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भगवान ऋषभदेव

March 14, 2023Ayodhya, विशिष्ट व्यक्तित्वSurbhi Jain

भगवान ऋषभदेव का जीवन दर्शन

प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जीवन दर्शन

(Life-sketch of First Teerthankar Bhagwan Rishabhdev)

आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर हैं, जिन्होंने वर्तमान युग में जिनधर्म की परम्परा का प्रथम प्रवर्तन किया। हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से भगवान ने तृतीय काल में जन्म लेकर इसी काल के समाप्त होने से ३ वर्ष ८ माह और १ पक्ष पूर्व ही निर्वाण को भी प्राप्त कर लिया।

जन्म भूमिअयोध्या (उत्तर प्रदेश)
पितामहाराज नाभिराय
मातामहारानी मरूदेवी
वर्णक्षत्रिय
वंशइक्ष्वाकु
देहवर्णतप्त स्वर्ण
चिन्हबैल
आयु चोरासी (८४ ) लाख पूर्व वर्ष
अवगाहना दो हजार (२००० ) हाथ
गर्भ आषाढ़ कृ. २
जन्म चैत्र कृ.९
तप चैत्र कृ.९
दीक्षा -केवलज्ञान वन एवं वृक्षप्रयाग-सिद्धार्थवन, वट वृक्ष (अक्षयवट)
प्रथम आहारहस्तिनापुर के राजा श्रेयांस द्वारा (इक्षुरस) 
केवलज्ञानफाल्गुन कृ.११
मोक्षमाघ कृ.१४
मोक्षस्थलकैलाश पर्वत
समवसरण में गणधर श्री वृषभसेन आदि ८४
मुनि  चौरासी हजार
गणिनी  आर्यिका ब्राह्मी
आर्यिका तीन लाख पचास  हजार (३००००)
श्रावक  तीन लाख (३०००००)
श्राविका  पांच लाख (५०००००)
जिनशासन यक्ष गोमुख देव
यक्षी चक्रेश्वरी देवी

भगवान ऋषभदेव वर्तमान वीर नि.सं.२५४५ से ३९५०५ वर्ष कम, सौ लाख करोड़ सागर अर्थात् एक कोड़ाकोड़ी सागर वर्ष पहले मोक्ष गए हैं। इससे चौरासी लाख पूर्व वर्ष पहले जन्में हैं।

ऋषभदेव के पूर्व भव-

इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत से पश्चिम की ओर विदेहक्षेत्र में एक ‘गंधिल’ नाम का देश है, जो कि स्वर्ग के समान शोभायमान है। उस देश में हमेशा श्री जिनेन्द्र रूपी सूर्य का उदय रहता है इसीलिये वहाँ मिथ्यादृष्टियों का उद्भव कभी नहीं होता। इस देश के मध्य भाग में रजतमय एक विजयार्ध नाम का बड़ा भारी पर्वत है। उस विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक अलका नाम की श्रेष्ठ पुरी है। उस अलकापुरी का राजा अतिबल नाम का विद्याधर था, जिसकी मनोहरा नाम की पतिव्रता रानी थी। उन दोनों के अतिशय भाग्यशाली ‘महाबल‘ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। आगे पढ़े…….

गर्भ कल्याणक –

ऋषभदेव का गर्भावतार-

भगवान् के गर्भ में आने के छह महीने पहले इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावत हाथी, शुभ्र बैल, हाथियों द्वारा स्वर्ण घटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमाला आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर वे अत्यन्त हर्षित हुईं। उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा-दु:षमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वङ्कानाभि अहमिन्द्र देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर महारानी मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए। उस समय सौधर्म इन्द्र ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्री आदि देवियाँ और दिक्कुमारियाँ माता की सेवा करते हुए काव्यगोष्ठी, सैद्धान्तिक चर्चाओं से और गूढ़ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं।

