदंग क्या अपेक्षा रखता है? अर्थात् नहीं। 

सर्वज्ञ सिद्धि

आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी ने आप्त को दोष—रहित, सर्वज्ञ और आगम का स्वामी बताया है। आप्त के लिए तीन गुणों का होना आवश्यक है—वीतरागता, सर्व चराचर संसार को जानने वाला सर्वज्ञ और आगम का स्वामी या हितोपदेशी। इन तीन गुणों में सर्वजगत् का ज्ञात—सर्वज्ञ को आचार्य ने युक्ति आगम और अनुमान से सिद्ध किया है। आचार्य आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि—

सूक्ष्मान्तरित दूरार्था: प्रत्यक्षा: कस्यचिद् यथा।

अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति:।।५।।

सूक्ष्म पदार्थ—परमाणु आदि, अन्तरित पदार्थ—काल के अन्त से सहित राम, आदि महापुरुष, दूरवर्ती पदार्थ—मेरु, हिमवन पर्वत आदि, किसी पुरुष के प्रत्यक्ष अवश्य हैं। क्योंकि वे पदार्थ हमारे अनुमेय होते हैं। जो पदार्थ अनुमेय होता है वह किसी व्यक्ति के प्रत्यक्ष भी होता है। जैसे हम पर्वत में अग्नि को अनुमान से जानते हैं, किन्तु पर्वत पर स्थित पुरुष उसे प्रत्यक्ष से जानता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जो पदार्थ किसी के अनुमान के विषय होते हैं वे किसी के प्रत्यक्ष के विषय भी होते हैं। अत: हम लोग सूक्ष्म, अन्तरित और दूवर्ती पदार्थों को अनुमान से जानते हैं अत: उनको प्रत्यक्ष से जानने वाला भी कोई अवश्य होना चाहिए और जो पुरुष उनको प्रत्यक्ष से जानता है वही सर्वज्ञ है। इस प्रकार ‘सूक्ष्मान्तरित दूरार्था: कस्यचित् , प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् , इस अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। लेकिन वह सर्वज्ञ अर्हन्त देव ही है इसकी सिद्धि के लिए आचार्य लिखते हैं—

स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति शास्त्राविरोधिकवाक्।

अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।।६।।

हे भगवान् ! पहिले जिसे सामान्य से वीतराग तथा सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है, वह आप अर्हन्त ही हैं। आपके निर्दोष वीतराग होने में प्रमाण यह है कि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं। आपके इष्ट तत्त्व मोक्षादि में किसी प्रमाण से बाधा नहीं आने के कारण यह निश्चित है कि आपके वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं। अर्हंत ने जिन मोक्ष आदि तत्त्वों का उपदेश दिया है उनमें किसी प्रमाण से विरोध न आने के कारण अर्हन्त के वचन युक्ति और आगम से अविरोधी सिद्ध होते हैं और अविरोधी वचन अर्हन्त की निर्दोषता को घोषित करते हैं। इसलिए स्वभाव, देश और काल विप्रकृष्ट परमाणु आदि पदार्थों को जानने वाले अर्हंत ही हैं। अर्हंत के अतिरिक्त अन्य कोई सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि अन्य सब सदोष हैं। सदोष होने का कारण यह है कि उनके वचन युक्ति और आगम से विरु हैं। जिन्होंने जिन तत्त्वों का उपदेश दिया है वह प्रमाण से बाधित है। 

पूजनीय शास्त्र का स्वरूप

आराधना का द्वितीय आधार आगम है। पूजनीय आगम वीतरागी अर्हंत द्वारा प्रतिपादित अतिशय बुद्धि के धारक गणधर देव के द्वारा धारण किये गये राग—द्वेष की भावना से रहित आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं विद्वानों द्वारा लिपिबद्ध किये गये शास्त्र पूज्यनीय शास्त्र कहलाते हैं। जिनागम, आगम, शास्त्र, जिनवचन, ग्रंथ, सिद्धान्त, प्रवचन, उपदेश, जिनवाणी, दिव्यध्वनि, दिव्योपदेश, जिनशासन, सरस्वती, शारदा, द्वादशांगवाणी, स्याद्वादवाणी इत्यादि इसके अनेक नाम हैं। समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में सच्चे शास्त्र का स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि—

आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घय—मदृष्टेविरोधकं।

तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट टनं।।९।।

रत्नकरण्डक श्रावकाचार गाथा ९ (आ. समन्तभद्र स्वामी)

