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भक्तामर स्तोत्र- हिन्दी पद्यानुवाद( मुनि श्री क्षीरसागर कृत )!

January 3, 2014जिनेन्द्र भक्तिjambudweep

श्री भक्तामर स्तोत्र- हिन्दी पद्यानुवाद


( मुनि श्री क्षीरसागर कृत )

शत इन्द्रनि के मुकुट जु नये, पाप विनाशक जग के भये |

ऐसे चरण ऋषभ के नाय, जो भवसागर तिरन सहाय ||१||

तत्व ज्ञान से जो थुति भरी, बुद्धि चतुर सुरपति सो करी |

ते पद सब जन के मन हरें, सो थुती हम उस जिन की करें ||२||

ज्यों नभ में शशि को लख बाल, पकड़न चाहें होय खुश्याल |

त्यों मैं थुति वरणों मति हीन, जिसमें गणधर थके प्रवीण ||३||

हे गुण निधि तुम गुण शशि कान्त, कहि न सके ऋषि सुर लौकांत,|

प्रलय पवन उद्धत दधि नीर, तर सकता को भुजबल वीर ||४||

मै मति हीन रंच नहीं डरों, भक्ति भाव वश तुम थुति करों |

तुमहिं कहो जिन निज सुत काज, मृग न लड़ें मृगपति से गाज ||५||

अल्प शास्त्र का ज्ञात जान, हँसी करेंगें बहु श्रुतवान |

पर मो बुद्धि करे वाचाल, कोयल को ज्यों मधु ऋतु काल ||६||

यह थुति अल्प रचित भगवान, तुम प्रसाद हो निपुण सामान |

ज्यों जल कमल पत्र पे परे, मोती वत् सो शोभा धरे ||७||

तुम थुति गावत ही क्षण माहि -जन्म जन्म के पाप नशाहिं |

ज्यों दिनकर के उदय वशात, अंधकार तत्काल नशात ||8||

तुम निर्दोष रहो थुति दुर, कथा मात्र से ही अधचूर |

ज्यों रवि दूर किरण के जोर, कमल प्रफुल्लित सरवर ओर ||९||

क्या अचरज जो तुम सम बनें, कारण निश दिन तुम गुण भनें |

ज्यों निरधन धनपति को पाय, धनी होए तो कहे बड़ाय ||१०||

शांति रूप तुम मूरत धनी, क्या अद्भुभूत परमाणु बनी |

वे परमाणु रहे ना शेष, इससे तुम सम दुतिय ना भेष ||११||

तुम मुख उपमा सब जग वरे,सुर नर नाग नयन मन हरे |

तुम सम उपमा चन्द न रखे, वह दोषी दिन फीका दिखे ||१२||

सब शशि मंडल मे शशि कला,त्यों तुम गुण सब जग मे फला |

जो ऐसे के आश्रित होय, उस विचरत को रोके कोय ||१३||

देवांगना न मन को हरें, क्या अचरज हम इसमें करें |

प्रलय पवन से अचला चले,किन्तु मेरु गिरी रंच न हिलें ||१४||

तेल न बत्ती धुआं न पास ,जगमग जगमग जगत प्रकाश ||

प्रलय पवन से बुझे न खंड , ज्ञान दीप तुम जले अखंड ||१५||

राहू ग्रसे न हो तू अस्त , युगपत भाषे जगत समस्त |

तुझ प्रभाव नहीं बद्दल छिपे , तू रवि से अधिकारी दिपे ||१६||

ताप विनाशक तू नित दिपे , राहू ग्रसे न बद्दल छिपे |

तुम मुख सुन्दर ज्योति अमंद , शांति विकासी अद्भूत चंद ||१७||

क्या दिन रवि क्या निश शशि होय ,जब तेरा मुख जग तम खोय |

जब पक जाय धान्य सब ठाम ,फिर घनघोर घटा बे काम ||१८||

जो सु ज्ञान सोहे तुम माहिं , हरि हरादि पुरुषों में नाहिं |

सूर्यकांत में जो थुति कढ़े , सो नं कांच मे रवि से बढ़े ||१९||

हरि हरादि उत्तम इस रीति , उनको लख तुमसे है प्रीति |

तुमरी रति से फल यह हमें , जो न भावांतर पर मे रमें ||२०||

तुम को इकटक लखे जु कोय , अवर विषें रति कैसे होय |

को कर पान मधुर जल क्षीर , फिर क्यों पीवे खारा नीर ||२१||

सब नारी जननी सुत घने, पर तुमसे सुत नाहीं जने |

सर्व दिशा से तारे मान , किन्तु पूर्व दिश उगें भान ||२२||

परम पुरुष जाने मुनि तुमें , तम से परे तेज रवि समें |

तुम्हे पाय सब मृत्यू हरें , मोक्ष मार्ग इससे नहीं परें ||२३||