जन्म कल्याणक

ऋषभदेव का जन्म महोत्सव-

नव महीने व्यतीत होने पर माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय मति-श्रुत-अवधि इन तीनों ज्ञान से सहित भगवान को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। इन्द्रों के आसन कम्पित होने से, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने से एवं चतुर्निकाय देवों के यहां घंटा ध्वनि, शंखनाद आदि बाजों के बजने से ‘‘भगवान का जन्म हुआ है,’’ ऐसा समझकर सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगर की प्रदक्षिणा करके भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से क्षीरसमुद्र के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। अनन्तर वस्त्राभरणों से अलंकृत करके ‘ऋषभदेव’ यह नाम रखा। सौधर्म इन्द्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके स्वस्थान को चले गये।

ऋषभदेव का विवाहोत्सव-

भगवान के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहन ‘यशस्वती’, ‘सुनन्दा’ के साथ श्री ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न कर दिया।

भरत चक्रवर्ती आदि का जन्म-

यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रमश: निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। दूसरी सुनन्दा देवी ने कामदेव भगवान बाहुबली और सुन्दरी नाम की कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ एक पुत्र एवं दो पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे।

भगवान द्वारा पुत्र-पुत्रियों का विद्याध्ययन-

भगवान ऋषभदेव गर्भ से ही अवधिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे। किसी समय भगवान ने ब्राह्मी-सुन्दरी को गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित्त में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्णपट्ट पर स्थापित कर ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से ‘अ, आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को ब्राह्मी लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुन्दरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था।

असि-मषि आदि षट्क्रियाओं का उपदेश-

काल प्रभाव से कल्पवृक्षों के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना बोये धान्य के भी विरल हो जाने पर व्याकुल हुई प्रजा नाभिराज के पास गई। अनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभदेव के पास आकर रक्षा की प्रार्थना करने लगी।

प्रजा के दीन वचन सुनकर भगवान ऋषभदेव अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व-पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान (विद्यमान) है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहां जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम-नगर आदि की रचना है वैसे ही यहां भी होना चाहिये। अनन्तर भगवान ने इन्द्र का स्मरण किया और स्मरणमात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंिन्दर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमन्दिर बनाये। कौशल, अंग, बंग आदि देश, नगर बनाकर प्रजा को बसाकर प्रभु की आज्ञा से इन्द्र स्वर्ग को चला गया। भगवान ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। उस समय भगवान सरागी थे। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की और अनेकों पापरहित आजीविका के उपाय बताये इसीलिये भगवान युगादिपुरुष, आदिब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये। उस समय इन्द्र ने भगवान का साम्राज्य पद पर अभिषेक कर दिया।

तप कल्याणक

भगवान का वैराग्य और दीक्षा महोत्सव-

किसी समय सभा में नीलांजना के नृत्य को देखते हुए बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान को वैराग्य हो गया। भगवान ने भरत का राज्याभिषेक करते हुए इस पृथ्वी को ‘भारत’ इस नाम से सनाथ किया और बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित किया। भगवान महाराज नाभिराज आदि से पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर ‘सिद्धार्थक’ वन में पहुंचे और वटवृक्ष के नीचे बैठकर ‘नम: सिद्धेभ्य:’ मन्त्र का उच्चारण कर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्व परिग्रहरहित मुनि हो गये। उस स्थान की इन्द्रों ने पूजा की थी इसीलिये उसका ‘प्रयाग’ यह न्ााम प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने वहां प्रकृष्ट रूप से त्याग किया था इसीलिये भी उसका नाम प्रयाग हो गया था। उसी समय भगवान ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।

भगवान के साथ दीक्षित हुए राजा लोग दो-तीन महीने में ही क्षुधा, तृषा आदि से पीड़ित होकर अपने हाथ से वन के फल आदि ग्रहण करने लगे। इस क्रिया को देख वनदेवताओं ने कहा कि मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ अरहंत, चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है। तुम लोग इस वेष में अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यह सुनकर उन लोगों ने भ्रष्ट हुये तपस्वियों के अनेकों रूप बना लिये, वल्कल, चीवर, जटा, दण्ड आदि धारण करके वे पारिव्राजक आदि बन गये। भगवान ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार इनमें अग्रणी गुरू पारिव्राजक बन गया। ये मरीचि कुमार आगे चलकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुए हैं।