अर्थात् जो वीतरागी—आप्त द्वारा कहा जाता है, इन्द्रादिक देवों के द्वारा अनुलंघनीय है अर्थात् ग्रहण करने योग्य है अथवा अन्य वादियों के द्वारा अखण्डनीय है, प्रत्यक्ष—परोक्ष आदि प्रमाणों से जो आधिक नहीं है, जो वस्तु स्वरूप प्रतिपादक है, जो सबका हितकारक है और मिथ्यात्व को नष्ट करने वाला है, वही सच्चा शास्त्र कहलाता है। इस स्वरूप का समर्थन करते हुए आचार्य विद्यासागर जी महाराज ‘रयणमंजूषा’ में लिखते हैं—

‘‘प्रत्यक्षादिक अनुमानादिक प्रमाण से विरोधी हो, वीतराग सर्वज्ञ कथित हो नहीं किसी से बाधिक हो।

एकान्ती मन का निरसक हो, सब जग का हितकारक हो।

अनेकान्तमय तत्त्व—प्रदर्शक शास्त्र वही अघ हारक हो’’।।९।।

रयणमंजूषा—आचार्य विद्यासागर (पद्यानुवाद) छन्द सं. ९

आचार्यों का मत है कि—यथार्थ शास्त्र वही हो सकता, जो यथार्थ आप्त द्वारा उपदिष्ट हो, आप्त की वाणी को कोई असत्य सिद्ध न कर सके, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, तर्क आदि प्रमाणों से विरोध रहित हो, वस्तु तत्त्व का कथन करने वाला हो, समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाला हो, िंहसा, झूठ, चोरी, अपरिग्रह, कुशील, अन्याय, मद्यपान, माया, मद, लोभ, राग—द्वेष आदि दोषों को दूर करने वाला हो, श्रीगणधर एवं उनके शिष्यों—आचार्यों द्वारा रचित हो, सच्चे मार्ग का प्रदर्शक हो, आत्मा को परमात्मा बनने के लिए निर्मल सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा सम्यक आराधना का उपदेशक हो—वही वास्तव में सच्चे शास्त्र कहलाने योग्य हैं कविवर द्यानतराय लिखते हैं—

सो स्याद्वाद—सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सु अंग। रवि शशि न हरै सो तम हराय सो शास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय।देव, शास्त्र, गुरु (समुच्चय) पूजा, द्यानतराय कविवर

जिनागम के चार अनुयोग

जिनागम— अध्ययन की सुविधानुसार शास्त्रों के विषय को चार भागों में रखा गया है—‘प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:’ अर्थात् प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।
 
१. प्रथमानुयोग—  तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र आदि ६३ श्लाका पुरुष, १६९ महापुरुषों के आदर्शमय जीवन—चरित्र का वर्णन, बोधि, अर्थात् रत्नत्रय एवं समाधिमरण तक का वर्णन करने वाले शास्त्र को प्रथमानुयोग कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चार पुरुषार्थों का किसी एक महापुरुष के चरित्र का और त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन करने वाले पुराण, कथा, चारित्र को प्रथमानुयोग कहते हैं। उसके पठन, मनन व उपदेश आदि से पुण्य तथा बोधि—ज्ञान और समाधि प्राप्त होती है। यह अनुयोग सम्यग्ज्ञान का विषय है।
 
उदाहरण स्वरूप—हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, महापुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण, पाण्डवपुराण, श्रेणिकचरित्र आदि प्रथमानुयोग के ग्रंथ हैं। आचार्य समन्तभद्र में ‘रत्नकरण्डक श्रावकाचार’ में प्रथमानुयोग का लक्षण प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि—

प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपिपुण्यम्।

बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।४३।।

रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४३ (आ. समन्तभद्र स्वामी)

