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भगवान मल्लिनाथ वन्दना

June 3, 2020कविताएँIndu Jain

श्री मल्लिनाथ वन्दना



नरेन्द्र छंद

तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ ने, निज पद प्राप्त किया है।
काम मोह यम मल्ल जीतकर, सार्थक नाम किया है।।
कर्म मल्ल विजिगीषु मुनीश्वर, प्रभु को मन में ध्याते।
हम वंदे नित भक्ति भाव से, सब दु:ख दोष नशाते।।१।।

शेरछंद

जय जय श्री जिनदेव देव देव हमारे।
जय जय प्रभो! तुम सेव करें सुरपति सारे।।
जय जय अनंत सौख्य के भंडार आप हो।
जय जय समोसरण के सर्वस्व आप हो।।२।।
 
मुनिवर विशाख आदि अट्ठाईस गणधरा।
चालिस हजार साधु थे व्रतशील गुणधरा।।
श्रीबंधुषेणा गणिनी आर्या प्रधान थीं।
पचपन हजार आर्यिकाएँ गुण निधान थीं।।३।।
 
श्रावक थे एक लाख तीन लाख श्राविका।
तिर्यंच थे संख्यात देव थे असंख्यका।।
तनु धनु पचीस आयू पचपन सहस बरस।
है चिन्ह कलश देह वर्ण स्वर्ण के सदृश।।४।।
 
जो भव्य भक्ति से तुम्हें निज शीश नावते।
वे शिरो रोग नाश स्मृति शक्ति पावते।।
जो एकटक हो नेत्र से प्रभु आप को निरखें।
उन मोतिबिन्दु आदि नेत्र व्याधियाँ नशें।।५।।
 
जो कान से अति प्रीति से तुम वाणि को सुनें।
उनके समस्त कर्ण रोग भागते क्षण में।।
जो मुख से आपकी सदैव संस्तुती करें।
मुख दंत जिह्वा तालु रोग शीघ्र परिहरें।।६।।
 
जो कंठ में प्रभु आपकी गुणमाल पहनते।
उनके समस्त कंठ ग्रीवा रोग विनशते।।
श्वासोच्छ्वास से जो आप मंत्र को जपते।
सब श्वास नासिकादि रोग उनके विनशते।।७।।
 
जो निज हृदय कमल में आप ध्यान करे हैं।
वे सर्व हृदय रोग आदि क्षण में हरे हैं।।
जो नाभिकमल में तुम्हें नित धारते मुदा।
नश जाती उनकी सर्व उदर व्याधियाँ व्यथा।।८।।
 
जो पैर से जिनगृह में आके नृत्य करे हैं।
वे घुटने पैर रोग सर्व नष्ट करे हैं।।
पंचांग जो प्रणाम करें आपको सदा।
उनके समस्त देह रोग क्षण में हों विदा।।९।।
 
जो मन में आपके गुणों का स्मरण करें।
वे मानसिक व्यथा समस्त ही हरण करें।।
ये तो कुछेक फल प्रभो! तुम भक्ति किये से।
फल तो अचिन्त्य है न कोई कह सके उसे।।१०।।
 
तुम भक्ति अकेली समस्त कर्म हर सके।
तुम भक्ति अकेली अनंत गुण भी भर सके।।
तुम भक्ति भक्त को स्वयं भगवान बनाती।
फिर कौन-सी वो वस्तु जिसे ये न दिलाती।।११।।
 
अतएव नाथ! आप चरण की शरण लिया।
संपूर्ण व्यथा मेट दीजिए अरज किया।।
अन्यत्र नहीं जाऊँगा मैंने परण किया।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये यहँ पे धरण दिया।।१२।।

दोहा

जो पूजें नित भक्ति से, मल्लिनाथ जिनराज ।
अनुक्रम से शिव संपदा, लहें स्वात्म साम्राज।।१३।।
 
Tags: Jain Poetries
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