भगवान का आहार ग्रहण-

जगद्गुरू भगवान छह महीने बाद आहार को निकले परन्तु आहार चर्याविधि किसी को मालूम न होने से सात माह नौ दिन और व्यतीत हो गये अत: एक वर्ष उनतालीस दिन बाद भगवान कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। भगवान को आते देख राजा श्रेयांस को पूर्व भव का स्मरण हो जाने से राजा सोमप्रभ के साथ श्रेयांसकुमार ने विधिवत् पड़गाहन आदि करके नवधाभक्ति से भगवान को इक्षुरस का आहार दिया। वह दिन वैशाख शुक्ला तृतीया का था जो आज भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से प्रसिद्ध है।

केवलज्ञान कल्याणक

भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-

हजार वर्ष तपश्चरण करते हुए भगवान को पुरिमतालपुर के उद्यान में-प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे ही फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्रकट हो गया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से

१.सप्तऋद्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन२. कल्पवासी देवियाँ
३. आर्यिकायें और श्राविकायें४. भवनवासी देवियाँ
५. व्यन्तर देवियाँ६. ज्योतिष्क देवियाँ
७. भवनवासी देव८. व्यन्तरदेव
९. ज्योतिष्क देव१०. कल्पवासी देव
११. मनुष्य और१२. तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे।

पुरिमतालनगर के राजा, श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र ऋषभसेन भगवान के प्रथम गणधर हुए।

ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गयीं। भगवान के समवसरण में ८४गणधर, ८४००० मुनि, ३५०००० आर्यिकायें, ३००००० श्रावक, ५००००० श्राविकायें, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच उपदेश सुनते थे।

मोक्ष कल्याणक

ऋषभदेव का निर्वाण-

जब भगवान की आयु चौदह दिन शेष रही तब वैâलाश पर्वत पर जाकर योगों का निरोध कर माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान पूर्व दिशा की ओर मुख करके अनेक मुनियों के साथ सर्व कर्मों का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये। उसी क्षण इन्द्रों ने आकर भगवान का निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया था, ऐसे ऋषभदेव जिनेन्द्र सदैव हमारी रक्षा करें।

भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल प्रवेश करता है।

प्रथम तीर्थंकर का तृतीय काल में ही जन्म लेकर मोक्ष भी चले जाना यह हुंडावसर्पिणी काल के दोष का प्रभाव है।

महापुराण में भगवान ऋषभदेव के ‘दशावतार’ नाम भी प्रसिद्ध हैं।

१. विद्याधर राजा महाबल२. ललितांग देव
३. राजा वङ्काजंघ४. भोगभूमिज आर्य
५.श्रीधर देव६. राजा सुविधि
७. अच्युतेन्द्र८. वङ्कानाभि चक्रवर्ती
९. सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र१०. भगवान ऋषभदेव।

इन भगवान को ऋषभदेव, वृषभदेव, आदिनाथ, पुरुदेव और आदिब्रह्मा भी कहते हैं।

भगवान ऋषभदेव का समवसरण-

समवसरण की आठ भूमियाँ

आठ भूमियाँ समवसरण में-१. चैत्यप्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लताभूमि ४. उपवनभूमि ५. ध्वजाभूमि ६. कल्पभूमि ७. भवनभूमि ८. श्रीमंडपभूमि ये आठ भूमियाँ मानी हैं।