यह प्रथमानुयोग तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जीवन आदर्शों के साथ पुण्य—पाप के फल का दिग्दर्शन कराता है। इसके अध्ययन से व्यक्ति के शुभ अशुभ परिणामों के अनुसार उसके उत्थान और पतन की भी स्पष्ट झलक होती है। यह कथा—उपकथा के माध्यम से गूढ़ तत्त्वों का अत्यन्त सरल और सुन्दर ढंग से बोध कराता है। प्राथमिक जन भी इससे तत्त्वबोध सरलता से ग्रहण कर लेते हैं, इसलिए यह प्रथमानुयोग कहलाता है। देवशास्त्र गुरु की पूजा, भक्ति, उपासना से पुण्यानुबन्धी पुण्य कमाकर सद्गति का भागीदार बनाना इस अनुयोग का कार्य है। सत्पात्रों को दान देना, चैत्य—चैत्यालयों का निर्माण करना आदि, व्रत संयम नियमों को पालन करना, स्वाध्याय, तप धारण करना आदि शुभ कार्यो में उपयोग लगाने आदि का अनुयोग देता है। जिन द्वारा प्रतिपादित धर्म में दृढ़ श्रद्धान करना, उनके द्वारा बताये गये सप्त तत्त्वों एवं नव पदार्थों को ज्ञानकर उनमें प्रगाढ़ विश्वास रखना आदि का ज्ञान प्रथमानुयोग के अध्ययन से प्राप्त होता है। यह अनुयोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चार पुरुषार्थों का स्वरूप ज्ञान बतलाने वाला अनुयोग ग्रंथ है। 

२. करणानुयोग—

जो लोक—अलोक के विभाग का, कल्पकालों के परिवर्तन, चार गतियों के परिभ्रमण का कथन करता है, वह करणानुयोग कहलाता है। इसको गणितानुयोग, लोकानुयोग के नाम से भी जाना जाता है। करण परिणामों को कहते हैं, इस अनुयोग में जीव के परिणामों का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। इस अध्याय में जैनागम मान्य—भूगोल, खगोल संबंधी विषयों का विस्तार से वर्णन है। नरक, द्वीप, समुद्र, कुलाचल—सुमेरुपर्वत, देवलोक, स्वर्ग विमान आदि इस अनुयोग के प्रतिपाद्य विषय हैं। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार—

लोकालोकविभक्तेर्युगनरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।

आदर्शमिव तथामति रवैति करणानुयोगं च।।

. रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४४ (आ. समन्तभद्र स्वामी)

प्रथमानुयोग की तरह मनन रूप श्रुतज्ञान, लोक—अलोक के विभाग को युगों के परिवर्तन और चारों गतियों के लिए आदर्श दर्पण के समान करणानुयोग जानता है। गणितसार, पण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूद्वीप—पण्णत्ति आदि करणानुयोग के प्रमुख ग्रंथ है। 

३. चरणानुयोग—

गृहस्थों एवं मुनियों के आचार सम्बन्धी नियमों के निरूपक अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं। इस अनुयोग में गृहस्थ और गृहत्यागी मुनियों के आचार—विचार का वर्णन होता है। कोई भी भव्य पुरुष किस उपाय से सदाचार को प्राप्त करें, किस तरह से उसकी रक्षा करें और किस प्रकार से उसे पल्लवित करें, इन सब बातों का स्पष्ट उल्लेख चरणानुयोग में होता है। जिसे जानकर भक्त, भगवान की ओर सदाचार पालन करते हुए जाता है। यह भी सम्यग्ज्ञान का एक अंग है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार—

गृहमेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्तिवृद्धि रक्षांगम्।

चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।

रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४५ (आ. समन्तभद्र स्वामी)

गृहस्थों और साधुओं के चरित्र के उद्भव, उसके विकास और उसकी रक्षा के अंग स्वरूप/कारणभूत अथवा इन तीन अंगों को लिए हुए जो शास्त्र आत्मानुसंधान की दिशा में प्रवृत्त है उसे चरणानुयोग कहते हैं। मूलाचार, भगवती आराधना, अनगार धर्मामृत, सागार—धर्मामृत, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि चरणानुयोग के ग्रंथ हैं। ४. द्रव्यानुयोग—जिस शास्त्र में जीव, अजीव, पुण्य—पाप, बंध—मोक्ष, आत्मा आदि विश्व के सभी तत्त्वों का कथन हो वह शास्त्र द्रव्यानुयोग कहलाता है। द्रव्य का निरूपक—द्रव्यानुयोग में प्रमाण, नय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, आदि विषयों का प्रतिपादन किया जाता है। यह अनुयोग आत्मा की बंध और मुक्त अवस्था का सम्यक् अवबोध कराता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार—

जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।।१६

जो जीव और अजीव तत्त्वों को, पुण्य और पाप को तथा बन्ध और मोक्ष को और बंध के कारण—आस्रव तथा मोक्ष के कारण संवर—निर्जरा को भी प्रकाशित करने वाला दीपक है, वह द्रव्यानुयोग है। द्रव्यानुयोग के विषय को आगम और अध्यात्म की अपेक्षा दो भागों में रखा गया है। इसके आगम सिद्धान्त एवं न्याय दो विभाग हैं और अध्यात्म के भावना और ध्यान की दृष्टि से दो भेद हैं। षट्खण्डागम, कसायपाहुड़ गोम्मटसार, लब्धिसार सिद्धांतविषयक ग्रंथ हैं। न्याय संबंधी ग्रंथों में अष्टसहस्री, श्लोकर्वाितक, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा, आलापपद्धति, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि प्रमुख हैं। अध्यात्मपरक भावना ग्रंथ समयसार, प्रवचनसार परमात्मप्रकाश, योगसार, र्काितकेयानुप्रेक्षा आदि प्रमुख ग्रंथ है जबकि अध्यात्मपरक ध्यान ग्रंािों में ज्ञानार्णव, तत्त्वानुशासन, ध्यानस्तव आदि प्रमुख हैं। इन आगम में द्रव्यानुयोग के अध्ययन के लिए आवश्यक सामग्री है। जो सद्साहित्य के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं। 

पूजनीय गुरु का स्वरूप

जैन परम्परा के मर्हिषयों को यति, मुनि, भिक्षु, तापस, तपस्वी, संयमी, योगी, वर्णी, आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रमण, दीक्षागुरु, ऋषि, मोक्षमार्गी, दिगम्बर, निग्र्रंथ आदि नामों से जाना जाता है। ऐसे मर्हिष पंचेन्द्रिय विषयों से विरत रहते हैं। हिसा, झूठ—चोरी, कुशील, परिग्रह आदि दोषों से दूर रहते हैं और अंतरंग—बहिरंग परिग्रह/लोभ—माया आदि के त्यागी होते हैं, गृहत्यागी दिगम्बर होकर ज्ञानाभ्यास, ध्यानयोग, तपश्चरण में सर्वदा दत्तचित्त रहते हैं। ऐसे महात्मा स्वपर हितकारी कत्र्तव्य पर स्वयं चलते हैं और भव्य जीवों को चलने का उपदेश देते हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखते हैं—

विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्त:, तपस्वी स प्रशस्यते।।रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक संख्या ४६ (आ. समन्तभद्र स्वामी)

जो विषयों की आशा के वश से रहित हो, आरंभ और परिग्रह से रहित हो तथा ज्ञान, ध्यान, तप में निरत हो, ऐसे वह तपस्वी गुरु प्रशंसा के योग्य हैं। कविवर द्यानतराय देवशास्त्र गुरु पूजन के जयमाला पाठ में गुरु की स्तुति/महिमा लिखते हैं—

गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाधा। संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि तपै शिव—पद निहार।।६।। गुण छत्तिस पच्चिस आठ बीस, भव—तारण तरन जिहाज ईस। गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु नामजपो मन वचन काय।।७।।

कविवर द्यानतराय जी का मत है कि अपनी शक्ति के अनुसार देव, शास्त्र और गुरु की पूजन, भक्ति, ध्यान, जाप मरण आदि दोषों से दूर करके अजर—अमर—पद—मोक्ष को प्राप्त कराता है। जिन परम्परा में रत्नत्रयप्रदाता—सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु—में तीन शुभ रत्न जैन पूजा—विधान के निमित्त या आधार हैं। प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन देव शास्त्र और गुरु जो समीचीन हो, का पूजन—भक्ति कर आत्मा को पवित्र करना चाहिए। सच्चे देव की श्रेणी में संपूर्ण वीतराग परम देवों का अन्तर्भाव हो जाता है। अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनवाणी, चैत्य, जिन चैत्यालय—इन देवों की गणना परम देवों में की जाती है। 
डॉ. बसन्त लाल जैन
कोहॅडॉर जिला—इलाहाबाद (उ. प्र.)
अनेकान्त अक्टू. दिसम्बर. २०१० पृ० ४७ से ५५ तक
Tags: Anekant Patrika
Previous post ईशान में मंदिर शुभ या अशुभ! Next post मालवा के सुल्तानों के समय जैन धर्म!

Related Articles

प्राचीन भारतीय न्यायिक व्यवस्था

July 22, 2017jambudweep

श्रावक और उनके षड् आवश्यक कर्त्तव्य!

December 9, 2020jambudweep

विन्ध्यगिरि पर खड़े गोम्मटेश बाहुबली डग भरने को हैं

July 22, 2017jambudweep
Privacy Policy