तुम अचिन्त्य व्यापक ध्रुव एक , मुनिवर विदित असंख्य अनेक |

ब्रह्मा ईश्वर आद्य अनंत ,अमल ज्ञान मय कहते संत ||२४||

तुम सुबुद्दी से बुद्ध प्रसिद्ध , अघ संहारक शंकर सिद्ध |

धर्म प्रवर्तक ब्रह्मा आप , जग पालक नारायण थाप ||२५||

तुम्हे नमों हे पर दुख हार , तुम्हें नमों जग भूषण सार |

 तुम्हे नमो जग नायक धार , तुम्हे नमों भव शोषण हार ||२६||

क्या अचरज सब गुण तुम पास , जबकि न उनको अन्य निवास |

दोष गर्व बहु थल को पाय , सपने भी तुम पास न आय ||२७||

तरु अशोक ऊँचे के तीर , तुमरो सोहे विमल शरीर |

ज्यों तम हर अरु तेजस खास , रवि दीखे घन घट के पास ||२८||

रतन जड़ीत सिंघासन ऊप , तुम तन सोहे कनक स्वरुप |

पूरब दिश उदयाचल पास , सोहे किरण लता रवि खास ||२९||

कुंद पुष्प सम चौसठ चमर , तुम तन ऊपर ढोरें अमर |

शशि सम श्वेत बहे जल धार , ऊँचे कनक मेरु दिश चार ||३०||

शशि सम तीन छत्र सिर आप , जो रोके रवि का आताप |

मोती झालर शोभे घना , जिससे प्रकटे ईश्वर पना ||३१||

दश दिश मे धुनि उच्च अभंग, जग जन को सूचक शुभ संग |

तुमरी बोलें जय जय कार , नभ मे यस को बजे नकार ||३२||

पारी जात सुन्दर मंदार , वर्षे फूल अनेक प्रकार |

मंद पवन गंधोदक झिरें ,मानों तुम बच नभ से खिरें ||३३||

तुम भामंडल तेज अपार , जीते सब जग तेजस धार |

कोटि सूर्य से बढ़ कर कांति लज्जित भई चन्द्र की शांति ||३४||

स्वर्ग मोक्ष पथ सूचक शुद्ध , तत्व कथन में सबको बुद्ध |

प्रकट अर्थ तुम धुनि से होय , सब भाषा गुण परजय जोय ||३५||

फूले कनक कमल की ज्योति , चहुँ ओर त्यों नख द्युति होति |

ऐसे चरण धरो तुम जहाँ , झटपट कमल रचें सुर तहां ||३६||

जैसा विभव तुम्हारे लार , वैसा विभव न कोई धार |

जैसे तम हर सूर्य प्रकाश , तैसा अन्य न ज्योतिष पास ||३७||

हो उन्मत मद झरे अपार , जो क्रोधित सुन अलि गुंजार |

ऐसा सुर गज सन्मुख आय ,भय न करे तुम आश्रित पाय ||३८||

खेंचे कुम्भस्थल गज मत्त , भूमें बिखरे मोती रत्त |

ऐसा सिंह न पकडे खाय , जो तेरे पद आश्रित आय ||३९||

प्रलय पवन सम अग्नि हले, तड़तड़ाय दावानल जले |

जगदाहक सन सन्मुख आय , तब तुम थुति जल देई बुझाय  ||४०||

लाल नेत्र अरु काला अंग , धाय उच्च फण कुपति भुजंग |

उसको लांघे निर्भय राम , जिस पर अहिऔषध तुम नाम ||४१||

हय उछलें गज गरजें घोर , सेना चढ़ी नृपति के जोर|

तुम कीर्तन से शीघ्र पलाय , ज्यों रवि ऊगत तम विनशाय ||४२||

भाले छिदें बहें गज रक्त , चल फिर सकै न जोधा मत्त |

तब रिपु प्रबल न जीता जाये , सो जय तुम पद आश्रय पाय ||४३||

दधि मे मगर मच्छ उद्दण्ड , -बद्वानल या पवन प्रचंड |

अथवा नाव भंवर मे आय,तब तुम सुमिरत विघ्न नाशाय ||४४||

घोर जलोदर पीड़ा सहे , आयु न आशा चिन्ता रहे |

जब तन लेपे तुम पद धूल, कामदेव सम होय समूल ||४५||

नख शिख अंग सांकलें ठिलीं,दृढ़ बेडिनि सों टांगें छिलीं |

जब तुम नाम मंत्र सुमिराय , बंधन रहित शीघ्र हो जाय ||४६||

गज केहरि दावानल नाग , रण दधि रोग बन्ध बहु लाग |

ये भय भजें स्वयं भय खाय , जब इनको तुम व्रतधर पाय ||४७||

तुम स्तोत्र जिनेश महान , भक्ति विवश कछु रचा अजान |

पर जो पाठ पढ़े मन लाय , ‘मानतुंग’ अरु लक्ष्मी पाय ||४८||

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