चैत्यप्रासादभूमि

धूलिसाल के अभ्यंतर भाग में चारों तरफ से वेष्टित ऐसी प्रथम चैत्यप्रासादभूमि है। इसमें एक-एक जिनमंदिर ऊँचे-ऊँचे बने थे और एक-एक मंदिर के अन्तराल में पाँच-पाँच प्रासाद बने थे। ये नाना प्रकार के उद्यान, बावड़ी, कूप आदि से मनोहर थे। इन जिनमंदिरों की और देवप्रासादों की ऊँचाई तीर्थंकर ऋषभदेव की ऊँचाई से बारहगुनी मानी है।

नाट्यशालाएँ-इस प्रथमभूमि में चारों तरफ गलियों में दोनों पार्श्वभागों में सुवर्ण-रत्नों से निर्मित दो-दो नाट्यशालाएँ बनी रहती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में बत्तीस रंगभूमियाँ हैं और एक-एक रंगभूमि में बत्तीस-बत्तीस भवनवासिनी देवांगनाएँ तीर्थंकरों के विजयगीत गाती हुई नृत्य करती रहती हैं और पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधि से युक्त दो-दो धूपघट रहते हैं।

मानस्तंभ-प्रथम पृथिवी के बहुमध्यभाग में चारों गलियों के बीचों-बीच मानस्तंभ भूमियाँ हैं। इन मानस्तंभ भूमि के चारों तरफ गोपुर द्वारों से सहित परकोटा है। इसके मध्य वनखंड हैं। इनके मध्य पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से ‘सोम, यम, वरुण और कुबेर’ इन लोकपालों से सुंदर क्रीड़ानगर बने रहते हैं। इसके अभ्यंतर भाग में ‘कोट’ है उसके आगे वन वापिकाएँ हैं जिनमें कमल खिले रहते हैं। उनके बीच में अपनी-अपनी दिशा और विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़नपुर बने रहते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुरों से सहित तीसरा ‘कोट’ है। आगे पढ़िए……

वर्तमान में कहाँ कहाँ प्रतिमाएँ है –

अयोध्या में विराजमान भगवान ऋषभदेव

ग्रंथ –

भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार भारत यात्रा पढ़ें

जैनधर्म एवं भगवान ऋषभदेव पढ़ें

भगवान ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव पढ़ें

श्री ऋषभदेव तीर्थ स्तुति संग्रह

श्री ऋषभदेव के पुत्र भरत से भारत

कमल मंदिर, दिल्ली के अतिशयकारी भगवान ऋषभदेव (स्तुति संग्रह एवं पूजा)

तीर्थंकर श्री ऋषभदेव चरितम्

सर्वसंकटहर श्रीऋषभदेव स्तोत्र- पढ़ें

ऋषभदेव : एक परिशीलन

बाहरी कड़ियाँ –

तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ प्रयाग का परिचय

तीर्थंकर ऋषभदेव की निर्वाणभूमि कैलाशपर्वत का परिचय

श्री ऋषभदेव के चौरासी गणधर के नाम

विधान –

श्री ऋषभदेव विधान (वृहद्)

श्री ऋषभदेव विधान (लघु) पढ़ें

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व्रत-

श्री ऋषभदेव व्रत पढ़ें

भजन –

भगवान ऋषभदेव से सम्बन्धित भजन

चालीसा –

भगवान ऋषभदेव चालीसा

ऋषभदेव चालीसा

भगवान ऋषभदेव दीक्षा ,केवलज्ञान भूमि प्रयाग तीर्थक्षेत्र चालीसा

भगवान ऋषभदेव निर्वाणभूमि कैलाशगिरी सिद्धक्षेत्र चालीसा

वंदना –

भगवान ऋषभदेव वन्दना

श्री ऋषभदेव स्तोत्र

श्री ऋषभदेव स्तुति:

श्री ऋषभदेव स्तुति

ऋषभदेव-भरत-बाहुबली स्तुति

ऋषभदेव की कथा (काव्य कथानक)

तीर्थंकर ऋषभदेव के दश अवतार

आरती-

ऋषभदेव आरती

पूजाएँ –

ऋषभदेव पूजा

नाटक –

ऋषभदेव नृत्य नाटिका

ऋषभदेव तीर्थंकर (नाटिका)

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